चैतन्य लहरी मार्च-अप्रैल २०१४ हिन्दी ह ७. ज ५ २ु मानव की बुद्धि में बहुत से सन्देह उठते हैं। पहला सन्देह, जो कि आम है, ये है कि, 'श्रीमाताजी कौन हैं? मैं आपको बताना चाहती हूँ, कि बिना आत्मचक्षु खोले आप मुझे नहीं समझ सकते| और मुझे समझने का प्रयत्न भी आपको नहीं करना चाहिए। पहले अपने आत्मचक्षु खोलें। प.पू.श्रीमाताजी, निर्मल योग १९८३ इस अंक में पुरुषोत्तम राम (रामनवमी पूजा) ..४ शक्ति का मतलब है पूरी ही शक्तियाँ ...२३ १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है (उपदेश) ...३३ पुरुषोत्तम २म ाम (रामनवमी पूजा) कलकत्ता, २५.३.१९९१ श्रीराम की जो प्रतिमा है उसे आज तक किसी ने अपनाने का प्रयत्न नहीं किया। उनके भजन गा लेने से, उनके नाम से संस्थाएं तथा राम मंदिर बना लेने से क्या श्रीराम आपके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं? क्या आपके जीवन में उनका प्रकाश आ सकता है या नहीं? यह सिर्फ सहजयोगी ही कर सुकते हैं कि अपने अन्दर बसे हुए श्रीराम को अपने चित्त के प्रकाश में लाएं। वो अत्यन्त निर्पेक्ष थे। पुरुषोत्तम २म आप जानते हैं कि हमारे चक्रों में श्री राम बहुत महत्वपूर्ण स्थान लिए हुए हैं। वो हमारे राइट हार्ट पर विराजित हैं। श्रीराम एक पिता का स्थान लिये हुए हैं, इसलिये पिता के कर्तव्य या प्रेम में कुछ कमी रह जाये तो ये चक्र पकड़ सकता है। सहजयोग में हम समझ सकते हैं कि राम और सब जितने भी देवतायें हैं, जो कुछ भी शक्ति के स्वरूप संसार में आये हैं, वो अपना अपना कार्य करने आये हैं। उसमें श्रीराम का विशेष रूप से कार्य है। जैसे कि सॉक्रेटिस ने कहा हुआ है कि संसार में बिनोवेलंट किंग आना है। उसके प्रतीक रूप श्रीरामचन्द्रजी इस संसार में आये हैं। श्रीराम पूरी तरह से मनुष्य रूप धारण कर के आये थे। वे ये भी भूल गये थे कि मैं श्रीविष्णु का अवतार हूँ। उन्हें भुला दिया गया था। किन्तु सर्व संसार के लिए वे एक पुरुषोत्तम राम थे। हम लोगों को सहजयोग में यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी भी देवता को जब हम अपना आराध्य मानते हैं तो हमारे अन्दर उसकी कौन सी विशेषताऐँ आयी हुई हैं? कौन से गुण हमने प्राप्त किये हैं । श्रीरामचन्द्र जी के तो अनेक गुण हैं। ये बचपन का जीवन आप सब यह जानते हैं और उनकी सब विशेषतायें आप लोगों ने सुन रखी है। वह खुद भी तो पुरूषोत्तम थे। उनका एक गुण यह भी था कि राजकारण में सबसे ऊँचा उन्होंने जनमत को रखा, न कि अपनी पत्नी और बच्चे का ख्याल किया। आजकल के राजकीय लोग गर इस चीज़ को यदि समझ लें तो वो नि:स्वार्थ हो जाएंगे , धर्मपरायण हो जाएंगे। श्रीराम की जो प्रतिमा है उसे आज तक किसी ने अपनाने का प्रयत्न नहीं किया। उनके भजन गा लेने से, उनके नाम से संस्थाएं तथा राम मंदिर बना लेने से क्या श्रीराम आपके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं? क्या आपके जीवन में उनका प्रकाश आ सकता है या नहीं ? यह सिर्फ सहजयोगी ही कर सकते हैं कि अपने अन्दर बसे हुए श्रीराम को अपने चित्त के प्रकाश में लाएं। वो अत्यन्त निर्पेक्ष थे। ऐसे तो सभी देवता लोग किसी भी पाप पुण्य से रहित होते हैं। जैसे कि श्रीकृष्ण ने इतने लोगों को मारा, श्रीराम ने रावण का वध किया। ये हमारे दुनियावी दृष्टि से हो सकता है कि पाप हो किंतु परमात्मा की दृष्टि से नहीं हो सकता। क्योंकि इन्होंने दुष्टों का नाश किया है, इन्होंने बुराई को हटाया। और इनको अधिकार है कि ये इस कार्य को करने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं वो करे। जैसे देवी ने राक्षसों का संहार किया है तो कोई कहेगा कि देवी ने पाप किया। परंतु उनका कार्य ही ये है कि वो राक्षसों का संहार करें और जो साधु हैं उन लोगों को संभालें। श्रीरामचन्द्र के जीवन में एक अहिल्योद्धार बहत बड़ी चीज़ है। उन्होंने, अहिल्या का उन्होंने उद्धार किया था । | क्योंकि उसके पति ने उसे शापित कर दिया था। उस जमाने में कोई भी स्त्री किसी भी तरह से वाम मार्ग में चली जाती थी तो उसका पति अगर साधु हो और उसकी स्थिति ऊँची हो, तो उसे शापित कर देता था। किंतु अहिल्या पर झूठा ही उन्होंने आरोप लगाया था और इस तरह से उसे भी उन्होंने पत्थर बना दिया था। तो श्रीराम ने उस अहिल्या का भी उद्धार कर दिया था। विशेषकर उनकी जो एक पत्नी के प्रति प्रेम की, उनका जो एक व्रत था वो बहुत समझने लायक है। हालांकि वो जानते थे कि सीताजी महालक्ष्मी स्वरूपा हैं वे स्वयं देवी है । किन्तु मनुष्य के | रूप में उन्होंने अपने पत्नी के सिवाय किसी और स्त्री की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा । जब हम राम की बात 6. धर्म के लिए श्रीरामचन्द्र और सीताजी ने एक दूसरे को त्याग दिया करते हैं तो हमारे अन्दर जो पतित्व है वो भी स्वच्छ होना चाहिए। अगर कोई स्त्री श्री राम के बारे में सोचती है तो उसको भी अपने पति के प्रति वैसी ही श्रद्धा होनी चाहिए कि जैसी सीता जी को अपने पति के प्रति थी। और उसी प्रकार पति को भी श्रीराम जैसे एक पत्नी व्रत होना चाहिए। सहजयोग में ये बात कठिन नहीं । स्त्री का मान रखना चाहिए। जब रावण सीताजी को उठा ले गये थे तो श्रीराम ने ये कर्तव्य समझा कि सीताजी को वहाँ से छुड़ाकर लाएं। पर जनमत को रखने के लिए महालक्ष्मी सीता को जिन्हें इतने वर्ष मेहनत करके वे उसे छुड़ा कर लाए थे, उन्होंने त्याग दिया। सीताजी स्वयं साक्षात् देवी थी उनको त्यागने का तो कोई विशेष परिणाम नहीं होने वाला था पर फिर भी श्री राम ने उन्हें त्याग दिया था ताकि लोग ऐसी बातें न करें कि जो जनहित के खिलाफ हो और उनका आदर्श किसी तरह से ऐसा न बन जाए कि जिससे लोग अपने यहाँ इस तरह की औरतों को पनपाएं, जिस पर भी लोग शक करते हैं। हालांकि वो निष्कलंका थी और देवी स्वरूपा, स्वच्छ और निर्मल थी। त्यागे जाने पर सीताजी ने भी श्रीराम का एक तरह से त्याग कर दिया। उन्होंने, सीताजी ने एक स्त्री के जैसे रामचंद्रजी का त्याग किया और | श्रीरामचन्द्र जी ने एक पुरुष के जैसे उनका त्याग दिया। धर्म के लिए श्रीरामचन्द्र और सीताजी ने एक दूसरे को त्याग दिया, सीताजी स्वयं ही पृथ्वी में समा गयी और फिर अन्त में श्रीराम जी ने भी अंत में सरयू नदी में अपना देह त्याग दिया। इस प्रकार इनका जीवन अत्यन्त घटनात्मक और बड़ा चमत्कारपूर्ण है। सारे जीवन में देखिये तो सीता और राम का आपस का व्यवहार और उनका एक दूसरे के प्रति श्रद्धामय रहना। हालांकि उन्होंने सीताजी का त्याग किया था पर सीताजी ने सोचा कि ये उनका परम कर्तव्य है और उन्होंने कभी उनकी बुराई नहीं की। अत: उन्होंने कभी उनकी बुराई नहीं की। और बड़ी सुगमता से अपने बच्चों को चलाया, उनको पनपाया, उनको बढ़ावा दिया। इस श्रीराम के जो दो बच्चे हुए, जिनको हम लव और कुश कहते हैं, वो भी एक भक्त स्वरूप, कहना चाहिए कि जो इस संसार में आए और उनको हम शिष्य की तरह से देख सकते हैं। ये शिष्य की द्योतक है ये और हमारे लिये भी शिष्य की एक शक्ति है कि जिससे हम किसी के शिष्य हो सकते हैं। शिष्य स्वरूप इन लोगों ने बहुत छोटे उम्र में धनुष विद्या सीख ली थी और इस छोटेपन में ही उन्होंने रामायण आदि और संगीत पर बहत ही कुछ प्रावीण्य पाया था। इसका मतलब ये है कि शिष्य को पूरी तरह से अपने गुरु को समर्पित होना चाहिए। ये शिष्य का जो स्वरूप है वो हमारे अन्दर भी उपस्थित है। और माँ जो कि एक शक्ति है, उसके प्रति वो पूरी तरह से समर्पित थे। उस वक्त श्रीराम से भी लड़ने के लिए वे तैयार हो गए, उनकी अपनी माँ के लिए। तो माँ को उन्होंने दनिया में सबसे ऊँची चीज़ समझी और उस माँ ने भी अपने बच्चों का पालना, उनको आश्रय देना, उनको धर्म में खड़ा करना और उनकी 7 पुरुषोत्तम २म पूरी प्रगति करना एकमेव कर्तव्य समझा। नहीं तो आज कल की पत्नियाँ तो रात दिन रोती रहेंगी कि मेरे पति ने मुझे छोड़ा, मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया। और जब पति मिल गया तो लड़ती रहेंगी उनसे हर दम और जब पति ने छोड़ दिया तो लड़ती रहेंगी हर दम। छोड़ दिया तो कोई बात नहीं, मेरे बच्चे हैं, जिनको मुझे सम्भालना है और इसके प्रति कोई भी ऐसी बात नहीं होनी चाहिए कि जिससे मेरे बच्चों का कुछ कम रह जाये ये एक सीताजी की एक विशेष जीवनी है कि उनकी वीरता और उनका साहस। ये हर स्त्री को अपने अन्दर बसाना चाहिये कि अगर पति से अगर विछोह भी हो गया और किसी तरह उनसे भी अगर हट गये तो भी पति के कारण अपना नुकसान नहीं कर लेना चाहिये। अपने बच्चों का दूर नुकसान नहीं कर लेना चाहिये। क्योंकि उनके लिए अपना जो कर्तव्य है वही परम चीज़ है। उस परम चीज़ पर अटूट रहना चाहिये। यही हमारे सहजयोग में, शक्ति में जो पाया है, उसे हर स्त्री को पा लेना चाहिए। श्रीराम का जीवन भी जैसे अत्यंत और निर्मल था और उन्होंने अपने पत्नी के लिए सब चीज़ त्याग दी थी। जब से उनकी पत्नी शुद्ध वनवास में रह गयी या जब उन्हें अकेला रहना पड़ा और जब उन्होंने उसका त्याग कर दिया तो उन्होंने भी दुनिया के जितने भी आराम थे, उन्हें छोड़ दिये। उसके लिए आप जानते हैं वो कुश (घास) पे सोते, जमीन पर सोते, नंगे पैर चलते और जैसे कपड़े पहन कर घूमते थे। ये सब कहानियाँ नहीं है। ये सत्य है। अपने भारत वर्ष में, साधु पुरुष दुनिया में भी ऐसे अनेक लोग हो गये हैं जिनका जीवन एक बहुत ऊँचे किस्म का रहा है और उन्होंने कभी ऐसी छोटी, ओछी बातें सोची नहीं है । पर ये सारे आदर्श हमारे देश में आने के बाद ये हो गया है कि हमारे अन्दर ढोंग आ गया है कि हम तो राम को मानते हैं। हमने राम का भजन कर लिया और हो गया। तो यह एक तरह का ढोंगीपना हो गया। जिन देशों में ऐसे आदर्श नहीं हैं तो वो कोशिश करते हैं कि हम आदर्श कैसे बने, हम कैसे अपने को ठीक करें? क्योंकि आप के सामने एक आदर्श हो गये हैं और अब हम तो श्रीराम नहीं हो सकते हैं। ये बन गये श्रीकृष्ण, अब हम श्रीकृष्ण नहीं बन सकते। ये बन गये वो बन गये और अब हम वो न ही बन सकते हैं। इस तरह की भावनायें हम ले लेते हैं। लेकिन अगर हमारे अन्दर श्रीराम हैं तो उनका प्रकाश हमारे चित्त में तो आ ही सकता है। हम क्यों नहीं इसे प्राप्त करें? हम उस स्थिति को जानने की क्यों न कोशिश करें जिस स्थििति में श्रीराम इस संसार में आए थे। एक सहजयोगी को ये विचार कर लेना चाहिए कि श्रीराम की स्थिति अगर हम प्राप्त कर लें तो अपने यहाँ का राजकारण ही खत्म हो जाएगा। अपने यहाँ की जितनी परेशानियाँ हैं ये सब खत्म हो जायेंगी जिस दिन लोग ये ठान ले कि हम ही रामचंद्र जी जैसे हो गये। अपनी प्रजा का वे बिल्कुल निरिछ भाव से, विदेह रूप से वे लालन- पालन करते थे। और सब तरह की अच्छाइयाँ लोगों में आ जाये ऐसा पूरी तरह से वे प्रयत्न करते थे। उनमें धर्म आ जाए, पहली चीज़ उनकी उन्नति हो जाए, उनके अन्दर शिक्षा हो जाये, महान आदर्शों की स्थापना हो, ऐसा उन्होंने पूरे समय प्रयत्न किया और उस लिये अपना जीवन बहत आदर्शमय बनाया। गर समझ लीजिए कि अगर कोई आपको कुछ कह रहा है और वह स्वयं ही वैसा नहीं है, तो आप को क्यों उसके प्रति श्रद्धा होगी? स्वयं आदर्शों पर 8. पहले औरतों का सीताजी के जैसे शुद्ध आचरण का होना चाहिए | न चलने वाले व्यक्ति के प्रति कभी श्रद्धा हो ही नहीं सकती और आप उसके गुण ले ही नहीं सकते। हमेशा कहते हैं कि हम उनको मानते हैं लेकिन मैं देखती हूँ कि वो उसके बिल्कुल उल्टे होते हैं। जो रामभक्त होते हैं वो सबसे बड़े चोर पॉलिटिशन होते हैं या फिर उनकी दस बीबियाँ होती हैं। तो फिर आप राम को कैसे मानते हैं ? से लोग बहुत इसी प्रकार जीवन में एक सहजयोगी का कर्तव्य क्या होता है कि हमें भी इन देवताओं के प्रकाश को हमारे चित्त में लाना चाहिये। हर चीज़ की ओर उसी तरह से देखना चाहिए कि श्रीराम, श्रीराम क्या करते थे ? ऐसा अगर प्रश्न आता तो सीताजी क्या करती ? सीताजी क्या कहती ? सीताजी का क्या बर्ताव होता ? इस तरह से अगर कोई सोचे तो वह घर की गृहलक्ष्मी हो ही जाएगी। आप तो जानते हैं कि सीताजी ने अनेक जन्म लिये| उसमें से एक गृहलक्ष्मी का स्थान जो है वह फातिमा बी के रूप में था। वह घर में घूंघट में, परदे में रहती थी, पर सारा धर्म का कार्य उस शक्ति ने किया था। उसके लिये जरूरी नहीं कि आप बाहर जाकर के बहुत लेक्चर्स दे और बहुत बड़े कोई लीड़र हो जाये। ये कोई जरूरी नहीं है। आप घर में रह करके ये कार्य कर सकते हैं। अपने बाल-बच्चे हैं, जान पहचान हैं, इष्ट मित्र हैं उन सबमें आप सहजयोग फैला सकते हैं। लेकिन पहले आप में ये चीज़ आनी चाहिए । उसके बाद ये सब कार्य होने के बाद आप समाज में भी आ सकती हैं। पर पहले औरतों का सीताजी के जैसे शुद्ध आचरण का होना चाहिए। शुद्ध आचरण में पहली चीज़ है ममता और प्यार। अपने पति के साथ जब वो जंगलों में रहती थीं अपने पति के साथ तो कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरा पति पैसा नहीं कमाता, वो नहीं करता (जैसा हमारे यहाँ औरतों की आदत होती है) ये चीज़़ नहीं खरीदता, वो नहीं खरीदता । वो जंगल में है तो मैं भी जंगल में हूँ। वो जो खाते हैं वो मैं खाती हूँ। उनके खाने से पहले मैं खा लेती हूँ, ऐसा तो नहीं, न मैं करती हूँ। वो खा लें, उनको खाना खिला दें, अपने देवर को खाना खिला दें, उसके बाद मैं खा लूगी। आज औरतें ये सोचती हैं कि हमारे ऊपर बहुत ज्यादा दबाव आ जाता है। ये बात नहीं है। स्त्री पृथ्वी तत्व जैसी होती है। इसमें इतनी शक्ति है कि ये बहुत दबाव को खींच सकती है। सारी दुनिया को देखिये। कितने फल-फूल आदि, पत्तियाँ पृथ्वी सब दे रही है। इसी प्रकार इस पृथ्वी तत्व के जैसे ही हम स्त्रियाँ हैं। हमारे अन्दर इतनी शक्तियाँ हैं, कि हम सब तरह की चीज़ अपने अन्दर समा सकते हैं और अपने अन्दर से हम हमेशा प्रेम की वर्षा दे सकते हैं। ये हमारे अन्दर परमात्मा ने शक्ति दी है। स्त्री शक्ति स्वरूपिणी है, शक्ति का सागर है और उसके सहारे पुरुष जो है वो अपने कार्य को करता है। एक जैसे कि जिसको कहते हैं कि | पुरुषोत्तम २म पोटेंशिअल और एक काइनेटिक, तो पोटेन्शिअल तो स्त्री है और पुरूष जो है वो काइनैटिक है। लेकिन पुरूष को देख करके कि अन्त: शक्ति गति-मूलक (काइनैटिक), पुरुष ज्यादा दौड़ सकता है, उसे देख यदि औरत भी दौड़ने लग जाये तो ठीक नहीं। उसको तो बैठने की जरूरत है। दोनों की क्रियाएं अलग-अलग हैं। और उस क्रिया में दोनों को समाधान होना चाहिए। दोनों ही क्रिया में स्त्री बहत पनप सकती है और जब समय आता है तो स्त्री पुरुषों से भी ज्यादा काम कर सकती है। आपको मालूम होगा कि महाराष्ट्र में ताराबाई नाम की सत्रह साल की एक विधवा थी, शिवाजी की वो छोटी बहू थी। सब हार गए औरंगजेब से और इसने औरंगजेब को हरा दिया। सत्रह साल की उमर में और उसकी कब्र बना दी औरंगाबाद में। तो आप समझ सकते हैं कि जब औरत अपनी शक्ति को पूरी तरह से समा लेती है, तो वो बड़ी प्रचंड हो जाती है। और अगर वो इधर-उधर अपनी शक्ति को फेंकती रहे, कहीं लड़ने में गई, कहीं झगड़े में गई, बुराई में गई, ओछेपन में गई, तो उसकी शक्ति सारी नष्ट हो जाती है। स्त्री जो है, वो इतनी शक्तिशाली है कि वो चाहे तो पुरुषों से कहीं अधिक कार्य कर सकती है। पर सबसे पहली चीज़ है कि वो अपनी शक्ति का मान रखे। तो स्त्री का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, गौरवपूर्ण है। स्त्री बहुत लज्जाशील और बहुत सूझबूझ वाली होनी चाहिए। जैसे आदमी लोग गाली बकते हैं, बकने दों। औरतें नहीं बक सकती हैं। आदमी लोगों का बहुत झगड़ा हुआ तो मारपीट कर लेंगे। औरतें नहीं कर सकती। इनका कार्य जो है वो शान्ति देने का है, इनका कार्य है संरक्षण का। इनका काम है लोगों को बचाने का। जैसे कि एक ढाल है। ढाल तलवार का काम नहीं कर सकती और तलवार ढाल का काम नहीं कर सकती। पर ढाल बड़ी या तलवार? ढाल ही बड़ी है। जो तलवार का वार सहन कर ले वो बड़ी कि तलवार बड़ी? एकाद बार तलवार भी टूट जाएगी पर ढाल नहीं टूटती। इसलिए औरतों को भी अपनी शक्ति में समा लेना चाहिए । इस शक्ति की सबसे बड़ी जो धुरा है वो है नम्रता। नम्रतापूर्वक अपनी शक्ति को अपने अन्दर समा लेना चाहिए। यह कार्य कठिन नहीं है सहजयोगियों के लिये| सहजयोगियों के लिये बिल्कुल ही यह कार्य कठिन नहीं। मैं देखती हूँ कि बहत सी सहजयोगिनी औरतें इतनी बकवास करती हैं। कहीं जाएंगी तो आदमियों से बक-बक करेंगी। तो आदमियों से ज्यादा बात करने की कोई जरूरत नहीं। बेकार की बकवास करने की जरूरत ही क्या है? औरतों में भी बेकार की बकवास करने की कोई जरूरत नहीं। सहजयोग में मैंने देखा है कि जैसे आदमी लोग सीखते हैं, वैसे ही औरतों को भी सीखना चाहिए। सहजयोग क्या है? इसके चक्र क्या हैं? कौन से चक्र से आदमी चलता है? कौन से चक्र से उसकी क्या दशा होती है? इसका पूरा ज्ञान होना चाहिए। ये सब आदमी सीखेंगे तो औरतें पीछे रह जाएंगी| ये सब औरतों को सीखना चाहिए । अब पुरुषों की बात करना है तो श्रीरामचन्द्रजी का हमारे सामने आदर्श है। मुझे लगता है कि इस मामले में मुसलमानों ने बड़ा गजब किया हुआ है। मैं उनको बूरा नहीं कहती । उनके देश में ये बात नहीं है। जैसे कि आप रियाद जाएं तो कोई मुसलमान आपके ऊपर आँख उठा कर नहीं देखेगा । कोई औरत होगी, उसकी बड़ी इज्जत करेंगे। रास्ते से अगर कोई औरत जा रही है तो वो मोटर रोक लेगा। वहाँ औरतों की इतनी इज्जत होती है। और 10 'युत्र ना्या पूज्यन्ते तत्र मन्ते देवता:' हमारे यहाँ जो है पता नहीं कि क्या है कि इतना इनका ऐसा उलटा असर पड़ा है कि हम लोग सोचते हैं कि औरत एक बिल्कुल उपभोग की वस्तु है। हर औरत की तरफ देखना चाहिए। उनकी गर्दन मुड़ जायेगी