चैतन्य लहरी हिन्दी नवम्बर-दिसंबर २०१३ ० म नर ६ हं आपको कि्सी प्रकार का अधिकार जमाने वाला व्यक्तित्व या आक्रमक व्यक्ति नहीं होना चाहिये। प.पू.श्रीमाताजी, २०००, दिल्ली कर इस अंक में परमात्मा की खोज ...५ विवाह से पूर्व हमारा ढंग ...१८ सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे ... २१ अबोधिता और पवित्रता ... २६ परमात्मा की खोज मुंबई, ४ मई १९८३ परमात्मा को खोजने वाले सभी साधकों को मेरा प्रणाम ! मनुष्य यह नहीं जानता है कि वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ परमात्मा को ही खोजता है। अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौड़ता है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति और मान-सम्पदा पाने के लिए संसार में कार्य करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बनकर संसार में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को ही खोजता है। लेकिन परमात्मा को खोजने का रास्ता ज़रा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वस्तुमात्र जो है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते। उन पैसों की विवंचनायें, अधिक पैसा होने के कारण बुरी आदतें लग जाना, बच्चों का व्यर्थ जाना आदि 'अनेक' अनर्थ हो जाते हैं। जिससे सोचता है कि 'ये पैसा मनुष्य मैंने किसलिये कमाया? यह मैंने वस्तुमात्र किसलिये ली?' जिस वक्त यहाँ से जाना होता है तो मनुष्य हाथ फैलाकर चला जाता है। लेकिन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा लेते हैं, जब आप आत्मा पा लेते हैं और जब आप का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है। परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर चीज़ को देखती है। जैसे कि आज यहाँ बड़ा सुन्दर वातावरण है, और सब तरफ से वृक्ष हैं। ये सब आप देख रहे हैं। जब आपने परमात्मा को पाया नहीं, तब आप यह सोचते हैं कि, 'अगर ऐसे वृक्ष मैं भी लगा लूं तो कैसा रहेगा? मेरे घर में ऐसे वृक्ष होने चाहिए। मेरे पास ऐसा आंगन होना चाहिए। ऐसे प्रांगण में, मैं ही बैठूं और मैं ही उठूं।' फिर वह मिलने के बाद वह दूसरी बात सोचने लगते हैं कि यह चीज़ लें, वह चीज़ लें। इस तरह से जो यह पाया हुआ है इसका भी आनन्द नहीं उठाते। आज यह हुआ कि हमने एक मोटर खरीद ली, उसके बाद मोटर के लिए भी हाय तोबा करके वह किसी तरह से प्राप्त की। उसके बाद हमें चाहिए कि अब एक बड़ा मकान बना लें और वह भी बनाने के बाद में हाय तोबा हुई तो फिर और चाहें और कुछ कर लें। इस तरह से चीज़ आपने पाई थी। वास्तविक, जिसके लिए आपने इतनी परेशानी उठाई थी, उसका आनन्द तो इतना भी आपने प्राप्त नहीं किया और लगे दूसरी जगह दौड़ने। जब तक वह मिली नहीं तब तक हवस रही; और जैसे ही वह चीज़ मिल गयी, वो खत्म हो गयी। लेकिन परमात्मा को पाने के बाद में ये सारी जो सृष्टि है, ये बनाने में परमात्मा ने जो कुछ भी आनन्द है, बारीक -सारीक की सृष्टि की हुई है, उस कलाकार ने जो कुछ इसमें रचा हुआ सब कुछ, वो सारा का सारा आनन्द अन्दर झरने लग जाता है। जो चीज़ आज ऐसी लगती है कि मिलनी चाहिए-और मिलने पर फिर व्यर्थ हो जाती है, वही चीज़ अपने अर्थ में खड़ी हो जाती है। अगर और कोई वस्तुमात्र आपने ली, उसका आनन्द ही जब आप उठा नहीं सकते हैं, तो उसको पाने की इच्छा करना भी तो बेकार ही है । जब उस चीज़ का आनन्द एक क्षण भी नहीं आप उठा सकते तो उस चीज़ के लिए इतनी ज़्यादा आफ़त मचाने की क्या जरूरत है? वस्तुमात्र में भी-कोई वस्तु को आपने, समझ लीजिये चाहा कि मैं इसे खरीद लूं। आपका मन किया कि इसे हम खरीद लें, कोई अच्छी सी चीज़ दिखाई दी। जैसे औरतों को है कि कोई जेवर खरीद लें। अब खरीदने के बाद उसका सर दर्द हो गया। इसको बीमा कराओ कि इसे चोर न ले जायें, तो इसे पहनो मत, तो बैंक में रखो, अब यह परेशानी एक बनी रही। और इसका आनन्द तो उठा ही नहीं सके। और जब 6. परमात्मा की खोज भी पहने, तो जो देखे वह ही जल जाए इससे। माने उसकी आनन्द की जो स्थिति है वह तो एकदम खत्म हो | चुकी और बचा उसका जो कुछ भी नीरसता का अनुभव है, वह गढ़ता है और दुःखदायी होता है। उसी की जगह जब आप परमात्मा को प्राप्त करते हैं और आप कोई चीज़ खरीदते हैं तो यही सोचते हैं कि इसको मैं किसे दें। ये किसके लिए सुखदायी होगी। इसका शौक किसको आया । क्योंकि अपने तो सब शौक पूरे हो गये। शौक एक ही बच जाता है कि किसे क्या दें। फिर खयाल बनता है कि देखो, उस दिन उन्होंने कहा था कि हमारे पास ये चीज़ नहीं है। तो आपने वह चीज़ उन्हें ले जाकर दे दी। इसलिये नहीं कि आप कोई बड़ा उपकार करते हैं। दे दी, बस! जैसे पेड़ है, कोई उपकार करता थोड़े ही है, अपने को कहता है उसमें फल आ गये, वह फल दे देता है। इसी प्रकार आपने जाकर के वह चीज़ किसी को दे दी। अब देखिये उसमें आपके प्रेम की जो भावना आ गयी, आपने अपनी आत्मा से जो चीज़़ उनको दे दी, उनका खयाल करके। 'छोटी सी' भी चीज़। जैसे शबरी के बेर! श्रीरामचन्द्रजी ने इतने प्रेम से खाये। और उसके बाद उसकी इतनी प्रशंसा की, सीता जी को भी, तो लक्ष्मण जी नाराज हो रहे थे | सीता जी ने कहा, 'देवरजी, आप जरा चख कर तो भाभी पर विश्वास करके उन्होंने एक बेर खाया, कहने लगे, | देखिये। ऐसे बेर मैंने जिन्दगी में नहीं खाये। तो 'ये तो स्वर्गीय है!' उस शबरी के बेर में इतना आनन्द इसलिये आया कि नितान्त प्रेम से उसने वह बेर अपने दाँत से तोड़ के, देख कर के, बिल्कुल 'अबोध' तरीके से उसने परमात्मा के चरणों में रखा। उसी प्रकार हो जाता है। तो जो वस्तुमात्र से जो तकलीफें होती हैं वह खत्म हो जाती हैं। सारी दृष्टि ही बदल जाती है और समझ लीजिये अगर किसी और की वस्तु है तब तो बहुत ही अच्छा है। माने उसका सरदर्द तो है नहीं, मज़ा आप उठा रहे हैं। जैसे समझ लीजिए एक बड़ा बढ़िया कालीन किसी के यहाँ बिछा हुआ है। अपना है नहीं भगवान की कृपा से, दूसरे का है। उस वक्त आप अगर उस कालीन की ओर देखते हैं तो आप ये नहीं सोचते कि इसने कहाँ से खरीदा, कौन से बाजार से? उस वक्त एक तान हो कर उसे देखते हैं, और अगर आपको परमात्मा का साक्षात्कार हो चुका है, तो आपके अन्दर कोई विचार ही नहीं आएगा उसके बारे में। आप कोई विचार ही नहीं करेंगे कि ये कितने पैसे का खरीदा, कुछ नहीं। जो उसमें आनन्द है, पूरा का पूरा, तो जिस कलाकार ने उसे बनाया है, उसका पूरा का पूरा आप आनन्द उठा रहे हैं और जिसका है वह सरदर्द लिए बैठा है कि इस पर कोई चल न जाए नहीं तो खराब हो जाएगा। और अपनी नज़र से तो आप उसका पूरा का पूरा आनन्द, स्वाद ले रहे हैं क्योंकि आपका उसके साथ कोई सम्बन्ध ही बना नहीं है, आप दूर ही से उसे देख रहे हैं। और दूर ही के दर्शन सुन्दर होते हैं। जब आप दूर हटकर उस चीज़ को देखते हैं, तभी पूरी की पूरी चीज़ आपके अन्दर उतर सकती है। बहुत से लोगों का यह कहना कि, 'माँ, इस देश में परमात्मा की बात बहुत की जाती है, लेकिन यहाँ लोग गरीब क्यों हैं?' अमीरी की वजह से इन देशों का जो हाल हुआ है कि इसलिए मैं कहती हूैं, भगवान, करे थोड़े दिन और हम लोग गरीब बने रहें। न तो बच्चों का पता है न घर का पता है न बीवी का पता है न पति का पता है, न कोई प्रेम का पता है। जब जिन देशों में बच्चों को लेकर के मार दिया जाता है, पैदा होते 7 ही। इतनी दुष्टता वहाँ पर होती है, इतनी महादुष्टता वहाँ लोग करते हैं कि जिसकी कोई इन्तहा नहीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि इस मर्यादा-रहित दुष्टता के आप भागीदार हैं। अभी एक साहब से वार्तालाप हुआ, तो उन्होंने कहा कि, परदेस में लोग कम से कम ईमानदार हैं। मैंने कहा, ईमानदार तो औरंगजेब भी था। अपनी टोपियाँ सिल-सिल कर के बेचता था और सरकार से उसने एक पैसा नहीं लिया। लेकिन लेता तो अच्छा रहता कुछ। कम से कम इतने ब्राह्मणों को मारता न। हिटलर भी बड़ा ईमानदार आदमी था। एक पैसा जो था वह अपने सरकारी खजाने से नहीं निकालता था। लेकिन उसकी ईमानदारी का क्या फायदा? इतनी दुष्टता उसमें आ गयी, मानो इन्सान में अगर कोई चीज़ बहुत ज़्यादा आ जाती है, तो वह दूसरी तरफ़ एक दूसरा ही आकार ले लेती है। अगर वह ईमानदारी को, उसने सोचा कि देश जो है मेरा बहुत बड़ा है तो उसमें ईमानदारी से रहना है, तब ये गुण बड़ा अच्छा है। पर उसके कारण अगर आपके अन्दर कोई गन्दी बात घुस जाये तो अच्छा है कि आप खुद सन्तुलित रहें। अब बहुत से लोग अपने को बड़े सत्ताधीश समझते हैं। सत्ता के लिए दौड़ते हैं। सत्ता के लिए दौड़-दौड़ कर कोई सुखी नहीं हुआ। एक तो यह कि किस वक्त उतर जायें, पता नही। किस वक्त इन को शह मिले और किस वक्त उतर जायें सत्ता से, किसी को पता नहीं। आज ताज है और कल कॉटे लग जायें। इस सत्ता का कोई ठिकाना नहीं और उस सत्ता से आप कुछ अपना भी और दूसरों का भी खास लाभ नहीं कर सकते। पर जो परमात्मा की सत्ता पर बैठा है, जिसमें परमात्मा की सत्ता है, जिसके अन्दर परमात्मा बोलता है, जिसके अन्दर परमात्मा की शक्ति बहती है, वो आदमी असल में बादशाह है, सत्ताधीश है। बादशाहत है उसके पास । वह रिश्वत काहे को लेने चला ? बादशाह कोई रिश्वत लेता है क्या? वह क्यों बेईमानी करने चला? बादशाह है। उस को अगर आप ज़मीन पर सुला दीजिये तो भी बादशाह है, उसको महलों में रखें तो भी बादशाह है। उसको भूखा रहना पड़े तो भी वह बादशाह है, वह कोई चीज़ की माँग नहीं करता। वो ही बादशाहत में होता है, जिसको किसी भी चीज़ की माँग नहीं है, किसी चीज़ की जरूरत नहीं है । वह ही असल बादशाह है, बाकी ये तो नकली है बादशाह। जो कि बादशाहत थोड़ी बहुत मिलने के बाद 'यह चाहिए, वह चाहिए, वह चाहिए' माने 8. परमात्मा की खोज आपकी बादशाहत क्या है? अन्दर की, जिसके अन्दर बादशाहत जागृत हो गयी , वो हर हालत में रह सकता है। हर परिस्थिति में रह सकता है, हर दशा में रह सकता है और कोई दुनिया की चीज़ नहीं जो उसे झुका दे। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस भारतवर्ष में तो अनेक हो ही गये और बाहर भी बहुत से हो गये। क्योंकि वो अपनी बादशाहत में सन्तुष्ट हैं, उसकी सत्ता जो है 'स्थायी' सत्ता है। इस तरह की क्षण- भंगुर नहीं कि जो क्षण में यहाँ पर तो बड़े बने बैठे हैं और उसके बाद पड़ गये जमीन पर। जैसे ध्रुव का तारा टिक गया है, ऐसे ही परमात्मा को पाया हुआ मनुष्य टिका रहता है। उसको भय नाम की चीज़ मालूम नहीं, उसको लालसा नाम की चीज़ मालूम नहीं। ऐसा मनुष्य जब इस देश में तैयार होगा तो हम लोगों को कोई भी ऊपर से कायदे कानून चलेगा ही नहीं। क्योंकि कायदे भी कहाँ से आये हैं? कायदे भी परमात्मा ही के सृजन किये हुए अपने अन्दर आये हुए हैं। उसका जितना भी विपर्यास हुआ, जो मनुष्यों ने कर दिया है, वह भी बदल जाएगा। पर उस लादने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप वह मस्ती में रहेगा। वह बेकायदा मानव को तैयार करना होगा जिसने परमात्मा को पाया है। ऐसे मानव जब तक तैयार नहीं होंगे वे लड़खड़ाते ही रहेंगे। पहले जबकि उनको किसी भी बड़े भारी चुनाव में जाना पड़ता है, तो चुनाव में आकर कहेंगे कि, 'साहब हम तो गरीबों के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, ऐसा करेंगे, दुनियाभर के सारे आश्वासन होंगे। और जब वह सत्ताधीश हो जाएंगे तो, 'साहब हमको यह चाहिये, हमको वह चाहिए। और हम तो सबसे बड़े गरीब हो गये।' क्योंकि गरीबों के लिए करने की कोई जरूरत ही दिखाई नहीं देती है। उनसे भी ज़्यादा गरीब ये हो जाने की वजह से वह सब अपने लिए ही सरदर्द। लेकिन जिसने परमात्मा को एक बार पा लिया, वो कोई चीज़ की माँग नहीं करता। वह कभी माँगता ही नहीं है, वह कोई भिखारी कभी नहीं हो सकता। मैंने कहा, "वह बादशाह हो जाता है।' ये बादशाहत अपने अन्दर हमको स्थापित करनी है। अब कोई लोग कहते हैं। कि, 'साहब, हिन्दुस्तान में इतनी चोरी-चकारी और ये सब चलीं। इसका इलाज क्या है?' इसका इलाज बहुत सीधा है! आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें। क्योंकि अभी अन्धेरे में हैं, अज्ञान में हैं, इसलिए ऐसी रद्दी चीज़ों के पीछे भागते हैं। इसमें रखा क्या है? यह तो सब यहीं छोड़ के जाने का है। एक छोटीसी चीज़ जो रोज देख रहे हैं वह ही भूल जाते हैं। किसी के मय्यत पे चले गये, वहाँ से आए और उसके बाद लगे रिश्वत लेने। 'अरे, अभी मय्यत देखकर आ रहे हो, रिश्वत क्या ले रहे हो? अभी देखा नहीं वह चला गया वैसे के वैसे! उसी तरह से आप भी जाने वाले हैं।' लेकिन यह कहने से नहीं होने वाला, यह सिर्फ आत्मसाक्षात्कार होने के बाद में घटित होता है। उसके बाद में आदमी छनता है और उस के अन्दर की यह जो छोटी-छोटी क्षुद्र बातें फट से निकल जाती हैं । अब उसके बाद कुछ लोग ऐसे हैं कि जो सोचते हैं कि हमारे बच्चों के लिए यह करना चाहिए, हमारी बीवी, हमारा बच्चा, हमारा यह, हमारा वह। इस ममत्व के चक्कर के सबने थपड़ खाए हुए हैं, कोई एक ने नहीं खाए । जब बच्चे बडे हो जाते हैं तो ऐसे आदमी को अच्छा थपड़ देते हैं । लोग रोज देखते हैं, रोजमरा देखते हैं। आपको तो मालूम है वाल्मिकी की कथा, मुझे फिर से बताने की जरूरत नहीं। पर जो तथ्य है उससे आप बहुत ज़्यादा हैं। क्योंकि बच्चे बहुत ज़्यादा बेशम्मी से भौतिक हो गए हैं। सब देश में ही लोग इस तरह से हो गए हैं। वो बात ही पैसे की करते हैं। वह बोलते ही हैं कि हमारी कीमत इतने हजार रुपये, हमारी कीमत..... | सबने अपनी कीमत लगा ली है। ऐसी हालत में इन लोगों का चित्त इस बेकार की चीज़ से कैसे हटाना चाहिए? उसका हटाने का भी वही में मार्ग है, जैसे मैंने कहा कि आत्मा के प्रकाश ही मनुष्य देख सकता है कि कितनी क्षुद्र वस्तु है। जैसे समझ लीजिए अन्धेरे में कोई चीज़ चमक रही है, तो उन्होंने सोचा कि, 'साहब बढ़िया कोई चीज़ चमक रही है, कोई हीरा- वीरा होगा।' लगे उसके पीछे दौड़ने! और वो हीरा इधर से उधर भाग रहा है। तो उसके बाद में प्रकाश आ गया, देखा यह जुगनू था, जुगनू के पीछे हम लोग परेशान रहे। ये तो जुगनू था। इस के लिये क्यों इतनी परेशानी उठानी! इसलिये ये प्रकाश हमारे अन्दर आना जरूरी है। से अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम बहुत धर्मात्मा हैं। ऐसे भी बहुत लोग हैं, वह कहते हैं कि, 'हम तो बड़े धर्मात्मा हैं। हम बड़े धार्मिक कार्य करते हैं, हमने इतने हॉस्पिटल बना दिये, हमने इतने स्कूल बना दिये, ये बना दिये, वो बना दिये।' ऐसे भी कामों से आज तक किसी ने तृप्ति तो पायी मैंने देखी नहीं । किसी को मैंे तृप्त देखा नहीं, शान्त देखा नहीं । इससे प्रेममय देखा नहीं, उसके अन्दर कोई सौन्दर्य भी देखा नहीं। क्योंकि ये जो आप काम कर रहे हैं, परमात्मा से सम्बन्ध किये बगैर, योग के बगैर, आपके अन्दर एक संस्था तैयार हो रही है, जिसे हम 'अहंकार' कहते हैं। अहंकार नाम है उसका। वो अहंकार हमारे अन्दर जमते जाता है और कभी-कभी तो वो अहंकार ऐसा हो जाता है कि मानो जैसा कोई बड़ा भारी सर पर एक अहंकार का 'जहाज़' बना हुआ है। इस अहंकार के सहारे हम चलते रहते हैं और इस अहंकार से हम बड़े सुखी होते हैं कि कोई अगर हम से कहे कि 'भई, आप बड़े धर्मात्मा हैं, इन्होंने बड़ी संसार की सेवा करी और इन्होंने ये दिया और वो किया । लेकिन इसमें कोई सत्य तो है नहीं। क्योंकि सेवा भी किसकी करने की है? जब परमात्मा का आशीर्वाद मिल जाता है तो चराचर सारी सृष्टि में फैली हुई परमेश्वरी शक्ति पर आप का हाथ आ जाता है। आप यहीं बैठे-बैठे सबकी सेवा कर रहे हैं, अगर सेवा उसका नाम हो तो! लेकिन जब वही आपके अन्दर से बह रही हो और जब आप उनसे ही एकाकार हो गये तो आप किस किसकी सेवा कर रहे हैं? अगर ये हाथ मेरा दुख रहा है तो इस हाथ को अगर मैं रगड़ रही हूँ तो क्या मैं इसकी सेवा कर रही हूँ? इस तरह का झूठा अहंकार मनुष्य के मन में फिर जागृत नहीं होता। और अहंकार मनुष्य को महामूर्ख बना देता है। ये 'पहली देन' है अहंकार की, कि अहंकार से मनुष्य महामूर्ख, जिसको अंग्रेजी में स्टुपिड कहते हैं, वो हो जाता है । और 10 परमात्मा की खोज उसके एक-एक अनुभव मैं देखती हूँ तो मुझे आश्चर्य लगता है कि इनका कब अहंकार उतरेगा और ये देखेंगे अपने को शीशे में। जैसे नारद जी ने एक बार देखा था अपने को तालाब में, कि कितने बड़े अहंकार से आप 'बिलकुल' अन्धकार में पड़े हुए हैं। अब इससे आगे कुछ लोग इस तरह के हैं कि जो कहते हैं कि 'हम बड़े भक्ति करते हैं और हम खूब भगवान को मानते हैं।' ज़्यादातर लोग भगवान के पास इसलिये जाते हैं, 'मुझे पास करा दो, मुझे नौकरी दे दो, मुझे ये कर दो।' ये ऐसे कहने से कुछ भी नहीं होने वाला। क्योंकि कृष्ण ने कहा है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहं' पहले योग को प्राप्त करो और फिर क्षेम वो बना देते हैं। जैसे इनके पास मिलने के लिए सुदामा जी गये थे। पहले उनसे योग घटित हुआ। ये कहानी बड़ी मार्मिक है। जब उन का योग श्रीकृष्ण से घटित हुआ, 'उसके बाद' उन का क्षेम हुआ। जब तक उनका योग घटित नहीं हुआ था तब तक उनका क्षेम नहीं हुआ था। इसलिये जब तक आपका योग घटित नहीं होगा आपका क्षेम हो ही नहीं सकता है। कभी-कभी तातकालीय न्याय से हो भी जाए-थोड़ा बहुत इधर -उधर, तो भी वह मानना नहीं चाहिए कि आपने पाया है। पर बिल्कुल पूरी तरह से आपका क्षेम तभी घटित हो सकता है जब आप योग को प्राप्त करें। और 'इस योग को प्राप्त करना ही आपकी एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी आपकी इच्छायें हैं, मैंने बता दिया, वे सब बेकार हैं, और उनको प्राप्त करने से आप कभी भी सुखी भी नहीं हो सकते, आनन्द की तो बात छोड़ ही दीजिए । तो और एक तरह के लोग दुनिया में होते हैं, कि जो सोचते हैं कि, 'बड़ा हमने त्याग कर दिया। हम बड़ा कष्ट सहन करेंगे।' जैसे बहुत से लोग होते हैं, सोचते हैं भगवान के लिए उपवास करो। भगवान के लिए अपने शरीर पर छुरी चलाओ| भगवान के लिए जितनी भी घृणित चीज़ें हैं, उन्हें अपने शरीर पर करो। ऐसे पागल लोगों को भी बताना चाहिए कि ये शरीर परमात्मा ने बड़ी मेहनत से बनाया है। एक छोटे से अमीबा से आपको इन्सान बनाया है बड़ी मेहनत करके; किसी वजह से। और आप को पाना क्या है ? किसलिये बनाया परमात्मा ने? आपने तो अपने को कुछ भी नहीं बनाया। जो बनाया है उसी की जीवन्त शक्ति ने बनाया है। वह क्यों बनाया है आपको? कि आप एक दिन परमात्मा के साम्राज्य में आयें उसमें पदार्पण करें, आपका स्वागत हो। इसलिये उन्होंने आपको ये सुन्दर स्वरूप दिया हुआ है। इसलिये नहीं दिया है कि आप इधर - उधर भटकते रहें। लेकिन उधर दृष्टि हमारी नहीं है नं ! हम लोग यही सोचते हैं कि अगर माताजी के आत्मसाक्षात्कार की तरफ़ हम मुड़ें तो भई फिर क्या होगा! हम सन्यासी हो जाएंगे। 