चैवन्य लहरी जुलाई-अगस्त २०१४ हिन्दी की ै। १० इस अंक में परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि...४ सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय २१ बुद्ध पूजा ...३४ नम्रता सर्वप्रथम है। आपको विनम्र होना होगा , अत्यन्त विनम्र। प. पू.श्रीमात्ाजी, इटली १० जुलाई १९९७ 51 दिल्ली, १२ मार्च १९७९ परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि ा कि उसके लिए कुछ न कुछ घटना अन्दर होनी चाहिए, कुछ हॅपनिंग होनी चाहिए। ऐसा मैंने सबेरे बताया था आपसे मैंने। दूसरी और एक बात जरूरी है, कि परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि अगर एक-दो लोगों को ही हो, सिलेक्टेड लोगों को हो, और सर्वसामान्य अगर इससे अछूते रह जाये तो इसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता। परमात्मा का भी कोई अर्थ नहीं लगने वाला, ना इस संसार का कोई अर्थ निकलने वाला है। इस क्रिएशन का भी कोई अर्थ नहीं निकलने वाला। ये उपलब्धि सर्वसामान्य की होनी ही चाहिए। अगर ये सर्वसामान्य की न हो और बहुत ही सिलेक्टेड लोगों की हुई तो वही हाल होगा जो सब का हुआ। जो ऐसे रहे उनको कभी किसी ने माना नहीं । और मानने से भी क्या होता है ये बताईये मुझे! समझ लीजिये कि कोई अगर बड़े राजा हैं, तो राजा हैं अपने घर में, हमको क्या? हमको तो कुछ मिला नहीं। हमको भी तो कुछ मिलना चाहिए। तब तो उसका मतलब होता है। इसलिये ये घटना घटित होनी ही चाहिए। इतना ही नहीं, ये सर्वसामान्य में अधिक होना चाहिए। काफ़ी लोगों होना चाहिए। साइन्स का भी मैंने बताया ऐसा ही तरीका होता है की कोई आप एक, बिजली का आपको पता लग गया, जिसको पता लगा होगा, वो अगर सर्वसामान्य के लिये नहीं उपयोग में आयेगी तो उस बिजली का क्या मतलब! आज जो सहजयोग की उपलब्धि है। सहज, तो कितने सालों से चले ही आ रहा है । जब से सृष्टि बनी, सहज ही बनी है सृष्टि। जैसे एक बीज होता है और उस बीज के अन्दर उसके अंकुर बने रहते है। सब चीज़ उसके अन्दर बनी रहती है। सारे लक्षण उसके अन्दर बने रहते हैं, जितने भी उसके अन्दर पेड़ निकलने वाला हैं। उसी प्रकार इस सृष्टि का सारा नक्शा ही माइक्रोस्कोपिक, पहले से ही बना हो और वो सारा बना हुआ, खिलता हुआ चला आ रहा है, सहज से ही। सहज माने, 'सह' याने आपके साथ और 'ज' माने पैदा हुआ। आप ही के साथ ये चीज़ पैदा हुई है। और जिस प्रकार पेड़ में एक-दो फूल पहले लगते हैं, लेकिन जब वृक्ष बड़ा होता है, बहार आती है, तब अनेक फूल लग के उसके अनेक फल हो जाते हैं। उसी प्रकार जो आज ये सहजयोग हमारे हाथ में नये आयाम में, डाइमेंशन में खड़ा हुआ है वो सर्वसामान्य के लिए है। असामान्य के लिए नहीं । इससे पहले तो अपने दिमाग से ये बात निकाल देना चाहिए कि हमें कैसे होगा भाई ? हम तो इसके योग्य हैं भी या नहीं है। ये घटना हमारे अन्दर घटित हो ही नहीं सकती। ऐसे दिमाग में बातचीत ले के पहले से आये हो तो उसे अपने जूते के साथ बाहर रख दीजिए । ये तो होना है ही । ये घटना होनी 6. ही है। चाहे आज नहीं होगी कल जरूर होगी और हमें करना ही