पर देखते रहेंगे। हर स्त्री की ओर नज़र डालना महापाप है। और सहजयोग में निषिद्ध माना जाता है। बिल्कुल निषिद्ध है । इससे आपकी आँख खराब हो जाएगी, पहली चीज़़। सहजयोग में तो और भी नुकसान हो जाएगा और सहजयोगी को और भी | तो अन्धे भी हो सकते हैं। जब आँखें इधर- उधर घूमती रहेगी तो इससे नुकसान हो जायेगा। अगर वो नहीं हुआ सबसे बड़ा जो नुकसान है वो आपका चित्त है। आपका जो चित्त है वो इधर-उधर विचलित हो रहा है। चित्त अगर विचलित हो गया तो आत्मसाक्षात्कार का क्या फायदा होगा? अगर चित्त एकाग्र नहीं होगा तो वह कार्यान्वित नहीं हो सकता। एकाग्र चित्त ही कार्यान्वित होता है। एकाग्रता को साध्य करना चाहिए। अब विदेश में ये बीमारी आदमियों को बहुत ज्यादा है। आरतों को भी है, पर आदमियों को ज़्यादा है। जो विदेशी सहजयोगी हैं वो उसे बहुत अच्छी बात नहीं समझते। उसे वो गंदी चीज़ समझते हैं, जब से सहजयोग में आये हैं। मुझ से पुछा, 'माँ, इसका इलाज बताओ।' मैंने कहा कि तुम लोग सिर्फ जमीन की तरफ देख के चलो और तीन फुट से ऊपर देखने की जरूरत नहीं है। तीन फुट तक सब अच्छी चीजें दिखायी देती हैं। फूल, बच्चे सब तीन फुट तक होते हैं। उससे ऊपर देखने लायक है ही क्या? तो इस तरह से अपने चित्त को वश में करना चाहिए। श्रीराम का मान यदि आपके मन में है तो आपको उनके जैसे अपने चित्त को वश में करना चाहिए। अपनी पत्नी से भी यही समझाना चाहिए कि तुम शक्ति हो और हम तुम्हारी इज्जत करते हैं। पर तुम्हें उसके योग्य भी होना चाहिए। जैसे 'यत्र नाय्या पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता:' अर्थात् जहाँ स्त्री पूजी जाती है वहीं देवता रहते हैं। पर वो पूजनीय भी होनी चाहिए। किसी गन्दी औरत, दुष्ट या राक्षसी स्वभाव की औरत की कोई पूजा करेगा क्या? तो जो औरत पूजनीय है वहीं पर उसकी पूजा होनी चाहिये और वहीं पर देवता रहते हैं। सबसे पहले ये भी जान लेना चाहिए कि ये हमारे बच्चों की माँ है। गर पति अपनी औरत को बच्चों के सामने डाँटना, फटकारना शुरू कर दे, उसकी कोई इज्जत न रखे तो कभी भी बच्चे उसका मान नहीं करेंगे। स्त्री को भी पति का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। औरत चाहती है कि मेरी चले, आदमी चाहता है कि मेरी चले। आदमियों को चलाना अगर औरत को आ जाये तो कभी भी झगड़ा न हो। लेकिन समझ लेना चाहिए कि आदमी को चलाना बहुत ही आसान चीज़ है क्योंकि वह बिल्कुल बच्चों जैसे होते हैं । ये उनको चलाना बहुत ही आसान है। उनका स्वभाव बच्चों जैसा होता है, भोले-भाले होते हैं। उनको बेकार की बातों से परेशान करने से आप उन्हें चला नहीं सकते। लेकिन उनको भी एक बच्चों जैसे माफ कर दिया जाये। आदमी 11 पुरुषोत्तम २म बाहर जाते हैं, सबसे लड़ाई झगड़ा करते हैं, आफ़त उनकी रहती है। घर में आकर बीवी पर नहीं बिगड़ेंगे, बाहर वालों पर बिगड़ेंगे तो मार ही खायेंगे । चलो बिगड़े तो बिगड़े, तो चलो क्या है इसमें। इस तरह की स्त्री में भावना जब तक पति की तरफ नहीं होगी तब तक आपस में सामंजस्य नहीं आ सकता, प्यार व आनन्द नहीं आ सकता। लेकिन पति को भी चाहिए कि अपनी पत्नी को क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए इसका विचार रखें। लेकिन ये नहीं कि अब पत्नी है और कुछ गलत बात कहे या कोई गलत सलाह दे, उसपे जरूर पति को कहना चाहिए कि ये गलत है ये नहीं करना। लेकिन छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। और ये सहजयोगियों को बिल्कुल नहीं शोभा देता। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि सहजयोगी भी आपस में लड़ते रहते हैं। दो सहजयोगी एक स्थान पर ठीक से नहीं रह सकते। हर वक्त लड़ते रहते हैं और मैं तो सारे संसार को कहती हैँ कि हमें प्रेम से रहना है तो फिर हम सब कैसे प्रेम से रहेंगे बताओ। तो पहली चीज़ है कि पति को पूरी तरह पत्नी के प्रति जागरूक रहना चाहिए और ये जान लेना चाहिए कि सारे संसार की औरतें जो हैं वो आपके लिए माँ और बहन के बराबर हैं। सहजयोग में आकर भी यदि व्यक्ति की स्थिति स्वच्छ नहीं हुई तो वो कहीं भी नहीं हो सकता है। अभी वो सहजयोगी नहीं हैं। हमारे संस्कृति की जो विशेषता है कि स्त्री -पुरुष का आपस में मेल-जोल बस भाई - बहन तक का होना चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता। मैं देखती हूँ कोई औरत है फौरन बक- बक करना शुरू कर देगी। औरतों के साथ नहीं बैठेगी। आदमियों के साथ बैठेगी। ऐसे ही कुछ आदमी भी होते हैं स्त्रीलम्पट। उन्हें औरत अगर दिखाई दी कोई तो बस लग गये उसके साथ। कोई उनको अपना आत्मसम्मान ही नहीं होता है और इसको हम पुरुषार्थ समझते हैं। अरे भई , पुरुषोत्तम तो श्रीराम हैं, वे पुरुषार्थी हैं। वो तो वहाँ बैठे हुए हैं जिन को कहना चाहिए कि पुरुषार्थी हैं और जो बिल्कुल ही पाताल में हैं वो भी अपने को पुरुषार्थी समझते हैं। इसमें कौनसा पुरुषार्थ है? या तो फिर श्रीराम को मत मानो। एक शैतान को मानो। अगर श्रीराम को मानते हो तो उनके आदर्शों (आयडियल्स) पर चलो। और इसी कारण अपने यहाँ अपने बच्चे भी खराब हो रहे हैं, औरतें भी खराब हो रही हैं फिर भी मैं भारतीय संस्कृति की विशेषता कहूँगी कि औरतों ने बहुत सम्भाल लिया है। अगर अमेरिकन जैसी औरतें होती तो आपको सब पहुँचा देती ठिकाने। अगर | आदमी की दो-तीन शादियाँ हो गईं तो वो झोली लेके घूमता है। और औरत की दो-तीन शादियाँ हो गईं तो वह महल खड़े कर देती है वहाँ। पर वहाँ है क्या? वहाँ के समाज की ही अवस्था क्या है? बच्चे घर छोड़ कर भाग जाते हैं। अपने हिन्दुस्तान की औरतों की यह विशेषता है कि वो अपने घर को सम्भालती हैं। अपने बच्चों और पति को सम्भालती हैं। पर ये चीज़ बदल 12 ु डा उ ा रही है। वो भी देख रही हैं कि अगर हमारा आदमी ऐसा है तो हम क्यूँ न करें। वो अगर दस औरतों के साथ दौड़ता है तो हम पन्द्रह आदमियों के साथ जाएंगे। वो गन्दे काम करता है और नर्क में जा रहा है तो मैं उससे पहले नर्क में जाऊंगी। धर्म की धूरा जो है वो स्त्रियों के हाथ में है। स्त्री को सम्भालना है, स्त्री को ही पति को धर्म के रास्ते पर लाना है। समझा बुझा कर के उसको अपने पास रखना है। ये स्त्री का बड़ा परम कर्तव्य है। उसके अन्दर ये शक्ति है। अगर वो ही स्वयं धर्म पर बैठी हुई है, और धर्म में सबसे बड़ा धर्म है क्षमा। क्षमा करना यदि स्त्री में न आये तो वो कोई सा भी धर्म करे उससे कोई फायदा नहीं। पहली चीज़ उसमें क्षमा होनी चाहिए। बच्चों को क्षमा करना चाहिए, पति को क्षमा करना, घर के नौकरों को आश्रय देना ये स्त्री का कर्तव्य है। 13 पुरुषोत्तम २म तो कुछ ऐसा आ जाता है अपने को कि, जो हम कार्य कर रहे हैं ये राम भी नहीं कर सकते थे, कृष्ण भी नहीं कर सकते थे, ईसामसीह भी नहीं कर सकते थे। अगर राम होते तो बस वो सबको मार ही डालते थे कि तुम औरतों के पीछे में भागते हो , तुम स्त्री लम्पट हो । ऐसे न जाने कितने लोगों को तुम अधर्मी हो , सब बेकार हो। तुम तुम खतम कर देते। दूसरे, अगर कृष्ण आते तो वो सुदर्शन चक्र चलाते, वो भी गड़बड़ हो जाती, ईसा आते तो हमको सूली (क्रुसीफिकेशन) पर चढ़ा देते । ये तो बहुत ही अच्छा है, एक बार में क्रुसीफिकेशन हो जाता। रोज रोज के क्रुसीफिकेशन से तो बच जाते। ये तो माँ ही कर सकती है। उसके अन्दर प्यार की शक्ति इतनी जबरदस्त है कि कोई भी चीज़ हो वो उसके प्यार की शक्ति के साथ पार हो जाती है। वो सब चीज़ उठा लेती है और उसके तरीके ऐसे प्यारे होते हैं कि फिर बच्चे उसको बुरा नहीं कहते। कोई बात हो गई, समझ लो कि कुछ गडबड़ हो गई तो माँ ही जानती है किस तरह से टाल देना है और फिर डाँट भी सकती है। क्योंकि बच्चे जानते हैं कि माँ हमें प्यार करती है। वो हमारे हित के लिए कहती है। वो उसका बुरा नहीं मानते। गर बाप डाँट दे तो हो सकता है कि बच्चे उनसे मुँह | तो निर्वाज्य है वो कुछ नहीं चाहती अपने लिए। वो ये चाहती है कि मोड लें, पर माँ से नहीं। क्योंकि माँ का प्यार मेरे बच्चे ठीक हो जायें। मेरी सारी शक्तियों को प्राप्त करें। अपने अन्दर जो भी कुछ मेरा अच्छा है वो सब प्राप्त करें। ऐसे अगर माँ समझे तो बच्चें ठीक हो जाएं। पर बहुत सी माँयें बहुत ही आगाऊ होती हैं। सब चीज़ में घुसने जायेंगे। सब चीज़ में बोलते जायेंगे। उसका पति तो बेचारा चुपचाप बैठा रहेगा, ये ही देवी जी सामने खड़ी होंगी। ऐसे जब होता है तो बच्चे बिगड़ जायेंगे। तब ऐसे संसार में रह कर औरतों को ऐसे बच्चे पैदा भी हो सकते हैं कि जो बहुत ज़ज्बाती भी हो सकते हैं और हानिकारक भी हो सकते हैं। तो स्त्री को पीछे रहना चाहिए और पति को आगे रखना चाहिए। ठीक है, जो कुछ भी है पति करे, पत्नी पीछे से उसकी मदद करते रहे । उसकी शक्ति का स्रोत ही स्त्री है। ये समझ लेना चाहिए कि एक स्त्री को कितना शुद्ध होना चाहिए। कितनी मेहनत करनी चाहिए। आप कहेंगे कि माँ सब स्त्रियों पर छोड़ देती हैं, क्योंकि मैं जानती हूँ आप शक्तिशाली हैं। मैं जानती हूँ कि हमारे अन्दर बड़ी शक्तियाँ हैं, क्योंकि मैं माँ हूँ। देखिये मेरे ऊपर सबने छोड़ दिया कि आप सब लोगों को पार करो। इतनों की बीमारियाँ ठीक करो, फिर लोगों को पार कर दो। ऐसे किसी ने काम किये थे ? एक अहिल्या का उद्धार कर दिया फिर हो गया। उसके बाद किसका उद्धार किया ? ईसामसीह ने कुल मिलाके इक्कीस लोगों को ठीक किया। अभी तो मैंने इक्कीस हज़ार लोगों को ठीक किया होगा। दुनियाभर में घूमो, फिरो, सबका ये काम करो, वो करो, ये दुनिया भर में भ्रमण करना, सब चल रहा है, पर कुछ नहीं लगता क्योंकि वो शक्ति प्यार की है। वो प्यार की शक्ति मेरे से आगे दौड़ती है। मैं घर से बाहर निकलने से पहले सोचती हँ कि बन्धन ले लूं कि न जाने कैसे लोग आ कर के मेरे पैर पकड़ ले। लेकिन भूल जाती हूँ और जैसे ही ऐसे वैसे आदमी मेरे सामने आते हैं, मैं झट से उनकी सब परेशानियाँ अपने अन्दर खींच लेती हूँ। तो प्यार ऐसा है कि वो अपने आप ही कार्यान्वित करता है। तो मैं उसको जानती हूँ कि ये प्यार है और इसीके सहारे से सारा कार्य हो सकता है। मैं नहीं बुरा मानती। जो भी हो रहा है, ठीक है। तकलीफ 14 जब तक एक रथ के पहिये एक जैसे नहीं होते तो रथ घूमता ही रहता है। होगी, तो होने दो, कोई हर्ज नहीं, ये सब माँ ही कर सकती है और इसलिए विशेष मेरा आपके तरफ रूख है कि आप समाधान और स्थिरता के साथ कार्य करें। और पुरुषों को भी चाहिए कि वे अब अपनी औरतों की पूरी सहायता करें, उनको समझें, उनका आदर करें और जब तक एक रथ के पहिये एक जैसे नहीं होते तो रथ घूमता ही रहता है। रथ आगे नहीं जायेगा। दोनों एक ही जैसे होने चाहिए पर एक बांये को है, एक दांये को है। बांये वाला दायें में लगाओ तो वो लगेगा नहीं और दायें वाला बायें में नहीं लगेगा। इसलिये ये दो तरह के चक्के हैं और ये दोनों तरह के चक्के चल रहे हैं इसलिए क्योंकि ये एक जैसे भी हैं और एक जैसे हैं भी नहीं। एक जैसे माने ऊँचाई में, लम्बाई में, बढ़ाई में, लेकिन इनका कार्य जो है वो अलग-अलग है। इसी प्रकार हमारे भी जीवन में होता है। श्रीरामचन्द्रजी ने केवल पति-पत्नी का ही विचार नहीं किया। बच्चों का और अपने कुटुम्ब व्यवस्था का ही विचार नहीं किया, अपने भाई, बहन, माँ, बाप सब का विचार किया। जैसे एक मनुष्य को होना चाहिए। और उसके बाद उन्होंने समाज का भी विचार रखा। जन का विचार रखा, देश का विचार रखा, राज्य का भी विचार रखा। जैसे कि एक मनुष्य की सारी गतिविधियाँ जो होती हैं उन सारी गतिविधियों में उन्होंने दिखाया कि मनुष्य को किस तरह से होना चाहिए। जो मनुष्य अपनी पत्नी को इतना प्यार करता था और जो जानता था कि वो स ाम्पूर्णतया शुद्ध है उसको उन्होंने त्याग दिया। आजकल तो पत्नी के नाम ये बनाओ, ये देना है, वो देना है और अगर कहे कि गरीब को थोड़ा दो, पैसा दो, तो नहीं देंगे। नहीं तो अपने बच्चों को दो| अपने भांजों को दो| ये तो राजकीय लोगों की बीमारी है। और इन्होंने अपनी पत्नी का जो कि स्वयं साक्षात् देवी स्वरूपा अत्यंत शुद्ध थी उसका तक त्याग कर दिया। तब फिर हमें सोचना चाहिए कि ये हमारा ममत्व है, रिश्तेदारी है कि मेरा घर, ये मेरा है। विदेश में पहले पति-पत्नी का कुछ ठीक नहीं होता। अब जो वो ठीक हो गया है सहजयोग में तो अब वो पत्नी ही सब कुछ हो गई। हमारे यहाँ कम से कम चार-पाँच लीडर पत्नी की वजह से निकल गये हैं । क्योंकि उनकी पत्नी ठीक नहीं थी, पति ठीक थे। पत्नी पढ़ा-पढ़ा कर के उनके विचारों का सत्यानाश कर दिया। कम से कम पाँच लोग पत्नी की वजह से बाहर निकल गये। सो, यहाँ भी में कहूँगी कि पत्नी को समझना चाहिए कि सहजयोग क्या है। और उसमें अपना क्या स्थान है। और पति को भी पत्नी से ऐसे मामले में जरा सा भी नहीं सहमत होना चाहिए | उससे कहना चाहिए कि, 'तुम बहुत ज्यादा बोलती हो-बहुत ज्यादा दौड़ती हो। तुम चुप बैठो। तुम किसी काम की नहीं हो। तुम्हारे चक्र ठीक नहीं है।' जब पति इस तरह से उसके साथ इस तरह का व्यवहार करेगा तभी तो न वो ठीक होगी। सहजयोगी 15 पुरुषोत्तम २म में आने पर भी अपनी कुछ सूक्ष्म अपनी जो खराबियाँ हैं वो चिपक जाती हैं। उधर आपको बहत अच्छे से ध्यान देना चाहिए। तो आज के श्रीराम के इसमें हमें हनुमान जी का भी विशेष विचार करना चाहिए कि हनुमानजी किस तरह से एक श्रीराम के दास थे और किस तरह से उनकी सेवा चाकरी में लगे रहते थे। और हर समय उनके ही सेवा में रहने से ही वो जानते थे कि उनका पूरा जीवन सार्थक हो जायेगा। उनके जैसे वृत्ति भी सहजयोग में हमें अपनानी चाहिए। इसका ये मतलब नहीं कि आप मेरे लिए खाना बना-बना कर भेजें। बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि मैं तो खाना खाती नहीं हूं और मुझे खाना बना-बना कर के और भी आप लोग परेशानी में डाल देते हैं। तो क्या चीज़ चाहिए? सेवा | करने में तत्परता। हुनुमानजी क्या कोई खाना बना कर के भेजते थे क्या ? श्रीरामचन्द्रजी के लिए? दिल्ली वालों ने मुझे इतना परेशान किया है खाना बना-बना कर के कि मैंने अब शर्त लगा दी है कि अगर तुम लोग खाना बनाओगे तो फिर मैं आऊंगी ही नहीं। जो चीज़ करनी है वो करो। ये तो बेकार की चीज़ है कि जो आदमी खाना नहीं खाता उसे जबरदस्ती आप खाना खिला रहे हैं। या कोई कुछ चीज़ ले कर के चला आता है। कोई चीज़ की जरूरत नहीं है तुम्हारी माँ को। सारा भरा पड़ा हुआ है। मैं तंग आ गई हूँ इन सब चीज़ों से । इतना मैं कहती हूँ मेरे लिए कुछ चीज़ मत लाओ। बस फूल ही लाओ। और फूल भी जब लगाओगे तो हजारो रूपये के मत लगाओ। जो कुछ करना है वो संतुलन में। जैसे माँ को पसन्द आये, माँ आप की सीधी साधी औरत है। तो क्या करना है इन सब चीज़ों का। तो खास हनुमान जी से सीखना है कि सेवा में तत्परता क्या होती है। मेरी तो ऐसी खास सेवा नहीं है। पर जो मेरी सेवा करनी है तो सहजयोग की सेवा करो। जो सहजयोग में आप सेवा करेंगे, वही मेरी सेवा है । कितने लोगों को आपने साक्षात्कार दिया। कितनों को आपने पार कराया? जैसे कोई आ जाता है प्रोग्राम में, 'तेरे अन्दर ये भूत है, तेरे अन्दर ये भूत है' बस उसके पीछे पड़ गये। वो भाग गए। मैंने एक साहब से पूछा कि आप इतने अच्छे से पार हो गये थे आप सहजयोग से क्यों भाग गये। तो कहने लगा, 'किसी सहजयोगी ने बताया कि तुम्हारे अन्दर तीन भूत बैठे हैं।' मैंने कहा कि, 'आपने विश्वास क्यों कर लिया ?' कहने लगे, 'वो तो वहाँ के बड़े महारथी लग रहे थे । दौड़ दौड़ के बता रहे थे कि आपके अन्दर तीन भूत हैं। अब वो कौन साहब थे ये तो पता नहीं, पर ये तो भाग गये। सो, जी से हमें सीखना क्या है कि तत्परता, 'राम काज करने को तत्पर'। काज कौन सा है हमारा ? | हनुमान मेरा काज है सहजयोग । मेरा कार्य है सहजयोग। कुण्डलिनी का जागरण करना। लोगों को पार करना। उनके अन्दर शांति लाना, प्रेम लाना, प्रेम की बातें करना। उनसे अपने सहजयोग के बारे में सारे चक्र आदि का वर्णन करना। उनको जो चाहिए वो समझाना। इसका ये मतलब नहीं कि भाषण देना शुरू कर दें। दो-दो घंटे भाषण देते हैं फिर हम आपका भाषण भी नहीं सुन पाते। लोगों को सहजयोग पर भाषण देना बहुत अच्छा लगता है। उनका माईक ही नहीं छूटता। एक बार पकड़ लिया तो छूटता नहीं। यह भी एक नई बीमारी है। तो समझ लेना चाहिए कि काहे को 16 ये ठीक कने का तरीका क्या है ये सीख लेना चाहिए। और बन्धन लेकर के ठीक करना चाहिए लोगों को। इतना भाषण देना है। माँ के इतने भाषण हैं वो ही सुन लें। तो अब जब भी आप लोगों का कोई प्रोग्राम हो उसमें आप चाहें तो एक मेरा वीडियो लगा दो या चाहे तो मेरा एक टेप सुना दो। उसके बाद एक कागज पेन्सिल दे दो। लिखना है लिखो कि कोई प्रश्न हो तो बता दो। और उसके बाद में उनकी जागृति कर दी जिसपे तुमको जो कुछ और उनसे कहना कि अगली बार आपको जो कुछ समस्या है उसको आप लिख कर लाईये। किसी को बीमारी है, किसी को तकलीफ है। अब ऐसे भी लोग हैं कि जो एक आदमी है वो अब अगर कलकत्ते भी आएगा तो किसी को ठीक करने। अब उसे रूस बुला रहे हैं। एक ही आदमी हनुमान जैसे दौड़ता रहता है इधर से उधर ठीक करने के लिए, इधर से उधर, उधर से इधर। आप सब लोग ठीक कर सकते हैं। सब औरतें ठीक कर सकती हैं। सब आदमी ठीक कर सकते हैं। पर कोई हाथ नहीं डालता। पता नहीं क्या बात है कि अभी तक एक ही आदमी सारे हिन्दुस्तान में है कि जो लोगों को ठीक कर सकता है। लण्डन में १५-२० लोग हैं कि जो लोगों को ठीक करते हैं। ये ठीक करने का तरीका क्या है ये सीख लेना चाहिए । और बन्धन लेकर के ठीक करना चाहिए लोगों को। उसके लिए क्या आप बाहर से बुलायेंगे लोगों को। सहजयोगियों को, अब जो आप बैज लगाकर के घूमते हैं, आप ठीक भी नहीं कर सकते हैं? फिर बैज उतार दो। अपने को भी नहीं ठीक कर सकते तो दूसरों को क्या ठीक करना। तो सबको ठीक करने की सबको शक्ति दे दी गई है। उसको आप लोग सीखें । उसमें निपुण बनें। बजाए इसमें कि कलकते कोई आए दूसरों को ठीक करने। इसमें हिम्मत की जरासी बात है, कुछ नहीं होने वाला तुमको। तुम न तो बीमार हो सकते हो न कुछ हो सकता है। जो लोग जितना सहजयोग में कार्य करेंगे उतने गहरे उतरेंगे। जैसे पेड़ जितना फैलेगा उतना ही गहरा उतरेगा। सहजयोग में और अवतरणों में बड़ा भारी फर्क है कि पहले उन्होंने कोई सामाजिकता से अध्यात्म नहीं किया था। ये शक्तियाँ किसी को दी नहीं थी। समाज के लिए मिली नहीं थी। एक आध आदमी को शक्तियाँ मिली थी। जैसे कि राजा जनक ने नचिकेता को आत्मसाक्षात्कार दिया। लेकिन अब तो आप सबके पास शक्तियाँ प्राप्त हैं। बस इसको ऐसा बढ़ाइये कि आपको कोई भी चीज़ की जरूरत ही न रह जाए। आप अपनी तबियत ठीक कर लीजिए दूसरों की तबियत ठीक कर लीजिए। आप सहजयोग समझ लीजिए । सब कुछ आपके पास है। लेकिन अभी भी आपका चित्त पता नहीं कहाँ घूम रहा है। आप लोग पता नहीं कि किस चीज़ के पीछे भाग रहे हो। अभी आप ने इस चीज़ को समझा ही नहीं है । सिर्फ वरदान के सिवाय कुछ है ही नहीं। आपको कोई चीज़ की कमी नहीं रह जायेगी। पर आप सहजयोग के लिए कुछ करे तो न! और नही भी करते हैं तो भी मिलता ही है। 