'सहजयोग तो सन्यास के महाविरोध में है। 'महाविरोध' ! अगर कोई सन्यासी आ जाए तो हम उससे कहते हैं कि जाकर कपड़े बदल कर आओ। सहजयोग सामान्य लोगों के लिए, जो गृहस्थी में रहते हैं, उनके लिए है। गृहस्थी बड़ा भारी महायज्ञ है, उस महायज्ञ में जो गुज़रा है वही सहजयोग में आता है, सन्यासियों में हमारा विश्वास बिल्कुल नहीं है। क्योंकि ये कपड़े पहनकर के आप किसको जता रहे हैं? जो सन्यासी होता है वह तो सन्यासी है अन्दर से, वह क्या बाह्य में अपने ऊपर में कुछ बोर्ड लगा कर नहीं घूमता है कि 'मैं सन्यासी हूँ'। ये झूठे नाम के बोर्ड लगाने की क्या जरूरत है? और गलतफ़हमी में अपने को रखना, अपने ही को आप 11 धोका कर रहे हैं। तो दूसरों को करेंगे ही । जिसने अपने ही को धोखा दिया है वह दूसरों को भी धोखा ही देगा । तो इस प्रकार के भी विचार के कुछ लोग होते हैं कि जो अपने शरीर को दुःख देना और दुनियाभर के दुःख सहना और परेशानी उठाना-इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है यहूदी लोग। अपने यहाँ भी ऐसे बहुत सारे हैं जो उपवास, तपास और दुनिया भर की आफ़तें करके, सिवाए बीमारी के और कुछ नहीं उठाते। पर ज्यू (यहूदी) लोगों ने ये कहा कि हम ईसा मसीह को नहीं मानते हैं क्योंकि यह कहता है कि, 'मैं तुम्हारे सारे पापों को खींच लँगा अपने अन्दर| और सही बात है। जब उनकी जागृति हो जाती है हमारे आज्ञा चक्र पर, तो वह खींच लेते हैं। लेकिन हम ईसा मसीह को नहीं मानेंगे क्योंकि वह ज्यू थे। इसलिये ज्यू लोग उनको नहीं मान सकते। और चाहे कोई माने तो माने। और इसलिए उन्होंने कहा, कि हम तो ये विश्वास करते हैं कि मनुष्य को खूब कष्ट सहन करना चाहिए। खूब कष्ट भोगना चाहिए। वह इतना दु:ख उठाये। दुःख उठाने से ही परमात्मा मिलता है। यह उनका अपना विचार था। यानी यहाँ तक कि कोई सन्त है, उसको कोई द:ख दे रहा है तो वे कहते हैं कि ठीक ही है, तुमको परमात्मा अच्छे से मिल जाएगा। जितना दुःख ज्ञानेश्वर जी को हमने काफ़ी सताया। रामदास स्वामी को हमने कभी माना हो , झेलो। जैसे नहीं। तुकाराम की तो हालत ही खराब कर दी। और भी जितने भी-नानक साहब हैं, कबीरदास हैं, सबको परेशान किया और यही कहकर कि, 'तुम तो संत हो, तुम तो गुस्सा ही नहीं हो सकते। हम संत नहीं हैं। माने ये कि जैसे सारे गुस्से का ठेका हमने ले रखा है और सारा सहने का ठेका आपने ले रखा है!' और ऐसे जो ज्यू लोग थे, देखिये, उन पर कितनी बड़ी आफ़त आ गयी। भगवान ने एक हिटलर भेज दिया उनके लिए-जाओ इनको सहना है, सहने दो। अब वह उल्टे बैठ गए हैं, वह सब दुनिया को कष्ट देंगे। तो इस तरह की विक्षिप्त कल्पनायें अगर दिमाग में हों, तो भी मनुष्य कभी भी सुख नहीं पा सकता। इस तरह की बड़ी ही ज़्यादा तीव्र भावनायें किसी के प्रति कभी भी नहीं बनानी चाहिए। क्योंकि सभी परमात्मा की संतान हैं। किसी से भी द्वेष बनाना नहीं चाहिए। कोई भी आप प्रश्न उठाइये। जैसे कि कोई कहेगा कि आज हिन्दू धर्म है, तो उसको कोई हाथ भी नहीं लगा सकता, अगर वह धर्म है, तो। पर वह राजनीति नहीं है, वह धर्म है। और धर्म को कोई छू ही नहीं सकता क्योंकि धर्म शाश्वत है। धर्म को कौन छू सकता है? आना-जाना और मरना-जीना तो चलता रहता है, लेकिन धर्म नष्ट नहीं हो सकता। अगर 12 परमात्मा की खोज आप ही धर्म से हो जायें तो धर्म नष्ट हो जाएगा और नहीं तो आपका धर्म कोई नहीं तोड़ सकता। किसी दूर की मजाल नहीं कि आपका धर्म तोड़े। पर धर्म को पहले अपने अन्दर जागृत करना चाहिए | जब तक आपके अन्दर धर्म जागृत नहीं होगा, जो कि आप देख रहे हैं (बोर्ड पर) गोल बना हुआ है, इसके अन्दर आपके दस धर्म हैं, ये धर्म जब आपके अन्दर जागृत हो जाएंगे तो जो धर्म आप नष्ट कर रहे हैं रोज, रोज किसी न किसी वजह से-क्योंकि आपकी बहुत सारी इच्छायें हैं, आपमें लालसायें हैं, वासनायें हैं, बहुत सी आदतें पड़ गयी हैं, इसकी वजह से जो आपके अन्दर का धर्म रोज नष्ट हो रहा है वह जागृत होते ही आप धार्मिक हो जाएंगे| क्योंकि आप दूसरा काम कर ही नहीं सकते। जैसे मैं कभी भी नहीं कहती हैं कि आप शराब मत पीओ। मैं नहीं कहती हैं, क्योंकि कहने से आधे लोग उठ जायेंगे, फायदा क्या ? मैं कहती हैँ : अच्छा पार हो जाओ। माँ के तरीके उल्टे होते हैं न! चलो भई, पहले पार हो जाओ। फिर मैं कहूँगी : अच्छा अब पी कर देखो शराब, पी नहीं सकते, उलटी हो जायेगी। धर्म जब जागृत हो गया अन्दर तो वह फेंक देगा आपकी शराब को। आप पी नहीं सकते। एक साहब ने कोशिश की। उनका तो खून निकल आया। उन्होंने कहा, 'भगवान बचाए रखे में तो जाऊं। और उनको इतनी बदबू आने लग गयी जो कभी उनको शराब में आने लग गयी। कहने लगे, 'अजीब से, सड़े से, उसमें बदबू आ रही बदबू नहीं आती थी, वो उनको बदबू । थी। अब मैंने कहा, इसे सात साल से चढ़ाते रहे पेट में, उसकी नहीं आयी ? कहने लगे पता नहीं मेरी जीभ मरी हुई थी। धर्म इस तरह इतने ज़ोर से आपके अन्दर जागृत हो जाता है कि फिर पाप और पुण्य जो है जैसे नीर व क्षीर विवेक हो जाता है, उस तरह से अलग-अलग हो जाता है और आप जान जाते हैं कि ये मेरे लिए रास नहीं आएगा, यह मेरे माफ़िक नहीं आने वाला। ये मुझे सूट ही नहीं कर सकता, इसकी एलर्जी है मुझको। आप एलर्जिक ही हो जाते हैं। और इसलिये पहले सहजयोग में बताया ही नहीं जाता है कि तुम ये नहीं करो, वो नहीं करो । वह अपने आप करने लग जाते हैं। क्योंकि आपके अन्दर आपका जो 'परम गुरू आत्मा है', शिव स्वरूप आत्मा जागृत हो करके वही आपको समझा देता है कि भई, देखो ये चीज़ चलने वाली नहीं है अब हम से। क्योंकि आप अब आत्मा हो गये इसलिये अब आत्मा बोलेगा। और बाकी जो चीज़ है गौण हो जाती है, और मुख्य हो जाता है, 'आत्मा'। | इस प्रकार हमारी आज तक की संसार की गतिविधियाँ रहीं और मनुष्य इस प्रकार बढ़ता रहा। लेकिन आज समाँ दूसरा है। जैसे कि पहले एक बीज से अंकुर निकला, अंकुर निकलने के बाद पेड़े का तना बना, उसमें से पत्तियाँ, शाखायें सब निकलीं लेकिन ये 'सब' जिस लिए हआ है, वो है इसका 'फल'। तो आज मैं देख रही हूँ मेरे आगे अनेक फूल बैठे हुए हैं। इन फूलों का फल बनाने का काम यही में करती हैँ और कुछ नहीं। और आप सब वह फल हो सकते हैं। तो 'सारे' ही धर्मों ने इसको पुष्ट किया है । सारे ही जितने प्रवर्तक हो गये सब ने इसको पुष्ट किया है। जितने दुनिया के महात्मा हो गये इन्होंने इसे पुष्ट किया है। जितने सन्त, साधु, द्रष्टा हो गये उन्होंने इसे संजोया है और पनपा है। और जितने भी इस संसार के अवतरण हुए हैं, सबने इसमें कार्य किया है। ये कोई एक का कार्य नहीं कि, 'हम साहब फलाँ के पुजारी हैं, हम इनको मानते, उनको नहीं मानते।' ये तो ऐसे हो गया : मैं इस आँख को मानता हूँ, इस आँख को नहीं मानता। ये सारे के सारे आपके शरीर के अन्दर बसे हैं, और इन सबका समग्र जो प्रयत्न है, उस प्रयत्न का फल आपका हुए 13 आत्मसाक्षात्कार है। और वह समाँ आज आ गया है कि इन सब के फलस्वरूप जो इच्छायें थीं इन सब महानुभावों की, वो पूर्ति हों। वह आज का समय है। और यह काम पता नहीं क्यों, मुझे मिला! हालांकि ये काम और कोई कर भी नहीं सकता। ये तो माँ ही कर सकती है। जब पहाड़ों जैसी कुण्डलिनियाँ उठानी पड़ती हैं तब पता चलता है, पसीने छूट जाते हैं। और इसलिए एक माँ पर ये काम आ बैठा है। मैं कोई आपकी गुरू-शुरू नहीं हूँ। न ही मुझे आप से कुछ लेना-देना है। सिर्फ जो मेरा काम है वह मुझे करना है। और आप अगर चाहें तो मैं कर सकती हूँ, पर आप न चाहें तो जबरदस्ती यह काम हो नहीं सकता। अगर आप की इच्छा हो तभी हो सकता है। अगर आपके अन्दर यह शुद्ध इच्छा नहीं हो और यह इच्छा जागृत नहीं हो तो मैं इसे नहीं कर सकती। अब बहुत से लेग तो मुझ से मारा-मारी करने पर आ जाते हैं। लड़ाई करते हैं, झगड़ा करते हैं। ऐसे कैसे हो सकता है। और कुण्डलिनी ऐसे कैसे जागृत हो सकती है। पर होती है तो फिर क्या करें। अगर होती है तो उसे मैं क्या करूं। 'ऐसे कैसे?' मैंने कहा, 'होती जरूर है। इसमें कोई शंका नहीं।' अब अगर इस तरह से आप मुझसे लड़ाई करने पर आमादा रहें कि कैसे होती है, तो मैं आपसे क्या कहूँ? होती है, और जरूर होनी चाहिए। और ये कार्य करने का समय, ये आज की बेला आयी हुई है। इसे शुभ कृतयुग कहते हैं। और इस कृतयुग में कार्य होगा, जिसमें, जितने भी बड़े- बड़े अवतार, महानुभाव द्रष्टा और मुनि, तीर्थंकर आदि जितने लोग हो गये, उन सबके आपको आशीर्वाद हैं। और उनके आशीर्वाद स्वरूप आप यह समग्र आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इसमें कैसे होता है, क्या होता है, ये आप स्वयं जानें और देखें, बजाए इसके कि अपनी बुद्धि के दायरे में रहें। क्योंकि अभी तक धर्म भी एक बुद्धि के ही दायरे में है, हर एक चीज़ बुद्धि के दायरे में है। मैं देखती हूैँ इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लोगों ने लिख मारीं। लेकिन वह कुछ समझते ही नहीं। फायदा क्या हुआ? पसायदान, अभी कोई बता रहा था, उस पर इतनी बड़ी किताब किसी ने लिखी है। मैंने कहा, उनकी तो खोपड़ी खराब हो गयी| वो सारा सहजयोग उन्होंने लिखा है, और क्या लिखा है? सारे सहजयोग का वर्णन है और उसी की उन्होंने भविष्यवाणी की है। अगर आप ठीक से पढ़े तो आपकी समझ में आ जाएगा कि सारा सहजयोग बता गये हैं। अब उस पर क्या आप इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिख रहे हैं? उसमें लिखने का क्या है? वह तो पाने का होता है। और जो यथार्थ है, वह पाया जाता है, उसके बारे में बातचीत नहीं की जाती। 14 परमात्मा की खोज बहरहाल मुझे आशा है आज आपमें बहुत से लोग यहाँ पार हुए बैठे हैं। आप ही जैसे दिखाई देते हैं, आप ही के जैसे। हो सकता है शुरू में बहुत से सहजयोगी उस दशा में न पाए जायें जैसे कि बड़े योगीजन होते हैं। लेकिन उनकी जागृति हो गयी है। और वह योग की तरफ़ वर्द्धमान हो रहे हैं। वो बढ़ रहे हैं। उनको देखकर के आप इसमें से पलायन मत करिये। बहुत से लोग होते हैं कि, 'साहब, मैं गया था, वहाँ एक साहब थे, वह कुछ ऐसा-वैसा कर रहे थे। तो इसका मतलब है आपने उनको देखा और अपने में पलायन कर गये। माने, आप चाहते कुछ है नहीं। आप अपने बारे में सोचिये। जो यहाँ लोग आए हैं, उनमे से हो सकता है, कुछ लोग ऐसे हों कि उनकी जागृती भी न हो। पर बराबर आप अगर नकारात्मक आदमी होंगे तो उसी के पास जाके धमकेंगे और उसी की वजह से आप भाग भी खड़े होंगे । इसलिये यह जानना चाहिए कि सहजयोग को प्राप्त करने के लिए सिर्फ आप में शुद्ध इच्छा होनी चाहिए। और कोई चीज़ की जरूरत नहीं। अगर आपके अन्दर शुद्ध इच्छा हो, जो स्वयं साक्षात् कुण्डलिनी है, वही शुद्ध इच्छा है। और जब यह शुद्ध इच्छा की शक्ति जागृत हो जाती है, तभी कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह शुद्ध इच्छा आप सबके अन्दर है। लेकिन अभी जागृत नहीं है। इसको जागृत करना और सहस्रार में इसका छेदन कराना, यही कार्य करना आज का सहजयोग है। पर इसमें बहुत कुछ आ जाता है। क्योंकि जब आप एक फल को देखते हैं, तो उसमें सभी कुछ दिया हुआ, इस पेड़ का, सारा कुछ उसके अन्दर निहित होता है। अगर आप उसका एक बीज उठा कर देखें तो उसके अन्दर उतने सारे पेड़ बने हुए रहते हैं जो उसमें से निकलने वाले हैं। इस प्रकार सहजयोग अत्यन्त गहन और प्रगाढ़ है, किन्तु अत्यन्त विशाल है। इसमें सभी जितना कुछ परमात्मा का कार्य हुआ है संसार में, वह सारा का सारा निहित है। आशा है कि आप लोग अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करेंगे। एक और अाज के दिन की विशेष बात यह है कि सहस्रार को खोलने का कार्य, जो कि महत्वपूर्ण था, मेरे लिए वही मुख्य कार्य था। मैंने अनेक लोगों की कुण्डलिनीयों को सूक्ष्म रूप से जाना था। और यह सोचती थी कि मनुष्य के क्या क्या दोष और उन दोषों का अगर में सामूहिक तरह से इस कार्य को करना चाहती हूँ, जो कि समय है, सामूहिक का, तो किस प्रकार सारे जो कुछ भी इनके मेलमिलाप हैं, उसको किस तरह से छेड़ा जाए कि एक ही झटके में सब लोग पार हो जायें। और इस पर मैंने बहुत गहन विचार किया था । और उसमें जो कुछ मुझे समझ में मैं आया उस हिसाब से ५ मई के दिन सहस्रार खोला गया, उस हिसाब से। और आज की रात, पूरी रात, समुद्र के किनारे अकेले जागी थी और जागते वक्त पूरे समय में सोच रही थी कि किस तरह से इस सहस्रार का आवरण दूर होगा। और जैसे ही मौका मिला, सवेरे इसलिये भी बहुत शुभ है। के समय ये सहस्रार खोला गया। आज का दिन और दूसरी आज की और भी बड़ी शुभ बात है कि गौरी जी का सप्तमी का दिन है, और उस वक्त भी ऐसा ही था। क्योंकि गौरी जो है, वह कुण्डलिनी है। और वही जो कन्या मानी जाती है, कुमारी है। वह 15 প इसलिये कुमारी है कि अभी उसका योग शिव से नहीं हुआ है। इस लिए वह कुमारी है। और इस शुभ मुहूर्त पर, जब कि वह गौरी स्थान पर है, यह कार्य घटित हुआ। और जब यह कार्य घटित हुआ, उसके बाद मैंने सहजयोग का कार्य करना शुरू किया। और आप जानते हैं आज हज़ारों में लोग पार हो रहे हैं। आज अगर मैं किसी देहात में बोलती होती तो इससे सात गुना लोग बैठे होते। और बैठते ही हैं। शहरों में आना तो समय बर्बाद करना है। क्योंकि लोग वैसे ही पार नहीं होते। होने के बाद मेरा सर चाट जाते हैं। और वह भी मेरा, परेशान कर देते हैं और कोई जमते नहीं । अगर आप सौ आदमियों को पार कराइये, उसमें पचास आदमी तो सर चाटने के लिए आते हैं और पचास आदमी जो बच जाते हैं, उसमें से पच्चीस फ़ीसदी आदमी ऐसे होते हैं कि जो गहनता से सहजयोग को लेते हैं, क्योंकि वह स्तर नहीं है लोगों के, वह शक्ति नहीं है उनके अन्दर, वह सूझ-बूझ नहीं है। और अगर गाँव के लोग जो होते हैं, जो बहुत सीधे-सरल परमात्मा के बहुत नज़दीक पृथ्वी माता से नजदीक रहते हैं, उनकी जो शक्ति है वह इतनी गहन है और इस कदर वह आंकलन करते हैं कि आश्चर्य होता है। और एक रात में ही उनमें इतना बदल आ जाता है। और ऐसा जैसे कि प्रकाश फैल जाए, एकदम आग जैसे लग जाए। इस तरह से कोई भी गाँव में मैं जाती हैँ तो छ: सात हज़ार से आदमी कम नहीं आते। और अपने यहाँ बम्बई में आज कम से कम इतने वर्षों से कार्य कर रहे हैं। तो भी मैं कहती हैूँ बहुत लोग आए हैं। नहीं तो मैंने यहाँ तो एक से शुरू किया था। तो उस हिसाब तो काफ़ी लोग आए हैं। पर आपको जान लेना चाहिए कि सहजयोग जैसे मराठी में कहा गया है कि 'येरागबाळ्याचे काम नोहे।' वीरों का काम है। जिनमें ये वीरश्री हो, वही सहजयोग में आ सकते हैं। नहीं तो आधे लोग आते हैं कि, 'माँ, हमारी बीमारी ठीक कर दो।' या उसके बाद आते हैं मेरा सर चाटने के लिए । उसके लिए सहजयोग नहीं है। सहजयोग है अपनी आत्मा को पाने के लिए । उसे आप पहले प्राप्त करें, आपकी तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, पर आप दूसरों की भी तन्दुरुस्ती ठीक कर सकते हैं। सबसे बड़ी तो बात यह है कि एक दीप जब जल जाता है तो अनेक दीपों को जला सकता है। इसी प्रकार आप भी अनेकों को जागृत कर सकते हैं। 