चैतन्य लहरी हिन्दी मई-जून २०१४ २ क मोमबत्ती की ज्योति आपको बता सकती है कि आए भूत बाधित हैं या नहीं। मोमबत्ती को इतना ज्ञान है। मान लो आपको हृदय चक्र की समस्या है, आपको हृदय-रोग है तो मोमबत्ती इसे दर्शायेगी और यदि आप मोमबत्ती के प्रकाश से अपना इलाज करे तो आए स्वय को रोग मुक्त कर सकते हैं। अत: यह इतनी संवेदनशील है कि यह केवल रोग मुक्त नहीं करती पूर्ण सक्षम भी है यही कारण है कि भारत में अगनि की पूजा की जाती थी, सम्भवत: वे समझ गये थे कि अग्नि सब कुछ जानती है। प.पू. श्री माताजी, कबेला, २१.७.२००२ श्ी ्ी C० B5ब्र इस अंक में सहज का झंडा सब तरफ फैल जाए ...४ स्वधर्म, स्व माने हमारी आत्मा ...१४ 'सहस्त्रार' पर श्रीमाताजी का उपदेश ...२४ इांडा सहज का २ब त२फ फैल जीए तरफ दिल्ली, दि.१० मार्च १९९१ १ सहजयोग एक स्वर्ग है, हमने हिन्दुस्तान में खड़ा कर दिया है सहर्ज का इंडा सब त२फ फैल जीए रहजयोग आज आप लोगों ने मेरा जन्मदिवस मनाने की इच्छा प्रकट की थी। अब मेरे कम से कम चार या पाँच जन्मदिवस मनाने वाले हैं लोग। जितने जन्मदिवस मनाइऐगा उतने साल बढ़ते जाएंगे उम्र के। लेकिन आपकी इच्छा को मैंने मान लिया कि इसमें आपको आनन्द मिलता है। तो ठीक है। लेकिन ऐसे दिवस हमेशा आते हैं। उसमें कोई एक नई चीज़ हमारे जीवन में होनी चाहिए क्योंकि हम सहजयोगी हैं, प्रगतिशील हैं और हमेशा एक नई सीढ़ी पर चढ़ने का यह बड़ा अच्छा मौका है। सहजयोग में जो आज स्थिति है वो बहुत अच्छी है। जब भी हम देश की हालत देखते हैं तो हमें लगता है कि सहजयोग एक स्वर्ग है, हमने हिन्दुस्तान में खड़ा कर दिया है और सहजयोग की हमारी जो साधना है, इसमें हम जो समाये हुए हैं, इसका जो हम आनन्द उठा रहे हैं, यह एक स्थिति पर पहुँच गया है और इसका आधार बहुत बड़ा है। इसका आधार है कि आपने अपनी शुद्धता को प्राप्त किया, अपनी शांति को प्राप्त किया और अपने आनन्द को प्राप्त किया। ये आपकी विशेष स्थिति है, जो औरों में नहीं पाई जातीं। इसको देखकर सब लोग समझ गये हैं कि ये कोई विशेष लोग हैं और इन्होंने कुछ विशेष प्राप्त किया है। मैं जहाँ भी जाती हूँ लोग मुझे बताते हैं कि हम एक सहजयोगी को जानते हैं, वो बहुत नेक और बढ़िया आदमी हैं, उसका जीवन एकदम परिवर्तित हो गया है। उन्होंने अपने को सहजयोग के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया है और उनका सारा कारोबार अच्छी तरह चलता है। उनका कुटुम्ब भी बहुत सुखी है, सब तरह से वो एक आनन्दमय वातावरण में रहते हैं। ऐसा मुझसे लोग कहते हैं और फिर कहते हैं, 'माँ, हमें भी बताओ।' मैं कहती हैँ, 'आओ हमारे मंदिर में आओ, लोगों से मिलो, उनसे बातचीत करो।' आप सब लोगों ने भी सहजयोग को इस तरह से अपनाया है और बढ़ाया है कि कमाल की चीज़ है। हमें एक बात जान लेनी चाहिए कि हमारे पास जो विशेष शक्तियाँ हैं वो किसी के पास भी नहीं आई । आजतक कोई भी कुण्डलिनी का जागरण इतनी आसानी से नहीं कर सकता था। कोई भी चक्रों का निदान नहीं लगा सकता था। ये किसी को मालूम ही नहीं था कि चक्रों का निदान आप अंगुलियों पर जान सकते हैं। किसी शास्त्र में ये नहीं लिखा। किसी ऋषि- 6. स्वर्ण णट एक मुनि ने ये बात नहीं बताई कि आप अंगुलियों पर चक्रों का निदान बता सकते हैं। चक्रों पर बात की है, सहस्रार पर बहुत कम लोगों ने बात की है। आप लोग इतने सूक्ष्म ज्ञान को इतने आसानी से प्राप्त कर गये क्योंकि आपने भी इस पर बहुत ध्यान दिया और आत्मा के प्रकाश में इस सूक्ष्म ज्ञान को आपने प्राप्त कर लिया। अब आप सहजयोग बना रहे हैं और सहजयोग के जो नियम हैं उनमें आप बहुत सहजता से आ गये हैं। किसी को मैंने इसमें रुकावट करते हुए नहीं देखा, किसी ने मुझसे वाद-विवाद नहीं किया और आसानी से सब बातों को मान गये। जैसे कि मैंने कहा कि हम बाह्य के जाति, धर्म, भेद आदि को नहीं मानते। अभेद को मानते हैं। हम सब एक परमात्मा के अंश हैं और उस अंश को, उस विराट स्वरूप को जानना चाहिए। उसमें जागृत होना चाहिए। ये जो बाह्य में विकृतियाँ आ गई हैं इनको छोड़ कर के अन्तरतम में हमें अपनी एकता जाननी चाहिए । धीरे - धीरे मैं देखती हूँ कि सब लोगों में इसका आनन्द आने लग गया। यही आनन्द है, जो आपको यहाँ खींच कर लाता है और हर बार आप चाहते हैं कि आनन्द हम दूसरों से भी बाँट खायें। जैसे एक शराबी अकेले शराब नहीं पी सकता, उसी प्रकार आप भी अकेले इस आनन्द को नहीं उठा सकते। तो अगर एक आदमी सहजयोग में आ गया तो उसके सारे रिश्तेदार सहजयोग में आने चाहिए। सब मिलने वाले, सब दोस्त आने चाहिए और सबको सहजयोग प्राप्त करना चाहिए। तो पहला प्रलोभन तो शारीरिक होता है, शरीर की व्यथा दूर हो गई, मानसिक व्यथाएं दूर हो गईं और आपसी रिश्ते ठीक हो गये। आपस में मेल-जोल बढ़ गया, बच्चे ठीक से चलने लग गये, हर तरह की आपकी प्रगति हो गई, यहाँ तक कि लक्ष्मी जी की कृपा हो गई। हर पल, हर घड़ी आप देखते हैं कि आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और परमात्मा आपकी मदद कर रहे हैं। इतने चमत्कार हो गये सहजयोग में कि उनको लिखकर निकालने की किसी को हिम्मत नहीं होती। कहते हैं, माँ पहले आप इसे छान लो, जो लिखने वाला हो वही लिखें, नहीं तो न जाने कितने ग्रंथ हो जाएंगे। सामाजिक स्तर पर हम लोगों ने बहुत उन्नति की है। और धर्म में भी हम जम गये हैं। देखिये, हममें सच्चाई आ गयी है। बहुत बड़ी बात है। आपस में मैंने देखा है, कि सहजयोग में कोई पैसा वैसा नहीं खाता। सहजयोग के लिए कुछ रूपया-पैसा दीजिए तो कोई उसे नहीं खाता। बहुत लोग कहते हैं, कि माँ, ये भगवान से डरते हैं इसलिए पैसा-वैसा नहीं खाते। किंतु मैं सोचती हूँ कि सहजयोग में एक तरह का समर्थ बनना अपने आप घटित होता है। समर्थ-सम माने आप, अपने साथ अर्थ बनना-आपमें जो दस कला में सहजयोग ने बहुत कुछ कार्य किया है। सहर्ज का इंडा सब त२फ फैल जीए में कला धर्म बसे हुए हैं, वो जागरूक हो जाते हैं और मनुष्य समर्थ हो जाता है। उसको अपने अच्छे लगने लग जाते हैं। उसी में उसे मजा आता है और दर्गुण से वो भागता है । गुण दुर्गुणी व्यक्ति से या तो भागता है, या शान्तिपूर्वक कोशिश करता है, कि इसके दर्गुण भाग जाएं। दुर्गुण निकालने के तौर-तरीके भी उसे मालूम है, उसे वो इस्तेमाल करता है और बहुत बार यशस्वी हो जाता है, उसमें यश पा लेता है। इसी प्रकार आपने देखा है, कि कला में सहजयोग ने कार्य किया है। बहुत कुछ बहुत से कलाकारों में एक नया आयाम आ गया है, एक नई दिशा आ गई है। यही नहीं, विदेशों में भी मैंने देखा है कि कलाकार बहत सी नई -नई बातें सोचने लगे हैं। बहुत से आर्टिस्ट, पेंटर, म्यूजिशियन, सबमें एक नया उत्साह, एक नई धारणा, एक नया विचार प्रगठित हो गया है। समाज के भी बहुत से प्रश्न हल हो गये हैं। आप लोगों के जो छोटे- छोटे प्रश्न थे वो भी हल हो गये। जो छोटी तबियत वाले लोग थे वो ठीक हो गए और जो गर्म मिजाज के थे वो भी ठीक हो गए, जो बहत ही ठंडे थे वो भी उठ खड़े हुए। अब ये सारी सेना तैयार हो गई। एक विशेष प्रकार की सेना है। किसी देश में नहीं, आप तो जानते हैं (ऐसा कहते हैं) कि सहजयोग छप्पन देशों में चल रहा है। मैं कह रही हूँ तीस देशों में बहुत ही कार्यान्वित है। बहुत कार्य हो रहा है | और सहजयोग बढ़ रहा है | सहजयोग को बढ़ाना भी बहुत बड़ी चीज़ है। जो लोग सहजयोग को बढ़ाते हैं वो बहुत | बड़ा परमात्मा का कार्य कर रहे हैं। वो आप संगीत के द्वारा बढ़ायें, कला के द्वारा बढ़ायें या भाषणों के द्वारा बढ़ायें। इस तरह से भी यह बढ़ सकता है। आप सहजयोग बढ़ा रहे हैं। वैज्ञानिक तौर पर भी, जैसे अमेरिका के विज्ञान के लोग हैं उन्होंने बहुत बातों पर लिखने का सोचा हुआ है। बहत उपर जिम्मेवारी लेकर के, कठिन परिश्रम से यह स्थापित कर दिया है कि सहजयोग एक से डाक्टरों ने यहाँ बहुत कार्य किया हुआ है। अपने वास्तविक सत्य है। जब मैं संसार में आई और जब मैंने दुनिया के तरफ नज़र की तो मैं सोचती थी कि इस अंधेरे में मेरी यह छोटी सी रोशनी क्या काम कर पायेगी ? कोई देख 8. ोग राहजय भी नहीं पायेगा। किसी के इसके बारे में कहने की बात तो छोड़िये, इसके बारे में विचार भी करने के लिए मैं सोचती थी कि क्या फायदा। ये तो लोग इतने अन्धकार में हैं, अज्ञान में हैं। जिन्होंने ज्ञान भी इकठ्ठा किया था वो सिर्फ बौद्धिक था। किताबें पढ़-पढ़ करके बातें सीख गये थे । उनके आगे बात करने से कोई विश्वास किसी को नहीं होता था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि मैं यह परिवर्तन की भाषा कह सकती हूँ। लेकिन अब साध्य हो गया और आप जानते हैं कि यह सब कुछ हो गया। आज की शुभ घड़ी पर में देख रही हूँ कि अपने देश के ये हालात देखते हुए और जिस तरह से सबकुछ हो रहा है, हमको राजकीय क्षेत्र में उतरना चाहिए। जब तक हमारे जैसे लोग राजकीय क्षेत्र में नहीं आयेंगे हमारे देश की हालत ठीक नहीं हो सकती। एकदम सड़कर, ये पता नहीं क्या हो गई है? इसकी आँच सहजयोगियों पर भी आने वाली है। ये नहीं कि आप लोग बच जायेंगे| हालांकि आपको इससे कोई तकलीफ नहीं होनी, हालांकि आप इसमें निकल आएंगे , फिर भी यदि आपको अपने देशवासियों का ख्याल है और अगर आपको अपने बच्चों का ख्याल है, तो बेहतर है, कि हम लोग ही समाज के जो कार्य कर रहे हैं। उसे राजकीय स्वरूप दें। और राजनीति में उतरकर हम सिद्ध कर दें कि जो लोग नेक हैं, धार्मिक हैं, जो सत्य पे चलने वाले लोग हैं, जिनमें लालच नहीं है, ऐसे लोग एक नये तरह का राजकीय राष्ट्र बना सकते हैं। किसी भी देश में जाईये, चाहे वह प्रजातन्त्र हो चाहे साम्यवाद हो या कुछ और, डिमोक्रेसी में तो मैंने कोई ऐसा देश नहीं देखा जहाँ पर बेईमानी न हो। कहीं कम कहीं ज्यादा। अनैतिकता खुले आम बहुत जगह चल रही है। यदि आप कम्युनिस्ट देशों में जाईये तो वो तो अब टूट ही गये हैं सारे, वहाँ पर जो लोगों से जबरदस्ती काम कराया जाता है, उससे उनकी स्वतन्त्रता तक चली गई है। इसलिए दोनों तरह से एक तरफ तो सत्ता और दूसरी तरफ पैसा-इन दोनों के पीछे ही सब देशों के लोग भाग रहे हैं। अब हमें अपनी जो सतह है-जिस सतह से हम सब चीज़ की तरफ देखते हैं-फिर वो अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न हो, राष्ट्रीय हो या हमारे छोटे-छोटे कस्बे या गांवों का हो जब हम अपनी सतह से उसे देखते हैं तो विश्वस्तता की दृष्टि से, उसकी विशालता की दृष्टि से हम लोग उसे देखते हैं। दूसरे उसकी गहनता से देखते हैं, कि उसमें कौन सी खराबियाँ हैं? और ये खराबियाँ हम कैसे निकाल सकते हैं। ये खराबियाँ भी हम लोग बहुत आसानी से निकाल सकते हैं क्योंकि आपके पास बहुत बड़ी शक्तियाँ हैं, बन्धन के सहारे आप जानते हैं, कि आप बहुत कुछ काम कर सकते हैं और बहुत 9. हमें भारतीय संस्कृति में उतरना चाहिए। सहर्ज का इंडा भारतीय सब त२फ फैल जीए लोगों को अपने सहजयोग में ला सकते हैं। अभी मुझे एयर फोर्स के बहुत से लोग मिले थे, वो कहने लगे कि, 'माँ, हमें भी ले लीजिए।' हम जानते हैं कुछ सहजयोग के लोगों को जो एयर फोर्स में हैं और उन्होंने बहुत कमाल कर दिया है। फिर कुछ पुलिस वाले हैं, वो भी हमारे साथ चल पड़े हैं। महाराष्ट्र में 'पुलिस टाइम्स' में सहजयोग के बारे में भी | कुछ छपता है। इसी प्रकार कुछ अखबार वाले भी हमारे साथ मिल गए हैं और बहुत सरकारी नौकर भी सहजयोग में आ गए हैं। जब उनकी बदली हो जाती है, तो सहजयोग फैलाते हैं, इसी प्रकार यदि हम राजनीति में उतर जाएं तो राजकीय समस्याओं का हल भी निकाल सकते हैं। इसको सबसे पहले हमें जानना चाहिए कि इस मामले में हमारी हो वो साफ-सुथरी होनी चाहिए। उसमें सिर्फ देश के हालात ठीक करना चाहतेहैं और लोगों तक उनके अधिकार पहुँचाना जो भी इच्छा शुद्धता होनी चाहिए। हम कुछ चाहते हैं। इतना ही नहीं उनके अन्दर धर्म जागृत करना चाहते हैं, जिससे कि हमारा देश बहुत सुचारू रूप से तथा सुन्दरता से आगे बढ़े और सारे संसार के लिए आदर्श बन जाये। इस देश में अनेक शक्तियाँ हैं, बहुत ही ज़्यादा आध्यात्मिक देश है। अध्यात्म की शक्ति को, कोई माने न माने, आप तो जानते ही हैं। इस देश की शक्तियों को अच्छी तरह से हम अपने इस्तेमाल में ला सकते हैं। इसमें एक बात हमें और याद रखनी चाहिए कि हमें भारतीय संस्कृति में उतरना चाहिए। विदेशी संस्कृति में अगर हम लोग जाने लग जाएं तो विदेश की जो खराबियाँ हैं वो हमारे अन्दर आ जाएगी। भारतीय संस्कृति का जो शुद्ध स्वरूप है, वो आत्मसाक्षात्कार के लिए बहुत पोषक है। अगर हम भारतीय संस्कृति में नहीं आएंगे तो कभी भी इस देश का हाल ठीक नहीं हो सकता। ये तो ऐसा है, जैसे मैं सदा ही कहती हूँ कि आम का पेड़ यदि आप विदेश में लगाइये तो उसमें न आम आयेंगे न सेब। इसलिए जो आदमी भारतीय है उसे भारतीय संस्कृति में ही आना चाहिए और परदेश में जितने भी सहजयोगी हैं, आश्चर्य की बात है, हमेशा कहते हैं कि, 'माँ, हमें भारतीय संस्कृति में आप उतारिये।' ये तो बहुत सौम्य संस्कृति है। इसमें 10 सस्कृति सब बच्चे, लोग अत्यन्त सौम्य हैं, सहनशील हैं। इतना ही नहीं धार्मिक हैं। तो जो शुद्ध स्वरूप भारतीय संस्कृति का है, उसको हमें बनाना है और उस पर विचार करना है। हमारे घर में भी वो संस्कृति आनी चाहिए । बहुत से लोग मुसलमानों द्वारा हम पर लादी गई पर्दा प्रथा आदि को भारतीय संस्कृति मानते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। दक्षिण भारत तथा महाराष्ट्ट्र की औरतें पर्दा आदि कुछ नहीं करती। वो सब भारतीय संस्कृति से रहती हैं। पर्दा-प्रथा उत्तरीय हिन्दुस्तान में चल पड़ी थी। औरतों को दबाना उनके साथ दुष्ट व्यवहार बिल्कुल भारतीय संस्कृति में नहीं है। भारतीय संस्कृति में तो, आप जानते ही हैं, बहुत -बहुत विद्वान औरतें हुई हैं। उन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों के साथ वाद - विवाद कर बड़ी पंडिताई हासिल की। औरत को अपनी संस्कृति में कभी भी नीचा नहीं समझा गया। स्त्री तथा पुरुष, दोनों का अपना अपना स्थान माना गया। जब विदेशों के लोग हमारी संस्कृति को ले रहे हैं तो क्या अपने लिए जरूरी नहीं कि हम भी अपनी संस्कृति को समझें तथा जानें? बहुत सी बातों में हम सोचते हैं कि उनका अनुकरण करना आसान है। लेकिन वो लोग | सोच रहे हैं कि उन्होंने जो गलतियाँ की इसका कारण उन पर किसी तरह के अंकुश का न होना था। एक कटी पतंग की तरह वो लोग मनमानी करते और अति पर चले जाते। तब उन्हें पता लगता कि गलतियों के कारण कई बीमारियाँ हो गई, सारा उनका समाज नष्ट भ्रष्ट हो गया। हमारी संस्कृति की नैतिकता हमारा अंकुश है। नैतिकता को हमें समझ लेना चाहिए। और वो जब तक हमारे अन्दर पूरी तरह उतरेगी नहीं हम लोग असली