चैतन्य लहरी ा जनवरी-फरवरी २०१४ हिन्दी शुम ा बुम बपम त ा र ाम हि अंक मे धर्म और पैसे का बड़ा सम्बन्ध है ...५ व्यापारियों से वार्ता ...१८ विश्व का निर्माण - जनमदिन समारोह ...२६ यदि पृथ्वी माँ तेज गति से घूम रही होती तो आज जो हम हैं वो न होते, शायद हम जन्में ही न होते। यदि यह गति कम होती तो भी यह विकास न हो पाता। सारी योजना जो बनाई गई थी उसे देखें। यह अत्यन्त सुन्दर योजना है कि पृथ्वी माँ इस प्रकार से सूर्य के इर्द-गिर्द घूमेगी कि भिन्न ऋतुओं का सृजन होगा। यही कारण है कि यह शक्ति, परम चैतन्य, जो कि आदिरशक्ति है, ऋतम्भरा प्रज्ञा भी कहलाती है। प.पू.श्रीमाताजी, ५/४/१९९६ धर्म और पैसे २ मार्च का बड़ा सम्बन्ध है १९७७ मानव को यह सोचना चाहिये कि परमात्मा ने हमें क्यों बनाया है? हमारे जीवन का कोई लक्ष्य है या यूँ ही भगवान ने हमें अमीबा से मनुष्य बनाया है। इतनी परेशानी उठा कर, इतने युगों तक, इतने योनियों में से गुजर कर परमात्मा ने मनुष्य की ये जो सुन्दर कृती बनायी है, वो कोई न कोई कारणवश ही बनायी है । हो सकता है, कि अभी वो उस दशा में नहीं पहुँचा है जहाँ वो इस चीज़ को जान सके कि ये कृती क्यों बनायी है। हो सकता है, अभी वो अपने कार्य-कारण को समझ नहीं पाया होगा। लेकिन अवश्य जरूर कोई न कोई वजह तो होनी ही चाहिये कि एक अमीबा से मनुष्य क्यों बना? और अगर कोई वजह है भी तो मनुष्य को उसे जरूर खोज निकालना नितांत आवश्यक है। जब वो उसे नहीं खोज पाता है, जब उसे जान नहीं पाता है, तो उसको परेशान होना भी बिल्कुल ही स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक बात है कि आज मनुष्य अत्यंत चिंतित है, परेशान है, घबरा रहा है। उसको यह नहीं पता, कि यह घबराहट कहाँ से आ रही है, किस कारण वो इतना व्यस्त है। सहजयोग इस बात का उत्तर है। सहज - 'सह' माने साथ 'ज' माने पैदा हुआ। जो आपके साथ पैदा हुआ है, अधिकार, योग का, परमात्मा से एकाकार होने का, उसी को सहजयोग कहते हैं। सहजयोग, जब मनुष्य था, तभी वो सहजयोग हुआ और उससे वो जब चतुष्पाद हुआ, तभी सहजयोग घटित हुआ था और जब से वो अमिबा द्वि-पाद हुआ तभी सहजयोग बना था ओऔर जब से वह मनुष्य हुआ था तभी सहजयोग घटित हुआ था। और आज का जो सहजयोग है, ये मनुष्य को अपना अर्थ बताने के लिये, ये उसके अंतिम चरण, अंतिम लक्ष्य है। इसके बारे मेडिटेशन द्वारा में खोज- बीन करते हुए अपने भारत-वर्ष में, आदि-काल में बहुत से ऋषि-मुनियों ने मनन द्वारा, अंदर अनेक चीज़ों का पता लगाया। 5 परशुराम के समय में, जब परशुराम का जन्म हुआ था, उस समय लोगों ने जंगलों में खोजने की कोशिश की। सारी दुनिया से अपने को काट कर वो ब्रह्मचर्य में रह कर, एकाद छोटी सी गुफा में छिप कर के उन्होंने अनेक वर्षों तक तपस्या की। और उसके बाद उन्होंने जो मनुष्य के अंदर के सूक्ष्मतम गुप्त रहस्य हैं उनका पता लगाया। उनकी खोज भी जो होती रही, उसके लिये थोडे से लोग, बहत थोड़े से लोग लाभ उठा सके क्योंकि ये कार्य अत्यंत सूक्ष्म था और समाज में रहते हुए इस कार्य को करना बहत ही कठिन था। इन लोगों ने अपने धर्मग्रन्थों में या अपने पुस्तकों में, जिधर उन्होंने लिखी भी हो, अनेक तरह से इन सब सूक्ष्म तत्त्वों का वर्णन किया है। लेकिन कलियुग जिसे कि आज हम मॉडर्न टाइम्स कहते हैं, इसमें आज वो समय आ गया है, जिसे कि हम बाहर का समय कह सकते हैं। जैसे कि एक पेड़ पर...(अस्पष्ट) का भी फूल खिलता है और एकाद ही फल लगता है। अनेक वर्षों तक इसी तरह से चलता रहता है। उसके बाद जब बहार आती है, तो अनेक फूल खिल जाते हैं। अनेक फूल खिल कर के एकदम से ही उनके फल बन जाते हैं। सहज में ही उनके फल बन जाते हैं। वो कैसे बनते हैं, क्यों बनते हैं, यह कोई भी नहीं जानता है। आज सब फूल हैं, कल उसी में से फल निकल आयेंगे। उसी प्रकार आज कलियुग में बहार आयी हुई है। और आपका हक है कि आप जानें कि आप क्या हैं, आप का क्या अर्थ है, आप क्यों इस संसार में आये हैं। इस चीज़ को आप जान लें, ये आपकी अपनी सम्पदा है। खुद जैसे कि कोई दीप पूरी तरह से संवारा जाता है, उसके अन्दर तेल-बाती सब ठीक से रख दी जाती है और उसको दिवाली के दिन सब को एक लाइन में लगा दी जाती है, तब एक जला हुआ दीप ले कर के आप अनेक दीप जला सकते हैं। उसी प्रकार सहजयोग एक अत्यंत सहज सरल तरीका है। और मनुष्य को इस बात को नहीं सोचना चाहिये कि ये इतना सरल क्यों है। धर्म के मामले में मनुष्य हमेशा उलटा ही सोचता है। पहले अगर काशी जाना होता था, तो मनुष्य को तीन-चार महीने चलना पड़ता था। लेकिन अगर आज आपको काशी जाना है, तो अगर आप सवेरे यहाँ से निकले तो शाम को आप काशी पहुँच सकते हैं। तब मनुष्य क्यों नहीं सोचता है, कि उसके लिये तो सुनते हैं कि बड़ा सामान जुटाना पड़ता है, कठिन तपस्या करनी पड़ती है, तब कहीं हम पहुँचते हैं। गर सहजयोग के मामले में भी ऐसी ही अगर कोई विशेष व्यवस्था हो गयी हो, तो उसके बारे में इतनी चर्चा आप को क्यों होना चाहिये? गर कोई विशेष चीज़ आपको मिलने वाली है और उसका लाभ आपको होने ही वाला है, तो उसके बारे में इतनी शंका क्यों होनी चाहिये। और आखिर शंका भी आपको उस चीज़ की होनी चाहिये, जहाँ पर आप को कुछ लेना-देना पड़े या किसी चीज़ की माँग हो या कोई ये कहें कि देखो भाई , यहाँ आप को तीन साल का कोर्स करना पड़ेगा और आपको इतनी फीस देनी पड़़ेगी और आप को रोज आना पड़ेगा या कहे कि आपको भूखे मरना पड़ेगा, या आपसे कहे कि आपको सर के बल खड़े रहना पड़ेगा, ये तो सब हम कुछ कहते नहीं तब फिर इतना शंका होकर के क्यों सोचना कि ऐसे कैसे हो सकता है, हो ही नहीं सकता है। हो सकता है, अब यहाँ हॉल में कम से कम पचास फीसदी लोग ऐसे बैठे हुए हैं जिन के साथ ये घटित हो चुका है। और आपके साथ भी होना चाहिये। लेकिन मनुष्य का विचार जो है, वो इस तरह से चलता है। अब रही बात कि हमारे अन्दर में वास्तव में ऐसी कोई व्यवस्था है क्या? कोई हमारे अन्दर ऐसा अंकुर है क्या? जैसे कि हर 6. एक बीज में होता है, जिसके फल स्वरूप आप अपने पुनर्जन्म को प्राप्त करते हैं। ज्ञानेश्वर जी ने, जनक ने, नानक ने, कबीरदास जी ने, गुरू वशिष्ठ ने, मार्कण्डेय जी ने और सब से बड़े आदि शंकराचार्य जी, कुण्डलिनी के बारे में उन्होंने अनेक बार वर्णन किया हुआ है। देवी महात्म्य आप पढ़े या आप देवी सहस्त्रनाम भी पढ़े तो उसमें, उनके सारे वर्णन में लिखा है कि वो कहाँ-कहाँ स्थित होती है, कौन से चक्रों पर स्थित होती है, कौन से मार्ग से वो उठती हैं आदि सब कुछ में उनका वर्णन है। लेकिन हमारे लिये जिसको अंग्रेजी और जैसे ग्रीक और लेटिन में है, क्योंकि हम लोग तो इतने अंग्रेजी हो गये हैं, कि हमें अपने ही चीजों के बारे में कुछ मालूम नहीं है। अब घर में अगर मंत्र उच्चार हो रहे हैं तो हम सुन रहे हैं, आयें कोई पंडित बाबा तो उसको कुछ रूपये पैसे दे दिये तो काम खतम, उन्होंने कुछ मंत्र कह दिये और चालू हो गया हमारा सारा पूजन-पाठ कि, 'भाई हो गया हमारा सारा, पूजन-पाठ सारा कुछ हमारा विधि हो गया है और हमने देवीजी को भी प्रसन्न कर दिया है। ऐसी ही भावनाओं के कारण हम अपने धर्म के कोई से भी विचार से किसी भी तरह से, तदरूख हैं। अब पाश्चिमात्य देशों में, जहाँ पर के लोग काफ़ी बढ़ चुके, सारी दुनिया भर की उन्होंने सत्ता कमा ली, सम्पदा कमा ली। जिनके पास हर तरह की सामग्री जुट गयी है। जो कुछ भी हो सकता था मटेरिओअलिज्म का छोर वो उन्होंने पा लिया। अब वो लोग मुड़ कर के ये कहते हैं, कि भाई, हम जिस आनन्द को खोजने के लिये ये सब करते रहे, वो आनन्द कहाँ खो गया है? उस आनन्द की उपलब्धी हमें तो हुईं नहीं, तो ये सब चीजें छोडो यार, इसमें कोई आनन्द ही नहीं है। ये कुछ तो भी भुलैया है, जिसमें हम भूल गये हैं । इसको छोड़ दो । उनके बच्चों ने इसे छोड़ दिया है। सब कुछ छोड-छाड़ के अपने बाल-बच्चे छोड़ कर, अब देखिये सन्यासियों का वेश लेकर के वो गांजा-वांजा पीने लगे। अब ये भी कोई तरीका हुआ? आप देख रहे हैं, हजारों यहाँ घूम रहे हैं साधू बन कर! वो गांजा भी पीते हैं और सोचते हैं कि गांजा पीने से उनको भगवान मिलेगा, ऐसे समय में सहजयोग उपलब्ध हुआ है। इसके लिये खोजना बाहर नहीं है, अन्दर है। अनेक बार बड़े-बड़े कवियों ने कहा है, राजा जनक के अवतरण नानकजी थे और नानक जी ने कहा है, 'काहे बन खोजन जाये, सदा निवासी सदा....' कि तेरे ही अन्दर समाया हुआ है, 'तु काहे इसे खोजने बाहर जाये?' वो तेरे ही अन्दर आत्मस्वरूप है। तू इसको कहाँ बाहर खोजने जा रहा है। अब वो चीज़ क्या है? वो कौन है? कैसा है, इसी के बारे में मैं आपको बताऊँगी। हमारे अन्दर, शरीर में एक व्यवस्था है, जिसे अंग्रेजी में ऑटोनोमस नव्वस सिस्टीम कहते हैं, जिसे कि हम लोग स्वयंचालित संस्था कहते हैं। ये संस्था हमारे अन्दर तीन प्रकार से स्थित है, जिसे कि हम डॉक्टर लोग इसे लेफ्ट और राइट सिम्पथेटिक नव्वस सिस्टम और पैरा-सिम्पथेटिक नवस सिस्टम के नाम से जानते हैं। हमारे सहजयोग के शास्त्र के अनुसार ये तीनों ही संस्था जड़ हैं, बाहर दिखने वाली क्रोश हैं। और इनको चालना देने वाली संस्थायें हमारे रीड़ की हड्डी में स्थित है। जैसे कि यहाँ पर मैंने आपको दिखाया हआ है, ये तीन लाईने हैं। आप देख लीजिये, ये तीन नाड़ियाँ हैं । इसे एक को ईड़ा, दूसरी वाली को पिंगला और बीच वाली नाड़ी को सुषुम्ना कहते हैं। अब ये तीन नाड़ियाँ हैं या नहीं, वो हमारे अन्दर स्थित हैं या नहीं, सूक्ष्म रूप से यही कार्यान्वित है या नहीं क्योंकि सिम्पथेटिक और पैरा-सिम्पथेटिक तो आप देख सकते हैं। इस सूक्ष्म नाड़ियों को आप देख नहीं सकते। 7 8. उसका भी साक्षात सहजयोग से ही होता है। लेकिन पहले किसी भी सूक्ष्म चीज़ को देखने के लिये आपको भी सूक्ष्म होना पड़ता है। ये तो निर्विवाद है। बगैर सूक्ष्म हुये आप सूक्ष्म चीज़ को कैसे जानेंगे, देखेंगे भी। तो भी जैसी आप आपकी आँखें हैं जैसे कि आप मनुष्य अभिमनुष्य के स्तर पर हैं, आपको कुण्डलिनी का स्पंदन हम दिखा सकते हैं। आप कुण्डलिनी का चलना देख सकते हैं, कुण्डलिनी का उठना आप देख सकते हैं। कोई भी आदमी हो वो, चाहे वो पार हो, चाहे वो नहीं हो। अपने शरीर में ये जो सूक्ष्म व्यवस्था की गयी है, ये तीन शक्तियाँ हमारे अन्दर वास करती हैं। जो शक्ति राईट साइड से गुजर कर लेफ्ट साइड को चली आती है उस शक्ति का नाम है महाकाली शक्ति। अब आपको ये नाम अजीब सा लगेगा कि माताजी, महाकाली कैसे कह रही हैं। अंग्रेजी लोगों ने तो इसका पता नहीं लगाया है, तो इसका अंग्रेजी नाम मैं क्या बताऊँ। यही महाकाली शक्ति है, जिसके कारण सारे संसार की स्थिति होती है, एग्जिस्टंस होता है। इसी के कारण सारे संसार का प्रलय होता है, सर्वनाश होता है। जैसे कि कोई चीज़ किसी वजह से स्थित है, जैसे अपना हृदय के कारण हम लोग जीवित हैं। तो जब हृदय बंद हो जाये हम मृत भी हो सकते हैं। यह शक्ति हमारे हृदय को प्लावित करती है। इसका नाम है महाकाली शक्ति। और ये मनुष्य की इमोशनल साइड है। जिसको हम अंग्रेजी लोग जिसे 'साईकि' कहते हैं। वो 'साईकि' का चेनल वो इस लेफ्ट हैंड साइड के सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टम से होता है, पर डॉक्टर लोग इसको नहीं मानेंगे। वो तो राइट और लेफ्ट को एक ही समझते हैं । माने डॉक्टर और सायकॉलॉजी, दोनों आपस में भी नहीं मानते हैं। ये मेरा, ये मेरा उनसे झगड़ा ऐसे ही नहीं है, पर उनका आपस में भी बहुत झगड़ा है। ये सायकोलोजिस्ट जो है, वो डॉक्टर को नहीं समझा पाता और डॉक्टर सायकोलोजिस्ट को नहीं समझा पाता है। मनुष्य सायकोलोजी भी है, साईकि भी है और मनुष्य शरीर भी है, उसका इमोशन भी है, उसका माईंड भी है, वो सबकुछ है। सहजयोग मनुष्य को, जैसा वह सम्पूर्ण है, इस तरह से वो इसके बारे में पता लगाता है। अलग-अलग भिन्न-भिन्न एनलाइज़ कर के नहीं लगाता है, जैसे कि साईंस है, पर साईंस के हर एक बात पर वह ठीक बैठता है। इस नाड़ी को कि जो लेफ्ट हैंड साइड में है, इसे हम लोग महाकाली की शक्ति कहते हैं, जिससे हमारा सारा कार्य होता है। इस शक्ति से मनुष्य की स्थिति होती है। सारे संसार की स्थिति इसी शक्ति के कारण होती है। यह शक्ति न हो तो मनुष्य की स्थिति ही नहीं बन सकती है, उसका एग्जिस्टंस ही नहीं बन सकता। लेकिन ये समझ लीजिए कि यह परमात्मा की इमोशनल स्थिति है। ये कार्यान्वित नहीं है, ये स्थिति है। हमारे अन्दर ये शक्ति जब कार्यान्वित होती है, तो हमारे अन्दर जो भी कुछ मर जाता है, जो भी विचार हमारे अन्दर आ कर, उठ कर खतम हो जाते हैं। जो भी कुछ हमारा भूत है, पास्ट है, वो सारा ही इससे संचालित होता है। ये उसी को स्टोअर करती रहती है। जितना भी हमारे अन्दर कंडिशनिंग होता है, वो इसी से अन्दर स्टोअर्ड रहता है रेकॉर्डेड रहता है। इसे हम महाकाली की शक्ति को जैसे मानते हैं । और दूसरी शक्ति, जो हमारे लेफ्ट से गुजर कर राइट को आ जाती है, उसे हम महासरस्वती कहते हैं। महासरस्वती की शक्ति से हमारा सारा कार्य होता है। क्रियेशन सारा थिंकिंग होता है, हाथ-पैर चलना है, जो कुछ भी हम काम करते हैं आगे के लिये, फ्यूचर के लिये, जो भी हम प्लेनिंग करते हैं, जो भी हम विचार करते हैं आगे के लिये ये सब हमारा जो राइट हैंड की जो शक्ति है, जिसे कि हम महासरस्वती कहते हैं, इससे होता है। इसके बीच में, बीचो-बीच जो शक्ति है, इसे महालक्ष्मी की शक्ति कहते हैं। इस शक्ति के कारण हमारा उत्थान होता है। हमारी उत्क्रांति होती है, इव्होल्यूशन होता है। आज जो हम अमीबा से इन्सान बने हैं, वो इसी शक्ति से बने हैं। मनुष्य का जो आज स्वरूप है, वो भी आज इसी शक्ति के कारण है। ये शक्ति सब वस्तुओं में उसका धर्म स्थापित करती है। धर्म का मतलब होता है, आप लोग घबरायेगा नहीं, धर्म का मतलब होता है, अपने अन्दर का धर्म। जैसे कि ये एक सोने का धर्म है, कि ये खराब नहीं होता है। कार्बन में चार वेलेंसीस होते हैं। हर एक अणु-रेणु में उसका धर्म होता है, बिच्छु, बिच्छु जैसे होता है, साँप, साँप के जैसे होता है। इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य जैसे होता है। मनुष्य का धर्म भी इसी शक्ति से स्थापित होता है। और धर्म की स्थापना करने से ही मनुष्य आज इस दशा पर आ गया है। अलग-अलग मनुष्य के धर्म हैं, क्वालिटीज हैं। वो उसमें आते-जाते हैं। और जब इस धर्म की स्थापना हो जाती है, इन दस धर्मों की, तब ये मनुष्य की निर्मिती हो जाती है। इस महालक्ष्मी की शक्ति के कारण मनुष्य उस दशा में भी जा सकता है, जहाँ उसे पहुँचना होता है, जिसे कि इवोल्यूशनरी शक्ति कहते हैं। ये आपका प्रेझेंट (वर्तमान) है। इस प्रकार आप के अन्दर तीनों काल स्थित हैं। एक भूतकाल - पास्ट, एक भविष्यकाल- फ्यूचर और एक ये समय-प्रेझेंट, अभी, आज इस वक्त इस क्षण। इस प्रकार की तीनों शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं। और इन तीनों शक्तियों के कारण ही आज मनुष्य इस दशा में पहुँचा है, जहाँ वो आज है। अब जबकि हम जानते हैं ये इसको बनाया गया है या कोई भी यंत्र बनाया गया है। अब जब कि हम जानते हैं, जैसे कि ये माईक है, इसको बनाया गया है या कोई भी यंत्र को बनाया गया है, तो हमें समझ नहीं आता कि इसका क्या उपयोग है। जब तक हम इसको निकाल करके मेन के कोयर्स को नहीं लगा देते हैं। तब तक इसका कोई भी उपयोग नहीं होगा। उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक उसके मेन से जाकर के नहीं लगता है, तब तक उसका कोई अर्थ नहीं लग सकता है। उसके बाद एक ही अर्थ इसका भी लगा है, कि मेरी जो आवाज़ है, वो इसके अन्दर से बननी चाहिये। एक ही हॉलो चीज़ हो जाती है। ये इन्स्ट्रमेंट इसलिये बनाया गया है, कि ये मेरी आवाज़ को गहन कर सके, बाद में ये पता होता है कि हम भी एक हॉलो चीज़ हो जाते हैं। और हमारे अन्दर से वो शक्ति बहने लग जाती है। हमारे अन्दर से वो चैतन्य की लहरियाँ बन कर के हाथों से बहने लग जाती है। जिसे हम सर्वव्यापी परमात्मा की | शक्ति मानते हैं और वो शक्ति प्रेम की शक्ति है। जो ये तीनों ही शक्तियों से परे सारे ही शक्तियों को ले कर के एक साथ बह रही है। उसमें तीनों ही शक्तियाँ होती है। अब अगर इसी चित्र को परमात्मा की ओर देखें कि हम अगर परमात्मा के प्रतिबिम्ब रूप हैं, तो परमात्मा में इसी प्रकार उनमें भी ये तीनों शक्तियाँ संचलित हैं। और जैसे कि इसी के अन्दर के कोई छोटे-छोटे सेल्स हम लोग बने हुए हैं। जैसे कि ये मॉक्रोकोसम है, तो हम मायक्रोकोसम हैं। इस तरह से एक हम भी इन्हीं के जैसे इनके अन्दर बने हुए इन्ही के जैसे, अन्दर में बैठे हुए हैं। और हम को भी सिर्फ जागृत होना है, ताकि हमारे अन्दर से परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति बहे। जब तक ये नहीं होगा तब तक आपको आनन्द मिल नहीं पायेगा। जब तक ये गति नहीं आयेगी आप अपने जीवन का लक्ष्य समझ नहीं पायेंगे। आप चाहे 10 दुनिया की कोई भी चीज़ पा ले, आपको सुख नहीं मिल सकता। आप आनन्द में नहीं आ सकते। आप अभी अपने सामने देख रहे हैं। इसमें हमने अनेक चक्र दिखाये हैं और इन चक्रों से ही गुजर कर के कुण्डलिनी ऊपर की ओर आती है। अभी इन सात चक्रों का मैं आपको वर्णन करती हैँ। अभी आप लोग इस पर शंका करते न बैठे कि ये है या नहीं या माताजी यूँ ही बातें करते बैठी है। अगर आप एक साईंटिस्ट भी हो चाहे तो भी साईंटिस्ट का मस्तिष्क उसकी बुद्धि खुली होनी चाहिये। ये एक हम हायपोथिसिस आपके सामने रख रहे हैं । उसे आप स्वीकार करें, उसे आप देखें और अगर वो घटित हो और वो अगर फलीभूत हो और उसका अगर साक्षात हो तब उसे आप मान लें। हमारे अन्दर ये