16 परमात्मा की खोज सहजयोग एक जीवन्त प्रणाली है। यह मरी हुई प्रणाली नहीं जिसके लिए आप अपना मेम्बरशिप बना लें या पाँच रुपया दे दें, चार आना, मेम्बर हो जायें , ऐसा नहीं है। आपको' कुछ होना पड़ता है। आपको बदलना पड़ता है। आपमें कुछ फ़र्क आना पड़ता है। और वह आने के बाद आप को स्थायी होना पड़ता है और वृक्ष की तरह खड़ा होना पड़ता है। ऐसे जो लोग होंगे वही सहजयोग के योग्य होते हैं। आजकल बातें तो लोग बहुत करते हैं कि समाज में ये सुधारणा होनी चाहिए और यह अपने देश में होना चाहिए। लेकिन सहजयोग में जब आप आएंगे नहीं तब तक आपके देश में न कोई सुधारणा हो सकती है न आप किसी की मदद कर सकते हैं, जैसे मैंने आपको समझाया। सहजयोग एक प्रेम की शक्ति है, परमात्मा के प्रेम की शक्ति। और वह प्रेम की शक्ति आपके अन्दर बहना शुरू हो जाती है, जो सर्वव्यापी शक्ति है। उस शक्ति को किस तरह से चलाना है, अपने अन्दर स्थायी कैसे करना है, उसका उपयोग कैसे करना है, ये सारी बातें आपको सीख लेनी चाहिए। और इस सीखने में आपको कोई समय नहीं लगता। अगर आपके अन्दर सद-इच्छा है तो सब चीज़ हो सकती है। अर्थात् आप जानते हैं कि इसके लिए पैसा-वैसा कुछ नहीं दे सकते। हमारी कोई संस्था नहीं है। हमारे यहाँ कोई सदस्यता नहीं है। भी नहीं है। यह सबको पाने की चीज़ है । और सब जब पा लें, आप अगर सभी पा लें, तो मेरे कुछ खयाल से आधे बम्बई का तो उद्धार हो गया। आने के बाद सिर्फ जमना चाहिए। इसकी बड़ी आवश्यकता है। बहुत गहन है, और है भी एक लीलामय। बड़ा ही मज़ेदार है। बहुत ही लीलामय चीज़ है। अगर आप इसमें आ जायें, इतना माधुर्य इसके अन्दर है। कृष्ण ने सारा माधुर्य इसमें भरा हुआ है। और सब तरह की इतनी सुन्दर इसकी रचना है कि उसको जानने पर मनुष्य सोचता है कि, 'क्या मैं इतना सुन्दर हूँ अन्दर से? क्या मैं इतना विनोदी हूँ? क्या मैं इतना धार्मिक हूँ?' धर्म और विनोद तो हम समझ भी नहीं सकते । लेकिन धर्म जहाँ हमें हँसाये और आनन्द विभोर कर दे, वही धर्म असली है। परमात्मा आप सबको आत्मसाक्षात्कार दें। और सुबुद्धि दें कि इसमें आप जमें और आगे बढ़े। बहुत से लोग इसमें बढ़ गये हैं, बम्बई शहर में। बहुत लोग हैं। ज़्यादा से ज़्यादा लोग अब हो गये हैं, मेरा कहना है। यहाँ सब तो आए नहीं हैं। जो भी हैं आए हुए हैं। लेकिन और इसके अलावा बहुत से लोग हैं जो यह कार्य अनेक केन्द्रों में कर रहे हैं, मुफ़्त में कर रहे हैं। आप उनसे मीलिये और अपनी प्रगति करिये। परमात्मा आप सबको आशीर्वाद दे। 17 विवाह से पूर्व हमारा ढंग 'मेन अॅड वीमेन' नामक पुस्तक में हमने पढ़ा है कि किस प्रकार श्रीमाताजी ने अबोधिता और सतित्व पर महत्व दिया है। उन्होंने यह भी बताया है कि यदि हम आपस में भाई- बहन के सिद्धांतों को पुर्नस्थापित कर सके तो हमारा जीवन अति आनन्दित हो जाएगा। हम दूसरों के साथ एक पवित्र और निर्मल संबंध का आनंद तभी ले सकते हैं जब हम स्वयं पवित्र हों । और भी, सामूहिकता की अबोधिता, सुरक्षा एवं पवित्रता को कायम रखने के लिए श्रीमाताजी ने यह स्पष्ट किया है कि सहजयोग में अपना जोड़ीदार (पती या पत्नी) ढूंढ़ना योग्य नहीं है। यदि किसी की सहजयोग में विवाह करने की इच्छा है तो यह संभव है कि वह व्यक्ति श्रीमाताजी से अपने लिए जीवन-साथी ढूंढ़ने की विनती करे। अपना नाम सहज विवाह सूची में देकर यह कार्य किया जा सकता है। * फिर भी, ऐसा करने के लिए किसी पर कोई दबाव नहीं है। हर एक सहजी को सहज सामूहिकता के बाहर अपना जीवन साथी ढूंढ़ने की पूरी स्वतंत्रता है। सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे ...लेकिन यदि आप सहजयोग में विवाह करना चाहते हैं तो आपको सहजयोग में लोग नहीं ढूंढने चाहिए। अब आज का दिन रक्षाबंधन का महान दिन है। इसलिये मुझे आपको रक्षाबंधन के बारे में कुछ बताना है। इससे पहले हमें मर्यादाओं के बारे में बात करनी होगी जिसका पालन सभी सहजयोगियों को करना चाहिए। एक चीज़ जो मैंने यहाँ, पश्चिम में पाई है, कि हालांकि हम मूलाधार के महत्व को समझते हैं, जो कि बहुत ही जरूरी है और जब तक हम अपने मूलाधार को पूरी तरह से पुनर्स्थापित ना कर ले हमें अतिगतिमय उत्थान नहीं प्राप्त होगा। इन सब के बावजूद, अभी भी ऐसी विलंबकारी चीजें हैं, जो आप अपने आस-पास देखते हैं। जैसे लोग सहजयोग में अपना जीवन साथी चुनना शुरू कर देते हैं। इसकी अनुमति नहीं है, इसकी अनुमति नहीं है। आप अपने आश्रम को गंदा करने के लिये नहीं हैं, आप को अपने ध्यान केन्द्र विवाह-शोधक समाज के रूप में इस्तेमाल करना गलत है। आपको सहजयोग का सम्मान करना चाहिये । आपको इस मुद्दे को सम्मान देना चाहिये। यदि आपको विवाह करना है, तो आप अपना जीवन साथी सहजयोग के बाहर ढूंढ सकते हैं, शुरुआत के लिये| पर यदि आपको सहजयोग में विवाह करना है, तो आपको सहजयोग में लोग नहीं ढूंढने चाहिये। ये खुद सहजयोग के लिये बहुत हानिकारक है और आप लोगों के लिये भी । यह एक ऐसी चीज़ है जो किसी को भी सहजयोगियों के साथ कभी नहीं करनी चाहिए। हर हाल में आप सभी भाई - बहन हैं। और इसलिये मैं हमेशा ऐसे लोगों के विवाह को प्रोत्साहन देती हूँ जो अलग- अलग देशों और ध्यानकेन्द्रों से हैं..." (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) 21 परंतु यदि आपको सहजयोगियों से शादी करनी ही है, तो आपको उनसे शादी उनकी पवित्रता और इसके आदर्शवाद को नष्ट करने की कीमत पर नहीं करनी चाहिए : ऐसा करना बहुत ही गलत होगा, जैसे किसी सहजयोगी से अपनी शादी खुद ही तय कर लेना। ये खतरनाक होगा। मैं कुछ कहना नहीं चाहती पर इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा, क्योंकि यह देव-कार्य के विरुद्ध है, बिल्कुल देव-कार्य के विरुद्ध। आपको अपना ब्रह्मचर्य विकसित करना होगा, आपको अपना मूलाधार विकसित करना होगा। इसकी जगह, यदि आपने किसी सहजयोगी या सहजयोगिनी का इस्तेमाल अपने लिये जीवन साथी का चुनाव करने के लिये किया तो ये बहुत-बहुत दु:खदायी होगा। आपका मूलाधार स्थिर नहीं होगा। मेरा मतलब है, कि ये एक बहुत बुरा आघात है, आपके विकास के लिये| पिछले जीवन शैली की वजह से और जिस प्रकार की आप लोगों की शर्तें रही हैं, आप लोग नहीं समझते कि ध्यान केन्द्र और हर जगह की पवित्रता बनाये रखना जरूरी है। इसलिये एक शहर में इस तरह के संबंध होना बहुत गलत चीज़ है। यह सबको खराब कर देता है। इस परेशानी को बढ़ाने के लिये, ये कुछ लोगों की आदत है, मैंने सुना है, कि वो चिढ़ाने की कोशिश करते हैं, 'आप एक साथ बेहतर दिखते हैं, आप साथ में अच्छे लगते हैं।' वो चिढ़ते हैं और इसका मज़ा लेते हैं। ये एक प्रकार का मूलाधार का विकृत आनन्द लेना है, दूसरों को चिढ़ाना, 'आप उसके साथ बहुत अच्छे दिखते हो, बेहतर होगा आप दोनो शादी कर लो।" यह एक प्रकार की अनर्थक कल्पना है। निश्चय ही, इन सब के लिये योगियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। पर फिर भी यदि आप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, आपको मर्यादाओं का पालन करना ही चाहिये। जब शादी तय नहीं हुई है, तो एक दूसरे को चिढ़ाना और ऐसी अनर्थक चीज़ों का आनन्द नहीं लेना चाहिये। अगर शादी तय हो गयी है, तो ठीक है। और ये विवाह के आनन्द को पूरी तरह से खत्म कर देता है, क्योंकि कोई उत्सुकता बची ही नहीं रहती और बहुत बार मैंने देखा है कि निरर्थक सम्बन्ध 22 सहज समूह में जीवन-स्थी न ढूंदे स्थापित हो जाते हैं। उनमें से कुछ तो वाकई अच्छे नहीं होते। और वे वास्तव में हानिकारक होंगे और उनमें से कुछ कभी स्थापित नहीं होते। इसलिये अगर ऐसे सम्बन्ध स्थापित होते हैं, तो वे गलत हैं। और अगर वो स्थापित नहीं होते, वे दिल को दु:ख पहुँचाते हैं। इसलिये आपको ऐसी चीज़े नहीं करनी चाहिये। आपके पास ऐसे लोगों के अनुभव हैं लोगों को सहजयोग में लेकर आयें हैं। अगर आप ऐसा जिन्होंने बाहर शादी की है और अद्भुत कर सकते हैं, तो आपको ये करना चाहिये। पर अगर आपको सहजयोगियों से शादी करनी है तो आपको उनसे शादी उनकी पवित्रता इसके आदर्शवाद को नष्ट करने के कीमत पर नहीं करनी चाहिये। अपने स्वार्थ के लिये, अपने आनन्द के लिये, आपको सहजयोग का नाम खराब नहीं करना चाहिये। ये एक चीज़ है, जो मैंने देखी है, इसलिये मैं कहूँगी कि आज का ये दिन जो कि सम्बन्धों में पवित्रता का है, हमें जानना चाहिये कि हमें एक दूसरे के साथ भाई - बहन के जैसा व्यवहार करना चाहिये। अपने मन को इसमें बहने न दें। क्योंकि यदि आपने अनुमति दी, तो इसका कोई अन्त नहीं है। जैसा कि आप जानते हैं कि खुद को संतुलन में लाना कितना मुश्किल है..." १) (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) पर मेरे लिये ये एक समस्या पैदा कर देता है कि आप अपना विवाह खुद ही तय कर लेते हैं : फिर वो मेरे पास ये कहते हुए आते हैं कि, 'माँ अब हमने शादी करने का तय कर लिया है। हम शादी कर लेते हैं। मुझे 'हाँ' कहना ही पड़ता है। कई चीज़ों में में 'हाँ' नहीं करना चाहती, पर मुझे 'हाँ' कहना पड़ता है। किंतु ये बहुत ही बुरा अग्रगमन निर्माण करता है। हो सकता है किसी मामले में, असामान्य मामले जैसे, इस तरह के विवाह के लिये किसी को चुना हो । पर इसका मतलब ये नहीं है कि आपको चीज़ों अपने हाथ में ले लेना चाहिये और इस तरह की चीजें करना शुरू कर देनी चाहिये, ताकि बाद में मुझे परेशानी हो। क्योंकि एक बार अगर आप ऐसा करते हैं तो बाद में कोई भी ऐसा करने लगता है। ये एक प्रकार का आक्रोश है, कि आप कुछ तय करते हैं, मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि, 'माँ, हमें शादी करनी है ।' अब मैं क्या कहूँ? 'ठीक है, कर लो शादी।' पर ये मेरे लिये एक समस्या पैदा कर देते हैं और बाकी लोगों के दूसरा लिये भी....'" (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) शादियाँ बनाने की और इस तरह के रोमांस के खेल खेलने की कोई जरूरत नहीं है : तो हम सहजयोगियों को इसमें ज़्यादा प्रगति करनी होगी। बजाय इसके मैं पाती हूँ कि 23 लोग, ज़्यादातर पश्चिम में ये सोचने की कोशिश करते हैं कि हम किससे शादी करने जा रहे हैं। ये सम्बन्ध जो स्थापित होते हैं वो गलत हैं। इस तरह शादियाँ बनाने और रोमांस के खेल खेलने और उन सब की कोई जरूरत नहीं है। अगर शादी होनी ही है तो वह होगी। पर वातावरण को गंदा न करें। कुछ लोग छोटे होते हैं जो नाइयों की तरह होते हैं, आप देखते हैं, जो शादियाँ बनाने की कोशिश करते हैं और इसकी उससे और उसकी इससे रिश्ते जमाने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं...' (१९८१, दिवाली पूजा, लंदन) यह बहुत ही पवित्र क्षण है, जब आप अपने पति या पत्नी से मिलने जा रहे हैं : मैंने देखा है, कि भावमय जीवन में भी आप लोग बहुत सहते हैं, सब चीज़ों के लिये। कारण है, आप सोचना शुरु कर देते हैं। आप देखिये, अब भारत में हमारा विवाह जैसे हाता है, वह बहुत ही सादा और सरल है। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है, कि हमारी शादी होगी। इसलिये आपको सीखना चाहिये कि पति के साथ कैसे रहना है और आदमी को हमेशा बताया जाता है, कि पत्नी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये। पर उन्हें ये पता नहीं होता कि पति कौन है और पत्नी कौन है। पर पति और पत्नी एक प्रकार के चिन्ह के समान छोटे हैं। वो नहीं जानते कि कौन है, पर कोई भी हो सकता है। इसलिये एक बार आपने उसे (पत्नी को) धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया, ये आपके लिये एक आश्चर्य के समान होता है और आप इसका आनन्द लेते हैं। और इस पूरे चीज़ का निर्माण उस अंत तक किया जाता है, जहाँ वो क्षण भी शुभ होना चाहिये। हालांकि वो जन्मपत्रिका देख कर भी विचार करते हैं, ये एक महत्वपूर्ण भाग है, क्योंकि यदि आप जन्मपत्रिका नहीं देखते तो ये विनाशकारी हो सकता है। इसलिये वो जन्मपत्रिका देखते हैं। और अगर उसमें बहुत सारे मुद्दे हों, तो वो कहते हैं, कि छब्बीस का जुड़ना उचित है और फिर उनका विवाह हो जाता है, अन्यथा नहीं होता। अब ये जरूरी नहीं है, कि हम मिले या ना मिले, कभी-कभी लोग मिलते हैं, एक साल तक एक दूसरे से बात-चीत करते हैं, हो भी सकता है कि उनकी शादी विलंबित हो गयी हो, शुभ समय नहीं होता, उन्हें साथ में रहने का थोडा समय मिल जाता है, पर कभी एकांत में नहीं। वे कभी एकांत स्थान पर नहीं जाते| इसलिये उस क्षण को बहुत ही पवित्र क्षण के रूप में रखा जाता है, जब आप अपने पति या पत्नी से मिलने वाले होते हैं, ये बहुत ही पवित्र क्षण होता है। इसलिये आप उसी बिंद पर 24 सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे केन्द्रित होते हैं। तो ये अचानक तय होता है। अब आप उस क्षण को पवित्र क्षण की तरह रखते हैं, कभी-कभी ऐसा होता है कि आपको बीच में थोड़ा समय मिल जाता है, बहुत बार, निर्णय लेने के बाद भी आपको उस व्यक्ति को देख कर उसे एक भावना के रूप में ही कायम रखना होता है, पर आप अपना चित्त हटने नहीं देते, यह पूरी तरह से एकाग्रित प्रयास है। ये खटके से हो जाता है, क्योंकि आप इसे स्वीकार करते हैं...' (१९८५, देवी पूजा, सॅन दिएगो, यू.एस.ए.) बेहतर होगा शादी से पहले आप इन सब बुरी आदतों से छुटकारा पा लें : जब क्राइस्ट ने कहा था, 'दाऊ शैल नौट हैव अॅडल्टरस आईज' (आपकी आँखें व्यभिचारी नहीं होनी चाहिये)। उन्होंने ऐसा इसलिये नहीं कहा क्योंकि ये संभव नहीं था । ये सहजयोगियो के लिये बिल्कुल संभव है। और शादियों के बारे में इतनी चिंता करने जैसी कोई चीज़ नहीं है । इतना क्या जरूरी है? इतने लोग शादीशुदा हैं और उनको क्या हुआ है। यहाँ तक कि सहजयोग विवाह में भी, इन बुरी आदतों के कारण कुछ विवाह असफल हो गये हैं। इसलिये बेहतर होगा आप शादी से पहले इन सब बुरी आदतों से छुटकारा पा लें। क्योंकि शादी के बाद भी वे यही करते हैं और लड़के-लड़कियाँ ढूँढते हैं। क्योंकि अगर शादी से पहले इन आदतों को रोका नहीं गया, तो वे ऐसा करते ही रहेंगे। इसलिये शादी से पहले किसी ने ऐसा करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। और मैंने देखा है कि अब तक ऐसी शादियाँ कभी-कभी सफ़ल नहीं होती। और अगर हुई भी हैं तो वो एक प्रकार का दिखावा है। इससे कभी आपको सच्चा आनन्द प्राप्त नहीं होता, ये एक आनन्दरहित अनुसरण है..." १) (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) सहजयोग में कोई छल नहीं होना चाहिये : और इसलिये जो विवाह करना चाहते हैं, उन्हें अपना पूरा विवरण यहाँ पर लीड़र को देना चाहिये, सच्चाई से और सच्चाई से बताना चाहिये, कि आप बाहर शादी करना चाहते हैं या नहीं, सब कुछ पूरी सच्चाई से बताना चाहिये । कोई छल नहीं होना चाहिये । सहजयोग में कोई छल नहीं होना चाहिये। यदि आपका पहले ही कोई साथी है या कुछ भी, सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा होना चाहिये ताकि मैं जान सकूं कि आप इस प्रकार के व्यक्ति हैं। भारत में कोई भी अठारह साल से कम उम्र की लड़की और इक्कीस साल से कम उम्र का लड़का शादी नहीं कर सकते। हम उनकी सगाई कर सकते हैं। ठीक है। और जो करना चाहते | हैं, वो भारत जा कर शादी नहीं कर सकते, हम आपके लिये भी कुछ व्यवस्था कर देंगे... (१९८७, क्रिटीसीजम, इगो, राइट साइडेड डेंजर्स, फ्रान्स) 25 ० साम |न न तर अबोधिता और अं पवित्रता अबोधिता, जो हमारे अंदर की गहराइयों में हैं, यह हमारा स्वभाव है, यही इस निर्मिती का सार है : यदि श्रीगणेश की आराधना करनी है तो हमें अपनी प्रधानतायें बदलनी होगी। आज हम हमारे अंदर की अबोधिता की पूजा कर रहे हैं। हम उसकी पूजा कर रहे हैं, जो शुभ है, जो अबोध है। अबोधिता, जो हमारे अंदर की गहराईयों में है, यही हमारा चरित्र है, यही हमारा स्वभाव है, हमने इसी के साथ, जनम लिया है, यह पूरे विश्वनिर्माण का आधार है, यही विश्वनिर्माण का सार है ... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, इंग्लैंड) अबोधिता प्रत्यक्ष होनी चाहिये : ...अबोधिता ही सार है और यह सार प्रेम है। इसलिये हमें ये समझना है कि हमें अपने अंदर श्रीगणेश के गुण धारण करने हैं। उनकी अबोधिता का गुण जो पहले से ही हमारे अंदर मौजूद है वह प्रकट होना चाहिए...' (१९९४, श्रीगणेश पूजा, मॉस्को) जीवन अबोधित है : अभी आपको महाराष्ट्र की सड़कों पर ध्यान देना चाहिए-अभी में ट्रेन से आ रही थी, मैंने देखा कोई भी पुरुष औरतों में रुचि नहीं दिखा रहा था। स्त्रियों को पुरुषों में रुचि नहीं थी । कुछ पुरुष एक दूसरे से गले मिल रहे थे, निष्कपट भाव से दूसरे को थामे चल रहे थे। मेरा मतलब ये पूरा विषय यह है कि जीवन अबोधिता है...' (१९८५, पूजा, नासिक, भारत ) "...जैसा कि आप जानते हैं कि सहजयोग में नैतिकता सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है... (१९९३, दिवाली, विवाह की घोषणा, रशिया) आपको यह सिद्ध करना है कि अबोधिता का सम्मान होना चाहिए : '...सबसे पहले हमें यह समझना होगा, कि हमारा जन्म सन्दिग्ध, संकटपूर्ण समय में हुआ 27 है। ईसामसीह के समय में बहुत कम लोग थे जिन्होंने उनका अनुकरण किया और उन्हें कुण्डलिनी के विषय में अधिक जानकारी भी नहीं थी । उन्हें कोई ज्ञान नहीं था । उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि ईसामसीह श्रीगणेश जी के ही अवतरण थे। किंतु आप यह पाएंगे कि ईसाई धर्म को मानने वालों में ही ईसामसीह का अपमान होता है, अबोधिता का अपमान होता है और वह कानूनी तौर पर जायज़ माना जाता है। तो उसी भायनक परिस्थितियों में जनम लेने के बाद हमें खुद ही एक महान शक्तिशाली सामर्थ्य खड़ा करना होगा, अपनी आध्यात्मिकता का। आज जब मैं आई, कोई हवा नहीं चल रही थी, कोई पत्ता नहीं हिल रहा था, मगर आपके गाना शुरू करने पर आपसे भारी मात्रा हवा बहने लगी और उससे मैं समझ गयी कि यह दैवी शक्ति प्रकट हो चुकी हैं। वह है और वह काम कर रहा है। सिर्फ ये ही नहीं, वह बड़ा शक्तिशाली है। साधारणत: ये ठण्डी हवा मेरी ओर नहीं आती। वो दसरी ओर जाती है। मगर ये ठण्डी हवा इतनी जबरदस्त थी कि मुझे किसी का हाथ थामना पड़ा, और एक भी पत्ता नहीं हिल रहा था। तो ये जो सामूहिक शक्ति आपके पास है, याद रखिये आपको उससे झँझना है और आपको ये सिद्ध करना है कि अबोधिता का सम्मान करना चाहिए । आदिशक्ति ने सबसे पहले श्रीगणेश को बनाया। वो पहले देवता थे जिन्हें बनाया गया। क्यों? क्योंकि उसे सारा वातावरण चैतन्य, धार्मिकता और मंगलता से भरना था। वो अब भी है। वो सब जगह है और आप महसूस कर सकते हैं कि वो काम कर रहा है। लेकिन आधुनिक मानसिकता के अन्दर वो नहीं उतरता क्योंकि आधुनिक मानसिकता जानती नहीं कि अबोधिता क्या है। उन्हें अबोधिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वो लोग जिस प्रकार सब जगह जा रहे हैं, मानो इस धरा पर कभी कुछ हुआ ही नहीं। तो अबोधिता से जीवन में नैतिकता आती है। नैतिकता अबोधिता का प्रकटीकरण हैं ... १) (१९९६, श्रीगणेश पूजा, कबेला) अगर आपको आत्मसाक्षात्कार मिल सकता है तो ये भी क्यों नहीं? : "...