17 पुरुषोत्तम २म जिसको देखता हूँ उसका बिज़नेस बढ़ गया है। किसी की नौकरी बढ़ गयी है। किसी का ये हो गया , किसी का वो सबको कुछ न कुछ मिलता ही जा रहा है। कोई भी उनको त्याग नहीं करना पड़ा। नहीं तो, मैं आपसे हो गया। कहँगी कि जब ये फ्रिडम का हुआ था कि इनको फ्री करना है, तो हम ही को लोगों ने इतना सताया है। बर्फ़ पर लिटाया, इलेक्ट्रिकल शॉक दिये। हमारे पिताजी कितनी बार जेल गये, हमारी माताजी कितनी बार जेल गयी थी। हमारा घर बिक गया, हमें झोपड़ी में रहना पड़ा। कितना कुछ सॅक्रिफ़ाइस किया। अरे वैसा तो कुछ करना ही नहीं है आपको पर सब लेना ही लेना नहीं होना चाहिए आपको। आपको कुछ देना भी चाहिये। गर एक दरवाजा खुला है तो दुसरा दरवाजा भी खोलना चाहिये। एक ही दरवाजा खोलने से कुछ नहीं होता है। इस चीज़ पर ध्यान देना चाहिये कि हमने कौन सा भला काम किया है। पर अब नेता गिरी के लिये बहत ही झगड़े हैं कि कौन नेता होगा। सब बने बनाया स्टेज है। आप को ये जान लेना चाहिये कि ये सब माँ का खेल है। जिस दिन आप गिर जायेंगे वहाँ से, आपको पता होना चाहिये। खास कर औरतों को तो ऐसे चक्कर में आना ही नहीं चाहिये। उनको फौरन ऊपर से नीचे गिरना पड़ेगा और आदमियों को समझ लेना चाहिये कि इसमें नेता वेता कोई नहीं है। ये सब माँ का बनाया हुआ खेल है और इस चक्कर में तो आना ही नहीं है। मैंने कहा कि, अच्छा चलो, लीड़र्स आ जायें पर असल में तो | कोई लिड़्स तो हैं ही नहीं। काय के लीड़र्स और काय का ये? सब एक खेल बनाया है माँ ने। सो ये लीड्ड्स कोई है ही नहीं । सब एक खेल बनाया है माँ ने। सिर्फ ये है कि देखा जा रहा है कि आप कितना तोल सकते हैं। गर आपको अहंकार चढ़़ गया तो गये आप काम से। वो फौरन दिखाई देगा। सहजयोग में कोई चीज़ छिपती नहीं है। सब चीज़ सामने आ जाती है। मैं कुछ कहूँ या ना कहूँ वो अपने आप मूँह पर काला लगा कर आ जाते हैं अपने आप| वो कहते हैं, कि हम लीड़र हैं और देखा कि सामने मुँह पर काला लगा कर आ गये। मैंने पूछा कि, ये क्या? तो कहने लगे कि, 'माँ, हमने ये खराब काम कर दिया है।' तो ये लीड्र पर और जिम्मेदारी आ जाती है कि आप और अच्छे और मीठे और नम्र और प्यारे बन जायें । और सब को मिला कर के, सब की पूछ कर के, सब को लेकर के चलें। अब ये सब चीजें श्रीरामचन्द्रजी के विशेष दिवस पर आपको मानना चाहिये कि उन्होंने जो कुछ भी जीवन में कर के दिखाया है उसका कुछ भी अंश हम कर के दिखायें तो माँ के जीवन को भी चार-चाँद लग जायेगा। उन्होंने इतने दिन वनवास किया। वनवास में रहे, जंगलों में रहे बगैर कुछ पहने घूमे, फिरे, कितनी मेहनत की । और फिर सिर्फ अपने पिता की आज्ञा मानने के लिये इन्होंने ये सब कार्य हुए किया। अब मेरी आज्ञा मानने के लिए आप लोगों को कोई वनवास जाने की जरूरत नहीं है। न ही आप को नंगे पैर रहने की जरूरत है, न ही भूखे रहने की जरूरत है। कुछ करने की जरूरत नहीं है । सब व्यवस्थित है। लेकिन सहजयोग में आपको लोगों को ठीक करना आना चाहिये। लोगों की बीमारियाँ ठीक करनी आनी चाहिये। और 18 तो पहली चीज़ है, कि नम्रता खो। मेरे प्रति नहीं, सबके प्रति। आपको सहजयोग के बारे में सब कुछ मालूम होना चाहिये। और सब से बड़ी जो जाननी चाहिये वो चीज़ है, कि सहजयोग प्रेम है। ये प्रेम की शक्ति है, जो कार्य कर रहा है और कोई नहीं है। और उसी से सब लोगों का भला हो सकता है। ये कोई एक आदमी के लिये नहीं । एक विशेष लोगों के लिये नहीं है। ये कोई एक देश के लिये नहीं है । ये है सारे विश्व के लिये। तो एक ये भी देखना चाहिये कि हमारा चित्त कैसा है। कहाँ जाता है। बार-बार अगर हमारा चित्त जा रहा है, तो उसका निरोध करना चाहिये, उसे रोकना चाहिये। उसमें आत्मा की शक्ति पूरी तरह से भरनी चाहिये और मनुष्य को एकाग्र हो कर के हर कार्य को करना चाहिये। भक्ति भाव से, प्रेम से जो करेगा , वो बहुत गहरा उतरेगा । गर नहीं तो ऐसे ही, कचरा बहत होता है। और कचरे का जो अंत होता है वो भी आप जानते हैं। तो आपको अगर कचरा बनना है और आप अपने को बहुत विशेष समझ रहे हैं कि हम तो बड़े अच्छे हैं, हम तो ये कर लेते हैं। हम तो वो कर लेते हैं। तो पहली चीज़ है, कि नम्रता रखो। मेरे प्रति नहीं, सबके प्रति । नम्रता से बात करो। और प्रेम से बात करो। देखना यही जो मनुष्य, आज जो मानव है, बेकार चीज़ है, वही सहजयोग में आते ही सब ओर कमल जैसे खिल जाता है। और उसका सुगंध चारो ओर फैलता है। लोग मुझे फौरन आकर बता देते हैं कि माँ ये आदमी तो कमाल का है! ये बस ऐसे ही है। आप लेग भी गर ऐसे ही सब काम करें तो मर्यादा पुरूषोत्तम को जैसे कहते थे कि 'बड़े कमाल के थे', ऐसे ही आपके लिये भी कहेंगे। सब से बड़ी चीज़ तो ये है कि मेरे लिये तो आप ही राम का मंदिर है और आप ही अपने अन्दर इस मंदिर को बनाये और उसकी पूजा हो और उसको सम्भाले, उसको देखें और अपने को आत्मसम्मान के साथ रखें। अपने आप में आत्मसाक्षात्कार का फायदा भी उठाना है और उसी के साथ उसकी पूरी इज्जत और भक्ति होनी चाहिये कि अब हम आत्मसाक्षात्कारी हैं और अब हम ऐसा कैसे कर सकते हैं। हम योगी हैं। हम नहीं कर सकते हैं। हमसे नहीं हो सकता है। ये गलत काम है और आप देखियेगा कि एकदम आशीर्वाद आपके साथ आ जायेगा। एकदम उसी वक्त! ये तो रोकडा देवी नाम रख दिया है लोगों ने मेरा, कि बस माँ हमने तय कर लिया और बस आ गया। इतना इसका परिणाम, इसका लाभ सबको हो रहा है। सिर्फ उस लाभ के अनुसार आप भी इस दुनिया को लाभ दें। जैसे कि श्रीराम ने अपनी सारी शक्तियों को लगा दिया कि जन का हित हो। संसार में एक आदर्श पुरूष की एक मूर्ति बन जाये, कि जिसको कि लोग देखें। जिस वक्त ये हमारे अन्दर घटित हो जायेगा, आपको आश्चर्य होगा कि आप सब के सब कहाँ से कहाँ पहुँच जायेंगे। आपके अन्दर कोई बीमारियाँ 19 पुरुषोत्तम २म ० ० নে आपके अन्दर कोई बीमारियाँ नहीं रहनी चाहिये। सब बीमार्याँ चली जानी चाहिये। नहीं रहनी चाहिये। सब बीमारियाँ चली जानी चाहिये । जो भी आप की आदते हैं, उसको आप बदल लीजिए। जो जरूरत है वो खाईये। जितना जरूरत है आप बोलिये। सब को आप देखते रहें और इसके लिये आप मनस, जिसको कहते हैं, कि इंट्रोस्पेक्ट करना। अंतर निरीक्षण करना। जिससे कि देखते रहना कि ये मैं क्यों कर रहा हूँ, वो क्यों कर रहा हूँ? इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं सहजयोगी हूँ। मेरा ये दिमाग़ कहाँ जा रहा है। रूक जाओ। इस तरह से करने से ही आप ध्यान में हो जाएंगे और आपकी कुण्डलिनी आप से संतुष्ट होकर के आपको आशीर्वाद प्रदान करती है। फिर आप कहोगे कि माँ ये क्या है। लेकिन जब आप इसमें फ़िसल पड़ियेगा, फिर आप जानियेगा कि ये चीज़ क्या है। बस इसमें फ़िसल पड़ना है। तभी तक बस मेहनत करना है। आज मैंने कहा था, कि श्रीरामचन्द्रजी का तो बारह बजे का जन्म हुआ था तो आराम से ही पूजा होने दो। श्रीरामचन्द्रजी के पूजा में तो कोई खास काम नहीं है और इतनी लम्बी चौड़ी पूजा भी नहीं है, लेकिन इसमें समझने की बात है। क्योंकि वो मनुष्य स्वरूप जो है वो अपने अन्दर जो मनुष्यता है जिससे हम चीज़ को समझते हैं, जिससे हमारे बुद्धि में, जिज्ञासा में और हमारे विचारों में परिवर्तन आ जायेगा। वो चीज़ श्रीराम है। श्रीराम के ही माध्यम से हमारे विचार बदल सकते हैं। उन्हीं के माध्यम से हमारा स्वभाव बदल सकता है क्योंकि हमारे लिए वो एक आदर्श हैं। उनके आदर्श तक पहुँचने के बाद ही आप दूसरे आदर्शों तक पहुँच सकते हैं क्योंकि वो मनुष्य के आदर्श हैं। कितनी बड़ी चीज़ है, कि परमात्मा मनुष्य बनकर इस संसार में आए कि इनके लिए हम आदर्श बन जाएं। उन्होंने सब विपत्तियाँ उठाईं, आफतें उठाईं, दिखाने के लिए कि कोई सी भी विपत्ति और आफत आती है तो मनुष्य को अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। विश्व धर्म नहीं छोड़ना चाहिए और जो आपका योग है उसमें बंधे रहना चाहिए। आप सबको हमारा अनन्त आशीर्वाद! 21 22 शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ कळवे, ३१/१२/१९९७ शक्ति का पूजन माने सारे ही देवताओं के शक्ति का आज पूजन होने वाला है। इन शक्तिरयों के बिगड जाने से ही हमारे चक्र खराब हो जाते हैं और उसी कारण शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि जो भी हमारी समस्यायें हैं वो खड़ी हो जाती हैं। इसलिए इन शक्तियों को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए। कहा जाता है कि, 'देवी प्रसन्नो भवे' । 23 शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ आज हम लोग शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। शक्ति का मतलब है पूरी ही शक्तियाँ, और किसी एक विशेष शक्ति की बात नहीं है । ये पूरी शक्तियाँ हमारे हर एक चक्र पर अलग-अलग स्थान पर विराजित है। और इस शक्ति के बगैर किसी भी देवता का कार्य नहीं हो सकता है। जैसे आप जानते हैं कि कृष्ण की शक्ति राधा है और राम की शक्ति सीता है और विष्णु की लक्ष्मी। इसी प्रकार हर जगह शक्ति का सहवास देवताओं के साथ है। और ये देवता लोग शक्ति के बगैर कार्य नहीं कर सकते हैं। वो शक्ति एक मात्र है। आपके हृदय चक्र में बीचो-बीच जगदम्बा स्वरूपिणी विराजमान है। ये जगदम्बा शक्ति बहुत शक्तिमान है। उससे आगे गुजरने के बाद आप जानते हैं कि कहीं वो माता स्वरूप और कहीं वह पत्नी स्वरूप देवताओं के साथ रहती है। तो शक्ति का पूजन माने सारे ही देवताओं के शक्ति का आज पूजन होने वाला है। इन शक्तियों के बिगड़ जाने से ही हमारे चक्र खराब हो जाते हैं और उसी कारण शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि जो भी हमारी समस्यायें हैं वो खड़ी हो जाती हैं। इसलिए इन शक्तियों को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए । कहा जाता है कि , 'देवी प्रसन्नो भवे' । देवी को प्रसन्न करने से न जाने क्या हो जाये ! अब कुण्डलिनी के जागरण से इस शक्ति को एक विशेष और एक शक्ति मिल जाती है। इन शक्तियों में एक विशेषता और होती है कि सारे ही सर्वव्यापी शक्ति जो हैं, जो परम चैतन्य है, जो आदिशक्ति की शक्ति है उससे इसकी एकाकारिता एकदम से हो जाती है। उस एकाकारिता के कारण इसके अन्दर वो शक्ति आ जाती है। इन छोटी-छोटी विभक्त शक्तियाँ जो हैं, कि जिनको विभक्त शक्तियाँ कहना चाहिये, उसमें पूरी तरह से एकत्रित, एकाकारित शक्ति का संचार हो जाता है। माने ये कि गर समझ लीजिए कि आप की हृदय की शक्ति कमजोर हो जाती है, तो उसका सम्बन्ध जब इस परम चैतन्य से हो जाता है, तो वो निर्बल शक्ति, शक्तिशाली हो जाती है और उसका संदेश सारे शक्तियों के पास पहुँच जाता है कि अब कोई फिक्र करने की बात नहीं है। अब ये शक्ति जो है वह प्रबल हो गयी है। वह शक्ति जो है वो स्त्री स्वरूप है और देवता जो हैं वो पुरुष स्वरूप है। सो, स्त्री का मान रखना, स्त्री का आदर करना, गृहलक्ष्मी को गृहलक्ष्मी की तरह रखना आदि बहुत जरुरी बाते हैं। जो हमारे यहाँ जो पुरुष हैं उनको सीखना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि औरतें उनको लेक्चर झाड़ते रहे या उनसे बिगड़ते रहे। औरतों को तो गृहलक्ष्मी के स्वरूप होकर के अपने पति, अपने बच्चे, अपने घर-द्वार सब की सेवा करनी होती है। उसको तो एक ही काम होता है, पति को तो हजारो काम होते हैं और वो उसे ठीक से निभाया करें, उसको ठीक से सम्भाले । ये 24 शक्ति.... सबसे बड़ी बात यह है कि घर की गूहलक्ष्मी जो है वो घर की शक्ति है। बहुत ही जरूरी है । लेकिन पति का कार्य होता है कि अपनी पत्नी को दवी स्वरूप माने । अपने पत्नी को घर की शक्ति माने। और उसके साथ जो सम्बन्ध हो, वो निश्चल और शुद्ध हो। मनुष्य कभी-कभी यह सोचने लग जाता है कि वो जैसे भी चाहे, वो चले और ठीक है क्योंकि वो तो पुरुष है। ये उसको बड़ी गलतफहमी है। इस तरह से करने से उस पर जो संकट आने हैं वो आते हैं और पत्नी कितने भी वो संकट झेल लें तो भी उसका कुछ कह नहीं सकते हैं। क्योंकि अगर आप घर के स्त्री को सतायेंगे तो वहाँ पर देवताओं का रमण नहीं हो सकता है। घर की औरतों को जिद नहीं करनी चाहिये। पति को खुश रखना चाहिये। घर द्वार को ठीक रखना चाहिये। ये तो बात सही है, पर सबसे बड़ी बात यह है कि घर की गृहलक्ष्मी जो है वो घर की शक्ति है। इसलिये उससे एक तरह की बड़ी गहरी एकाकारिता साध्य करनी चाहिए। जब यह बिबूना हो जाता है तो औरत भी एक तरह से समझदारी छोड़ के और नाराज हो जाती है। कभी - कभी बहुत ज्यादा विस्फोटक होती है। कभी झगड़ा करती है। उससे बच्चों पर बूरा असर आता है और फिर समाज टूटने लग जाता है। समाज जब टूटता जायेगा तो बच्चे भी टूटते जाएंगे |। उनके अन्दर भी गलत-गलत चीज़ें आ जाएंगी और वो भी रास्ते पर नहीं आएंगे। और जो घर की जो डिसिप्लिन नहीं होगी उसके बच्चे खराब हो जाएगे। उसका समाज खराब हो जायेगा। आज विलायत में क्या हो रहा है। वहाँ की स्त्री इसके जिम्मेदार नहीं समझती है कि उसको समाज को बनाये रखना है, समझदारी से रहना है। और पूरा समय लड़ती रहती है। लड़ने, झगड़ने से कभी भी घर में शांति नहीं आ सकती है। शांति लाने के लिये क्या करना है? पति से सुझाव करना है। उससे बात करनी है कि आखिर, क्या बात है? क्यों न हम दोनों प्रेम के साथ रहे । जिससे हमारे बच्चे ठीक हो जाये। परदेश में कुछ भी सीखने का नहीं है क्योंकि उनका समाज बिल्कुल विचलित हो गया है। एक-एक औरत है वहाँ आठ-आठ शादी करती है और रईस हो जाती है। उसको बस पैसे की लालच है। वो अपनी सामाजिक स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं है। वो यह नहीं सोचती है कि हमारा समाज, मेरे सर पर बैठा हुआ है। आज भी हिन्दुस्थान का समय आज इतना बिगड़ा नहीं है। उसका कारण है कि मातायें अच्छी है। पर माताओं को भी जबरदस्ती नहीं करनी चाहिये। उसे समझाना चाहिये, उससे दोस्ती करनी चाहिए और उनको अपने बराबर समझ कर के और ठीक रास्ते पर रखना चाहिये । 