तरह से सहजयोगी भी नहीं हो सकते । क्योंकि यह सहजयोग के लिए बहुत पोषक है । मैं इसलिए नहीं कह रही कि मेरा जन्म हिन्दुस्तान में हुआ है और मैं हिन्दुस्तानी हूँ। बाहर की अच्छी चीजें भी सीखनी चाहिए । लेकिन भारतीय संस्कृति को यदि आप अपना लें तो वो सब अपने ही आप आ जायेंगी। उनके बनाये कायदे कानून तथा अनुशासन ही उनसे सीखने की चीज़ है। वो भी अपने आप आ जायेगा क्योंकि भारतीय संस्कृति सब चीज़ में असर करती है, हर चीज़ को वो ठीक करती है। जीवन के जितने प्रांगण हैं, जितने भी आयाम हैं, सबमें वो एक दैवी प्रकृति को प्रस्थापित करती है। यह दैवी प्रकृति को प्रस्थापित करने की बात और किसी भी संस्कृति में नहीं है। इसलिए हमें भारतीय संस्कृति को स्वीकार करना चाहिए और उसमें अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझना चाहिए कि हम लोग भारतीय संस्कृति में उतर गये। मैं गांधीजी के साथ सात साल की उम्र से थी, उन्हें देखती थी। उन्होंने 11 धर्म पर बहुत बात की लेकिन गांधीजी बहुत कड़क स्वभाव के आदमी थे। सहजयोग ऐसा नहीं है। यहाँ कोई जबरदस्ती नहीं है। गांधीजी का यह स्वभाव था कि चाहे जो हो सहर्ज का इंडा जाए सवेरे चार बजे उठना है। अब परदेश के सहजयोगी करते हैं, हम लोगों से बहुत सब त२फ फैल जीए बहुत अधिक मेहनत करते हैं। हमारे यहाँ तो कोई आश्रम ही में नहीं रहना चाहता। कहते हैं, 'माँ और तो कोई नहीं रहना चाहता अब आप ही आश्रम में रहो। आश्रम बनाया तो लोगों को आश्रम ही नहीं अच्छा लगता, घर से ही चिपके रहते हैं। गांधीजी का नियम था कि सवेरे चार बजे उठकर नहा धो कर प्रार्थना में जाओ । वहाँ साप वरगैरह सब घूमा करते थे , प्रार्थना में साँप दिखाई पड़ जाते थे। इतने तेज़ वे चलते थे, कि उनके साथ सबको दौड़ना पड़ता था। इतने उनके कायदे कानून थे कि खाने के लिए उबला हुआ खाना और चाहें तो उस पर थोड़ा सा सरसों का तेल आप डाल सकते थे। सभी को ऐसा खाना पड़ता था, चाहे वो जवाहर लाल हो या अब्दुल कलाम आजाद। खुद भी वे बड़े भारी अनुशासन में थे, संन्यासी थे। बहुत कड़क उनका स्वभाव था। कोई भी यदि जरा सी गलती कर दे तो सबके सामने उसे लज्जित कर देते थे। उस वक्त इस चीज़ की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। तब तक लोगों ने देश को बहुत प्यार किया। मेरे माता-पिता ने देश के लिए सब कुछ त्याग दिया। हम लोग घर छोड़ झोपड़ियों में रहते थे। इतना त्याग, इतनी श्रद्धा देश को आजाद करवाने के लिए थी। आज आजाद हो कर देश का क्या हाल हुआ है। इसी तरह बड़े वीर लोग थे उस समय। से इस तरह की भावना यदि हम लोगों में जाग जाये तो हम अपने देश की पूरी तरह काया पलट कर सकते हैं। इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। लेकिन वो त्याग बुद्धि होनी चाहिए और त्याग में बड़ा गर्वित होना चाहिए । इसमें रोने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज भी देश के प्रति पूर्णतया समर्पित होकर ही हम देश की राजकीय स्थिति पूरी तरह ठीक कर सकते हैं। सहजयोग में आपके कोई प्रारम्भ -आदि जाने की बात नहीं है। कोई कुछ भी करे आपका जीवन बना हुआ है और हर तरह से आपको सुख है। सुख ही सुख है, आनन्द ही आनन्द है। लेकिन सोचना चाहिए कि ये एक तरह का चॉकलेट है, जिसको आप खाते हैं। लेकिन इसके अन्दर एक गहन चीज़ वो है, जहाँ आपको तप करना होगा। जब तक कि तपस्या नहीं होती तब तक आप पूरी तरह से सहजयोग को प्राप्त नहीं कर सकते। ये तपस्या वैसी नहीं जैसे हिमालय पर जाकर कपड़े उतार ठंड में ठिठ्रते रहो। ये तपस्या ऐसी है कि मनसा-वाचा- कर्मणा आपको समर्पित होना चाहिए एक बड़े उद्देश्य के लिए एक बड़ी चीज़ के लिए। तब फिर अपने आप बहत सी चीज़ें घटित हो जायेंगी। 12 प आज तक मैंने आप पर किसी चीज़ का बन्धन नहीं डाला, किसी चीज़ की मनाही नहीं की। सब प्यार की बातें होती रहीं, एक प्यार ही देती रही, प्यार बढ़ता रहा, सब आपस में मजा-मजा होता रहा। लेकिन आज जब आपने जन्मदिन की बात की है तो एक नया आयाम हमारी जिन्दगी में हो जाए, नये इरादे हो जाएं। जिन इरादों में हम बाद में गर्व करें ऐसे इरादे हम में हो सकते हैं। आप लोग सहजयोगी हैं, आपका हर इरादा पूरा हो जाता है। मेरा तो कोई इरादा ही नहीं है, मुझे तो कोई इच्छा ही नहीं है, लेकिन आप लोग अगर इच्छा करें तो सब चीज़़ ठीक हो सकती है। हमारे देश की स्थिति के लिए आपको मन से प्रार्थना भी करनी चाहिए और आज पूजा भी करनी चाहिए इसी चीज़ को सोच के कि हमने अपने देश की स्थिति ठीक करनी है और हमारे अन्दर वो शक्ति आए जहाँ हम अपनी छोटी सी जो जिन्दगी है उसका ख्याल करके कम से कम देश की ओर नज़र करें, इसके जो हालात हैं, उन्हें समझ लें और उसमें कार्यान्वित हों। आज का दिन आप सबको शुभ हो। आशा है, कि मेरे जीते जी मैं वो भी दिन देख सकूं कि जब हमारा देश पूरी तरह से इन सब गंदगियों से आजाद हो जाए और सहज का झंडा सब तरह फैल जाए। आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 13 (श स्वधर्म 'सव' माने हमारी आत्मा २२ फरवरी १९८२ कार क्या बात है? देखिये, ऐसे बाधित बच्चों को प्रोग्राम में लाकर डिस्टर्ब नहीं करना चाहिये । आप लेते जाये, ये तो बाधित बच्चा है। आप लेते जाये बाहर, ये तो ज्यादती है आपकी! इनको आप ले जाईये, क्योंकि इन पर काली छाया है और वो हमेशा डिस्टर्ब करेगी। आप लेते जाईये इनको बाहर, मेहरबानी से। बाधित लोगों को कभी भी अन्दर नहीं लाना चाहिये। ये हमारे सहजयोगी लोगों ने कहना चाहिये। ये लोगों में भूत होते हैं और ये हमेशा डिस्टर्ब करेंगे। लेते जाईये बाहर! बाहर लेते जाईये। यहाँ आने लायक नहीं है ये लोग। इनको कभी नहीं लाना चाहिये और हो सकता है, कि बेहोश भी हो जाये , क्या फायदा? इन लोगों को नहीं लाना चाहिये। ये तो बाधित लोग हैं, इनको बाहर बिठा दीजिए, ठीक है। अन्दर बिठाने से तकलीफ देंगे सबको। वो बच्चा भी जो था, उस पर भी बाधा थी। उनको, भूतों को तो सब समझता है, कि यहाँ परमात्मा का काम हो रहा है, इन्सान को ही नहीं समझता। हाँ, सच बात है! किसी के अन्दर भूत आते हैं तो वो मेरे बारे में बताते लोगों को। उन्होंने ही बताया सबसे शुरू में, कि मैं कौन हूँ? वो सब जानते हैं, थर, थर, थर काँपते हैं, मेरी ओर देखते भी नहीं हैं। लेकिन इन्सान, वो नहीं समझता। ये बड़ी आश्चर्य की बात है, पर नहीं समझ में आता । भूतों को समझ में आता है और संतों को समझ में आता है। पर इन्सान को नहीं समझ में आता है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं कि जो देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, ऐसे भूत लोग देखते हैं के मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, फलाना हो रहा है, सब चीजें देखते रहते हैं। लेकिन ये तो सब भूतों के काम हैं। फिर जैसे ही वो इन्सान हो जायेगा, उनमें कुछ दिखाई नहीं देगा, कुछ बीच में लटकी हुई चीज़ है, एक किनारे जो हो जाये, माने भूत न हो। भगवान हो जाये, तो बहुत बड़ी बात है। और यही भगवान होने की बात मैं कह रही हूँ कि आप के अन्दर स्थित जो सच्चिदानंद, आप का आत्मा है उसको पाना है। उसके लिए आपके अन्दर कुण्डलिनी भी स्थित है। उसकी जागृती करनी, उसका उत्थान करना, ये शायद हमारे नसीब में है, हमें करना होता है, क्या करे ? और वो हो जाता है। हमारे ही हाथों से होने का होगा, तो उसमें नाराज़गी की बात क्या करनी चाहिए। पर माँ को अगर ये काम करने का है तो इसमें क्या नाराज़गी की बात है और ये काम बहुत बड़े पैमाने में होना चाहिये, बहत जोर से होना चाहिए और सब लोगों को इसका लाभ होना चाहिए। अभी ये बड़ा भारी समय आया हुआ है। ये समय बाद में नहीं मिलने वाला है। ये बहुत महत्वपूर्ण समय है। इसको आप इस्तेमाल कर लें। इसका उपयोग कर ले और इसको पा ले। इसके बाद का समय बहुत बिकट है । क्योंकि कल्कि का जो एकादश रूद्र के साथ जो आवरण है, उसमें ये कोई आपको माँ जैसे समझायेगा नहीं, न कोई बात करेगा, वो तो काटा-छाटी होगी आखिरी वाली। इसलिये एक माँ स्वरूप आप सब लोगों से कहती हँ कि बेकार की बाते छोडों और पहले परमात्मा को जान लो। अपनी आत्मा को पा लो और उसको पाने के बाद फिर आप समझ सकते हो कि आपने क्या पाया है! 16 जब तक आपने खाना ही नहीं खाया है, तो उसका स्वाद आप क्या जानियेगा? पर जिस आदमी को भूख नहीं लगी है, वो आते ही साथ पूछेगा कि माँ आप ने कैसे बनाया है? कहाँ से लाया? कैसे पकाया? जिसको भूख होयेगी वो कहेगा कि, 'माँ, मुझे खिलाओ मुझे भूख लग रही है।' ये अन्तर होता है। अब उसमें से कोई ऐसे भी लोग होते हैं कि जैसे ये भूतों से पछाड़े हुए लोग, उनकी तो खोपड़ी में कभी जा ही नहीं सकता है। इसलिये कम से कम आप ऐसे नहीं हैं, इसका आप नसीब समझिये और ये भी नसीब समझिये कि आज ये चीज़ यहाँ हो रही है। आज आप लोग सब पा लीजिए और पाने के बाद में इसके आगे कैसे करने का । आगे हमें कैसे सम्भालने का है, इस पर थोडा सा ध्यान दें। उसमें थोड़ी सी आपको एज्युकेशन चाहिये, उसमें आपको सीखना पड़ता है कि इसको कैसे बचाना है, किस तरह से चलना है इस पर । वो थोड़ी साधना आपको करनी पड़ेगी। वो जरा सी आपने साध ली तो आप साधु बन जाएंगे। उससे पहले आप पार हुए, लेकिन साधु नहीं हुए। साधु होने के लिए थोड़ा साधना पड़ता है और साधु ऐसे होते हैं कि, जो घर में रहते हैं, गृहस्थी में रहते हैं, न इससे भागना , न कुछ नहीं। इसी दुनिया में रहकर के और आप एक प्रकाशवान, बहुत बड़े परमात्मा के चिराग हो जाते हैं। यह कोई कठिन बात नहीं है। यह बहुत आसान चीज़ है। अब कोई कहे कि माँ आप तो बहुत कठिन बात बताते हैं। अब बताते होंगे लेकिन मेरे लिए तो बड़ी आसान बात है। कोई न कोई बात तो मैं हूँ ही, जो ये मेरे लिए इतनी आसान है। ये भी तो सोचना चाहिये कि कोई न कोई चीज़ हुए बगैर आपको मैं पार करा देती हूँ और यहीं जो जय गोपाल खड़े हैं इन्होंने कितनों को पार किया है ? पूछियेगा, तो बता देंगे। जब आपकी शक्ति को आपको मैं देती हूँ और उसके बाद आप अगर अपनी शक्ति से अनेकों को पार करते हैं तो मैं भी तो कोई चीज़ होऊंगी ही। हालांकि तुम्हारे सामने , बिल्कुल ही सीधी साधी, बिल्कुल तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे सामने , तुम्हारे माँ जैसे ही खड़ी हूँ। इसका यही मतलब है, कि कुछ न कुछ तो गहरी चीज़ है इसमें और वो बात इसलिये अभी नहीं कहँगी क्योंकि जब तक आप नहीं, तो कहने से फायदा क्या है? तुम डंडा लेकर मारना शुरू कर दोगे। वैसे ही किया अभी तक। मैं नहीं चाहती ये, मुझे डंडे-वंडे नहीं खाने है। इसलिये मैं अभी ये बात नहीं कहूँगी खुल कर लेकिन ये खुद ही तुम समझ लोगे और ये प्रश्न पूँछ कर भी जान लोगे, कि भाई, कोई चीज़ तो है ही। और तुम्हारे लिये ही आये हैं इस दुनिया में, तुम्हारा ही काम करने के लिए, सारा संसार का कल्याण करने के लिए । तो अपनी माँ की तुम्हें 17 मदद करनी चाहिए। मुझे कुछ भी नहीं चाहिये आपसे| न पैसा, न कोई चीज़! मेरे पास परमात्मा की कृपा से सबकुछ है और सब से ज़्यादा मेरे अन्दर समाधान इतना है कि मुझे कोई चीज़ नहीं चाहिये। सिर्फ मैं तो यही चाहती हूँ कि मेरे जो बच्चे हैं, वो सब पार हो जाये। बस, यही एक आंतंरिक इच्छा है, कि मेरे जितने भी बच्चे हैं, जितने भी मुझे खोज रहे हैं, जो परमात्मा को खोज रहे हैं वो सब पार हो जाये और अपना अर्थ पा लें। परमात्मा आप सबको सुखी रखें। अभी कोई प्रश्न हो तो पूछ लीजिये। प्रश्न - ये जो, आप, लोगों का उद्धार कर रही हैं ये आप कहाँ से, कितने दिन से कर रही हैं ? कितने समय से कर रही है आप? श्रीमाताजी - बेटा, मैं तो बहुत पुरानी चीज़ हूँ। हजारों वर्षों से यही कार्य कर रही हूँ। प्रश्न - हजारों वर्षों से तो, पर आप जैसे कि इस जन्म में पैदा होने के बाद, शादी होने के बाद, बच्चे होने के बाद से या कब से यह कार्य कर रही हैं आप? श्रीमाताजी - जब से पैदा हुए हैं, तब से ही लगे हैं, फिर ऐसा ही समझ लो आप। सारी जिंदगियाँ ही ये करते आये हैं तो ऐसा कौन सा समय होगा कि जब ये काम नहीं किया होगा ? प्रश्न - मेरा मतलब है, कि कब से आप खुले आम कर रही हो? श्रीमाताजी - खुले आम तो मुझे याद नहीं है, कि कब से कर रही हूँ मैं ये काम। प्रश्न - मेरा मतलब है कि कितने साल से आप इसमें लगी हैं? श्रीमाताजी - साल १९७० से.... १९७० से ये काम खुले आम, के कार्य शुरू हुआ है। ये मन्वंतर का काम १९७० से शुरू हुआ है। इसके बारे में पहलेही से घोषित किया गया था कि ये कार्य १९७० से होगा। सबका समय होता है। जो समय होता है, उस समय से ये काम हो रहा है। अब आप ये बाते छोड़िये और आप पार हो जाईये। बैठ जाईये। उसी व्यक्ति का सवाल - पर मेरे कहने का मतलब है, कि मैं यहाँ दो दिन से आ रहा हूँ याने कि आप में कोई तो शक्ति है, कि जो मुझे यहाँ खींच कर ला रहा है। दूसरी बात तो यह है, कि हमने रामायण में भी पढ़ा है, कि जो जैसा कर्म करेगा उसी के अनुसार उसको फल मिलेगा । पर यहाँ आकर के आप मुझ जैसे ही बाकी और लोगों को भी पार करा दे रही हो। अब इसका क्या मतलब है? 18 श्रीमाताजी - बताती हैँ, इसका मतलब है, कि..... (श्रीमाताजी और अन्य सभी लोग हँसने लगते हैं) अब इन्होंने बहुत मज़ेदार बात कही है। मैं तो कभी सोचती ही नहीं हूँ कि किसने क्या पाप किया है और कितना। जो माँ अपने बच्चों का पाप नहीं उठा सकती ऐसी माँ को हम क्यों यहाँ बिठाये? कौन से ऐसे पाप हैं, कि जो आप कर सकते हैं और मैं न उठा सकूं? और आप भी कभी ये न सोचना कि तुमने कुछ पाप किया है। कौन ऐसा पाप कर सकता है? देखेँ तो किसकी मजाल है। सारे पाप पी सकती है, वही आप की माँ यहाँ बैठी हुई है। ये बात सही है। अपने अन्दर एक ऐसा चक्र है, कि इसकी जागृति से मनुष्य के सारे पाप धूल जाते हैं। वही आज्ञा चक्र है। इसकी जागृति से आपके सब पाप धूल सकते हैं। अब पाप गिनने का समय नहीं है। अब पुण्य गिनने का समय है। मैं तो तुम्हारे पुण्य ही गिन रही हूँ। बहुत प्यारी बात कही है तुमने ! (प्रश्नकर्ता से कहती हैं श्रीमाताजी) । तुम राजा-बेटा हो। और कोई सवाल हो तो पूछिये। सहजयोग कैसे करना है वो तो अभी मैं बताऊंगी आपको बाद में। अभी और कोई सवाल हो किसी का तो लीजिये। हाँ मैंने पूछ तो कभी सोचा भी नहीं कि ये सब बाते हैं। ये तो सोचती भी नहीं हूँ कि तुम कुछ पाप भी कर रहे हो , कभी भी नहीं । हाँ लेकिन कुछ कुछ हैं राक्षस। उनके बारे में तो मैं कहती हैँ। तो लोग कहते हैं, कि उनके बारे में मैं बात ही न करूँ। लेकिन राक्षस तो हैं संसार में आये। बड़े-बड़े राक्षस आयें। सोलह राक्षस तो मैं जानती हैँ अच्छे से और छः औरतें है राक्षसनी और वो आयी हैं गुरूबन कर घूम रहे हैं। लेकिन तुम तो ऐसे नहीं हो! तुम राक्षस थोड़ी ही न हो । अच्छा और बोलो! प्रश्न - अस्पष्ट.... श्रीमाताजी -स्वधर्म का मतलब जो कृष्ण ने कहा है, इसका मतलब हिन्दू धर्म, मुसलमान धर्म नहीं है। 