मुझे इस बात की फिक्र है कि लोग गुप्त तरीके से इन चीज़ों में उलझ रहे हैं। और वे कभी-कभी पाखण्डी हो जाते हैं, उन्हें पाखण्डी होने में कोई परेशानी नहीं होती। ठीक है, वे सहजयोगी है, मगर इस विषय में उन्हें लगता है कि वे जो चाहें कर सकते हैं और कभी-कभी उनमें से कुछ लोग कहते हैं, 'माँ ने कहा है, सब ठीक है।' मैंने ऐसा कभी भी नहीं कहा है। यह एक विषय है जिसमें मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। 28 ১ अ अे आपका आपके प्रति, आपके जीवन के प्रति, आपके अस्तित्व के प्रति और आपके व्यक्तित्व के प्रति एक पवित्र दृष्टिकोण होना चाहिए । आप लोग संत हैं। यदि एक संत का चरित्र अच्छा नहीं है, मैं उसे चरित्र कहती हैँ, चरित्र का सार - तो वह व्यक्ति संत नहीं है। यह शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए। उस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। आप हर एक चीज़ की जड़ों पर घाव नहीं कर सकते। अगर सामूहिक तरीके से काम हो जाता है, कोई भी अपने आप को ठगता नहीं, अपने आपको फँसाता नहीं और मन को उत्थान की सही राह पर ले जाता है। अपने मन को उत्थान के बारे में सोचने से, हम ऊपर कैसे उठेंगे ये सोचने से, हमें आनन्द देने वाले पलों के बारे में सोचने से, आप मुझसे पहली बार मिले उस दिन के बारे में सोचने से साफ किया जा सकता है। और जब कभी ऐसा विचार आता है, तो आपको कहना है, 'यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं।' मैं आपको बताऊं यह ज़्यादा मानसिक है न कि शारीरिक। मुझे पता है ये मुश्किल है, लेकिन आपको आत्मसाक्षात्कार मिल सकता है तो ये भी क्यों नहीं। आप सबको यह समझना होगा कि इस पर कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता। अगर आप यह जारी रखते हो तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब किसी राक्षस की तरह आप बाहर फेंक दिए जाओगे। इसलिये इसमें कोई समझौता नहीं है। अपने आप से कहिए, 'खुद को मत फँसाईये, खुद को धोखा मत दीजिए । यदि आपमें कुछ छुपा है तो आपका उत्थान नहीं हो सकता। आप नीचे खिंचे चले जाओगे क्योंकि यह आपकी कमजोरी है और आप कमजोर, अधिक कमजोर होते चले जाओगे... " (१९८५, मूलाधार, बर्मिंगहैम, यु.के) तो अपनी पवित्रता का सम्मान करना वास्तव में मेरा सम्मान करना है : "...क्योंकि मैं पवित्रता के रूप में आप में निवास करती हूँ। अगर श्री गणेश मंगलता हैं, मैं पवित्रता के रूप में आपके अन्दर निवास करती हूँ... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इग्लैंड) मेरे बच्चे होने की वजह से आप भी पवित्रता के परम सुख का आनंद ले सकते हैं, जैसे मैंने अपने सम्पूर्ण मनुष्य जीवन में लिया है : '...तो आज आप अपने अन्दर स्थित श्रीगणेश की पूजा करने आए हैं। मैं क्या हूँ, श्रीगणेश के रूप में पूजने के लिए, मेरी समझ में नहीं आता। क्योंकि मैं ही वो हूँ। जब आप मेरी पूजा करते हैं, तब आप अपने अन्दर के श्रीगणेश को जागृत करना चाहते हैं। वह आपमें जागृत हों। मैं जो भी 29 कहूँ, वो मंत्र बन जाए आपमें वह जागृत करने के लिए, ताकि मेरे बच्चे होने की वजह से आप भी पवित्रता के परम सुख का आनन्द ले सकें जैसे मैंने अपने मनुष्य जीवन और दैवीय जीवनों में लिया है। आप उसी प्रमाण में आनन्द लें यही मैं चाहती हैँ। कम से कम आपको उसका स्वाद लेना चाहिए... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इंग्लैंड) यह कठोरता नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व का सम्मान है : '...तो इस समय आप सब भारत आ रहे हैं। मुझे आपसे अनुरोध करना है कि आप मेरा सम्मान दूराचार न करके करें। बचकानी हरकत न करें जैसा आप तस्वीरों और फिल्मों में देखते हैं और वो सब अनर्थक है। आप इन सबसे उपर हैं। सावधान, उच्च कार्यों को आपके पवित्रता के स्थान से देखा जाता है। हम अपना स्थान नहीं छोड़ सकते, चाहे हमारी जयजयकार हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम अपना स्थान नहीं छोड़ सकते। जैसे ये सभी अवधूत, ये कहेंगे, 'तकिया सोडा सना' -मतलब 'हम सब अपना स्थान नहीं छोड़ेंगे।' हम सब ये अपने स्थान पर हैं। हमारा स्थान है, कमल के अन्दर। हम कमल को नहीं छोड़ सकते। हम कमल के अन्दर बैठे हैं। ये हमारा स्थान है। तब यह सभी अनर्थक चीज़ें जो आपने प्राप्त की हैं, निकल जाएगी। आप देखेंगे, आप सुंदर इन्सान बन जाएंगे। सभी भूत भाग जाएंगे, सभी पकड़ भाग जाएंगी| पर यह कठोरता नहीं है, बार-बार में आपको बता रही हूँ। यह आपके अस्तित्व को सम्मान देना है। जैसे आप मुझे बाहर सम्मान देते हैं, आप मुझे अन्दर सम्मान देते हैं। यह उतना ही १) आसान है... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इंग्लैंड) हमारे अन्दर सबसे बड़ी चीज़ लैंगिकता नहीं, बल्कि हमारी पवित्रता है : .आपके अन्दर जो चुंबक है, वह श्रीगणेश हैं। कई लोग जानते हैं कि मुझे दिशा का बड़ा इन्द्रिय ज्ञान है। यह इस चुम्बक के द्वारा आता है जो निपुण है। यह एक चुम्बक ही है जो आपको जोड़े रखता है या ठीक करता है या हर आत्मा की ओर केन्द्रित रखता है। यदि आपमें पवित्रता का इन्द्रिय-ज्ञान नहीं है तो आप कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ लटकते रहेंगे। अचानक आप बहुत अच्छे सहजयोगी बन जाते हैं, कल आप एक राक्षस बन जाते हैं, क्योंकि ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो आपको आत्मा के बड़े विचार से जोड़े रखती है। हम इसका 30 ১৪ सामना करें। अब हम सबके लिए यह समय आ गया है, सभी सहजयोगी, कि हमारे अन्दर सबसे बड़ी चीज़ यौन नहीं है, बल्कि पवित्रता है। और वही आपको परिपक्व बनाएगी.... " | (१९८५, श्रीगणेश पूजा ब्राईटन, इंग्लैंड) संबंधों में आदर्शवाद के पूर्ण ज्ञान और प्रतिष्ठा के साथ रहें : ... ये सभी आदर्श आज भ्रमपूर्वक हैं। हमारे दूसरों के साथ संबंध। हर औरत को आकर्षक होना चाहिए, क्यों? हर पुरुष को आकर्षक होना चाहिये, क्यों ? किसलिये? आप इससे क्या हासिल करने वाले हैं? इसका क्या उपयोग है? आकर्षण ठीक है, जब तक आप निषेधक नहीं हैं, जब तक आप दूसरों के साथ आदर्श संबंध रखते हैं। यदि संबंध कुछ नहीं, बल्कि एक कुत्ता और कुत्ती की तरह बन जाए, तो यह बेहतर होगा कि आप इस प्रकार की कल्पना न रखें। किसी ऐसी चीज़ के पीछे भागना बिल्कुल गलत है जो हमारे राह में नहीं है। जहाँ तक एक दूसरे से संबंध का सवाल है मनुष्य को पूरी प्रतिष्ठा और आदर्शवाद के पूर्ण ज्ञान के साथ रहना होगा। अगर आप ये कहते हैं, 'क्या गलत है?' तो यह विवाद है, सबकुछ गलत है, और सबकुछ गलत है, एक गलत नहीं है, बल्कि सब, सब कुछ। लेकिन यदि आपको एक परिपूर्ण समाज चाहिए, तो आपको अपने पारिवारिक जीवन के आदर्शों को कायम रखना होगा। यह बहुत जरूरी चीज़ है । परंतु आप जैसे ही आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं वैसे ही यह आपके साथ घटित होने लगता है। मुझे आपको इस पर भाषण देना नहीं पड़ता, बस, आप ऐसा करते हैं, आप एक बहुत ही अच्छे पति या पत्नी बन जाते हैं। सहजयोग से बहत ही सुंदर परिवार निकल कर बाहर आते हैं, बहुत से हैं भी, आपने देखे हैं। सहजयोग में अब इतने सुंदर परिवार हैं और अब महान बच्चे, महान संत जो जन्म लेना चाहते थे वे आज उनके यहाँ जन्म ले रहे हैं... (१९८२, हृदय, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्र, यू.के.) आप जानते हैं आप इतने शक्तिशाली बन जाते हैं जब आपके अन्दर अबोधिता जागृत हो जाती है : "...तो उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का सम्मान कैसे किया ! यह आसान है, आप देखें किसी भी प्रकार के अलग लालच में फँस जाना, परंतु यदि यह आपकी शक्ति है, आपको खुद को किसी ऐसी चीज़ को समर्पित क्यों करना चाहेंगे जो इतनी बेकार है । सहजयोग में हमें महसूस करना होगा, पुरुषों को भी जरूर पता होना चाहिए कि यदि उनकी पत्नियाँ इतनी अच्छी है और इतनी पवित्र हैं, तो उन्हें उनका सम्मान जरूर करना चाहिए। उन्हें यह भी एहसास होना चाहिए कि उन्हें राखी बहनें भी हैं, इसलिये हम बहुत पवित्र हैं। हम एक राखी 31 बहन की पवित्रता का सम्मान करते हैं और हम उसे किसी भी प्रकार से नहीं मानना चाहते जो पवित्रता का सम्मान नहीं करता। फिर पुरुष भी पवित्र बन जाते हैं। जब स्त्रियाँ पवित्र हों तो पुरुष भी पवित्र बन जाते हैं। और ये पवित्रता आपकी मुख्य शक्ति है, यही पवित्रता एक है जो श्रीगणेश की शक्ति है। और जब आप श्रीगणेश की इस शक्ति को पा लेते हैं तो आप जान जाते हैं कि आप के अन्दर अबोधिता जागृत होने के साथ आप कितने शक्तिशाली हो गए हैं। पवित्रता के बगैर महिलायें सहजयोग में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकती... (१९९३, श्रीफातिमा पूजा, इस्तंबुल) हमारा श्रीगणेश तत्व ठीक होना ही चाहिए : '...ऐसी कुछ चीज़े हैं जो आपको अलग लगे पर आपको अचम्भित नहीं होना चाहिए। जैसे कि सहजयोग में आपको पवित्रता को सम्मान देना ही चाहिए । महिलाओं को भी और पुरुषों को भी सम्मान देना ही चाहिए, क्योंकि हमारे श्रीगणेश को ठीक होना ही चाहिए..... इसलिये हमारे अन्दर इस गणेश को शक्तिशाली होना चाहिए। और ये रुकावट नहीं है जैसा कैथोलिक चर्च में होता है। सहजयोग में यौन और कुछ भी नहीं है, बल्कि एक विश्वसनीय नाते के साथ अपनी पत्नी से स्वस्थ यौन संबंध है। हालांकि न तो ये फ्रेऊड है और न ही कैथोलिक चर्च... (१९८७, समालोचना, अहंकार, दायीं ओर के खतरे, फ्रान्स) इन सभी अनर्थक विचारों से ऊपर उठने के लिए शक्ति माँगिये : ...आज के इस दिन पर मैं आपसे कहँगी कि आपको इन सभी अनर्थक विचारों से ऊपर उठने की शक्ति माँगनी चाहिए, जो आपके अन्दर जम गई है और खूबसूरत इन्सान बनना चाहिए-विशेष लोग, जो लोग विशेष होते हैं वो अपनी और अपनी बहनों के पवित्रता का सम्मान करते हैं। इस भावना को बढ़ने दीजिए, इस देश में स्वास्थ्य और संपत्ति का निर्माण कीजिये...' (१९८०, रक्षाबंधन, लन्दन) आपको स्वयं को सुधारना होगा और श्रीगणेश जी से क्षमा माँगनी होगी: .दूसरी चीज़ उनके साथ ये है कि वो उन लोगों का सम्मान करते हैं जो 32 ১৪ पवित्र हैं, जिनके लिए पवित्रता ही उनके जीवन का अहम तत्व है। वे पवित्रता को सबसे अधिक पूजते हैं। सिर्फ औरतों में ही नहीं, बल्कि पुरुषों में भी पवित्रता के होने की वह अपेक्षा रखते हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद आपको पूरी तरह से पवित्र इन्सान बन जाना चाहिए। आपको आपकी आँखें चारों तरफ इधर-उधर घूमानी नहीं चाहिए। आप इसे युवक और युवतियों के बीच में संचार का एक बहुत ही बुरा माध्यम कह सकते हैं जो आपकी पवित्रता को खराब कर देता है। आपकी आँखे भी पवित्र होनी चाहिए इसके लिए आपको खुद का आत्मपरिक्षण करना चाहिए और देखना चाहिए कि आप क्या गलतियाँ कर रहे हैं और आपमें किस प्रकार का अपवित्र आचरण है। आपको स्वयं को सुधारना चाहिए और श्रीगणेश जी से क्षमा माँगनी चाहिए। अगर आप क्षमा माँरगेंगे, तो वह कुछ भी क्षमा कर सकते हैं। वे इतने अबोध और सुंदर हैं कि वे क्षमा कर देते हैं। पर ये बहुत ही महत्वपूर्ण चीज़ है, हमारी पूरी नैतिकता हमारे पवित्रता के सोच पर निर्भर करती है। हमें बहुत पवित्र होना चाहिए। कई धर्म आए हैं और सबने पवित्रता के बारे में बात की है, पर सभी धर्म अब इतना व्यर्थ हो गए हैं, आधारहीन हो गए हैं, बिना किसी उचित संपादन के, जो उनके बारे में लिखा गया है। वे सब प्रकार के गलत काम करते हैं और खुद को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कहते हैं। सभी प्रकार के धर्म। वास्तव में सभी धर्म पूरी तरह से असफल हो गए हैं और इसलिये श्रीगणेश उनके पीछे पड़ते हैं..." १) (१९९९, श्रीगणेश पूजा, कबेला) यह पुरुषों और महिलाओं के लिए है : .कुछ देशों में, अवश्य ऐसा सोचते हैं कि पवित्रता सिर्फ औरतों के लिए है और पुरुषों के लिए नहीं। परंतु यह सत्य नहीं है। इस्लाम धर्म के लोग ऐसा ही मानते हैं। ये बहुत गलत है। यह दोनो के लिए है। जैसे कि कोई आदमी दूसरी तरफ जोर लगाने की कोशिश कर रहा है, जैसे कि पुरुष महिलाओं पर दबाव डाल रहे हैं कि वे पवित्र रहें और वो खुद पवित्र नहीं है, तो महिलायें पवित्र नहीं रहेंगी। वे ऐसा दिख सकती हैं, प्रतीत हो सकती है, डर की वजह से शायद कोशिश कर भी सकती है पर यदि उन्हें कोई मौका मिल गया तो वे एक ऐसे जीवन शैली को अपना लेंगी जो गलत होगा। क्योंकि वे दूसरे पक्ष को देखती है, पुरुष उन पर शासन करने की कोशिश करते हैं। तब वे ऐसा सोचती है, 'क्या गलत है? अगर वो ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं? इसलिये पूरे समाज को एक सभ्य जीवन आपनना चाहिए और एक बहुत ही सुसज्जित प्रतिष्ठित जीवन शैली होनी चाहिए । यह सिर्फ पहनावे में नहीं बल्कि प्रतिदिन के जीवन में भी जरूरी है। नहीं तो पुरुषों और 33 महिलाओं के बीच में एक प्रकार का असुरक्षित भाव निर्माण होने लगता है और बहुत सारी उलझने पैदा हो जाती है, बहुत ही उलझे हुए जीवन की १) शुरुआत होती है..." (१९९३, श्रीगणेश पूजा बर्लिन, जर्मनी) पश्चिम में, बहन क्या है और भाई क्या है? इसे समझने की रीति को वे खो चुके हैं : ...जब भी हम खुद को दोषी समझते हैं, तो सबसे पहले हम खुद को दोषी इसलिए मानते हैं क्योंकि संबंधों के बारे में हमारी समझ ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए, हम एक भाई और एक बहन को नहीं समझते, यह रिश्ता जो कि इतना पवित्र है, और हर प्रकार के अपवित्रता से ऊपर है। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं कि आज पश्चिम में, शायद ज़्यादा शराब पीने की वजह से और सब तरह की गलत चीजें करने की वजह से, जो अबोधिता के विपरीत है, लोगों ने इसका महात्म्य खो दिया है और इसमें उन्होंने बहन क्या है? और भाई क्या है? इसे समझने की रीत को भी खो चुके हैं..." (१९८८, श्रीविष्णुमाया पूजा, शूडी कैम्प, १) यू.के.) अगर ये इधर भी संभाला जा सके, तो मेरे लिए ये महान दिन वास्तव में अति आनंद का होगा : "...परंतु मैंने ये पाया है कि भाई-बहन के इस संबंध को भारत में बहुत ही सुंदर तरीके से संभाला जाता है, अगर ये इधर भी संभाला जा सके तो मेरे लिए ये महान दिन वास्तव में अति आनंद का होगा, क्योंकि इसका मतलब है कि आपने इस अनैतिका के राक्षस को हरा दिया है। वो पवित्रता, जो आपके दिमाग से स्त्री संभोग की लालसा और लालच को पूरी तरह से निकाल देती है और उसे वह स्नेह देती है, जो आपकी बहन है। यह भारत में बहुत ही आम है, वहाँ हर एक की बहन होती है, हर सहजयोगियों की एक बहन है और वो अपनी बहन का उस तरह ख्याल रखते हैं... (१९८३, दिवाली पूजा, हेम्पस्टेड, यू.के. ) 34 EGO है की ा प्र. य क कर ु भ आप अपने आप को इतना मृदल बनाईये कि हर कोई आप से मार्ग-निर्देशन चाहे, आपकी प्रेम पायें और वो सब आपके पास आयेंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि आप ये कर सकते हैं। (य.यू.श्रीमाताजी, दिल्ली, २०००) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८५२३२, e-mail : sale@nitl.co.in आपकी अपनी ज्योतिर्मय होना ही काफी नहीं है, आपको अन्य लोगों को भी प्रकाश देना है, दीपकों की तरह आपको अन्य लोगों को ১ भी प्रज्ज्वलित करना है। आपको किसी भी प्रकार की तैयारी की आवश्यकता नहीं हैं, यह शक्ति आपके पास है। (प.पू.श्रीमातीजी, ३.११.२००२) ० ० ---------------------- 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी नवम्बर-दिसंबर २०१३ ० म नर ६ हं 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt आपको कि्सी प्रकार का अधिकार जमाने वाला व्यक्तित्व या आक्रमक व्यक्ति नहीं होना चाहिये। प.पू.श्रीमाताजी, २०००, दिल्ली कर 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt इस अंक में परमात्मा की खोज ...५ विवाह से पूर्व हमारा ढंग ...