सूक्ष्म सा चक्र हैं, वो बाहर जरूर दिखाई देते हैं और उनको डॉक्टर लोग प्लेक्सेस के नाम से जानते हैं। साथ-साथ में मैं उनका भी नाम बताऊंगी जो कि सूक्ष्म के प्रादुर्भाव से (मॅनिफिस्टेशन से) बाहर एक ग्रॉस झड प्लेक्सेस के रूप में वर्तमान है कि जिसे लेाग देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि हमारे अन्दर ऐसी कोई संस्थायें हैं, कि जिससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है, जैसे कि आपका हृदय चल रहा है, वो अपने आप से चल रहा है। आपकी पेट की गति अपने आप से चल रही है। आपके श्वास अपने आप से चल रहे हैं। बहत से अनेक कार्य स्वयंचालित हो रहे हैं। उसमें से भी अगर आपको अपनी हृदय की गति बढ़ानी है तो आप बढ़ा सकते हैं। अगर आप दौड़ना शुरू कर देंगे तो आपकी हृदय की गति बढ़ जायेगी, लेकिन वो घटती अपने आप से है, उसको आप घटा नहीं सकते। अब श्वास की गति भी आप बढ़ा सकते हैं, घटा नहीं सकते। ये जो घटाने की क्रिया है ये भी स्वयंचालित है । एक तो जो कि आप बढ़ा सकते हैं, जिसको आप एमरजेंसी में उपयोग में ला सकते हैं, जिसको आप हथिया सकते हैं, वो संस्था है सिम्पथेटिक नवस सिस्टम और वो है कि जिस पर आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, वो है पैरासिम्पथेटिक सिस्टम। और सिम्पथेटिक कि आप से जैसे मैंने कि ईडा और पिंगला नाड़ी से चलित है। पेरासिम्पथेटिक से बीच की संस्था जिसे कि हम सुषुम्ना नाड़ी कहते कहा, हैं, उससे चालित है। अब इन तीनों नाड़ियों से प्लावित अपने अन्दर कुछ सेंटर्स हैं। इन सेंटर्स में अनेक देवतायें बिठाये गये हैं। अब बहुत से लोग कहेंगे कि माताजी, देवताओं की बात मत करिये, साईंटिफिक बातें करिये। लेकिन साईंस के लोग क्या सभी चीज़ों का जवाब दे सके हैं। एक छोटा सा सवाल अगर आप पूछिये, डॉक्टर से जा कर पूछिये, कि हमारे शरीर में जब कोई भी वस्तु बाहर की आती है, तो उसको हमारा शरीर फेंक देता है उठा कर के। वो पूरी कोशिश करता है, कि उसे इस शरीर से फेंक दिया जाये। लेकिन जब हमारे पेट में या कहना चाहिये कि जब माँ के गर्भ में बच्चा रह जाता है, तब उसे कोई फेंकता तो नहीं। नहीं फेंकते हैं, लेकिन उसका संवरण करते हैं, उसको बड़ा करते हैं। क्यों? ये कौन करता है? इसका निर्णय कौन लेता है? ये सारा कहाँ से आ जाता है? कोई इसको सोचता है? ये कैसे हो जाता है कि जब कोई शिशु माँ के पेट में आ जाता है, तो उसका संवरण शुरू हो जाता है। बजाय इसके कि इसको निकाल कर फेंक दिया जाये। ऐसे अनेक प्रश्न हैं। जिसका कि डॉक्टर उत्तर नहीं दे सकते हैं। Acetycholine और adraneline नाम के दो केमिकल्स हैं। जब वो हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं और या जब हमारे शरीर में कार्यान्वित होती हैं तो उनके एक्शन अलग पड़ते हैं। जैसे कि जहाँ रिलेक्स करना हो, वो वहाँ अॅग्मेन्ट कर देती हैं। 11 उसको छोटा कर लेती है, खींच लेती है। डॉक्टर लोग कहते हैं, कि ये हम नहीं बता सकते, We cannot explain the mode of action of these| बहुत सी बातों में ऐसा ही जवाब होता है, कि We cannot explain। ठीक है, उनका कहना, उनका कहना भी सत्य है और इसमें एक बड़ी भारी एक सच्चाई है, कि वो कम से कम सच्चाई कहते हैं। लेकिन इन लोगों की खोज क्योंकि बाहर से है, अंधेरे में से है, आप जब तक जगते नहीं है, अपने आप से, तो आप को कुछ पूरी चीज़ ठीक से दिखाई नहीं देती है। एक चीज़ मिल गयी, दूसरी चीज़ मिल गयी। उसका कोई | कनेक्शन नहीं बन पाता, फिर आप एक ही चीज़ लेकर उसका विश्लेषण करते हैं, अॅनेलिसिस करते हैं, तो आप उस जगह जाकर पहुँचते हैं, जहाँ पूरी चीज़ सम्यक है, उसको आप भूल जाते हैं। आप जानते हैं, कि एक डॉक्टर एक आँख को देखेगा, दूसरा डॉक्टर दूसरी आँख को देखेगा और अगर आप को पूरे शरीर को इग्जैम्इन करना है तो कम से कम सात डॉक्टरों के यहाँ जेब गरम करनी पड़ती है। जब मनुष्य एक ही है, तो उसकी कला, उसका संगीत ये सब कहाँ से आती है! इसका किसी को कोई अंदाज नहीं है। क्योंकि जब आदमी बाहर से खोजता है, तब ऐसा ही होता है, लेकिन एक बात हो सकती है, कि अगर एक अंधेरे से कमरे में एकदम से अगर प्रकाश हो जाये तो सभी कुछ एकदम से जाना जा सकता है। यही हमारा सहजयोग है। हमारे अन्दर स्थित सबसे नीचे त्रिकोणाकार अस्थि में आप देखेंगे , एक साढ़े तीन सर्कल में, लपेट में कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति है। ये है कि नहीं, ये मैंने आपको पहले ही बताया है और इसका साक्षात में आपको बाद में दूँगी। ये शक्ति सुप्तावस्था में होती है, ये तब तक सुप्तावस्था में रहती है जब तक इसका कोई अधिकारी सामने नहीं आता। इसका अधिकारी करिबन होता ही नहीं है। कम से कम मुझे तो कोई मिला ही नहीं, जब से जन्मी हँ, तब से मुझे तो कोई मिला नहीं है, कम से कम इस जनम में तो मुझे कोई मिला ही नहीं है। कुछ लोग हैं संसार में जरूर, जिन्हें कि मैं कह सकती हैँ, कि पार हो चुके हैं, लेकिन वो कोई भी, एक भी इस संसार में नहीं विचरते हैं। सब लोग जंगलों में बैठे हैं। बहुत ही कम, एकाद ही। वो ही जब सामने आ जाता है, उसका तब साक्षात्कार होता है, क्योंकि ये चेतना है, अवेअरनेस है, ये सोचती है, समझती है, ऑर्गनाइज करती है। हम किसी शक्ति को ये नहीं समझ सकते कि जो सोचती है, समझती है, को-ऑर्डिनेट करती है और प्यार करती है। ऐसी किसी भी शक्ति को हम नहीं समझ सकते पर जब हम ये सब कर सकते हैं, तो कोई न कोई शक्ति इसका स्रोत तो होगा ही। आखिर हम किस तरह से ये सब कार्य करते हैं। जो चीज़ पेड़ में नहीं होगी, वो फल में कहाँ से आयेगी ? इसका स्रोत कहीं न कहीं तो होगा। इसकी ये शक्ति कहीं न कहीं तो विराजमान होगी, जिससे कि हम लोग प्यार करते हैं, सोचते हैं और सारे कार्य कर सकते हैं । से उसी शक्ति का अंशमात्र आपके अन्दर, हर एक के अन्दर इसी तरह से बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी अन्दर उतरता है और यहाँ पर इस साढ़े तीन कुण्डलों में लपेट में इसका भी बड़ा भारी शास्त्र है, गणित है। कुण्डलिनी अपने अन्दर स्थित है, बड़ी सुन्दर व्यवस्था है इसकी। और वो सुप्त रहती है। अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम 12 कुण्डलिनी जागरण करते हैं। ऐसे बहुत सारे मिलते हैं लोग। बहुतों ने तो किताबें भी लिख डाली। वो किताबे पढ़ कर अगर आप आओगे तो पहले तो आप बहुत ही घबरायेंगे कि माताजी, कुण्डलिनी तो बहुत भयंकर चीज़ होती है। अरे, वो तो आपकी माँ है, आपकी माँ कभी भयंकर हो सकती है ? सारी दुनिया भी भयंकर हो जाये , पर आपकी माँ तो नहीं हो सकती है। वो आप की अलग-अलग सब की माँ है। आप ही के साथ हर जन्म-जन्म में पैदा होती है। जिस माँ ने आपको जन्म दिया है, वो बदल सकती है, पर वो नहीं बदलती। ये कुण्डलिनी आप ही के साथ भ्रमण करती रहती है, आप ही के साथ रहती है। बार -बार आप ही के अन्दर में स्थित रहती है, आप ही को जानती है, आपकी सब गलतियाँ भी जानती है। आपके सारे पुण्य भी जानती हैं, आपके सारे कर्मों से परिचित है, वो क्या आपके साथ कुछ बुराई कर सकती है? कैसे कर सकती है ? लेकिन जो उसका अधिकारी नहीं है, वो ही ऐसी सब गंदी बाते लिखते हैं। कुण्डलिनी के नीचे आप अगर देखें तो चार दलों का एक सेंटर है। कुण्डलिनी जहाँ स्थित है, उसे मूलाधार कहते हैं, क्योंकि मूल का आधार वहाँ है उसका abode, उसका घर और उस घर के बाहर, नीचे, काफ़ी नीचे दूसरा एक सेंटर है, जिसे कि मूलाधार चक्र कहते हैं। अब ये बड़ा भारी अंतर है, मूलाधार और मूलाधार चक्र में, मूलाधार चक्र नीचे में स्थित है और मूलाधार ऊपर में। मूलाधार में आपकी माँ कुण्डलिनी गौरी स्वरूप में बैठी है। गौरी नहा रही है और नीचे में गणेशजी उसकी रक्षा कर रहे हैं। इस पहले सेंटर के अन्दर श्रीगणेश बैठे हैं। अब कोई कहेंगे कि, 'माताजी, श्री गणेश आप कहाँ से ले आये हैं?' श्रीगणेश साक्षात वहाँ हैं या नहीं ये तो बाद में देखा जायेगा। श्रीगणेश एक प्रतीक हैं। श्रीगणेश प्रतीक हैं। चिरकाल के बालक हैं। श्रीगणेश चिरकाल के बालक हैं। अपने अन्दर अनेक प्रतीक हैं. ये सायकोलोजिस्टस् मानते हैं। यूं इन्होंने काफ़ी मेहनत करी है। वो कहते हैं, हमारे यहाँ कोई ऐसी युनिवर्सल, अनकाँशियस, सर्वव्यापी ऐसी अचेतन शक्ति है, कि जो हमारे अन्दर प्रतीक भेजती है। मेडिटेशन की इतनी शक्ति इन लोगों की नहीं थी और अगर होती तो वो भी देखते, लेकिन ध्यान में जाने की जिसकी शक्ति हो जाये वो देख सकता है, कि इस जगह श्रीगणेश का साक्षात है और वो है कि नहीं, वो हम कुण्डलिनी की योग में जब हम आगे बढ़ेंगे तब हम दिखायेंगे। अब यहाँ जितने भी पार लोग हैं, उन्होंने इसे जाना है। आप लोगों ने अभी जाना नहीं है, आप भी जान जाओगे। श्रीगणेश का यहाँ स्थान है। इस चक्र में श्रीगणेश इसलिये बैठाये गये हैं, कि जब आप चाहते हैं कि, अपनी माँ गौरी जागृत हो, तो आपके मन में माँ के प्रति जैसे कि एक बालक में इनोसेन्स होता है या अबोधिता होती है, सेक्स के मामले में होनी चाहिये। क्योंकि श्रीगणेश इस चार पंखुडी के चक्र पर बैठे हुए हैं, इसी चक्र से सेक्स भी करते हैं । वो कोई रास्ता नहीं है परमात्मा की ओर जाने का, बिल्कुल भी नहीं है । उल्टे अगर उस रास्ते से कोई गुजरने की कोशिश करता है, तो श्रीगणेश क्रोधित हो जाते हैं। क्या आप अपनी माँ से सेक्स कर सकते हैं ? जो लोग सेक्स की ऐसी बाते करते हैं वो आपको यही सिखा रहे हैं कि आप अपनी माँ के साथ सेक्स करो । हिन्दुस्तानी आदमी इसे अच्छी तरह से समझ सकता है, कि इससे बढ़ कर और कोई कुकर्म, पाप, शापित चीज़ नहीं हो सकती है। 13 मूलाधार चक्र पर श्रीगणेश अपनी माँ की लज्जा का रक्षण कर रहे हैं। लेकिन अपने यहाँ बहुत से ऐसे निकल आये हैं, नये-नये और वो इस तरह की गंदी बाते फैला रहे हैं कि आप अपने सेक्स को सबलीमेट करें। आप पहले ही सबलिमेटेड हैं देखिये आप! आप का मूलाधार चक्र नीचे में है और ऊपर कुण्डलिनी बैठी हुई है। और इस तरह के कार्य करने की वजह से ही जो आपके अन्दर जो गर्मी पहुँचती है ये श्रीगणेश का गुस्सा है, वो आप पर गुस्सा हो जाते हैं और उनके गुस्से के कारण ही कुण्डलिनी ताडित हो जाती है । कुण्डलिनी कुछ नहीं, जहाँ-तहाँ बैठी हुई है, वो हिलती नहीं है, वो तो श्रीगणेश का गुस्सा है, जिसके कारण कुण्डलिनी से परे, कुण्डलिनी का कोई उसमें हात न होते भी सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टम पर आघात आता है और आपके अन्दर अनेक तरह की व्याधियाँ तैयार हुए होती है। कोई लोग होते हैं, उनके ऊपर सारे ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। मैंने देखे हैं, मेरे पास इन रोगों के मारे हुए लोग आते हैं, जिन्हें ठीक करना पड़ता है। सारे बदन पर भी ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। इतने गणेश जी गुस्सा हो जाते हैं। बहुत से लोगों के हाथ पैर सूझने लग जाते हैं। कोई तो चीखने लगते हैं, चिल्लाने लगते हैं। कोई अपने कपड़े उतार देते हैं, कोई नशे में हो जाते हैं, कोई बकने लगते हैं। किसी को कहीं लाईट- वाईट दिखने लग जाता है, दुनिया भर की चीज़ें हो जाती है। एक जगह अभी मैं गयी थी, कोल्हापूर में, तो वहाँ एक आदमी मेरे तरह पैर ऐसे कर के बैठ गया। सब कहा, कि भाई ऐसे माताजी के सामने पैर करके मत बैठो तो वो कहने लगा कि ऐसे ही बैठने दो वरना मैं तो मेंढ़क के जैसे कूदता हूँ। उन्होंने पूछा कि, 'भाई, मेंढक के जैसे क्यों कूदते हो ?' तो कहने लगे कि, 'मेरे गुरू ने मेरी कुण्डलिनी उठा दी है, जिसकी वजह से मैं एक मेंढक के जैसे कूदता हूँ।' आपके लाभ के लिये और आप के सुख के लिये जो चीज़ है, आनंद के लिये जो चीज़ है, उसका इस तरह भी पर्यास, इस कदर उसका अनादर और क्या हो सकता है। कोई भी इसमें ऐसे सिम्पटम्स नहीं होने चाहिये। हाँ, जरूर है, पर आपकी तबियत नहीं ठीक है। हो सकता है, आपकी कुण्डलिनी थोड़ी सी उठ कर के किसी जगह तक चली जाये और वहाँ रूक जाये जहाँ आपको तकलीफ हो, एक दो दिन वहाँ रूक जायेगी। हो सकता है, कि थोड़ी सी आपके अन्दर गर्मी सी आ जाये आपके बदन में। या हो सकता है कि यहाँ एक साहब थे, जिन्हें कुछ स्प्लीन की शिकायत थी और उनका एक अंगूठा ऐसे-ऐसे हिलने लग गया था, बस, ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि इंडिकेशन्स भी आने चाहिये। जब ये कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और इन सारे चक्रों को षट्चक्र कहते हैं क्योंकि सातवा चक्र जो है, उसको तो छेदना नहीं होता है, उससे तो ये ऊपर ही है इसलिये इसे षटचक्र भेदन कहते हैं। तो देखिये कि, कितनी बड़ी साक्षात बात है, कि सातवा चक्र, मूलाधार जो है उसको छेदा नहीं जाता है। इसलिये उसकी बात ही नहीं करनी चाहिये कुण्डलिनी के वक्त। हाँ, ये जरूर है, कि अगर आप अपवित्र आदमी हैं, आपने अपने गणेश जी की जरा भी परवाह नहीं करी, तो ये जरूर होता है, कि आपके अन्दर वैक्यूम क्रियेट हो जाता है। और जब भी कुण्डलिनी उठती है, है, अगर आपने गणेश की परवाह नहीं की है ज्यादा, तो हाँ, ये हो सकता है। तो भी बहत माफ़ी हो जाती है फिर से नीचे फट से आ जाती है, ऐसा हो सकता है, वो दूसरी बात तो 14 री सहजयोग में, मैंने देखा है। बहुत से लोग अगर इस तरह से रहे भी हैं तो भी उन्हें माफ़ी हो जाती है। बहुत जरूरी है, कि जब आप परमात्मा के सामने आये हैं और आप अगर चाहते हैं कि आपको उनका आशीर्वाद मिले तो आप अपनी पवित्रता को भी आंकिये कि क्या हम में ये पवित्रता है ? क्या हम माँ बहन कुछ चीज़ समझते हैं या नहीं। ये बहुत जरूरी है। मूलाधार चक्र बिगड़ जाने से ही अनेक सेक्स के जो भी प्रॉब्लेम्स जो होते हैं, वो हो जाते हैं । जैसे कि ये कॉन्स्टिपेशन वरगैरे जैसे चीज़े हैं, वो भी हो सकती हैं क्योंकि ये बिल्कुल गुदा के नीचे में ये चक्र है। उसके ऊपर आप देखते हैं, बरोबर पेट के बीचो-बीच में ये, जिसे कि हम नाभि कहते हैं, नाभि चक्र। इसे लोग मणिपूर चक्र भी कहते हैं। नाभि चक्र या मणिपूर चक्र। मणिपूर चक्र बराबर नाभि के पीछे रीढ़ की हड्डी में इस जगह पर है और इससे जो प्लेक्सस चलता है उसे सोलार प्लेक्सस कहते हैं अंग्रेजी में । ये चक्र आपके पीठ के रीढ़ के हड्डी में रहता है लेकिन प्लेक्सस तो समाने होता है। वो पीठ के रीढ़ के हड्डी के बाहर होता है, प्लेक्सस है, ये ग्रॉस है। और जो सूक्ष्म चक्र है, वो आपके हड्डी के अन्दर होता है, स्पायनल कॉर्ड के अन्दर जिसको कि हम मेड्यूला अबलोंगेटा कहते हैं। उसके अन्दर होता है। तो ये जो चक्र है, जो सोलार प्लेक्सेस हैं, इसी से हमारे सारे जो भी पेट के जितने भी सारे ऑर्गन्स हैं, वो चलते हैं । इसके अलावा एक चक्र आप देखते हैं, जो कि इसी चक्र से निकल कर चारों तरफ घूमता है, इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं और इस चक्र में छः पंखुडियाँ होते हैं। इसमें श्रीब्रह्मदेव का वास है श्रीसरस्वती उनकी शक्ति है, जो नाभि चक्र है, उसमें श्रीविष्णु का वास है और लक्ष्मी जी उनकी शक्ति है। अब समझ लीजिये कि कोई आदमी जरूरत से ज़्यादा गरीब है, हो सकता है, कि उसकी नाभि चक्र खराब हो। अपने देश का नाभि चक्र ही खराब है, इसलिये यहाँ गरीबी है, ज्यादा है। आप लक्ष्मी जी की अनेक पूजा कर लीजिए, दुनियाभर की आप पूजा कर लीजिये लेकिन आपको फायदा नहीं होगा। जब तक आप का नाभि चक्र ठीक नहीं होगा, आपकी हालत ठीक नहीं होगी। लेकिन लक्ष्मीजी का मतलब पैसे वाला नहीं होता है, ये आप बार-बार अनेक बार ये बात अच्छे से समझ लीजिये। आज तो मैं इन दो चक्रों के बारे में बता कर के ध्यान करवाऊंगी और बाकी का मैं कल बताऊंगी। अभी मैं आपको लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के बारे में बताऊंगी। कल्पना नहीं है, ये साक्षात है, ये वास्तविक है, क्योंकि नाभि चक्र जो है, वो धर्म की स्थापना करता है। मनुष्य के दस धर्म हैं और वो होने भी चाहिये। अगर मनुष्य के दस धर्मों में से वो छूट जाता है तो वो फिर सहजयोग के लिये उपयोगी नहीं है । उसे धर्म बाँधने पड़ते हैं। ये जो दस धर्म हैं, ये हमारे अन्दर मिनिमम होने चाहिये । जब ये होते हैं तभी आदमी धर्मातीत हो जाते हैं। लक्ष्मीजी एक स्त्री स्वरूप में दिखाई देती हैं। स्त्री स्वरूप का मतलब है, कि माता का हृदयी होना चाहिये। जिस आदमी के पास पैसे हो, लक्ष्मीपति उसे कहना चाहिये जो स्वयं अत्यंत सहृदयी हो और जिसके अन्दर मातृत्व हो सब के प्रती। दूसरे, लक्ष्मीजी एक कमल पर खड़ी हुई हैं। अर्थात जिस आदमी के पास, कि जिसे कहना चाहिये, कि जो लक्ष्मीपति है, उसमें इतना हलकापन होना चाहिये अपने बारे में, 15 इतनी सादगी होनी चाहिये, कि वो एक कमल पर भी खड़ा हो सकता है। हम देखते हैं, कि जरा सा भी अगर किसी के पास पैसा हो जाता है तो उनको इतना घमंड होता है कि वो मुझसे कहेगा कि, 'माताजी, देखो मेरे को पार तो होने का है, लेकिन मैं सब के बीच में वहाँ आपके हॉल में नहीं आ सकता। आप को मेरे घर आना पड़ेगा ।' मैंने कहा कि, 'क्यों? क्योंकि आपके पास थोड़ा पैसा ज़्यादा हो गया है?' तो कहने लगे कि, 'वे सब के साथ नहीं बैठ सकते।' ऐसे आदमी में जरा सा भी घमंड नहीं होना चाहिये । इतना सा भी घमंड नहीं होना चाहिये। तभी वो लक्ष्मीपति कहलायेंगे। गर उसको पैसों का घमंड हुआ तो फिर वो बरबाद हो जायेगा। फिर वो क्या पैसे वाला हुआ? अगर वो असली पैसे वाला है, जिसके पास अपने ही चीज़ें होती हैं उसे कभी किसी चीज़ का घमंड ही नहीं होता है। किसी दुसरे के मारी हुई चीज़ होगी, तभी वो घमंड करता है या उसके पास अभी बहुत कमी है। इसलिये वह घमंडी होता होगा। क्या हम