है। और आप इसके पात्र भी है। अब सत्पात्र ढूंढ के कहाँ तक घूमा-फिरा जाए? तुम्हारे घर एकदम सब से बढ़िया चीज़ हो और उसमें ही काम कर दिया तो कौनसी कमाल कर दिया! सो ये कभी नहीं सोचना कि ये चीज़ हमें होगी ही नहीं, पहली बात तो ये। इस मामले में कोई भी नव्व्हसनेस हो उसे निकाल दीजिए आप। क्योंकि हम तो मेहनत करेंगे और ये चीज़ होगी। अब दूसरी बात ये है कि शंका होती है कि, 'माँ, ये कौन होती है करने वाली? और हमने तो सुना था कि कुण्डलिनी की जागृति तो बड़ी ही कठिन चीज़ है। वो तो सर के बल खड़े होईये, हज़ारों वर्षों बाद हो जाती है।' सब लोग यही कहते हैं। पता नहीं क्या क्या चीज़ें लिख मारी है। लेकिन ये बात हमारे साथ नहीं। हो सकता है कि हम बड़े माहिर हैं इसके, कारीगर हैं। जानते हैं काम इसलिये कभी हमने आज तक देखा ही नहीं कि किसी ने कहा है कि, 'माँ, हमें पार करो' और किया नहीं। हर तरह के होते हैं प्रॉब्लम्स । बड़े परम्यूटेशन्स, कॉम्बिनेशन्स है इसके । प्रॉब्लम्स भी हैं। क्यों कि इन्सान ने अपने को गलत रास्तों में डाल रखा है। जरूरी नहीं कि वो खराब आदमी है, अच्छा आदमी होता है। पर धर्म में भी गलतियाँ हो जाती हैं। गलत जगह मथ्थे टिक जाते हैं। गलत लोगों को मान लेते हैं, चक्कर चलते हैं। आदमी बड़े शरीफ़ हैं बेचारे । बहत शरीफ़ आदमी हैं, कोई खराबी | नहीं है, ये चक्कर में आ रहे हैं। थोड़ी बेवकूफ़ी कर गये और क्या? और क्योंकि शैतान की जो शक्तियाँ इतनी ज़्यादा कार्यान्वित हैं कलयुग में, उसके चक्कर से मुश्किल से बचते हैं। बच्चे हैं न! हज़ारों की कुण्डलिनियाँ हमने जागृत करी हैं और आपकी भी कर सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं । लेकिन अगर हम कर सकते हैं तो इसके लिए आपको हमसे नाराज़ होने की भी कोई जरूरत नहीं। आज सबेरे ही मैंने बताया था कि अगर हम इसके कारीगर हैं तो कर लेते हैं, आप अगर इसके कारीगर हैं, हमसे अगर कोई कहे कि इसे ठीक करें तो हम तो नहीं कर सकते। इसका मतलब कोई हम नीचे नहीं हो गये, न हीं ऊंचे हो गये। हमसे अगर कहिए कि इसे चलाईये, तो हम इसे चला नहीं सकते। आप सतरह मरतबा सिखाईगा हमारे बस का नहीं। इतने हम इस मामले में बेकार हैं। लेकिन जिसको हम जानते हैं, वो काम जानते हैं, वो हम करते हैं और किया है और आप में भी घटित हो सकता है। इसलिये इस तरह की तैय्यारी कर के बैठ जाएं कि होना है, हम पात्र भी हैं और ये घटना होगी और सर्वसामान्य के लिए ये है, सिर्फ तैय्यारी रखनी चाहिए। अगर कोई दोष हो तो हमें बताना होगा। कोई परहेज करना हो तो बताना होगा। या कुछ आपने ऐसा परहेज गड़बड़ कर दिया हो तो उसके बारे में भी कहना होगा। तो लोग तो बात-बात में नाराज़ हो जाते हैं। इन्सान भी अजीब है। अगर में आपसे कहूँ कि मेरे लिए आप तीन हजार रूपये लाईये, तो आप को कोई हर्ज नहीं, आप लाके फौरन दे देते हैं। लेकिन मैं कहूँ कि बेटा, ये जरा गलत काम हैं। इसको जरा छोड़ दो । तो बड़ा बुरा मान जाएंगे। फौरन पंडाल छोड़ के चले जाएंगे । तो हम तो माँ हैं, थोड़ा बहुत तो बताना पड़ेगा। इसका बुरा नहीं मानना, पहली