25 शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ गर हमारा समाज ठीक हो जाये तो जो दुविधाओं में हम पड़े हुए हैं, जो हमारे, जो हम सुनते हैं। कि खून खराबा हो रहा है, बॉम्ब फट रहे हैं, फलाना हो रहा है। इस तरह से आशंकित जीवन जो हमारे ऊपर लग गया है उसका कारण है, इन लोगों की माँये। उनकी माँओं ने गर इन बच्चों को ठीक से रखा होता तो आज वो इस तरह से बेकाबू नहीं होते। इस तरह से गंदे काम नहीं करते। उनको एक तरह से ऐसा जीवन मिल जाना चाहिए कि जो अत्यंत पवित्र हो और अपनी पवित्रता को वो हमेशा माने और उसकी स्वच्छता रखे। क्योंकि जब पवित्र जीवन होगा तभी आपकी शक्ति जो है, वो चलेगी नहीं तो शक्ति खत्म हो जायेगी। तो यही सोचना चाहिये कि शक्ति का आधार पवित्रता है और उसमें जब पवित्रता नहीं रह जायेगी तो शक्ति जहाँ की तहाँ बैठ जायेगी और आप भी निशक्त हो जायेंगे । अमेरिका जैसे देश में मैं देखती हूँ कि बच्चे एकदम निशक्त हैं। कहते हैं कि ६५% लोग अमेरिका में अब या तो बीमार पड़ जायेंगे या पागल हो जायेंगे। उसका कारण है कि घर में माँ का प्यार, माँ का दुलार, जो मिलना था वो ठीक से नहीं मिला है। और माँ का प्यार और भी ऐसा कुछ होना चाहिए कि जिससे बच्चे खराब न हो जाये। उस प्यार-दुलार में एक ही दुलार विचार रहना चाहिये कि हमारा बच्चा जो है वो इस तरह का बने कि एक श्रेष्ठ नागरिक हो जाये । एक श्रेष्ठ मानव हो जाये और एक श्रेष्ठ सहजयोगी हो जाये । इस दृष्टि से आप अपने बच्चों को अगर ट्रैनिंग देंगे तो अपना समाज एकदम ठीक हो सकता है और उसके लिए भी ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। थोडे देर अगर बच्चे मेडिटेशन कर ले तो बस काम हो जायेगा। पर अगर बच्चों को आपने छूट दे दी तो न जाने आज कल का जमाना इतना खराब है कि बच्चे कहीं से कहीं बहक सकते हैं। इसलिये आवश्यक है, कि आप जो औरतें अपने को सोचती हैं, कि हम लक्ष्मी हैं, फलाना हैं, ढिकाना है, सबसे पहले आप समाज का आधार है। समाज की ओर पुरुष की दृष्टि नहीं होनी चाहिए और होती भी नहीं है । उधर औरतों की होनी चाहिए। इसलिये मैं हमेशा कहती हैँ कि सहजयोग में औरतें कमजोर हैं, आदमी नहीं। इसका कारण मैं भी नहीं समझ पाती क्योंकि मैं भी एक औरत हूँ। औरतों को ध्यान -धारणा और सहजयोग के बारे में सब जानना बहुत ही जरूरी है। क्योंकि औरतों के ही कारण हम आज समाज को ठीक कर सकते हैं। आदमियों का तो चल ही रहा है मामला । कहीं उनका राजकारण है, कहीं उनकी अर्थव्यवस्था है, ये है, वो है, उससे आपको कोई मतलब नहीं है। आप अपने बच्चों को ठीक करिये। और उसके लिये आप भी रोज ध्यान करें। आप भी आदर करें, आप भी गहरे उतरें। गहराई लिये कितनी औरते हैं और जब कभी मिलती भी हो तो भी अपना ही रोना लिये बैठे हुए रहती है। इसलिये आज मैं कह रही हैँ कि गर आप शक्ति हैं तो आप शक्ति स्वरूपा होईये और 26 शक्ति.... आज मैं कह रही हूँ कि गर आए शक्ति हैं तो आप शक्ति स्वरूपा होईये शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ उससे जो समाज का भला करना है वो करिये। उससे आपके देश का, अनेक देशों का कल्याण हो सकता है। और देशों के सामने बड़ा भारी उज्ज्वल उदाहरण हो जायेगा। लोग देख कर सोचेंगे कि वाह, क्या चीज़ हैं! इस तरह से अभी अपना देश हुआ नहीं है। अपने देश में अभी इतनी खराबियाँ अपनी औरतों में आ गयी है। एक तो फौरन, विदेशी चीज़ों से जल्दी प्रभावित होना। सिनेमा से प्रभावित होना और अपने को कच्चा दिखाना। बहुत जैसे कि सिनेमा की नायिका हैं, वैसे बनने की कोशिश करना। मैंने अभी सोचा था एक लड़की के बारे में कि उसकी शादी कर दें। तो खबर हुई कि वो शीशे के सामने तीन -तीन घंटे बैठे रहती है। तो फिर वो अपने बच्चों को कब देखेगी? अपने घर वालों को कब देखेगी ? वो इतने शीशे के सामने बैठने लायक है क्या? उसकी क्या इतनी जरूरत है? और इतना भी करके क्या शक्ल निकल रही है, वो भी देख लीजिये। हम तो पाँच मिनिट से ज्यादा नहीं बैठते हैं शीशे के सामने। पाँच मिनिट, वो भी काफ़ी हो गया। और इसी प्रकार फिर बढ़ते-बढ़़ते लड़कियाँ जो हैं वो गलत रास्ते पर जाती हैं। दूसरी वो लड़कियाँ जो बिगड़ गयी हैं, जो कान्वेंट में पढ़ी हुई हैं। जिन्होंने अंग्रेजी सीखी हुई है, वो इनको नीचा दिखाती है। उनके नीचा दिखाने से ये लोग भी उसी तरह से चलने लगते हैं। आपको चाहिये कि ऐसे लड़कियों को खुद आप सोचें कि 'ये कहाँ हैं?' ये तो बिल्कुल गुलामी में फँसी हुई हैं। आज ये कपड़ा आया, तो वो पहन लिया। कल दूसरा कपड़ा आया तो वो पहन लिया। घर में ढ़ेर के ढ़ेर लगा कर रख देंगे। इससे मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती है। खास कर के र्त्री की शोभा, इस तरह रोज के कपड़े बदलने से और फैशन करने से नहीं बढ़ती है शोभा ! अपनी शक्ति की जो भक्ति है वो करना चाहिये। उसको समझना चाहिये। उससे जो आपके अन्दर एक अप्रतिम विशेष आशीर्वाद मिलेगा, उससे आपके सारे ही प्रश्न किसी भी तकलीफ़ के बगैर ठीक कर सकते हैं। क्योंकि अब आपकी एकाकारिता इस सर्वव्यापी शक्ति से हो गयी है। तो लड़ने- झगड़ने से कुछ नहीं होने वाला है। शांति से ध्यान करके समझदारी रख कर अपने बच्चों को सीधे रास्ते पर लाना चाहिये। अब पति जो है, वो बहुत ज़्यादा समझ लीजिये कि राइट साइडेड हैं। बहुत सोच रहा है कि ये करूँगा, वो करूँगा। लेकिन औरत को उससे डर नहीं होना चाहिये । उसको ऐसा लगना चाहिये कि इसमें कैसे समाऊ? समा जाना। अपने घर, खानदान में उसको समा जाना चाहिये। जैसे कि समुंदर है, उसको एक तरफ से दबाओ तो वो दूसरे तरफ जा कर समा जाता है। इसी प्रकार स्त्री का हृदय होना चाहिये कि उसको एक तरफ से तकलीफ हुई तो उसको दूसरी तरफ से समा जाना चाहिये । 28 शक्ति..... भी हो, आप ऊपर उठ सकते हैं, तभी आप शक्ति हैं। सब से ऊपर, कुछ समाना माने क्या? समाना माने एकाकारिता । एकाकारिता लानी चाहिये। गर वो ये नहीं ला सकती तो फिर वो शक्ति नहीं है। पर वो झगड़ा करती है और सब से वाद-विवाद भी करती है, तो वो शक्ति नहीं है। शक्ति का मतलब ही ये है कि आप सब चीज़ में समा सकते हैं। सब से ऊपर, कुछ भी हो, आप ऊपर उठ सकते हैं, तभी आप शक्ति हैं। अगर आप उससे दब गये तो आप शक्ति नहीं हैं। आप निशक्त हैं । स्त्री के बारे में हमारे देश में अनेक बाते कही गयी है। और हम अपने भारत माता को भी, उसको भी हम, एक माँ के रूप में देखते हैं। हमारे यहाँ माँ बहत बड़ी चीज़ मानी जाती है। क्योंकि वो लड़के को गलत रास्ते से बचाती है। उसको सही तरीके से बड़ा करती है। उसको वो ऐसे बहुमूल्य गुण देती है कि जो उसको जिंदगी भर के लिये पूरे पड़ेंगे। ऐसी हालत में आप लोगों को यह सोचना चाहिये कि क्या हम अपने घर में शांति, सुख और आनन्द देते हैं? घर पर पति आया और आप लड़ाई-झगड़ा शुरू कर देते हैं। या, नहीं तो, बस रहने दो, रहने दो, रहने दो, इस तरह से एक अछुतापन। गर आप घर में आनन्द और प्रेम की श्रुष्टि करें तो आपके बच्चे ठीक से पले बढेंगे। उसी प्रकार पुरुषों का जो है हर समय अपनी बीबि से मज़ाक करना कोई बड़ी अच्छी बात नहीं है। नॉर्थ इंडिया में बहुत ज़्यादा है। बीबि का बड़ा मज़ाक करते रहते हैं, सुबह-शाम। उसमें कोई बड़ी भारी बुद्धि चातुर्य नहीं है। बेकार की बात है। अपने बीबि का गुण देखिये। जरूरी है कि उसको बखानिये। और उसको समझिये और उन गुणों से परिचित होकर के और उसका मान-पान सब रखना चाहिये। आज मैं इसलिये बात कह रही हूँ कि बहुत सी औरतें सहजयोग में आयी हैं लेकिन अभी उनमें कर्मकाण्ड बहुत है कि आज फलाना है, शुक्रवार है..... खास कर महाराष्ट्र में तो बहुत ज़्यादा है, बहुत ज़्यादा। आप स्वयं गुरु हो गये। आपको क्या कर्मकाण्ड करने की जरूरत है? सो, जो औरतें कर्मकाण्ड में फँसी हुई है, उनको बचाना है और उनको समझा के ये बताना है कि आप ही के अन्दर ये शक्ति है और इसी शक्ति से आप कार्यान्वित हो सकते हैं। आज मुम्बई शहर को देखते हुए मुझे लगता है कि इसमें परदेसी संस्कृति बहुत आ गयी है । बहुत ज़्यादा। हालांकि अपने जो सहजयोगी बाहर से जो आये हैं, उसे देखिये कि किस तरह से साड़ी वगैरे पहन कर के कायदे से बैठी है। सब पढ़ी -लिखी बड़े घर की लड़कियाँ हैं और कायदे से बैठी हैं। और हमारे यहाँ जो मैंने देखा है ये कि रात - दिन लड़कियों के शौक ही नहीं पूरे हो रहे 29 शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ हैं। होटलों में जाना, होटलों में खाना-वाना, आता-जाता तो कुछ नहीं है। और घूमने का शौक, दुनियाभर के शौक। एक शौक जो आ जाये कि सबको मैं आनन्द देने वाली शक्ति हूँ। उस शौक को आप पूरा करें, तो देखिये, कि समाज बदलेगा। और आदमियों को भी इस चीज़ का वखान करना चाहिये, मानना चाहिये और इसी तरह से स्त्री का मान रखने से ही हमारा समाज ठीक होगा। क्योंकि समाज र्त्री पर निर्भर है, पुरुषों पर नहीं। अब दूसरी बात जो हमें सोचनी है, वो ये है कि पूुरुषों के मामले में हम लोगों ने जो देखा है वो ये ही है कि उनके हाथ में राजकारण है और देश की अर्थव्यवस्थायें हैं। उस ओर भी उनको ध्यान देना चाहिये। अर्थव्यवस्था है, जैसी भी है, बूरी हो, जैसी भी हो, देश के लिए त्याग करना चाहिये। हमें तो आश्चर्य लगता है कि हम दो दुनिया में रह रहे हैं। या, जब हम छोटे थे, तब हमारे पिताजी जेल में, माताजी जेल में, तब घरों में कोई नहीं और हम लोग अच्छे बड़े घरों से निकल कर के झोपड़ियों में रहते थे और बहुत खुश थे। सारा पैसा, हमारी माँ के सब जेवर, सब गाँधी जी को उन्होंने दे डाला। इतनी त्यागमय प्रवृत्ति थी। हमारे पिताजी इतने त्यागमय थे, उनके पास इतने महंगे-महंगे सूट थे और जब वो काँग्रेस में आये तो उन्होंने चौराहे पर उनको सब जला दिया। वो लोग कुछ और ही थे। ऐसे तो आजकल कोई देखा ही नहीं जाता कि जो त्याग की बात करता हो। ज़्यादा तर लोग पैसा कैसे कमाना चाहिये? किसका जेब कैसे काटना चाहिये? बस यही सब सोचते हैं। वो लोग भी राजकारण में रहे हैं। वो लोग भी मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट थे और वो लोग भी कॉन्स्टिट्यूशन के मेम्बर थे, लेकिन उनमें सिर्फ त्याग की बुद्धि थी। मैंने तो देखा है कि, 'अच्छा, चलो ये कार्पेट रखा है न, अच्छा चलो बेच डालेंगे, पैसा मिलेगा, जो घर में रखा है, दे दो, क्या करने का है?' इतने त्याग वाले ऐसे लोग हमने देखे और उसके बाद आज कल ये जो भिखरी, जो सबके पैसे मार रहे हैं वो भी देख रहे हैं। सो बड़ा दुःख लगता है। इतना अंतर कैसे आ गया। पंचास साल में ये क्या हो गया? अपना देश ये कहाँ से, ये क्या हो गया है? इतनी लालसा, इतना पैसा, करोड़ों रूपये होंगे , फिर भी उनको समाधान नहीं है, तो भी वो किसी तरह से और जोड़ो, और जोड़ो करते हैं और सत्ता के पीछे में दौड़ेंगे। ये पुरुषों को समझना चाहिये कि हमने क्या त्याग किया है? हमारे फैमिली के लिये हमने क्या त्याग किया है? हमने अपने देश के लिये क्या त्याग किया है? हमने इस विश्व के लिये क्या त्याग किया है? कुछ तो हमने दिया कि ऐसे ही हम आये और सब दुनिया को लूट कर के हम चले गये हैं? अपने राजकारणी लोग ऐसा करते हैं । उनको मालूम नहीं कि ये कितना महान पाप है। ये तो जीवन इतना सा है। और इसके बाद का जो जीवन काटना होगा तो पता चल जायेगा सबको। जिन्होंने अपने देश के सारे पैसे लूट-लाट कर के 30 शक्ति..... त्याग की बुद्धि बहुत ही जबरदस्त है, वो बड़ी मदद करती है अपनी जेबें भरी है और फिर हमारा देश गरीब है। ऐसे चोर लोग अगर आपके राजकारणी नेता होंगे तो और क्या होगा? और अब फिर इलेक्शन आ रहा है और अब किसी भी चोर को वोट नहीं देना। सहजयोगियों को यह निश्चय कर लेना है कि चोर को वोट नहीं देना है । और जहाँ भी इश्तिहार लगा हो पर चोर को वोट न देना। इन्होंने हमारी सारी सम्पत्ति, सारा खजाना खाली कर दिया है, रिक्त हो गया है, है ही नहीं पैसा। सब खा खा कर के करोड़ो रूपये और चले गये हैं। उधर ध्यान ही नहीं है इन लोगों का। तो जिन्होंने आज तक चोरी की है और चोरी कर कर के अपने देश को इस तरह से जलील कर दिया है, ऐसे लोगों को आप लोग वोट न दीजिये। मैं कोई किसी एक पार्टी के तरफ से नहीं बोल रही हूँ। पर मैं हृदय से कहती हूँ कि अब आप लोगों को उन्हीं लोगों की मदद करनी चाहिये कि जो ईमानदार है। क्योंकि आप की माँ बहुत ईमानदार है। आप अगर बेईमान होते तो आपको सहजयोग नहीं मिल सकता था। इसलिये बहुत आवश्यक है, कि आप अपनी कीमत आँके कि आप क्या हैं। चलो दो-चार कम ही कपड़े ले लिये, चलो दो-चार जेवर कम ले लिये तो क्या होगा? किन्तु त्याग की बुद्धि बहुत ही जबरदस्त है, वो बड़ी मदद करती है और उसी से अपना देश बदलेगा। वो त्याग करने वाले लोग कहाँ गये हैं, पता नहीं सब जेल में गये और अब यहाँ हैं नहीं। दुनिया में हमें कोई दिखा ही नहीं है, बहुत ही कम, इसलिये एक चीज़ है कि हम सत्य पर चलें और हम किसी को भी लालच वरगैरे कुछ नहीं देंगे, कभी नहीं देंगे। ऐसे आप लोग तय कर लें तो बम्बई से सब अपना बिस्तर लेकर भाग जायेंगे| आप लोग काफ़ी हैं। और मैं आपको आज आज्ञा करती हूँ कि ऐसे चोरों को वोट न दें। 31 नि సాధ్ట్ т १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला हैं। और एक छलांग आपको मारनी होगी, जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। ३०/३/१९९० दिल्ली .इस समुद्र की समान ही अपना हृदय विशाल तब होगा जब हमारे अन्दर अत्यन्त नम्रता और प्रेम आ जाएगा। लेकिन अपना ही महत्व करना, अपने को ही विशेष समझना, ये जो चीज़ है इसमें सबसे बड़ी खराबी यह है कि परम चैतन्य आपको काट देगा। तुम्हे तुम्हारा महत्व है, तुम जाओ। और फिर जैसे कोई नाखून काट कर फेंक देता है इस तरह से आप एक तरफ फेंक दिए जाएंगे। जो मेरे लिए बड़ी दु:खदायी बात होगी। और दो-चार लोग और ऐसे निकल आए जो सोचे कि हम बहुत काम करते हैं, हमने ये कार्य किया, हमने वो कार्य किया, उनको फौरन ठण्डा हो जाना चाहिए। पीछे हटकर देखना चाहिए कि हम ध्यान करते हैं? हमारा ध्यान लगता है? हम कितने गहरे हैं? और फिर हम किसको प्यार करते हैं? किस-किस को प्यार करते हैं ? कितनों से दुश्मनी लेते हैं। सहजयोग में कुछ लोग बड़े गहरे बैठ गए हैं, बहुत गहरे आ गए हैं इसमें कोई शंका नहीं। और बहुत से अभी भी किनारे पर डोल रहे हैं। और फिर वो कब फेंक दिये जाएंगे कह नहीं सकते क्योंकि मैंने आपसे पहले ही बताया है कि १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है। और एक छलांग आपको मारनी होगी, जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। जैसे कि चक्का है, जब घूमता है तो एक बिन्दू पर आकर आगे सरक जाता है, इसी प्रकार सहजयोग की प्रगती भी सामूहिक होने वाली है और इसमें टिकने के लिए पहली चीज़ हमारे अन्दर पावित्र्य होना चाहिए जो नम्रता से भरा हो । वैसे तो आपने दुनिया में बहुत से लोग देखे हैं, जो अपने को बड़ा पवित्र समझते हैं। सुबह-शाम संध्या करते हैं और किसी को छूने नहीं देते। ये खाना नहीं खाएंगे, वो आएगा तो कहेंगे कि तुम दूर बैठो, उनको छू दिया तो उनकी हालत खराब। ये पागलपन है, अगर आप एकदम स्वच्छ हैं, पवित्र हैं तो आपको किसी को छने में, बात करने में, अपवित्रता आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि आपका स्वभाव ही शुद्ध करने का है। आप हर चीज़ को ही शुद्ध करते हैं तो आप जिससे मिलेंगे आप उसी को शुद्ध करते जाएंगे| उसमें डरने की कौनसी बात है ? उसमें किसी को ताड़ने की कौन सी बात है? उसमें कानाफूँसी करने की कौनसी बात है? तो ये तो लक्षण एक ही है कि आपकी स्वयं की पवित्रता कम है। अगर आपकी पवित्रता सम्पूर्ण है, तो उस पवित्रता में भी शक्ति और तप है और वो इतना शक्तिशाली है कि वो कोई सी अपवित्रता को भी खींच सकता है। जैसे मैंने कहा, कि हर तरह की चीज़ समुद्र में एकाकार हो 33 जाती है। अब दूसरे लोग हैं, जो सिर्फ अपनी ही प्रगती को सोचते हैं| वो ये सोचते हैं कि हमें दूसरे से क्या मतलब ? हम अपने कमरे में बैठ कर माँ की पूजा करते हैं। उनकी आरती करते हैं, उनको मानते हैं और चाहते हैं कि हमारी उन्नति हो जाए। हमें दुनिया से कोई मतलब नहीं और दूसरों से कटे रहते हैं। ऐसे लोग भी बढ़ नहीं सकते क्योंकि आप एक ही शरीर के अंग -प्रत्यंग हैं। समझ लीजिए कि एक अंगुली ने अपने को बाँध लिया और कहेगी कि मुझे किसी और से कोई मतलब नहीं, अलग से रहँगी। ये तो अंगुली मर जाएगी। क्योंकि इसमें रक्त कहाँ से आएगा ? इसमें नस कैसे चलेगी? इसमें चेतना का संचार कैसे होगा ये तो कटी हुई रहेगी। आप एक बार इसे बाँध कर देखिए और पाँच दिन बाँधे रखिए। आप पाएंगे कि अंगुली काम ही नहीं करेगी। किसी काम की नहीं रह जाएगी। फिर आप कहेंगे, कि माँ मैं तो इतनी पूजा करता हूँ इतने मंत्र बोलता हूँ, मैं तो इतना कार्य करता हूँ, फिर मेरा हाल ऐसा क्यों हैं। क्योंकि आप विचलित हैं। ..बहुत से लोग सहजयोग के प्रचार के लिए बहुत कार्य करते हैं जिसे हम कहे कि पृथ्वी से समांतर चारो ओर फैलता वो लोग अपनी ओर नज़र नहीं करते वे उत्थान की गति को हुआ। नहीं प्राप्त होते हैं। बाह्य में वो बहुत कुछ कर सकते हैं। बाह्य में दौड़ेंगे, बाह्य में काम करेंगे, कार्यान्वित होंगे, सबसे मिलेंगे-जुलेंगे लेकिन अन्दर की शक्ति को नहीं बढ़ाते। बहुत से लोग हैं अन्दर की शक्ति की ओर बहुत ध्यान देते हैं, लेकिन बाह्य की शक्ति की ओर नहीं। तो उनमें संतुलन नहीं आ पाता। जब लोग बाह्य की शक्ति की ओर बढ़ने लग जाते हैं, तो अन्दर की शक्ति क्षीण हो जाती है। क्षीण होते होते ऐसे कगार पर पहुँच जाते हैं कि फौरन अहंकार में ही डूबने लगते हैं। वे ये सोचते हैं कि हमने देखिए कितना सहजयोग का कार्य किया । हम सहजयोग के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं। और फिर ऐसे लोगों का नया जीवन शुरू हो जाता है, जो कि सहजयोग के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं। वो अपने को सोचने लगते हैं कि हम एक बड़े भारी अगुआ हैं। उनका बहुत महत्व होना चाहिए। हर चीज़ में वो कोशिश करेंगे कि हमारा महत्व होना चाहिए। इसके बाद हालात देखें तो उनको कोई बीमारी हो गयी, पगला गए या कुछ बड़ी भारी आफ़त आ गयी। तो फिर कहते हैं कि, 'माँ हमने आपको तो पूरी तरह समर्पित किया था तो यह कैसे हो गया ?' 34 ৯ आपको जान लेना होगा कि सत्य आपके चरणों पर नहीं गिरने वाली] यदि आपसत्यको प्राप्त करनाचाहते है तो आपको सत्य के केदमों में गिरना होगा। (य.पू.श्रीमाताजी, निर्मल योग १९८३) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफमेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in ০০৩ पूजी में आने से पहले अपने चक्रों को साफ करें तथा ध्यान करें नहीं तो मुझे कष्ट होती है। पूजा के मध्य लोगों को घड़ी नहीं देखनी चाहिए। प.पू.श्रीमातीजी, ३१.३.१९९५ ---------------------- 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी मार्च-अप्रैल २०१४ हिन्दी ह ७. ज ५ 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-1.txt २ु मानव की बुद्धि में बहुत से सन्देह उठते हैं। पहला सन्देह, जो कि आम है, ये है कि, 'श्रीमाताजी कौन हैं? मैं आपको बताना चाहती हूँ, कि बिना आत्मचक्षु खोले आप मुझे नहीं समझ सकते| और मुझे समझने का प्रयत्न भी आपको नहीं करना चाहिए। पहले अपने आत्मचक्षु खोलें। प.पू.श्रीमाताजी, निर्मल योग १९८३ 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-2.txt इस अंक में पुरुषोत्तम राम (रामनवमी पूजा) ..४ शक्ति का मतलब है पूरी ही शक्तियाँ ...२३ १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है (उपदेश) ...३३ 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-3.txt पुरुषोत्तम २म ाम (रामनवमी पूजा) कलकत्ता, २५.३.१९९१ श्रीराम की जो प्रतिमा है उसे आज तक किसी ने अपनाने का प्रयत्न नहीं किया। उनके भजन गा लेने से, उनके नाम से संस्थाएं तथा राम मंदिर बना लेने से क्या श्रीराम आपके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं? क्या आपके जीवन में उनका प्रकाश आ सकता है या नहीं? यह सिर्फ सहजयोगी ही कर सुकते हैं कि अपने अन्दर बसे हुए श्रीराम को अपने चित्त के प्रकाश में लाएं। वो अत्यन्त निर्पेक्ष थे। 