लोग अपने नाक, आँख, कान का कभी घमंड करते फिरते हैं? उसके दोनों हाथों में, लक्ष्मीजी के दोनों हाथों में कमल होते हैं, गुलाबी रंग के। गुलाबी रंग के कमल खिले हुए हैं। मतलब ये है, कि जो लक्ष्मीपति होगा उसका हृदय इन कमलों जैसा खुला हुआ होगा। खुले दिल का आदमी होना चाहिये। कोई आया, उसपे भौंकने लग जाये वो लक्ष्मीपति कैसा ? वो तो कुत्ता हुआ। वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता। कमल के जैसे जिसकी सुरभि सारे संसार में फैली हुई है। पता हो कि एक लक्ष्मीपति यहाँ रहते हैं। मैं जहाँ पैदा हुई थी वहाँ एक थे, जिनको लोग कहते थे, जी लक्ष्मीनारायण कह कर, बड़े रईस आदमी थे। उनको आप लक्ष्मीपति कह सकते हैं। अत्यंत निगवीं आदमी थे वे, और बच्चों जैसा उनका स्वभाव था । ऐसे अनेक-अनेक देखे मैंने बहुत कम। बहुत कम ऐसे देखे हैं मैंने। और कमल के जैसे उनका घर होना चाहिये, सुंदर, गुलाबी, जिसमें हृदय की गुलाबीपन हो हृदय का खिंचाव हो। लोगों का स्वीकार्य हो । सब का वहाँ आना हो। भँवरे जैसे प्राणी को भी कमल अपने यहाँ स्थान देते हैं। और उसको कम्फर्टेबल और आराम से सुलाते हैं। एक कोझीनेस होती है कमल की। उसकी हृदय की वो कोमलता होनी चाहिये । ऐसे आपने देखे हैं क्या कोई ? कोई ऐसा एकाद दिख जाये तो मुझे आ कर बताना। बहुत मुश्किल है, पैसा आया और गधे बन गये, कुछ नहीं हुआ तो शराब पी लिया, कुछ जुआ खेल लिये। क्या ये आदमी की बुद्धि है कि क्या? जिसके पास पैसा आया उसकी बुद्धि हमेशा उल्टी तरफ जाती है। घोड़े से भी बद्तर बुद्धि होती है मनुष्य की। सोच-सोच कर आश्चर्य लगता है। कभी भी सुबुद्धि नहीं आती है उसको पैसों से, ऐसा पैसा किस काम का! वही पैसा काम का है कि जिससे मनुष्य में सुबुद्धि आये, जिसका धर्म जागृत हो। परमात्मा इसलिये आपको ज़्यादा पैसा देते हैं कि आपके हाथ से धर्म स्थापित हो, संसार का भला हो। धर्म का और पैसे का बड़ा नजदीकी सम्बन्ध है, ये मैं आपको बता दूँ। आप विश्वास करें या ना करें। कल ही मैंने बताया था कि मैं किसी के घर गयी थी, उन्होंने बताया था कि, 'माताजी, आप जरूर आना यहाँ, यहाँ बहुत रईस लोग हैं, ये हैं, वो हैं।' तो मैंने कहा कि, 'देखो भाई, मुझे ये सब समझता नहीं है 16 ३ं र २े हैए ३ं ॐ रईसों का। पर मैंने कहा कि, 'मैं चलती हूँ।' जैसे ही मैं उस घर के बाहर पहुँची, मैंने कहा कि, 'इस घर में बड़ा भारी शाप है, चाहे ये कितने भी रईस हो।' तो कहने लगे कि, 'कैसे ?' मैंने कहा कि, 'बस, शापित है।' मैंने उनके घर में जा कर देखा कि उनके दो बड़े लड़के हैं, जो हर दम बैठे ही रहते हैं, उनके पैर ऐसे और हाथ ऐसे हैं तब से ही जब से वे पैदा हुए थे, तब से वे ऐसा ही है। क्या करने का उस पैसे का ? आप तो क्या, हाथी ले कर के आप घूमियेगा? आपके दोनों बच्चे तो ऐसे हो गये हैं। अब बाहर ही मुझे लगा कि ये घर तो शापित है। शाप हो जाते हैं पैसों का। और आपको पैसा का कमाना और उसका घमंड पर धर्म का कोई व्यवस्था नहीं होती है। ऐसे ही अनेक घर शापित हो सकते हैं। किसी की पत्नी देखो , तो पागल हो गयी है। किसी के कुछ हो गया है, किसी के कुछ हो गया है। कोई कहता है, कि हमारे यहाँ बच्चा नहीं हुआ है। किसी के यहाँ कोई कुछ हो जाता है, कहीं कुछ हो जाता है। बच्चा नहीं होना कोई शाप नहीं है। लेकिन जिस तरह से उनके ऊपर उसका असर आता है वो शाप है। इसलिये धर्म और पैसों का बड़ा सम्बन्ध होता है। 17 व्यापारियों से वा्ती ५-४-१९९६ अब हमें किन कठिनाइयों की सामनी करनी पड़ सेकती है, येह समझनी चाहिए। आज की संसार ऐसा है कि हमें शान्ति प्राप्ति होनी आविश्यक है और मन से ऊपर उठे बगैर शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। केवल कुण्डलिनी ही हमें पूर्ण आन्तरिक शान्ति तक ले जा सकती है। हर चीज़ को हम साक्षी रूप में देखने लगते हैं, किसी चीज़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते और परिणामस्वरूप हमारी स्मरण शक्ति सुधरती है। प.पू.श्रीमाताजी, ५.४.१९९६ सत्य को खोजने से पूर्व हम भिन्न सम्भावनाओं पर विचार करते रहते हैं। जिसे हम 'मन' कहते हैं वह वास्तव में हमारा मस्तिष्क नहीं होता। हम सोचते रहते हैं कि हमारा मन क्या कह रहा है परन्तु आप यह जानकर आश्चर्यचकित होंगे कि यह मन आता कहाँ से है और यह वास्तव में है क्या ! हमारे अन्दर जो मन है वह वास्तव में हमारे द्वारा बनाई गई एक परिस्थिति है। पशुओं में शायद ऐसा न हो परन्तु मानव जब किसी चीज़ को देखता है तो उस पर प्रतिक्रियाशील होता है। उदाहरणार्थ यहाँ बिछे हुए सुन्दर कालीन को हम देखते हैं, यदि यह हमारा अपना हो तो हम चिन्तित हो उठते हैं कि कहीं यह खराब न हो जाए। तब हम इसका बीमा कराने की सोचते हैं, और यदि यह हमारा नहीं है तो हम सोचने लगते हैं कि यह कहाँ से आया, इसका मूल्य क्या है? यह सब बातें हमारे मस्तिष्क में आती रहती है। छोटे होते हुए जब बच्चा अपनी माँ के साथ होता है तो वह खूब मजे में रहता है। माँ का और कार्य करना बच्चे को अच्छा नहीं लगता। उसे लगता है कि माँ उसे परेशान कर रही है। कुछ इस प्रकार बच्चे में जो प्रतिक्रिया आरम्भ होती है वह शनै:- शनै: विकसित होकर अहम् कहलाती है। माँ जब बच्चे को किसी कार्य को न करने के लिए कहती है तो बच्चे को अच्छा नहीं लगता, फिर भी वह उसकी बात को सुनता है क्योंकि वह माँ है। इस प्रकार बच्चे के बंधनों की रचना होती है। इस प्रकार हमारे अन्दर केवल दो चीज़ें हैं- हम या तो अपने अहम् या अपने बन्धनोंवश कार्य करते हैं। कोई तीसरी चीज़ नहीं है जो हमें यह बता सके कि हम क्या कर रहे हैं, यह ठीक है या गलत, इससे हमें लाभ होगा या नहीं, यह हमें विनाश की ओर ले जा रही है या प्रसिद्धि की ओर। जिस भी तरह से हम प्रतिबन्धित हैं उसी दिशा में हम बढ़़ते चले जाते हैं और तब हमारा अहम् भी विकसित हो सकता है। अहम् की किस्म के अनुसार ही हम कार्य करते हैं। हमारे अन्दर वर्तमान इन दोनों गुणों की सृष्टि हमारे द्वारा ही की जाती है। उदाहरण के तौर पर इस घड़ी की लें जिसे हमने बनाया है। अब हम इस घड़ी के गुलाम हो गए हैं। ज्यों ही इन लोगों ने कहा श्रीमाताजी आपको सात बजे पहुँचना है, मेरे मन में विचार आया कि हम उस जगह से बहुत दूर हैं, वहाँ समय पर नहीं पहुँच पायेंगे। यह विचार मुझे समय से बांधने का प्रयत्न करते हैं । तब एक और चिन्ता हो जाती है कि यह लोग मुझे ऐसा क्यों कह रहे हैं। इस तरह से हम समय में बंध जाते हैं और इसके दास बन जाते हैं। कम्प्यूटर के बिना हम दो जमा दो भी नहीं कर सकते। हमें इसे भी ठीक करना आवश्यक है। हममें आदान-प्रदान की भी कमी है और यह मस्तिष्क, जो कि एक वास्तविकता है, इसके पास करने के लिए बहुत कम कार्य है तथा घड़ी की सुई की तरह से हम घूमते रहते हैं और एक यन्त्र मानव की तरह से हम जीवनयापन करते हैं। जो सत्य है उससे हम दूर हैं। हम वास्तविकता के दायरे में प्रवेश कर सकते हैं। जब हम इस दायरे में प्रवेश कर जाते हैं तो न केवल अपने विषय में परन्तु अन्य लोगों के विषय में भी जान सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी वेशभूषा या आभूषणों के बारे में जान सकते हैं। परन्तु उनके चक्रों की स्थिति के विषय में जान सकते हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि हमारे अन्दर के यह सात चक्र हमारे ऊर्जा केन्द्र हैं। इन ऊर्जा केन्द्रों की शक्ति को हम उपयोग करते हैं। परन्तु यदि इनका बहुत अधिक उपयोग करने लगें तो लोगों को तनाव, हृदय रोग या किसी अन्य प्रकार के रोग हो जाते हैं। यही केन्द्र हैं जिनसे हमारी सभी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान होता है। यह सात चक्र हमारे अन्दर हैं, हो सकता है इनके अस्तित्व का ज्ञान आपको न हो। यह सात 20 चक्र हमारे अन्दर केवल विद्यमान ही नहीं है, बहुत से लोगों ने इसकी कुंजी भी प्राप्त की है। अपने असंतोष के कारण हम इन केन्द्रों को एक तरफ (बाएं या दाएं) बहुत अधिक ले जाते हैं। आप स्वयं सोच सकते हैं कि शारीरिक स्तर पर व्यापारियों को क्या समस्याएं हो सकती हैं। एक चक्र है जिसे हम स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। यह चक्र बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसका कार्य हमारे मस्तिष्क के सफेद कोषाणुओं का पोषण करना है। चिकित्सकों को इसका ज्ञान नहीं है परन्तु यह सत्य है। यदि हर समय हम अपने मस्तिष्क की शक्ति का उपयोग करते रहेंगे तो इसकी शक्ति कहाँ से आएगी ? हमारे सभी विचारों, इच्छाओं, योजनाओं आदि को पूर्ण करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और यह शक्ति स्वाधिष्ठान चक्र से आती है। स्वाधिष्ठान चक्र को इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना होता है। इसी चक्र की सहायता से हमारे जिगर, प्लीहा, गुर्दे कार्य करते हैं। जब यह चक्र एकतरफा कार्य करने लगता है तो इसकी शक्ति भी एक ही ओर जाने लगती है तथा सभी प्रकार के रोग प्रकट हो जाते हैं। सर्वप्रथम जिगर गर्म हो जाता है तथा अधिक सोच-विचार तथा योजनाएं बनाना इसे और अधिक गर्म कर देता है। जिगर, जिसका कार्य इस गर्मी को रक्त प्रवाह में छोड़ना होता है, अपना कार्य नहीं कर पाता। तब यह गर्मी ऊपर नीचे या दाएं बाएं चली जाती है। जब यह ऊपर को जाती है, तो आप हैरान होंगे, व्यक्ति को अस्थमा हो जाता है। बहुत से लोग शिकायत करते हैं कि श्रीमाताजी मुझे अस्थमा है जो लाइलाज है, नहीं नि:सन्देह इसका इलाज हो सकता है। एक चिकित्सक, जो अब अमेरिका में है, को इसी विषय पर एम.डी. की उपाधि प्राप्त हुई है। दूसरा रोग जो इसके कारण होता है बहुत आम रोग है- मधुमेह (Diabetes)। यह चक्र अग्न्याश्य की भी देखभाल करता है। इसके खराब होते ही मधुमेह का आरम्भ हो जाता है । जो लोग अत्यधिक सोचते हैं, अत्यधिक योजनाएं बनाते हैं उनके प्लीहा पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है क्योंकि प्लीहा का कार्य संकटकालीन स्थिति में हमारे शरीर को लाल रक्त कोषाणु प्रदान करना होता है। आज के युग में लोग समयबद्ध हैं। हम रात को देर से सोते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं और किसी तरह कार में बैठकर दफ्तर को दौड़ते हैं। हमारा संवेदनशील प्लीहा ऐसे समय पर लाल रक्त कोषाणु देना चाहता है, व्यक्ति की चिन्ताओं के साथ यह भी चिन्तित हो उठता है और इस प्रकार जिस रोग का आरम्भ होता है वह अत्यन्त भयानक है- रक्त कैंसर। तीसरा रोग अचानक गुर्दे का खराब हो जाना है। पहले तो व्यक्ति को डायलिसिस पर डाल दिया जाता है परन्तु इसका खर्च उसे दिवालिया बना देता है। डायलिसिस से मनुष्य निरोग नहीं हो सकता। डाक्टर जो चाहे कहते रहें परन्तु यह सत्य है। इसके अतिरिक्त भी बहुत से रोग हैं जैसे कब्ज। भयानक कब्ज भी बहुत सी बीमारियों का कारण बनती है। इस गर्मी से हृदय भी नहीं बच सकता। कोई शराब पीने वाला युवा व्यक्ति जो टेनिस खेलता हो, सोचता भी हो, वह भी इसकी पकड़ में आ जाता है। क्यों? २१ से २५ वर्ष की आयु में हृदय की ओर 21 बढ़ती हुई इस गर्मी के कारण यदि ऐसे व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ जाए तो वह घातक हो सकता है। यह गर्मी जब हृदय को प्रभावित करती रहती है तो हृदय कमजोर हो जाता है और ५५ वर्ष की आयु में व्यक्ति को दिल के दौरे पड़ने लगते हैं । तब लोगों की दुर्दशा हो जाती है, पक्षाघात हो सकता है। इतना भयानक पक्षघात कि पूरा दायां पक्ष कार्य करना बन्द कर देता है। केवल एक चक्र इतने सारे रोगों का कारण बन सकता है, विशेषकर बहुत अधिक योजनाएं बनाने वाले भविष्यवादी लोगों में। ऐसे लोगों को सदा जुकाम हो जाता है और कभी-कभी तो उन्हें फ्लू भी हो जाता है। अब आप कल्पना कीजिए कि एक चक्र जब इतने सारे रोगों का कारण बन सकता है तो यदि किसी का दूसरा चक्र खराब हो जाए तो क्या होगा? कैंसर, कम्पन रोग (Parkinson) जैसे मनोदैहिक रोग स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी से होते हैं तथा अन्य चक्रों को भी खराब कर देते हैं और इन्हें ठीक करने का कोई दूसरा तरीका नहीं होता। आप यदि सोचें कि चिकित्सक न्हें दवाइयों से ठीक कर देंगे तो ऐसा नहीं हो सकता। आपको इन चक्रों में शक्ति का संचार करना होगा और इसके लिए सर्वशक्तिमान परमात्मा ने मूलाधार अस्थि में कुण्डलिनी नामक शक्ति रख छोड़ी है। क्योंकि यह साढ़े तीन लपेटों में है और लपेटे को संस्कृत में कुण्डल कहा जाता है, मानव ने इसका नाम कुण्डलिनी रख दिया है। क्योंकि यह मातृ-शक्ति है इसे कुण्डलिनी कहते हैं। जागृत होकर यह शक्ति इन चक्रों में से होती हुई तालू की हड्डी का भेदन होता है। करती है, तब इसका मिलन परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति स सत्य क्या है? सत्य यह है कि पेड़, हरियाली, यह संसार, सभी चीज़ों को हम सुन्दर देखते हैं परन्तु यह नहीं सोचते कि यह सब किस प्रकार बना। है न हैरानी की बात! उदाहरणार्थ यह सुन्दर फूल कितने सुगन्धमय हैं। यह सुगन्ध कौन इनमें डालता है? आप यदि चिकित्सक से पूछे कि मेरे हृदय को कौन धड़काता है तो वह कहेगा स्वचालित नाड़ी तन्त्र। अब यह 'स्व' कौन है ? यदि वह स्वचालित है तो हमारे अन्दर एक चालक है, यह कौन है? इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यह आपकी आत्मा है और हम इसलिए जीवित हैं क्योंकि हमारी आत्मा जीवित है। इसका यह अर्थ भी नहीं कि आप लोग जंगलों में या हिमालय में चले जाएं और एक टांग पर खड़े हो जाएं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं। आप पूर्व जन्मों में यह सब कर चुके हैं और इसी कारण यहाँ उपस्थित हैं। यह सब नाटक करने या पैसा खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं। इसे आप खरीद नहीं सकते। जैसे आप मानव हैं, आप महान व्यक्ति बन सकते हैं। यह जीवन्त क्रिया है। यह सहज ही में घटित हो सकती है। यह शक्ति सभी में विद्यमान है। आपने केवल इसे पाना मात्र है। उसके लिए आपको कुछ नहीं करना, यह सहज है, स्वत: है। उदाहरण के लिए आपके पास एक बीज है जिसे आपने पृथ्वी में डालना है। इसके लिए आपको क्या करना होगा? कुछ नहीं, केवल इसे पृथ्वी में डालना होगा क्योंकि बीज में भी शक्ति है और पृथ्वी में भी, यह उपजाऊ है। इसी 22 प्रकार आपकी कुण्डलिनी को भी जागृत करना कठिन नहीं है। ऐसा करने का कोई एहसान नहीं है। अब जब हमारे अन्दर यह शक्ति है और हम इसे प्राप्त कर सकते हैं तो क्यों न हमें ऐसा कर लेना चाहिए। अब हमें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, यह समझना चाहिए। आज का संसार ऐसा है कि हमें शान्ति प्राप्त होना आवश्यक है और मन से ऊपर उठे बगैर शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। केवल कुण्डलिनी ही हमें पूर्ण आन्तरिक शान्ति तक ले जा सकती है। हर चीज़ को हम साक्षी रूप में देखने लगते हैं, किसी चीज़़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते और परिणामस्वरूप हमारी स्मरण शक्ति सुधरती है। जो कुछ भी हम देखना चाहते हैं, मान लो किसी समस्या को, जब तक हम समस्या में फंसे रहते हैं इसका समाधान नहीं कर सकते। परन्तु ज्योंही इस समस्या से बाहर आ जाते हैं समस्या सुलझ जाती है क्योंकि हम परमात्मा से जुड़े होते हैं। हमारा एकाकार परमात्मा से है, यह कठिन कार्य नहीं है परन्तु पहले आपको विश्वास होना चाहिए। इतने सारे लोग क्यों विश्वास खो बैठते हैं? हो सकता है आपने गलतियाँ की हों, उन्हें भूल जाएं। वह आपका भूत था, अब आप उससे जुड़े हुए नहीं हैं। आप वर्तमान में हैं। मैं इसे बसन्त ऋतु कहती हूँ क्योंकि बहुत से लोग आए हैं उनका पुनर्जन्म हुआ है। योगी रूपी फूल खिल उठे हैं और कुण्डलिनी की जागृति के साथ ही उनपर फूल आए हैं। ऐसा हजारों लाखों लोगों के साथ घटित हुआ है ऐसा घटित होना कठिन कार्य नहीं है। इसमें किसी का कोई एहसान नहीं है, मेरा या और आपके साथ भी आपका। ये आपकी निजी चीज़़ है । इसे प्राप्त करने के पश्चात आपको थोड़ी देर के लिए ध्यान अवश्य करना होगा। यह खाइए और यह मत खाइए जैसा कोई बंधन नहीं है। अपने घर और बच्चे छोड़ने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है। सभी लोगों ने यह बात कही है, ईसा ने कहा था " स्वयं को पहचानो" ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि स्वयं को जाने बिना आप परमात्मा को नहीं (know thyself) मोहम्मद साहब जान सकते। अब यदि लोग कुछ और बातें कहें तो हमें उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जब सभी अवतरणों ने कहा है कि स्वयं को पहचानो और ऐसा करना कठिन भी नहीं है तो क्यों न यह किया जाए? कुछ लोग समझते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात उनका व्यापार ठप्प हो जाएगा। वे बहुत भयभीत हैं। परन्तु साक्षात्कार के पश्चात दस गुना समृद्ध होंगे क्योंकि आपका दृष्टिकोण ईमानदारी का हो जाएगा और आप सन्तुष्ट हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि आप पागलों की तरह इस पर लग जाते हैं। ऐसा कुछ नहीं है। पागलपन छूट जाता है और आप पूर्णत: सन्तुष्ट हो जाते हैं । अर्थशास्त्र का नियम है कि प्राय: आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। जैसे आज आपको एक कार की इच्छा होती है फिर एक घर की, फिर एक वायुयान की, एक के बाद एक, कभी सन्तुष्टि नहीं होती। इसका कारण यह है कि वस्तुएं आपको सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं। सन्तोष तो एक मानसिक अवस्था है । साक्षात्कारी व्यक्ति को भौतिक वस्तुएं यदि मिल गईं तो ठीक यदि नहीं मिलीं तो ठीक। वह शारीरिक सुखों की अधिक चिन्ता नहीं करता। उसे आप रेशम पर बिठा दें या फर्श पर वह प्रसन्नचित्त रहता है। वह बादशाह है। कोई चीज़ उसे बाँध नहीं सकती क्योंकि वह बादशाहत में है। आप यह सब प्राप्त कर सकते हैं । इसे प्राप्त करने का आपको अधिकार है । 