१८ सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे ... २१ अबोधिता और पवित्रता ... २६ 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt परमात्मा की खोज मुंबई, ४ मई १९८३ परमात्मा को खोजने वाले सभी साधकों को मेरा प्रणाम ! मनुष्य यह नहीं जानता है कि वह अपनी सारी इच्छाओं में सिर्फ परमात्मा को ही खोजता है। अगर वह किसी संसार की वस्तु मात्र के पीछे दौड़ता है, वह भी उस परमात्मा ही को खोजता है, हालांकि रास्ता गलत है। अगर वह बड़ी कीर्ति और मान-सम्पदा पाने के लिए संसार में कार्य करता है, तो भी वह परमात्मा को ही खोजता है। और जब वह कोई शक्तिशाली व्यक्ति बनकर संसार में विचरण करता है, तब भी वह परमात्मा को ही खोजता है। लेकिन परमात्मा को खोजने का रास्ता ज़रा उल्टा बन पड़ा। जैसे कि वस्तुमात्र जो है, उसको जब हम खोजते हैं-पैसा और सम्पत्ति, सम्पदा-इसकी ओर जब हम दौड़ते हैं तो व्यवहार में देखा जाता है कि ऐसे मनुष्य सुखी नहीं होते। उन पैसों की विवंचनायें, अधिक पैसा होने के कारण बुरी आदतें लग जाना, बच्चों का 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt व्यर्थ जाना आदि 'अनेक' अनर्थ हो जाते हैं। जिससे सोचता है कि 'ये पैसा मनुष्य मैंने किसलिये कमाया? यह मैंने वस्तुमात्र किसलिये ली?' जिस वक्त यहाँ से जाना होता है तो मनुष्य हाथ फैलाकर चला जाता है। लेकिन यही वस्तु, जब आप परमात्मा को पा लेते हैं, जब आप आत्मा पा लेते हैं और जब आप का चित्त आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब यही खोज एक बड़ा सुन्दर स्वरूप धारण कर लेती है। परमात्मा के प्रकाश में वस्तुमात्र की एक नयी दिशा दिखाई देने लग जाती है। मनुष्य की सौंदर्य दृष्टि एक गहनता से हर चीज़ को देखती है। जैसे कि आज यहाँ बड़ा सुन्दर वातावरण है, और सब तरफ से वृक्ष हैं। ये सब आप देख रहे हैं। जब आपने परमात्मा को पाया नहीं, तब आप यह सोचते हैं कि, 'अगर ऐसे वृक्ष मैं भी लगा लूं तो कैसा रहेगा? मेरे घर में ऐसे वृक्ष होने चाहिए। मेरे पास ऐसा आंगन होना चाहिए। ऐसे प्रांगण में, मैं ही बैठूं और मैं ही उठूं।' फिर वह मिलने के बाद वह दूसरी बात सोचने लगते हैं कि यह चीज़ लें, वह चीज़ लें। इस तरह से जो यह पाया हुआ है इसका भी आनन्द नहीं उठाते। आज यह हुआ कि हमने एक मोटर खरीद ली, उसके बाद मोटर के लिए भी हाय तोबा करके वह किसी तरह से प्राप्त की। उसके बाद हमें चाहिए कि अब एक बड़ा मकान बना लें और वह भी बनाने के बाद में हाय तोबा हुई तो फिर और चाहें और कुछ कर लें। इस तरह से चीज़ आपने पाई थी। वास्तविक, जिसके लिए आपने इतनी परेशानी उठाई थी, उसका आनन्द तो इतना भी आपने प्राप्त नहीं किया और लगे दूसरी जगह दौड़ने। जब तक वह मिली नहीं तब तक हवस रही; और जैसे ही वह चीज़ मिल गयी, वो खत्म हो गयी। लेकिन परमात्मा को पाने के बाद में ये सारी जो सृष्टि है, ये बनाने में परमात्मा ने जो कुछ भी आनन्द है, बारीक -सारीक की सृष्टि की हुई है, उस कलाकार ने जो कुछ इसमें रचा हुआ सब कुछ, वो सारा का सारा आनन्द अन्दर झरने लग जाता है। जो चीज़ आज ऐसी लगती है कि मिलनी चाहिए-और मिलने पर फिर व्यर्थ हो जाती है, वही चीज़ अपने अर्थ में खड़ी हो जाती है। अगर और कोई वस्तुमात्र आपने ली, उसका आनन्द ही जब आप उठा नहीं सकते हैं, तो उसको पाने की इच्छा करना भी तो बेकार ही है । जब उस चीज़ का आनन्द एक क्षण भी नहीं आप उठा सकते तो उस चीज़ के लिए इतनी ज़्यादा आफ़त मचाने की क्या जरूरत है? वस्तुमात्र में भी-कोई वस्तु को आपने, समझ लीजिये चाहा कि मैं इसे खरीद लूं। आपका मन किया कि इसे हम खरीद लें, कोई अच्छी सी चीज़ दिखाई दी। जैसे औरतों को है कि कोई जेवर खरीद लें। अब खरीदने के बाद उसका सर दर्द हो गया। इसको बीमा कराओ कि इसे चोर न ले जायें, तो इसे पहनो मत, तो बैंक में रखो, अब यह परेशानी एक बनी रही। और इसका आनन्द तो उठा ही नहीं सके। और जब 6. परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt भी पहने, तो जो देखे वह ही जल जाए इससे। माने उसकी आनन्द की जो स्थिति है वह तो एकदम खत्म हो | चुकी और बचा उसका जो कुछ भी नीरसता का अनुभव है, वह गढ़ता है और दुःखदायी होता है। उसी की जगह जब आप परमात्मा को प्राप्त करते हैं और आप कोई चीज़ खरीदते हैं तो यही सोचते हैं कि इसको मैं किसे दें। ये किसके लिए सुखदायी होगी। इसका शौक किसको आया । क्योंकि अपने तो सब शौक पूरे हो गये। शौक एक ही बच जाता है कि किसे क्या दें। फिर खयाल बनता है कि देखो, उस दिन उन्होंने कहा था कि हमारे पास ये चीज़ नहीं है। तो आपने वह चीज़ उन्हें ले जाकर दे दी। इसलिये नहीं कि आप कोई बड़ा उपकार करते हैं। दे दी, बस! जैसे पेड़ है, कोई उपकार करता थोड़े ही है, अपने को कहता है उसमें फल आ गये, वह फल दे देता है। इसी प्रकार आपने जाकर के वह चीज़ किसी को दे दी। अब देखिये उसमें आपके प्रेम की जो भावना आ गयी, आपने अपनी आत्मा से जो चीज़़ उनको दे दी, उनका खयाल करके। 'छोटी सी' भी चीज़। जैसे शबरी के बेर! श्रीरामचन्द्रजी ने इतने प्रेम से खाये। और उसके बाद उसकी इतनी प्रशंसा की, सीता जी को भी, तो लक्ष्मण जी नाराज हो रहे थे | सीता जी ने कहा, 'देवरजी, आप जरा चख कर तो भाभी पर विश्वास करके उन्होंने एक बेर खाया, कहने लगे, | देखिये। ऐसे बेर मैंने जिन्दगी में नहीं खाये। तो 'ये तो स्वर्गीय है!' उस शबरी के बेर में इतना आनन्द इसलिये आया कि नितान्त प्रेम से उसने वह बेर अपने दाँत से तोड़ के, देख कर के, बिल्कुल 'अबोध' तरीके से उसने परमात्मा के चरणों में रखा। उसी प्रकार हो जाता है। तो जो वस्तुमात्र से जो तकलीफें होती हैं वह खत्म हो जाती हैं। सारी दृष्टि ही बदल जाती है और समझ लीजिये अगर किसी और की वस्तु है तब तो बहुत ही अच्छा है। माने उसका सरदर्द तो है नहीं, मज़ा आप उठा रहे हैं। जैसे समझ लीजिए एक बड़ा बढ़िया कालीन किसी के यहाँ बिछा हुआ है। अपना है नहीं भगवान की कृपा से, दूसरे का है। उस वक्त आप अगर उस कालीन की ओर देखते हैं तो आप ये नहीं सोचते कि इसने कहाँ से खरीदा, कौन से बाजार से? उस वक्त एक तान हो कर उसे देखते हैं, और अगर आपको परमात्मा का साक्षात्कार हो चुका है, तो आपके अन्दर कोई विचार ही नहीं आएगा उसके बारे में। आप कोई विचार ही नहीं करेंगे कि ये कितने पैसे का खरीदा, कुछ नहीं। जो उसमें आनन्द है, पूरा का पूरा, तो जिस कलाकार ने उसे बनाया है, उसका पूरा का पूरा आप आनन्द उठा रहे हैं और जिसका है वह सरदर्द लिए बैठा है कि इस पर कोई चल न जाए नहीं तो खराब हो जाएगा। और अपनी नज़र से तो आप उसका पूरा का पूरा आनन्द, स्वाद ले रहे हैं क्योंकि आपका उसके साथ कोई सम्बन्ध ही बना नहीं है, आप दूर ही से उसे देख रहे हैं। और दूर ही के दर्शन सुन्दर होते हैं। जब आप दूर हटकर उस चीज़ को देखते हैं, तभी पूरी की पूरी चीज़ आपके अन्दर उतर सकती है। बहुत से लोगों का यह कहना कि, 'माँ, इस देश में परमात्मा की बात बहुत की जाती है, लेकिन यहाँ लोग गरीब क्यों हैं?' अमीरी की वजह से इन देशों का जो हाल हुआ है कि इसलिए मैं कहती हूैं, भगवान, करे थोड़े दिन और हम लोग गरीब बने रहें। न तो बच्चों का पता है न घर का पता है न बीवी का पता है न पति का पता है, न कोई प्रेम का पता है। जब जिन देशों में बच्चों को लेकर के मार दिया जाता है, पैदा होते 7 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt ही। इतनी दुष्टता वहाँ पर होती है, इतनी महादुष्टता वहाँ लोग करते हैं कि जिसकी कोई इन्तहा नहीं। कोई सोच भी नहीं सकता कि इस मर्यादा-रहित दुष्टता के आप भागीदार हैं। अभी एक साहब से वार्तालाप हुआ, तो उन्होंने कहा कि, परदेस में लोग कम से कम ईमानदार हैं। मैंने कहा, ईमानदार तो औरंगजेब भी था। अपनी टोपियाँ सिल-सिल कर के बेचता था और सरकार से उसने एक पैसा नहीं लिया। लेकिन लेता तो अच्छा रहता कुछ। कम से कम इतने ब्राह्मणों को मारता न। हिटलर भी बड़ा ईमानदार आदमी था। एक पैसा जो था वह अपने सरकारी खजाने से नहीं निकालता था। लेकिन उसकी ईमानदारी का क्या फायदा? इतनी दुष्टता उसमें आ गयी, मानो इन्सान में अगर कोई चीज़ बहुत ज़्यादा आ जाती है, तो वह दूसरी तरफ़ एक दूसरा ही आकार ले लेती है। अगर वह ईमानदारी को, उसने सोचा कि देश जो है मेरा बहुत बड़ा है तो उसमें ईमानदारी से रहना है, तब ये गुण बड़ा अच्छा है। पर उसके कारण अगर आपके अन्दर कोई गन्दी बात घुस जाये तो अच्छा है कि आप खुद सन्तुलित रहें। अब बहुत से लोग अपने को बड़े सत्ताधीश समझते हैं। सत्ता के लिए दौड़ते हैं। सत्ता के लिए दौड़-दौड़ कर कोई सुखी नहीं हुआ। एक तो यह कि किस वक्त उतर जायें, पता नही। किस वक्त इन को शह मिले और किस वक्त उतर जायें सत्ता से, किसी को पता नहीं। आज ताज है और कल कॉटे लग जायें। इस सत्ता का कोई ठिकाना नहीं और उस सत्ता से आप कुछ अपना भी और दूसरों का भी खास लाभ नहीं कर सकते। पर जो परमात्मा की सत्ता पर बैठा है, जिसमें परमात्मा की सत्ता है, जिसके अन्दर परमात्मा बोलता है, जिसके अन्दर परमात्मा की शक्ति बहती है, वो आदमी असल में बादशाह है, सत्ताधीश है। बादशाहत है उसके पास । वह रिश्वत काहे को लेने चला ? बादशाह कोई रिश्वत लेता है क्या? वह क्यों बेईमानी करने चला? बादशाह है। उस को अगर आप ज़मीन पर सुला दीजिये तो भी बादशाह है, उसको महलों में रखें तो भी बादशाह है। उसको भूखा रहना पड़े तो भी वह बादशाह है, वह कोई चीज़ की माँग नहीं करता। वो ही बादशाहत में होता है, जिसको किसी भी चीज़ की माँग नहीं है, किसी चीज़ की जरूरत नहीं है । वह ही असल बादशाह है, बाकी ये तो नकली है बादशाह। जो कि बादशाहत थोड़ी बहुत मिलने के बाद 'यह चाहिए, वह चाहिए, वह चाहिए' माने 8. परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt आपकी बादशाहत क्या है? अन्दर की, जिसके अन्दर बादशाहत जागृत हो गयी , वो हर हालत में रह सकता है। हर परिस्थिति में रह सकता है, हर दशा में रह सकता है और कोई दुनिया की चीज़ नहीं जो उसे झुका दे। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस भारतवर्ष में तो अनेक हो ही गये और बाहर भी बहुत से हो गये। क्योंकि वो अपनी बादशाहत में सन्तुष्ट हैं, उसकी सत्ता जो है 'स्थायी' सत्ता है। इस तरह की क्षण- भंगुर नहीं कि जो क्षण में यहाँ पर तो बड़े बने बैठे हैं और उसके बाद पड़ गये जमीन पर। जैसे ध्रुव का तारा टिक गया है, ऐसे ही परमात्मा को पाया हुआ मनुष्य टिका रहता है। उसको भय नाम की चीज़ मालूम नहीं, उसको लालसा नाम की चीज़ मालूम नहीं। ऐसा मनुष्य जब इस देश में तैयार होगा तो हम लोगों को कोई भी ऊपर से कायदे कानून चलेगा ही नहीं। क्योंकि कायदे भी कहाँ से आये हैं? कायदे भी परमात्मा ही के सृजन किये हुए अपने अन्दर आये हुए हैं। उसका जितना भी विपर्यास हुआ, जो मनुष्यों ने कर दिया है, वह भी बदल जाएगा। पर उस लादने की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपने आप वह मस्ती में रहेगा। वह बेकायदा मानव को तैयार करना होगा जिसने परमात्मा को पाया है। ऐसे मानव जब तक तैयार नहीं होंगे वे लड़खड़ाते ही रहेंगे। पहले जबकि उनको किसी भी बड़े भारी चुनाव में जाना पड़ता है, तो चुनाव में आकर कहेंगे कि, 'साहब हम तो गरीबों के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, ऐसा करेंगे, दुनियाभर के सारे आश्वासन होंगे। और जब वह सत्ताधीश हो जाएंगे तो, 'साहब हमको यह चाहिये, हमको वह चाहिए। और हम तो सबसे बड़े गरीब हो गये।' क्योंकि गरीबों के लिए करने की कोई जरूरत ही दिखाई नहीं देती है। उनसे भी ज़्यादा गरीब ये हो जाने की वजह से वह सब अपने लिए ही सरदर्द। लेकिन जिसने परमात्मा को एक बार पा लिया, वो कोई चीज़ की माँग नहीं करता। वह कभी माँगता ही नहीं है, वह कोई भिखारी कभी नहीं हो सकता। मैंने कहा, "वह बादशाह हो जाता है।' ये बादशाहत अपने अन्दर हमको स्थापित करनी है। अब कोई लोग कहते हैं। कि, 'साहब, हिन्दुस्तान में इतनी चोरी-चकारी और ये सब चलीं। इसका इलाज क्या है?' इसका इलाज बहुत सीधा है! आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करें। क्योंकि अभी अन्धेरे में हैं, अज्ञान में हैं, इसलिए ऐसी रद्दी चीज़ों के पीछे भागते हैं। इसमें रखा क्या है? यह तो सब यहीं छोड़ के जाने का है। एक छोटीसी चीज़ जो रोज देख रहे हैं वह ही भूल जाते हैं। किसी के मय्यत पे चले गये, वहाँ से आए और उसके बाद लगे रिश्वत लेने। 'अरे, अभी मय्यत देखकर आ रहे हो, रिश्वत क्या ले रहे हो? अभी देखा नहीं वह चला गया वैसे के वैसे! उसी तरह से आप भी जाने वाले हैं।' लेकिन यह कहने से नहीं होने वाला, यह सिर्फ आत्मसाक्षात्कार होने के बाद में घटित होता है। उसके बाद में आदमी छनता है और उस के अन्दर की यह जो छोटी-छोटी क्षुद्र बातें फट से निकल जाती हैं । अब उसके बाद कुछ लोग ऐसे हैं कि जो सोचते हैं कि हमारे बच्चों के लिए यह करना चाहिए, हमारी बीवी, हमारा बच्चा, हमारा यह, हमारा वह। इस ममत्व के चक्कर के सबने थपड़ खाए हुए हैं, कोई एक ने नहीं खाए । जब बच्चे बडे हो जाते हैं तो ऐसे आदमी को अच्छा थपड़ देते हैं । लोग रोज देखते हैं, रोजमरा देखते हैं। आपको तो मालूम है वाल्मिकी की कथा, मुझे फिर से बताने की जरूरत नहीं। पर जो तथ्य है उससे आप बहुत ज़्यादा हैं। क्योंकि बच्चे बहुत ज़्यादा बेशम्मी से भौतिक हो गए हैं। सब देश में ही लोग इस तरह से हो गए हैं। वो बात ही पैसे की करते हैं। वह बोलते ही हैं कि हमारी कीमत इतने हजार रुपये, हमारी 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt कीमत..... | सबने अपनी कीमत लगा ली है। ऐसी हालत में इन लोगों का चित्त इस बेकार की चीज़ से कैसे हटाना चाहिए? उसका हटाने का भी वही में मार्ग है, जैसे मैंने कहा कि आत्मा के प्रकाश ही मनुष्य देख सकता है कि कितनी क्षुद्र वस्तु है। जैसे समझ लीजिए अन्धेरे में कोई चीज़ चमक रही है, तो उन्होंने सोचा कि, 'साहब बढ़िया कोई चीज़ चमक रही है, कोई हीरा- वीरा होगा।' लगे उसके पीछे दौड़ने! और वो हीरा इधर से उधर भाग रहा है। तो उसके बाद में प्रकाश आ गया, देखा यह जुगनू था, जुगनू के पीछे हम लोग परेशान रहे। ये तो जुगनू था। इस के लिये क्यों इतनी परेशानी उठानी! इसलिये ये प्रकाश हमारे अन्दर आना जरूरी है। से अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम बहुत धर्मात्मा हैं। ऐसे भी बहुत लोग हैं, वह कहते हैं कि, 'हम तो बड़े धर्मात्मा हैं। हम बड़े धार्मिक कार्य करते हैं, हमने इतने हॉस्पिटल बना दिये, हमने इतने स्कूल बना दिये, ये बना दिये, वो बना दिये।' ऐसे भी कामों से आज तक किसी ने तृप्ति तो पायी मैंने देखी नहीं । किसी को मैंे तृप्त देखा नहीं, शान्त देखा नहीं । इससे प्रेममय देखा नहीं, उसके अन्दर कोई सौन्दर्य भी देखा नहीं। क्योंकि ये जो आप काम कर रहे हैं, परमात्मा से सम्बन्ध किये बगैर, योग के बगैर, आपके अन्दर एक संस्था तैयार हो रही है, जिसे हम 'अहंकार' कहते हैं। अहंकार नाम है उसका। वो अहंकार हमारे अन्दर जमते जाता है और कभी-कभी तो वो अहंकार ऐसा हो जाता है कि मानो जैसा कोई बड़ा भारी सर पर एक अहंकार का 'जहाज़' बना हुआ है। इस अहंकार के सहारे हम चलते रहते हैं और इस अहंकार से हम बड़े सुखी होते हैं कि कोई अगर हम से कहे कि 'भई, आप बड़े धर्मात्मा हैं, इन्होंने बड़ी संसार की सेवा करी और इन्होंने ये दिया और वो किया । लेकिन इसमें कोई सत्य तो है नहीं। क्योंकि सेवा भी किसकी करने की है? जब परमात्मा का आशीर्वाद मिल जाता है तो चराचर सारी सृष्टि में फैली हुई परमेश्वरी शक्ति पर आप का हाथ आ जाता है। आप यहीं बैठे-बैठे सबकी सेवा कर रहे हैं, अगर सेवा उसका नाम हो तो! लेकिन जब वही आपके अन्दर से बह रही हो और जब आप उनसे ही एकाकार हो गये तो आप किस किसकी सेवा कर रहे हैं? अगर ये हाथ मेरा दुख रहा है तो इस हाथ को अगर मैं रगड़ रही हूँ तो क्या मैं इसकी सेवा कर रही हूँ? इस तरह का झूठा अहंकार मनुष्य के मन में फिर जागृत नहीं होता। और अहंकार मनुष्य को महामूर्ख बना देता है। ये 'पहली देन' है अहंकार की, कि अहंकार से मनुष्य महामूर्ख, जिसको अंग्रेजी में स्टुपिड कहते हैं, वो हो जाता है । और 10 परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt उसके एक-एक अनुभव मैं देखती हूँ तो मुझे आश्चर्य लगता है कि इनका कब अहंकार उतरेगा और ये देखेंगे अपने को शीशे में। जैसे नारद जी ने एक बार देखा था अपने को तालाब में, कि कितने बड़े अहंकार से आप 'बिलकुल' अन्धकार में पड़े हुए हैं। अब इससे आगे कुछ लोग इस तरह के हैं कि जो कहते हैं कि 'हम बड़े भक्ति करते हैं और हम खूब भगवान को मानते हैं।' ज़्यादातर लोग भगवान के पास इसलिये जाते हैं, 'मुझे पास करा दो, मुझे नौकरी दे दो, मुझे ये कर दो।' ये ऐसे कहने से कुछ भी नहीं होने वाला। क्योंकि कृष्ण ने कहा है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहं' पहले योग को प्राप्त करो और फिर क्षेम वो बना देते हैं। जैसे इनके पास मिलने के लिए सुदामा जी गये थे। पहले उनसे योग घटित हुआ। ये कहानी बड़ी मार्मिक है। जब उन का योग श्रीकृष्ण से घटित हुआ, 'उसके बाद' उन का क्षेम हुआ। जब तक उनका योग घटित नहीं हुआ था तब तक उनका क्षेम नहीं हुआ था। इसलिये जब तक आपका योग घटित नहीं होगा आपका क्षेम हो ही नहीं सकता है। कभी-कभी तातकालीय न्याय से हो भी जाए-थोड़ा बहुत इधर -उधर, तो भी वह मानना नहीं चाहिए कि आपने पाया है। पर बिल्कुल पूरी तरह से आपका क्षेम तभी घटित हो सकता है जब आप योग को प्राप्त करें। और 'इस योग को प्राप्त करना ही आपकी एक ही शुद्ध इच्छा है। बाकी जितनी भी आपकी इच्छायें हैं, मैंने बता दिया, वे सब बेकार हैं, और उनको प्राप्त करने से आप कभी भी सुखी भी नहीं हो सकते, आनन्द की तो बात छोड़ ही दीजिए । तो और एक तरह के लोग दुनिया में होते हैं, कि जो सोचते हैं कि, 'बड़ा हमने त्याग कर दिया। हम बड़ा कष्ट सहन करेंगे।' जैसे बहुत से लोग होते हैं, सोचते हैं भगवान के लिए उपवास करो। भगवान के लिए अपने शरीर पर छुरी चलाओ| भगवान के लिए जितनी भी घृणित चीज़ें हैं, उन्हें अपने शरीर पर करो। ऐसे पागल लोगों को भी बताना चाहिए कि ये शरीर परमात्मा ने बड़ी मेहनत से बनाया है। एक छोटे से अमीबा से आपको इन्सान बनाया है बड़ी मेहनत करके; किसी वजह से। और आप को पाना क्या है ? किसलिये बनाया परमात्मा ने? आपने तो अपने को कुछ भी नहीं बनाया। जो बनाया है उसी की जीवन्त शक्ति ने बनाया है। वह क्यों बनाया है आपको? कि आप एक दिन परमात्मा के साम्राज्य में आयें उसमें पदार्पण करें, आपका स्वागत हो। इसलिये उन्होंने आपको ये सुन्दर स्वरूप दिया हुआ है। इसलिये नहीं दिया है कि आप इधर - उधर भटकते रहें। लेकिन उधर दृष्टि हमारी नहीं है नं ! हम लोग यही सोचते हैं कि अगर माताजी के आत्मसाक्षात्कार की तरफ़ हम मुड़ें तो भई फिर क्या होगा! हम सन्यासी हो जाएंगे। 