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-5.txt पुरुषोत्तम २म आप जानते हैं कि हमारे चक्रों में श्री राम बहुत महत्वपूर्ण स्थान लिए हुए हैं। वो हमारे राइट हार्ट पर विराजित हैं। श्रीराम एक पिता का स्थान लिये हुए हैं, इसलिये पिता के कर्तव्य या प्रेम में कुछ कमी रह जाये तो ये चक्र पकड़ सकता है। सहजयोग में हम समझ सकते हैं कि राम और सब जितने भी देवतायें हैं, जो कुछ भी शक्ति के स्वरूप संसार में आये हैं, वो अपना अपना कार्य करने आये हैं। उसमें श्रीराम का विशेष रूप से कार्य है। जैसे कि सॉक्रेटिस ने कहा हुआ है कि संसार में बिनोवेलंट किंग आना है। उसके प्रतीक रूप श्रीरामचन्द्रजी इस संसार में आये हैं। श्रीराम पूरी तरह से मनुष्य रूप धारण कर के आये थे। वे ये भी भूल गये थे कि मैं श्रीविष्णु का अवतार हूँ। उन्हें भुला दिया गया था। किन्तु सर्व संसार के लिए वे एक पुरुषोत्तम राम थे। हम लोगों को सहजयोग में यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी भी देवता को जब हम अपना आराध्य मानते हैं तो हमारे अन्दर उसकी कौन सी विशेषताऐँ आयी हुई हैं? कौन से गुण हमने प्राप्त किये हैं । श्रीरामचन्द्र जी के तो अनेक गुण हैं। ये बचपन का जीवन आप सब यह जानते हैं और उनकी सब विशेषतायें आप लोगों ने सुन रखी है। वह खुद भी तो पुरूषोत्तम थे। उनका एक गुण यह भी था कि राजकारण में सबसे ऊँचा उन्होंने जनमत को रखा, न कि अपनी पत्नी और बच्चे का ख्याल किया। आजकल के राजकीय लोग गर इस चीज़ को यदि समझ लें तो वो नि:स्वार्थ हो जाएंगे , धर्मपरायण हो जाएंगे। श्रीराम की जो प्रतिमा है उसे आज तक किसी ने अपनाने का प्रयत्न नहीं किया। उनके भजन गा लेने से, उनके नाम से संस्थाएं तथा राम मंदिर बना लेने से क्या श्रीराम आपके अन्दर प्रवेश कर सकते हैं? क्या आपके जीवन में उनका प्रकाश आ सकता है या नहीं ? यह सिर्फ सहजयोगी ही कर सकते हैं कि अपने अन्दर बसे हुए श्रीराम को अपने चित्त के प्रकाश में लाएं। वो अत्यन्त निर्पेक्ष थे। ऐसे तो सभी देवता लोग किसी भी पाप पुण्य से रहित होते हैं। जैसे कि श्रीकृष्ण ने इतने लोगों को मारा, श्रीराम ने रावण का वध किया। ये हमारे दुनियावी दृष्टि से हो सकता है कि पाप हो किंतु परमात्मा की दृष्टि से नहीं हो सकता। क्योंकि इन्होंने दुष्टों का नाश किया है, इन्होंने बुराई को हटाया। और इनको अधिकार है कि ये इस कार्य को करने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं वो करे। जैसे देवी ने राक्षसों का संहार किया है तो कोई कहेगा कि देवी ने पाप किया। परंतु उनका कार्य ही ये है कि वो राक्षसों का संहार करें और जो साधु हैं उन लोगों को संभालें। श्रीरामचन्द्र के जीवन में एक अहिल्योद्धार बहत बड़ी चीज़ है। उन्होंने, अहिल्या का उन्होंने उद्धार किया था । | क्योंकि उसके पति ने उसे शापित कर दिया था। उस जमाने में कोई भी स्त्री किसी भी तरह से वाम मार्ग में चली जाती थी तो उसका पति अगर साधु हो और उसकी स्थिति ऊँची हो, तो उसे शापित कर देता था। किंतु अहिल्या पर झूठा ही उन्होंने आरोप लगाया था और इस तरह से उसे भी उन्होंने पत्थर बना दिया था। तो श्रीराम ने उस अहिल्या का भी उद्धार कर दिया था। विशेषकर उनकी जो एक पत्नी के प्रति प्रेम की, उनका जो एक व्रत था वो बहुत समझने लायक है। हालांकि वो जानते थे कि सीताजी महालक्ष्मी स्वरूपा हैं वे स्वयं देवी है । किन्तु मनुष्य के | रूप में उन्होंने अपने पत्नी के सिवाय किसी और स्त्री की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा । जब हम राम की बात 6. 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-6.txt धर्म के लिए श्रीरामचन्द्र और सीताजी ने एक दूसरे को त्याग दिया करते हैं तो हमारे अन्दर जो पतित्व है वो भी स्वच्छ होना चाहिए। अगर कोई स्त्री श्री राम के बारे में सोचती है तो उसको भी अपने पति के प्रति वैसी ही श्रद्धा होनी चाहिए कि जैसी सीता जी को अपने पति के प्रति थी। और उसी प्रकार पति को भी श्रीराम जैसे एक पत्नी व्रत होना चाहिए। सहजयोग में ये बात कठिन नहीं । स्त्री का मान रखना चाहिए। जब रावण सीताजी को उठा ले गये थे तो श्रीराम ने ये कर्तव्य समझा कि सीताजी को वहाँ से छुड़ाकर लाएं। पर जनमत को रखने के लिए महालक्ष्मी सीता को जिन्हें इतने वर्ष मेहनत करके वे उसे छुड़ा कर लाए थे, उन्होंने त्याग दिया। सीताजी स्वयं साक्षात् देवी थी उनको त्यागने का तो कोई विशेष परिणाम नहीं होने वाला था पर फिर भी श्री राम ने उन्हें त्याग दिया था ताकि लोग ऐसी बातें न करें कि जो जनहित के खिलाफ हो और उनका आदर्श किसी तरह से ऐसा न बन जाए कि जिससे लोग अपने यहाँ इस तरह की औरतों को पनपाएं, जिस पर भी लोग शक करते हैं। हालांकि वो निष्कलंका थी और देवी स्वरूपा, स्वच्छ और निर्मल थी। त्यागे जाने पर सीताजी ने भी श्रीराम का एक तरह से त्याग कर दिया। उन्होंने, सीताजी ने एक स्त्री के जैसे रामचंद्रजी का त्याग किया और | श्रीरामचन्द्र जी ने एक पुरुष के जैसे उनका त्याग दिया। धर्म के लिए श्रीरामचन्द्र और सीताजी ने एक दूसरे को त्याग दिया, सीताजी स्वयं ही पृथ्वी में समा गयी और फिर अन्त में श्रीराम जी ने भी अंत में सरयू नदी में अपना देह त्याग दिया। इस प्रकार इनका जीवन अत्यन्त घटनात्मक और बड़ा चमत्कारपूर्ण है। सारे जीवन में देखिये तो सीता और राम का आपस का व्यवहार और उनका एक दूसरे के प्रति श्रद्धामय रहना। हालांकि उन्होंने सीताजी का त्याग किया था पर सीताजी ने सोचा कि ये उनका परम कर्तव्य है और उन्होंने कभी उनकी बुराई नहीं की। अत: उन्होंने कभी उनकी बुराई नहीं की। और बड़ी सुगमता से अपने बच्चों को चलाया, उनको पनपाया, उनको बढ़ावा दिया। इस श्रीराम के जो दो बच्चे हुए, जिनको हम लव और कुश कहते हैं, वो भी एक भक्त स्वरूप, कहना चाहिए कि जो इस संसार में आए और उनको हम शिष्य की तरह से देख सकते हैं। ये शिष्य की द्योतक है ये और हमारे लिये भी शिष्य की एक शक्ति है कि जिससे हम किसी के शिष्य हो सकते हैं। शिष्य स्वरूप इन लोगों ने बहुत छोटे उम्र में धनुष विद्या सीख ली थी और इस छोटेपन में ही उन्होंने रामायण आदि और संगीत पर बहत ही कुछ प्रावीण्य पाया था। इसका मतलब ये है कि शिष्य को पूरी तरह से अपने गुरु को समर्पित होना चाहिए। ये शिष्य का जो स्वरूप है वो हमारे अन्दर भी उपस्थित है। और माँ जो कि एक शक्ति है, उसके प्रति वो पूरी तरह से समर्पित थे। उस वक्त श्रीराम से भी लड़ने के लिए वे तैयार हो गए, उनकी अपनी माँ के लिए। तो माँ को उन्होंने दनिया में सबसे ऊँची चीज़ समझी और उस माँ ने भी अपने बच्चों का पालना, उनको आश्रय देना, उनको धर्म में खड़ा करना और उनकी 7 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-7.txt पुरुषोत्तम २म पूरी प्रगति करना एकमेव कर्तव्य समझा। नहीं तो आज कल की पत्नियाँ तो रात दिन रोती रहेंगी कि मेरे पति ने मुझे छोड़ा, मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया। और जब पति मिल गया तो लड़ती रहेंगी उनसे हर दम और जब पति ने छोड़ दिया तो लड़ती रहेंगी हर दम। छोड़ दिया तो कोई बात नहीं, मेरे बच्चे हैं, जिनको मुझे सम्भालना है और इसके प्रति कोई भी ऐसी बात नहीं होनी चाहिए कि जिससे मेरे बच्चों का कुछ कम रह जाये ये एक सीताजी की एक विशेष जीवनी है कि उनकी वीरता और उनका साहस। ये हर स्त्री को अपने अन्दर बसाना चाहिये कि अगर पति से अगर विछोह भी हो गया और किसी तरह उनसे भी अगर हट गये तो भी पति के कारण अपना नुकसान नहीं कर लेना चाहिये। अपने बच्चों का दूर नुकसान नहीं कर लेना चाहिये। क्योंकि उनके लिए अपना जो कर्तव्य है वही परम चीज़ है। उस परम चीज़ पर अटूट रहना चाहिये। यही हमारे सहजयोग में, शक्ति में जो पाया है, उसे हर स्त्री को पा लेना चाहिए। श्रीराम का जीवन भी जैसे अत्यंत और निर्मल था और उन्होंने अपने पत्नी के लिए सब चीज़ त्याग दी थी। जब से उनकी पत्नी शुद्ध वनवास में रह गयी या जब उन्हें अकेला रहना पड़ा और जब उन्होंने उसका त्याग कर दिया तो उन्होंने भी दुनिया के जितने भी आराम थे, उन्हें छोड़ दिये। उसके लिए आप जानते हैं वो कुश (घास) पे सोते, जमीन पर सोते, नंगे पैर चलते और जैसे कपड़े पहन कर घूमते थे। ये सब कहानियाँ नहीं है। ये सत्य है। अपने भारत वर्ष में, साधु पुरुष दुनिया में भी ऐसे अनेक लोग हो गये हैं जिनका जीवन एक बहुत ऊँचे किस्म का रहा है और उन्होंने कभी ऐसी छोटी, ओछी बातें सोची नहीं है । पर ये सारे आदर्श हमारे देश में आने के बाद ये हो गया है कि हमारे अन्दर ढोंग आ गया है कि हम तो राम को मानते हैं। हमने राम का भजन कर लिया और हो गया। तो यह एक तरह का ढोंगीपना हो गया। जिन देशों में ऐसे आदर्श नहीं हैं तो वो कोशिश करते हैं कि हम आदर्श कैसे बने, हम कैसे अपने को ठीक करें? क्योंकि आप के सामने एक आदर्श हो गये हैं और अब हम तो श्रीराम नहीं हो सकते हैं। ये बन गये श्रीकृष्ण, अब हम श्रीकृष्ण नहीं बन सकते। ये बन गये वो बन गये और अब हम वो न ही बन सकते हैं। इस तरह की भावनायें हम ले लेते हैं। लेकिन अगर हमारे अन्दर श्रीराम हैं तो उनका प्रकाश हमारे चित्त में तो आ ही सकता है। हम क्यों नहीं इसे प्राप्त करें? हम उस स्थिति को जानने की क्यों न कोशिश करें जिस स्थििति में श्रीराम इस संसार में आए थे। एक सहजयोगी को ये विचार कर लेना चाहिए कि श्रीराम की स्थिति अगर हम प्राप्त कर लें तो अपने यहाँ का राजकारण ही खत्म हो जाएगा। अपने यहाँ की जितनी परेशानियाँ हैं ये सब खत्म हो जायेंगी जिस दिन लोग ये ठान ले कि हम ही रामचंद्र जी जैसे हो गये। अपनी प्रजा का वे बिल्कुल निरिछ भाव से, विदेह रूप से वे लालन- पालन करते थे। और सब तरह की अच्छाइयाँ लोगों में आ जाये ऐसा पूरी तरह से वे प्रयत्न करते थे। उनमें धर्म आ जाए, पहली चीज़ उनकी उन्नति हो जाए, उनके अन्दर शिक्षा हो जाये, महान आदर्शों की स्थापना हो, ऐसा उन्होंने पूरे समय प्रयत्न किया और उस लिये अपना जीवन बहत आदर्शमय बनाया। गर समझ लीजिए कि अगर कोई आपको कुछ कह रहा है और वह स्वयं ही वैसा नहीं है, तो आप को क्यों उसके प्रति श्रद्धा होगी? स्वयं आदर्शों पर 8. 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-8.txt पहले औरतों का सीताजी के जैसे शुद्ध आचरण का होना चाहिए | न चलने वाले व्यक्ति के प्रति कभी श्रद्धा हो ही नहीं सकती और आप उसके गुण ले ही नहीं सकते। हमेशा कहते हैं कि हम उनको मानते हैं लेकिन मैं देखती हूँ कि वो उसके बिल्कुल उल्टे होते हैं। जो रामभक्त होते हैं वो सबसे बड़े चोर पॉलिटिशन होते हैं या फिर उनकी दस बीबियाँ होती हैं। तो फिर आप राम को कैसे मानते हैं ? से लोग बहुत इसी प्रकार जीवन में एक सहजयोगी का कर्तव्य क्या होता है कि हमें भी इन देवताओं के प्रकाश को हमारे चित्त में लाना चाहिये। हर चीज़ की ओर उसी तरह से देखना चाहिए कि श्रीराम, श्रीराम क्या करते थे ? ऐसा अगर प्रश्न आता तो सीताजी क्या करती ? सीताजी क्या कहती ? सीताजी का क्या बर्ताव होता ? इस तरह से अगर कोई सोचे तो वह घर की गृहलक्ष्मी हो ही जाएगी। आप तो जानते हैं कि सीताजी ने अनेक जन्म लिये| उसमें से एक गृहलक्ष्मी का स्थान जो है वह फातिमा बी के रूप में था। वह घर में घूंघट में, परदे में रहती थी, पर सारा धर्म का कार्य उस शक्ति ने किया था। उसके लिये जरूरी नहीं कि आप बाहर जाकर के बहुत लेक्चर्स दे और बहुत बड़े कोई लीड़र हो जाये। ये कोई जरूरी नहीं है। आप घर में रह करके ये कार्य कर सकते हैं। अपने बाल-बच्चे हैं, जान पहचान हैं, इष्ट मित्र हैं उन सबमें आप सहजयोग फैला सकते हैं। लेकिन पहले आप में ये चीज़ आनी चाहिए । उसके बाद ये सब कार्य होने के बाद आप समाज में भी आ सकती हैं। पर पहले औरतों का सीताजी के जैसे शुद्ध आचरण का होना चाहिए। शुद्ध आचरण में पहली चीज़ है ममता और प्यार। अपने पति के साथ जब वो जंगलों में रहती थीं अपने पति के साथ तो कभी उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरा पति पैसा नहीं कमाता, वो नहीं करता (जैसा हमारे यहाँ औरतों की आदत होती है) ये चीज़़ नहीं खरीदता, वो नहीं खरीदता । वो जंगल में है तो मैं भी जंगल में हूँ। वो जो खाते हैं वो मैं खाती हूँ। उनके खाने से पहले मैं खा लेती हूँ, ऐसा तो नहीं, न मैं करती हूँ। वो खा लें, उनको खाना खिला दें, अपने देवर को खाना खिला दें, उसके बाद मैं खा लूगी। आज औरतें ये सोचती हैं कि हमारे ऊपर बहुत ज्यादा दबाव आ जाता है। ये बात नहीं है। स्त्री पृथ्वी तत्व जैसी होती है। इसमें इतनी शक्ति है कि ये बहुत दबाव को खींच सकती है। सारी दुनिया को देखिये। कितने फल-फूल आदि, पत्तियाँ पृथ्वी सब दे रही है। इसी प्रकार इस पृथ्वी तत्व के जैसे ही हम स्त्रियाँ हैं। हमारे अन्दर इतनी शक्तियाँ हैं, कि हम सब तरह की चीज़ अपने अन्दर समा सकते हैं और अपने अन्दर से हम हमेशा प्रेम की वर्षा दे सकते हैं। ये हमारे अन्दर परमात्मा ने शक्ति दी है। स्त्री शक्ति स्वरूपिणी है, शक्ति का सागर है और उसके सहारे पुरुष जो है वो अपने कार्य को करता है। एक जैसे कि जिसको कहते हैं कि | 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-9.txt पुरुषोत्तम २म पोटेंशिअल और एक काइनेटिक, तो पोटेन्शिअल तो स्त्री है और पुरूष जो है वो काइनैटिक है। लेकिन पुरूष को देख करके कि अन्त: शक्ति गति-मूलक (काइनैटिक), पुरुष ज्यादा दौड़ सकता है, उसे देख यदि औरत भी दौड़ने लग जाये तो ठीक नहीं। उसको तो बैठने की जरूरत है। दोनों की क्रियाएं अलग-अलग हैं। और उस क्रिया में दोनों को समाधान होना चाहिए। दोनों ही क्रिया में स्त्री बहत पनप सकती है और जब समय आता है तो स्त्री पुरुषों से भी ज्यादा काम कर सकती है। आपको मालूम होगा कि महाराष्ट्र में ताराबाई नाम की सत्रह साल की एक विधवा थी, शिवाजी की वो छोटी बहू थी। सब हार गए औरंगजेब से और इसने औरंगजेब को हरा दिया। सत्रह साल की उमर में और उसकी कब्र बना दी औरंगाबाद में। तो आप समझ सकते हैं कि जब औरत अपनी शक्ति को पूरी तरह से समा लेती है, तो वो बड़ी प्रचंड हो जाती है। और अगर वो इधर-उधर अपनी शक्ति को फेंकती रहे, कहीं लड़ने में गई, कहीं झगड़े में गई, बुराई में गई, ओछेपन में गई, तो उसकी शक्ति सारी नष्ट हो जाती है। स्त्री जो है, वो इतनी शक्तिशाली है कि वो चाहे तो पुरुषों से कहीं अधिक कार्य कर सकती है। पर सबसे पहली चीज़ है कि वो अपनी शक्ति का मान रखे। तो स्त्री का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, गौरवपूर्ण है। स्त्री बहुत लज्जाशील और बहुत सूझबूझ वाली होनी चाहिए। जैसे आदमी लोग गाली बकते हैं, बकने दों। औरतें नहीं बक सकती हैं। आदमी लोगों का बहुत झगड़ा हुआ तो मारपीट कर लेंगे। औरतें नहीं कर सकती। इनका कार्य जो है वो शान्ति देने का है, इनका कार्य है संरक्षण का। इनका काम है लोगों को बचाने का। जैसे कि एक ढाल है। ढाल तलवार का काम नहीं कर सकती और तलवार ढाल का काम नहीं कर सकती। पर ढाल बड़ी या तलवार? ढाल ही बड़ी है। जो तलवार का वार सहन कर ले वो बड़ी कि तलवार बड़ी? एकाद बार तलवार भी टूट जाएगी पर ढाल नहीं टूटती। इसलिए औरतों को भी अपनी शक्ति में समा लेना चाहिए । इस शक्ति की सबसे बड़ी जो धुरा है वो है नम्रता। नम्रतापूर्वक अपनी शक्ति को अपने अन्दर समा लेना चाहिए। यह कार्य कठिन नहीं है सहजयोगियों के लिये| सहजयोगियों के लिये बिल्कुल ही यह कार्य कठिन नहीं। मैं देखती हूँ कि बहत सी सहजयोगिनी औरतें इतनी बकवास करती हैं। कहीं जाएंगी तो आदमियों से बक-बक करेंगी। तो आदमियों से ज्यादा बात करने की कोई जरूरत नहीं। बेकार की बकवास करने की जरूरत ही क्या है? औरतों में भी बेकार की बकवास करने की कोई जरूरत नहीं। सहजयोग में मैंने देखा है कि जैसे आदमी लोग सीखते हैं, वैसे ही औरतों को भी सीखना चाहिए। सहजयोग क्या है? इसके चक्र क्या हैं? कौन से चक्र से आदमी चलता है? कौन से चक्र से उसकी क्या दशा होती है? इसका पूरा ज्ञान होना चाहिए। ये सब आदमी सीखेंगे तो औरतें पीछे रह जाएंगी| ये सब औरतों को सीखना चाहिए । अब पुरुषों की बात करना है तो श्रीरामचन्द्रजी का हमारे सामने आदर्श है। मुझे लगता है कि इस मामले में मुसलमानों ने बड़ा गजब किया हुआ है। मैं उनको बूरा नहीं कहती । उनके देश में ये बात नहीं है। जैसे कि आप रियाद जाएं तो कोई मुसलमान आपके ऊपर आँख उठा कर नहीं देखेगा । कोई औरत होगी, उसकी बड़ी इज्जत करेंगे। रास्ते से अगर कोई औरत जा रही है तो वो मोटर रोक लेगा। वहाँ औरतों की इतनी इज्जत होती है। और 10 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-10.txt 'युत्र ना्या पूज्यन्ते तत्र मन्ते देवता:' हमारे यहाँ जो है पता नहीं कि क्या है कि इतना इनका ऐसा उलटा असर पड़ा है कि हम लोग सोचते हैं कि औरत एक बिल्कुल उपभोग की वस्तु है। हर औरत की तरफ देखना चाहिए। उनकी गर्दन मुड़ जायेगी पर देखते रहेंगे। हर स्त्री की ओर नज़र डालना महापाप है। और सहजयोग में निषिद्ध माना जाता है। बिल्कुल निषिद्ध है । इससे आपकी आँख खराब हो जाएगी, पहली चीज़़। सहजयोग में तो और भी नुकसान हो जाएगा और सहजयोगी को और भी | तो अन्धे भी हो सकते हैं। जब आँखें इधर- उधर घूमती रहेगी तो इससे नुकसान हो जायेगा। अगर वो नहीं हुआ सबसे बड़ा जो नुकसान है वो आपका चित्त है। आपका जो चित्त है वो इधर-उधर विचलित हो रहा है। चित्त अगर विचलित हो गया तो आत्मसाक्षात्कार का क्या फायदा