'स्व' माने स्व...... आप खुद संस्कृत जानते हैं..... स्व माने क्या? स्व माने हमारी आत्मा। शिवाजी महाराज ने कहा था कि 'स्व-धर्म जागवावा'। जो स्व का धर्म है उसे ा] जागृत करना है। कृष्ण ने भी यही कहा है, कि स्वधर्म को जागृत करो, दुसरे के धर्म पर मत जाओ, कि ये ऐसा है, वो वैसा है। अपने अन्दर का जो धर्म है, दूसरा कौन है? दूसरा कोई नहीं है। हमारे लिए दूसरा कोई नहीं है। सब हमारे अंग-प्रत्यंग हैं। कोई दूसरा है ही नहीं। दूसरा कौन है? दूसरा धर्म माने ये कि जिसमें आप ' स्व' नहीं है, वो दूसरा धर्म है। इसको गहनता से देखना चाहिए। हम लोगों ने जो जो अपनी ये लगाये हुए हैं, कि मैं फलाना हूँ, ठिकाना हूँ। ये सब झूठे नाम हैं। इसका कोई भी अर्थ मेरे दिमाग में तो नहीं आता। अब अगर हैं या नहीं है, क्या फर्क पड़ेगा । बस स्वधर्म 19 को जगाओ तो पता चलेगा कि आप 'सभी' हैं, आप एक नहीं है। और जो आप ने ये बात कही है कि आज कल के जमाने में ये चीज़ हो रही है क्योंकि अब जो है, अपनी स्थिति सहस्रार पर आ गयी है। और सहस्रार में सारी चीज़ की समग्रता की है। सहस्रार पर सब स्थिति जो है, वो समग्रता की है। माने, सब का जो अग्र है, जैसे कि एक सुई में अग्र होता है, उसमें से एक ही सूत्र... फिर कहे 'पाँचो, पचीसो पकड़ बुलाऊं, एक ही डोर बंधाऊँ' वो बात है कुछ किसी में फर्क नहीं हैं। सब परमात्मा के बनाये हुए हैं। एक परमात्मा के सिवाय और कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य ने ही ये सब बनाया हुआ है। और ये चीज़ जब मनुष्य ही जागेगा तो जानेगा कि हम सब तो एक ही हैं, दूसरा कौन है? सामूहिक चेतना जब तक जागृत नहीं होगी तब तक दूसरा बना रहेगा और जब जागृती हो जायेगी तो दूसरा कोई रहेगा ही नहीं। सब धर्म का मान होगा। सब बड़े-बड़े साधु संत का मान होगा। पूराने जमाने के जितने भी वेद आदि, जितने भी बड़े-बड़े ग्रंथ साहब आदि, बायबल, कुरान सब चीज़ों का अर्थ लगेगा। दृष्टि तो आने दीजिए। दृष्टि आये बिना कैसे लगेगा । सब में एक ही राम है और एक ही रहीम है, सब में एक ही चीज़ है । ये बताने से नहीं होगा, ये तो देखने से होगा, तो देखियेगा कि यह चीज़ एक ही है । जिसे अंग्रेजी में कहते हैं अॅक्च्युअलाइझेशन। घटना है, वो होनी चाहिए । लेक्चर देने से नहीं होगी । और तो नहीं कोई प्रश्न ? प्रश्न - माताजी, आपका नॉन-वेजिटेरियन के बारे में क्या खयाल है? माताजी - किसके बारे में? ...... अच्छा अब झगड़ा मत खड़ा कर देना तो बताऊंगी। फिर से झगडा नहीं खड़ा करना। तो बताऊँ समझा के कि खाने-पीने में भगवान नहीं होता है। ये भी एक गलतफहमी है, खाने पीने में। जैसे जैन लोग कहते हैं कि हम कृष्ण को भगवान नहीं मानते क्योंकि उनमें संहार शक्ति थी। पर अगर उनमें संहार शक्ति थी, तो क्या वो संहार न करते! इन राक्षसों का क्या संहार नहीं करना चाहिये? इनके क्या गले में हार पहनाना चाहिये, इनकी आरती उतारनी चाहिये? तो संहार शक्ति भी बहुत जरूरी चीज़ है। और खान-पीन से अगर भगवान बनते तो तो बस, जितने भी घास चरते हैं वो सब भगवान के पास पहुँच जाते। ये सब फालतू चीज़ में भगवान नहीं होते हैं। भगवान को इतने निम्न स्तर पर नहीं लाना चाहिये। जिस देश में जरूरत होती है कि लोगों को इस तरह का खाना खाना है तो उस तरह से खायें लेकिन खाना कोई बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है। मैंने तो देखा है कि एक से एक राक्षसी लोग जो कि सिर्फ घास खा कर रहते हैं और महाराक्षस हैं। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। फर्क ये है कि किसी की तबियत ऐसी होती है कि उसको जरूरत है कि वो कुछ ऐसा खाना खाए कि जिससे उसकी ताकत बनी रहे। ऐसे ऐसे अनुभव हमें आयें हैं कि एक साहब थे, वो बहुत बीमार थे बिचारे। उनका ब्लड प्रेशर इतना लो हो गया| उनको बताया गया कि तुम कुछ तो भी ऐसा सूप पिओ, जिससे की तुम्हारी ताकत बने। क्योंकि ये पहले से डाइजेस्टेड सूप है। उनकी अम्मा इतनी 20 ज़्यादा अजीब तरह की वेजिटेरियन थी कि उन्होंने कहा कि, 'मेरे प्राण निकल जाएंगे लेकिन मैं ये नहीं करूंगी।' मैंने कहा, 'तुम्हारे प्राण निकलने दो लेकिन बच्चे के क्यों निकाल रहे हो ? उसकी तो बिवी भी है, बच्चे भी हैं, तुम्हारे निकल जाये तो कोई हर्ज नहीं। अब तो तुम बुढाई गयी हो। तो खान-पीन में हम लोग जो बहुत ज़्यादा व्यवस्था करते हैं, ऐसी कोई नहीं है। सहजयोग में खाने- पीने के, पीना माने शराब बिल्कुल नहीं पीते लोग, नहीं तो चलेगा फिर, और सिगरेट भी नहीं पीते हैं क्योंकि दोनों चेतना के विरूद्ध में पड़ते हैं। लेकिन खाने के मामले में कोई रेस्ट्रिक्शन नहीं। अगर आपको नहीं खाना हो तो नहीं खाओ, खाना हो तो खाओ। पर उस पर खाना खाना यही बात बहुत बड़ी थी। अब मुझसे अगर आप अभी पूछे कि आपने क्या खाना खाया आज? तो मुझे याद नहीं कि मैंने क्या खाना खाया। और कभी भी याद नहीं रहता क्योंकि खाना कभी खाते ही नहीं हम हमारे ख्याल से। एक तरह की उदासीन भावना हो जाती है खाने की तरफ से। मिल गया तो अच्छा और नहीं मिला तो उससे भी अच्छा। जितना खाने की ओर हम विचार करते है उतने ही हम निम्न होते जाते हैं। जैसे कि अब उपवास है। एक साहब का उपवास है। आज हनुमानजी के लिए ये उपवास कर रहे हैं। वो हनुमान जी आपके अन्दर आ कर बैठ गये। अब उन्होने आकाश-पाताल एक कर डाला। तुमने आज ये नहीं लाया मेरे उपवास के लिए, सिंघाडे का आटा नहीं लाया, फलाना नहीं लाया। उसने सबका आटा बना डाला। घरभर में आफ़त हो गयी कि ये हनुमान जी जो हैं उपवास कर रहे हैं। जी को उपवास करने की क्या ज़रूरत है? उनको तो बहुत काम करने के हैं। हनुमान अगर वो उपवास करेंगे तो उनका काम कौन करेगा? इस तरह की विद्रपता हमारे अन्दर बड़ी आ गयी है। उपवास करना, खाना नही खाना। खास बात पूछो तो मुझे तो बिल्कुल उपवास अच्छा नहीं लगता। किसी को मुझे सताना हो तो उपवास करो। नहीं तो उपवास ही नहीं करो। माँ को अगर सताना होता है तो बच्चे खाना नहीं खाते। पर इसका मतलब ये नहीं कि रात-दिन खाना ही ा] खाते बैठो। रात-दिन खाना खाना है, खाना खाना है। ये खाना है, वो खाना है करते बैठो। अपने हिन्दुस्थानी तो सिवाय खाने के और किसी बात को सोचते नहीं। और हमारे देश की औरतें भी ऐसी होशियार हैं कि उन्होंने आपको बेवकूफ़ बना कर रखा हुआ है। एक हमारे अंग्रेज कह रहे थे कि हिन्दुस्थानी बड़े कॉवर्ड होते हैं। मैंने कहा 'क्यों भाई ? मैंने तो सुना नहीं ये बात।' कहने लगे, 'बिल्कुल डरपोक होते है। वो इसलिये अपने बिवी से डिवोर्स नहीं लेते क्योंकि उनको खाना बनाना नहीं आता है।' (हँसी) ऐसे कहने के लिए तो अच्छे कुक होते हैं लेकिन बिवी के 21 हाथ का खाना जो है वो और ही चीज़! वो खाने के लिए सब तरसते हैं और सीधे काम कर के सीधे घर। 'लाओ भाई, आज क्या बनाया हुआ है?' हम लोगों की सबसी बड़ी जो हैं, जीभ जो हैं वो सबसे ज़्यादा प्रगल्भ हैं। सबसे ज़्यादा प्रगल्भ। माने ये कि हम क्या खाते हैं? क्या खाना चाहिये? जैसे कि अब बंगाल में लोग हैं, रोह - मच्छी खायेंगे। बताईये, आप समुद्र के किनारे रहते हैं और खायेंगे रोहू-मछली! और एक बार वहाँ मछली का अकाल पड़ गया तो बम्बई वालों ने उनको पॉम्फ्रेट भेजी तो सब की सब वापस कर दी सड़ा के सब। भूखे मरेंगे पर खायेंगे रोह, पर पॉम्फ्रेट नहीं खायेंगे। कौन कहेगा हमारा देश भूखों का देश है? जहाँ भूखों का देश होता है वहाँ इतने नखरे खाने के नहीं होते! कोई नहीं कह सकता। जो मिलता है वो खाते हैं। वो जपान के लोगों की आँख जबरदस्त है। वो देखते हैं कि कोई रंग जरासा इधर-उधर हो गया तो उनके प्राण निकल गये कि 'ये ऐसे कैसे हो गया ?' जरासा भी। अब मैं इत्ते दिन से देख रही हूँ रंग ऐसे भी चढ़ रहा है । अगर जपानी होता तो उसी वख्त उसके पहले रंग मारता। उसके लिए जीना मुश्किल हो जाता है कि अगर कोई रंग खराब हो गया तो। वो बदरंग पसंद ही नहीं करता । और रंग की भी संगत जिसको होनी चाहिये। जरासी भी प्रॉब्लेम हो जाये तो वो बिल्कुल खबड़ा जाए। उसकी आँख तेज़ होती है। हमारी एक तो जीभ बोलने में भी और खाने में भी। इसलिये खाने-पीने का भी एक तमाशा बना रखा है। परमात्मा का खाने-पीने से कोई संबंध नहीं। वो तो खाना ही नहीं खाते। सच्ची बात वो खाना नहीं खाते। आप तो जानते हैं श्रीकृष्ण का किस्सा, कि जब की साधु के पास उनकी पत्नियाँ गयीं तो नर्मदा जी चढायी थी। तो उन्होंने कहा कि ,'भाई नर्मदा चढ आयी हैं अब हम कैसे जायें ?' उन्होंने कृष्ण से कहा कि, 'भाई प्रॉब्लेम हो गया, हम कैसे जायें ?' उन्होंने कहा कि, 'कुछ नहीं, तुम जा कर के नदियों से कहो, कि अगर हमारे पती पूर्णतया योगेश्वर और बिल्कुल ब्रह्मचारी हैं, तो नदी नीचे उतर जायेगी।' तो उन्होंने जा के कहा। अब इनकी तो सोलह हजार वो बीवीयाँ और पाँच ये बीवीयाँ। सोलह हजार उनकी शक्तियाँ थीं और ये पाँच उनके पंचमहाभूत थे और इनकी शक्तियाँ थी ये पाँच। उसको कौन समझता है! सब कहे 'तुम्हारे कृष्ण की सोलह हजार बीवीयाँ थीं।' और उन्होंने ऐसा कहा तो नदी नीचे उतर गयी। तो जब वो उस तरफ गये, उस साधु को खाना-वाना खिलाया, सब कुछ किया। जब लौटी तो फिर नदी चढ़ आयी। साधु से जा के कहा कि, 'भाई, हम जायें कैसे? नदी फिर चढ़ आयीं। कुछ इलाज करो ।' तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, आयीं कैसी ? तो उन्होंने कहा कि, 'हमसे तो ऐसा कहा योगेश्वर ने और हमने पूछा तो बात हो गयी।' 'तो तुम नदी से जाकर कहो कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया हो तो तुम नीचे हो जाओ।' तो उन्होंने कहा कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया तो तुम नीचे हो जाओ तो नदी नीचे हो गयी। तो लो, सारा खाया और कहते हैं कुछ भी नहीं खाया। 22 की बातें नहीं चलती और उपवास बहुत कम इसलिये सहजयोग में खान-पीन की बेकार करते हैं। एक-दो दिन जरूर करना पड़ता है लेकिन, शायद साल में एक ही दिन, नरक चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं। उस दिन नर्क के द्वार खुलते हैं तो सुबह तक सोना और उपवास करना । मतलब उपवास होता ही है, सोये रहें तो फिर क्या होगा ? उस दिन देर से उठते हैं, नहीं तो जल्दी उठते हैं। अपने आप उठते हैं। कोई जबरदस्ती नहीं । आप अपने आप उठ जाईयेगा सबेरे । और क्या? अब तो और कोई सवाल नहीं? प्रश्न - एस्ट्रोलॉजी क्या है? इस पर कुउ कहे क माताजी - एस्ट्रोलोजी एक विज्ञान है और इसमें जो भी कहा गया है वो सब सही है। पर एक बार जब आप का आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तब आप इन सब के परे चले जाते हो। जैसे कि अगर आप पानी में होते हो तो आपको डूबने का डर लगा रहता है। लेकिन जब आप नाव पर चढ़ जाते हो तो आप देख सकते हो सब, सबकुछ देख सकते है। 23 पीठ सातो चक्रों के २ में है २ह आपकी परस्पर कोई स्पर्धा नहीं। हम नहीं कहते कि सहस्त्रार से बाहर आने के लिए आपने पहला इनाम जीता। सहजयोग में पहला या दूसरा ऐसा कुछ भी नहीं क्योंकि हम कोई दौड़ नहीं दौड रहे हैं। इसमें कोई मुकाबला नहीं है। हम जो भी कर रहे हैं, अपनी संतुष्टी के लिए कर रहे हैं। सहजयोग में कोई अन्य प्रमाणपत्र नहीं देगा । आपने स्वयं ईमानदारी से स्वयं को देखना है और प्रमाणपत्र देना है। आपने आपके सहस्रार और आपके चित्त ने अपने अंदर में देखना है कि कहाँ तक मैंने अपनी शक्तियों, अपनी करुणा और अपने व्यक्तित्व को साकार किया है। आपको स्वयं इसकी परीक्षा लेनी है। शीशे को यदि आप देख रहे हैं तो आप स्वयं अवलोकन कर रहे हैं, आपकी परछाई का अवलोकन हो रहा है, जिसे देखने का कर्म हो रहा है। तो आप ही तीन आयामों में हैं। परन्तु यदि आप स्वयं शीशा बन जाएं तो पूरी क्रिया उल्टी हो जाएगी। आपको स्वयं को देखना स्वाभाविक है। इसी प्रकार आपका सहस्रार भी आपको बताता है कि आपकी स्थिती क्या है। सातो चक्रों के पीठ सहस्रार में है और उनसे पता चलता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है। मानो, सहस्रार आप को देख रहा हो और बता रहा हो कि आप में क्या कमी है। सहस्त्रार आप को ठीक सूचना देता है अत: स्वयं को ठीक कर लेना ही उचित है। आप सब लोग जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, अपनी शक्तियों को कार्यान्वित कर सकते हैं। कैसे? उसे प्रसारित करके, इसका अनुभव करके, इसे अन्य लोगों को देकर और इस पर प्रयोग करके । नि:सन्देह सहजयोग आप लोगों के कारण फैला है, आप ही अन्य लोगों को सहजयोग में लाए हैं। परन्तु बात यही समाप्त नहीं हो जाती। हमें पूरे विश्व को विनाश से बचाना है और उसके लिए मैं सोचती हूँ, पूरी जनसंख्या के कम से कम ४० प्रतिशत लोगों को आत्मसाक्षात्कारी होना आवश्यक है। जो चाहे उनकी राष्ट्रियता हो, जो चाहे उनका शिक्षा स्तर हो, सभी को आत्मसाक्षात्कार दिया जाना चाहिए। (६ / ५/२००१, कबेला, इटली) लौगों को आपकी विनम्रती ही आकर्षित करेगी । ও उपर चढने का इन्तजाम बनाना पड़ता है। तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पडती है। और जो पाया है, उसे खोने के लिए कोई मेहनत की जरूरत नहीं, आप सीधे आइये जमीन पर, उसमें कोई तो प्रश्न खडा नहीं होता। इसको अगर आप समझ ले, इस बात को, तो आप जान लेंगे कि नजर अपनी हमेशा ऊंची रखे। अगर कोई सी भी सीड़ी पर आप खड़े हैं, लेकिन आपकी नजर ऊँची है, तो वो आदमी उस आदमी से ऊँचा है, जो उपर खड़े होकर भी नजर नीची रखता है । इसलिए कभी-कभी बडे पुराने सहजयोगी भी धक से नीचे चले आते हैं। लोग बताते हैं, कि माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे । इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वो किया, पर नजर तो उनकी हमेशा नीची रही। तो मैं क्या करूँ? अगर नजर नीची रखी , तो वो चले आये नीचे। नजर हमेशा उपर रखनी चाहिए। अब जिसे भी फल को देखना है, तो नजर आपकी उपर, इनकी भी नजर उपर है। इन सबकी नजर उपर है क्योंकि बगैर नजर उपर किए हुए वो जानते हैं, कि न हम सूर्य को पा सकते हैं, न ही ये कार्य हो सकता है, न तो हम श्रीफल बन सकते हैं। (५/५/१९८३, मुंबई) आरम्भ में भी मैंने कहा था और अब फिर कहँगी कि लोगों को आपकी विनम्रता ही आकर्षित करेगी। आपको विनम्र व्यक्ति बनना चाहिए। स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही स्वयं को श्रेष्ठ मानें। स्वयं को यदि आप महत्वपूर्ण समझते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते। मेरा एक हाथ यदि स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगे तो ये इसकी मूर्खता होगी! अकेला हाथ किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है? सभी हाथों की आवश्यकता होती है, चीज़ों की आवश्यकता होती है, टॉगों की आवश्यकता होती है? एक अंग किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है। अपनी सहजयोग यात्रा में कभी भी आप यदि इस प्रकार सोचने लगें तो मैं कहँगी कि आप सहजावस्था में नहीं ैं। मेरा ये प्रयत्न था कि आप लोगों को सहज के सुन्दर क्षेत्रों में ले | जाएं जहाँ आप आत्मा से पूर्णत: एकरूप होंगे, प्रकृति से एकरूप होंगे, अपने आस-पास के सभी लोगों से, अपने देश तथा अन्य देशों से एकरूप होंगे। सर्वत्र पूर्ण वातावरण में ब्रह्मानन्द आपका अंग-प्रत्यंग बन जाएगा और आप कभी इससे भिन्न न होंगे। तब आप कह सकते हैं कि गुँजन या निनाद जो कि आपके जीवन का सारतत्व है वह आपकी भौतिक उन्नति में या किसी अन्य चीज़ में न दिखाई पड़कर आपके आध्यात्मिक 26 क्षेत्र में दिखाई पड़ेगा और यही क्षेत्र सर्वोच्च है। सर्वत्र सभी देशों में उच्च गुणों के लोग होते हैं और उन सबको याद किया जाता है। इसी प्रकार आप भी अपने जीवन की वास्तविकता तथा सच्चाई के महान ज्ञान का प्रतिनिधित्व करेंगे। और यह सब आपके जीवन और आपके कार्यों में छलकेगा| इस तरह से आप इस कार्य को कर सकते हैं। केवल यह निर्णय करना है कि कितने लोगों को हमने आत्मसाक्षात्कार देना है। आत्मसाक्षात्कार देने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता में आप यदि इस कार्य को करते चलें तो आप हैरान होंगे कि यह पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा कार्य है। परन्तु जब आप चोटी पर चढ़ जाते हैं तो नीचे की सभी चीज़ों को भलीभांति देख सकते हैं और आपको सन्तोष होता है कि आप चोटी पर हैं। लेकिन चोटी की चढ़ाई तो आपको करनी होगी। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) आप ही महान लोग हैं, अत: इस महानता के अनुरूप आपको बने रहना होगा अर्थात् उच्च चरित्र, उदार, परिश्रमी और विवेकशील व्यक्ति। इसके बिना आप ये कार्य नहीं कर सकते। अध्ययन करना और एम.डी.एम.ए. और पी.एच्डी. जैसी उपाधियाँ प्राप्त कर लेना बहुत आसान है। परन्तु आदर्श बनने के लिए आपको परिपक्व होना होगा। निरन्तर स्वयं को बताना होगा कि उन्नत होकर आपने इस महान कार्य को करना है, जो कठिन नहीं है। क्योंकि इसका स्रोत आपके नियंत्रण में है। हर चीज़ सम्भव है। याचना मात्र से यह कार्य हो जाएगा। परन्तु इसको दृढ़ करे। अब भी यदि आप अपने व्यक्तित्व तथा नए आदर्शों को सुदृढ नहीं कर सकते, तो फिर कब करेंगे? सही सलामत चक्रों के साथ मैं यहाँ विद्यमान हँ। 'ये गलत है या ये ठीक है कह कर स्वयं को न्यायोचित ठहराना आसान है। ये सब समाप्त कर दे। आपको वह बनना होगा। अत: पहली आवश्यकता ये है कि अपनी नीवों को बदले । शेक्सपीयर, टैनिसन, मोजार्ट, युंग जैसे बहुत से महान लोग हमारे सम्मुख है, और इस देश में भी बहुत से लोग हैं। उनका नाम लेने मात्र से चैतन्य लहरियाँ- प्रवाहित होने लगती है। अकेले उन्होंने उन देशों में अपने विचारों का सृजन किया , कल्पना करे, कि किस प्रकार वहाँ वे इन शैतानी शक्तियों से लड़ पाएं होंगे, परन्तु इन लोगों को कौन स्वीकार करता है? आप में से हर एक में उन जैसा बनने की योग्यता है। आप सभी को अगुआ बनना होगा। पोलैंड में एक सर्व साधारण के ने यह कर दिखाया। परन्तु वह आत्मसाक्षात्कारी न था। वह परमात्मा से सम्पर्क न बना कारखाने मजदूर सका। पूर्ण को जानने का उसके पास कोई मार्ग न था। अत: स्वयं को ठीक प्रकार से संचलित करे, ठीक प्रकार से अपना शुद्धिकरण करे। स्वयं को समर्पित कर दे। समर्पित करने के लिए अपना अहं और प्रति अहं त्यागने के अतिरिक्त आपने कुछ नहीं करना। ये वजन उतार फेंके और अपने हृदय में स्थान बनायें और यह कार्यान्वित हो जाएगा। अवचेतन, अति चेतन तथा हमारे उचित आधार एवं आदर्श। (२४ मई १९८१, लन्दन) 27 रहजयोग के अनुशासन के बिनी आप उन्नेत नहीं हो सकते मुझे आप लोगों से बहुत आशाएं है। परन्तु जितनी गम्भीरता से आपको सहजयोग को लेना चाहिए, उदाहरण के रूप में लोग ध्यान-धारणा भी नहीं करते। ध्यान-धारणा जैसी साधारण चीज़ भी आप लोग नहीं करते, मेरी समझ में नहीं आता, बिना ध्यान- धारणा किए आप लोग किस प्रकार चलेंगे? जब तक आप निर्विचार चेतना में स्थापित नहीं हो जाते, आप उन्नत नहीं हो सकते। अत: आपको ध्यान-धारणा करनी होगी। कम से कम से लोग सुबह-शाम ध्यान-धारणा तो अवश्य करनी होगी। बहुत ऐसे भी हैं जो स्वभाव से ही सामूहिक नहीं हैं। वे यदि आश्रम में रहते हैं तो सोचते हैं कि आश्रम का जीवन अच्छा नहीं है। ऐसे लोगों को वास्तव में सहजयोग छोड़ देना चाहिए । क्योंकि उन्होंने ये भी नहीं समझा कि सहजयोग है क्या? सामूहिक हुए बिना आप किस प्रकार उन्नत होंगे, अपनी शक्तियों को किस प्रकार एकत्र करेंगे? कोई भी यदि संघ में, सामूहिकता में रहते हुए कार्य नहीं करता-सामूहिक होकर ही आप शक्तिशाली बन सकते हैं। ये सत्य है, कि आपके पास यदि एक तीली होगी तो आप उसे तोड सकते हैं, परन्तु बहुत सी तीलियों को इकटठ्ठा किया जाए तो इन्हे तोड़ा नहीं जा सकता। अब भी ऐसे लोग हैं, मैं जानती हूँ, जो अब भी पूरी तरह से सामूहिकता में नहीं है। उनका सामूहिक न होना ये दर्शाता है, कि स्वयं को समझने में वे कितने निर्धन हैं और वो मुझे कहते हैं, कि श्रीमाताजी अब हम आश्रम में नहीं रहना चाहते। तो उनहें सहजयोग से बाहर हो जाना चाहिए। सामूहिकता के बिना आप उन्नत नहीं हो सकते। सहजयोग के अनुशासन के बिना आप उन्नत नहीं हो सकते। बेकार के हजार लोगों से अच्छे गुणों वाले दो लोग बेहतर हैं। यही परमात्मा की इच्छा है। (१०/५/१९९२, कबेला) इस जटील मस्तिष्क का ठीक किया जाना आवश्यक है और इसका सर्वोत्तम उपाय ये है कि आप सोचना बंद कर दे। सोचना बंद करके आपको लगता है कि आप कोई कार्य न कर सकेंगे। उदाहरण के रूप में मेरे दिए हुए प्रवचन के विषय में भी आप केवल सोचते रहते हैं। इसमें से क्या आप मेरी सोच को सुन सकते हैं? इन बत्तियों के बारे में सोचने से इसमें प्रकाश नहीं आ सकता। सोचते रहना आलसी व्यक्ति का पहनावा है, जो काम से बचने के लिए पहना जाना है। ये चालाकी है, पलायन है। सहजयोग के विषय में बहस बिलकुल भी न करे। अपने अगुआओं से बहस न करे चाहे आप उसकी पत्नि हो , फिर भी उससे बहस न करे। सहजयोग में पत्नियाँ अपने पतियों को किसी भी मामले पर प्रभावित करने का प्रयत्न न करे। इसमें उनका कुछ लेना नहीं। ऐसे मामले में पत्नियों को चाहिए कि अपने हार्दिक प्रेम से, मस्तिष्क से नहीं, संस्था तथा अपने पतियों का पोषण करे। मैं सोचती हँ कि स्त्री रूप में अवतरित होना मेरे लिए बहुत महान बात है क्योंकि इस रूप में मैं अपने हृदय प्रेम की भावनाओं, उनकी कार्यशैली तथा अपने प्रेम की लीला का आनन्द लेती हूँ। ये इतनी महान चीज़ है, कि कोई अन्य अवतरण इस प्रकार से आनन्द नहीं ले सका जैसे मैं ले सकी। महिलाओं को यदि हृदय की देखभाल करनी पडे तो उन्हें स्वयं को अपमानित नहीं महसूस करना चाहिए। इस प्रकार से वे अत्यन्त उच्च स्थिति में है क्योंकि इस प्रकार वे बिना सोचे कार्य कर सकती है, हृदय के बिना तो कार्य किया ही नहीं जा सकता। व्यक्ति को बहस नहीं करनी चाहिए। स्त्रिया यदि बहुत अधिक बहस करने वाली हो तो पुरूष बहरे हो जाते हैं। महिलाओं की बात को वो सुनते ही नहीं। महिलायें यदि बहुत अधिक आक्रमक हो तो पुरूष बिल्कुल मौन हो जाते हैं। अत: आप लोगों को इस प्रकार बत्ताव करना चाहिए कि पुरूष पुरूष हो और महिला महिलायें । आपको चाहिए कि पूर्ण पुरूष या पूर्ण महिला बने। तब आप मजा ले पाएंगे। (४/५/१९८६, इटली) 30 १० आभु कुछ लोग चर्च जाने का, शराब पीने का आनंद लेते हैं। पर सहजयोग में हम इसका आनन्द नहीं ले सकते। यह आनंद सामूहिक नहीं है। कोई भी इसे अच्छा नहीं कहता जैसे कोई कहे कि, 'मुझे शराब पीने में मजा आता है।' किसी शराबी के नाम पर कोई मंदिर नहीं बना। शराबी का किसी ने नहीं बनाया। शराब को समाज की मान्यता नहीं। लोग कह बुत सकते हैं, कि मुझे चोरी करने या हत्या करने का आनंद आता है। परन्तु यह तो व्यक्ति की निरंकुशता है। समाज इसे मान्यता नहीं देता। इसके विरूद्ध सदा प्रतिक्रिया होती है। पर सहजयोग ऐसी नहीं। जब आप कहते हैं कि, 'मुझे आनन्द आता है' तो आपमें अहं तथा बंधन नहीं होते अब सहस्रार खुल गया है। एक ओर तो आपका अहं कम हो गया है तथा दूसरी ओर आपके बंधन टूट गये हैं। ईसा की पूजा करने वाले लोगों को मैंने गणेश की पूजा करते देखा है क्योंकि ईसा की पूजा उन्हें पादरी, दोष स्वीकृती, माला तथा कब्रिस्तान के बंधनों में घसीटती है। ये बंधन में घसीटती है। ये बंधन राक्षसों की तरह प्रकट होने लगते हैं। पर सहजयोगी इनमें फँसना नहीं चाहते। (१/५/१९९३, कबेला) 31 हमें प्रतिद्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है मेरे जीवन से आप ये बात महसूस कर सकते हैं कि मैं बहुत परिश्रम करती हूँ, बहुत यात्रा करती हूँ, इतनी अधिक कि आपमें से शायद ही कोई कर पाए। क्योंकि मुझमें इच्छा है, कि मुझे इस विश्व को आनन्द प्रसन्नता तथा दिव्यत्व की उस अवस्था तक लाना है, जहाँ लोग अपनी गरिमा और अपने परम पिता परमात्मा के गौरव को महसूस कर सके। अत: मैं कठोर परिश्रम करती हूँ। कभी नहीं सोचती कि मुझे कुछ हो जाएगा, या मुझे ये हो जाएगा। मैंने आपको अपने पारिवारिक जीवन. अपने बच्चे, अपनी किसी चीज़ के बारे में कोई कष्ट नहीं दिया। मेरे सम्मुख जो भी समस्याएं आई मैंने स्वयं उनका सामना किया। परंतु यहाँ पर मुझे सहजयोगियों के बड़े बड़े पत्र मिलते हैं, जिनमें वे अपनी बेटियाँ, बेटे, ये, वो आदि के बारे में लिखते हैं । परिवार से मोह एक अन्य समस्या है। आपके सिर पर यह बहुत बड़ा बोझ है। हर समय आप अपने बच्चों के बारे में चिन्तित होते हैं। ये आपकी जिम्मेदारी है। आप उनसे बेहतर कार्य नहीं कर सकते, क्या आप कर सकते हैं? परन्तु जब आप यह जिम्मेदारी निभाओ और समस्याएं आरम्भ होती है। (१०/५/१९९२, कबेला) कभी ये न सोचें आप कुछ महान हैं, कुछ ऊँचे हैं, नहीं, कभी ऐसा न सोचें । केवल आभार मानें कि आप जीवन के इन अटपटे विचार एवं शैलियों से बचे हुए हैं। ऐसी शैली एवं विचारों से जहाँ व्यक्ति सदैव आलोचना ही करता रहता है कि, 'यह अच्छा नहीं है, मुझे ये पसन्द नहीं है' ये कहने वाले आप कौन होते हैं कि मुझे पसन्द नहीं है ? आप तो स्वयं को भी नहीं पहचानते। जब आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है तो मतलब ये कि आप स्वयं को नहीं पहचानते। किस प्रकार आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है। बहुत कम ज्ञान वाले लोगों को मैंने दूसरों की आलोचना करते हुए देखा है। मेरी समझ में इसका कारण नहीं आता। ऐसा क्यों है? सम्भवत: वह अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। यह बात आम है। परन्तु जब आप पूर्ण ज्ञान को जान जाएंगे तो वास्तव में विनम्र हो जाएंगे। पूर्णत: विनम्र, भद्र या सुहृदय। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) दूसरों में दोष ढूँढना उस मस्तिष्क की देन होता है जो अभी तक ज्योतित नहीं हुआ। प्रतिक्रिया के संस्कार के कारण आप किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते। सदैव प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। कोई यदि अच्छी बात बताए तो भी आप प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। बुरी बात पर तो आप प्रतिक्रिया करते ही हैं। अत: हमें समझ लेना चाहिए कि हमें प्रतिक्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है। हम इतने हल्के नहीं हैं कि प्रतिक्रिया करें। बहुत उंचे स्थान पर हम बैठे हुए हैं। केवल आनन्द उठाना ही हमारा कार्य है। हर चीज़ का आनन्द उठाएं क्योंकि वह आनन्द परमात्मा का आशीर्वाद है। जीवन के उथल पुथल और कष्टों का भी आप आनन्द उठा सकते हैं। यदि आप यह बात अच्छी तरह जान लें कि आपकी आत्मा को कुछ भी हानि नहीं हो सकती, क्योंकि यही सच्ची ज्योति है, तो आप हर चीज़ का आनन्द उठा सकते हैं। जो भी तकलीफें आपको हों, चाहे जो भी चीज़ आपको कष्ट दे रही हो परन्तु आत्मा का मौन प्रकाश आपको वास्तव में पूर्णतया आनन्दमय बनाता है और अन्य लोगों को भी आनन्द प्रदान करता है। न तो आप इसकी रूपरेखा बनाते हैं न योजना कि किस प्रकार आनन्द लिया जाए, यह तो स्वत: ही आनन्द प्रदान करता है। आनन्द देने की यह क्रिया बिना किसी प्रयत्न के स्वत: और सहज है क्योंकि आप सहजावस्था में हैं। सहजावस्था में आप चीज़ों को केवल देखते भर हैं। आपको लगता है कि ये तो मात्र एक नाटक है। जिसकी भिन्न शैलियाँ हैं, भिन्न प्रकार हैं। साक्षी रूप में आप इसे देखते भर हैं और इसका आनन्द उठाते हैं। ऐसा कहना आवश्यक नहीं है कि मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, बिल्कुल नहीं। यह 'मैं' जो पसन्द करता है वह अहं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह आपको उस आनन्द से, जो वास्तविकता है, जो सत्य है, दूर रखता है। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) 34 तति ०ि ॐ रे क] प्र श्ी घा. २9yl ) 00 ल ७ भ ३ ॐी शुभ सहसार की एक मन्त्र हैं। वह हैंनिर्मला, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरी, पवित्न और निष्कलंक रहना चाहिए। (निर्मला योग, मई-जून १९८५) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in ০/ १ म ४. किसी पौधे में पानी पडे जाए तो वो जैसे अपने आप ं० बढ़ती हैं इसी प्रकार ऐसी शुद्ध चित जिस मनुष्य का हो जीती है उसके हृदय की कली खिलती है और वो कमल रुप होकर के सहसार में छी जाती है। फिर उसकी सौरभ, उसका सुगन्धचारों ओर फैलती है। प. पू.श्री माताजी, शिवपूजा, दिल्ली, ९.२.१९९१ ---------------------- 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरी हिन्दी मई-जून २०१४ २ क 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-1.txt मोमबत्ती की ज्योति आपको बता सकती है कि आए भूत बाधित हैं या नहीं। मोमबत्ती को इतना ज्ञान है। मान लो आपको हृदय चक्र की समस्या है, आपको हृदय-रोग है तो मोमबत्ती इसे दर्शायेगी और यदि आप मोमबत्ती के प्रकाश से अपना इलाज करे तो आए स्वय को रोग मुक्त कर सकते हैं। अत: यह इतनी संवेदनशील है कि यह केवल रोग मुक्त नहीं करती पूर्ण सक्षम भी है यही कारण है कि भारत में अगनि की पूजा की जाती थी, सम्भवत: वे समझ गये थे कि अग्नि सब कुछ जानती है। प.पू. श्री माताजी, कबेला, २१.७.२००२ श्ी ्ी C० 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt B5ब्र इस अंक में सहज का झंडा सब तरफ फैल जाए ...