'सहजयोग तो सन्यास के महाविरोध में है। 'महाविरोध' ! अगर कोई सन्यासी आ जाए तो हम उससे कहते हैं कि जाकर कपड़े बदल कर आओ। सहजयोग सामान्य लोगों के लिए, जो गृहस्थी में रहते हैं, उनके लिए है। गृहस्थी बड़ा भारी महायज्ञ है, उस महायज्ञ में जो गुज़रा है वही सहजयोग में आता है, सन्यासियों में हमारा विश्वास बिल्कुल नहीं है। क्योंकि ये कपड़े पहनकर के आप किसको जता रहे हैं? जो सन्यासी होता है वह तो सन्यासी है अन्दर से, वह क्या बाह्य में अपने ऊपर में कुछ बोर्ड लगा कर नहीं घूमता है कि 'मैं सन्यासी हूँ'। ये झूठे नाम के बोर्ड लगाने की क्या जरूरत है? और गलतफ़हमी में अपने को रखना, अपने ही को आप 11 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt धोका कर रहे हैं। तो दूसरों को करेंगे ही । जिसने अपने ही को धोखा दिया है वह दूसरों को भी धोखा ही देगा । तो इस प्रकार के भी विचार के कुछ लोग होते हैं कि जो अपने शरीर को दुःख देना और दुनियाभर के दुःख सहना और परेशानी उठाना-इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है यहूदी लोग। अपने यहाँ भी ऐसे बहुत सारे हैं जो उपवास, तपास और दुनिया भर की आफ़तें करके, सिवाए बीमारी के और कुछ नहीं उठाते। पर ज्यू (यहूदी) लोगों ने ये कहा कि हम ईसा मसीह को नहीं मानते हैं क्योंकि यह कहता है कि, 'मैं तुम्हारे सारे पापों को खींच लँगा अपने अन्दर| और सही बात है। जब उनकी जागृति हो जाती है हमारे आज्ञा चक्र पर, तो वह खींच लेते हैं। लेकिन हम ईसा मसीह को नहीं मानेंगे क्योंकि वह ज्यू थे। इसलिये ज्यू लोग उनको नहीं मान सकते। और चाहे कोई माने तो माने। और इसलिए उन्होंने कहा, कि हम तो ये विश्वास करते हैं कि मनुष्य को खूब कष्ट सहन करना चाहिए। खूब कष्ट भोगना चाहिए। वह इतना दु:ख उठाये। दुःख उठाने से ही परमात्मा मिलता है। यह उनका अपना विचार था। यानी यहाँ तक कि कोई सन्त है, उसको कोई द:ख दे रहा है तो वे कहते हैं कि ठीक ही है, तुमको परमात्मा अच्छे से मिल जाएगा। जितना दुःख ज्ञानेश्वर जी को हमने काफ़ी सताया। रामदास स्वामी को हमने कभी माना हो , झेलो। जैसे नहीं। तुकाराम की तो हालत ही खराब कर दी। और भी जितने भी-नानक साहब हैं, कबीरदास हैं, सबको परेशान किया और यही कहकर कि, 'तुम तो संत हो, तुम तो गुस्सा ही नहीं हो सकते। हम संत नहीं हैं। माने ये कि जैसे सारे गुस्से का ठेका हमने ले रखा है और सारा सहने का ठेका आपने ले रखा है!' और ऐसे जो ज्यू लोग थे, देखिये, उन पर कितनी बड़ी आफ़त आ गयी। भगवान ने एक हिटलर भेज दिया उनके लिए-जाओ इनको सहना है, सहने दो। अब वह उल्टे बैठ गए हैं, वह सब दुनिया को कष्ट देंगे। तो इस तरह की विक्षिप्त कल्पनायें अगर दिमाग में हों, तो भी मनुष्य कभी भी सुख नहीं पा सकता। इस तरह की बड़ी ही ज़्यादा तीव्र भावनायें किसी के प्रति कभी भी नहीं बनानी चाहिए। क्योंकि सभी परमात्मा की संतान हैं। किसी से भी द्वेष बनाना नहीं चाहिए। कोई भी आप प्रश्न उठाइये। जैसे कि कोई कहेगा कि आज हिन्दू धर्म है, तो उसको कोई हाथ भी नहीं लगा सकता, अगर वह धर्म है, तो। पर वह राजनीति नहीं है, वह धर्म है। और धर्म को कोई छू ही नहीं सकता क्योंकि धर्म शाश्वत है। धर्म को कौन छू सकता है? आना-जाना और मरना-जीना तो चलता रहता है, लेकिन धर्म नष्ट नहीं हो सकता। अगर 12 परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt आप ही धर्म से हो जायें तो धर्म नष्ट हो जाएगा और नहीं तो आपका धर्म कोई नहीं तोड़ सकता। किसी दूर की मजाल नहीं कि आपका धर्म तोड़े। पर धर्म को पहले अपने अन्दर जागृत करना चाहिए | जब तक आपके अन्दर धर्म जागृत नहीं होगा, जो कि आप देख रहे हैं (बोर्ड पर) गोल बना हुआ है, इसके अन्दर आपके दस धर्म हैं, ये धर्म जब आपके अन्दर जागृत हो जाएंगे तो जो धर्म आप नष्ट कर रहे हैं रोज, रोज किसी न किसी वजह से-क्योंकि आपकी बहुत सारी इच्छायें हैं, आपमें लालसायें हैं, वासनायें हैं, बहुत सी आदतें पड़ गयी हैं, इसकी वजह से जो आपके अन्दर का धर्म रोज नष्ट हो रहा है वह जागृत होते ही आप धार्मिक हो जाएंगे| क्योंकि आप दूसरा काम कर ही नहीं सकते। जैसे मैं कभी भी नहीं कहती हैं कि आप शराब मत पीओ। मैं नहीं कहती हैं, क्योंकि कहने से आधे लोग उठ जायेंगे, फायदा क्या ? मैं कहती हैँ : अच्छा पार हो जाओ। माँ के तरीके उल्टे होते हैं न! चलो भई, पहले पार हो जाओ। फिर मैं कहूँगी : अच्छा अब पी कर देखो शराब, पी नहीं सकते, उलटी हो जायेगी। धर्म जब जागृत हो गया अन्दर तो वह फेंक देगा आपकी शराब को। आप पी नहीं सकते। एक साहब ने कोशिश की। उनका तो खून निकल आया। उन्होंने कहा, 'भगवान बचाए रखे में तो जाऊं। और उनको इतनी बदबू आने लग गयी जो कभी उनको शराब में आने लग गयी। कहने लगे, 'अजीब से, सड़े से, उसमें बदबू आ रही बदबू नहीं आती थी, वो उनको बदबू । थी। अब मैंने कहा, इसे सात साल से चढ़ाते रहे पेट में, उसकी नहीं आयी ? कहने लगे पता नहीं मेरी जीभ मरी हुई थी। धर्म इस तरह इतने ज़ोर से आपके अन्दर जागृत हो जाता है कि फिर पाप और पुण्य जो है जैसे नीर व क्षीर विवेक हो जाता है, उस तरह से अलग-अलग हो जाता है और आप जान जाते हैं कि ये मेरे लिए रास नहीं आएगा, यह मेरे माफ़िक नहीं आने वाला। ये मुझे सूट ही नहीं कर सकता, इसकी एलर्जी है मुझको। आप एलर्जिक ही हो जाते हैं। और इसलिये पहले सहजयोग में बताया ही नहीं जाता है कि तुम ये नहीं करो, वो नहीं करो । वह अपने आप करने लग जाते हैं। क्योंकि आपके अन्दर आपका जो 'परम गुरू आत्मा है', शिव स्वरूप आत्मा जागृत हो करके वही आपको समझा देता है कि भई, देखो ये चीज़ चलने वाली नहीं है अब हम से। क्योंकि आप अब आत्मा हो गये इसलिये अब आत्मा बोलेगा। और बाकी जो चीज़ है गौण हो जाती है, और मुख्य हो जाता है, 'आत्मा'। | इस प्रकार हमारी आज तक की संसार की गतिविधियाँ रहीं और मनुष्य इस प्रकार बढ़ता रहा। लेकिन आज समाँ दूसरा है। जैसे कि पहले एक बीज से अंकुर निकला, अंकुर निकलने के बाद पेड़े का तना बना, उसमें से पत्तियाँ, शाखायें सब निकलीं लेकिन ये 'सब' जिस लिए हआ है, वो है इसका 'फल'। तो आज मैं देख रही हूँ मेरे आगे अनेक फूल बैठे हुए हैं। इन फूलों का फल बनाने का काम यही में करती हैँ और कुछ नहीं। और आप सब वह फल हो सकते हैं। तो 'सारे' ही धर्मों ने इसको पुष्ट किया है । सारे ही जितने प्रवर्तक हो गये सब ने इसको पुष्ट किया है। जितने दुनिया के महात्मा हो गये इन्होंने इसे पुष्ट किया है। जितने सन्त, साधु, द्रष्टा हो गये उन्होंने इसे संजोया है और पनपा है। और जितने भी इस संसार के अवतरण हुए हैं, सबने इसमें कार्य किया है। ये कोई एक का कार्य नहीं कि, 'हम साहब फलाँ के पुजारी हैं, हम इनको मानते, उनको नहीं मानते।' ये तो ऐसे हो गया : मैं इस आँख को मानता हूँ, इस आँख को नहीं मानता। ये सारे के सारे आपके शरीर के अन्दर बसे हैं, और इन सबका समग्र जो प्रयत्न है, उस प्रयत्न का फल आपका हुए 13 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt आत्मसाक्षात्कार है। और वह समाँ आज आ गया है कि इन सब के फलस्वरूप जो इच्छायें थीं इन सब महानुभावों की, वो पूर्ति हों। वह आज का समय है। और यह काम पता नहीं क्यों, मुझे मिला! हालांकि ये काम और कोई कर भी नहीं सकता। ये तो माँ ही कर सकती है। जब पहाड़ों जैसी कुण्डलिनियाँ उठानी पड़ती हैं तब पता चलता है, पसीने छूट जाते हैं। और इसलिए एक माँ पर ये काम आ बैठा है। मैं कोई आपकी गुरू-शुरू नहीं हूँ। न ही मुझे आप से कुछ लेना-देना है। सिर्फ जो मेरा काम है वह मुझे करना है। और आप अगर चाहें तो मैं कर सकती हूँ, पर आप न चाहें तो जबरदस्ती यह काम हो नहीं सकता। अगर आप की इच्छा हो तभी हो सकता है। अगर आपके अन्दर यह शुद्ध इच्छा नहीं हो और यह इच्छा जागृत नहीं हो तो मैं इसे नहीं कर सकती। अब बहुत से लेग तो मुझ से मारा-मारी करने पर आ जाते हैं। लड़ाई करते हैं, झगड़ा करते हैं। ऐसे कैसे हो सकता है। और कुण्डलिनी ऐसे कैसे जागृत हो सकती है। पर होती है तो फिर क्या करें। अगर होती है तो उसे मैं क्या करूं। 'ऐसे कैसे?' मैंने कहा, 'होती जरूर है। इसमें कोई शंका नहीं।' अब अगर इस तरह से आप मुझसे लड़ाई करने पर आमादा रहें कि कैसे होती है, तो मैं आपसे क्या कहूँ? होती है, और जरूर होनी चाहिए। और ये कार्य करने का समय, ये आज की बेला आयी हुई है। इसे शुभ कृतयुग कहते हैं। और इस कृतयुग में कार्य होगा, जिसमें, जितने भी बड़े- बड़े अवतार, महानुभाव द्रष्टा और मुनि, तीर्थंकर आदि जितने लोग हो गये, उन सबके आपको आशीर्वाद हैं। और उनके आशीर्वाद स्वरूप आप यह समग्र आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इसमें कैसे होता है, क्या होता है, ये आप स्वयं जानें और देखें, बजाए इसके कि अपनी बुद्धि के दायरे में रहें। क्योंकि अभी तक धर्म भी एक बुद्धि के ही दायरे में है, हर एक चीज़ बुद्धि के दायरे में है। मैं देखती हूैँ इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लोगों ने लिख मारीं। लेकिन वह कुछ समझते ही नहीं। फायदा क्या हुआ? पसायदान, अभी कोई बता रहा था, उस पर इतनी बड़ी किताब किसी ने लिखी है। मैंने कहा, उनकी तो खोपड़ी खराब हो गयी| वो सारा सहजयोग उन्होंने लिखा है, और क्या लिखा है? सारे सहजयोग का वर्णन है और उसी की उन्होंने भविष्यवाणी की है। अगर आप ठीक से पढ़े तो आपकी समझ में आ जाएगा कि सारा सहजयोग बता गये हैं। अब उस पर क्या आप इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिख रहे हैं? उसमें लिखने का क्या है? वह तो पाने का होता है। और जो यथार्थ है, वह पाया जाता है, उसके बारे में बातचीत नहीं की जाती। 14 परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt बहरहाल मुझे आशा है आज आपमें बहुत से लोग यहाँ पार हुए बैठे हैं। आप ही जैसे दिखाई देते हैं, आप ही के जैसे। हो सकता है शुरू में बहुत से सहजयोगी उस दशा में न पाए जायें जैसे कि बड़े योगीजन होते हैं। लेकिन उनकी जागृति हो गयी है। और वह योग की तरफ़ वर्द्धमान हो रहे हैं। वो बढ़ रहे हैं। उनको देखकर के आप इसमें से पलायन मत करिये। बहुत से लोग होते हैं कि, 'साहब, मैं गया था, वहाँ एक साहब थे, वह कुछ ऐसा-वैसा कर रहे थे। तो इसका मतलब है आपने उनको देखा और अपने में पलायन कर गये। माने, आप चाहते कुछ है नहीं। आप अपने बारे में सोचिये। जो यहाँ लोग आए हैं, उनमे से हो सकता है, कुछ लोग ऐसे हों कि उनकी जागृती भी न हो। पर बराबर आप अगर नकारात्मक आदमी होंगे तो उसी के पास जाके धमकेंगे और उसी की वजह से आप भाग भी खड़े होंगे । इसलिये यह जानना चाहिए कि सहजयोग को प्राप्त करने के लिए सिर्फ आप में शुद्ध इच्छा होनी चाहिए। और कोई चीज़ की जरूरत नहीं। अगर आपके अन्दर शुद्ध इच्छा हो, जो स्वयं साक्षात् कुण्डलिनी है, वही शुद्ध इच्छा है। और जब यह शुद्ध इच्छा की शक्ति जागृत हो जाती है, तभी कुण्डलिनी का जागरण होता है। यह शुद्ध इच्छा आप सबके अन्दर है। लेकिन अभी जागृत नहीं है। इसको जागृत करना और सहस्रार में इसका छेदन कराना, यही कार्य करना आज का सहजयोग है। पर इसमें बहुत कुछ आ जाता है। क्योंकि जब आप एक फल को देखते हैं, तो उसमें सभी कुछ दिया हुआ, इस पेड़ का, सारा कुछ उसके अन्दर निहित होता है। अगर आप उसका एक बीज उठा कर देखें तो उसके अन्दर उतने सारे पेड़ बने हुए रहते हैं जो उसमें से निकलने वाले हैं। इस प्रकार सहजयोग अत्यन्त गहन और प्रगाढ़ है, किन्तु अत्यन्त विशाल है। इसमें सभी जितना कुछ परमात्मा का कार्य हुआ है संसार में, वह सारा का सारा निहित है। आशा है कि आप लोग अपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करेंगे। एक और अाज के दिन की विशेष बात यह है कि सहस्रार को खोलने का कार्य, जो कि महत्वपूर्ण था, मेरे लिए वही मुख्य कार्य था। मैंने अनेक लोगों की कुण्डलिनीयों को सूक्ष्म रूप से जाना था। और यह सोचती थी कि मनुष्य के क्या क्या दोष और उन दोषों का अगर में सामूहिक तरह से इस कार्य को करना चाहती हूँ, जो कि समय है, सामूहिक का, तो किस प्रकार सारे जो कुछ भी इनके मेलमिलाप हैं, उसको किस तरह से छेड़ा जाए कि एक ही झटके में सब लोग पार हो जायें। और इस पर मैंने बहुत गहन विचार किया था । और उसमें जो कुछ मुझे समझ में मैं आया उस हिसाब से ५ मई के दिन सहस्रार खोला गया, उस हिसाब से। और आज की रात, पूरी रात, समुद्र के किनारे अकेले जागी थी और जागते वक्त पूरे समय में सोच रही थी कि किस तरह से इस सहस्रार का आवरण दूर होगा। और जैसे ही मौका मिला, सवेरे इसलिये भी बहुत शुभ है। के समय ये सहस्रार खोला गया। आज का दिन और दूसरी आज की और भी बड़ी शुभ बात है कि गौरी जी का सप्तमी का दिन है, और उस वक्त भी ऐसा ही था। क्योंकि गौरी जो है, वह कुण्डलिनी है। और वही जो कन्या मानी जाती है, कुमारी है। वह 15 প 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt इसलिये कुमारी है कि अभी उसका योग शिव से नहीं हुआ है। इस लिए वह कुमारी है। और इस शुभ मुहूर्त पर, जब कि वह गौरी स्थान पर है, यह कार्य घटित हुआ। और जब यह कार्य घटित हुआ, उसके बाद मैंने सहजयोग का कार्य करना शुरू किया। और आप जानते हैं आज हज़ारों में लोग पार हो रहे हैं। आज अगर मैं किसी देहात में बोलती होती तो इससे सात गुना लोग बैठे होते। और बैठते ही हैं। शहरों में आना तो समय बर्बाद करना है। क्योंकि लोग वैसे ही पार नहीं होते। होने के बाद मेरा सर चाट जाते हैं। और वह भी मेरा, परेशान कर देते हैं और कोई जमते नहीं । अगर आप सौ आदमियों को पार कराइये, उसमें पचास आदमी तो सर चाटने के लिए आते हैं और पचास आदमी जो बच जाते हैं, उसमें से पच्चीस फ़ीसदी आदमी ऐसे होते हैं कि जो गहनता से सहजयोग को लेते हैं, क्योंकि वह स्तर नहीं है लोगों के, वह शक्ति नहीं है उनके अन्दर, वह सूझ-बूझ नहीं है। और अगर गाँव के लोग जो होते हैं, जो बहुत सीधे-सरल परमात्मा के बहुत नज़दीक पृथ्वी माता से नजदीक रहते हैं, उनकी जो शक्ति है वह इतनी गहन है और इस कदर वह आंकलन करते हैं कि आश्चर्य होता है। और एक रात में ही उनमें इतना बदल आ जाता है। और ऐसा जैसे कि प्रकाश फैल जाए, एकदम आग जैसे लग जाए। इस तरह से कोई भी गाँव में मैं जाती हैँ तो छ: सात हज़ार से आदमी कम नहीं आते। और अपने यहाँ बम्बई में आज कम से कम इतने वर्षों से कार्य कर रहे हैं। तो भी मैं कहती हैूँ बहुत लोग आए हैं। नहीं तो मैंने यहाँ तो एक से शुरू किया था। तो उस हिसाब तो काफ़ी लोग आए हैं। पर आपको जान लेना चाहिए कि सहजयोग जैसे मराठी में कहा गया है कि 'येरागबाळ्याचे काम नोहे।' वीरों का काम है। जिनमें ये वीरश्री हो, वही सहजयोग में आ सकते हैं। नहीं तो आधे लोग आते हैं कि, 'माँ, हमारी बीमारी ठीक कर दो।' या उसके बाद आते हैं मेरा सर चाटने के लिए । उसके लिए सहजयोग नहीं है। सहजयोग है अपनी आत्मा को पाने के लिए । उसे आप पहले प्राप्त करें, आपकी तन्दुरुस्ती ठीक हो जाएगी, पर आप दूसरों की भी तन्दुरुस्ती ठीक कर सकते हैं। सबसे बड़ी तो बात यह है कि एक दीप जब जल जाता है तो अनेक दीपों को जला सकता है। इसी प्रकार आप भी अनेकों को जागृत कर सकते हैं। 