होगा? अगर चित्त एकाग्र नहीं होगा तो वह कार्यान्वित नहीं हो सकता। एकाग्र चित्त ही कार्यान्वित होता है। एकाग्रता को साध्य करना चाहिए। अब विदेश में ये बीमारी आदमियों को बहुत ज्यादा है। आरतों को भी है, पर आदमियों को ज़्यादा है। जो विदेशी सहजयोगी हैं वो उसे बहुत अच्छी बात नहीं समझते। उसे वो गंदी चीज़ समझते हैं, जब से सहजयोग में आये हैं। मुझ से पुछा, 'माँ, इसका इलाज बताओ।' मैंने कहा कि तुम लोग सिर्फ जमीन की तरफ देख के चलो और तीन फुट से ऊपर देखने की जरूरत नहीं है। तीन फुट तक सब अच्छी चीजें दिखायी देती हैं। फूल, बच्चे सब तीन फुट तक होते हैं। उससे ऊपर देखने लायक है ही क्या? तो इस तरह से अपने चित्त को वश में करना चाहिए। श्रीराम का मान यदि आपके मन में है तो आपको उनके जैसे अपने चित्त को वश में करना चाहिए। अपनी पत्नी से भी यही समझाना चाहिए कि तुम शक्ति हो और हम तुम्हारी इज्जत करते हैं। पर तुम्हें उसके योग्य भी होना चाहिए। जैसे 'यत्र नाय्या पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता:' अर्थात् जहाँ स्त्री पूजी जाती है वहीं देवता रहते हैं। पर वो पूजनीय भी होनी चाहिए। किसी गन्दी औरत, दुष्ट या राक्षसी स्वभाव की औरत की कोई पूजा करेगा क्या? तो जो औरत पूजनीय है वहीं पर उसकी पूजा होनी चाहिये और वहीं पर देवता रहते हैं। सबसे पहले ये भी जान लेना चाहिए कि ये हमारे बच्चों की माँ है। गर पति अपनी औरत को बच्चों के सामने डाँटना, फटकारना शुरू कर दे, उसकी कोई इज्जत न रखे तो कभी भी बच्चे उसका मान नहीं करेंगे। स्त्री को भी पति का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। औरत चाहती है कि मेरी चले, आदमी चाहता है कि मेरी चले। आदमियों को चलाना अगर औरत को आ जाये तो कभी भी झगड़ा न हो। लेकिन समझ लेना चाहिए कि आदमी को चलाना बहुत ही आसान चीज़ है क्योंकि वह बिल्कुल बच्चों जैसे होते हैं । ये उनको चलाना बहुत ही आसान है। उनका स्वभाव बच्चों जैसा होता है, भोले-भाले होते हैं। उनको बेकार की बातों से परेशान करने से आप उन्हें चला नहीं सकते। लेकिन उनको भी एक बच्चों जैसे माफ कर दिया जाये। आदमी 11 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-11.txt पुरुषोत्तम २म बाहर जाते हैं, सबसे लड़ाई झगड़ा करते हैं, आफ़त उनकी रहती है। घर में आकर बीवी पर नहीं बिगड़ेंगे, बाहर वालों पर बिगड़ेंगे तो मार ही खायेंगे । चलो बिगड़े तो बिगड़े, तो चलो क्या है इसमें। इस तरह की स्त्री में भावना जब तक पति की तरफ नहीं होगी तब तक आपस में सामंजस्य नहीं आ सकता, प्यार व आनन्द नहीं आ सकता। लेकिन पति को भी चाहिए कि अपनी पत्नी को क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए इसका विचार रखें। लेकिन ये नहीं कि अब पत्नी है और कुछ गलत बात कहे या कोई गलत सलाह दे, उसपे जरूर पति को कहना चाहिए कि ये गलत है ये नहीं करना। लेकिन छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। और ये सहजयोगियों को बिल्कुल नहीं शोभा देता। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि सहजयोगी भी आपस में लड़ते रहते हैं। दो सहजयोगी एक स्थान पर ठीक से नहीं रह सकते। हर वक्त लड़ते रहते हैं और मैं तो सारे संसार को कहती हैँ कि हमें प्रेम से रहना है तो फिर हम सब कैसे प्रेम से रहेंगे बताओ। तो पहली चीज़ है कि पति को पूरी तरह पत्नी के प्रति जागरूक रहना चाहिए और ये जान लेना चाहिए कि सारे संसार की औरतें जो हैं वो आपके लिए माँ और बहन के बराबर हैं। सहजयोग में आकर भी यदि व्यक्ति की स्थिति स्वच्छ नहीं हुई तो वो कहीं भी नहीं हो सकता है। अभी वो सहजयोगी नहीं हैं। हमारे संस्कृति की जो विशेषता है कि स्त्री -पुरुष का आपस में मेल-जोल बस भाई - बहन तक का होना चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता। मैं देखती हूँ कोई औरत है फौरन बक- बक करना शुरू कर देगी। औरतों के साथ नहीं बैठेगी। आदमियों के साथ बैठेगी। ऐसे ही कुछ आदमी भी होते हैं स्त्रीलम्पट। उन्हें औरत अगर दिखाई दी कोई तो बस लग गये उसके साथ। कोई उनको अपना आत्मसम्मान ही नहीं होता है और इसको हम पुरुषार्थ समझते हैं। अरे भई , पुरुषोत्तम तो श्रीराम हैं, वे पुरुषार्थी हैं। वो तो वहाँ बैठे हुए हैं जिन को कहना चाहिए कि पुरुषार्थी हैं और जो बिल्कुल ही पाताल में हैं वो भी अपने को पुरुषार्थी समझते हैं। इसमें कौनसा पुरुषार्थ है? या तो फिर श्रीराम को मत मानो। एक शैतान को मानो। अगर श्रीराम को मानते हो तो उनके आदर्शों (आयडियल्स) पर चलो। और इसी कारण अपने यहाँ अपने बच्चे भी खराब हो रहे हैं, औरतें भी खराब हो रही हैं फिर भी मैं भारतीय संस्कृति की विशेषता कहूँगी कि औरतों ने बहुत सम्भाल लिया है। अगर अमेरिकन जैसी औरतें होती तो आपको सब पहुँचा देती ठिकाने। अगर | आदमी की दो-तीन शादियाँ हो गईं तो वो झोली लेके घूमता है। और औरत की दो-तीन शादियाँ हो गईं तो वह महल खड़े कर देती है वहाँ। पर वहाँ है क्या? वहाँ के समाज की ही अवस्था क्या है? बच्चे घर छोड़ कर भाग जाते हैं। अपने हिन्दुस्तान की औरतों की यह विशेषता है कि वो अपने घर को सम्भालती हैं। अपने बच्चों और पति को सम्भालती हैं। पर ये चीज़ बदल 12 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-12.txt ु डा उ ा रही है। वो भी देख रही हैं कि अगर हमारा आदमी ऐसा है तो हम क्यूँ न करें। वो अगर दस औरतों के साथ दौड़ता है तो हम पन्द्रह आदमियों के साथ जाएंगे। वो गन्दे काम करता है और नर्क में जा रहा है तो मैं उससे पहले नर्क में जाऊंगी। धर्म की धूरा जो है वो स्त्रियों के हाथ में है। स्त्री को सम्भालना है, स्त्री को ही पति को धर्म के रास्ते पर लाना है। समझा बुझा कर के उसको अपने पास रखना है। ये स्त्री का बड़ा परम कर्तव्य है। उसके अन्दर ये शक्ति है। अगर वो ही स्वयं धर्म पर बैठी हुई है, और धर्म में सबसे बड़ा धर्म है क्षमा। क्षमा करना यदि स्त्री में न आये तो वो कोई सा भी धर्म करे उससे कोई फायदा नहीं। पहली चीज़ उसमें क्षमा होनी चाहिए। बच्चों को क्षमा करना चाहिए, पति को क्षमा करना, घर के नौकरों को आश्रय देना ये स्त्री का कर्तव्य है। 13 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-13.txt पुरुषोत्तम २म तो कुछ ऐसा आ जाता है अपने को कि, जो हम कार्य कर रहे हैं ये राम भी नहीं कर सकते थे, कृष्ण भी नहीं कर सकते थे, ईसामसीह भी नहीं कर सकते थे। अगर राम होते तो बस वो सबको मार ही डालते थे कि तुम औरतों के पीछे में भागते हो , तुम स्त्री लम्पट हो । ऐसे न जाने कितने लोगों को तुम अधर्मी हो , सब बेकार हो। तुम तुम खतम कर देते। दूसरे, अगर कृष्ण आते तो वो सुदर्शन चक्र चलाते, वो भी गड़बड़ हो जाती, ईसा आते तो हमको सूली (क्रुसीफिकेशन) पर चढ़ा देते । ये तो बहुत ही अच्छा है, एक बार में क्रुसीफिकेशन हो जाता। रोज रोज के क्रुसीफिकेशन से तो बच जाते। ये तो माँ ही कर सकती है। उसके अन्दर प्यार की शक्ति इतनी जबरदस्त है कि कोई भी चीज़ हो वो उसके प्यार की शक्ति के साथ पार हो जाती है। वो सब चीज़ उठा लेती है और उसके तरीके ऐसे प्यारे होते हैं कि फिर बच्चे उसको बुरा नहीं कहते। कोई बात हो गई, समझ लो कि कुछ गडबड़ हो गई तो माँ ही जानती है किस तरह से टाल देना है और फिर डाँट भी सकती है। क्योंकि बच्चे जानते हैं कि माँ हमें प्यार करती है। वो हमारे हित के लिए कहती है। वो उसका बुरा नहीं मानते। गर बाप डाँट दे तो हो सकता है कि बच्चे उनसे मुँह | तो निर्वाज्य है वो कुछ नहीं चाहती अपने लिए। वो ये चाहती है कि मोड लें, पर माँ से नहीं। क्योंकि माँ का प्यार मेरे बच्चे ठीक हो जायें। मेरी सारी शक्तियों को प्राप्त करें। अपने अन्दर जो भी कुछ मेरा अच्छा है वो सब प्राप्त करें। ऐसे अगर माँ समझे तो बच्चें ठीक हो जाएं। पर बहुत सी माँयें बहुत ही आगाऊ होती हैं। सब चीज़ में घुसने जायेंगे। सब चीज़ में बोलते जायेंगे। उसका पति तो बेचारा चुपचाप बैठा रहेगा, ये ही देवी जी सामने खड़ी होंगी। ऐसे जब होता है तो बच्चे बिगड़ जायेंगे। तब ऐसे संसार में रह कर औरतों को ऐसे बच्चे पैदा भी हो सकते हैं कि जो बहुत ज़ज्बाती भी हो सकते हैं और हानिकारक भी हो सकते हैं। तो स्त्री को पीछे रहना चाहिए और पति को आगे रखना चाहिए। ठीक है, जो कुछ भी है पति करे, पत्नी पीछे से उसकी मदद करते रहे । उसकी शक्ति का स्रोत ही स्त्री है। ये समझ लेना चाहिए कि एक स्त्री को कितना शुद्ध होना चाहिए। कितनी मेहनत करनी चाहिए। आप कहेंगे कि माँ सब स्त्रियों पर छोड़ देती हैं, क्योंकि मैं जानती हूँ आप शक्तिशाली हैं। मैं जानती हूँ कि हमारे अन्दर बड़ी शक्तियाँ हैं, क्योंकि मैं माँ हूँ। देखिये मेरे ऊपर सबने छोड़ दिया कि आप सब लोगों को पार करो। इतनों की बीमारियाँ ठीक करो, फिर लोगों को पार कर दो। ऐसे किसी ने काम किये थे ? एक अहिल्या का उद्धार कर दिया फिर हो गया। उसके बाद किसका उद्धार किया ? ईसामसीह ने कुल मिलाके इक्कीस लोगों को ठीक किया। अभी तो मैंने इक्कीस हज़ार लोगों को ठीक किया होगा। दुनियाभर में घूमो, फिरो, सबका ये काम करो, वो करो, ये दुनिया भर में भ्रमण करना, सब चल रहा है, पर कुछ नहीं लगता क्योंकि वो शक्ति प्यार की है। वो प्यार की शक्ति मेरे से आगे दौड़ती है। मैं घर से बाहर निकलने से पहले सोचती हँ कि बन्धन ले लूं कि न जाने कैसे लोग आ कर के मेरे पैर पकड़ ले। लेकिन भूल जाती हूँ और जैसे ही ऐसे वैसे आदमी मेरे सामने आते हैं, मैं झट से उनकी सब परेशानियाँ अपने अन्दर खींच लेती हूँ। तो प्यार ऐसा है कि वो अपने आप ही कार्यान्वित करता है। तो मैं उसको जानती हूँ कि ये प्यार है और इसीके सहारे से सारा कार्य हो सकता है। मैं नहीं बुरा मानती। जो भी हो रहा है, ठीक है। तकलीफ 14 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-14.txt जब तक एक रथ के पहिये एक जैसे नहीं होते तो रथ घूमता ही रहता है। होगी, तो होने दो, कोई हर्ज नहीं, ये सब माँ ही कर सकती है और इसलिए विशेष मेरा आपके तरफ रूख है कि आप समाधान और स्थिरता के साथ कार्य करें। और पुरुषों को भी चाहिए कि वे अब अपनी औरतों की पूरी सहायता करें, उनको समझें, उनका आदर करें और जब तक एक रथ के पहिये एक जैसे नहीं होते तो रथ घूमता ही रहता है। रथ आगे नहीं जायेगा। दोनों एक ही जैसे होने चाहिए पर एक बांये को है, एक दांये को है। बांये वाला दायें में लगाओ तो वो लगेगा नहीं और दायें वाला बायें में नहीं लगेगा। इसलिये ये दो तरह के चक्के हैं और ये दोनों तरह के चक्के चल रहे हैं इसलिए क्योंकि ये एक जैसे भी हैं और एक जैसे हैं भी नहीं। एक जैसे माने ऊँचाई में, लम्बाई में, बढ़ाई में, लेकिन इनका कार्य जो है वो अलग-अलग है। इसी प्रकार हमारे भी जीवन में होता है। श्रीरामचन्द्रजी ने केवल पति-पत्नी का ही विचार नहीं किया। बच्चों का और अपने कुटुम्ब व्यवस्था का ही विचार नहीं किया, अपने भाई, बहन, माँ, बाप सब का विचार किया। जैसे एक मनुष्य को होना चाहिए। और उसके बाद उन्होंने समाज का भी विचार रखा। जन का विचार रखा, देश का विचार रखा, राज्य का भी विचार रखा। जैसे कि एक मनुष्य की सारी गतिविधियाँ जो होती हैं उन सारी गतिविधियों में उन्होंने दिखाया कि मनुष्य को किस तरह से होना चाहिए। जो मनुष्य अपनी पत्नी को इतना प्यार करता था और जो जानता था कि वो स ाम्पूर्णतया शुद्ध है उसको उन्होंने त्याग दिया। आजकल तो पत्नी के नाम ये बनाओ, ये देना है, वो देना है और अगर कहे कि गरीब को थोड़ा दो, पैसा दो, तो नहीं देंगे। नहीं तो अपने बच्चों को दो| अपने भांजों को दो| ये तो राजकीय लोगों की बीमारी है। और इन्होंने अपनी पत्नी का जो कि स्वयं साक्षात् देवी स्वरूपा अत्यंत शुद्ध थी उसका तक त्याग कर दिया। तब फिर हमें सोचना चाहिए कि ये हमारा ममत्व है, रिश्तेदारी है कि मेरा घर, ये मेरा है। विदेश में पहले पति-पत्नी का कुछ ठीक नहीं होता। अब जो वो ठीक हो गया है सहजयोग में तो अब वो पत्नी ही सब कुछ हो गई। हमारे यहाँ कम से कम चार-पाँच लीडर पत्नी की वजह से निकल गये हैं । क्योंकि उनकी पत्नी ठीक नहीं थी, पति ठीक थे। पत्नी पढ़ा-पढ़ा कर के उनके विचारों का सत्यानाश कर दिया। कम से कम पाँच लोग पत्नी की वजह से बाहर निकल गये। सो, यहाँ भी में कहूँगी कि पत्नी को समझना चाहिए कि सहजयोग क्या है। और उसमें अपना क्या स्थान है। और पति को भी पत्नी से ऐसे मामले में जरा सा भी नहीं सहमत होना चाहिए | उससे कहना चाहिए कि, 'तुम बहुत ज्यादा बोलती हो-बहुत ज्यादा दौड़ती हो। तुम चुप बैठो। तुम किसी काम की नहीं हो। तुम्हारे चक्र ठीक नहीं है।' जब पति इस तरह से उसके साथ इस तरह का व्यवहार करेगा तभी तो न वो ठीक होगी। सहजयोगी 15 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-15.txt पुरुषोत्तम २म में आने पर भी अपनी कुछ सूक्ष्म अपनी जो खराबियाँ हैं वो चिपक जाती हैं। उधर आपको बहत अच्छे से ध्यान देना चाहिए। तो आज के श्रीराम के इसमें हमें हनुमान जी का भी विशेष विचार करना चाहिए कि हनुमानजी किस तरह से एक श्रीराम के दास थे और किस तरह से उनकी सेवा चाकरी में लगे रहते थे। और हर समय उनके ही सेवा में रहने से ही वो जानते थे कि उनका पूरा जीवन सार्थक हो जायेगा। उनके जैसे वृत्ति भी सहजयोग में हमें अपनानी चाहिए। इसका ये मतलब नहीं कि आप मेरे लिए खाना बना-बना कर भेजें। बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि मैं तो खाना खाती नहीं हूं और मुझे खाना बना-बना कर के और भी आप लोग परेशानी में डाल देते हैं। तो क्या चीज़ चाहिए? सेवा | करने में तत्परता। हुनुमानजी क्या कोई खाना बना कर के भेजते थे क्या ? श्रीरामचन्द्रजी के लिए? दिल्ली वालों ने मुझे इतना परेशान किया है खाना बना-बना कर के कि मैंने अब शर्त लगा दी है कि अगर तुम लोग खाना बनाओगे तो फिर मैं आऊंगी ही नहीं। जो चीज़ करनी है वो करो। ये तो बेकार की चीज़ है कि जो आदमी खाना नहीं खाता उसे जबरदस्ती आप खाना खिला रहे हैं। या कोई कुछ चीज़ ले कर के चला आता है। कोई चीज़ की जरूरत नहीं है तुम्हारी माँ को। सारा भरा पड़ा हुआ है। मैं तंग आ गई हूँ इन सब चीज़ों से । इतना मैं कहती हूँ मेरे लिए कुछ चीज़ मत लाओ। बस फूल ही लाओ। और फूल भी जब लगाओगे तो हजारो रूपये के मत लगाओ। जो कुछ करना है वो संतुलन में। जैसे माँ को पसन्द आये, माँ आप की सीधी साधी औरत है। तो क्या करना है इन सब चीज़ों का। तो खास हनुमान जी से सीखना है कि सेवा में तत्परता क्या होती है। मेरी तो ऐसी खास सेवा नहीं है। पर जो मेरी सेवा करनी है तो सहजयोग की सेवा करो। जो सहजयोग में आप सेवा करेंगे, वही मेरी सेवा है । कितने लोगों को आपने साक्षात्कार दिया। कितनों को आपने पार कराया? जैसे कोई आ जाता है प्रोग्राम में, 'तेरे अन्दर ये भूत है, तेरे अन्दर ये भूत है' बस उसके पीछे पड़ गये। वो भाग गए। मैंने एक साहब से पूछा कि आप इतने अच्छे से पार हो गये थे आप सहजयोग से क्यों भाग गये। तो कहने लगा, 'किसी सहजयोगी ने बताया कि तुम्हारे अन्दर तीन भूत बैठे हैं।' मैंने कहा कि, 'आपने विश्वास क्यों कर लिया ?' कहने लगे, 'वो तो वहाँ के बड़े महारथी लग रहे थे । दौड़ दौड़ के बता रहे थे कि आपके अन्दर तीन भूत हैं। अब वो कौन साहब थे ये तो पता नहीं, पर ये तो भाग गये। सो, जी से हमें सीखना क्या है कि तत्परता, 'राम काज करने को तत्पर'। काज कौन सा है हमारा ? | हनुमान मेरा काज है सहजयोग । मेरा कार्य है सहजयोग। कुण्डलिनी का जागरण करना। लोगों को पार करना। उनके अन्दर शांति लाना, प्रेम लाना, प्रेम की बातें करना। उनसे अपने सहजयोग के बारे में सारे चक्र आदि का वर्णन करना। उनको जो चाहिए वो समझाना। इसका ये मतलब नहीं कि भाषण देना शुरू कर दें। दो-दो घंटे भाषण देते हैं फिर हम आपका भाषण भी नहीं सुन पाते। लोगों को सहजयोग पर भाषण देना बहुत अच्छा लगता है। उनका माईक ही नहीं छूटता। एक बार पकड़ लिया तो छूटता नहीं। यह भी एक नई बीमारी है। तो समझ लेना चाहिए कि काहे को 16 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-16.txt ये ठीक कने का तरीका क्या है ये सीख लेना चाहिए। और बन्धन लेकर के ठीक करना चाहिए लोगों को। इतना भाषण देना है। माँ के इतने भाषण हैं वो ही सुन लें। तो अब जब भी आप लोगों का कोई प्रोग्राम हो उसमें आप चाहें तो एक मेरा वीडियो लगा दो या चाहे तो मेरा एक टेप सुना दो। उसके बाद एक कागज पेन्सिल दे दो। लिखना है लिखो कि कोई प्रश्न हो तो बता दो। और उसके बाद में उनकी जागृति कर दी जिसपे तुमको जो कुछ और उनसे कहना कि अगली बार आपको जो कुछ समस्या है उसको आप लिख कर लाईये। किसी को बीमारी है, किसी को तकलीफ है। अब ऐसे भी लोग हैं कि जो एक आदमी है वो अब अगर कलकत्ते भी आएगा तो किसी को ठीक करने। अब उसे रूस बुला रहे हैं। एक ही आदमी हनुमान जैसे दौड़ता रहता है इधर से उधर ठीक करने के लिए, इधर से उधर, उधर से इधर। आप सब लोग ठीक कर सकते हैं। सब औरतें ठीक कर सकती हैं। सब आदमी ठीक कर सकते हैं। पर कोई हाथ नहीं डालता। पता नहीं क्या बात है कि अभी तक एक ही आदमी सारे हिन्दुस्तान में है कि जो लोगों को ठीक कर सकता है। लण्डन में १५-२० लोग हैं कि जो लोगों को ठीक करते हैं। ये ठीक करने का तरीका क्या है ये सीख लेना चाहिए । और बन्धन लेकर के ठीक करना चाहिए लोगों को। उसके लिए क्या आप बाहर से बुलायेंगे लोगों को। सहजयोगियों को, अब जो आप बैज लगाकर के घूमते हैं, आप ठीक भी नहीं कर सकते हैं? फिर बैज उतार दो। अपने को भी नहीं ठीक कर सकते तो दूसरों को क्या ठीक करना। तो सबको ठीक करने की सबको शक्ति दे दी गई है। उसको आप लोग सीखें । उसमें निपुण बनें। बजाए इसमें कि कलकते कोई आए दूसरों को ठीक करने। इसमें हिम्मत की जरासी बात है, कुछ नहीं होने वाला तुमको। तुम न तो बीमार हो सकते हो न कुछ हो सकता है। जो लोग जितना सहजयोग में कार्य करेंगे उतने गहरे उतरेंगे। जैसे पेड़ जितना फैलेगा उतना ही गहरा उतरेगा। सहजयोग में और अवतरणों में बड़ा भारी फर्क है कि पहले उन्होंने कोई सामाजिकता से अध्यात्म नहीं किया था। ये शक्तियाँ किसी को दी नहीं थी। समाज के लिए मिली नहीं थी। एक आध आदमी को शक्तियाँ मिली थी। जैसे कि राजा जनक ने नचिकेता को आत्मसाक्षात्कार दिया। लेकिन अब तो आप सबके पास शक्तियाँ प्राप्त हैं। बस इसको ऐसा बढ़ाइये कि आपको कोई भी चीज़ की जरूरत ही न रह जाए। आप अपनी तबियत ठीक कर लीजिए दूसरों की तबियत ठीक कर लीजिए। आप सहजयोग समझ लीजिए । सब कुछ आपके पास है। लेकिन अभी भी आपका चित्त पता नहीं कहाँ घूम रहा है। आप लोग पता नहीं कि किस चीज़ के पीछे भाग रहे हो। अभी आप ने इस चीज़ को समझा ही नहीं है । सिर्फ वरदान के सिवाय कुछ है ही नहीं। आपको कोई चीज़ की कमी नहीं रह जायेगी। पर आप सहजयोग के लिए कुछ करे तो न! और नही भी करते हैं तो भी मिलता ही है। 