४ स्वधर्म, स्व माने हमारी आत्मा ...१४ 'सहस्त्रार' पर श्रीमाताजी का उपदेश ...२४ 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt इांडा सहज का २ब त२फ फैल जीए तरफ दिल्ली, दि.१० मार्च १९९१ १ 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt सहजयोग एक स्वर्ग है, हमने हिन्दुस्तान में खड़ा कर दिया है सहर्ज का इंडा सब त२फ फैल जीए रहजयोग आज आप लोगों ने मेरा जन्मदिवस मनाने की इच्छा प्रकट की थी। अब मेरे कम से कम चार या पाँच जन्मदिवस मनाने वाले हैं लोग। जितने जन्मदिवस मनाइऐगा उतने साल बढ़ते जाएंगे उम्र के। लेकिन आपकी इच्छा को मैंने मान लिया कि इसमें आपको आनन्द मिलता है। तो ठीक है। लेकिन ऐसे दिवस हमेशा आते हैं। उसमें कोई एक नई चीज़ हमारे जीवन में होनी चाहिए क्योंकि हम सहजयोगी हैं, प्रगतिशील हैं और हमेशा एक नई सीढ़ी पर चढ़ने का यह बड़ा अच्छा मौका है। सहजयोग में जो आज स्थिति है वो बहुत अच्छी है। जब भी हम देश की हालत देखते हैं तो हमें लगता है कि सहजयोग एक स्वर्ग है, हमने हिन्दुस्तान में खड़ा कर दिया है और सहजयोग की हमारी जो साधना है, इसमें हम जो समाये हुए हैं, इसका जो हम आनन्द उठा रहे हैं, यह एक स्थिति पर पहुँच गया है और इसका आधार बहुत बड़ा है। इसका आधार है कि आपने अपनी शुद्धता को प्राप्त किया, अपनी शांति को प्राप्त किया और अपने आनन्द को प्राप्त किया। ये आपकी विशेष स्थिति है, जो औरों में नहीं पाई जातीं। इसको देखकर सब लोग समझ गये हैं कि ये कोई विशेष लोग हैं और इन्होंने कुछ विशेष प्राप्त किया है। मैं जहाँ भी जाती हूँ लोग मुझे बताते हैं कि हम एक सहजयोगी को जानते हैं, वो बहुत नेक और बढ़िया आदमी हैं, उसका जीवन एकदम परिवर्तित हो गया है। उन्होंने अपने को सहजयोग के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया है और उनका सारा कारोबार अच्छी तरह चलता है। उनका कुटुम्ब भी बहुत सुखी है, सब तरह से वो एक आनन्दमय वातावरण में रहते हैं। ऐसा मुझसे लोग कहते हैं और फिर कहते हैं, 'माँ, हमें भी बताओ।' मैं कहती हैँ, 'आओ हमारे मंदिर में आओ, लोगों से मिलो, उनसे बातचीत करो।' आप सब लोगों ने भी सहजयोग को इस तरह से अपनाया है और बढ़ाया है कि कमाल की चीज़ है। हमें एक बात जान लेनी चाहिए कि हमारे पास जो विशेष शक्तियाँ हैं वो किसी के पास भी नहीं आई । आजतक कोई भी कुण्डलिनी का जागरण इतनी आसानी से नहीं कर सकता था। कोई भी चक्रों का निदान नहीं लगा सकता था। ये किसी को मालूम ही नहीं था कि चक्रों का निदान आप अंगुलियों पर जान सकते हैं। किसी शास्त्र में ये नहीं लिखा। किसी ऋषि- 6. 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt स्वर्ण णट एक मुनि ने ये बात नहीं बताई कि आप अंगुलियों पर चक्रों का निदान बता सकते हैं। चक्रों पर बात की है, सहस्रार पर बहुत कम लोगों ने बात की है। आप लोग इतने सूक्ष्म ज्ञान को इतने आसानी से प्राप्त कर गये क्योंकि आपने भी इस पर बहुत ध्यान दिया और आत्मा के प्रकाश में इस सूक्ष्म ज्ञान को आपने प्राप्त कर लिया। अब आप सहजयोग बना रहे हैं और सहजयोग के जो नियम हैं उनमें आप बहुत सहजता से आ गये हैं। किसी को मैंने इसमें रुकावट करते हुए नहीं देखा, किसी ने मुझसे वाद-विवाद नहीं किया और आसानी से सब बातों को मान गये। जैसे कि मैंने कहा कि हम बाह्य के जाति, धर्म, भेद आदि को नहीं मानते। अभेद को मानते हैं। हम सब एक परमात्मा के अंश हैं और उस अंश को, उस विराट स्वरूप को जानना चाहिए। उसमें जागृत होना चाहिए। ये जो बाह्य में विकृतियाँ आ गई हैं इनको छोड़ कर के अन्तरतम में हमें अपनी एकता जाननी चाहिए । धीरे - धीरे मैं देखती हूँ कि सब लोगों में इसका आनन्द आने लग गया। यही आनन्द है, जो आपको यहाँ खींच कर लाता है और हर बार आप चाहते हैं कि आनन्द हम दूसरों से भी बाँट खायें। जैसे एक शराबी अकेले शराब नहीं पी सकता, उसी प्रकार आप भी अकेले इस आनन्द को नहीं उठा सकते। तो अगर एक आदमी सहजयोग में आ गया तो उसके सारे रिश्तेदार सहजयोग में आने चाहिए। सब मिलने वाले, सब दोस्त आने चाहिए और सबको सहजयोग प्राप्त करना चाहिए। तो पहला प्रलोभन तो शारीरिक होता है, शरीर की व्यथा दूर हो गई, मानसिक व्यथाएं दूर हो गईं और आपसी रिश्ते ठीक हो गये। आपस में मेल-जोल बढ़ गया, बच्चे ठीक से चलने लग गये, हर तरह की आपकी प्रगति हो गई, यहाँ तक कि लक्ष्मी जी की कृपा हो गई। हर पल, हर घड़ी आप देखते हैं कि आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और परमात्मा आपकी मदद कर रहे हैं। इतने चमत्कार हो गये सहजयोग में कि उनको लिखकर निकालने की किसी को हिम्मत नहीं होती। कहते हैं, माँ पहले आप इसे छान लो, जो लिखने वाला हो वही लिखें, नहीं तो न जाने कितने ग्रंथ हो जाएंगे। सामाजिक स्तर पर हम लोगों ने बहुत उन्नति की है। और धर्म में भी हम जम गये हैं। देखिये, हममें सच्चाई आ गयी है। बहुत बड़ी बात है। आपस में मैंने देखा है, कि सहजयोग में कोई पैसा वैसा नहीं खाता। सहजयोग के लिए कुछ रूपया-पैसा दीजिए तो कोई उसे नहीं खाता। बहुत लोग कहते हैं, कि माँ, ये भगवान से डरते हैं इसलिए पैसा-वैसा नहीं खाते। किंतु मैं सोचती हूँ कि सहजयोग में एक तरह का समर्थ बनना अपने आप घटित होता है। समर्थ-सम माने आप, अपने साथ अर्थ बनना-आपमें जो दस 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt कला में सहजयोग ने बहुत कुछ कार्य किया है। सहर्ज का इंडा सब त२फ फैल जीए में कला धर्म बसे हुए हैं, वो जागरूक हो जाते हैं और मनुष्य समर्थ हो जाता है। उसको अपने अच्छे लगने लग जाते हैं। उसी में उसे मजा आता है और दर्गुण से वो भागता है । गुण दुर्गुणी व्यक्ति से या तो भागता है, या शान्तिपूर्वक कोशिश करता है, कि इसके दर्गुण भाग जाएं। दुर्गुण निकालने के तौर-तरीके भी उसे मालूम है, उसे वो इस्तेमाल करता है और बहुत बार यशस्वी हो जाता है, उसमें यश पा लेता है। इसी प्रकार आपने देखा है, कि कला में सहजयोग ने कार्य किया है। बहुत कुछ बहुत से कलाकारों में एक नया आयाम आ गया है, एक नई दिशा आ गई है। यही नहीं, विदेशों में भी मैंने देखा है कि कलाकार बहत सी नई -नई बातें सोचने लगे हैं। बहुत से आर्टिस्ट, पेंटर, म्यूजिशियन, सबमें एक नया उत्साह, एक नई धारणा, एक नया विचार प्रगठित हो गया है। समाज के भी बहुत से प्रश्न हल हो गये हैं। आप लोगों के जो छोटे- छोटे प्रश्न थे वो भी हल हो गये। जो छोटी तबियत वाले लोग थे वो ठीक हो गए और जो गर्म मिजाज के थे वो भी ठीक हो गए, जो बहत ही ठंडे थे वो भी उठ खड़े हुए। अब ये सारी सेना तैयार हो गई। एक विशेष प्रकार की सेना है। किसी देश में नहीं, आप तो जानते हैं (ऐसा कहते हैं) कि सहजयोग छप्पन देशों में चल रहा है। मैं कह रही हूँ तीस देशों में बहुत ही कार्यान्वित है। बहुत कार्य हो रहा है | और सहजयोग बढ़ रहा है | सहजयोग को बढ़ाना भी बहुत बड़ी चीज़ है। जो लोग सहजयोग को बढ़ाते हैं वो बहुत | बड़ा परमात्मा का कार्य कर रहे हैं। वो आप संगीत के द्वारा बढ़ायें, कला के द्वारा बढ़ायें या भाषणों के द्वारा बढ़ायें। इस तरह से भी यह बढ़ सकता है। आप सहजयोग बढ़ा रहे हैं। वैज्ञानिक तौर पर भी, जैसे अमेरिका के विज्ञान के लोग हैं उन्होंने बहुत बातों पर लिखने का सोचा हुआ है। बहत उपर जिम्मेवारी लेकर के, कठिन परिश्रम से यह स्थापित कर दिया है कि सहजयोग एक से डाक्टरों ने यहाँ बहुत कार्य किया हुआ है। अपने वास्तविक सत्य है। जब मैं संसार में आई और जब मैंने दुनिया के तरफ नज़र की तो मैं सोचती थी कि इस अंधेरे में मेरी यह छोटी सी रोशनी क्या काम कर पायेगी ? कोई देख 8. 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt ोग राहजय भी नहीं पायेगा। किसी के इसके बारे में कहने की बात तो छोड़िये, इसके बारे में विचार भी करने के लिए मैं सोचती थी कि क्या फायदा। ये तो लोग इतने अन्धकार में हैं, अज्ञान में हैं। जिन्होंने ज्ञान भी इकठ्ठा किया था वो सिर्फ बौद्धिक था। किताबें पढ़-पढ़ करके बातें सीख गये थे । उनके आगे बात करने से कोई विश्वास किसी को नहीं होता था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि मैं यह परिवर्तन की भाषा कह सकती हूँ। लेकिन अब साध्य हो गया और आप जानते हैं कि यह सब कुछ हो गया। आज की शुभ घड़ी पर में देख रही हूँ कि अपने देश के ये हालात देखते हुए और जिस तरह से सबकुछ हो रहा है, हमको राजकीय क्षेत्र में उतरना चाहिए। जब तक हमारे जैसे लोग राजकीय क्षेत्र में नहीं आयेंगे हमारे देश की हालत ठीक नहीं हो सकती। एकदम सड़कर, ये पता नहीं क्या हो गई है? इसकी आँच सहजयोगियों पर भी आने वाली है। ये नहीं कि आप लोग बच जायेंगे| हालांकि आपको इससे कोई तकलीफ नहीं होनी, हालांकि आप इसमें निकल आएंगे , फिर भी यदि आपको अपने देशवासियों का ख्याल है और अगर आपको अपने बच्चों का ख्याल है, तो बेहतर है, कि हम लोग ही समाज के जो कार्य कर रहे हैं। उसे राजकीय स्वरूप दें। और राजनीति में उतरकर हम सिद्ध कर दें कि जो लोग नेक हैं, धार्मिक हैं, जो सत्य पे चलने वाले लोग हैं, जिनमें लालच नहीं है, ऐसे लोग एक नये तरह का राजकीय राष्ट्र बना सकते हैं। किसी भी देश में जाईये, चाहे वह प्रजातन्त्र हो चाहे साम्यवाद हो या कुछ और, डिमोक्रेसी में तो मैंने कोई ऐसा देश नहीं देखा जहाँ पर बेईमानी न हो। कहीं कम कहीं ज्यादा। अनैतिकता खुले आम बहुत जगह चल रही है। यदि आप कम्युनिस्ट देशों में जाईये तो वो तो अब टूट ही गये हैं सारे, वहाँ पर जो लोगों से जबरदस्ती काम कराया जाता है, उससे उनकी स्वतन्त्रता तक चली गई है। इसलिए दोनों तरह से एक तरफ तो सत्ता और दूसरी तरफ पैसा-इन दोनों के पीछे ही सब देशों के लोग भाग रहे हैं। अब हमें अपनी जो सतह है-जिस सतह से हम सब चीज़ की तरफ देखते हैं-फिर वो अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न हो, राष्ट्रीय हो या हमारे छोटे-छोटे कस्बे या गांवों का हो जब हम अपनी सतह से उसे देखते हैं तो विश्वस्तता की दृष्टि से, उसकी विशालता की दृष्टि से हम लोग उसे देखते हैं। दूसरे उसकी गहनता से देखते हैं, कि उसमें कौन सी खराबियाँ हैं? और ये खराबियाँ हम कैसे निकाल सकते हैं। ये खराबियाँ भी हम लोग बहुत आसानी से निकाल सकते हैं क्योंकि आपके पास बहुत बड़ी शक्तियाँ हैं, बन्धन के सहारे आप जानते हैं, कि आप बहुत कुछ काम कर सकते हैं और बहुत 9. 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt हमें भारतीय संस्कृति में उतरना चाहिए। सहर्ज का इंडा भारतीय सब त२फ फैल जीए लोगों को अपने सहजयोग में ला सकते हैं। अभी मुझे एयर फोर्स के बहुत से लोग मिले थे, वो कहने लगे कि, 'माँ, हमें भी ले लीजिए।' हम जानते हैं कुछ सहजयोग के लोगों को जो एयर फोर्स में हैं और उन्होंने बहुत कमाल कर दिया है। फिर कुछ पुलिस वाले हैं, वो भी हमारे साथ चल पड़े हैं। महाराष्ट्र में 'पुलिस टाइम्स' में सहजयोग के बारे में भी | कुछ छपता है। इसी प्रकार कुछ अखबार वाले भी हमारे साथ मिल गए हैं और बहुत सरकारी नौकर भी सहजयोग में आ गए हैं। जब उनकी बदली हो जाती है, तो सहजयोग फैलाते हैं, इसी प्रकार यदि हम राजनीति में उतर जाएं तो राजकीय समस्याओं का हल भी निकाल सकते हैं। इसको सबसे पहले हमें जानना चाहिए कि इस मामले में हमारी हो वो साफ-सुथरी होनी चाहिए। उसमें सिर्फ देश के हालात ठीक करना चाहतेहैं और लोगों तक उनके अधिकार पहुँचाना जो भी इच्छा शुद्धता होनी चाहिए। हम कुछ चाहते हैं। इतना ही नहीं उनके अन्दर धर्म जागृत करना चाहते हैं, जिससे कि हमारा देश बहुत सुचारू रूप से तथा सुन्दरता से आगे बढ़े और सारे संसार के लिए आदर्श बन जाये। इस देश में अनेक शक्तियाँ हैं, बहुत ही ज़्यादा आध्यात्मिक देश है। अध्यात्म की शक्ति को, कोई माने न माने, आप तो जानते ही हैं। इस देश की शक्तियों को अच्छी तरह से हम अपने इस्तेमाल में ला सकते हैं। इसमें एक बात हमें और याद रखनी चाहिए कि हमें भारतीय संस्कृति में उतरना चाहिए। विदेशी संस्कृति में अगर हम लोग जाने लग जाएं तो विदेश की जो खराबियाँ हैं वो हमारे अन्दर आ जाएगी। भारतीय संस्कृति का जो शुद्ध स्वरूप है, वो आत्मसाक्षात्कार के लिए बहुत पोषक है। अगर हम भारतीय संस्कृति में नहीं आएंगे तो कभी भी इस देश का हाल ठीक नहीं हो सकता। ये तो ऐसा है, जैसे मैं सदा ही कहती हूँ कि आम का पेड़ यदि आप विदेश में लगाइये तो उसमें न आम आयेंगे न सेब। इसलिए जो आदमी भारतीय है उसे भारतीय संस्कृति में ही आना चाहिए और परदेश में जितने भी सहजयोगी हैं, आश्चर्य की बात है, हमेशा कहते हैं कि, 'माँ, हमें भारतीय संस्कृति में आप उतारिये।' ये तो बहुत सौम्य संस्कृति है। इसमें 10 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt सस्कृति सब बच्चे, लोग अत्यन्त सौम्य हैं, सहनशील हैं। इतना ही नहीं धार्मिक हैं। तो जो शुद्ध स्वरूप भारतीय संस्कृति का है, उसको हमें बनाना है और उस पर विचार करना है। हमारे घर में भी वो संस्कृति आनी चाहिए । बहुत से लोग मुसलमानों द्वारा हम पर लादी गई पर्दा प्रथा आदि को भारतीय संस्कृति मानते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। दक्षिण भारत तथा महाराष्ट्ट्र की औरतें पर्दा आदि कुछ नहीं करती। वो सब भारतीय संस्कृति से रहती हैं। पर्दा-प्रथा उत्तरीय हिन्दुस्तान में चल पड़ी थी। औरतों को दबाना उनके साथ दुष्ट व्यवहार बिल्कुल भारतीय संस्कृति में नहीं है। भारतीय संस्कृति में तो, आप जानते ही हैं, बहुत -बहुत विद्वान औरतें हुई हैं। उन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों के साथ वाद - विवाद कर बड़ी पंडिताई हासिल की। औरत को अपनी संस्कृति में कभी भी नीचा नहीं समझा गया। स्त्री तथा पुरुष, दोनों का अपना अपना स्थान माना गया। जब विदेशों के लोग हमारी संस्कृति को ले रहे हैं तो क्या अपने लिए जरूरी नहीं कि हम भी अपनी संस्कृति को समझें तथा जानें? बहुत सी बातों में हम सोचते हैं कि उनका अनुकरण करना आसान है। लेकिन वो लोग | सोच रहे हैं कि उन्होंने जो गलतियाँ की इसका कारण उन पर किसी तरह के अंकुश का न होना था। एक कटी पतंग की तरह वो लोग मनमानी करते और अति पर चले जाते। तब उन्हें पता लगता कि गलतियों के कारण कई बीमारियाँ हो गई, सारा उनका समाज नष्ट भ्रष्ट हो गया। हमारी संस्कृति की नैतिकता हमारा अंकुश है। नैतिकता को हमें समझ लेना चाहिए। और वो जब तक हमारे अन्दर पूरी तरह उतरेगी नहीं हम लोग असली तरह से सहजयोगी भी नहीं हो सकते । क्योंकि यह सहजयोग के लिए बहुत पोषक है । मैं इसलिए नहीं कह रही कि मेरा जन्म हिन्दुस्तान में हुआ है और मैं हिन्दुस्तानी हूँ। बाहर