16 परमात्मा की खोज 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt सहजयोग एक जीवन्त प्रणाली है। यह मरी हुई प्रणाली नहीं जिसके लिए आप अपना मेम्बरशिप बना लें या पाँच रुपया दे दें, चार आना, मेम्बर हो जायें , ऐसा नहीं है। आपको' कुछ होना पड़ता है। आपको बदलना पड़ता है। आपमें कुछ फ़र्क आना पड़ता है। और वह आने के बाद आप को स्थायी होना पड़ता है और वृक्ष की तरह खड़ा होना पड़ता है। ऐसे जो लोग होंगे वही सहजयोग के योग्य होते हैं। आजकल बातें तो लोग बहुत करते हैं कि समाज में ये सुधारणा होनी चाहिए और यह अपने देश में होना चाहिए। लेकिन सहजयोग में जब आप आएंगे नहीं तब तक आपके देश में न कोई सुधारणा हो सकती है न आप किसी की मदद कर सकते हैं, जैसे मैंने आपको समझाया। सहजयोग एक प्रेम की शक्ति है, परमात्मा के प्रेम की शक्ति। और वह प्रेम की शक्ति आपके अन्दर बहना शुरू हो जाती है, जो सर्वव्यापी शक्ति है। उस शक्ति को किस तरह से चलाना है, अपने अन्दर स्थायी कैसे करना है, उसका उपयोग कैसे करना है, ये सारी बातें आपको सीख लेनी चाहिए। और इस सीखने में आपको कोई समय नहीं लगता। अगर आपके अन्दर सद-इच्छा है तो सब चीज़ हो सकती है। अर्थात् आप जानते हैं कि इसके लिए पैसा-वैसा कुछ नहीं दे सकते। हमारी कोई संस्था नहीं है। हमारे यहाँ कोई सदस्यता नहीं है। भी नहीं है। यह सबको पाने की चीज़ है । और सब जब पा लें, आप अगर सभी पा लें, तो मेरे कुछ खयाल से आधे बम्बई का तो उद्धार हो गया। आने के बाद सिर्फ जमना चाहिए। इसकी बड़ी आवश्यकता है। बहुत गहन है, और है भी एक लीलामय। बड़ा ही मज़ेदार है। बहुत ही लीलामय चीज़ है। अगर आप इसमें आ जायें, इतना माधुर्य इसके अन्दर है। कृष्ण ने सारा माधुर्य इसमें भरा हुआ है। और सब तरह की इतनी सुन्दर इसकी रचना है कि उसको जानने पर मनुष्य सोचता है कि, 'क्या मैं इतना सुन्दर हूँ अन्दर से? क्या मैं इतना विनोदी हूँ? क्या मैं इतना धार्मिक हूँ?' धर्म और विनोद तो हम समझ भी नहीं सकते । लेकिन धर्म जहाँ हमें हँसाये और आनन्द विभोर कर दे, वही धर्म असली है। परमात्मा आप सबको आत्मसाक्षात्कार दें। और सुबुद्धि दें कि इसमें आप जमें और आगे बढ़े। बहुत से लोग इसमें बढ़ गये हैं, बम्बई शहर में। बहुत लोग हैं। ज़्यादा से ज़्यादा लोग अब हो गये हैं, मेरा कहना है। यहाँ सब तो आए नहीं हैं। जो भी हैं आए हुए हैं। लेकिन और इसके अलावा बहुत से लोग हैं जो यह कार्य अनेक केन्द्रों में कर रहे हैं, मुफ़्त में कर रहे हैं। आप उनसे मीलिये और अपनी प्रगति करिये। परमात्मा आप सबको आशीर्वाद दे। 17 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt विवाह से पूर्व हमारा ढंग 'मेन अॅड वीमेन' नामक पुस्तक में हमने पढ़ा है कि किस प्रकार श्रीमाताजी ने अबोधिता और सतित्व पर महत्व दिया है। उन्होंने यह भी बताया है कि यदि हम आपस में भाई- बहन के सिद्धांतों को पुर्नस्थापित कर सके तो हमारा जीवन अति आनन्दित हो जाएगा। हम दूसरों के साथ एक पवित्र और निर्मल संबंध का आनंद तभी ले सकते हैं जब हम स्वयं पवित्र हों । और भी, सामूहिकता की अबोधिता, सुरक्षा एवं पवित्रता को कायम रखने के लिए श्रीमाताजी ने यह स्पष्ट किया है कि सहजयोग में अपना जोड़ीदार (पती या पत्नी) ढूंढ़ना योग्य नहीं है। यदि किसी की सहजयोग में विवाह करने की इच्छा है तो यह संभव है कि वह व्यक्ति श्रीमाताजी से अपने लिए जीवन-साथी ढूंढ़ने की विनती करे। अपना नाम सहज विवाह सूची में देकर यह कार्य किया जा सकता है। * फिर भी, ऐसा करने के लिए किसी पर कोई दबाव नहीं है। हर एक सहजी को सहज सामूहिकता के बाहर अपना जीवन साथी ढूंढ़ने की पूरी स्वतंत्रता है। 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे ...लेकिन यदि आप सहजयोग में विवाह करना चाहते हैं तो आपको सहजयोग में लोग नहीं ढूंढने चाहिए। अब आज का दिन रक्षाबंधन का महान दिन है। इसलिये मुझे आपको रक्षाबंधन के बारे में कुछ बताना है। इससे पहले हमें मर्यादाओं के बारे में बात करनी होगी जिसका पालन सभी सहजयोगियों को करना चाहिए। एक चीज़ जो मैंने यहाँ, पश्चिम में पाई है, कि हालांकि हम मूलाधार के महत्व को समझते हैं, जो कि बहुत ही जरूरी है और जब तक हम अपने मूलाधार को पूरी तरह से पुनर्स्थापित ना कर ले हमें अतिगतिमय उत्थान नहीं प्राप्त होगा। इन सब के बावजूद, अभी भी ऐसी विलंबकारी चीजें हैं, जो आप अपने आस-पास देखते हैं। जैसे लोग सहजयोग में अपना जीवन साथी चुनना शुरू कर देते हैं। इसकी अनुमति नहीं है, इसकी अनुमति नहीं है। आप अपने आश्रम को गंदा करने के लिये नहीं हैं, आप को अपने ध्यान केन्द्र विवाह-शोधक समाज के रूप में इस्तेमाल करना गलत है। आपको सहजयोग का सम्मान करना चाहिये । आपको इस मुद्दे को सम्मान देना चाहिये। यदि आपको विवाह करना है, तो आप अपना जीवन साथी सहजयोग के बाहर ढूंढ सकते हैं, शुरुआत के लिये| पर यदि आपको सहजयोग में विवाह करना है, तो आपको सहजयोग में लोग नहीं ढूंढने चाहिये। ये खुद सहजयोग के लिये बहुत हानिकारक है और आप लोगों के लिये भी । यह एक ऐसी चीज़ है जो किसी को भी सहजयोगियों के साथ कभी नहीं करनी चाहिए। हर हाल में आप सभी भाई - बहन हैं। और इसलिये मैं हमेशा ऐसे लोगों के विवाह को प्रोत्साहन देती हूँ जो अलग- अलग देशों और ध्यानकेन्द्रों से हैं..." (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) 21 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt परंतु यदि आपको सहजयोगियों से शादी करनी ही है, तो आपको उनसे शादी उनकी पवित्रता और इसके आदर्शवाद को नष्ट करने की कीमत पर नहीं करनी चाहिए : ऐसा करना बहुत ही गलत होगा, जैसे किसी सहजयोगी से अपनी शादी खुद ही तय कर लेना। ये खतरनाक होगा। मैं कुछ कहना नहीं चाहती पर इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा, क्योंकि यह देव-कार्य के विरुद्ध है, बिल्कुल देव-कार्य के विरुद्ध। आपको अपना ब्रह्मचर्य विकसित करना होगा, आपको अपना मूलाधार विकसित करना होगा। इसकी जगह, यदि आपने किसी सहजयोगी या सहजयोगिनी का इस्तेमाल अपने लिये जीवन साथी का चुनाव करने के लिये किया तो ये बहुत-बहुत दु:खदायी होगा। आपका मूलाधार स्थिर नहीं होगा। मेरा मतलब है, कि ये एक बहुत बुरा आघात है, आपके विकास के लिये| पिछले जीवन शैली की वजह से और जिस प्रकार की आप लोगों की शर्तें रही हैं, आप लोग नहीं समझते कि ध्यान केन्द्र और हर जगह की पवित्रता बनाये रखना जरूरी है। इसलिये एक शहर में इस तरह के संबंध होना बहुत गलत चीज़ है। यह सबको खराब कर देता है। इस परेशानी को बढ़ाने के लिये, ये कुछ लोगों की आदत है, मैंने सुना है, कि वो चिढ़ाने की कोशिश करते हैं, 'आप एक साथ बेहतर दिखते हैं, आप साथ में अच्छे लगते हैं।' वो चिढ़ते हैं और इसका मज़ा लेते हैं। ये एक प्रकार का मूलाधार का विकृत आनन्द लेना है, दूसरों को चिढ़ाना, 'आप उसके साथ बहुत अच्छे दिखते हो, बेहतर होगा आप दोनो शादी कर लो।" यह एक प्रकार की अनर्थक कल्पना है। निश्चय ही, इन सब के लिये योगियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। पर फिर भी यदि आप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, आपको मर्यादाओं का पालन करना ही चाहिये। जब शादी तय नहीं हुई है, तो एक दूसरे को चिढ़ाना और ऐसी अनर्थक चीज़ों का आनन्द नहीं लेना चाहिये। अगर शादी तय हो गयी है, तो ठीक है। और ये विवाह के आनन्द को पूरी तरह से खत्म कर देता है, क्योंकि कोई उत्सुकता बची ही नहीं रहती और बहुत बार मैंने देखा है कि निरर्थक सम्बन्ध 22 सहज समूह में जीवन-स्थी न ढूंदे 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt स्थापित हो जाते हैं। उनमें से कुछ तो वाकई अच्छे नहीं होते। और वे वास्तव में हानिकारक होंगे और उनमें से कुछ कभी स्थापित नहीं होते। इसलिये अगर ऐसे सम्बन्ध स्थापित होते हैं, तो वे गलत हैं। और अगर वो स्थापित नहीं होते, वे दिल को दु:ख पहुँचाते हैं। इसलिये आपको ऐसी चीज़े नहीं करनी चाहिये। आपके पास ऐसे लोगों के अनुभव हैं लोगों को सहजयोग में लेकर आयें हैं। अगर आप ऐसा जिन्होंने बाहर शादी की है और अद्भुत कर सकते हैं, तो आपको ये करना चाहिये। पर अगर आपको सहजयोगियों से शादी करनी है तो आपको उनसे शादी उनकी पवित्रता इसके आदर्शवाद को नष्ट करने के कीमत पर नहीं करनी चाहिये। अपने स्वार्थ के लिये, अपने आनन्द के लिये, आपको सहजयोग का नाम खराब नहीं करना चाहिये। ये एक चीज़ है, जो मैंने देखी है, इसलिये मैं कहूँगी कि आज का ये दिन जो कि सम्बन्धों में पवित्रता का है, हमें जानना चाहिये कि हमें एक दूसरे के साथ भाई - बहन के जैसा व्यवहार करना चाहिये। अपने मन को इसमें बहने न दें। क्योंकि यदि आपने अनुमति दी, तो इसका कोई अन्त नहीं है। जैसा कि आप जानते हैं कि खुद को संतुलन में लाना कितना मुश्किल है..." १) (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) पर मेरे लिये ये एक समस्या पैदा कर देता है कि आप अपना विवाह खुद ही तय कर लेते हैं : फिर वो मेरे पास ये कहते हुए आते हैं कि, 'माँ अब हमने शादी करने का तय कर लिया है। हम शादी कर लेते हैं। मुझे 'हाँ' कहना ही पड़ता है। कई चीज़ों में में 'हाँ' नहीं करना चाहती, पर मुझे 'हाँ' कहना पड़ता है। किंतु ये बहुत ही बुरा अग्रगमन निर्माण करता है। हो सकता है किसी मामले में, असामान्य मामले जैसे, इस तरह के विवाह के लिये किसी को चुना हो । पर इसका मतलब ये नहीं है कि आपको चीज़ों अपने हाथ में ले लेना चाहिये और इस तरह की चीजें करना शुरू कर देनी चाहिये, ताकि बाद में मुझे परेशानी हो। क्योंकि एक बार अगर आप ऐसा करते हैं तो बाद में कोई भी ऐसा करने लगता है। ये एक प्रकार का आक्रोश है, कि आप कुछ तय करते हैं, मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि, 'माँ, हमें शादी करनी है ।' अब मैं क्या कहूँ? 'ठीक है, कर लो शादी।' पर ये मेरे लिये एक समस्या पैदा कर देते हैं और बाकी लोगों के दूसरा लिये भी....'" (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) शादियाँ बनाने की और इस तरह के रोमांस के खेल खेलने की कोई जरूरत नहीं है : तो हम सहजयोगियों को इसमें ज़्यादा प्रगति करनी होगी। बजाय इसके मैं पाती हूँ कि 23 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt लोग, ज़्यादातर पश्चिम में ये सोचने की कोशिश करते हैं कि हम किससे शादी करने जा रहे हैं। ये सम्बन्ध जो स्थापित होते हैं वो गलत हैं। इस तरह शादियाँ बनाने और रोमांस के खेल खेलने और उन सब की कोई जरूरत नहीं है। अगर शादी होनी ही है तो वह होगी। पर वातावरण को गंदा न करें। कुछ लोग छोटे होते हैं जो नाइयों की तरह होते हैं, आप देखते हैं, जो शादियाँ बनाने की कोशिश करते हैं और इसकी उससे और उसकी इससे रिश्ते जमाने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं...' (१९८१, दिवाली पूजा, लंदन) यह बहुत ही पवित्र क्षण है, जब आप अपने पति या पत्नी से मिलने जा रहे हैं : मैंने देखा है, कि भावमय जीवन में भी आप लोग बहुत सहते हैं, सब चीज़ों के लिये। कारण है, आप सोचना शुरु कर देते हैं। आप देखिये, अब भारत में हमारा विवाह जैसे हाता है, वह बहुत ही सादा और सरल है। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है, कि हमारी शादी होगी। इसलिये आपको सीखना चाहिये कि पति के साथ कैसे रहना है और आदमी को हमेशा बताया जाता है, कि पत्नी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये। पर उन्हें ये पता नहीं होता कि पति कौन है और पत्नी कौन है। पर पति और पत्नी एक प्रकार के चिन्ह के समान छोटे हैं। वो नहीं जानते कि कौन है, पर कोई भी हो सकता है। इसलिये एक बार आपने उसे (पत्नी को) धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया, ये आपके लिये एक आश्चर्य के समान होता है और आप इसका आनन्द लेते हैं। और इस पूरे चीज़ का निर्माण उस अंत तक किया जाता है, जहाँ वो क्षण भी शुभ होना चाहिये। हालांकि वो जन्मपत्रिका देख कर भी विचार करते हैं, ये एक महत्वपूर्ण भाग है, क्योंकि यदि आप जन्मपत्रिका नहीं देखते तो ये विनाशकारी हो सकता है। इसलिये वो जन्मपत्रिका देखते हैं। और अगर उसमें बहुत सारे मुद्दे हों, तो वो कहते हैं, कि छब्बीस का जुड़ना उचित है और फिर उनका विवाह हो जाता है, अन्यथा नहीं होता। अब ये जरूरी नहीं है, कि हम मिले या ना मिले, कभी-कभी लोग मिलते हैं, एक साल तक एक दूसरे से बात-चीत करते हैं, हो भी सकता है कि उनकी शादी विलंबित हो गयी हो, शुभ समय नहीं होता, उन्हें साथ में रहने का थोडा समय मिल जाता है, पर कभी एकांत में नहीं। वे कभी एकांत स्थान पर नहीं जाते| इसलिये उस क्षण को बहुत ही पवित्र क्षण के रूप में रखा जाता है, जब आप अपने पति या पत्नी से मिलने वाले होते हैं, ये बहुत ही पवित्र क्षण होता है। इसलिये आप उसी बिंद पर 24 सहज समूह में जीवन-साथी न ढूंढे 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-24.txt केन्द्रित होते हैं। तो ये अचानक तय होता है। अब आप उस क्षण को पवित्र क्षण की तरह रखते हैं, कभी-कभी ऐसा होता है कि आपको बीच में थोड़ा समय मिल जाता है, बहुत बार, निर्णय लेने के बाद भी आपको उस व्यक्ति को देख कर उसे एक भावना के रूप में ही कायम रखना होता है, पर आप अपना चित्त हटने नहीं देते, यह पूरी तरह से एकाग्रित प्रयास है। ये खटके से हो जाता है, क्योंकि आप इसे स्वीकार करते हैं...' (१९८५, देवी पूजा, सॅन दिएगो, यू.एस.ए.) बेहतर होगा शादी से पहले आप इन सब बुरी आदतों से छुटकारा पा लें : जब क्राइस्ट ने कहा था, 'दाऊ शैल नौट हैव अॅडल्टरस आईज' (आपकी आँखें व्यभिचारी नहीं होनी चाहिये)। उन्होंने ऐसा इसलिये नहीं कहा क्योंकि ये संभव नहीं था । ये सहजयोगियो के लिये बिल्कुल संभव है। और शादियों के बारे में इतनी चिंता करने जैसी कोई चीज़ नहीं है । इतना क्या जरूरी है? इतने लोग शादीशुदा हैं और उनको क्या हुआ है। यहाँ तक कि सहजयोग विवाह में भी, इन बुरी आदतों के कारण कुछ विवाह असफल हो गये हैं। इसलिये बेहतर होगा आप शादी से पहले इन सब बुरी आदतों से छुटकारा पा लें। क्योंकि शादी के बाद भी वे यही करते हैं और लड़के-लड़कियाँ ढूँढते हैं। क्योंकि अगर शादी से पहले इन आदतों को रोका नहीं गया, तो वे ऐसा करते ही रहेंगे। इसलिये शादी से पहले किसी ने ऐसा करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। और मैंने देखा है कि अब तक ऐसी शादियाँ कभी-कभी सफ़ल नहीं होती। और अगर हुई भी हैं तो वो एक प्रकार का दिखावा है। इससे कभी आपको सच्चा आनन्द प्राप्त नहीं होता, ये एक आनन्दरहित अनुसरण है..." १) (१९८४, रक्षा बन्धन, यू.के.) सहजयोग में कोई छल नहीं होना चाहिये : और इसलिये जो विवाह करना चाहते हैं, उन्हें अपना पूरा विवरण यहाँ पर लीड़र को देना चाहिये, सच्चाई से और सच्चाई से बताना चाहिये, कि आप बाहर शादी करना चाहते हैं या नहीं, सब कुछ पूरी सच्चाई से बताना चाहिये । कोई छल नहीं होना चाहिये । सहजयोग में कोई छल नहीं होना चाहिये। यदि आपका पहले ही कोई साथी है या कुछ भी, सब कुछ साफ़-साफ़ लिखा होना चाहिये ताकि मैं जान सकूं कि आप इस प्रकार के व्यक्ति हैं। भारत में कोई भी अठारह साल से कम उम्र की लड़की और इक्कीस साल से कम उम्र का लड़का शादी नहीं कर सकते। हम उनकी सगाई कर सकते हैं। ठीक है। और जो करना चाहते | हैं, वो भारत जा कर शादी नहीं कर सकते, हम आपके लिये भी कुछ व्यवस्था कर देंगे... (१९८७, क्रिटीसीजम, इगो, राइट साइडेड डेंजर्स, फ्रान्स) 25 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-25.txt ० साम |न न तर अबोधिता और अं पवित्रता 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-26.txt अबोधिता, जो हमारे अंदर की गहराइयों में हैं, यह हमारा स्वभाव है, यही इस निर्मिती का सार है : यदि श्रीगणेश की आराधना करनी है तो हमें अपनी प्रधानतायें बदलनी होगी। आज हम हमारे अंदर की अबोधिता की पूजा कर रहे हैं। हम उसकी पूजा कर रहे हैं, जो शुभ है, जो अबोध है। अबोधिता, जो हमारे अंदर की गहराईयों में है, यही हमारा चरित्र है, यही हमारा स्वभाव है, हमने इसी के साथ, जनम लिया है, यह पूरे विश्वनिर्माण का आधार है, यही विश्वनिर्माण का सार है ... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, इंग्लैंड) अबोधिता प्रत्यक्ष होनी चाहिये : ...अबोधिता ही सार है और यह सार प्रेम है। इसलिये हमें ये समझना है कि हमें अपने अंदर श्रीगणेश के गुण धारण करने हैं। उनकी अबोधिता का गुण जो पहले से ही हमारे अंदर मौजूद है वह प्रकट होना चाहिए...' (१९९४, श्रीगणेश पूजा, मॉस्को) जीवन अबोधित है : अभी आपको महाराष्ट्र की सड़कों पर ध्यान देना चाहिए-अभी में ट्रेन से आ रही थी, मैंने देखा कोई भी पुरुष औरतों में रुचि नहीं दिखा रहा था। स्त्रियों को पुरुषों में रुचि नहीं थी । कुछ पुरुष एक दूसरे से गले मिल रहे थे, निष्कपट भाव से दूसरे को थामे चल रहे थे। मेरा मतलब ये पूरा विषय यह है कि जीवन अबोधिता है...' (१९८५, पूजा, नासिक, भारत ) "...जैसा कि आप जानते हैं कि सहजयोग में नैतिकता सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है... (१९९३, दिवाली, विवाह की घोषणा, रशिया) आपको यह सिद्ध करना है कि अबोधिता का सम्मान होना चाहिए : '...