17 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-17.txt पुरुषोत्तम २म जिसको देखता हूँ उसका बिज़नेस बढ़ गया है। किसी की नौकरी बढ़ गयी है। किसी का ये हो गया , किसी का वो सबको कुछ न कुछ मिलता ही जा रहा है। कोई भी उनको त्याग नहीं करना पड़ा। नहीं तो, मैं आपसे हो गया। कहँगी कि जब ये फ्रिडम का हुआ था कि इनको फ्री करना है, तो हम ही को लोगों ने इतना सताया है। बर्फ़ पर लिटाया, इलेक्ट्रिकल शॉक दिये। हमारे पिताजी कितनी बार जेल गये, हमारी माताजी कितनी बार जेल गयी थी। हमारा घर बिक गया, हमें झोपड़ी में रहना पड़ा। कितना कुछ सॅक्रिफ़ाइस किया। अरे वैसा तो कुछ करना ही नहीं है आपको पर सब लेना ही लेना नहीं होना चाहिए आपको। आपको कुछ देना भी चाहिये। गर एक दरवाजा खुला है तो दुसरा दरवाजा भी खोलना चाहिये। एक ही दरवाजा खोलने से कुछ नहीं होता है। इस चीज़ पर ध्यान देना चाहिये कि हमने कौन सा भला काम किया है। पर अब नेता गिरी के लिये बहत ही झगड़े हैं कि कौन नेता होगा। सब बने बनाया स्टेज है। आप को ये जान लेना चाहिये कि ये सब माँ का खेल है। जिस दिन आप गिर जायेंगे वहाँ से, आपको पता होना चाहिये। खास कर औरतों को तो ऐसे चक्कर में आना ही नहीं चाहिये। उनको फौरन ऊपर से नीचे गिरना पड़ेगा और आदमियों को समझ लेना चाहिये कि इसमें नेता वेता कोई नहीं है। ये सब माँ का बनाया हुआ खेल है और इस चक्कर में तो आना ही नहीं है। मैंने कहा कि, अच्छा चलो, लीड़र्स आ जायें पर असल में तो | कोई लिड़्स तो हैं ही नहीं। काय के लीड़र्स और काय का ये? सब एक खेल बनाया है माँ ने। सो ये लीड्ड्स कोई है ही नहीं । सब एक खेल बनाया है माँ ने। सिर्फ ये है कि देखा जा रहा है कि आप कितना तोल सकते हैं। गर आपको अहंकार चढ़़ गया तो गये आप काम से। वो फौरन दिखाई देगा। सहजयोग में कोई चीज़ छिपती नहीं है। सब चीज़ सामने आ जाती है। मैं कुछ कहूँ या ना कहूँ वो अपने आप मूँह पर काला लगा कर आ जाते हैं अपने आप| वो कहते हैं, कि हम लीड़र हैं और देखा कि सामने मुँह पर काला लगा कर आ गये। मैंने पूछा कि, ये क्या? तो कहने लगे कि, 'माँ, हमने ये खराब काम कर दिया है।' तो ये लीड्र पर और जिम्मेदारी आ जाती है कि आप और अच्छे और मीठे और नम्र और प्यारे बन जायें । और सब को मिला कर के, सब की पूछ कर के, सब को लेकर के चलें। अब ये सब चीजें श्रीरामचन्द्रजी के विशेष दिवस पर आपको मानना चाहिये कि उन्होंने जो कुछ भी जीवन में कर के दिखाया है उसका कुछ भी अंश हम कर के दिखायें तो माँ के जीवन को भी चार-चाँद लग जायेगा। उन्होंने इतने दिन वनवास किया। वनवास में रहे, जंगलों में रहे बगैर कुछ पहने घूमे, फिरे, कितनी मेहनत की । और फिर सिर्फ अपने पिता की आज्ञा मानने के लिये इन्होंने ये सब कार्य हुए किया। अब मेरी आज्ञा मानने के लिए आप लोगों को कोई वनवास जाने की जरूरत नहीं है। न ही आप को नंगे पैर रहने की जरूरत है, न ही भूखे रहने की जरूरत है। कुछ करने की जरूरत नहीं है । सब व्यवस्थित है। लेकिन सहजयोग में आपको लोगों को ठीक करना आना चाहिये। लोगों की बीमारियाँ ठीक करनी आनी चाहिये। और 18 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-18.txt तो पहली चीज़ है, कि नम्रता खो। मेरे प्रति नहीं, सबके प्रति। आपको सहजयोग के बारे में सब कुछ मालूम होना चाहिये। और सब से बड़ी जो जाननी चाहिये वो चीज़ है, कि सहजयोग प्रेम है। ये प्रेम की शक्ति है, जो कार्य कर रहा है और कोई नहीं है। और उसी से सब लोगों का भला हो सकता है। ये कोई एक आदमी के लिये नहीं । एक विशेष लोगों के लिये नहीं है। ये कोई एक देश के लिये नहीं है । ये है सारे विश्व के लिये। तो एक ये भी देखना चाहिये कि हमारा चित्त कैसा है। कहाँ जाता है। बार-बार अगर हमारा चित्त जा रहा है, तो उसका निरोध करना चाहिये, उसे रोकना चाहिये। उसमें आत्मा की शक्ति पूरी तरह से भरनी चाहिये और मनुष्य को एकाग्र हो कर के हर कार्य को करना चाहिये। भक्ति भाव से, प्रेम से जो करेगा , वो बहुत गहरा उतरेगा । गर नहीं तो ऐसे ही, कचरा बहत होता है। और कचरे का जो अंत होता है वो भी आप जानते हैं। तो आपको अगर कचरा बनना है और आप अपने को बहुत विशेष समझ रहे हैं कि हम तो बड़े अच्छे हैं, हम तो ये कर लेते हैं। हम तो वो कर लेते हैं। तो पहली चीज़ है, कि नम्रता रखो। मेरे प्रति नहीं, सबके प्रति । नम्रता से बात करो। और प्रेम से बात करो। देखना यही जो मनुष्य, आज जो मानव है, बेकार चीज़ है, वही सहजयोग में आते ही सब ओर कमल जैसे खिल जाता है। और उसका सुगंध चारो ओर फैलता है। लोग मुझे फौरन आकर बता देते हैं कि माँ ये आदमी तो कमाल का है! ये बस ऐसे ही है। आप लेग भी गर ऐसे ही सब काम करें तो मर्यादा पुरूषोत्तम को जैसे कहते थे कि 'बड़े कमाल के थे', ऐसे ही आपके लिये भी कहेंगे। सब से बड़ी चीज़ तो ये है कि मेरे लिये तो आप ही राम का मंदिर है और आप ही अपने अन्दर इस मंदिर को बनाये और उसकी पूजा हो और उसको सम्भाले, उसको देखें और अपने को आत्मसम्मान के साथ रखें। अपने आप में आत्मसाक्षात्कार का फायदा भी उठाना है और उसी के साथ उसकी पूरी इज्जत और भक्ति होनी चाहिये कि अब हम आत्मसाक्षात्कारी हैं और अब हम ऐसा कैसे कर सकते हैं। हम योगी हैं। हम नहीं कर सकते हैं। हमसे नहीं हो सकता है। ये गलत काम है और आप देखियेगा कि एकदम आशीर्वाद आपके साथ आ जायेगा। एकदम उसी वक्त! ये तो रोकडा देवी नाम रख दिया है लोगों ने मेरा, कि बस माँ हमने तय कर लिया और बस आ गया। इतना इसका परिणाम, इसका लाभ सबको हो रहा है। सिर्फ उस लाभ के अनुसार आप भी इस दुनिया को लाभ दें। जैसे कि श्रीराम ने अपनी सारी शक्तियों को लगा दिया कि जन का हित हो। संसार में एक आदर्श पुरूष की एक मूर्ति बन जाये, कि जिसको कि लोग देखें। जिस वक्त ये हमारे अन्दर घटित हो जायेगा, आपको आश्चर्य होगा कि आप सब के सब कहाँ से कहाँ पहुँच जायेंगे। आपके अन्दर कोई बीमारियाँ 19 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-19.txt पुरुषोत्तम २म ० ० নে 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-20.txt आपके अन्दर कोई बीमारियाँ नहीं रहनी चाहिये। सब बीमार्याँ चली जानी चाहिये। नहीं रहनी चाहिये। सब बीमारियाँ चली जानी चाहिये । जो भी आप की आदते हैं, उसको आप बदल लीजिए। जो जरूरत है वो खाईये। जितना जरूरत है आप बोलिये। सब को आप देखते रहें और इसके लिये आप मनस, जिसको कहते हैं, कि इंट्रोस्पेक्ट करना। अंतर निरीक्षण करना। जिससे कि देखते रहना कि ये मैं क्यों कर रहा हूँ, वो क्यों कर रहा हूँ? इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं सहजयोगी हूँ। मेरा ये दिमाग़ कहाँ जा रहा है। रूक जाओ। इस तरह से करने से ही आप ध्यान में हो जाएंगे और आपकी कुण्डलिनी आप से संतुष्ट होकर के आपको आशीर्वाद प्रदान करती है। फिर आप कहोगे कि माँ ये क्या है। लेकिन जब आप इसमें फ़िसल पड़ियेगा, फिर आप जानियेगा कि ये चीज़ क्या है। बस इसमें फ़िसल पड़ना है। तभी तक बस मेहनत करना है। आज मैंने कहा था, कि श्रीरामचन्द्रजी का तो बारह बजे का जन्म हुआ था तो आराम से ही पूजा होने दो। श्रीरामचन्द्रजी के पूजा में तो कोई खास काम नहीं है और इतनी लम्बी चौड़ी पूजा भी नहीं है, लेकिन इसमें समझने की बात है। क्योंकि वो मनुष्य स्वरूप जो है वो अपने अन्दर जो मनुष्यता है जिससे हम चीज़ को समझते हैं, जिससे हमारे बुद्धि में, जिज्ञासा में और हमारे विचारों में परिवर्तन आ जायेगा। वो चीज़ श्रीराम है। श्रीराम के ही माध्यम से हमारे विचार बदल सकते हैं। उन्हीं के माध्यम से हमारा स्वभाव बदल सकता है क्योंकि हमारे लिए वो एक आदर्श हैं। उनके आदर्श तक पहुँचने के बाद ही आप दूसरे आदर्शों तक पहुँच सकते हैं क्योंकि वो मनुष्य के आदर्श हैं। कितनी बड़ी चीज़ है, कि परमात्मा मनुष्य बनकर इस संसार में आए कि इनके लिए हम आदर्श बन जाएं। उन्होंने सब विपत्तियाँ उठाईं, आफतें उठाईं, दिखाने के लिए कि कोई सी भी विपत्ति और आफत आती है तो मनुष्य को अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। विश्व धर्म नहीं छोड़ना चाहिए और जो आपका योग है उसमें बंधे रहना चाहिए। आप सबको हमारा अनन्त आशीर्वाद! 21 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-21.txt 22 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-22.txt शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ कळवे, ३१/१२/१९९७ शक्ति का पूजन माने सारे ही देवताओं के शक्ति का आज पूजन होने वाला है। इन शक्तिरयों के बिगड जाने से ही हमारे चक्र खराब हो जाते हैं और उसी कारण शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि जो भी हमारी समस्यायें हैं वो खड़ी हो जाती हैं। इसलिए इन शक्तियों को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए। कहा जाता है कि, 'देवी प्रसन्नो भवे' । 23 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-23.txt शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ आज हम लोग शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। शक्ति का मतलब है पूरी ही शक्तियाँ, और किसी एक विशेष शक्ति की बात नहीं है । ये पूरी शक्तियाँ हमारे हर एक चक्र पर अलग-अलग स्थान पर विराजित है। और इस शक्ति के बगैर किसी भी देवता का कार्य नहीं हो सकता है। जैसे आप जानते हैं कि कृष्ण की शक्ति राधा है और राम की शक्ति सीता है और विष्णु की लक्ष्मी। इसी प्रकार हर जगह शक्ति का सहवास देवताओं के साथ है। और ये देवता लोग शक्ति के बगैर कार्य नहीं कर सकते हैं। वो शक्ति एक मात्र है। आपके हृदय चक्र में बीचो-बीच जगदम्बा स्वरूपिणी विराजमान है। ये जगदम्बा शक्ति बहुत शक्तिमान है। उससे आगे गुजरने के बाद आप जानते हैं कि कहीं वो माता स्वरूप और कहीं वह पत्नी स्वरूप देवताओं के साथ रहती है। तो शक्ति का पूजन माने सारे ही देवताओं के शक्ति का आज पूजन होने वाला है। इन शक्तियों के बिगड़ जाने से ही हमारे चक्र खराब हो जाते हैं और उसी कारण शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि जो भी हमारी समस्यायें हैं वो खड़ी हो जाती हैं। इसलिए इन शक्तियों को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए । कहा जाता है कि , 'देवी प्रसन्नो भवे' । देवी को प्रसन्न करने से न जाने क्या हो जाये ! अब कुण्डलिनी के जागरण से इस शक्ति को एक विशेष और एक शक्ति मिल जाती है। इन शक्तियों में एक विशेषता और होती है कि सारे ही सर्वव्यापी शक्ति जो हैं, जो परम चैतन्य है, जो आदिशक्ति की शक्ति है उससे इसकी एकाकारिता एकदम से हो जाती है। उस एकाकारिता के कारण इसके अन्दर वो शक्ति आ जाती है। इन छोटी-छोटी विभक्त शक्तियाँ जो हैं, कि जिनको विभक्त शक्तियाँ कहना चाहिये, उसमें पूरी तरह से एकत्रित, एकाकारित शक्ति का संचार हो जाता है। माने ये कि गर समझ लीजिए कि आप की हृदय की शक्ति कमजोर हो जाती है, तो उसका सम्बन्ध जब इस परम चैतन्य से हो जाता है, तो वो निर्बल शक्ति, शक्तिशाली हो जाती है और उसका संदेश सारे शक्तियों के पास पहुँच जाता है कि अब कोई फिक्र करने की बात नहीं है। अब ये शक्ति जो है वह प्रबल हो गयी है। वह शक्ति जो है वो स्त्री स्वरूप है और देवता जो हैं वो पुरुष स्वरूप है। सो, स्त्री का मान रखना, स्त्री का आदर करना, गृहलक्ष्मी को गृहलक्ष्मी की तरह रखना आदि बहुत जरुरी बाते हैं। जो हमारे यहाँ जो पुरुष हैं उनको सीखना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि औरतें उनको लेक्चर झाड़ते रहे या उनसे बिगड़ते रहे। औरतों को तो गृहलक्ष्मी के स्वरूप होकर के अपने पति, अपने बच्चे, अपने घर-द्वार सब की सेवा करनी होती है। उसको तो एक ही काम होता है, पति को तो हजारो काम होते हैं और वो उसे ठीक से निभाया करें, उसको ठीक से सम्भाले । ये 24 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-24.txt शक्ति.... सबसे बड़ी बात यह है कि घर की गूहलक्ष्मी जो है वो घर की शक्ति है। बहुत ही जरूरी है । लेकिन पति का कार्य होता है कि अपनी पत्नी को दवी स्वरूप माने । अपने पत्नी को घर की शक्ति माने। और उसके साथ जो सम्बन्ध हो, वो निश्चल और शुद्ध हो। मनुष्य कभी-कभी यह सोचने लग जाता है कि वो जैसे भी चाहे, वो चले और ठीक है क्योंकि वो तो पुरुष है। ये उसको बड़ी गलतफहमी है। इस तरह से करने से उस पर जो संकट आने हैं वो आते हैं और पत्नी कितने भी वो संकट झेल लें तो भी उसका कुछ कह नहीं सकते हैं। क्योंकि अगर आप घर के स्त्री को सतायेंगे तो वहाँ पर देवताओं का रमण नहीं हो सकता है। घर की औरतों को जिद नहीं करनी चाहिये। पति को खुश रखना चाहिये। घर द्वार को ठीक रखना चाहिये। ये तो बात सही है, पर सबसे बड़ी बात यह है कि घर की गृहलक्ष्मी जो है वो घर की शक्ति है। इसलिये उससे एक तरह की बड़ी गहरी एकाकारिता साध्य करनी चाहिए। जब यह बिबूना हो जाता है तो औरत भी एक तरह से समझदारी छोड़ के और नाराज हो जाती है। कभी - कभी बहुत ज्यादा विस्फोटक होती है। कभी झगड़ा करती है। उससे बच्चों पर बूरा असर आता है और फिर समाज टूटने लग जाता है। समाज जब टूटता जायेगा तो बच्चे भी टूटते जाएंगे |। उनके अन्दर भी गलत-गलत चीज़ें आ जाएंगी और वो भी रास्ते पर नहीं आएंगे। और जो घर की जो डिसिप्लिन नहीं होगी उसके बच्चे खराब हो जाएगे। उसका समाज खराब हो जायेगा। आज विलायत में क्या हो रहा है। वहाँ की स्त्री इसके जिम्मेदार नहीं समझती है कि उसको समाज को बनाये रखना है, समझदारी से रहना है। और पूरा समय लड़ती रहती है। लड़ने, झगड़ने से कभी भी घर में शांति नहीं आ सकती है। शांति लाने के लिये क्या करना है? पति से सुझाव करना है। उससे बात करनी है कि आखिर, क्या बात है? क्यों न हम दोनों प्रेम के साथ रहे । जिससे हमारे बच्चे ठीक हो जाये। परदेश में कुछ भी सीखने का नहीं है क्योंकि उनका समाज बिल्कुल विचलित हो गया है। एक-एक औरत है वहाँ आठ-आठ शादी करती है और रईस हो जाती है। उसको बस पैसे की लालच है। वो अपनी सामाजिक स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं है। वो यह नहीं सोचती है कि हमारा समाज, मेरे सर पर बैठा हुआ है। आज भी हिन्दुस्थान का समय आज इतना बिगड़ा नहीं है। उसका कारण है कि मातायें अच्छी है। पर माताओं को भी जबरदस्ती नहीं करनी चाहिये। उसे समझाना चाहिये, उससे दोस्ती करनी चाहिए और उनको अपने बराबर समझ कर के और ठीक रास्ते पर रखना चाहिये । 