की अच्छी चीजें भी सीखनी चाहिए । लेकिन भारतीय संस्कृति को यदि आप अपना लें तो वो सब अपने ही आप आ जायेंगी। उनके बनाये कायदे कानून तथा अनुशासन ही उनसे सीखने की चीज़ है। वो भी अपने आप आ जायेगा क्योंकि भारतीय संस्कृति सब चीज़ में असर करती है, हर चीज़ को वो ठीक करती है। जीवन के जितने प्रांगण हैं, जितने भी आयाम हैं, सबमें वो एक दैवी प्रकृति को प्रस्थापित करती है। यह दैवी प्रकृति को प्रस्थापित करने की बात और किसी भी संस्कृति में नहीं है। इसलिए हमें भारतीय संस्कृति को स्वीकार करना चाहिए और उसमें अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझना चाहिए कि हम लोग भारतीय संस्कृति में उतर गये। मैं गांधीजी के साथ सात साल की उम्र से थी, उन्हें देखती थी। उन्होंने 11 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt धर्म पर बहुत बात की लेकिन गांधीजी बहुत कड़क स्वभाव के आदमी थे। सहजयोग ऐसा नहीं है। यहाँ कोई जबरदस्ती नहीं है। गांधीजी का यह स्वभाव था कि चाहे जो हो सहर्ज का इंडा जाए सवेरे चार बजे उठना है। अब परदेश के सहजयोगी करते हैं, हम लोगों से बहुत सब त२फ फैल जीए बहुत अधिक मेहनत करते हैं। हमारे यहाँ तो कोई आश्रम ही में नहीं रहना चाहता। कहते हैं, 'माँ और तो कोई नहीं रहना चाहता अब आप ही आश्रम में रहो। आश्रम बनाया तो लोगों को आश्रम ही नहीं अच्छा लगता, घर से ही चिपके रहते हैं। गांधीजी का नियम था कि सवेरे चार बजे उठकर नहा धो कर प्रार्थना में जाओ । वहाँ साप वरगैरह सब घूमा करते थे , प्रार्थना में साँप दिखाई पड़ जाते थे। इतने तेज़ वे चलते थे, कि उनके साथ सबको दौड़ना पड़ता था। इतने उनके कायदे कानून थे कि खाने के लिए उबला हुआ खाना और चाहें तो उस पर थोड़ा सा सरसों का तेल आप डाल सकते थे। सभी को ऐसा खाना पड़ता था, चाहे वो जवाहर लाल हो या अब्दुल कलाम आजाद। खुद भी वे बड़े भारी अनुशासन में थे, संन्यासी थे। बहुत कड़क उनका स्वभाव था। कोई भी यदि जरा सी गलती कर दे तो सबके सामने उसे लज्जित कर देते थे। उस वक्त इस चीज़ की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। तब तक लोगों ने देश को बहुत प्यार किया। मेरे माता-पिता ने देश के लिए सब कुछ त्याग दिया। हम लोग घर छोड़ झोपड़ियों में रहते थे। इतना त्याग, इतनी श्रद्धा देश को आजाद करवाने के लिए थी। आज आजाद हो कर देश का क्या हाल हुआ है। इसी तरह बड़े वीर लोग थे उस समय। से इस तरह की भावना यदि हम लोगों में जाग जाये तो हम अपने देश की पूरी तरह काया पलट कर सकते हैं। इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। लेकिन वो त्याग बुद्धि होनी चाहिए और त्याग में बड़ा गर्वित होना चाहिए । इसमें रोने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज भी देश के प्रति पूर्णतया समर्पित होकर ही हम देश की राजकीय स्थिति पूरी तरह ठीक कर सकते हैं। सहजयोग में आपके कोई प्रारम्भ -आदि जाने की बात नहीं है। कोई कुछ भी करे आपका जीवन बना हुआ है और हर तरह से आपको सुख है। सुख ही सुख है, आनन्द ही आनन्द है। लेकिन सोचना चाहिए कि ये एक तरह का चॉकलेट है, जिसको आप खाते हैं। लेकिन इसके अन्दर एक गहन चीज़ वो है, जहाँ आपको तप करना होगा। जब तक कि तपस्या नहीं होती तब तक आप पूरी तरह से सहजयोग को प्राप्त नहीं कर सकते। ये तपस्या वैसी नहीं जैसे हिमालय पर जाकर कपड़े उतार ठंड में ठिठ्रते रहो। ये तपस्या ऐसी है कि मनसा-वाचा- कर्मणा आपको समर्पित होना चाहिए एक बड़े उद्देश्य के लिए एक बड़ी चीज़ के लिए। तब फिर अपने आप बहत सी चीज़ें घटित हो जायेंगी। 12 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt प आज तक मैंने आप पर किसी चीज़ का बन्धन नहीं डाला, किसी चीज़ की मनाही नहीं की। सब प्यार की बातें होती रहीं, एक प्यार ही देती रही, प्यार बढ़ता रहा, सब आपस में मजा-मजा होता रहा। लेकिन आज जब आपने जन्मदिन की बात की है तो एक नया आयाम हमारी जिन्दगी में हो जाए, नये इरादे हो जाएं। जिन इरादों में हम बाद में गर्व करें ऐसे इरादे हम में हो सकते हैं। आप लोग सहजयोगी हैं, आपका हर इरादा पूरा हो जाता है। मेरा तो कोई इरादा ही नहीं है, मुझे तो कोई इच्छा ही नहीं है, लेकिन आप लोग अगर इच्छा करें तो सब चीज़़ ठीक हो सकती है। हमारे देश की स्थिति के लिए आपको मन से प्रार्थना भी करनी चाहिए और आज पूजा भी करनी चाहिए इसी चीज़ को सोच के कि हमने अपने देश की स्थिति ठीक करनी है और हमारे अन्दर वो शक्ति आए जहाँ हम अपनी छोटी सी जो जिन्दगी है उसका ख्याल करके कम से कम देश की ओर नज़र करें, इसके जो हालात हैं, उन्हें समझ लें और उसमें कार्यान्वित हों। आज का दिन आप सबको शुभ हो। आशा है, कि मेरे जीते जी मैं वो भी दिन देख सकूं कि जब हमारा देश पूरी तरह से इन सब गंदगियों से आजाद हो जाए और सहज का झंडा सब तरह फैल जाए। आप सबको अनन्त आशीर्वाद! 13 (श 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt स्वधर्म 'सव' माने हमारी आत्मा २२ फरवरी १९८२ कार 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt क्या बात है? देखिये, ऐसे बाधित बच्चों को प्रोग्राम में लाकर डिस्टर्ब नहीं करना चाहिये । आप लेते जाये, ये तो बाधित बच्चा है। आप लेते जाये बाहर, ये तो ज्यादती है आपकी! इनको आप ले जाईये, क्योंकि इन पर काली छाया है और वो हमेशा डिस्टर्ब करेगी। आप लेते जाईये इनको बाहर, मेहरबानी से। बाधित लोगों को कभी भी अन्दर नहीं लाना चाहिये। ये हमारे सहजयोगी लोगों ने कहना चाहिये। ये लोगों में भूत होते हैं और ये हमेशा डिस्टर्ब करेंगे। लेते जाईये बाहर! बाहर लेते जाईये। यहाँ आने लायक नहीं है ये लोग। इनको कभी नहीं लाना चाहिये और हो सकता है, कि बेहोश भी हो जाये , क्या फायदा? इन लोगों को नहीं लाना चाहिये। ये तो बाधित लोग हैं, इनको बाहर बिठा दीजिए, ठीक है। अन्दर बिठाने से तकलीफ देंगे सबको। वो बच्चा भी जो था, उस पर भी बाधा थी। उनको, भूतों को तो सब समझता है, कि यहाँ परमात्मा का काम हो रहा है, इन्सान को ही नहीं समझता। हाँ, सच बात है! किसी के अन्दर भूत आते हैं तो वो मेरे बारे में बताते लोगों को। उन्होंने ही बताया सबसे शुरू में, कि मैं कौन हूँ? वो सब जानते हैं, थर, थर, थर काँपते हैं, मेरी ओर देखते भी नहीं हैं। लेकिन इन्सान, वो नहीं समझता। ये बड़ी आश्चर्य की बात है, पर नहीं समझ में आता । भूतों को समझ में आता है और संतों को समझ में आता है। पर इन्सान को नहीं समझ में आता है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं कि जो देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, ऐसे भूत लोग देखते हैं के मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, फलाना हो रहा है, सब चीजें देखते रहते हैं। लेकिन ये तो सब भूतों के काम हैं। फिर जैसे ही वो इन्सान हो जायेगा, उनमें कुछ दिखाई नहीं देगा, कुछ बीच में लटकी हुई चीज़ है, एक किनारे जो हो जाये, माने भूत न हो। भगवान हो जाये, तो बहुत बड़ी बात है। और यही भगवान होने की बात मैं कह रही हूँ कि आप के अन्दर स्थित जो सच्चिदानंद, आप का आत्मा है उसको पाना है। उसके लिए आपके अन्दर कुण्डलिनी भी स्थित है। उसकी जागृती करनी, उसका उत्थान करना, ये शायद हमारे नसीब में है, हमें करना होता है, क्या करे ? और वो हो जाता है। हमारे ही हाथों से होने का होगा, तो उसमें नाराज़गी की बात क्या करनी चाहिए। पर माँ को अगर ये काम करने का है तो इसमें क्या नाराज़गी की बात है और ये काम बहुत बड़े पैमाने में होना चाहिये, बहत जोर से होना चाहिए और सब लोगों को इसका लाभ होना चाहिए। अभी ये बड़ा भारी समय आया हुआ है। ये समय बाद में नहीं मिलने वाला है। ये बहुत महत्वपूर्ण समय है। इसको आप इस्तेमाल कर लें। इसका उपयोग कर ले और इसको पा ले। इसके बाद का समय बहुत बिकट है । क्योंकि कल्कि का जो एकादश रूद्र के साथ जो आवरण है, उसमें ये कोई आपको माँ जैसे समझायेगा नहीं, न कोई बात करेगा, वो तो काटा-छाटी होगी आखिरी वाली। इसलिये एक माँ स्वरूप आप सब लोगों से कहती हँ कि बेकार की बाते छोडों और पहले परमात्मा को जान लो। अपनी आत्मा को पा लो और उसको पाने के बाद फिर आप समझ सकते हो कि आपने क्या पाया है! 16 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt जब तक आपने खाना ही नहीं खाया है, तो उसका स्वाद आप क्या जानियेगा? पर जिस आदमी को भूख नहीं लगी है, वो आते ही साथ पूछेगा कि माँ आप ने कैसे बनाया है? कहाँ से लाया? कैसे पकाया? जिसको भूख होयेगी वो कहेगा कि, 'माँ, मुझे खिलाओ मुझे भूख लग रही है।' ये अन्तर होता है। अब उसमें से कोई ऐसे भी लोग होते हैं कि जैसे ये भूतों से पछाड़े हुए लोग, उनकी तो खोपड़ी में कभी जा ही नहीं सकता है। इसलिये कम से कम आप ऐसे नहीं हैं, इसका आप नसीब समझिये और ये भी नसीब समझिये कि आज ये चीज़ यहाँ हो रही है। आज आप लोग सब पा लीजिए और पाने के बाद में इसके आगे कैसे करने का । आगे हमें कैसे सम्भालने का है, इस पर थोडा सा ध्यान दें। उसमें थोड़ी सी आपको एज्युकेशन चाहिये, उसमें आपको सीखना पड़ता है कि इसको कैसे बचाना है, किस तरह से चलना है इस पर । वो थोड़ी साधना आपको करनी पड़ेगी। वो जरा सी आपने साध ली तो आप साधु बन जाएंगे। उससे पहले आप पार हुए, लेकिन साधु नहीं हुए। साधु होने के लिए थोड़ा साधना पड़ता है और साधु ऐसे होते हैं कि, जो घर में रहते हैं, गृहस्थी में रहते हैं, न इससे भागना , न कुछ नहीं। इसी दुनिया में रहकर के और आप एक प्रकाशवान, बहुत बड़े परमात्मा के चिराग हो जाते हैं। यह कोई कठिन बात नहीं है। यह बहुत आसान चीज़ है। अब कोई कहे कि माँ आप तो बहुत कठिन बात बताते हैं। अब बताते होंगे लेकिन मेरे लिए तो बड़ी आसान बात है। कोई न कोई बात तो मैं हूँ ही, जो ये मेरे लिए इतनी आसान है। ये भी तो सोचना चाहिये कि कोई न कोई चीज़ हुए बगैर आपको मैं पार करा देती हूँ और यहीं जो जय गोपाल खड़े हैं इन्होंने कितनों को पार किया है ? पूछियेगा, तो बता देंगे। जब आपकी शक्ति को आपको मैं देती हूँ और उसके बाद आप अगर अपनी शक्ति से अनेकों को पार करते हैं तो मैं भी तो कोई चीज़ होऊंगी ही। हालांकि तुम्हारे सामने , बिल्कुल ही सीधी साधी, बिल्कुल तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे सामने , तुम्हारे माँ जैसे ही खड़ी हूँ। इसका यही मतलब है, कि कुछ न कुछ तो गहरी चीज़ है इसमें और वो बात इसलिये अभी नहीं कहँगी क्योंकि जब तक आप नहीं, तो कहने से फायदा क्या है? तुम डंडा लेकर मारना शुरू कर दोगे। वैसे ही किया अभी तक। मैं नहीं चाहती ये, मुझे डंडे-वंडे नहीं खाने है। इसलिये मैं अभी ये बात नहीं कहूँगी खुल कर लेकिन ये खुद ही तुम समझ लोगे और ये प्रश्न पूँछ कर भी जान लोगे, कि भाई, कोई चीज़ तो है ही। और तुम्हारे लिये ही आये हैं इस दुनिया में, तुम्हारा ही काम करने के लिए, सारा संसार का कल्याण करने के लिए । तो अपनी माँ की तुम्हें 17 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt मदद करनी चाहिए। मुझे कुछ भी नहीं चाहिये आपसे| न पैसा, न कोई चीज़! मेरे पास परमात्मा की कृपा से सबकुछ है और सब से ज़्यादा मेरे अन्दर समाधान इतना है कि मुझे कोई चीज़ नहीं चाहिये। सिर्फ मैं तो यही चाहती हूँ कि मेरे जो बच्चे हैं, वो सब पार हो जाये। बस, यही एक आंतंरिक इच्छा है, कि मेरे जितने भी बच्चे हैं, जितने भी मुझे खोज रहे हैं, जो परमात्मा को खोज रहे हैं वो सब पार हो जाये और अपना अर्थ पा लें। परमात्मा आप सबको सुखी रखें। अभी कोई प्रश्न हो तो पूछ लीजिये। प्रश्न - ये जो, आप, लोगों का उद्धार कर रही हैं ये आप कहाँ से, कितने दिन से कर रही हैं ? कितने समय से कर रही है आप? श्रीमाताजी - बेटा, मैं तो बहुत पुरानी चीज़ हूँ। हजारों वर्षों से यही कार्य कर रही हूँ। प्रश्न - हजारों वर्षों से तो, पर आप जैसे कि इस जन्म में पैदा होने के बाद, शादी होने के बाद, बच्चे होने के बाद से या कब से यह कार्य कर रही हैं आप? श्रीमाताजी - जब से पैदा हुए हैं, तब से ही लगे हैं, फिर ऐसा ही समझ लो आप। सारी जिंदगियाँ ही ये करते आये हैं तो ऐसा कौन सा समय होगा कि जब ये काम नहीं किया होगा ? प्रश्न - मेरा मतलब है, कि कब से आप खुले आम कर रही हो? श्रीमाताजी - खुले आम तो मुझे याद नहीं है, कि कब से कर रही हूँ मैं ये काम। प्रश्न - मेरा मतलब है कि कितने साल से आप इसमें लगी हैं? श्रीमाताजी - साल १९७० से.... १९७० से ये काम खुले आम, के कार्य शुरू हुआ है। ये मन्वंतर का काम १९७० से शुरू हुआ है। इसके बारे में पहलेही से घोषित किया गया था कि ये कार्य १९७० से होगा। सबका समय होता है। जो समय होता है, उस समय से ये काम हो रहा है। अब आप ये बाते छोड़िये और आप पार हो जाईये। बैठ जाईये। उसी व्यक्ति का सवाल - पर मेरे कहने का मतलब है, कि मैं यहाँ दो दिन से आ रहा हूँ याने कि आप में कोई तो शक्ति है, कि जो मुझे यहाँ खींच कर ला रहा है। दूसरी बात तो यह है, कि हमने रामायण में भी पढ़ा है, कि जो जैसा कर्म करेगा उसी के अनुसार उसको फल मिलेगा । पर यहाँ आकर के आप मुझ जैसे ही बाकी और लोगों को भी पार करा दे रही हो। अब इसका क्या मतलब है? 18 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-18.txt श्रीमाताजी - बताती हैँ, इसका मतलब है, कि..... (श्रीमाताजी और अन्य सभी लोग हँसने लगते हैं) अब इन्होंने बहुत मज़ेदार बात कही है। मैं तो कभी सोचती ही नहीं हूँ कि किसने क्या पाप किया है और कितना। जो माँ अपने बच्चों का पाप नहीं उठा सकती ऐसी माँ को हम क्यों यहाँ बिठाये? कौन से ऐसे पाप हैं, कि जो आप कर सकते हैं और मैं न उठा सकूं? और आप भी कभी ये न सोचना कि तुमने कुछ पाप किया है। कौन ऐसा पाप कर सकता है? देखेँ तो किसकी मजाल है। सारे पाप पी सकती है, वही आप की माँ यहाँ बैठी हुई है। ये बात सही है। अपने अन्दर एक ऐसा चक्र है, कि इसकी जागृति से मनुष्य के सारे पाप धूल जाते हैं। वही आज्ञा चक्र है। इसकी जागृति से आपके सब पाप धूल सकते हैं। अब पाप गिनने का समय नहीं है। अब पुण्य गिनने का समय है। मैं तो तुम्हारे पुण्य ही गिन रही हूँ। बहुत प्यारी बात कही है तुमने ! (प्रश्नकर्ता से कहती हैं श्रीमाताजी) । तुम राजा-बेटा हो। और कोई सवाल हो तो पूछिये। सहजयोग कैसे करना है वो तो अभी मैं बताऊंगी आपको बाद में। अभी और कोई सवाल हो किसी का तो लीजिये। हाँ मैंने पूछ तो कभी सोचा भी नहीं कि ये सब बाते हैं। ये तो सोचती भी नहीं हूँ कि तुम कुछ पाप भी कर रहे हो , कभी भी नहीं । हाँ लेकिन कुछ कुछ हैं राक्षस। उनके बारे में तो मैं कहती हैँ। तो लोग कहते हैं, कि उनके बारे में मैं बात ही न करूँ। लेकिन राक्षस तो हैं संसार में आये। बड़े-बड़े राक्षस आयें। सोलह राक्षस तो मैं जानती हैँ अच्छे से और छः औरतें है राक्षसनी और वो आयी हैं गुरूबन कर घूम रहे हैं। लेकिन तुम तो ऐसे नहीं हो! तुम राक्षस थोड़ी ही न हो । अच्छा और बोलो! प्रश्न - अस्पष्ट.... श्रीमाताजी -स्वधर्म का मतलब जो कृष्ण ने कहा है, इसका मतलब हिन्दू धर्म, मुसलमान धर्म नहीं है। 