23 इसे यदि आप प्राप्त कर लें तो बहुत अच्छा होगा। सबसे बड़ी उपलब्धि जो होगी कि आप जान जाएंगे कि आपके ऊपर एक महान शक्ति है-प्रेम की शक्ति। अब तक किसी ने इस प्रेम की शक्ति का उपयोग नहीं किया। सभी शक्ति का उपयोग कर रहे हैं। आप यह प्रेम की शक्ति उपयोग करें और फिर देखें। आप देख रहे हैं कि हमारे देश में कितनी खलबली है। लालच अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। लोगों के पास धन रखने के लिए स्थान नहीं है। दीवारों में वे धन लगा रहे हैं। क्या वे ये दीवारें अपने साथ ले जाएंगे? विवेक समाप्त हो गया है। लोभ की भी एक सीमा होती है। लोग किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते फि र भी चले जाते हैं। यह पागलपन है। जो भी कुछ आपके पास है आपको चाहिए कि आप इसका आनन्द उठाएं। अब नि:सन्देह आप महसूस करेंगे कि शिष्य श्रीमाताजी हमें आनन्द के सागर तक ले गई है। जफर नाम का एक मुसलमान डाक्टर हमारा है। जब वह हमारे पास आया तो सभी लोग भजन गा रहे थे। मैं नहीं जानती कि उसे क्या हुआ, डाक्टर जफर आपको क्या हुआ ?" उसने उत्तर आनन्दमग्न हो वह गाता रहा। मैने उससे पूछा, दिया, " मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मैं पूर्ण आनन्द में था और घंटों तक वह इसी स्थिति में रहा। मैंने उसे कहा कि "कुछ खा लो", वह कहने लगा, " मैं निर्विचार समाधि में था। जरा सोचिए कि आप इतनी पार्टियों में जाते हैं, इतनी पार्टियाँ देते हैं परन्तु आनन्द नहीं उठा सकते। पार होने के पश्चात इधर-उधर की बातें सब समाप्त हो जाएंगी। इतनी मित्रता, इतना प्रेम आपने अभी तक सामूहिकता में कभी न देखा था। यह इतना आनन्ददायी अनुभव है कि हजारों लोग प्रेम के सागर में मिलकर बैठे हुए हैं। जो भी हमें देखता है हैरान हो जाता है। रूस जैसा देश जहाँ साम्यवाद है, मुझे साम्यवाद से कुछ नहीं लेना-देना, न ही मैं इसके पक्ष में हूँ, परन्तु इससे भी एक अच्छाई निकली कि उनमें कोई इच्छा शेष नहीं बची। सरकार ने उनसे कहा कि हम आपको फ्लैट देंगे, अपने नाम में इन्हें ले लो। उन्होंने कहा,नहीं हमारे नाम इन्हें मत करो। अपने पास रखो। अपने नाम से चीज़ें लेने से सभी लोग डरते हैं। परमात्मा जानता है कि वहाँ कितने लोग सहजयोगी बन चुके हैं। बहुत से वैज्ञानिक, बहुत से अन्य लोग हैं जिनमें कोई इच्छा नहीं है। केवल ३५ प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो मालब्रो सिगरेट जैसी चीज़ें चाहते हैं। मैंने उनसे कि यहाँ सैनिक विपल्व होने वाला है, आपको कोई चिन्ता नहीं ? कहने लगे, पूछा 'श्रीमाताजी हम क्यों चिन्ता करें? हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं यहाँ के साम्राज्य में नहीं। किस चक्र से क्या होता है इसके बारे में चिन्ता करना अनावश्यक है। आप है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर ले। आजकल बाजार में बहुत से गुरु है। धन बटोरना उनका व्यापार को आप आत्मसाक्षात्कार जैसी अमूल्य चीज़ के लिए कैसे आप धन ले सकते हैं? जिस गुरु खरीद सकते हैं वह तो आपका नौकर हुआ। वह गुरु कैसे हो सकता है? आप यदि इस चीज़ को 24 २ ১৫ . भी बहुत से झूठे गुरु हैं। इससे हानि भी हो समझ ले तो अच्छा होगा। हमारे देश में और बाहर सकती है। आत्मसाक्षात्कार आपकी अपनी सम्पदा है। आपने इसे प्राप्त करना है। इसके लिए आपको स्वयं पर विश्वास होना चाहिए कि मुझे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करें। 25 विश्व का नि्माण ग जनमदिन २भाशेह मुंबई, ३० मार्च १९८३ विश्व का निर्माण जनमदिन समारोह पहला भजन, 'भय काय तया प्रभु ज्याचा रे' गाया गया। श्रीमाताजी ने उल्लेख किया कि, 'यह मेरे पिताजी का प्रिय भजन था।' बहुत से लोग मुझसे हमेशा पूछते हैं, कि परमात्मा ने ये विश्व क्यों निर्माण किया? नि:संदेह हमें परमात्मा से प्रश्न नहीं करना चाहिये। श्रीमाताजी के प्रवचन के समय सवाल करना आसान बात है। लेकिन परमेश्वर जो हैं वह प्रश्नों से परे हैं और इन्होंने क्यों विश्व का निर्माण किया? ये कुछ इस तरह से है कि मैंने ये सारे जेवर क्यों पहने हैं? जैसे कि मुझे गहने पहनने की आदत नहीं है, लेकिन मुझे ऐसा करना ही पड़ता है। मुझे ऐसा करना पड़ता है केवल आप सबको प्रसन्न करने के लिये अथवा हम कह सकते हैं कि परमात्मा ने इस पृथ्वी का निर्माण केवल बच्चों की खुशी के लिये, उनके सुख के लिये किया है, केवल उनको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश देने के लिये किया। उनके (परमात्मा) पास जो भी है वह सब देने के लिये ही किया। इसलिये उनको इस रचना का आविष्कार इस प्रकार से करना पड़ा ताकि उनकी प्रतिमा उसमें प्रतिबिंबित हो और वह (रचना) स्वयं उसका आनंद उठा सके। ये एक आपसी प्रशंसा है, जिसे कि हम आंदोलन कहते हैं। जो भी वे हमारे लिये करते हैं, वह उनके ही खुशी के लिये करते हैं । लेकिन उसकी सुंदरता इस प्रकार है, कि आपका जो भी सुख है वह उनका सुख है, दूसरे सिरे से देखा जाय तो उनकी खुशी आपकी भी खुशी होनी चाहिये । एक बार जब ये वास्तविकता, कि परमात्मा का सुख जब आपका सुख बन जाता है, तब आप स्वर्गीय आनंद के उस सुंदर प्रदेश में प्रवेश कर जाते हैं। अगर ये सिर्फ एक तरफा उद्यम या एकतरफा प्रयास हो जाता है, तो ये खो जाता है। मानव के प्रयास एक तरफा हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रयत्न ऐसे होते हैं कि जब तक वे प्रतिबिम्बित नहीं होते हैं तब तक उनका आनंद उठाया नहीं जा सकता है। 29 इसलिये जो भी उन्होंने हमें दिया है उसकी गिनती ा हम नहीं कर सकते हैं, हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं। कि ये आशीर्वाद है क्योंकि ये चीज़ों को बताने का निराकार तरीका है। ये परमात्मा का आशीर्वाद है कि उन्होंने हमें सारे ही आशीर्वाद प्रदान किये हैं। ये निराकार चीज़ है, क्योंकि हम उनकी गणना नहीं कर सकते, उनको कोई रूप नहीं दे सकते। उनकी सर्जनता का आनन्द जब हम हृदय से महसूस करते हैं, हम उस आनन्द का सुख लेने लगते हैं तब ये एक परिपूर्ण चित्र बनता है। जब ये पूर्ण होता है तब हम उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये अनुरूप नहीं है। आप केवल इससे आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। कैसे इस प्रकार से आनन्द की गहनता का वर्णन किया जा सकता है। इस प्रकार की गहनता में हम क्या कह सकते हैं? हम इसमें खो जाते हैं। बून्द सागर हो जाती है और समुद्र बून्द हो जाता है। राम पहले सागर बून्द बन जाता है और उसके बाद बून्द सागर बन जाती है और फिर समुन्दर बून्द उन्होंने हमारे लिये क्या किया है, ये आप शब्दों में बयान नहीं कर सकते। बन्द बनने का प्रयास करता है। ये नितान्त सुन्दर शैली है देने और लेने की, जिन लोगों ने परमात्मा के प्यार का, अमृत का आनन्द लिया है सिर्फ वही उसको समझ सकते हैं। परमात्मा नहीं है ये कहना बड़ा आसान है। ऐसा कहना ये सबसे आसान चीज़ है। लेकिन उससे भी ज़्यादा आसान है परमात्मा का ( उसके प्रेम का) आनन्द प्राप्त करना। सबसे आसान है उनका (आशीर्वाद का) आनन्द उठाना क्योंकि वे ऐसे उपलब्ध हैं, वे इतने उत्सुक हैं कि सारे सर्जन का हेतु आपको आनन्द देना है, आपको सुख देना है । जैसे कि आज मुझे जब बैंक जाना पड़ा, मुझे ताज्जुब हो रहा था, 'मैंने कभी भी मेरे जीवन 30 काल में किसी भी समय इस तरह से इतने जेवर नहीं पहने थे और आज यह समय आया है और मुझे इन्हें पहनना पड़ा,' मैंने केवल विचार किया, 'ये सिर्फ मेरे बच्चों के लिये है।' अगर मुझे पहनना पड़े तो क्या फर्क पड़ता है केवल उनको अच्छा लगे इसलिये, कोई बात नहीं अगर उनको इससे आनन्द होता है, तो मेरा आनन्द पूर्ण हो जाता है। आपको ऐसा लगता है, कि मुझे इन्हें | 31 पहनना चाहिये? इसका मतलब है, कि आप यह देखना चाहते हैं कि ये (जेवर) मैंने पहना है। यह भी आपकी बहुत सूक्ष्म भक्ति है, आदर है, आपका माँ के प्रति बहुत ही सूक्ष्म प्रेम है। इस आधुनिक काल में ऐसे भक्त मिलना, यही मेरे लिये एक बड़ा आशीर्वाद है। इसलिये जैसे कि आप कहते हैं कि, 'माँ, हमें आशीर्वादित कीजिये।' मैं कहती हूँ कि, 'आप भी मुझे भक्ति (आशीर्वाद) दीजिये ।' आपने मुझे पहले से ही इस सुंदर व्यवस्था से जो आपने की है, प्रसन्न कर दिया है। जिस प्रकार से आपने खुद इसके लिये जी जान से कठिन परिश्रम किये हैं, अपने आपको इस महान पूजा में समर्पित किया है। क्योंकि ये इतनी परस्पर निर्भर प्रक्रिया है। आप पूजा करते हैं। | मैं पूजा नहीं कर सकती। आपको पूजा करनी चाहिये । जब आप पूजा करते हैं, तो चक्र जागृत होते हैं। मेरे (पहले से ही) जागृत हैं। लेकिन आप में ये जागृत हो जाते हैं । अब लोगों को किस प्रकार | समझायें कि पूजा का क्या महत्व है। अगर आपने पूजा के फल का स्वाद नहीं लिया हो तो आपको समझाना असंभव है। ये सिर्फ ऊँचे स्तर का ही कोई ये सारी चीजें समझ सकता है। लेकिन अभी तक निम्न प्रकार के लोगों से जो भी किया गया है वह इतने निम्न स्तर का है कि सब बिल्कुल ही अपवित्र बन गया है और यह सब जो अपवित्र क्रिया कार्य था कि जिससे परमात्मा खुद भी दु:खी हो गये। इसलिये परमात्मा ने इस विश्व की रचना आत्मसाक्षात्कारी लोगों का निर्माण करने के लिये किया है । बेकार के लोगों का निर्माण करने के लिये नहीं, ऐसे लोगों का निर्माण करने के लिये नहीं कि जो परमात्मा में विश्वास नहीं करते, जो उच्च स्तर के जीवन पर विश्वास नहीं करते, जो पवित्र जीवन जीने पर विश्वास नहीं करते। उन्होंने विश्व की रचना इस तरह के लोगों के लिये नहीं की है। उनका अस्तित्व केवल मृत लोगों जैसा है, वे जीवित लोग नहीं है। इसलिये जिनकी परमात्मा में श्रद्धा है, जो पवित्रता के साथ उनकी पूजा करते हैं, वे एक प्रकार से परमात्मा को प्रसन (आशीर्वादित) करते हैं। क्योंकि ये इतना (परमात्मा के) उनके लिये देखना आनन्ददायी है कि उन्होंने समझा है कि उन्होंने महसूस किया है कि उनको ये अच्छा लगा है। सहजयोगियों को भी, इन में से लोगों को समस्यायें हैं, कोई बात नहीं। लेकिन जब तक कुछ इच्छा शुद्ध है, आपकी कुण्डलिनी पवित्र है, जब तक आपको ये महसूस होता है कि आपका उत्थान सही तरीके से हो, समर्पित भाव से ही इन सबसे एक सुन्दर, पूर्ण चित्र तैय्यार होने वाला है। और ये परमात्मा का उन्नत साम्राज्य अपने अन्दर हृदय में और बाहर निर्माण करने के लिये 32 आप सब को यह समझना चाहिये कि परमात्मा के प्रयास सर्वथा परिपूर्ण हैं। उन्होंने आपको बनाया है। अब वहाँ केवल किंचित कमी है। यह दूसरी ओर से है। उन्होंने ये सृष्टि इतनी सुंदरता से बनायी है और इतनी खुबसूरती से विश्व का निर्माण करने के बाद इस रचना में परमात्मा पूरी तरह से प्रतिबिम्बित होने चाहिये । बस इतना ही है। इसलिये अब पचास प्रतिशत कार्य हो गया है, सिर्फ दूसरा पचास प्रतिशत कार्य आपको करना है। आपको इसकी चिन्ता नहीं करनी है अगर ऐसे लोग हैं, कि जो सहजयोग में रूची नहीं लेते हैं, वे जो ध्यान नहीं करते, वे जो पूजा नहीं करते, वे जो ये उच्च स्तर का जीवन का आनन्द नहीं लेते , उनके बारे में आप बिल्कुल चिन्ता न करें। लेकिन | आपको समझना चाहिये कि आप विशेष लोग हैं और आपको परमाणू का निर्माण करना है, उस भाग के पूर्ण अंग को कि जिससे इस महान विश्वास के कार्य को पूर्ण करना है। आज मैं इतनी प्रभावित हुई हूँ कि सबकी गति मेरे लिये शून्य हो गयी है। अब कुछ भी नहीं चल रहा है। मुझमें अब गति बाकी नहीं रही है। अब वह चली गयी है। आप जो समारोह मना रहे हैं, उससे और आपके प्रेम से प्रभावित हुई हँ और मेरा दिल भर आया है कि मुझे समझ में नहीं आता कि मैं किस तरह अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करूँ । यह सब आपके गहनता को और हृदय में जो कृतज्ञता है इसको दर्शाते हैं। इसके लिये मैंने कुछ भी नहीं किया है जो कुछ भी है वो मैंने भी नहीं किया है क्योंकि मुझे जिंदगी में कुछ भी पाना नहीं है। जो मैं थी वह मैं हूँ और कुछ वैसे ही रहँगी। मैंने कुछ भी तपस्या या उसके जैसा कुछ नहीं किया है । ध्येय को पाने के लिये एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी हूँ। ये स्वयं आप ही हैं, जिन्होंने स्वयं को तैय्यार किया है, जो नज़दीक और नज़दीक आ गये हैं, एक जलते हुए दिये की तरह एक और अपने आपको प्रज्वलित कर दिया है, खुद को प्रबुद्ध किया है, इसका कारण आपकी कुशलता है, ये आपकी अपनी करामात है, कि जिसकी वजह से सब जगह प्रकाश फैल गया है। आपको भली -भाँति पता है कि प्रकाश निर्वात जगह में नहीं फैलता। अगर खाली जगह हो तो रोशनी सब दूर फैल नहीं सकती। इसलिये सहजयोगियों के बिना मेरा कोई भी अस्तित्व नहीं है। मेरा अस्तित्व नहीं है। मेरा जो अस्तित्व है वह आप ही की वजह से है । मेरा कोई (आपके बिना) वजूद नहीं है। मुझे कोई काम नहीं है। मैं कोई भी काम नहीं करती हूँ। मैं जो हूँ, वह सबसे ज़्यादा आलसी (अकर्म) हूँ और मैं कुछ भी काम नहीं करती हूँ (मैं अकर्मता में हूँ) ये सिर्फ आप हैं कि जिन्होंने पाया है। ये आप ही हैं जिन्होंने अपने आपको ऊपर उठाया है। वास्तव में मेरे बदले आप लोगों के जन्मदिन मनाने चाहिये क्योंकि ना में वृद्धावस्था की ओर बढ़ रही हूँ ना ही 33 युवावस्ता में। मैं केवल वही हूँ। उसमें (कोई भी) किसी भी प्रकार का कोई भी फर्क नहीं है। और मुझे लगता है कि सहजयोग का जन्मदिन होना चाहिये जो आज मनाना चाहिये। तो फिर आज हम कह सकते हैं कि कुछ बारह साल और कुछ महीने पहले | सार्वजनिक तौर पर सहजयोग की शुरूवात हुई थी किन्तु मैंने बहुत पहले ही उसकी शुरूवात कर दी थी। मुझे पता नहीं कितने साल पहले ! इसलिये इस मोड पे हमको ये समझना चाहिये कि पूजा ये अमूर्त उपलब्धी है जिसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है और आप सबको इस श्रद्धा भाव से (पूजा में) बैठना चाहिये। हमको हमारे अन्दर के 'कुछ भी नहीं के स्थिति को पाना है, अहंकाररहित, शून्यता, रिक्तता साफ और स्वच्छ स्थिति को (पाना है) तब प्रेम की रोशनी आपके अन्दर के सारे प्रदेशों को आलोकित करेगी। और ये तभी संभव होगा अर्थात् जब चक्र जागृत किये जायेंगे | ये कार्यान्वित हो रहा है और आपको अपने हृदय को पूर्णतया खोलने चाहिये। कोई भी विकल्प न रखे, कोई भी विचार न करें। केवल अपने हृदय खोलिये और स्वीकार कीजिये। पूर्णतया श्रद्धा से और समझदारी से। आपके यहाँ सारे देशों से इतने सारे देशों से लोग आये हैं। सारे जग को (लोग) यहाँ प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। आज के दिन एक ही चीज़ हमको घोषित करनी है कि सहजयोग पूर्णतया महायोग बने। सारे जग में हर एक को मालूम हो कि सहजयेाग ये एक ही मार्ग है कि जहाँ लोग उत्क्रान्ति में ऊपर उठ सकते हैं। एक नयी दुनिया का निर्माण होगा और इस प्रकार का विकास जो कि सामूहिक विकास है, जो बाह्य जग का नहीं है लेकिन अन्दर के विश्व का है, जो इस रचना की जड़े एक नये आयाम में निर्माण करती है, एक नये व्यक्तित्व का (निर्माण करती है) क्योंकि उस समय तक जड़े उस स्रोत तक पहुँच जायेगी, जो परमात्मा के प्रेम का स्रोत है, जो इस बहशक्ति की सर्वव्यापी शक्ति है 34 3० ॐ এ द यह नहीं मान लेनी चाहिए कि एवक बार आत्मसाक्षात्कार पा लेने के बाद पूरा विश्व आपके चरणों में आ गिरे] यह आवश्यक नहीं हैं। यह लीला है। यह आदिशक्ति के चित्त का सुन्दर आनन्द हैं। यदि आप इसके साक्षी बन सकते हैं, यदि आप इस पूरी लीला के वास्तविक रूप में साक्षी बन सकते हैं तो आप आध्यात्मिक रूप से बहुत समीप जा सकते हैं, आप परमेश्वरी शक्ति में विलीन हो सकते हैं। (व.पू.श्रीमाताजी, ५.४.१९९६) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in यह सूर्य पृथ्वी के नजदीक आती है तब यह धरणीमाता सृजनशीलता से पुनः कार्यान्वित होती है और अत्यन्त सुन्दर फुलों की निर्माण करती हैं। सुन्दर, पौष्टिक और पूर्ण समाधान देने वाली चीज़ों का, उदा.फलों की निर्माण करती है और वह अपने आँखों को हरियाली द्वारा ठण्डक पहुँचाती है जो उसी के पास हैं। केवल सूर्य के आगमन से पृथ्वी हमें बहुविधि ऐसी चीज़ों से आशीर्वादित करती है। इसी तरह से सहजयोग के सूर्य का उदय हआ है और शिरोबिन्द तक पहुँच रही है। प.पू.श्रीमातीजी, १४ जानेवारी १९९० ॐ य प् ---------------------- 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी ा जनवरी-फरवरी २०१४ हिन्दी शुम ा बुम बपम त ा र ाम हि 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-2.txt अंक मे धर्म और पैसे का बड़ा सम्बन्ध है ...५ व्यापारियों से वार्ता ...१८ विश्व का निर्माण - जनमदिन समारोह ...२६ यदि पृथ्वी माँ तेज गति से घूम रही होती तो आज जो हम हैं वो न होते, शायद हम जन्में ही न होते। यदि यह गति कम होती तो भी यह विकास न हो पाता। सारी योजना जो बनाई गई थी उसे देखें। यह अत्यन्त सुन्दर योजना है कि पृथ्वी माँ इस प्रकार से सूर्य के इर्द-गिर्द घूमेगी कि भिन्न ऋतुओं का सृजन होगा। यही कारण है कि यह शक्ति, परम चैतन्य, जो कि आदिरशक्ति है, ऋतम्भरा प्रज्ञा भी कहलाती है। प.पू.