25 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-25.txt शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ गर हमारा समाज ठीक हो जाये तो जो दुविधाओं में हम पड़े हुए हैं, जो हमारे, जो हम सुनते हैं। कि खून खराबा हो रहा है, बॉम्ब फट रहे हैं, फलाना हो रहा है। इस तरह से आशंकित जीवन जो हमारे ऊपर लग गया है उसका कारण है, इन लोगों की माँये। उनकी माँओं ने गर इन बच्चों को ठीक से रखा होता तो आज वो इस तरह से बेकाबू नहीं होते। इस तरह से गंदे काम नहीं करते। उनको एक तरह से ऐसा जीवन मिल जाना चाहिए कि जो अत्यंत पवित्र हो और अपनी पवित्रता को वो हमेशा माने और उसकी स्वच्छता रखे। क्योंकि जब पवित्र जीवन होगा तभी आपकी शक्ति जो है, वो चलेगी नहीं तो शक्ति खत्म हो जायेगी। तो यही सोचना चाहिये कि शक्ति का आधार पवित्रता है और उसमें जब पवित्रता नहीं रह जायेगी तो शक्ति जहाँ की तहाँ बैठ जायेगी और आप भी निशक्त हो जायेंगे । अमेरिका जैसे देश में मैं देखती हूँ कि बच्चे एकदम निशक्त हैं। कहते हैं कि ६५% लोग अमेरिका में अब या तो बीमार पड़ जायेंगे या पागल हो जायेंगे। उसका कारण है कि घर में माँ का प्यार, माँ का दुलार, जो मिलना था वो ठीक से नहीं मिला है। और माँ का प्यार और भी ऐसा कुछ होना चाहिए कि जिससे बच्चे खराब न हो जाये। उस प्यार-दुलार में एक ही दुलार विचार रहना चाहिये कि हमारा बच्चा जो है वो इस तरह का बने कि एक श्रेष्ठ नागरिक हो जाये । एक श्रेष्ठ मानव हो जाये और एक श्रेष्ठ सहजयोगी हो जाये । इस दृष्टि से आप अपने बच्चों को अगर ट्रैनिंग देंगे तो अपना समाज एकदम ठीक हो सकता है और उसके लिए भी ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। थोडे देर अगर बच्चे मेडिटेशन कर ले तो बस काम हो जायेगा। पर अगर बच्चों को आपने छूट दे दी तो न जाने आज कल का जमाना इतना खराब है कि बच्चे कहीं से कहीं बहक सकते हैं। इसलिये आवश्यक है, कि आप जो औरतें अपने को सोचती हैं, कि हम लक्ष्मी हैं, फलाना हैं, ढिकाना है, सबसे पहले आप समाज का आधार है। समाज की ओर पुरुष की दृष्टि नहीं होनी चाहिए और होती भी नहीं है । उधर औरतों की होनी चाहिए। इसलिये मैं हमेशा कहती हैँ कि सहजयोग में औरतें कमजोर हैं, आदमी नहीं। इसका कारण मैं भी नहीं समझ पाती क्योंकि मैं भी एक औरत हूँ। औरतों को ध्यान -धारणा और सहजयोग के बारे में सब जानना बहुत ही जरूरी है। क्योंकि औरतों के ही कारण हम आज समाज को ठीक कर सकते हैं। आदमियों का तो चल ही रहा है मामला । कहीं उनका राजकारण है, कहीं उनकी अर्थव्यवस्था है, ये है, वो है, उससे आपको कोई मतलब नहीं है। आप अपने बच्चों को ठीक करिये। और उसके लिये आप भी रोज ध्यान करें। आप भी आदर करें, आप भी गहरे उतरें। गहराई लिये कितनी औरते हैं और जब कभी मिलती भी हो तो भी अपना ही रोना लिये बैठे हुए रहती है। इसलिये आज मैं कह रही हैँ कि गर आप शक्ति हैं तो आप शक्ति स्वरूपा होईये और 26 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-26.txt शक्ति.... आज मैं कह रही हूँ कि गर आए शक्ति हैं तो आप शक्ति स्वरूपा होईये 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-27.txt शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ उससे जो समाज का भला करना है वो करिये। उससे आपके देश का, अनेक देशों का कल्याण हो सकता है। और देशों के सामने बड़ा भारी उज्ज्वल उदाहरण हो जायेगा। लोग देख कर सोचेंगे कि वाह, क्या चीज़ हैं! इस तरह से अभी अपना देश हुआ नहीं है। अपने देश में अभी इतनी खराबियाँ अपनी औरतों में आ गयी है। एक तो फौरन, विदेशी चीज़ों से जल्दी प्रभावित होना। सिनेमा से प्रभावित होना और अपने को कच्चा दिखाना। बहुत जैसे कि सिनेमा की नायिका हैं, वैसे बनने की कोशिश करना। मैंने अभी सोचा था एक लड़की के बारे में कि उसकी शादी कर दें। तो खबर हुई कि वो शीशे के सामने तीन -तीन घंटे बैठे रहती है। तो फिर वो अपने बच्चों को कब देखेगी? अपने घर वालों को कब देखेगी ? वो इतने शीशे के सामने बैठने लायक है क्या? उसकी क्या इतनी जरूरत है? और इतना भी करके क्या शक्ल निकल रही है, वो भी देख लीजिये। हम तो पाँच मिनिट से ज्यादा नहीं बैठते हैं शीशे के सामने। पाँच मिनिट, वो भी काफ़ी हो गया। और इसी प्रकार फिर बढ़ते-बढ़़ते लड़कियाँ जो हैं वो गलत रास्ते पर जाती हैं। दूसरी वो लड़कियाँ जो बिगड़ गयी हैं, जो कान्वेंट में पढ़ी हुई हैं। जिन्होंने अंग्रेजी सीखी हुई है, वो इनको नीचा दिखाती है। उनके नीचा दिखाने से ये लोग भी उसी तरह से चलने लगते हैं। आपको चाहिये कि ऐसे लड़कियों को खुद आप सोचें कि 'ये कहाँ हैं?' ये तो बिल्कुल गुलामी में फँसी हुई हैं। आज ये कपड़ा आया, तो वो पहन लिया। कल दूसरा कपड़ा आया तो वो पहन लिया। घर में ढ़ेर के ढ़ेर लगा कर रख देंगे। इससे मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती है। खास कर के र्त्री की शोभा, इस तरह रोज के कपड़े बदलने से और फैशन करने से नहीं बढ़ती है शोभा ! अपनी शक्ति की जो भक्ति है वो करना चाहिये। उसको समझना चाहिये। उससे जो आपके अन्दर एक अप्रतिम विशेष आशीर्वाद मिलेगा, उससे आपके सारे ही प्रश्न किसी भी तकलीफ़ के बगैर ठीक कर सकते हैं। क्योंकि अब आपकी एकाकारिता इस सर्वव्यापी शक्ति से हो गयी है। तो लड़ने- झगड़ने से कुछ नहीं होने वाला है। शांति से ध्यान करके समझदारी रख कर अपने बच्चों को सीधे रास्ते पर लाना चाहिये। अब पति जो है, वो बहुत ज़्यादा समझ लीजिये कि राइट साइडेड हैं। बहुत सोच रहा है कि ये करूँगा, वो करूँगा। लेकिन औरत को उससे डर नहीं होना चाहिये । उसको ऐसा लगना चाहिये कि इसमें कैसे समाऊ? समा जाना। अपने घर, खानदान में उसको समा जाना चाहिये। जैसे कि समुंदर है, उसको एक तरफ से दबाओ तो वो दूसरे तरफ जा कर समा जाता है। इसी प्रकार स्त्री का हृदय होना चाहिये कि उसको एक तरफ से तकलीफ हुई तो उसको दूसरी तरफ से समा जाना चाहिये । 28 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-28.txt शक्ति..... भी हो, आप ऊपर उठ सकते हैं, तभी आप शक्ति हैं। सब से ऊपर, कुछ समाना माने क्या? समाना माने एकाकारिता । एकाकारिता लानी चाहिये। गर वो ये नहीं ला सकती तो फिर वो शक्ति नहीं है। पर वो झगड़ा करती है और सब से वाद-विवाद भी करती है, तो वो शक्ति नहीं है। शक्ति का मतलब ही ये है कि आप सब चीज़ में समा सकते हैं। सब से ऊपर, कुछ भी हो, आप ऊपर उठ सकते हैं, तभी आप शक्ति हैं। अगर आप उससे दब गये तो आप शक्ति नहीं हैं। आप निशक्त हैं । स्त्री के बारे में हमारे देश में अनेक बाते कही गयी है। और हम अपने भारत माता को भी, उसको भी हम, एक माँ के रूप में देखते हैं। हमारे यहाँ माँ बहत बड़ी चीज़ मानी जाती है। क्योंकि वो लड़के को गलत रास्ते से बचाती है। उसको सही तरीके से बड़ा करती है। उसको वो ऐसे बहुमूल्य गुण देती है कि जो उसको जिंदगी भर के लिये पूरे पड़ेंगे। ऐसी हालत में आप लोगों को यह सोचना चाहिये कि क्या हम अपने घर में शांति, सुख और आनन्द देते हैं? घर पर पति आया और आप लड़ाई-झगड़ा शुरू कर देते हैं। या, नहीं तो, बस रहने दो, रहने दो, रहने दो, इस तरह से एक अछुतापन। गर आप घर में आनन्द और प्रेम की श्रुष्टि करें तो आपके बच्चे ठीक से पले बढेंगे। उसी प्रकार पुरुषों का जो है हर समय अपनी बीबि से मज़ाक करना कोई बड़ी अच्छी बात नहीं है। नॉर्थ इंडिया में बहुत ज़्यादा है। बीबि का बड़ा मज़ाक करते रहते हैं, सुबह-शाम। उसमें कोई बड़ी भारी बुद्धि चातुर्य नहीं है। बेकार की बात है। अपने बीबि का गुण देखिये। जरूरी है कि उसको बखानिये। और उसको समझिये और उन गुणों से परिचित होकर के और उसका मान-पान सब रखना चाहिये। आज मैं इसलिये बात कह रही हूँ कि बहुत सी औरतें सहजयोग में आयी हैं लेकिन अभी उनमें कर्मकाण्ड बहुत है कि आज फलाना है, शुक्रवार है..... खास कर महाराष्ट्र में तो बहुत ज़्यादा है, बहुत ज़्यादा। आप स्वयं गुरु हो गये। आपको क्या कर्मकाण्ड करने की जरूरत है? सो, जो औरतें कर्मकाण्ड में फँसी हुई है, उनको बचाना है और उनको समझा के ये बताना है कि आप ही के अन्दर ये शक्ति है और इसी शक्ति से आप कार्यान्वित हो सकते हैं। आज मुम्बई शहर को देखते हुए मुझे लगता है कि इसमें परदेसी संस्कृति बहुत आ गयी है । बहुत ज़्यादा। हालांकि अपने जो सहजयोगी बाहर से जो आये हैं, उसे देखिये कि किस तरह से साड़ी वगैरे पहन कर के कायदे से बैठी है। सब पढ़ी -लिखी बड़े घर की लड़कियाँ हैं और कायदे से बैठी हैं। और हमारे यहाँ जो मैंने देखा है ये कि रात - दिन लड़कियों के शौक ही नहीं पूरे हो रहे 29 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-29.txt शक्ति की मतलब है पूरी ही शक्तियाँ हैं। होटलों में जाना, होटलों में खाना-वाना, आता-जाता तो कुछ नहीं है। और घूमने का शौक, दुनियाभर के शौक। एक शौक जो आ जाये कि सबको मैं आनन्द देने वाली शक्ति हूँ। उस शौक को आप पूरा करें, तो देखिये, कि समाज बदलेगा। और आदमियों को भी इस चीज़ का वखान करना चाहिये, मानना चाहिये और इसी तरह से स्त्री का मान रखने से ही हमारा समाज ठीक होगा। क्योंकि समाज र्त्री पर निर्भर है, पुरुषों पर नहीं। अब दूसरी बात जो हमें सोचनी है, वो ये है कि पूुरुषों के मामले में हम लोगों ने जो देखा है वो ये ही है कि उनके हाथ में राजकारण है और देश की अर्थव्यवस्थायें हैं। उस ओर भी उनको ध्यान देना चाहिये। अर्थव्यवस्था है, जैसी भी है, बूरी हो, जैसी भी हो, देश के लिए त्याग करना चाहिये। हमें तो आश्चर्य लगता है कि हम दो दुनिया में रह रहे हैं। या, जब हम छोटे थे, तब हमारे पिताजी जेल में, माताजी जेल में, तब घरों में कोई नहीं और हम लोग अच्छे बड़े घरों से निकल कर के झोपड़ियों में रहते थे और बहुत खुश थे। सारा पैसा, हमारी माँ के सब जेवर, सब गाँधी जी को उन्होंने दे डाला। इतनी त्यागमय प्रवृत्ति थी। हमारे पिताजी इतने त्यागमय थे, उनके पास इतने महंगे-महंगे सूट थे और जब वो काँग्रेस में आये तो उन्होंने चौराहे पर उनको सब जला दिया। वो लोग कुछ और ही थे। ऐसे तो आजकल कोई देखा ही नहीं जाता कि जो त्याग की बात करता हो। ज़्यादा तर लोग पैसा कैसे कमाना चाहिये? किसका जेब कैसे काटना चाहिये? बस यही सब सोचते हैं। वो लोग भी राजकारण में रहे हैं। वो लोग भी मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट थे और वो लोग भी कॉन्स्टिट्यूशन के मेम्बर थे, लेकिन उनमें सिर्फ त्याग की बुद्धि थी। मैंने तो देखा है कि, 'अच्छा, चलो ये कार्पेट रखा है न, अच्छा चलो बेच डालेंगे, पैसा मिलेगा, जो घर में रखा है, दे दो, क्या करने का है?' इतने त्याग वाले ऐसे लोग हमने देखे और उसके बाद आज कल ये जो भिखरी, जो सबके पैसे मार रहे हैं वो भी देख रहे हैं। सो बड़ा दुःख लगता है। इतना अंतर कैसे आ गया। पंचास साल में ये क्या हो गया? अपना देश ये कहाँ से, ये क्या हो गया है? इतनी लालसा, इतना पैसा, करोड़ों रूपये होंगे , फिर भी उनको समाधान नहीं है, तो भी वो किसी तरह से और जोड़ो, और जोड़ो करते हैं और सत्ता के पीछे में दौड़ेंगे। ये पुरुषों को समझना चाहिये कि हमने क्या त्याग किया है? हमारे फैमिली के लिये हमने क्या त्याग किया है? हमने अपने देश के लिये क्या त्याग किया है? हमने इस विश्व के लिये क्या त्याग किया है? कुछ तो हमने दिया कि ऐसे ही हम आये और सब दुनिया को लूट कर के हम चले गये हैं? अपने राजकारणी लोग ऐसा करते हैं । उनको मालूम नहीं कि ये कितना महान पाप है। ये तो जीवन इतना सा है। और इसके बाद का जो जीवन काटना होगा तो पता चल जायेगा सबको। जिन्होंने अपने देश के सारे पैसे लूट-लाट कर के 30 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-30.txt शक्ति..... त्याग की बुद्धि बहुत ही जबरदस्त है, वो बड़ी मदद करती है अपनी जेबें भरी है और फिर हमारा देश गरीब है। ऐसे चोर लोग अगर आपके राजकारणी नेता होंगे तो और क्या होगा? और अब फिर इलेक्शन आ रहा है और अब किसी भी चोर को वोट नहीं देना। सहजयोगियों को यह निश्चय कर लेना है कि चोर को वोट नहीं देना है । और जहाँ भी इश्तिहार लगा हो पर चोर को वोट न देना। इन्होंने हमारी सारी सम्पत्ति, सारा खजाना खाली कर दिया है, रिक्त हो गया है, है ही नहीं पैसा। सब खा खा कर के करोड़ो रूपये और चले गये हैं। उधर ध्यान ही नहीं है इन लोगों का। तो जिन्होंने आज तक चोरी की है और चोरी कर कर के अपने देश को इस तरह से जलील कर दिया है, ऐसे लोगों को आप लोग वोट न दीजिये। मैं कोई किसी एक पार्टी के तरफ से नहीं बोल रही हूँ। पर मैं हृदय से कहती हूँ कि अब आप लोगों को उन्हीं लोगों की मदद करनी चाहिये कि जो ईमानदार है। क्योंकि आप की माँ बहुत ईमानदार है। आप अगर बेईमान होते तो आपको सहजयोग नहीं मिल सकता था। इसलिये बहुत आवश्यक है, कि आप अपनी कीमत आँके कि आप क्या हैं। चलो दो-चार कम ही कपड़े ले लिये, चलो दो-चार जेवर कम ले लिये तो क्या होगा? किन्तु त्याग की बुद्धि बहुत ही जबरदस्त है, वो बड़ी मदद करती है और उसी से अपना देश बदलेगा। वो त्याग करने वाले लोग कहाँ गये हैं, पता नहीं सब जेल में गये और अब यहाँ हैं नहीं। दुनिया में हमें कोई दिखा ही नहीं है, बहुत ही कम, इसलिये एक चीज़ है कि हम सत्य पर चलें और हम किसी को भी लालच वरगैरे कुछ नहीं देंगे, कभी नहीं देंगे। ऐसे आप लोग तय कर लें तो बम्बई से सब अपना बिस्तर लेकर भाग जायेंगे| आप लोग काफ़ी हैं। और मैं आपको आज आज्ञा करती हूँ कि ऐसे चोरों को वोट न दें। 31 नि 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-31.txt సాధ్ట్ т 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-32.txt १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला हैं। और एक छलांग आपको मारनी होगी, जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। ३०/३/१९९० दिल्ली .इस समुद्र की समान ही अपना हृदय विशाल तब होगा जब हमारे अन्दर अत्यन्त नम्रता और प्रेम आ जाएगा। लेकिन अपना ही महत्व करना, अपने को ही विशेष समझना, ये जो चीज़ है इसमें सबसे बड़ी खराबी यह है कि परम चैतन्य आपको काट देगा। तुम्हे तुम्हारा महत्व है, तुम जाओ। और फिर जैसे कोई नाखून काट कर फेंक देता है इस तरह से आप एक तरफ फेंक दिए जाएंगे। जो मेरे लिए बड़ी दु:खदायी बात होगी। और दो-चार लोग और ऐसे निकल आए जो सोचे कि हम बहुत काम करते हैं, हमने ये कार्य किया, हमने वो कार्य किया, उनको फौरन ठण्डा हो जाना चाहिए। पीछे हटकर देखना चाहिए कि हम ध्यान करते हैं? हमारा ध्यान लगता है? हम कितने गहरे हैं? और फिर हम किसको प्यार करते हैं? किस-किस को प्यार करते हैं ? कितनों से दुश्मनी लेते हैं। सहजयोग में कुछ लोग बड़े गहरे बैठ गए हैं, बहुत गहरे आ गए हैं इसमें कोई शंका नहीं। और बहुत से अभी भी किनारे पर डोल रहे हैं। और फिर वो कब फेंक दिये जाएंगे कह नहीं सकते क्योंकि मैंने आपसे पहले ही बताया है कि १९९० साल के बाद एक नया आयाम खुलने वाला है। और एक छलांग आपको मारनी होगी, जो आप इस स्थिति से निकल कर उस नयी चीज़ को पकड़ लेंगे। जैसे कि चक्का है, जब घूमता है तो एक बिन्दू पर आकर आगे सरक जाता है, इसी प्रकार सहजयोग की प्रगती भी सामूहिक होने वाली है और इसमें टिकने के लिए पहली चीज़ हमारे अन्दर पावित्र्य होना चाहिए जो नम्रता से भरा हो । वैसे तो आपने दुनिया में बहुत से लोग देखे हैं, जो अपने को बड़ा पवित्र समझते हैं। सुबह-शाम संध्या करते हैं और किसी को छूने नहीं देते। ये खाना नहीं खाएंगे, वो आएगा तो कहेंगे कि तुम दूर बैठो, उनको छू दिया तो उनकी हालत खराब। ये पागलपन है, अगर आप एकदम स्वच्छ हैं, पवित्र हैं तो आपको किसी को छने में, बात करने में, अपवित्रता आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि आपका स्वभाव ही शुद्ध करने का है। आप हर चीज़ को ही शुद्ध करते हैं तो आप जिससे मिलेंगे आप उसी को शुद्ध करते जाएंगे| उसमें डरने की कौनसी बात है ? उसमें किसी को ताड़ने की कौन सी बात है? उसमें कानाफूँसी करने की कौनसी बात है? तो ये तो लक्षण एक ही है कि आपकी स्वयं की पवित्रता कम है। अगर आपकी पवित्रता सम्पूर्ण है, तो उस पवित्रता में भी शक्ति और तप है और वो इतना शक्तिशाली है कि वो कोई सी अपवित्रता को भी खींच सकता है। जैसे मैंने कहा, कि हर तरह की चीज़ समुद्र में एकाकार हो 33 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-33.txt जाती है। अब दूसरे लोग हैं, जो सिर्फ अपनी ही प्रगती को सोचते हैं| वो ये सोचते हैं कि हमें दूसरे से क्या मतलब ? हम अपने कमरे में बैठ कर माँ की पूजा करते हैं। उनकी आरती करते हैं, उनको मानते हैं और चाहते हैं कि हमारी उन्नति हो जाए। हमें दुनिया से कोई मतलब नहीं और दूसरों से कटे रहते हैं। ऐसे लोग भी बढ़ नहीं सकते क्योंकि आप एक ही शरीर के अंग -प्रत्यंग हैं। समझ लीजिए कि एक अंगुली ने अपने को बाँध लिया और कहेगी कि मुझे किसी और से कोई मतलब नहीं, अलग से रहँगी। ये तो अंगुली मर जाएगी। क्योंकि इसमें रक्त कहाँ से आएगा ? इसमें नस कैसे चलेगी? इसमें चेतना का संचार कैसे होगा ये तो कटी हुई रहेगी। आप एक बार इसे बाँध कर देखिए और पाँच दिन बाँधे रखिए। आप पाएंगे कि अंगुली काम ही नहीं करेगी। किसी काम की नहीं रह जाएगी। फिर आप कहेंगे, कि माँ मैं तो इतनी पूजा करता हूँ इतने मंत्र बोलता हूँ, मैं तो इतना कार्य करता हूँ, फिर मेरा हाल ऐसा क्यों हैं। क्योंकि आप विचलित हैं। ..बहुत से लोग सहजयोग के प्रचार के लिए बहुत कार्य करते हैं जिसे हम कहे कि पृथ्वी से समांतर चारो ओर फैलता वो लोग अपनी ओर नज़र नहीं करते वे उत्थान की गति को हुआ। नहीं प्राप्त होते हैं। बाह्य में वो बहुत कुछ कर सकते हैं। बाह्य में दौड़ेंगे, बाह्य में काम करेंगे, कार्यान्वित होंगे, सबसे मिलेंगे-जुलेंगे लेकिन अन्दर की शक्ति को नहीं बढ़ाते। बहुत से लोग हैं अन्दर की शक्ति की ओर बहुत ध्यान देते हैं, लेकिन बाह्य की शक्ति की ओर नहीं। तो उनमें संतुलन नहीं आ पाता। जब लोग बाह्य की शक्ति की ओर बढ़ने लग जाते हैं, तो अन्दर की शक्ति क्षीण हो जाती है। क्षीण होते होते ऐसे कगार पर पहुँच जाते हैं कि फौरन अहंकार में ही डूबने लगते हैं। वे ये सोचते हैं कि हमने देखिए कितना सहजयोग का कार्य किया । हम सहजयोग के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं। और फिर ऐसे लोगों का नया जीवन शुरू हो जाता है, जो कि सहजयोग के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं। वो अपने को सोचने लगते हैं कि हम एक बड़े भारी अगुआ हैं। उनका बहुत महत्व होना चाहिए। हर चीज़ में वो कोशिश करेंगे कि हमारा महत्व होना चाहिए। इसके बाद हालात देखें तो उनको कोई बीमारी हो गयी, पगला गए या कुछ बड़ी भारी आफ़त आ गयी। तो फिर कहते हैं कि, 'माँ हमने आपको तो पूरी तरह समर्पित किया था तो यह कैसे हो गया ?' 34 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-34.txt ৯ आपको जान लेना होगा कि सत्य आपके चरणों पर नहीं गिरने वाली] यदि आपसत्यको प्राप्त करनाचाहते है तो आपको सत्य के केदमों में गिरना होगा। (य.पू.श्रीमाताजी, निर्मल योग १९८३) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफमेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2014_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-35.txt ০০৩ पूजी में आने से पहले अपने चक्रों को साफ करें तथा ध्यान करें नहीं तो मुझे कष्ट होती है। पूजा के मध्य लोगों को घड़ी नहीं देखनी चाहिए। प.पू.श्रीमातीजी, ३१.३.१९९५