'स्व' माने स्व...... आप खुद संस्कृत जानते हैं..... स्व माने क्या? स्व माने हमारी आत्मा। शिवाजी महाराज ने कहा था कि 'स्व-धर्म जागवावा'। जो स्व का धर्म है उसे ा] जागृत करना है। कृष्ण ने भी यही कहा है, कि स्वधर्म को जागृत करो, दुसरे के धर्म पर मत जाओ, कि ये ऐसा है, वो वैसा है। अपने अन्दर का जो धर्म है, दूसरा कौन है? दूसरा कोई नहीं है। हमारे लिए दूसरा कोई नहीं है। सब हमारे अंग-प्रत्यंग हैं। कोई दूसरा है ही नहीं। दूसरा कौन है? दूसरा धर्म माने ये कि जिसमें आप ' स्व' नहीं है, वो दूसरा धर्म है। इसको गहनता से देखना चाहिए। हम लोगों ने जो जो अपनी ये लगाये हुए हैं, कि मैं फलाना हूँ, ठिकाना हूँ। ये सब झूठे नाम हैं। इसका कोई भी अर्थ मेरे दिमाग में तो नहीं आता। अब अगर हैं या नहीं है, क्या फर्क पड़ेगा । बस स्वधर्म 19 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-19.txt को जगाओ तो पता चलेगा कि आप 'सभी' हैं, आप एक नहीं है। और जो आप ने ये बात कही है कि आज कल के जमाने में ये चीज़ हो रही है क्योंकि अब जो है, अपनी स्थिति सहस्रार पर आ गयी है। और सहस्रार में सारी चीज़ की समग्रता की है। सहस्रार पर सब स्थिति जो है, वो समग्रता की है। माने, सब का जो अग्र है, जैसे कि एक सुई में अग्र होता है, उसमें से एक ही सूत्र... फिर कहे 'पाँचो, पचीसो पकड़ बुलाऊं, एक ही डोर बंधाऊँ' वो बात है कुछ किसी में फर्क नहीं हैं। सब परमात्मा के बनाये हुए हैं। एक परमात्मा के सिवाय और कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य ने ही ये सब बनाया हुआ है। और ये चीज़ जब मनुष्य ही जागेगा तो जानेगा कि हम सब तो एक ही हैं, दूसरा कौन है? सामूहिक चेतना जब तक जागृत नहीं होगी तब तक दूसरा बना रहेगा और जब जागृती हो जायेगी तो दूसरा कोई रहेगा ही नहीं। सब धर्म का मान होगा। सब बड़े-बड़े साधु संत का मान होगा। पूराने जमाने के जितने भी वेद आदि, जितने भी बड़े-बड़े ग्रंथ साहब आदि, बायबल, कुरान सब चीज़ों का अर्थ लगेगा। दृष्टि तो आने दीजिए। दृष्टि आये बिना कैसे लगेगा । सब में एक ही राम है और एक ही रहीम है, सब में एक ही चीज़ है । ये बताने से नहीं होगा, ये तो देखने से होगा, तो देखियेगा कि यह चीज़ एक ही है । जिसे अंग्रेजी में कहते हैं अॅक्च्युअलाइझेशन। घटना है, वो होनी चाहिए । लेक्चर देने से नहीं होगी । और तो नहीं कोई प्रश्न ? प्रश्न - माताजी, आपका नॉन-वेजिटेरियन के बारे में क्या खयाल है? माताजी - किसके बारे में? ...... अच्छा अब झगड़ा मत खड़ा कर देना तो बताऊंगी। फिर से झगडा नहीं खड़ा करना। तो बताऊँ समझा के कि खाने-पीने में भगवान नहीं होता है। ये भी एक गलतफहमी है, खाने पीने में। जैसे जैन लोग कहते हैं कि हम कृष्ण को भगवान नहीं मानते क्योंकि उनमें संहार शक्ति थी। पर अगर उनमें संहार शक्ति थी, तो क्या वो संहार न करते! इन राक्षसों का क्या संहार नहीं करना चाहिये? इनके क्या गले में हार पहनाना चाहिये, इनकी आरती उतारनी चाहिये? तो संहार शक्ति भी बहुत जरूरी चीज़ है। और खान-पीन से अगर भगवान बनते तो तो बस, जितने भी घास चरते हैं वो सब भगवान के पास पहुँच जाते। ये सब फालतू चीज़ में भगवान नहीं होते हैं। भगवान को इतने निम्न स्तर पर नहीं लाना चाहिये। जिस देश में जरूरत होती है कि लोगों को इस तरह का खाना खाना है तो उस तरह से खायें लेकिन खाना कोई बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है। मैंने तो देखा है कि एक से एक राक्षसी लोग जो कि सिर्फ घास खा कर रहते हैं और महाराक्षस हैं। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। फर्क ये है कि किसी की तबियत ऐसी होती है कि उसको जरूरत है कि वो कुछ ऐसा खाना खाए कि जिससे उसकी ताकत बनी रहे। ऐसे ऐसे अनुभव हमें आयें हैं कि एक साहब थे, वो बहुत बीमार थे बिचारे। उनका ब्लड प्रेशर इतना लो हो गया| उनको बताया गया कि तुम कुछ तो भी ऐसा सूप पिओ, जिससे की तुम्हारी ताकत बने। क्योंकि ये पहले से डाइजेस्टेड सूप है। उनकी अम्मा इतनी 20 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt ज़्यादा अजीब तरह की वेजिटेरियन थी कि उन्होंने कहा कि, 'मेरे प्राण निकल जाएंगे लेकिन मैं ये नहीं करूंगी।' मैंने कहा, 'तुम्हारे प्राण निकलने दो लेकिन बच्चे के क्यों निकाल रहे हो ? उसकी तो बिवी भी है, बच्चे भी हैं, तुम्हारे निकल जाये तो कोई हर्ज नहीं। अब तो तुम बुढाई गयी हो। तो खान-पीन में हम लोग जो बहुत ज़्यादा व्यवस्था करते हैं, ऐसी कोई नहीं है। सहजयोग में खाने- पीने के, पीना माने शराब बिल्कुल नहीं पीते लोग, नहीं तो चलेगा फिर, और सिगरेट भी नहीं पीते हैं क्योंकि दोनों चेतना के विरूद्ध में पड़ते हैं। लेकिन खाने के मामले में कोई रेस्ट्रिक्शन नहीं। अगर आपको नहीं खाना हो तो नहीं खाओ, खाना हो तो खाओ। पर उस पर खाना खाना यही बात बहुत बड़ी थी। अब मुझसे अगर आप अभी पूछे कि आपने क्या खाना खाया आज? तो मुझे याद नहीं कि मैंने क्या खाना खाया। और कभी भी याद नहीं रहता क्योंकि खाना कभी खाते ही नहीं हम हमारे ख्याल से। एक तरह की उदासीन भावना हो जाती है खाने की तरफ से। मिल गया तो अच्छा और नहीं मिला तो उससे भी अच्छा। जितना खाने की ओर हम विचार करते है उतने ही हम निम्न होते जाते हैं। जैसे कि अब उपवास है। एक साहब का उपवास है। आज हनुमानजी के लिए ये उपवास कर रहे हैं। वो हनुमान जी आपके अन्दर आ कर बैठ गये। अब उन्होने आकाश-पाताल एक कर डाला। तुमने आज ये नहीं लाया मेरे उपवास के लिए, सिंघाडे का आटा नहीं लाया, फलाना नहीं लाया। उसने सबका आटा बना डाला। घरभर में आफ़त हो गयी कि ये हनुमान जी जो हैं उपवास कर रहे हैं। जी को उपवास करने की क्या ज़रूरत है? उनको तो बहुत काम करने के हैं। हनुमान अगर वो उपवास करेंगे तो उनका काम कौन करेगा? इस तरह की विद्रपता हमारे अन्दर बड़ी आ गयी है। उपवास करना, खाना नही खाना। खास बात पूछो तो मुझे तो बिल्कुल उपवास अच्छा नहीं लगता। किसी को मुझे सताना हो तो उपवास करो। नहीं तो उपवास ही नहीं करो। माँ को अगर सताना होता है तो बच्चे खाना नहीं खाते। पर इसका मतलब ये नहीं कि रात-दिन खाना ही ा] खाते बैठो। रात-दिन खाना खाना है, खाना खाना है। ये खाना है, वो खाना है करते बैठो। अपने हिन्दुस्थानी तो सिवाय खाने के और किसी बात को सोचते नहीं। और हमारे देश की औरतें भी ऐसी होशियार हैं कि उन्होंने आपको बेवकूफ़ बना कर रखा हुआ है। एक हमारे अंग्रेज कह रहे थे कि हिन्दुस्थानी बड़े कॉवर्ड होते हैं। मैंने कहा 'क्यों भाई ? मैंने तो सुना नहीं ये बात।' कहने लगे, 'बिल्कुल डरपोक होते है। वो इसलिये अपने बिवी से डिवोर्स नहीं लेते क्योंकि उनको खाना बनाना नहीं आता है।' (हँसी) ऐसे कहने के लिए तो अच्छे कुक होते हैं लेकिन बिवी के 21 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt हाथ का खाना जो है वो और ही चीज़! वो खाने के लिए सब तरसते हैं और सीधे काम कर के सीधे घर। 'लाओ भाई, आज क्या बनाया हुआ है?' हम लोगों की सबसी बड़ी जो हैं, जीभ जो हैं वो सबसे ज़्यादा प्रगल्भ हैं। सबसे ज़्यादा प्रगल्भ। माने ये कि हम क्या खाते हैं? क्या खाना चाहिये? जैसे कि अब बंगाल में लोग हैं, रोह - मच्छी खायेंगे। बताईये, आप समुद्र के किनारे रहते हैं और खायेंगे रोहू-मछली! और एक बार वहाँ मछली का अकाल पड़ गया तो बम्बई वालों ने उनको पॉम्फ्रेट भेजी तो सब की सब वापस कर दी सड़ा के सब। भूखे मरेंगे पर खायेंगे रोह, पर पॉम्फ्रेट नहीं खायेंगे। कौन कहेगा हमारा देश भूखों का देश है? जहाँ भूखों का देश होता है वहाँ इतने नखरे खाने के नहीं होते! कोई नहीं कह सकता। जो मिलता है वो खाते हैं। वो जपान के लोगों की आँख जबरदस्त है। वो देखते हैं कि कोई रंग जरासा इधर-उधर हो गया तो उनके प्राण निकल गये कि 'ये ऐसे कैसे हो गया ?' जरासा भी। अब मैं इत्ते दिन से देख रही हूँ रंग ऐसे भी चढ़ रहा है । अगर जपानी होता तो उसी वख्त उसके पहले रंग मारता। उसके लिए जीना मुश्किल हो जाता है कि अगर कोई रंग खराब हो गया तो। वो बदरंग पसंद ही नहीं करता । और रंग की भी संगत जिसको होनी चाहिये। जरासी भी प्रॉब्लेम हो जाये तो वो बिल्कुल खबड़ा जाए। उसकी आँख तेज़ होती है। हमारी एक तो जीभ बोलने में भी और खाने में भी। इसलिये खाने-पीने का भी एक तमाशा बना रखा है। परमात्मा का खाने-पीने से कोई संबंध नहीं। वो तो खाना ही नहीं खाते। सच्ची बात वो खाना नहीं खाते। आप तो जानते हैं श्रीकृष्ण का किस्सा, कि जब की साधु के पास उनकी पत्नियाँ गयीं तो नर्मदा जी चढायी थी। तो उन्होंने कहा कि ,'भाई नर्मदा चढ आयी हैं अब हम कैसे जायें ?' उन्होंने कृष्ण से कहा कि, 'भाई प्रॉब्लेम हो गया, हम कैसे जायें ?' उन्होंने कहा कि, 'कुछ नहीं, तुम जा कर के नदियों से कहो, कि अगर हमारे पती पूर्णतया योगेश्वर और बिल्कुल ब्रह्मचारी हैं, तो नदी नीचे उतर जायेगी।' तो उन्होंने जा के कहा। अब इनकी तो सोलह हजार वो बीवीयाँ और पाँच ये बीवीयाँ। सोलह हजार उनकी शक्तियाँ थीं और ये पाँच उनके पंचमहाभूत थे और इनकी शक्तियाँ थी ये पाँच। उसको कौन समझता है! सब कहे 'तुम्हारे कृष्ण की सोलह हजार बीवीयाँ थीं।' और उन्होंने ऐसा कहा तो नदी नीचे उतर गयी। तो जब वो उस तरफ गये, उस साधु को खाना-वाना खिलाया, सब कुछ किया। जब लौटी तो फिर नदी चढ़ आयी। साधु से जा के कहा कि, 'भाई, हम जायें कैसे? नदी फिर चढ़ आयीं। कुछ इलाज करो ।' तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, आयीं कैसी ? तो उन्होंने कहा कि, 'हमसे तो ऐसा कहा योगेश्वर ने और हमने पूछा तो बात हो गयी।' 'तो तुम नदी से जाकर कहो कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया हो तो तुम नीचे हो जाओ।' तो उन्होंने कहा कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया तो तुम नीचे हो जाओ तो नदी नीचे हो गयी। तो लो, सारा खाया और कहते हैं कुछ भी नहीं खाया। 22 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt की बातें नहीं चलती और उपवास बहुत कम इसलिये सहजयोग में खान-पीन की बेकार करते हैं। एक-दो दिन जरूर करना पड़ता है लेकिन, शायद साल में एक ही दिन, नरक चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं। उस दिन नर्क के द्वार खुलते हैं तो सुबह तक सोना और उपवास करना । मतलब उपवास होता ही है, सोये रहें तो फिर क्या होगा ? उस दिन देर से उठते हैं, नहीं तो जल्दी उठते हैं। अपने आप उठते हैं। कोई जबरदस्ती नहीं । आप अपने आप उठ जाईयेगा सबेरे । और क्या? अब तो और कोई सवाल नहीं? प्रश्न - एस्ट्रोलॉजी क्या है? इस पर कुउ कहे क माताजी - एस्ट्रोलोजी एक विज्ञान है और इसमें जो भी कहा गया है वो सब सही है। पर एक बार जब आप का आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तब आप इन सब के परे चले जाते हो। जैसे कि अगर आप पानी में होते हो तो आपको डूबने का डर लगा रहता है। लेकिन जब आप नाव पर चढ़ जाते हो तो आप देख सकते हो सब, सबकुछ देख सकते है। 23 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt पीठ सातो चक्रों के २ में है २ह आपकी परस्पर कोई स्पर्धा नहीं। हम नहीं कहते कि सहस्त्रार से बाहर आने के लिए आपने पहला इनाम जीता। सहजयोग में पहला या दूसरा ऐसा कुछ भी नहीं क्योंकि हम कोई दौड़ नहीं दौड रहे हैं। इसमें कोई मुकाबला नहीं है। हम जो भी कर रहे हैं, अपनी संतुष्टी के लिए कर रहे हैं। सहजयोग में कोई अन्य प्रमाणपत्र नहीं देगा । आपने स्वयं ईमानदारी से स्वयं को देखना है और प्रमाणपत्र देना है। आपने आपके सहस्रार और आपके चित्त ने अपने अंदर में देखना है कि कहाँ तक मैंने अपनी शक्तियों, अपनी करुणा और अपने व्यक्तित्व को साकार किया है। आपको स्वयं इसकी परीक्षा लेनी है। शीशे को यदि आप देख रहे हैं तो आप स्वयं अवलोकन कर रहे हैं, आपकी परछाई का अवलोकन हो रहा है, जिसे देखने का कर्म हो रहा है। तो आप ही तीन आयामों में हैं। परन्तु यदि आप स्वयं शीशा बन जाएं तो पूरी क्रिया उल्टी हो जाएगी। आपको स्वयं को देखना स्वाभाविक है। इसी प्रकार आपका सहस्रार भी आपको बताता है कि आपकी स्थिती क्या है। सातो चक्रों के पीठ सहस्रार में है और उनसे पता चलता है कि कौन सा चक्र पकड़ रहा है। मानो, सहस्रार आप को देख रहा हो और बता रहा हो कि आप में क्या कमी है। सहस्त्रार आप को ठीक सूचना देता है अत: स्वयं को ठीक कर लेना ही उचित है। आप सब लोग जिन्होंने आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लिया है, अपनी शक्तियों को कार्यान्वित कर सकते हैं। कैसे? उसे प्रसारित करके, इसका अनुभव करके, इसे अन्य लोगों को देकर और इस पर प्रयोग करके । नि:सन्देह सहजयोग आप लोगों के कारण फैला है, आप ही अन्य लोगों को सहजयोग में लाए हैं। परन्तु बात यही समाप्त नहीं हो जाती। हमें पूरे विश्व को विनाश से बचाना है और उसके लिए मैं सोचती हूँ, पूरी जनसंख्या के कम से कम ४० प्रतिशत लोगों को आत्मसाक्षात्कारी होना आवश्यक है। जो चाहे उनकी राष्ट्रियता हो, जो चाहे उनका शिक्षा स्तर हो, सभी को आत्मसाक्षात्कार दिया जाना चाहिए। (६ / ५/२००१, कबेला, इटली) 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-25.txt लौगों को आपकी विनम्रती ही आकर्षित करेगी । ও उपर चढने का इन्तजाम बनाना पड़ता है। तो कुछ बनने के लिए मेहनत करनी पडती है। और जो पाया है, उसे खोने के लिए कोई मेहनत की जरूरत नहीं, आप सीधे आइये जमीन पर, उसमें कोई तो प्रश्न खडा नहीं होता। इसको अगर आप समझ ले, इस बात को, तो आप जान लेंगे कि नजर अपनी हमेशा ऊंची रखे। अगर कोई सी भी सीड़ी पर आप खड़े हैं, लेकिन आपकी नजर ऊँची है, तो वो आदमी उस आदमी से ऊँचा है, जो उपर खड़े होकर भी नजर नीची रखता है । इसलिए कभी-कभी बडे पुराने सहजयोगी भी धक से नीचे चले आते हैं। लोग बताते हैं, कि माँ ये तो बड़े पुराने सहजयोगी थे । इतने साल से आपके साथ रहे, ये किया, वो किया, पर नजर तो उनकी हमेशा नीची रही। तो मैं क्या करूँ? अगर नजर नीची रखी , तो वो चले आये नीचे। नजर हमेशा उपर रखनी चाहिए। अब जिसे भी फल को देखना है, तो नजर आपकी उपर, इनकी भी नजर उपर है। इन सबकी नजर उपर है क्योंकि बगैर नजर उपर किए हुए वो जानते हैं, कि न हम सूर्य