श्रीमाताजी, ५/४/१९९६ 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-4.txt धर्म और पैसे २ मार्च का बड़ा सम्बन्ध है १९७७ मानव को यह सोचना चाहिये कि परमात्मा ने हमें क्यों बनाया है? हमारे जीवन का कोई लक्ष्य है या यूँ ही भगवान ने हमें अमीबा से मनुष्य बनाया है। इतनी परेशानी उठा कर, इतने युगों तक, इतने योनियों में से गुजर कर परमात्मा ने मनुष्य की ये जो सुन्दर कृती बनायी है, वो कोई न कोई कारणवश ही बनायी है । हो सकता है, कि अभी वो उस दशा में नहीं पहुँचा है जहाँ वो इस चीज़ को जान सके कि ये कृती क्यों बनायी है। हो सकता है, अभी वो अपने कार्य-कारण को समझ नहीं पाया होगा। लेकिन अवश्य जरूर कोई न कोई वजह तो होनी ही चाहिये कि एक अमीबा से मनुष्य क्यों बना? और अगर कोई वजह है भी तो मनुष्य को उसे जरूर खोज निकालना नितांत आवश्यक है। जब वो उसे नहीं खोज पाता है, जब उसे जान नहीं पाता है, तो उसको परेशान होना भी बिल्कुल ही स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक बात है कि आज मनुष्य अत्यंत चिंतित है, परेशान है, घबरा रहा है। उसको यह नहीं पता, कि यह घबराहट कहाँ से आ रही है, किस कारण वो इतना व्यस्त है। सहजयोग इस बात का उत्तर है। सहज - 'सह' माने साथ 'ज' माने पैदा हुआ। जो आपके साथ पैदा हुआ है, अधिकार, योग का, परमात्मा से एकाकार होने का, उसी को सहजयोग कहते हैं। सहजयोग, जब मनुष्य था, तभी वो सहजयोग हुआ और उससे वो जब चतुष्पाद हुआ, तभी सहजयोग घटित हुआ था और जब से वो अमिबा द्वि-पाद हुआ तभी सहजयोग बना था ओऔर जब से वह मनुष्य हुआ था तभी सहजयोग घटित हुआ था। और आज का जो सहजयोग है, ये मनुष्य को अपना अर्थ बताने के लिये, ये उसके अंतिम चरण, अंतिम लक्ष्य है। इसके बारे मेडिटेशन द्वारा में खोज- बीन करते हुए अपने भारत-वर्ष में, आदि-काल में बहुत से ऋषि-मुनियों ने मनन द्वारा, अंदर अनेक चीज़ों का पता लगाया। 5 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-5.txt परशुराम के समय में, जब परशुराम का जन्म हुआ था, उस समय लोगों ने जंगलों में खोजने की कोशिश की। सारी दुनिया से अपने को काट कर वो ब्रह्मचर्य में रह कर, एकाद छोटी सी गुफा में छिप कर के उन्होंने अनेक वर्षों तक तपस्या की। और उसके बाद उन्होंने जो मनुष्य के अंदर के सूक्ष्मतम गुप्त रहस्य हैं उनका पता लगाया। उनकी खोज भी जो होती रही, उसके लिये थोडे से लोग, बहत थोड़े से लोग लाभ उठा सके क्योंकि ये कार्य अत्यंत सूक्ष्म था और समाज में रहते हुए इस कार्य को करना बहत ही कठिन था। इन लोगों ने अपने धर्मग्रन्थों में या अपने पुस्तकों में, जिधर उन्होंने लिखी भी हो, अनेक तरह से इन सब सूक्ष्म तत्त्वों का वर्णन किया है। लेकिन कलियुग जिसे कि आज हम मॉडर्न टाइम्स कहते हैं, इसमें आज वो समय आ गया है, जिसे कि हम बाहर का समय कह सकते हैं। जैसे कि एक पेड़ पर...(अस्पष्ट) का भी फूल खिलता है और एकाद ही फल लगता है। अनेक वर्षों तक इसी तरह से चलता रहता है। उसके बाद जब बहार आती है, तो अनेक फूल खिल जाते हैं। अनेक फूल खिल कर के एकदम से ही उनके फल बन जाते हैं। सहज में ही उनके फल बन जाते हैं। वो कैसे बनते हैं, क्यों बनते हैं, यह कोई भी नहीं जानता है। आज सब फूल हैं, कल उसी में से फल निकल आयेंगे। उसी प्रकार आज कलियुग में बहार आयी हुई है। और आपका हक है कि आप जानें कि आप क्या हैं, आप का क्या अर्थ है, आप क्यों इस संसार में आये हैं। इस चीज़ को आप जान लें, ये आपकी अपनी सम्पदा है। खुद जैसे कि कोई दीप पूरी तरह से संवारा जाता है, उसके अन्दर तेल-बाती सब ठीक से रख दी जाती है और उसको दिवाली के दिन सब को एक लाइन में लगा दी जाती है, तब एक जला हुआ दीप ले कर के आप अनेक दीप जला सकते हैं। उसी प्रकार सहजयोग एक अत्यंत सहज सरल तरीका है। और मनुष्य को इस बात को नहीं सोचना चाहिये कि ये इतना सरल क्यों है। धर्म के मामले में मनुष्य हमेशा उलटा ही सोचता है। पहले अगर काशी जाना होता था, तो मनुष्य को तीन-चार महीने चलना पड़ता था। लेकिन अगर आज आपको काशी जाना है, तो अगर आप सवेरे यहाँ से निकले तो शाम को आप काशी पहुँच सकते हैं। तब मनुष्य क्यों नहीं सोचता है, कि उसके लिये तो सुनते हैं कि बड़ा सामान जुटाना पड़ता है, कठिन तपस्या करनी पड़ती है, तब कहीं हम पहुँचते हैं। गर सहजयोग के मामले में भी ऐसी ही अगर कोई विशेष व्यवस्था हो गयी हो, तो उसके बारे में इतनी चर्चा आप को क्यों होना चाहिये? गर कोई विशेष चीज़ आपको मिलने वाली है और उसका लाभ आपको होने ही वाला है, तो उसके बारे में इतनी शंका क्यों होनी चाहिये। और आखिर शंका भी आपको उस चीज़ की होनी चाहिये, जहाँ पर आप को कुछ लेना-देना पड़े या किसी चीज़ की माँग हो या कोई ये कहें कि देखो भाई , यहाँ आप को तीन साल का कोर्स करना पड़ेगा और आपको इतनी फीस देनी पड़़ेगी और आप को रोज आना पड़ेगा या कहे कि आपको भूखे मरना पड़ेगा, या आपसे कहे कि आपको सर के बल खड़े रहना पड़ेगा, ये तो सब हम कुछ कहते नहीं तब फिर इतना शंका होकर के क्यों सोचना कि ऐसे कैसे हो सकता है, हो ही नहीं सकता है। हो सकता है, अब यहाँ हॉल में कम से कम पचास फीसदी लोग ऐसे बैठे हुए हैं जिन के साथ ये घटित हो चुका है। और आपके साथ भी होना चाहिये। लेकिन मनुष्य का विचार जो है, वो इस तरह से चलता है। अब रही बात कि हमारे अन्दर में वास्तव में ऐसी कोई व्यवस्था है क्या? कोई हमारे अन्दर ऐसा अंकुर है क्या? जैसे कि हर 6. 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-6.txt एक बीज में होता है, जिसके फल स्वरूप आप अपने पुनर्जन्म को प्राप्त करते हैं। ज्ञानेश्वर जी ने, जनक ने, नानक ने, कबीरदास जी ने, गुरू वशिष्ठ ने, मार्कण्डेय जी ने और सब से बड़े आदि शंकराचार्य जी, कुण्डलिनी के बारे में उन्होंने अनेक बार वर्णन किया हुआ है। देवी महात्म्य आप पढ़े या आप देवी सहस्त्रनाम भी पढ़े तो उसमें, उनके सारे वर्णन में लिखा है कि वो कहाँ-कहाँ स्थित होती है, कौन से चक्रों पर स्थित होती है, कौन से मार्ग से वो उठती हैं आदि सब कुछ में उनका वर्णन है। लेकिन हमारे लिये जिसको अंग्रेजी और जैसे ग्रीक और लेटिन में है, क्योंकि हम लोग तो इतने अंग्रेजी हो गये हैं, कि हमें अपने ही चीजों के बारे में कुछ मालूम नहीं है। अब घर में अगर मंत्र उच्चार हो रहे हैं तो हम सुन रहे हैं, आयें कोई पंडित बाबा तो उसको कुछ रूपये पैसे दे दिये तो काम खतम, उन्होंने कुछ मंत्र कह दिये और चालू हो गया हमारा सारा पूजन-पाठ कि, 'भाई हो गया हमारा सारा, पूजन-पाठ सारा कुछ हमारा विधि हो गया है और हमने देवीजी को भी प्रसन्न कर दिया है। ऐसी ही भावनाओं के कारण हम अपने धर्म के कोई से भी विचार से किसी भी तरह से, तदरूख हैं। अब पाश्चिमात्य देशों में, जहाँ पर के लोग काफ़ी बढ़ चुके, सारी दुनिया भर की उन्होंने सत्ता कमा ली, सम्पदा कमा ली। जिनके पास हर तरह की सामग्री जुट गयी है। जो कुछ भी हो सकता था मटेरिओअलिज्म का छोर वो उन्होंने पा लिया। अब वो लोग मुड़ कर के ये कहते हैं, कि भाई, हम जिस आनन्द को खोजने के लिये ये सब करते रहे, वो आनन्द कहाँ खो गया है? उस आनन्द की उपलब्धी हमें तो हुईं नहीं, तो ये सब चीजें छोडो यार, इसमें कोई आनन्द ही नहीं है। ये कुछ तो भी भुलैया है, जिसमें हम भूल गये हैं । इसको छोड़ दो । उनके बच्चों ने इसे छोड़ दिया है। सब कुछ छोड-छाड़ के अपने बाल-बच्चे छोड़ कर, अब देखिये सन्यासियों का वेश लेकर के वो गांजा-वांजा पीने लगे। अब ये भी कोई तरीका हुआ? आप देख रहे हैं, हजारों यहाँ घूम रहे हैं साधू बन कर! वो गांजा भी पीते हैं और सोचते हैं कि गांजा पीने से उनको भगवान मिलेगा, ऐसे समय में सहजयोग उपलब्ध हुआ है। इसके लिये खोजना बाहर नहीं है, अन्दर है। अनेक बार बड़े-बड़े कवियों ने कहा है, राजा जनक के अवतरण नानकजी थे और नानक जी ने कहा है, 'काहे बन खोजन जाये, सदा निवासी सदा....' कि तेरे ही अन्दर समाया हुआ है, 'तु काहे इसे खोजने बाहर जाये?' वो तेरे ही अन्दर आत्मस्वरूप है। तू इसको कहाँ बाहर खोजने जा रहा है। अब वो चीज़ क्या है? वो कौन है? कैसा है, इसी के बारे में मैं आपको बताऊँगी। हमारे अन्दर, शरीर में एक व्यवस्था है, जिसे अंग्रेजी में ऑटोनोमस नव्वस सिस्टीम कहते हैं, जिसे कि हम लोग स्वयंचालित संस्था कहते हैं। ये संस्था हमारे अन्दर तीन प्रकार से स्थित है, जिसे कि हम डॉक्टर लोग इसे लेफ्ट और राइट सिम्पथेटिक नव्वस सिस्टम और पैरा-सिम्पथेटिक नवस सिस्टम के नाम से जानते हैं। हमारे सहजयोग के शास्त्र के अनुसार ये तीनों ही संस्था जड़ हैं, बाहर दिखने वाली क्रोश हैं। और इनको चालना देने वाली संस्थायें हमारे रीड़ की हड्डी में स्थित है। जैसे कि यहाँ पर मैंने आपको दिखाया हआ है, ये तीन लाईने हैं। आप देख लीजिये, ये तीन नाड़ियाँ हैं । इसे एक को ईड़ा, दूसरी वाली को पिंगला और बीच वाली नाड़ी को सुषुम्ना कहते हैं। अब ये तीन नाड़ियाँ हैं या नहीं, वो हमारे अन्दर स्थित हैं या नहीं, सूक्ष्म रूप से यही कार्यान्वित है या नहीं क्योंकि सिम्पथेटिक और पैरा-सिम्पथेटिक तो आप देख सकते हैं। इस सूक्ष्म नाड़ियों को आप देख नहीं सकते। 7 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-7.txt 8. 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-8.txt उसका भी साक्षात सहजयोग से ही होता है। लेकिन पहले किसी भी सूक्ष्म चीज़ को देखने के लिये आपको भी सूक्ष्म होना पड़ता है। ये तो निर्विवाद है। बगैर सूक्ष्म हुये आप सूक्ष्म चीज़ को कैसे जानेंगे, देखेंगे भी। तो भी जैसी आप आपकी आँखें हैं जैसे कि आप मनुष्य अभिमनुष्य के स्तर पर हैं, आपको कुण्डलिनी का स्पंदन हम दिखा सकते हैं। आप कुण्डलिनी का चलना देख सकते हैं, कुण्डलिनी का उठना आप देख सकते हैं। कोई भी आदमी हो वो, चाहे वो पार हो, चाहे वो नहीं हो। अपने शरीर में ये जो सूक्ष्म व्यवस्था की गयी है, ये तीन शक्तियाँ हमारे अन्दर वास करती हैं। जो शक्ति राईट साइड से गुजर कर लेफ्ट साइड को चली आती है उस शक्ति का नाम है महाकाली शक्ति। अब आपको ये नाम अजीब सा लगेगा कि माताजी, महाकाली कैसे कह रही हैं। अंग्रेजी लोगों ने तो इसका पता नहीं लगाया है, तो इसका अंग्रेजी नाम मैं क्या बताऊँ। यही महाकाली शक्ति है, जिसके कारण सारे संसार की स्थिति होती है, एग्जिस्टंस होता है। इसी के कारण सारे संसार का प्रलय होता है, सर्वनाश होता है। जैसे कि कोई चीज़ किसी वजह से स्थित है, जैसे अपना हृदय के कारण हम लोग जीवित हैं। तो जब हृदय बंद हो जाये हम मृत भी हो सकते हैं। यह शक्ति हमारे हृदय को प्लावित करती है। इसका नाम है महाकाली शक्ति। और ये मनुष्य की इमोशनल साइड है। जिसको हम अंग्रेजी लोग जिसे 'साईकि' कहते हैं। वो 'साईकि' का चेनल वो इस लेफ्ट हैंड साइड के सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टम से होता है, पर डॉक्टर लोग इसको नहीं मानेंगे। वो तो राइट और लेफ्ट को एक ही समझते हैं । माने डॉक्टर और सायकॉलॉजी, दोनों आपस में भी नहीं मानते हैं। ये मेरा, ये मेरा उनसे झगड़ा ऐसे ही नहीं है, पर उनका आपस में भी बहुत झगड़ा है। ये सायकोलोजिस्ट जो है, वो डॉक्टर को नहीं समझा पाता और डॉक्टर सायकोलोजिस्ट को नहीं समझा पाता है। मनुष्य सायकोलोजी भी है, साईकि भी है और मनुष्य शरीर भी है, उसका इमोशन भी है, उसका माईंड भी है, वो सबकुछ है। सहजयोग मनुष्य को, जैसा वह सम्पूर्ण है, इस तरह से वो इसके बारे में पता लगाता है। अलग-अलग भिन्न-भिन्न एनलाइज़ कर के नहीं लगाता है, जैसे कि साईंस है, पर साईंस के हर एक बात पर वह ठीक बैठता है। इस नाड़ी को कि जो लेफ्ट हैंड साइड में है, इसे हम लोग महाकाली की शक्ति कहते हैं, जिससे हमारा सारा कार्य होता है। इस शक्ति से मनुष्य की स्थिति होती है। सारे संसार की स्थिति इसी शक्ति के कारण होती है। यह शक्ति न हो तो मनुष्य की स्थिति ही नहीं बन सकती है, उसका एग्जिस्टंस ही नहीं बन सकता। लेकिन ये समझ लीजिए कि यह परमात्मा की इमोशनल स्थिति है। ये कार्यान्वित नहीं है, ये स्थिति है। हमारे अन्दर ये शक्ति जब कार्यान्वित होती है, तो हमारे अन्दर जो भी कुछ मर जाता है, जो भी विचार हमारे अन्दर आ कर, उठ कर खतम हो जाते हैं। जो भी कुछ हमारा भूत है, पास्ट है, वो सारा ही इससे संचालित होता है। ये उसी को स्टोअर करती रहती है। जितना भी हमारे अन्दर कंडिशनिंग होता है, वो इसी से अन्दर स्टोअर्ड रहता है रेकॉर्डेड रहता है। इसे हम महाकाली की शक्ति को जैसे मानते हैं । और दूसरी शक्ति, जो हमारे लेफ्ट से गुजर कर राइट को आ जाती है, उसे हम महासरस्वती कहते हैं। महासरस्वती की शक्ति से हमारा सारा कार्य होता है। क्रियेशन सारा थिंकिंग होता है, हाथ-पैर चलना है, जो 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-9.txt कुछ भी हम काम करते हैं आगे के लिये, फ्यूचर के लिये, जो भी हम प्लेनिंग करते हैं, जो भी हम विचार करते हैं आगे के लिये ये सब हमारा जो राइट हैंड की जो शक्ति है, जिसे कि हम महासरस्वती कहते हैं, इससे होता है। इसके बीच में, बीचो-बीच जो शक्ति है, इसे महालक्ष्मी की शक्ति कहते हैं। इस शक्ति के कारण हमारा उत्थान होता है। हमारी उत्क्रांति होती है, इव्होल्यूशन होता है। आज जो हम अमीबा से इन्सान बने हैं, वो इसी शक्ति से बने हैं। मनुष्य का जो आज स्वरूप है, वो भी आज इसी शक्ति के कारण है। ये शक्ति सब वस्तुओं में उसका धर्म स्थापित करती है। धर्म का मतलब होता है, आप लोग घबरायेगा नहीं, धर्म का मतलब होता है, अपने अन्दर का धर्म। जैसे कि ये एक सोने का धर्म है, कि ये खराब नहीं होता है। कार्बन में चार वेलेंसीस होते हैं। हर एक अणु-रेणु में उसका धर्म होता है, बिच्छु, बिच्छु जैसे होता है, साँप, साँप के जैसे होता है। इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य जैसे होता है। मनुष्य का धर्म भी इसी शक्ति से स्थापित होता है। और धर्म की स्थापना करने से ही मनुष्य आज इस दशा पर आ गया है। अलग-अलग मनुष्य के धर्म हैं, क्वालिटीज हैं। वो उसमें आते-जाते हैं। और जब इस धर्म की स्थापना हो जाती है, इन दस धर्मों की, तब ये मनुष्य की निर्मिती हो जाती है। इस महालक्ष्मी की शक्ति के कारण मनुष्य उस दशा में भी जा सकता है, जहाँ उसे पहुँचना होता है, जिसे कि इवोल्यूशनरी शक्ति कहते हैं। ये आपका प्रेझेंट (वर्तमान) है। इस प्रकार आप के अन्दर तीनों काल स्थित हैं। एक भूतकाल - पास्ट, एक भविष्यकाल- फ्यूचर और एक ये समय-प्रेझेंट, अभी, आज इस वक्त इस क्षण। इस प्रकार की तीनों शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं। और इन तीनों शक्तियों के कारण ही आज मनुष्य इस दशा में पहुँचा है, जहाँ वो आज है। अब जबकि हम जानते हैं ये इसको बनाया गया है या कोई भी यंत्र बनाया गया है। अब जब कि हम जानते हैं, जैसे कि ये माईक है, इसको बनाया गया है या कोई भी यंत्र को बनाया गया है, तो हमें समझ नहीं आता कि इसका क्या उपयोग है। जब तक हम इसको निकाल करके मेन के कोयर्स को नहीं लगा देते हैं। तब तक इसका कोई भी उपयोग नहीं होगा। उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक उसके मेन से जाकर के नहीं लगता है, तब तक उसका कोई अर्थ नहीं लग सकता है। उसके बाद एक ही अर्थ इसका भी लगा है, कि मेरी जो आवाज़ है, वो इसके अन्दर से बननी चाहिये। एक ही हॉलो चीज़ हो जाती है। ये इन्स्ट्रमेंट इसलिये बनाया गया है, कि ये मेरी आवाज़ को गहन कर सके, बाद में ये पता होता है कि हम भी एक हॉलो चीज़ हो जाते हैं। और हमारे अन्दर से वो शक्ति बहने लग जाती है। हमारे अन्दर से वो चैतन्य की लहरियाँ बन कर के हाथों से बहने लग जाती है। जिसे हम सर्वव्यापी परमात्मा की | शक्ति मानते हैं और वो शक्ति प्रेम की शक्ति है। जो ये तीनों ही शक्तियों से परे सारे ही शक्तियों को ले कर के एक साथ बह रही है। उसमें तीनों ही शक्तियाँ होती है। अब अगर इसी चित्र को परमात्मा की ओर देखें कि हम अगर परमात्मा के प्रतिबिम्ब रूप हैं, तो परमात्मा में इसी प्रकार उनमें भी ये तीनों शक्तियाँ संचलित हैं। और जैसे कि इसी के अन्दर के कोई छोटे-छोटे सेल्स हम लोग बने हुए हैं। जैसे कि ये मॉक्रोकोसम है, तो हम मायक्रोकोसम हैं। इस तरह से एक हम भी इन्हीं के जैसे इनके अन्दर बने हुए इन्ही के जैसे, अन्दर में बैठे हुए हैं। और हम को भी सिर्फ जागृत होना है, ताकि हमारे अन्दर से परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति बहे। जब तक ये नहीं होगा तब तक आपको आनन्द मिल नहीं पायेगा। जब तक ये गति नहीं आयेगी आप अपने जीवन का लक्ष्य समझ नहीं पायेंगे। आप चाहे 10 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-10.txt दुनिया की कोई भी चीज़ पा ले, आपको सुख नहीं मिल सकता। आप आनन्द में नहीं आ सकते। आप अभी अपने सामने देख रहे हैं। इसमें हमने अनेक चक्र दिखाये हैं और इन चक्रों से ही गुजर कर के कुण्डलिनी ऊपर की ओर आती है। अभी इन सात चक्रों का मैं आपको वर्णन करती हैँ। अभी आप लोग इस पर शंका करते न बैठे कि ये है या नहीं या माताजी यूँ ही बातें करते बैठी है। अगर आप एक साईंटिस्ट भी हो चाहे तो भी साईंटिस्ट का मस्तिष्क उसकी बुद्धि खुली होनी चाहिये। ये एक हम हायपोथिसिस आपके सामने रख रहे हैं । उसे आप स्वीकार करें, उसे आप देखें और अगर वो घटित हो और वो अगर फलीभूत हो और उसका अगर साक्षात हो तब उसे आप मान लें। हमारे अन्दर ये सूक्ष्म सा चक्र हैं, वो बाहर जरूर दिखाई देते हैं और उनको डॉक्टर लोग प्लेक्सेस के नाम से जानते हैं। साथ-साथ में मैं उनका भी नाम बताऊंगी जो कि सूक्ष्म के प्रादुर्भाव से (मॅनिफिस्टेशन से) बाहर एक ग्रॉस झड प्लेक्सेस के रूप में वर्तमान है कि जिसे लेाग देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि हमारे अन्दर ऐसी कोई संस्थायें हैं, कि जिससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है, जैसे कि आपका हृदय चल रहा है, वो अपने आप से चल रहा है। आपकी पेट की गति अपने आप से चल रही है। आपके श्वास अपने आप से चल रहे हैं। बहत से अनेक कार्य स्वयंचालित हो रहे हैं। उसमें से भी अगर आपको अपनी हृदय की गति बढ़ानी है तो आप बढ़ा सकते हैं। अगर आप दौड़ना शुरू कर देंगे तो आपकी हृदय की गति बढ़ जायेगी, लेकिन वो घटती अपने आप से है, उसको आप घटा नहीं सकते। अब श्वास की गति भी आप बढ़ा सकते हैं, घटा नहीं सकते। ये जो घटाने की क्रिया है ये भी स्वयंचालित है । एक तो जो कि आप बढ़ा सकते हैं, जिसको आप एमरजेंसी में उपयोग में ला सकते हैं, जिसको आप हथिया सकते हैं, वो संस्था है सिम्पथेटिक नवस सिस्टम और वो है कि जिस पर आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, वो है पैरासिम्पथेटिक सिस्टम। और सिम्पथेटिक कि आप से जैसे मैंने कि ईडा और पिंगला नाड़ी से चलित है। पेरासिम्पथेटिक से बीच की संस्था जिसे कि हम सुषुम्ना नाड़ी कहते कहा, हैं, उससे चालित है। अब इन तीनों नाड़ियों से प्लावित अपने अन्दर कुछ सेंटर्स हैं। इन सेंटर्स में अनेक देवतायें बिठाये गये हैं। अब बहुत से लोग कहेंगे कि माताजी, देवताओं की बात मत करिये, साईंटिफिक बातें करिये। लेकिन साईंस के लोग क्या सभी चीज़ों का जवाब दे सके हैं। एक छोटा सा सवाल अगर आप पूछिये, डॉक्टर से जा कर पूछिये, कि हमारे शरीर में जब कोई भी वस्तु बाहर की आती है, तो उसको हमारा शरीर फेंक देता है उठा कर के। वो पूरी कोशिश करता है, कि उसे इस शरीर से फेंक दिया जाये। लेकिन जब हमारे पेट में या कहना चाहिये कि जब माँ के गर्भ में बच्चा रह जाता है, तब उसे कोई फेंकता तो नहीं। नहीं फेंकते हैं, लेकिन उसका संवरण करते हैं, उसको बड़ा करते हैं। क्यों? ये कौन करता है? इसका निर्णय कौन लेता है? ये सारा कहाँ से आ जाता है? कोई इसको सोचता है? ये कैसे हो जाता है कि जब कोई शिशु माँ के पेट में आ जाता है, तो उसका संवरण शुरू हो जाता है। बजाय इसके कि इसको निकाल कर फेंक दिया जाये। ऐसे अनेक प्रश्न हैं। जिसका कि डॉक्टर उत्तर नहीं दे सकते हैं। Acetycholine और adraneline नाम के दो केमिकल्स हैं। जब वो हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं और या जब हमारे शरीर में कार्यान्वित होती हैं तो उनके एक्शन अलग पड़ते हैं। जैसे कि जहाँ रिलेक्स करना हो, वो वहाँ अॅग्मेन्ट कर देती हैं। 