सबसे पहले हमें यह समझना होगा, कि हमारा जन्म सन्दिग्ध, संकटपूर्ण समय में हुआ 27 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-27.txt है। ईसामसीह के समय में बहुत कम लोग थे जिन्होंने उनका अनुकरण किया और उन्हें कुण्डलिनी के विषय में अधिक जानकारी भी नहीं थी । उन्हें कोई ज्ञान नहीं था । उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि ईसामसीह श्रीगणेश जी के ही अवतरण थे। किंतु आप यह पाएंगे कि ईसाई धर्म को मानने वालों में ही ईसामसीह का अपमान होता है, अबोधिता का अपमान होता है और वह कानूनी तौर पर जायज़ माना जाता है। तो उसी भायनक परिस्थितियों में जनम लेने के बाद हमें खुद ही एक महान शक्तिशाली सामर्थ्य खड़ा करना होगा, अपनी आध्यात्मिकता का। आज जब मैं आई, कोई हवा नहीं चल रही थी, कोई पत्ता नहीं हिल रहा था, मगर आपके गाना शुरू करने पर आपसे भारी मात्रा हवा बहने लगी और उससे मैं समझ गयी कि यह दैवी शक्ति प्रकट हो चुकी हैं। वह है और वह काम कर रहा है। सिर्फ ये ही नहीं, वह बड़ा शक्तिशाली है। साधारणत: ये ठण्डी हवा मेरी ओर नहीं आती। वो दसरी ओर जाती है। मगर ये ठण्डी हवा इतनी जबरदस्त थी कि मुझे किसी का हाथ थामना पड़ा, और एक भी पत्ता नहीं हिल रहा था। तो ये जो सामूहिक शक्ति आपके पास है, याद रखिये आपको उससे झँझना है और आपको ये सिद्ध करना है कि अबोधिता का सम्मान करना चाहिए । आदिशक्ति ने सबसे पहले श्रीगणेश को बनाया। वो पहले देवता थे जिन्हें बनाया गया। क्यों? क्योंकि उसे सारा वातावरण चैतन्य, धार्मिकता और मंगलता से भरना था। वो अब भी है। वो सब जगह है और आप महसूस कर सकते हैं कि वो काम कर रहा है। लेकिन आधुनिक मानसिकता के अन्दर वो नहीं उतरता क्योंकि आधुनिक मानसिकता जानती नहीं कि अबोधिता क्या है। उन्हें अबोधिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वो लोग जिस प्रकार सब जगह जा रहे हैं, मानो इस धरा पर कभी कुछ हुआ ही नहीं। तो अबोधिता से जीवन में नैतिकता आती है। नैतिकता अबोधिता का प्रकटीकरण हैं ... १) (१९९६, श्रीगणेश पूजा, कबेला) अगर आपको आत्मसाक्षात्कार मिल सकता है तो ये भी क्यों नहीं? : "...मुझे इस बात की फिक्र है कि लोग गुप्त तरीके से इन चीज़ों में उलझ रहे हैं। और वे कभी-कभी पाखण्डी हो जाते हैं, उन्हें पाखण्डी होने में कोई परेशानी नहीं होती। ठीक है, वे सहजयोगी है, मगर इस विषय में उन्हें लगता है कि वे जो चाहें कर सकते हैं और कभी-कभी उनमें से कुछ लोग कहते हैं, 'माँ ने कहा है, सब ठीक है।' मैंने ऐसा कभी भी नहीं कहा है। यह एक विषय है जिसमें मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। 28 ১ अ अे 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-28.txt आपका आपके प्रति, आपके जीवन के प्रति, आपके अस्तित्व के प्रति और आपके व्यक्तित्व के प्रति एक पवित्र दृष्टिकोण होना चाहिए । आप लोग संत हैं। यदि एक संत का चरित्र अच्छा नहीं है, मैं उसे चरित्र कहती हैँ, चरित्र का सार - तो वह व्यक्ति संत नहीं है। यह शुद्धता बरकरार रखनी चाहिए। उस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। आप हर एक चीज़ की जड़ों पर घाव नहीं कर सकते। अगर सामूहिक तरीके से काम हो जाता है, कोई भी अपने आप को ठगता नहीं, अपने आपको फँसाता नहीं और मन को उत्थान की सही राह पर ले जाता है। अपने मन को उत्थान के बारे में सोचने से, हम ऊपर कैसे उठेंगे ये सोचने से, हमें आनन्द देने वाले पलों के बारे में सोचने से, आप मुझसे पहली बार मिले उस दिन के बारे में सोचने से साफ किया जा सकता है। और जब कभी ऐसा विचार आता है, तो आपको कहना है, 'यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं।' मैं आपको बताऊं यह ज़्यादा मानसिक है न कि शारीरिक। मुझे पता है ये मुश्किल है, लेकिन आपको आत्मसाक्षात्कार मिल सकता है तो ये भी क्यों नहीं। आप सबको यह समझना होगा कि इस पर कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता। अगर आप यह जारी रखते हो तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब किसी राक्षस की तरह आप बाहर फेंक दिए जाओगे। इसलिये इसमें कोई समझौता नहीं है। अपने आप से कहिए, 'खुद को मत फँसाईये, खुद को धोखा मत दीजिए । यदि आपमें कुछ छुपा है तो आपका उत्थान नहीं हो सकता। आप नीचे खिंचे चले जाओगे क्योंकि यह आपकी कमजोरी है और आप कमजोर, अधिक कमजोर होते चले जाओगे... " (१९८५, मूलाधार, बर्मिंगहैम, यु.के) तो अपनी पवित्रता का सम्मान करना वास्तव में मेरा सम्मान करना है : "...क्योंकि मैं पवित्रता के रूप में आप में निवास करती हूँ। अगर श्री गणेश मंगलता हैं, मैं पवित्रता के रूप में आपके अन्दर निवास करती हूँ... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इग्लैंड) मेरे बच्चे होने की वजह से आप भी पवित्रता के परम सुख का आनंद ले सकते हैं, जैसे मैंने अपने सम्पूर्ण मनुष्य जीवन में लिया है : '...तो आज आप अपने अन्दर स्थित श्रीगणेश की पूजा करने आए हैं। मैं क्या हूँ, श्रीगणेश के रूप में पूजने के लिए, मेरी समझ में नहीं आता। क्योंकि मैं ही वो हूँ। जब आप मेरी पूजा करते हैं, तब आप अपने अन्दर के श्रीगणेश को जागृत करना चाहते हैं। वह आपमें जागृत हों। मैं जो भी 29 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-29.txt कहूँ, वो मंत्र बन जाए आपमें वह जागृत करने के लिए, ताकि मेरे बच्चे होने की वजह से आप भी पवित्रता के परम सुख का आनन्द ले सकें जैसे मैंने अपने मनुष्य जीवन और दैवीय जीवनों में लिया है। आप उसी प्रमाण में आनन्द लें यही मैं चाहती हैँ। कम से कम आपको उसका स्वाद लेना चाहिए... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इंग्लैंड) यह कठोरता नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व का सम्मान है : '...तो इस समय आप सब भारत आ रहे हैं। मुझे आपसे अनुरोध करना है कि आप मेरा सम्मान दूराचार न करके करें। बचकानी हरकत न करें जैसा आप तस्वीरों और फिल्मों में देखते हैं और वो सब अनर्थक है। आप इन सबसे उपर हैं। सावधान, उच्च कार्यों को आपके पवित्रता के स्थान से देखा जाता है। हम अपना स्थान नहीं छोड़ सकते, चाहे हमारी जयजयकार हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम अपना स्थान नहीं छोड़ सकते। जैसे ये सभी अवधूत, ये कहेंगे, 'तकिया सोडा सना' -मतलब 'हम सब अपना स्थान नहीं छोड़ेंगे।' हम सब ये अपने स्थान पर हैं। हमारा स्थान है, कमल के अन्दर। हम कमल को नहीं छोड़ सकते। हम कमल के अन्दर बैठे हैं। ये हमारा स्थान है। तब यह सभी अनर्थक चीज़ें जो आपने प्राप्त की हैं, निकल जाएगी। आप देखेंगे, आप सुंदर इन्सान बन जाएंगे। सभी भूत भाग जाएंगे, सभी पकड़ भाग जाएंगी| पर यह कठोरता नहीं है, बार-बार में आपको बता रही हूँ। यह आपके अस्तित्व को सम्मान देना है। जैसे आप मुझे बाहर सम्मान देते हैं, आप मुझे अन्दर सम्मान देते हैं। यह उतना ही १) आसान है... (१९८५, श्रीगणेश पूजा, ब्राईटन, इंग्लैंड) हमारे अन्दर सबसे बड़ी चीज़ लैंगिकता नहीं, बल्कि हमारी पवित्रता है : .आपके अन्दर जो चुंबक है, वह श्रीगणेश हैं। कई लोग जानते हैं कि मुझे दिशा का बड़ा इन्द्रिय ज्ञान है। यह इस चुम्बक के द्वारा आता है जो निपुण है। यह एक चुम्बक ही है जो आपको जोड़े रखता है या ठीक करता है या हर आत्मा की ओर केन्द्रित रखता है। यदि आपमें पवित्रता का इन्द्रिय-ज्ञान नहीं है तो आप कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ लटकते रहेंगे। अचानक आप बहुत अच्छे सहजयोगी बन जाते हैं, कल आप एक राक्षस बन जाते हैं, क्योंकि ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो आपको आत्मा के बड़े विचार से जोड़े रखती है। हम इसका 30 ১৪ 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-30.txt सामना करें। अब हम सबके लिए यह समय आ गया है, सभी सहजयोगी, कि हमारे अन्दर सबसे बड़ी चीज़ यौन नहीं है, बल्कि पवित्रता है। और वही आपको परिपक्व बनाएगी.... " | (१९८५, श्रीगणेश पूजा ब्राईटन, इंग्लैंड) संबंधों में आदर्शवाद के पूर्ण ज्ञान और प्रतिष्ठा के साथ रहें : ... ये सभी आदर्श आज भ्रमपूर्वक हैं। हमारे दूसरों के साथ संबंध। हर औरत को आकर्षक होना चाहिए, क्यों? हर पुरुष को आकर्षक होना चाहिये, क्यों ? किसलिये? आप इससे क्या हासिल करने वाले हैं? इसका क्या उपयोग है? आकर्षण ठीक है, जब तक आप निषेधक नहीं हैं, जब तक आप दूसरों के साथ आदर्श संबंध रखते हैं। यदि संबंध कुछ नहीं, बल्कि एक कुत्ता और कुत्ती की तरह बन जाए, तो यह बेहतर होगा कि आप इस प्रकार की कल्पना न रखें। किसी ऐसी चीज़ के पीछे भागना बिल्कुल गलत है जो हमारे राह में नहीं है। जहाँ तक एक दूसरे से संबंध का सवाल है मनुष्य को पूरी प्रतिष्ठा और आदर्शवाद के पूर्ण ज्ञान के साथ रहना होगा। अगर आप ये कहते हैं, 'क्या गलत है?' तो यह विवाद है, सबकुछ गलत है, और सबकुछ गलत है, एक गलत नहीं है, बल्कि सब, सब कुछ। लेकिन यदि आपको एक परिपूर्ण समाज चाहिए, तो आपको अपने पारिवारिक जीवन के आदर्शों को कायम रखना होगा। यह बहुत जरूरी चीज़ है । परंतु आप जैसे ही आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करते हैं वैसे ही यह आपके साथ घटित होने लगता है। मुझे आपको इस पर भाषण देना नहीं पड़ता, बस, आप ऐसा करते हैं, आप एक बहुत ही अच्छे पति या पत्नी बन जाते हैं। सहजयोग से बहत ही सुंदर परिवार निकल कर बाहर आते हैं, बहुत से हैं भी, आपने देखे हैं। सहजयोग में अब इतने सुंदर परिवार हैं और अब महान बच्चे, महान संत जो जन्म लेना चाहते थे वे आज उनके यहाँ जन्म ले रहे हैं... (१९८२, हृदय, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्र, यू.के.) आप जानते हैं आप इतने शक्तिशाली बन जाते हैं जब आपके अन्दर अबोधिता जागृत हो जाती है : "...तो उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का सम्मान कैसे किया ! यह आसान है, आप देखें किसी भी प्रकार के अलग लालच में फँस जाना, परंतु यदि यह आपकी शक्ति है, आपको खुद को किसी ऐसी चीज़ को समर्पित क्यों करना चाहेंगे जो इतनी बेकार है । सहजयोग में हमें महसूस करना होगा, पुरुषों को भी जरूर पता होना चाहिए कि यदि उनकी पत्नियाँ इतनी अच्छी है और इतनी पवित्र हैं, तो उन्हें उनका सम्मान जरूर करना चाहिए। उन्हें यह भी एहसास होना चाहिए कि उन्हें राखी बहनें भी हैं, इसलिये हम बहुत पवित्र हैं। हम एक राखी 31 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-31.txt बहन की पवित्रता का सम्मान करते हैं और हम उसे किसी भी प्रकार से नहीं मानना चाहते जो पवित्रता का सम्मान नहीं करता। फिर पुरुष भी पवित्र बन जाते हैं। जब स्त्रियाँ पवित्र हों तो पुरुष भी पवित्र बन जाते हैं। और ये पवित्रता आपकी मुख्य शक्ति है, यही पवित्रता एक है जो श्रीगणेश की शक्ति है। और जब आप श्रीगणेश की इस शक्ति को पा लेते हैं तो आप जान जाते हैं कि आप के अन्दर अबोधिता जागृत होने के साथ आप कितने शक्तिशाली हो गए हैं। पवित्रता के बगैर महिलायें सहजयोग में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकती... (१९९३, श्रीफातिमा पूजा, इस्तंबुल) हमारा श्रीगणेश तत्व ठीक होना ही चाहिए : '...ऐसी कुछ चीज़े हैं जो आपको अलग लगे पर आपको अचम्भित नहीं होना चाहिए। जैसे कि सहजयोग में आपको पवित्रता को सम्मान देना ही चाहिए । महिलाओं को भी और पुरुषों को भी सम्मान देना ही चाहिए, क्योंकि हमारे श्रीगणेश को ठीक होना ही चाहिए..... इसलिये हमारे अन्दर इस गणेश को शक्तिशाली होना चाहिए। और ये रुकावट नहीं है जैसा कैथोलिक चर्च में होता है। सहजयोग में यौन और कुछ भी नहीं है, बल्कि एक विश्वसनीय नाते के साथ अपनी पत्नी से स्वस्थ यौन संबंध है। हालांकि न तो ये फ्रेऊड है और न ही कैथोलिक चर्च... (१९८७, समालोचना, अहंकार, दायीं ओर के खतरे, फ्रान्स) इन सभी अनर्थक विचारों से ऊपर उठने के लिए शक्ति माँगिये : ...आज के इस दिन पर मैं आपसे कहँगी कि आपको इन सभी अनर्थक विचारों से ऊपर उठने की शक्ति माँगनी चाहिए, जो आपके अन्दर जम गई है और खूबसूरत इन्सान बनना चाहिए-विशेष लोग, जो लोग विशेष होते हैं वो अपनी और अपनी बहनों के पवित्रता का सम्मान करते हैं। इस भावना को बढ़ने दीजिए, इस देश में स्वास्थ्य और संपत्ति का निर्माण कीजिये...' (१९८०, रक्षाबंधन, लन्दन) आपको स्वयं को सुधारना होगा और श्रीगणेश जी से क्षमा माँगनी होगी: .दूसरी चीज़ उनके साथ ये है कि वो उन लोगों का सम्मान करते हैं जो 32 ১৪ 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-32.txt पवित्र हैं, जिनके लिए पवित्रता ही उनके जीवन का अहम तत्व है। वे पवित्रता को सबसे अधिक पूजते हैं। सिर्फ औरतों में ही नहीं, बल्कि पुरुषों में भी पवित्रता के होने की वह अपेक्षा रखते हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के बाद आपको पूरी तरह से पवित्र इन्सान बन जाना चाहिए। आपको आपकी आँखें चारों तरफ इधर-उधर घूमानी नहीं चाहिए। आप इसे युवक और युवतियों के बीच में संचार का एक बहुत ही बुरा माध्यम कह सकते हैं जो आपकी पवित्रता को खराब कर देता है। आपकी आँखे भी पवित्र होनी चाहिए इसके लिए आपको खुद का आत्मपरिक्षण करना चाहिए और देखना चाहिए कि आप क्या गलतियाँ कर रहे हैं और आपमें किस प्रकार का अपवित्र आचरण है। आपको स्वयं को सुधारना चाहिए और श्रीगणेश जी से क्षमा माँगनी चाहिए। अगर आप क्षमा माँरगेंगे, तो वह कुछ भी क्षमा कर सकते हैं। वे इतने अबोध और सुंदर हैं कि वे क्षमा कर देते हैं। पर ये बहुत ही महत्वपूर्ण चीज़ है, हमारी पूरी नैतिकता हमारे पवित्रता के सोच पर निर्भर करती है। हमें बहुत पवित्र होना चाहिए। कई धर्म आए हैं और सबने पवित्रता के बारे में बात की है, पर सभी धर्म अब इतना व्यर्थ हो गए हैं, आधारहीन हो गए हैं, बिना किसी उचित संपादन के, जो उनके बारे में लिखा गया है। वे सब प्रकार के गलत काम करते हैं और खुद को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कहते हैं। सभी प्रकार के धर्म। वास्तव में सभी धर्म पूरी तरह से असफल हो गए हैं और इसलिये श्रीगणेश उनके पीछे पड़ते हैं..." १) (१९९९, श्रीगणेश पूजा, कबेला) यह पुरुषों और महिलाओं के लिए है : .कुछ देशों में, अवश्य ऐसा सोचते हैं कि पवित्रता सिर्फ औरतों के लिए है और पुरुषों के लिए नहीं। परंतु यह सत्य नहीं है। इस्लाम धर्म के लोग ऐसा ही मानते हैं। ये बहुत गलत है। यह दोनो के लिए है। जैसे कि कोई आदमी दूसरी तरफ जोर लगाने की कोशिश कर रहा है, जैसे कि पुरुष महिलाओं पर दबाव डाल रहे हैं कि वे पवित्र रहें और वो खुद पवित्र नहीं है, तो महिलायें पवित्र नहीं रहेंगी। वे ऐसा दिख सकती हैं, प्रतीत हो सकती है, डर की वजह से शायद कोशिश कर भी सकती है पर यदि उन्हें कोई मौका मिल गया तो वे एक ऐसे जीवन शैली को अपना लेंगी जो गलत होगा। क्योंकि वे दूसरे पक्ष को देखती है, पुरुष उन पर शासन करने की कोशिश करते हैं। तब वे ऐसा सोचती है, 'क्या गलत है? अगर वो ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं? इसलिये पूरे समाज को एक सभ्य जीवन आपनना चाहिए और एक बहुत ही सुसज्जित प्रतिष्ठित जीवन शैली होनी चाहिए । यह सिर्फ पहनावे में नहीं बल्कि प्रतिदिन के जीवन में भी जरूरी है। नहीं तो पुरुषों और 33 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-33.txt महिलाओं के बीच में एक प्रकार का असुरक्षित भाव निर्माण होने लगता है और बहुत सारी उलझने पैदा हो जाती है, बहुत ही उलझे हुए जीवन की १) शुरुआत होती है..." (१९९३, श्रीगणेश पूजा बर्लिन, जर्मनी) पश्चिम में, बहन क्या है और भाई क्या है? इसे समझने की रीति को वे खो चुके हैं : ...जब भी हम खुद को दोषी समझते हैं, तो सबसे पहले हम खुद को दोषी इसलिए मानते हैं क्योंकि संबंधों के बारे में हमारी समझ ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए, हम एक भाई और एक बहन को नहीं समझते, यह रिश्ता जो कि इतना पवित्र है, और हर प्रकार के अपवित्रता से ऊपर है। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं कि आज पश्चिम में, शायद ज़्यादा शराब पीने की वजह से और सब तरह की गलत चीजें करने की वजह से, जो अबोधिता के विपरीत है, लोगों ने इसका महात्म्य खो दिया है और इसमें उन्होंने बहन क्या है? और भाई क्या है? इसे समझने की रीत को भी खो चुके हैं..." (१९८८, श्रीविष्णुमाया पूजा, शूडी कैम्प, १) यू.के.) अगर ये इधर भी संभाला जा सके, तो मेरे लिए ये महान दिन वास्तव में अति आनंद का होगा : "...परंतु मैंने ये पाया है कि भाई-बहन के इस संबंध को भारत में बहुत ही सुंदर तरीके से संभाला जाता है, अगर ये इधर भी संभाला जा सके तो मेरे लिए ये महान दिन वास्तव में अति आनंद का होगा, क्योंकि इसका मतलब है कि आपने इस अनैतिका के राक्षस को हरा दिया है। वो पवित्रता, जो आपके दिमाग से स्त्री संभोग की लालसा और लालच को पूरी तरह से निकाल देती है और उसे वह स्नेह देती है, जो आपकी बहन है। यह भारत में बहुत ही आम है, वहाँ हर एक की बहन होती है, हर सहजयोगियों की एक बहन है और वो अपनी बहन का उस तरह ख्याल रखते हैं... (१९८३, दिवाली पूजा, हेम्पस्टेड, यू.के. ) 34 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-34.txt EGO है की ा प्र. य क कर ु भ आप अपने आप को इतना मृदल बनाईये कि हर कोई आप से मार्ग-निर्देशन चाहे, आपकी प्रेम पायें और वो सब आपके पास आयेंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि आप ये कर सकते हैं। (य.यू.श्रीमाताजी, दिल्ली, २०००) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.८, चंद्रगुप्त हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२० २५२८६५३७, २५२८५२३२, e-mail : sale@nitl.co.in 2013_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-35.txt आपकी अपनी ज्योतिर्मय होना ही काफी नहीं है, आपको अन्य लोगों को भी प्रकाश देना है, दीपकों की तरह आपको अन्य लोगों को ১ भी प्रज्ज्वलित करना है। आपको किसी भी प्रकार की तैयारी की आवश्यकता नहीं हैं, यह शक्ति आपके पास है। (प.पू.श्रीमातीजी, ३.११.२००२) ० ०