को पा सकते हैं, न ही ये कार्य हो सकता है, न तो हम श्रीफल बन सकते हैं। (५/५/१९८३, मुंबई) आरम्भ में भी मैंने कहा था और अब फिर कहँगी कि लोगों को आपकी विनम्रता ही आकर्षित करेगी। आपको विनम्र व्यक्ति बनना चाहिए। स्वयं को कभी विशेष न समझें और न ही स्वयं को श्रेष्ठ मानें। स्वयं को यदि आप महत्वपूर्ण समझते हैं तो आप पूर्ण के अंग-प्रत्यंग नहीं रहते। मेरा एक हाथ यदि स्वयं को महत्वपूर्ण मानने लगे तो ये इसकी मूर्खता होगी! अकेला हाथ किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है? सभी हाथों की आवश्यकता होती है, चीज़ों की आवश्यकता होती है, टॉगों की आवश्यकता होती है? एक अंग किस प्रकार महत्वपूर्ण हो सकता है। अपनी सहजयोग यात्रा में कभी भी आप यदि इस प्रकार सोचने लगें तो मैं कहँगी कि आप सहजावस्था में नहीं ैं। मेरा ये प्रयत्न था कि आप लोगों को सहज के सुन्दर क्षेत्रों में ले | जाएं जहाँ आप आत्मा से पूर्णत: एकरूप होंगे, प्रकृति से एकरूप होंगे, अपने आस-पास के सभी लोगों से, अपने देश तथा अन्य देशों से एकरूप होंगे। सर्वत्र पूर्ण वातावरण में ब्रह्मानन्द आपका अंग-प्रत्यंग बन जाएगा और आप कभी इससे भिन्न न होंगे। तब आप कह सकते हैं कि गुँजन या निनाद जो कि आपके जीवन का सारतत्व है वह आपकी भौतिक उन्नति में या किसी अन्य चीज़ में न दिखाई पड़कर आपके आध्यात्मिक 26 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-26.txt क्षेत्र में दिखाई पड़ेगा और यही क्षेत्र सर्वोच्च है। सर्वत्र सभी देशों में उच्च गुणों के लोग होते हैं और उन सबको याद किया जाता है। इसी प्रकार आप भी अपने जीवन की वास्तविकता तथा सच्चाई के महान ज्ञान का प्रतिनिधित्व करेंगे। और यह सब आपके जीवन और आपके कार्यों में छलकेगा| इस तरह से आप इस कार्य को कर सकते हैं। केवल यह निर्णय करना है कि कितने लोगों को हमने आत्मसाक्षात्कार देना है। आत्मसाक्षात्कार देने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता में आप यदि इस कार्य को करते चलें तो आप हैरान होंगे कि यह पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा कार्य है। परन्तु जब आप चोटी पर चढ़ जाते हैं तो नीचे की सभी चीज़ों को भलीभांति देख सकते हैं और आपको सन्तोष होता है कि आप चोटी पर हैं। लेकिन चोटी की चढ़ाई तो आपको करनी होगी। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) आप ही महान लोग हैं, अत: इस महानता के अनुरूप आपको बने रहना होगा अर्थात् उच्च चरित्र, उदार, परिश्रमी और विवेकशील व्यक्ति। इसके बिना आप ये कार्य नहीं कर सकते। अध्ययन करना और एम.डी.एम.ए. और पी.एच्डी. जैसी उपाधियाँ प्राप्त कर लेना बहुत आसान है। परन्तु आदर्श बनने के लिए आपको परिपक्व होना होगा। निरन्तर स्वयं को बताना होगा कि उन्नत होकर आपने इस महान कार्य को करना है, जो कठिन नहीं है। क्योंकि इसका स्रोत आपके नियंत्रण में है। हर चीज़ सम्भव है। याचना मात्र से यह कार्य हो जाएगा। परन्तु इसको दृढ़ करे। अब भी यदि आप अपने व्यक्तित्व तथा नए आदर्शों को सुदृढ नहीं कर सकते, तो फिर कब करेंगे? सही सलामत चक्रों के साथ मैं यहाँ विद्यमान हँ। 'ये गलत है या ये ठीक है कह कर स्वयं को न्यायोचित ठहराना आसान है। ये सब समाप्त कर दे। आपको वह बनना होगा। अत: पहली आवश्यकता ये है कि अपनी नीवों को बदले । शेक्सपीयर, टैनिसन, मोजार्ट, युंग जैसे बहुत से महान लोग हमारे सम्मुख है, और इस देश में भी बहुत से लोग हैं। उनका नाम लेने मात्र से चैतन्य लहरियाँ- प्रवाहित होने लगती है। अकेले उन्होंने उन देशों में अपने विचारों का सृजन किया , कल्पना करे, कि किस प्रकार वहाँ वे इन शैतानी शक्तियों से लड़ पाएं होंगे, परन्तु इन लोगों को कौन स्वीकार करता है? आप में से हर एक में उन जैसा बनने की योग्यता है। आप सभी को अगुआ बनना होगा। पोलैंड में एक सर्व साधारण के ने यह कर दिखाया। परन्तु वह आत्मसाक्षात्कारी न था। वह परमात्मा से सम्पर्क न बना कारखाने मजदूर सका। पूर्ण को जानने का उसके पास कोई मार्ग न था। अत: स्वयं को ठीक प्रकार से संचलित करे, ठीक प्रकार से अपना शुद्धिकरण करे। स्वयं को समर्पित कर दे। समर्पित करने के लिए अपना अहं और प्रति अहं त्यागने के अतिरिक्त आपने कुछ नहीं करना। ये वजन उतार फेंके और अपने हृदय में स्थान बनायें और यह कार्यान्वित हो जाएगा। अवचेतन, अति चेतन तथा हमारे उचित आधार एवं आदर्श। (२४ मई १९८१, लन्दन) 27 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-27.txt रहजयोग के अनुशासन के बिनी आप उन्नेत नहीं हो सकते मुझे आप लोगों से बहुत आशाएं है। परन्तु जितनी गम्भीरता से आपको सहजयोग को लेना चाहिए, उदाहरण के रूप में लोग ध्यान-धारणा भी नहीं करते। ध्यान-धारणा जैसी साधारण चीज़ भी आप लोग नहीं करते, मेरी समझ में नहीं आता, बिना ध्यान- धारणा किए आप लोग किस प्रकार चलेंगे? जब तक आप निर्विचार चेतना में स्थापित नहीं हो जाते, आप उन्नत नहीं हो सकते। अत: आपको ध्यान-धारणा करनी होगी। कम से कम से लोग सुबह-शाम ध्यान-धारणा तो अवश्य करनी होगी। बहुत ऐसे भी हैं जो स्वभाव से ही सामूहिक नहीं हैं। वे यदि आश्रम में रहते हैं तो सोचते हैं कि आश्रम का जीवन अच्छा नहीं है। ऐसे लोगों को वास्तव में सहजयोग छोड़ देना चाहिए । क्योंकि उन्होंने ये भी नहीं समझा कि सहजयोग है क्या? सामूहिक हुए बिना आप किस प्रकार उन्नत होंगे, अपनी शक्तियों को किस प्रकार एकत्र करेंगे? कोई भी यदि संघ में, सामूहिकता में रहते हुए कार्य नहीं करता-सामूहिक होकर ही आप शक्तिशाली बन सकते हैं। ये सत्य है, कि आपके पास यदि एक तीली होगी तो आप उसे तोड सकते हैं, परन्तु बहुत सी तीलियों को इकटठ्ठा किया जाए तो इन्हे तोड़ा नहीं जा सकता। अब भी ऐसे लोग हैं, मैं जानती हूँ, जो अब भी पूरी तरह से सामूहिकता में नहीं है। उनका सामूहिक न होना ये 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-29.txt दर्शाता है, कि स्वयं को समझने में वे कितने निर्धन हैं और वो मुझे कहते हैं, कि श्रीमाताजी अब हम आश्रम में नहीं रहना चाहते। तो उनहें सहजयोग से बाहर हो जाना चाहिए। सामूहिकता के बिना आप उन्नत नहीं हो सकते। सहजयोग के अनुशासन के बिना आप उन्नत नहीं हो सकते। बेकार के हजार लोगों से अच्छे गुणों वाले दो लोग बेहतर हैं। यही परमात्मा की इच्छा है। (१०/५/१९९२, कबेला) इस जटील मस्तिष्क का ठीक किया जाना आवश्यक है और इसका सर्वोत्तम उपाय ये है कि आप सोचना बंद कर दे। सोचना बंद करके आपको लगता है कि आप कोई कार्य न कर सकेंगे। उदाहरण के रूप में मेरे दिए हुए प्रवचन के विषय में भी आप केवल सोचते रहते हैं। इसमें से क्या आप मेरी सोच को सुन सकते हैं? इन बत्तियों के बारे में सोचने से इसमें प्रकाश नहीं आ सकता। सोचते रहना आलसी व्यक्ति का पहनावा है, जो काम से बचने के लिए पहना जाना है। ये चालाकी है, पलायन है। सहजयोग के विषय में बहस बिलकुल भी न करे। अपने अगुआओं से बहस न करे चाहे आप उसकी पत्नि हो , फिर भी उससे बहस न करे। सहजयोग में पत्नियाँ अपने पतियों को किसी भी मामले पर प्रभावित करने का प्रयत्न न करे। इसमें उनका कुछ लेना नहीं। ऐसे मामले में पत्नियों को चाहिए कि अपने हार्दिक प्रेम से, मस्तिष्क से नहीं, संस्था तथा अपने पतियों का पोषण करे। मैं सोचती हँ कि स्त्री रूप में अवतरित होना मेरे लिए बहुत महान बात है क्योंकि इस रूप में मैं अपने हृदय प्रेम की भावनाओं, उनकी कार्यशैली तथा अपने प्रेम की लीला का आनन्द लेती हूँ। ये इतनी महान चीज़ है, कि कोई अन्य अवतरण इस प्रकार से आनन्द नहीं ले सका जैसे मैं ले सकी। महिलाओं को यदि हृदय की देखभाल करनी पडे तो उन्हें स्वयं को अपमानित नहीं महसूस करना चाहिए। इस प्रकार से वे अत्यन्त उच्च स्थिति में है क्योंकि इस प्रकार वे बिना सोचे कार्य कर सकती है, हृदय के बिना तो कार्य किया ही नहीं जा सकता। व्यक्ति को बहस नहीं करनी चाहिए। स्त्रिया यदि बहुत अधिक बहस करने वाली हो तो पुरूष बहरे हो जाते हैं। महिलाओं की बात को वो सुनते ही नहीं। महिलायें यदि बहुत अधिक आक्रमक हो तो पुरूष बिल्कुल मौन हो जाते हैं। अत: आप लोगों को इस प्रकार बत्ताव करना चाहिए कि पुरूष पुरूष हो और महिला महिलायें । आपको चाहिए कि पूर्ण पुरूष या पूर्ण महिला बने। तब आप मजा ले पाएंगे। (४/५/१९८६, इटली) 30 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-30.txt १० आभु कुछ लोग चर्च जाने का, शराब पीने का आनंद लेते हैं। पर सहजयोग में हम इसका आनन्द नहीं ले सकते। यह आनंद सामूहिक नहीं है। कोई भी इसे अच्छा नहीं कहता जैसे कोई कहे कि, 'मुझे शराब पीने में मजा आता है।' किसी शराबी के नाम पर कोई मंदिर नहीं बना। शराबी का किसी ने नहीं बनाया। शराब को समाज की मान्यता नहीं। लोग कह बुत सकते हैं, कि मुझे चोरी करने या हत्या करने का आनंद आता है। परन्तु यह तो व्यक्ति की निरंकुशता है। समाज इसे मान्यता नहीं देता। इसके विरूद्ध सदा प्रतिक्रिया होती है। पर सहजयोग ऐसी नहीं। जब आप कहते हैं कि, 'मुझे आनन्द आता है' तो आपमें अहं तथा बंधन नहीं होते अब सहस्रार खुल गया है। एक ओर तो आपका अहं कम हो गया है तथा दूसरी ओर आपके बंधन टूट गये हैं। ईसा की पूजा करने वाले लोगों को मैंने गणेश की पूजा करते देखा है क्योंकि ईसा की पूजा उन्हें पादरी, दोष स्वीकृती, माला तथा कब्रिस्तान के बंधनों में घसीटती है। ये बंधन में घसीटती है। ये बंधन राक्षसों की तरह प्रकट होने लगते हैं। पर सहजयोगी इनमें फँसना नहीं चाहते। (१/५/१९९३, कबेला) 31 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-31.txt हमें प्रतिद्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है मेरे जीवन से आप ये बात महसूस कर सकते हैं कि मैं बहुत परिश्रम करती हूँ, बहुत यात्रा करती हूँ, इतनी अधिक कि आपमें से शायद ही कोई कर पाए। क्योंकि मुझमें इच्छा है, कि मुझे इस विश्व को आनन्द प्रसन्नता तथा दिव्यत्व की उस अवस्था तक लाना है, जहाँ लोग अपनी गरिमा और अपने परम पिता परमात्मा के गौरव को महसूस कर सके। अत: मैं कठोर परिश्रम करती हूँ। कभी नहीं सोचती कि मुझे कुछ हो जाएगा, या मुझे ये हो जाएगा। मैंने आपको अपने पारिवारिक जीवन. अपने बच्चे, अपनी किसी चीज़ के बारे में कोई कष्ट नहीं दिया। मेरे सम्मुख जो भी समस्याएं आई मैंने स्वयं उनका सामना किया। परंतु यहाँ पर मुझे सहजयोगियों के बड़े बड़े पत्र मिलते हैं, जिनमें वे अपनी बेटियाँ, बेटे, ये, वो आदि के बारे में लिखते हैं । परिवार से मोह एक अन्य समस्या है। आपके सिर पर यह बहुत बड़ा बोझ है। हर समय आप अपने बच्चों के बारे में चिन्तित होते हैं। ये आपकी जिम्मेदारी है। आप उनसे बेहतर कार्य नहीं कर सकते, क्या आप कर सकते हैं? परन्तु जब आप यह जिम्मेदारी निभाओ और समस्याएं आरम्भ होती है। (१०/५/१९९२, कबेला) 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-33.txt कभी ये न सोचें आप कुछ महान हैं, कुछ ऊँचे हैं, नहीं, कभी ऐसा न सोचें । केवल आभार मानें कि आप जीवन के इन अटपटे विचार एवं शैलियों से बचे हुए हैं। ऐसी शैली एवं विचारों से जहाँ व्यक्ति सदैव आलोचना ही करता रहता है कि, 'यह अच्छा नहीं है, मुझे ये पसन्द नहीं है' ये कहने वाले आप कौन होते हैं कि मुझे पसन्द नहीं है ? आप तो स्वयं को भी नहीं पहचानते। जब आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है तो मतलब ये कि आप स्वयं को नहीं पहचानते। किस प्रकार आप कहते हैं कि मुझे ये पसन्द नहीं है। बहुत कम ज्ञान वाले लोगों को मैंने दूसरों की आलोचना करते हुए देखा है। मेरी समझ में इसका कारण नहीं आता। ऐसा क्यों है? सम्भवत: वह अपने आपको बहुत कुछ समझते हैं। यह बात आम है। परन्तु जब आप पूर्ण ज्ञान को जान जाएंगे तो वास्तव में विनम्र हो जाएंगे। पूर्णत: विनम्र, भद्र या सुहृदय। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) दूसरों में दोष ढूँढना उस मस्तिष्क की देन होता है जो अभी तक ज्योतित नहीं हुआ। प्रतिक्रिया के संस्कार के कारण आप किसी चीज़ का आनन्द नहीं ले सकते। सदैव प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। कोई यदि अच्छी बात बताए तो भी आप प्रतिक्रिया करने में लगे रहते हैं। बुरी बात पर तो आप प्रतिक्रिया करते ही हैं। अत: हमें समझ लेना चाहिए कि हमें प्रतिक्रिया करने की स्वतन्त्रता नहीं है। हम इतने हल्के नहीं हैं कि प्रतिक्रिया करें। बहुत उंचे स्थान पर हम बैठे हुए हैं। केवल आनन्द उठाना ही हमारा कार्य है। हर चीज़ का आनन्द उठाएं क्योंकि वह आनन्द परमात्मा का आशीर्वाद है। जीवन के उथल पुथल और कष्टों का भी आप आनन्द उठा सकते हैं। यदि आप यह बात अच्छी तरह जान लें कि आपकी आत्मा को कुछ भी हानि नहीं हो सकती, क्योंकि यही सच्ची ज्योति है, तो आप हर चीज़ का आनन्द उठा सकते हैं। जो भी तकलीफें आपको हों, चाहे जो भी चीज़ आपको कष्ट दे रही हो परन्तु आत्मा का मौन प्रकाश आपको वास्तव में पूर्णतया आनन्दमय बनाता है और अन्य लोगों को भी आनन्द प्रदान करता है। न तो आप इसकी रूपरेखा बनाते हैं न योजना कि किस प्रकार आनन्द लिया जाए, यह तो स्वत: ही आनन्द प्रदान करता है। आनन्द देने की यह क्रिया बिना किसी प्रयत्न के स्वत: और सहज है क्योंकि आप सहजावस्था में हैं। सहजावस्था में आप चीज़ों को केवल देखते भर हैं। आपको लगता है कि ये तो मात्र एक नाटक है। जिसकी भिन्न शैलियाँ हैं, भिन्न प्रकार हैं। साक्षी रूप में आप इसे देखते भर हैं और इसका आनन्द उठाते हैं। ऐसा कहना आवश्यक नहीं है कि मुझे ये पसन्द है, मुझे वो पसन्द है, बिल्कुल नहीं। यह 'मैं' जो पसन्द करता है वह अहं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यह आपको उस आनन्द से, जो वास्तविकता है, जो सत्य है, दूर रखता है। (कबेला, इटली, ७ मई २०००) 34 तति 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-34.txt ०ि ॐ रे क] प्र श्ी घा. २9yl ) 00 ल ७ भ ३ ॐी शुभ सहसार की एक मन्त्र हैं। वह हैंनिर्मला, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक को स्वच्छ, सुथरी, पवित्न और निष्कलंक रहना चाहिए। (निर्मला योग, मई-जून १९८५) प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in ০/ १ 2014_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-35.txt म ४. किसी पौधे में पानी पडे जाए तो वो जैसे अपने आप ं० बढ़ती हैं इसी प्रकार ऐसी शुद्ध चित जिस मनुष्य का हो जीती है उसके हृदय की कली खिलती है और वो कमल रुप होकर के सहसार में छी जाती है। फिर उसकी सौरभ, उसका सुगन्धचारों ओर फैलती है। प. पू.श्री माताजी, शिवपूजा, दिल्ली, ९.२.१९९१