11 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-11.txt उसको छोटा कर लेती है, खींच लेती है। डॉक्टर लोग कहते हैं, कि ये हम नहीं बता सकते, We cannot explain the mode of action of these| बहुत सी बातों में ऐसा ही जवाब होता है, कि We cannot explain। ठीक है, उनका कहना, उनका कहना भी सत्य है और इसमें एक बड़ी भारी एक सच्चाई है, कि वो कम से कम सच्चाई कहते हैं। लेकिन इन लोगों की खोज क्योंकि बाहर से है, अंधेरे में से है, आप जब तक जगते नहीं है, अपने आप से, तो आप को कुछ पूरी चीज़ ठीक से दिखाई नहीं देती है। एक चीज़ मिल गयी, दूसरी चीज़ मिल गयी। उसका कोई | कनेक्शन नहीं बन पाता, फिर आप एक ही चीज़ लेकर उसका विश्लेषण करते हैं, अॅनेलिसिस करते हैं, तो आप उस जगह जाकर पहुँचते हैं, जहाँ पूरी चीज़ सम्यक है, उसको आप भूल जाते हैं। आप जानते हैं, कि एक डॉक्टर एक आँख को देखेगा, दूसरा डॉक्टर दूसरी आँख को देखेगा और अगर आप को पूरे शरीर को इग्जैम्इन करना है तो कम से कम सात डॉक्टरों के यहाँ जेब गरम करनी पड़ती है। जब मनुष्य एक ही है, तो उसकी कला, उसका संगीत ये सब कहाँ से आती है! इसका किसी को कोई अंदाज नहीं है। क्योंकि जब आदमी बाहर से खोजता है, तब ऐसा ही होता है, लेकिन एक बात हो सकती है, कि अगर एक अंधेरे से कमरे में एकदम से अगर प्रकाश हो जाये तो सभी कुछ एकदम से जाना जा सकता है। यही हमारा सहजयोग है। हमारे अन्दर स्थित सबसे नीचे त्रिकोणाकार अस्थि में आप देखेंगे , एक साढ़े तीन सर्कल में, लपेट में कुण्डलिनी नाम की एक शक्ति है। ये है कि नहीं, ये मैंने आपको पहले ही बताया है और इसका साक्षात में आपको बाद में दूँगी। ये शक्ति सुप्तावस्था में होती है, ये तब तक सुप्तावस्था में रहती है जब तक इसका कोई अधिकारी सामने नहीं आता। इसका अधिकारी करिबन होता ही नहीं है। कम से कम मुझे तो कोई मिला ही नहीं, जब से जन्मी हँ, तब से मुझे तो कोई मिला नहीं है, कम से कम इस जनम में तो मुझे कोई मिला ही नहीं है। कुछ लोग हैं संसार में जरूर, जिन्हें कि मैं कह सकती हैँ, कि पार हो चुके हैं, लेकिन वो कोई भी, एक भी इस संसार में नहीं विचरते हैं। सब लोग जंगलों में बैठे हैं। बहुत ही कम, एकाद ही। वो ही जब सामने आ जाता है, उसका तब साक्षात्कार होता है, क्योंकि ये चेतना है, अवेअरनेस है, ये सोचती है, समझती है, ऑर्गनाइज करती है। हम किसी शक्ति को ये नहीं समझ सकते कि जो सोचती है, समझती है, को-ऑर्डिनेट करती है और प्यार करती है। ऐसी किसी भी शक्ति को हम नहीं समझ सकते पर जब हम ये सब कर सकते हैं, तो कोई न कोई शक्ति इसका स्रोत तो होगा ही। आखिर हम किस तरह से ये सब कार्य करते हैं। जो चीज़ पेड़ में नहीं होगी, वो फल में कहाँ से आयेगी ? इसका स्रोत कहीं न कहीं तो होगा। इसकी ये शक्ति कहीं न कहीं तो विराजमान होगी, जिससे कि हम लोग प्यार करते हैं, सोचते हैं और सारे कार्य कर सकते हैं । से उसी शक्ति का अंशमात्र आपके अन्दर, हर एक के अन्दर इसी तरह से बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी अन्दर उतरता है और यहाँ पर इस साढ़े तीन कुण्डलों में लपेट में इसका भी बड़ा भारी शास्त्र है, गणित है। कुण्डलिनी अपने अन्दर स्थित है, बड़ी सुन्दर व्यवस्था है इसकी। और वो सुप्त रहती है। अब बहुत से लोग कहते हैं कि हम 12 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-12.txt कुण्डलिनी जागरण करते हैं। ऐसे बहुत सारे मिलते हैं लोग। बहुतों ने तो किताबें भी लिख डाली। वो किताबे पढ़ कर अगर आप आओगे तो पहले तो आप बहुत ही घबरायेंगे कि माताजी, कुण्डलिनी तो बहुत भयंकर चीज़ होती है। अरे, वो तो आपकी माँ है, आपकी माँ कभी भयंकर हो सकती है ? सारी दुनिया भी भयंकर हो जाये , पर आपकी माँ तो नहीं हो सकती है। वो आप की अलग-अलग सब की माँ है। आप ही के साथ हर जन्म-जन्म में पैदा होती है। जिस माँ ने आपको जन्म दिया है, वो बदल सकती है, पर वो नहीं बदलती। ये कुण्डलिनी आप ही के साथ भ्रमण करती रहती है, आप ही के साथ रहती है। बार -बार आप ही के अन्दर में स्थित रहती है, आप ही को जानती है, आपकी सब गलतियाँ भी जानती है। आपके सारे पुण्य भी जानती हैं, आपके सारे कर्मों से परिचित है, वो क्या आपके साथ कुछ बुराई कर सकती है? कैसे कर सकती है ? लेकिन जो उसका अधिकारी नहीं है, वो ही ऐसी सब गंदी बाते लिखते हैं। कुण्डलिनी के नीचे आप अगर देखें तो चार दलों का एक सेंटर है। कुण्डलिनी जहाँ स्थित है, उसे मूलाधार कहते हैं, क्योंकि मूल का आधार वहाँ है उसका abode, उसका घर और उस घर के बाहर, नीचे, काफ़ी नीचे दूसरा एक सेंटर है, जिसे कि मूलाधार चक्र कहते हैं। अब ये बड़ा भारी अंतर है, मूलाधार और मूलाधार चक्र में, मूलाधार चक्र नीचे में स्थित है और मूलाधार ऊपर में। मूलाधार में आपकी माँ कुण्डलिनी गौरी स्वरूप में बैठी है। गौरी नहा रही है और नीचे में गणेशजी उसकी रक्षा कर रहे हैं। इस पहले सेंटर के अन्दर श्रीगणेश बैठे हैं। अब कोई कहेंगे कि, 'माताजी, श्री गणेश आप कहाँ से ले आये हैं?' श्रीगणेश साक्षात वहाँ हैं या नहीं ये तो बाद में देखा जायेगा। श्रीगणेश एक प्रतीक हैं। श्रीगणेश प्रतीक हैं। चिरकाल के बालक हैं। श्रीगणेश चिरकाल के बालक हैं। अपने अन्दर अनेक प्रतीक हैं. ये सायकोलोजिस्टस् मानते हैं। यूं इन्होंने काफ़ी मेहनत करी है। वो कहते हैं, हमारे यहाँ कोई ऐसी युनिवर्सल, अनकाँशियस, सर्वव्यापी ऐसी अचेतन शक्ति है, कि जो हमारे अन्दर प्रतीक भेजती है। मेडिटेशन की इतनी शक्ति इन लोगों की नहीं थी और अगर होती तो वो भी देखते, लेकिन ध्यान में जाने की जिसकी शक्ति हो जाये वो देख सकता है, कि इस जगह श्रीगणेश का साक्षात है और वो है कि नहीं, वो हम कुण्डलिनी की योग में जब हम आगे बढ़ेंगे तब हम दिखायेंगे। अब यहाँ जितने भी पार लोग हैं, उन्होंने इसे जाना है। आप लोगों ने अभी जाना नहीं है, आप भी जान जाओगे। श्रीगणेश का यहाँ स्थान है। इस चक्र में श्रीगणेश इसलिये बैठाये गये हैं, कि जब आप चाहते हैं कि, अपनी माँ गौरी जागृत हो, तो आपके मन में माँ के प्रति जैसे कि एक बालक में इनोसेन्स होता है या अबोधिता होती है, सेक्स के मामले में होनी चाहिये। क्योंकि श्रीगणेश इस चार पंखुडी के चक्र पर बैठे हुए हैं, इसी चक्र से सेक्स भी करते हैं । वो कोई रास्ता नहीं है परमात्मा की ओर जाने का, बिल्कुल भी नहीं है । उल्टे अगर उस रास्ते से कोई गुजरने की कोशिश करता है, तो श्रीगणेश क्रोधित हो जाते हैं। क्या आप अपनी माँ से सेक्स कर सकते हैं ? जो लोग सेक्स की ऐसी बाते करते हैं वो आपको यही सिखा रहे हैं कि आप अपनी माँ के साथ सेक्स करो । हिन्दुस्तानी आदमी इसे अच्छी तरह से समझ सकता है, कि इससे बढ़ कर और कोई कुकर्म, पाप, शापित चीज़ नहीं हो सकती है। 13 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-13.txt मूलाधार चक्र पर श्रीगणेश अपनी माँ की लज्जा का रक्षण कर रहे हैं। लेकिन अपने यहाँ बहुत से ऐसे निकल आये हैं, नये-नये और वो इस तरह की गंदी बाते फैला रहे हैं कि आप अपने सेक्स को सबलीमेट करें। आप पहले ही सबलिमेटेड हैं देखिये आप! आप का मूलाधार चक्र नीचे में है और ऊपर कुण्डलिनी बैठी हुई है। और इस तरह के कार्य करने की वजह से ही जो आपके अन्दर जो गर्मी पहुँचती है ये श्रीगणेश का गुस्सा है, वो आप पर गुस्सा हो जाते हैं और उनके गुस्से के कारण ही कुण्डलिनी ताडित हो जाती है । कुण्डलिनी कुछ नहीं, जहाँ-तहाँ बैठी हुई है, वो हिलती नहीं है, वो तो श्रीगणेश का गुस्सा है, जिसके कारण कुण्डलिनी से परे, कुण्डलिनी का कोई उसमें हात न होते भी सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टम पर आघात आता है और आपके अन्दर अनेक तरह की व्याधियाँ तैयार हुए होती है। कोई लोग होते हैं, उनके ऊपर सारे ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। मैंने देखे हैं, मेरे पास इन रोगों के मारे हुए लोग आते हैं, जिन्हें ठीक करना पड़ता है। सारे बदन पर भी ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। इतने गणेश जी गुस्सा हो जाते हैं। बहुत से लोगों के हाथ पैर सूझने लग जाते हैं। कोई तो चीखने लगते हैं, चिल्लाने लगते हैं। कोई अपने कपड़े उतार देते हैं, कोई नशे में हो जाते हैं, कोई बकने लगते हैं। किसी को कहीं लाईट- वाईट दिखने लग जाता है, दुनिया भर की चीज़ें हो जाती है। एक जगह अभी मैं गयी थी, कोल्हापूर में, तो वहाँ एक आदमी मेरे तरह पैर ऐसे कर के बैठ गया। सब कहा, कि भाई ऐसे माताजी के सामने पैर करके मत बैठो तो वो कहने लगा कि ऐसे ही बैठने दो वरना मैं तो मेंढ़क के जैसे कूदता हूँ। उन्होंने पूछा कि, 'भाई, मेंढक के जैसे क्यों कूदते हो ?' तो कहने लगे कि, 'मेरे गुरू ने मेरी कुण्डलिनी उठा दी है, जिसकी वजह से मैं एक मेंढक के जैसे कूदता हूँ।' आपके लाभ के लिये और आप के सुख के लिये जो चीज़ है, आनंद के लिये जो चीज़ है, उसका इस तरह भी पर्यास, इस कदर उसका अनादर और क्या हो सकता है। कोई भी इसमें ऐसे सिम्पटम्स नहीं होने चाहिये। हाँ, जरूर है, पर आपकी तबियत नहीं ठीक है। हो सकता है, आपकी कुण्डलिनी थोड़ी सी उठ कर के किसी जगह तक चली जाये और वहाँ रूक जाये जहाँ आपको तकलीफ हो, एक दो दिन वहाँ रूक जायेगी। हो सकता है, कि थोड़ी सी आपके अन्दर गर्मी सी आ जाये आपके बदन में। या हो सकता है कि यहाँ एक साहब थे, जिन्हें कुछ स्प्लीन की शिकायत थी और उनका एक अंगूठा ऐसे-ऐसे हिलने लग गया था, बस, ज्यादा कुछ नहीं क्योंकि इंडिकेशन्स भी आने चाहिये। जब ये कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और इन सारे चक्रों को षट्चक्र कहते हैं क्योंकि सातवा चक्र जो है, उसको तो छेदना नहीं होता है, उससे तो ये ऊपर ही है इसलिये इसे षटचक्र भेदन कहते हैं। तो देखिये कि, कितनी बड़ी साक्षात बात है, कि सातवा चक्र, मूलाधार जो है उसको छेदा नहीं जाता है। इसलिये उसकी बात ही नहीं करनी चाहिये कुण्डलिनी के वक्त। हाँ, ये जरूर है, कि अगर आप अपवित्र आदमी हैं, आपने अपने गणेश जी की जरा भी परवाह नहीं करी, तो ये जरूर होता है, कि आपके अन्दर वैक्यूम क्रियेट हो जाता है। और जब भी कुण्डलिनी उठती है, है, अगर आपने गणेश की परवाह नहीं की है ज्यादा, तो हाँ, ये हो सकता है। तो भी बहत माफ़ी हो जाती है फिर से नीचे फट से आ जाती है, ऐसा हो सकता है, वो दूसरी बात तो 14 री 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-14.txt सहजयोग में, मैंने देखा है। बहुत से लोग अगर इस तरह से रहे भी हैं तो भी उन्हें माफ़ी हो जाती है। बहुत जरूरी है, कि जब आप परमात्मा के सामने आये हैं और आप अगर चाहते हैं कि आपको उनका आशीर्वाद मिले तो आप अपनी पवित्रता को भी आंकिये कि क्या हम में ये पवित्रता है ? क्या हम माँ बहन कुछ चीज़ समझते हैं या नहीं। ये बहुत जरूरी है। मूलाधार चक्र बिगड़ जाने से ही अनेक सेक्स के जो भी प्रॉब्लेम्स जो होते हैं, वो हो जाते हैं । जैसे कि ये कॉन्स्टिपेशन वरगैरे जैसे चीज़े हैं, वो भी हो सकती हैं क्योंकि ये बिल्कुल गुदा के नीचे में ये चक्र है। उसके ऊपर आप देखते हैं, बरोबर पेट के बीचो-बीच में ये, जिसे कि हम नाभि कहते हैं, नाभि चक्र। इसे लोग मणिपूर चक्र भी कहते हैं। नाभि चक्र या मणिपूर चक्र। मणिपूर चक्र बराबर नाभि के पीछे रीढ़ की हड्डी में इस जगह पर है और इससे जो प्लेक्सस चलता है उसे सोलार प्लेक्सस कहते हैं अंग्रेजी में । ये चक्र आपके पीठ के रीढ़ के हड्डी में रहता है लेकिन प्लेक्सस तो समाने होता है। वो पीठ के रीढ़ के हड्डी के बाहर होता है, प्लेक्सस है, ये ग्रॉस है। और जो सूक्ष्म चक्र है, वो आपके हड्डी के अन्दर होता है, स्पायनल कॉर्ड के अन्दर जिसको कि हम मेड्यूला अबलोंगेटा कहते हैं। उसके अन्दर होता है। तो ये जो चक्र है, जो सोलार प्लेक्सेस हैं, इसी से हमारे सारे जो भी पेट के जितने भी सारे ऑर्गन्स हैं, वो चलते हैं । इसके अलावा एक चक्र आप देखते हैं, जो कि इसी चक्र से निकल कर चारों तरफ घूमता है, इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं और इस चक्र में छः पंखुडियाँ होते हैं। इसमें श्रीब्रह्मदेव का वास है श्रीसरस्वती उनकी शक्ति है, जो नाभि चक्र है, उसमें श्रीविष्णु का वास है और लक्ष्मी जी उनकी शक्ति है। अब समझ लीजिये कि कोई आदमी जरूरत से ज़्यादा गरीब है, हो सकता है, कि उसकी नाभि चक्र खराब हो। अपने देश का नाभि चक्र ही खराब है, इसलिये यहाँ गरीबी है, ज्यादा है। आप लक्ष्मी जी की अनेक पूजा कर लीजिए, दुनियाभर की आप पूजा कर लीजिये लेकिन आपको फायदा नहीं होगा। जब तक आप का नाभि चक्र ठीक नहीं होगा, आपकी हालत ठीक नहीं होगी। लेकिन लक्ष्मीजी का मतलब पैसे वाला नहीं होता है, ये आप बार-बार अनेक बार ये बात अच्छे से समझ लीजिये। आज तो मैं इन दो चक्रों के बारे में बता कर के ध्यान करवाऊंगी और बाकी का मैं कल बताऊंगी। अभी मैं आपको लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के बारे में बताऊंगी। कल्पना नहीं है, ये साक्षात है, ये वास्तविक है, क्योंकि नाभि चक्र जो है, वो धर्म की स्थापना करता है। मनुष्य के दस धर्म हैं और वो होने भी चाहिये। अगर मनुष्य के दस धर्मों में से वो छूट जाता है तो वो फिर सहजयोग के लिये उपयोगी नहीं है । उसे धर्म बाँधने पड़ते हैं। ये जो दस धर्म हैं, ये हमारे अन्दर मिनिमम होने चाहिये । जब ये होते हैं तभी आदमी धर्मातीत हो जाते हैं। लक्ष्मीजी एक स्त्री स्वरूप में दिखाई देती हैं। स्त्री स्वरूप का मतलब है, कि माता का हृदयी होना चाहिये। जिस आदमी के पास पैसे हो, लक्ष्मीपति उसे कहना चाहिये जो स्वयं अत्यंत सहृदयी हो और जिसके अन्दर मातृत्व हो सब के प्रती। दूसरे, लक्ष्मीजी एक कमल पर खड़ी हुई हैं। अर्थात जिस आदमी के पास, कि जिसे कहना चाहिये, कि जो लक्ष्मीपति है, उसमें इतना हलकापन होना चाहिये अपने बारे में, 15 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-15.txt इतनी सादगी होनी चाहिये, कि वो एक कमल पर भी खड़ा हो सकता है। हम देखते हैं, कि जरा सा भी अगर किसी के पास पैसा हो जाता है तो उनको इतना घमंड होता है कि वो मुझसे कहेगा कि, 'माताजी, देखो मेरे को पार तो होने का है, लेकिन मैं सब के बीच में वहाँ आपके हॉल में नहीं आ सकता। आप को मेरे घर आना पड़ेगा ।' मैंने कहा कि, 'क्यों? क्योंकि आपके पास थोड़ा पैसा ज़्यादा हो गया है?' तो कहने लगे कि, 'वे सब के साथ नहीं बैठ सकते।' ऐसे आदमी में जरा सा भी घमंड नहीं होना चाहिये । इतना सा भी घमंड नहीं होना चाहिये। तभी वो लक्ष्मीपति कहलायेंगे। गर उसको पैसों का घमंड हुआ तो फिर वो बरबाद हो जायेगा। फिर वो क्या पैसे वाला हुआ? अगर वो असली पैसे वाला है, जिसके पास अपने ही चीज़ें होती हैं उसे कभी किसी चीज़ का घमंड ही नहीं होता है। किसी दुसरे के मारी हुई चीज़ होगी, तभी वो घमंड करता है या उसके पास अभी बहुत कमी है। इसलिये वह घमंडी होता होगा। क्या हम लोग अपने नाक, आँख, कान का कभी घमंड करते फिरते हैं? उसके दोनों हाथों में, लक्ष्मीजी के दोनों हाथों में कमल होते हैं, गुलाबी रंग के। गुलाबी रंग के कमल खिले हुए हैं। मतलब ये है, कि जो लक्ष्मीपति होगा उसका हृदय इन कमलों जैसा खुला हुआ होगा। खुले दिल का आदमी होना चाहिये। कोई आया, उसपे भौंकने लग जाये वो लक्ष्मीपति कैसा ? वो तो कुत्ता हुआ। वो लक्ष्मीपति नहीं हो सकता। कमल के जैसे जिसकी सुरभि सारे संसार में फैली हुई है। पता हो कि एक लक्ष्मीपति यहाँ रहते हैं। मैं जहाँ पैदा हुई थी वहाँ एक थे, जिनको लोग कहते थे, जी लक्ष्मीनारायण कह कर, बड़े रईस आदमी थे। उनको आप लक्ष्मीपति कह सकते हैं। अत्यंत निगवीं आदमी थे वे, और बच्चों जैसा उनका स्वभाव था । ऐसे अनेक-अनेक देखे मैंने बहुत कम। बहुत कम ऐसे देखे हैं मैंने। और कमल के जैसे उनका घर होना चाहिये, सुंदर, गुलाबी, जिसमें हृदय की गुलाबीपन हो हृदय का खिंचाव हो। लोगों का स्वीकार्य हो । सब का वहाँ आना हो। भँवरे जैसे प्राणी को भी कमल अपने यहाँ स्थान देते हैं। और उसको कम्फर्टेबल और आराम से सुलाते हैं। एक कोझीनेस होती है कमल की। उसकी हृदय की वो कोमलता होनी चाहिये । ऐसे आपने देखे हैं क्या कोई ? कोई ऐसा एकाद दिख जाये तो मुझे आ कर बताना। बहुत मुश्किल है, पैसा आया और गधे बन गये, कुछ नहीं हुआ तो शराब पी लिया, कुछ जुआ खेल लिये। क्या ये आदमी की बुद्धि है कि क्या? जिसके पास पैसा आया उसकी बुद्धि हमेशा उल्टी तरफ जाती है। घोड़े से भी बद्तर बुद्धि होती है मनुष्य की। सोच-सोच कर आश्चर्य लगता है। कभी भी सुबुद्धि नहीं आती है उसको पैसों से, ऐसा पैसा किस काम का! वही पैसा काम का है कि जिससे मनुष्य में सुबुद्धि आये, जिसका धर्म जागृत हो। परमात्मा इसलिये आपको ज़्यादा पैसा देते हैं कि आपके हाथ से धर्म स्थापित हो, संसार का भला हो। धर्म का और पैसे का बड़ा नजदीकी सम्बन्ध है, ये मैं आपको बता दूँ। आप विश्वास करें या ना करें। कल ही मैंने बताया था कि मैं किसी के घर गयी थी, उन्होंने बताया था कि, 'माताजी, आप जरूर आना यहाँ, यहाँ बहुत रईस लोग हैं, ये हैं, वो हैं।' तो मैंने कहा कि, 'देखो भाई, मुझे ये सब समझता नहीं है 16 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-16.txt ३ं र २े हैए ३ं ॐ रईसों का। पर मैंने कहा कि, 'मैं चलती हूँ।' जैसे ही मैं उस घर के बाहर पहुँची, मैंने कहा कि, 'इस घर में बड़ा भारी शाप है, चाहे ये कितने भी रईस हो।' तो कहने लगे कि, 'कैसे ?' मैंने कहा कि, 'बस, शापित है।' मैंने उनके घर में जा कर देखा कि उनके दो बड़े लड़के हैं, जो हर दम बैठे ही रहते हैं, उनके पैर ऐसे और हाथ ऐसे हैं तब से ही जब से वे पैदा हुए थे, तब से वे ऐसा ही है। क्या करने का उस पैसे का ? आप तो क्या, हाथी ले कर के आप घूमियेगा? आपके दोनों बच्चे तो ऐसे हो गये हैं। अब बाहर ही मुझे लगा कि ये घर तो शापित है। शाप हो जाते हैं पैसों का। और आपको पैसा का कमाना और उसका घमंड पर धर्म का कोई व्यवस्था नहीं होती है। ऐसे ही अनेक घर शापित हो सकते हैं। किसी की पत्नी देखो , तो पागल हो गयी है। किसी के कुछ हो गया है, किसी के कुछ हो गया है। कोई कहता है, कि हमारे यहाँ बच्चा नहीं हुआ है। किसी के यहाँ कोई कुछ हो जाता है, कहीं कुछ हो जाता है। बच्चा नहीं होना कोई शाप नहीं है। लेकिन जिस तरह से उनके ऊपर उसका असर आता है वो शाप है। इसलिये धर्म और पैसों का बड़ा सम्बन्ध होता है। 17 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-17.txt व्यापारियों से वा्ती ५-४-१९९६ अब हमें किन कठिनाइयों की सामनी करनी पड़ सेकती है, येह समझनी चाहिए। आज की संसार ऐसा है कि हमें शान्ति प्राप्ति होनी आविश्यक है और मन से ऊपर उठे बगैर शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। केवल कुण्डलिनी ही हमें पूर्ण आन्तरिक शान्ति तक ले जा सकती है। हर चीज़ को हम साक्षी रूप में देखने लगते हैं, किसी चीज़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते और परिणामस्वरूप हमारी स्मरण शक्ति सुधरती है। प.पू.श्रीमाताजी, ५.४.१९९६ 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-18.txt सत्य को खोजने से पूर्व हम भिन्न सम्भावनाओं पर विचार करते रहते हैं। जिसे हम 'मन' कहते हैं वह वास्तव में हमारा मस्तिष्क नहीं होता। हम सोचते रहते हैं कि हमारा मन क्या कह रहा है परन्तु आप यह जानकर आश्चर्यचकित होंगे कि यह मन आता कहाँ से है और यह वास्तव में है क्या ! हमारे अन्दर जो मन है वह वास्तव में हमारे द्वारा बनाई गई एक परिस्थिति है। पशुओं में शायद ऐसा न हो परन्तु मानव जब किसी चीज़ को देखता है तो उस पर प्रतिक्रियाशील होता है। उदाहरणार्थ यहाँ बिछे हुए सुन्दर कालीन को हम देखते हैं, यदि यह हमारा अपना हो तो हम चिन्तित हो उठते हैं कि कहीं यह खराब न हो जाए। तब हम इसका बीमा कराने की सोचते हैं, और यदि यह हमारा नहीं है तो हम सोचने लगते हैं कि यह कहाँ से आया, इसका मूल्य क्या है? यह सब बातें हमारे 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-19.txt मस्तिष्क में आती रहती है। छोटे होते हुए जब बच्चा अपनी माँ के साथ होता है तो वह खूब मजे में रहता है। माँ का और कार्य करना बच्चे को अच्छा नहीं लगता। उसे लगता है कि माँ उसे परेशान कर रही है। कुछ इस प्रकार बच्चे में जो प्रतिक्रिया आरम्भ होती है वह शनै:- शनै: विकसित होकर अहम् कहलाती है। माँ जब बच्चे को किसी कार्य को न करने के लिए कहती है तो बच्चे को अच्छा नहीं लगता, फिर भी वह उसकी बात को सुनता है क्योंकि वह माँ है। इस प्रकार बच्चे के बंधनों की रचना होती है। इस प्रकार हमारे अन्दर केवल दो चीज़ें हैं- हम या तो अपने अहम् या अपने बन्धनोंवश कार्य करते हैं। कोई तीसरी चीज़ नहीं है जो हमें यह बता सके कि हम क्या कर रहे हैं, यह ठीक है या गलत, इससे हमें लाभ होगा या नहीं, यह हमें विनाश की ओर ले जा रही है या प्रसिद्धि की ओर। जिस भी तरह से हम प्रतिबन्धित हैं उसी दिशा में हम बढ़़ते चले जाते हैं और तब हमारा अहम् भी विकसित हो सकता है। अहम् की किस्म के अनुसार ही हम कार्य करते हैं। हमारे अन्दर वर्तमान इन दोनों गुणों की सृष्टि हमारे द्वारा ही की जाती है। उदाहरण के तौर पर इस घड़ी की लें जिसे हमने बनाया है। अब हम इस घड़ी के गुलाम हो गए हैं। ज्यों ही इन लोगों ने कहा श्रीमाताजी आपको सात बजे पहुँचना है, मेरे मन में विचार आया कि हम उस जगह से बहुत दूर हैं, वहाँ समय पर नहीं पहुँच पायेंगे। यह विचार मुझे समय से बांधने का प्रयत्न करते हैं । तब एक और चिन्ता हो जाती है कि यह लोग मुझे ऐसा क्यों कह रहे हैं। इस तरह से हम समय में बंध जाते हैं और इसके दास बन जाते हैं। कम्प्यूटर के बिना हम दो जमा दो भी नहीं कर सकते। हमें इसे भी ठीक करना आवश्यक है। हममें आदान-प्रदान की भी कमी है और यह मस्तिष्क, जो कि एक वास्तविकता है, इसके पास करने के लिए बहुत कम कार्य है तथा घड़ी की सुई की तरह से हम घूमते रहते हैं और एक यन्त्र मानव की तरह से हम जीवनयापन करते हैं। जो सत्य है उससे हम दूर हैं। हम वास्तविकता के दायरे में प्रवेश कर सकते हैं। जब हम इस दायरे में प्रवेश कर जाते हैं तो न केवल अपने विषय में परन्तु अन्य लोगों के विषय में भी जान सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी वेशभूषा या आभूषणों के बारे में जान सकते हैं। परन्तु उनके चक्रों की स्थिति के विषय में जान सकते हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि हमारे अन्दर के यह सात चक्र हमारे ऊर्जा केन्द्र हैं। इन ऊर्जा केन्द्रों की शक्ति को हम उपयोग करते हैं। परन्तु यदि इनका बहुत अधिक उपयोग करने लगें तो लोगों को तनाव, हृदय रोग या किसी अन्य प्रकार के रोग हो जाते हैं। यही केन्द्र हैं जिनसे हमारी सभी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान होता है। यह सात चक्र हमारे अन्दर हैं, हो सकता है इनके अस्तित्व का ज्ञान आपको न हो। यह सात 20 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-20.txt चक्र हमारे अन्दर केवल विद्यमान ही नहीं है, बहुत से लोगों ने इसकी कुंजी भी प्राप्त की है। अपने असंतोष के कारण हम इन केन्द्रों को एक तरफ (बाएं या दाएं) बहुत अधिक ले जाते हैं। आप स्वयं सोच सकते हैं कि शारीरिक स्तर पर व्यापारियों को क्या समस्याएं हो सकती हैं। एक चक्र है जिसे हम स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। यह चक्र बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसका कार्य हमारे मस्तिष्क के सफेद कोषाणुओं का पोषण करना है। चिकित्सकों को इसका ज्ञान नहीं है परन्तु यह सत्य है। यदि हर समय हम अपने मस्तिष्क की शक्ति का उपयोग करते रहेंगे तो इसकी शक्ति कहाँ से आएगी ? हमारे सभी विचारों, इच्छाओं, योजनाओं आदि को पूर्ण करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और यह शक्ति स्वाधिष्ठान चक्र से आती है। स्वाधिष्ठान चक्र को इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना होता है। इसी चक्र की सहायता से हमारे जिगर, प्लीहा, गुर्दे कार्य करते हैं। जब यह चक्र एकतरफा कार्य करने लगता है तो इसकी शक्ति भी एक ही ओर जाने लगती है तथा सभी प्रकार के रोग प्रकट हो जाते हैं। सर्वप्रथम जिगर गर्म हो जाता है तथा अधिक सोच-विचार तथा योजनाएं बनाना इसे और अधिक गर्म कर देता है। जिगर, जिसका कार्य इस गर्मी को रक्त प्रवाह में छोड़ना होता है, अपना कार्य नहीं कर पाता। तब यह गर्मी ऊपर नीचे या दाएं बाएं चली जाती है। जब यह ऊपर को जाती है, तो आप हैरान होंगे, व्यक्ति को अस्थमा हो जाता है। बहुत से लोग शिकायत करते हैं कि श्रीमाताजी मुझे अस्थमा है जो लाइलाज है, नहीं नि:सन्देह इसका इलाज हो सकता है। एक चिकित्सक, जो अब अमेरिका में है, को इसी विषय पर एम.डी. की उपाधि प्राप्त हुई है। दूसरा रोग जो इसके कारण होता है बहुत आम रोग है- मधुमेह (Diabetes)। यह चक्र अग्न्याश्य की भी देखभाल करता है। इसके खराब होते ही मधुमेह का आरम्भ हो जाता है । जो लोग अत्यधिक सोचते हैं, अत्यधिक योजनाएं बनाते हैं उनके प्लीहा पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है क्योंकि प्लीहा का कार्य संकटकालीन स्थिति में हमारे शरीर को लाल रक्त कोषाणु प्रदान करना होता है। आज के युग में लोग समयबद्ध हैं। हम रात को देर से सोते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं और किसी तरह कार में बैठकर दफ्तर को दौड़ते हैं। हमारा संवेदनशील प्लीहा ऐसे समय पर लाल रक्त कोषाणु देना चाहता है, व्यक्ति की चिन्ताओं के साथ यह भी चिन्तित हो उठता है और इस प्रकार जिस रोग का आरम्भ होता है वह अत्यन्त भयानक है- रक्त कैंसर। तीसरा रोग अचानक गुर्दे का खराब हो जाना है। पहले तो व्यक्ति को डायलिसिस पर डाल दिया जाता है परन्तु इसका खर्च उसे दिवालिया बना देता है। डायलिसिस से मनुष्य निरोग नहीं हो सकता। डाक्टर जो चाहे कहते रहें परन्तु यह सत्य है। इसके अतिरिक्त भी बहुत से रोग हैं जैसे कब्ज। भयानक कब्ज भी बहुत सी बीमारियों का कारण बनती है। इस गर्मी से हृदय भी नहीं बच सकता। कोई शराब पीने वाला युवा व्यक्ति जो टेनिस खेलता हो, सोचता भी हो, वह भी इसकी पकड़ में आ जाता है। क्यों? २१ से २५ वर्ष की आयु में हृदय की ओर 21 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-21.txt बढ़ती हुई इस गर्मी के कारण यदि ऐसे व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ जाए तो वह घातक हो सकता है। यह गर्मी जब हृदय को प्रभावित करती रहती है तो हृदय कमजोर हो जाता है और ५५ वर्ष की आयु में व्यक्ति को दिल के दौरे पड़ने लगते हैं । तब लोगों की दुर्दशा हो जाती है, पक्षाघात हो सकता है। इतना भयानक पक्षघात कि पूरा दायां पक्ष कार्य करना बन्द कर देता है। केवल एक चक्र इतने सारे रोगों का कारण बन सकता है, विशेषकर बहुत अधिक योजनाएं बनाने वाले भविष्यवादी लोगों में। ऐसे लोगों को सदा जुकाम हो जाता है और कभी-कभी तो उन्हें फ्लू भी हो जाता है। अब आप कल्पना कीजिए कि एक चक्र जब इतने सारे रोगों का कारण बन सकता है तो यदि किसी का दूसरा चक्र खराब हो जाए तो क्या होगा? कैंसर, कम्पन रोग (Parkinson) जैसे मनोदैहिक रोग स्वाधिष्ठान चक्र की खराबी से होते हैं तथा अन्य चक्रों को भी खराब कर देते हैं और इन्हें ठीक करने का कोई दूसरा तरीका नहीं होता। आप यदि सोचें कि चिकित्सक न्हें दवाइयों से ठीक कर देंगे तो ऐसा नहीं हो सकता। आपको इन चक्रों में शक्ति का संचार करना होगा और इसके लिए सर्वशक्तिमान परमात्मा ने मूलाधार अस्थि में कुण्डलिनी नामक शक्ति रख छोड़ी है। क्योंकि यह साढ़े तीन लपेटों में है और लपेटे को संस्कृत में कुण्डल कहा जाता है, मानव ने इसका नाम कुण्डलिनी रख दिया है। क्योंकि यह मातृ-शक्ति है इसे कुण्डलिनी कहते हैं। जागृत होकर यह शक्ति इन चक्रों में से होती हुई तालू की हड्डी का भेदन होता है। करती है, तब इसका मिलन परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति स सत्य क्या है? सत्य यह है कि पेड़, हरियाली, यह संसार, सभी चीज़ों को हम सुन्दर देखते हैं परन्तु यह नहीं सोचते कि यह सब किस प्रकार बना। है न हैरानी की बात! उदाहरणार्थ यह सुन्दर फूल कितने सुगन्धमय हैं। यह सुगन्ध कौन इनमें डालता है? आप यदि चिकित्सक से पूछे कि मेरे हृदय को कौन धड़काता है तो वह कहेगा स्वचालित नाड़ी तन्त्र। अब यह 'स्व' कौन है ? यदि वह स्वचालित है तो हमारे अन्दर एक चालक है, यह कौन है? इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यह आपकी आत्मा है और हम इसलिए जीवित हैं क्योंकि हमारी आत्मा जीवित है। इसका यह अर्थ भी नहीं कि आप लोग जंगलों में या हिमालय में चले जाएं और एक टांग पर खड़े हो जाएं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं। आप पूर्व जन्मों में यह सब कर चुके हैं और इसी कारण यहाँ उपस्थित हैं। यह सब नाटक करने या पैसा खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं। इसे आप खरीद नहीं सकते। जैसे आप मानव हैं, आप महान व्यक्ति बन सकते हैं। यह जीवन्त क्रिया है। यह सहज ही में घटित हो सकती है। यह शक्ति सभी में विद्यमान है। आपने केवल इसे पाना मात्र है। उसके लिए आपको कुछ नहीं करना, यह सहज है, स्वत: है। उदाहरण के लिए आपके पास एक बीज है जिसे आपने पृथ्वी में डालना है। इसके लिए आपको क्या करना होगा? कुछ नहीं, केवल इसे पृथ्वी में डालना होगा क्योंकि बीज में भी शक्ति है और पृथ्वी में भी, यह उपजाऊ है। इसी 22 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-22.txt प्रकार आपकी कुण्डलिनी को भी जागृत करना कठिन नहीं है। ऐसा करने का कोई एहसान नहीं है। अब जब हमारे अन्दर यह शक्ति है और हम इसे प्राप्त कर सकते हैं तो क्यों न हमें ऐसा कर लेना चाहिए। अब हमें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, यह समझना चाहिए। आज का संसार ऐसा है कि हमें शान्ति प्राप्त होना आवश्यक है और मन से ऊपर उठे बगैर शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। केवल कुण्डलिनी ही हमें पूर्ण आन्तरिक शान्ति तक ले जा सकती है। हर चीज़ को हम साक्षी रूप में देखने लगते हैं, किसी चीज़़ के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करते और परिणामस्वरूप हमारी स्मरण शक्ति सुधरती है। जो कुछ भी हम देखना चाहते हैं, मान लो किसी समस्या को, जब तक हम समस्या में फंसे रहते हैं इसका समाधान नहीं कर सकते। परन्तु ज्योंही इस समस्या से बाहर आ जाते हैं समस्या सुलझ जाती है क्योंकि हम परमात्मा से जुड़े होते हैं। हमारा एकाकार परमात्मा से है, यह कठिन कार्य नहीं है परन्तु पहले आपको विश्वास होना चाहिए। इतने सारे लोग क्यों विश्वास खो बैठते हैं? हो सकता है आपने गलतियाँ की हों, उन्हें भूल जाएं। वह आपका भूत था, अब आप उससे जुड़े हुए नहीं हैं। आप वर्तमान में हैं। मैं इसे बसन्त ऋतु कहती हूँ क्योंकि बहुत से लोग आए हैं उनका पुनर्जन्म हुआ है। योगी रूपी फूल खिल उठे हैं और कुण्डलिनी की जागृति के साथ ही उनपर फूल आए हैं। ऐसा हजारों लाखों लोगों के साथ घटित हुआ है ऐसा घटित होना कठिन कार्य नहीं है। इसमें किसी का कोई एहसान नहीं है, मेरा या और आपके साथ भी आपका। ये आपकी निजी चीज़़ है । इसे प्राप्त करने के पश्चात आपको थोड़ी देर के लिए ध्यान अवश्य करना होगा। यह खाइए और यह मत खाइए जैसा कोई बंधन नहीं है। अपने घर और बच्चे छोड़ने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है। सभी लोगों ने यह बात कही है, ईसा ने कहा था " स्वयं को पहचानो" ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि स्वयं को जाने बिना आप परमात्मा को नहीं (know thyself) मोहम्मद साहब जान सकते। अब यदि लोग कुछ और बातें कहें तो हमें उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जब सभी अवतरणों ने कहा है कि स्वयं को पहचानो और ऐसा करना कठिन भी नहीं है तो क्यों न यह किया जाए? कुछ लोग समझते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात उनका व्यापार ठप्प हो जाएगा। वे बहुत भयभीत हैं। परन्तु साक्षात्कार के पश्चात दस गुना समृद्ध होंगे क्योंकि आपका दृष्टिकोण ईमानदारी का हो जाएगा और आप सन्तुष्ट हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि आप पागलों की तरह इस पर लग जाते हैं। ऐसा कुछ नहीं है। पागलपन छूट जाता है और आप पूर्णत: सन्तुष्ट हो जाते हैं । अर्थशास्त्र का नियम है कि प्राय: आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। जैसे आज आपको एक कार की इच्छा होती है फिर एक घर की, फिर एक वायुयान की, एक के बाद एक, कभी सन्तुष्टि नहीं होती। इसका कारण यह है कि वस्तुएं आपको सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं। सन्तोष तो एक मानसिक अवस्था है । साक्षात्कारी व्यक्ति को भौतिक वस्तुएं यदि मिल गईं तो ठीक यदि नहीं मिलीं तो ठीक। वह शारीरिक सुखों की अधिक चिन्ता नहीं करता। उसे आप रेशम पर बिठा दें या फर्श पर वह प्रसन्नचित्त रहता है। वह बादशाह है। कोई चीज़ उसे बाँध नहीं सकती क्योंकि वह बादशाहत में है। आप यह सब प्राप्त कर सकते हैं । इसे प्राप्त करने का आपको अधिकार है । 23 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-23.txt इसे यदि आप प्राप्त कर लें तो बहुत अच्छा होगा। सबसे बड़ी उपलब्धि जो होगी कि आप जान जाएंगे कि आपके ऊपर एक महान शक्ति है-प्रेम की शक्ति। अब तक किसी ने इस प्रेम की शक्ति का उपयोग नहीं किया। सभी शक्ति का उपयोग कर रहे हैं। आप यह प्रेम की शक्ति उपयोग करें और फिर देखें। आप देख रहे हैं कि हमारे देश में कितनी खलबली है। लालच अनावश्यक रूप से बढ़ गया है। लोगों के पास धन रखने के लिए स्थान नहीं है। दीवारों में वे धन लगा रहे हैं। क्या वे ये दीवारें अपने साथ ले जाएंगे? विवेक समाप्त हो गया है। लोभ की भी एक सीमा होती है। लोग किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते फि र भी चले जाते हैं। यह पागलपन है। जो भी कुछ आपके पास है आपको चाहिए कि आप इसका आनन्द उठाएं। अब नि:सन्देह आप महसूस करेंगे कि शिष्य श्रीमाताजी हमें आनन्द के सागर तक ले गई है। जफर नाम का एक मुसलमान डाक्टर हमारा है। जब वह हमारे पास आया तो सभी लोग भजन गा रहे थे। मैं नहीं जानती कि उसे क्या हुआ, डाक्टर जफर आपको क्या हुआ ?" उसने उत्तर आनन्दमग्न हो वह गाता रहा। मैने उससे पूछा, दिया, " मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मैं पूर्ण आनन्द में था और घंटों तक वह इसी स्थिति में रहा। मैंने उसे कहा कि "कुछ खा लो", वह कहने लगा, " मैं निर्विचार समाधि में था। जरा सोचिए कि आप इतनी पार्टियों में जाते हैं, इतनी पार्टियाँ देते हैं परन्तु आनन्द नहीं उठा सकते। पार होने के पश्चात इधर-उधर की बातें सब समाप्त हो जाएंगी। इतनी मित्रता, इतना प्रेम आपने अभी तक सामूहिकता में कभी न देखा था। यह इतना आनन्ददायी अनुभव है कि हजारों लोग प्रेम के सागर में मिलकर बैठे हुए हैं। जो भी हमें देखता है हैरान हो जाता है। रूस जैसा देश जहाँ साम्यवाद है, मुझे साम्यवाद से कुछ नहीं लेना-देना, न ही मैं इसके पक्ष में हूँ, परन्तु इससे भी एक अच्छाई निकली कि उनमें कोई इच्छा शेष नहीं बची। सरकार ने उनसे कहा कि हम आपको फ्लैट देंगे, अपने नाम में इन्हें ले लो। उन्होंने कहा,नहीं हमारे नाम इन्हें मत करो। अपने पास रखो। अपने नाम से चीज़ें लेने से सभी लोग डरते हैं। परमात्मा जानता है कि वहाँ कितने लोग सहजयोगी बन चुके हैं। बहुत से वैज्ञानिक, बहुत से अन्य लोग हैं जिनमें कोई इच्छा नहीं है। केवल ३५ प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो मालब्रो सिगरेट जैसी चीज़ें चाहते हैं। मैंने उनसे कि यहाँ सैनिक विपल्व होने वाला है, आपको कोई चिन्ता नहीं ? कहने लगे, पूछा 'श्रीमाताजी हम क्यों चिन्ता करें? हम परमात्मा के साम्राज्य में हैं यहाँ के साम्राज्य में नहीं। किस चक्र से क्या होता है इसके बारे में चिन्ता करना अनावश्यक है। आप है। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर ले। आजकल बाजार में बहुत से गुरु है। धन बटोरना उनका व्यापार को आप आत्मसाक्षात्कार जैसी अमूल्य चीज़ के लिए कैसे आप धन ले सकते हैं? जिस गुरु खरीद सकते हैं वह तो आपका नौकर हुआ। वह गुरु कैसे हो सकता है? आप यदि इस चीज़ को 24 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-24.txt २ ১৫ . भी बहुत से झूठे गुरु हैं। इससे हानि भी हो समझ ले तो अच्छा होगा। हमारे देश में और बाहर सकती है। आत्मसाक्षात्कार आपकी अपनी सम्पदा है। आपने इसे प्राप्त करना है। इसके लिए आपको स्वयं पर विश्वास होना चाहिए कि मुझे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है। परमात्मा आपको धन्य करें। 25 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-25.txt विश्व का नि्माण 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-26.txt ग जनमदिन २भाशेह मुंबई, ३० मार्च १९८३ 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-28.txt विश्व का निर्माण जनमदिन समारोह पहला भजन, 'भय काय तया प्रभु ज्याचा रे' गाया गया। श्रीमाताजी ने उल्लेख किया कि, 'यह मेरे पिताजी का प्रिय भजन था।' बहुत से लोग मुझसे हमेशा पूछते हैं, कि परमात्मा ने ये विश्व क्यों निर्माण किया? नि:संदेह हमें परमात्मा से प्रश्न नहीं करना चाहिये। श्रीमाताजी के प्रवचन के समय सवाल करना आसान बात है। लेकिन परमेश्वर जो हैं वह प्रश्नों से परे हैं और इन्होंने क्यों विश्व का निर्माण किया? ये कुछ इस तरह से है कि मैंने ये सारे जेवर क्यों पहने हैं? जैसे कि मुझे गहने पहनने की आदत नहीं है, लेकिन मुझे ऐसा करना ही पड़ता है। मुझे ऐसा करना पड़ता है केवल आप सबको प्रसन्न करने के लिये अथवा हम कह सकते हैं कि परमात्मा ने इस पृथ्वी का निर्माण केवल बच्चों की खुशी के लिये, उनके सुख के लिये किया है, केवल उनको परमात्मा के साम्राज्य में प्रवेश देने के लिये किया। उनके (परमात्मा) पास जो भी है वह सब देने के लिये ही किया। इसलिये उनको इस रचना का आविष्कार इस प्रकार से करना पड़ा ताकि उनकी प्रतिमा उसमें प्रतिबिंबित हो और वह (रचना) स्वयं उसका आनंद उठा सके। ये एक आपसी प्रशंसा है, जिसे कि हम आंदोलन कहते हैं। जो भी वे हमारे लिये करते हैं, वह उनके ही खुशी के लिये करते हैं । लेकिन उसकी सुंदरता इस प्रकार है, कि आपका जो भी सुख है वह उनका सुख है, दूसरे सिरे से देखा जाय तो उनकी खुशी आपकी भी खुशी होनी चाहिये । एक बार जब ये वास्तविकता, कि परमात्मा का सुख जब आपका सुख बन जाता है, तब आप स्वर्गीय आनंद के उस सुंदर प्रदेश में प्रवेश कर जाते हैं। अगर ये सिर्फ एक तरफा उद्यम या एकतरफा प्रयास हो जाता है, तो ये खो जाता है। मानव के प्रयास एक तरफा हैं, लेकिन परमेश्वर के प्रयत्न ऐसे होते हैं कि जब तक वे प्रतिबिम्बित नहीं होते हैं तब तक उनका आनंद उठाया नहीं जा सकता है। 29 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-29.txt इसलिये जो भी उन्होंने हमें दिया है उसकी गिनती ा हम नहीं कर सकते हैं, हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं। कि ये आशीर्वाद है क्योंकि ये चीज़ों को बताने का निराकार तरीका है। ये परमात्मा का आशीर्वाद है कि उन्होंने हमें सारे ही आशीर्वाद प्रदान किये हैं। ये निराकार चीज़ है, क्योंकि हम उनकी गणना नहीं कर सकते, उनको कोई रूप नहीं दे सकते। उनकी सर्जनता का आनन्द जब हम हृदय से महसूस करते हैं, हम उस आनन्द का सुख लेने लगते हैं तब ये एक परिपूर्ण चित्र बनता है। जब ये पूर्ण होता है तब हम उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये अनुरूप नहीं है। आप केवल इससे आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। कैसे इस प्रकार से आनन्द की गहनता का वर्णन किया जा सकता है। इस प्रकार की गहनता में हम क्या कह सकते हैं? हम इसमें खो जाते हैं। बून्द सागर हो जाती है और समुद्र बून्द हो जाता है। राम पहले सागर बून्द बन जाता है और उसके बाद बून्द सागर बन जाती है और फिर समुन्दर बून्द उन्होंने हमारे लिये क्या किया है, ये आप शब्दों में बयान नहीं कर सकते। बन्द बनने का प्रयास करता है। ये नितान्त सुन्दर शैली है देने और लेने की, जिन लोगों ने परमात्मा के प्यार का, अमृत का आनन्द लिया है सिर्फ वही उसको समझ सकते हैं। परमात्मा नहीं है ये कहना बड़ा आसान है। ऐसा कहना ये सबसे आसान चीज़ है। लेकिन उससे भी ज़्यादा आसान है परमात्मा का ( उसके प्रेम का) आनन्द प्राप्त करना। सबसे आसान है उनका (आशीर्वाद का) आनन्द उठाना क्योंकि वे ऐसे उपलब्ध हैं, वे इतने उत्सुक हैं कि सारे सर्जन का हेतु आपको आनन्द देना है, आपको सुख देना है । जैसे कि आज मुझे जब बैंक जाना पड़ा, मुझे ताज्जुब हो रहा था, 'मैंने कभी भी मेरे जीवन 30 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-30.txt काल में किसी भी समय इस तरह से इतने जेवर नहीं पहने थे और आज यह समय आया है और मुझे इन्हें पहनना पड़ा,' मैंने केवल विचार किया, 'ये सिर्फ मेरे बच्चों के लिये है।' अगर मुझे पहनना पड़े तो क्या फर्क पड़ता है केवल उनको अच्छा लगे इसलिये, कोई बात नहीं अगर उनको इससे आनन्द होता है, तो मेरा आनन्द पूर्ण हो जाता है। आपको ऐसा लगता है, कि मुझे इन्हें | 31 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-31.txt पहनना चाहिये? इसका मतलब है, कि आप यह देखना चाहते हैं कि ये (जेवर) मैंने पहना है। यह भी आपकी बहुत सूक्ष्म भक्ति है, आदर है, आपका माँ के प्रति बहुत ही सूक्ष्म प्रेम है। इस आधुनिक काल में ऐसे भक्त मिलना, यही मेरे लिये एक बड़ा आशीर्वाद है। इसलिये जैसे कि आप कहते हैं कि, 'माँ, हमें आशीर्वादित कीजिये।' मैं कहती हूँ कि, 'आप भी मुझे भक्ति (आशीर्वाद) दीजिये ।' आपने मुझे पहले से ही इस सुंदर व्यवस्था से जो आपने की है, प्रसन्न कर दिया है। जिस प्रकार से आपने खुद इसके लिये जी जान से कठिन परिश्रम किये हैं, अपने आपको इस महान पूजा में समर्पित किया है। क्योंकि ये इतनी परस्पर निर्भर प्रक्रिया है। आप पूजा करते हैं। | मैं पूजा नहीं कर सकती। आपको पूजा करनी चाहिये । जब आप पूजा करते हैं, तो चक्र जागृत होते हैं। मेरे (पहले से ही) जागृत हैं। लेकिन आप में ये जागृत हो जाते हैं । अब लोगों को किस प्रकार | समझायें कि पूजा का क्या महत्व है। अगर आपने पूजा के फल का स्वाद नहीं लिया हो तो आपको समझाना असंभव है। ये सिर्फ ऊँचे स्तर का ही कोई ये सारी चीजें समझ सकता है। लेकिन अभी तक निम्न प्रकार के लोगों से जो भी किया गया है वह इतने निम्न स्तर का है कि सब बिल्कुल ही अपवित्र बन गया है और यह सब जो अपवित्र क्रिया कार्य था कि जिससे परमात्मा खुद भी दु:खी हो गये। इसलिये परमात्मा ने इस विश्व की रचना आत्मसाक्षात्कारी लोगों का निर्माण करने के लिये किया है । बेकार के लोगों का निर्माण करने के लिये नहीं, ऐसे लोगों का निर्माण करने के लिये नहीं कि जो परमात्मा में विश्वास नहीं करते, जो उच्च स्तर के जीवन पर विश्वास नहीं करते, जो पवित्र जीवन जीने पर विश्वास नहीं करते। उन्होंने विश्व की रचना इस तरह के लोगों के लिये नहीं की है। उनका अस्तित्व केवल मृत लोगों जैसा है, वे जीवित लोग नहीं है। इसलिये जिनकी परमात्मा में श्रद्धा है, जो पवित्रता के साथ उनकी पूजा करते हैं, वे एक प्रकार से परमात्मा को प्रसन (आशीर्वादित) करते हैं। क्योंकि ये इतना (परमात्मा के) उनके लिये देखना आनन्ददायी है कि उन्होंने समझा है कि उन्होंने महसूस किया है कि उनको ये अच्छा लगा है। सहजयोगियों को भी, इन में से लोगों को समस्यायें हैं, कोई बात नहीं। लेकिन जब तक कुछ इच्छा शुद्ध है, आपकी कुण्डलिनी पवित्र है, जब तक आपको ये महसूस होता है कि आपका उत्थान सही तरीके से हो, समर्पित भाव से ही इन सबसे एक सुन्दर, पूर्ण चित्र तैय्यार होने वाला है। और ये परमात्मा का उन्नत साम्राज्य अपने अन्दर हृदय में और बाहर निर्माण करने के लिये 32 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-32.txt आप सब को यह समझना चाहिये कि परमात्मा के प्रयास सर्वथा परिपूर्ण हैं। उन्होंने आपको बनाया है। अब वहाँ केवल किंचित कमी है। यह दूसरी ओर से है। उन्होंने ये सृष्टि इतनी सुंदरता से बनायी है और इतनी खुबसूरती से विश्व का निर्माण करने के बाद इस रचना में परमात्मा पूरी तरह से प्रतिबिम्बित होने चाहिये । बस इतना ही है। इसलिये अब पचास प्रतिशत कार्य हो गया है, सिर्फ दूसरा पचास प्रतिशत कार्य आपको करना है। आपको इसकी चिन्ता नहीं करनी है अगर ऐसे लोग हैं, कि जो सहजयोग में रूची नहीं लेते हैं, वे जो ध्यान नहीं करते, वे जो पूजा नहीं करते, वे जो ये उच्च स्तर का जीवन का आनन्द नहीं लेते , उनके बारे में आप बिल्कुल चिन्ता न करें। लेकिन | आपको समझना चाहिये कि आप विशेष लोग हैं और आपको परमाणू का निर्माण करना है, उस भाग के पूर्ण अंग को कि जिससे इस महान विश्वास के कार्य को पूर्ण करना है। आज मैं इतनी प्रभावित हुई हूँ कि सबकी गति मेरे लिये शून्य हो गयी है। अब कुछ भी नहीं चल रहा है। मुझमें अब गति बाकी नहीं रही है। अब वह चली गयी है। आप जो समारोह मना रहे हैं, उससे और आपके प्रेम से प्रभावित हुई हँ और मेरा दिल भर आया है कि मुझे समझ में नहीं आता कि मैं किस तरह अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करूँ । यह सब आपके गहनता को और हृदय में जो कृतज्ञता है इसको दर्शाते हैं। इसके लिये मैंने कुछ भी नहीं किया है जो कुछ भी है वो मैंने भी नहीं किया है क्योंकि मुझे जिंदगी में कुछ भी पाना नहीं है। जो मैं थी वह मैं हूँ और कुछ वैसे ही रहँगी। मैंने कुछ भी तपस्या या उसके जैसा कुछ नहीं किया है । ध्येय को पाने के लिये एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी हूँ। ये स्वयं आप ही हैं, जिन्होंने स्वयं को तैय्यार किया है, जो नज़दीक और नज़दीक आ गये हैं, एक जलते हुए दिये की तरह एक और अपने आपको प्रज्वलित कर दिया है, खुद को प्रबुद्ध किया है, इसका कारण आपकी कुशलता है, ये आपकी अपनी करामात है, कि जिसकी वजह से सब जगह प्रकाश फैल गया है। आपको भली -भाँति पता है कि प्रकाश निर्वात जगह में नहीं फैलता। अगर खाली जगह हो तो रोशनी सब दूर फैल नहीं सकती। इसलिये सहजयोगियों के बिना मेरा कोई भी अस्तित्व नहीं है। मेरा अस्तित्व नहीं है। मेरा जो अस्तित्व है वह आप ही की वजह से है । मेरा कोई (आपके बिना) वजूद नहीं है। मुझे कोई काम नहीं है। मैं कोई भी काम नहीं करती हूँ। मैं जो हूँ, वह सबसे ज़्यादा आलसी (अकर्म) हूँ और मैं कुछ भी काम नहीं करती हूँ (मैं अकर्मता में हूँ) ये सिर्फ आप हैं कि जिन्होंने पाया है। ये आप ही हैं जिन्होंने अपने आपको ऊपर उठाया है। वास्तव में मेरे बदले आप लोगों के जन्मदिन मनाने चाहिये क्योंकि ना में वृद्धावस्था की ओर बढ़ रही हूँ ना ही 33 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-33.txt युवावस्ता में। मैं केवल वही हूँ। उसमें (कोई भी) किसी भी प्रकार का कोई भी फर्क नहीं है। और मुझे लगता है कि सहजयोग का जन्मदिन होना चाहिये जो आज मनाना चाहिये। तो फिर आज हम कह सकते हैं कि कुछ बारह साल और कुछ महीने पहले | सार्वजनिक तौर पर सहजयोग की शुरूवात हुई थी किन्तु मैंने बहुत पहले ही उसकी शुरूवात कर दी थी। मुझे पता नहीं कितने साल पहले ! इसलिये इस मोड पे हमको ये समझना चाहिये कि पूजा ये अमूर्त उपलब्धी है जिसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है और आप सबको इस श्रद्धा भाव से (पूजा में) बैठना चाहिये। हमको हमारे अन्दर के 'कुछ भी नहीं के स्थिति को पाना है, अहंकाररहित, शून्यता, रिक्तता साफ और स्वच्छ स्थिति को (पाना है) तब प्रेम की रोशनी आपके अन्दर के सारे प्रदेशों को आलोकित करेगी। और ये तभी संभव होगा अर्थात् जब चक्र जागृत किये जायेंगे | ये कार्यान्वित हो रहा है और आपको अपने हृदय को पूर्णतया खोलने चाहिये। कोई भी विकल्प न रखे, कोई भी विचार न करें। केवल अपने हृदय खोलिये और स्वीकार कीजिये। पूर्णतया श्रद्धा से और समझदारी से। आपके यहाँ सारे देशों से इतने सारे देशों से लोग आये हैं। सारे जग को (लोग) यहाँ प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। आज के दिन एक ही चीज़ हमको घोषित करनी है कि सहजयोग पूर्णतया महायोग बने। सारे जग में हर एक को मालूम हो कि सहजयेाग ये एक ही मार्ग है कि जहाँ लोग उत्क्रान्ति में ऊपर उठ सकते हैं। एक नयी दुनिया का निर्माण होगा और इस प्रकार का विकास जो कि सामूहिक विकास है, जो बाह्य जग का नहीं है लेकिन अन्दर के विश्व का है, जो इस रचना की जड़े एक नये आयाम में निर्माण करती है, एक नये व्यक्तित्व का (निर्माण करती है) क्योंकि उस समय तक जड़े उस स्रोत तक पहुँच जायेगी, जो परमात्मा के प्रेम का स्रोत है, जो इस बहशक्ति की सर्वव्यापी शक्ति है 34 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-34.txt 3० ॐ এ द यह नहीं मान लेनी चाहिए कि एवक बार आत्मसाक्षात्कार पा लेने के बाद पूरा विश्व आपके चरणों में आ गिरे] यह आवश्यक नहीं हैं। यह लीला है। यह आदिशक्ति के चित्त का सुन्दर आनन्द हैं। यदि आप इसके साक्षी बन सकते हैं, यदि आप इस पूरी लीला के वास्तविक रूप में साक्षी बन सकते हैं तो आप आध्यात्मिक रूप से बहुत समीप जा सकते हैं, आप परमेश्वरी शक्ति में विलीन हो सकते हैं। (व.पू.श्रीमाताजी, ५.४.१९९६) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2014_Chaitanya_Lehari_H_I.pdf-page-35.txt यह सूर्य पृथ्वी के नजदीक आती है तब यह धरणीमाता सृजनशीलता से पुनः कार्यान्वित होती है और अत्यन्त सुन्दर फुलों की निर्माण करती हैं। सुन्दर, पौष्टिक और पूर्ण समाधान देने वाली चीज़ों का, उदा.फलों की निर्माण करती है और वह अपने आँखों को हरियाली द्वारा ठण्डक पहुँचाती है जो उसी के पास हैं। केवल सूर्य के आगमन से पृथ्वी हमें बहुविधि ऐसी चीज़ों से आशीर्वादित करती है। इसी तरह से सहजयोग के सूर्य का उदय हआ है और शिरोबिन्द तक पहुँच रही है। प.पू.श्रीमातीजी, १४ जानेवारी १९९० ॐ य 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