बात। दूसरी बात ये है कि इसमें जमना होता है। आज आप आयें बहुत से लोग, कुछ लोग सबेरे आयें थे, वो फिर से आयें। सहजयोग में जमना होता है। क्योंकि जैसे एक पौधा होता है और इसकी जिवंत क्रिया होती है, उसे जमाना पड़ता है । पहले ही जैसे ही बीज अंकुरित होता है, तो कितना कोमल होता है सारा कुछ मामला, उसको बहुत संजोना पड़ता है, सम्भालना पड़ता है। फिर जब पेड़ अच्छे से जम जाए तो फिर चाहे कितने भी जोर से हवा चले, कोई भी आफ़त आ जाए, कितना भी झंझावात हो जाए कोई डर नहीं होता उसे। इसलिए ये चीज़ जानना चाहिए कि पाने के बाद आपको जमना है। तिसरी बात ये भी है कि बहुत से लोगों को भाषण सुनने की बहुत आदत हो गयी। एक साहब आये थे, वो तो मेरे ख्याल से गुरू शॉपिंग करते हैं। उनसे मैंने कहा कि, 'वो उन सब गुरूओं के पास जायें।' मेरे पास भी ऐसे आ गये झोला उठा कर के। गुरू शॉपिंग हो रहा है, तो आयें चलो यहाँ भी कुछ कर ही लो। सो, यहाँ मामला और हैं। यहाँ कोई आप शॉपिंग नहीं कर सकते। भाषण से मैं नहीं संतोष पाती हूँ। भाषण ठीक है। उसमें भी मैं आपकी कुंडलिनी मैं नचा रही हूँ और उठा रही हूँ। और पार जब तक आप नहीं होंगे , तब तक मुझे संतोष नहीं होने वाला। और आप भी क्यों इस झमेले में हैं? क्यों नहीं पार हो जाते ? आखिर तो वही पाने का है। उसी को जानने का है । लेकिन फँसे हुए सहजयोग इसीलिये नहीं जमता है कि लोग चाहते हैं, कि माँ को पैसा दे दो, कुछ तो भी करो ऐसा वैसा, कुछ करा दो, छुट्टी करो। हर एक गुरू ऐसे करते हैं और माँ को यहाँ पैसा नहीं दे पाये। माँ को आप जीत नहीं सकते जब तक आप पार नहीं हो और उसमें जमे नहीं। ये दो चीज़ होती हैं। लोग नहीं चाहते हैं। वो सोचते हैं, भाई, चलो ये तो मेहनत की चीज़ है । पार होते वख्त तो आपको कोई मेहनत नहीं करने की, उस वख्त नहीं। पार होने के बाद, आपको जमना पड़ता है और जमना चाहिए। समय आ गया है। ये समय की पुकार है। और इस समय की पुकार में अगर आप अपने को जागृत न करें तो बड़ी मुश्किल होगी बाद में। बहुत बड़ी मुश्किल होगी वो मैं आपको बताऊंगी। दूसरी बात ये भी है कि सहजयोग में लोग जमते नहीं। उसके बाद बीमारियाँ हो जाती हैं। उसके | 8 बाद वो मेरे पास आते हैं और कहते हैं, माँ, हमें ठीक कर लो। सहजयोग में आने के बाद लोगों ने डॉक्टरों के लिए दरवाजे बंद कर दिये। उनके घर नहीं जाते अब। सब तरह से ठीक हो सकता है। पर एक बात है कि अपने को जानने के बाद अपने में उतरना पड़ता है, समरस होना पड़ता है और पूरी अपनी शक्ति को इस्तेमाल करना होता है। ऐसे-वैसे लोगों के लिए सहजयोग नहीं है। 'जो कोई होगा माई का लाल वही माई से पाएगा।' ये मैं पहले से ही आपसे बता दूँ, आप बूरा नहीं मानना। तुकाराम ने कहा है, 'येर्यागबाळ्याचे काम नोहे।.......सहजयोग में उतरना हर किसी के बस का काम नहीं हैं। अब थोडा सा आपको मैं कुंण्डलिनी के बारे में बताती हूँ। हम यहाँ पाँच एक दिन हैं और, पाँच दिन में कुण्डलिनी के बारे में पूरा हम आपको बताते हैं। कल से आप थोड़ा कागज पेन्सिल भी लेके आईये, तो आप नोट भी कर सकेंगे, बातें जो में बता रही हूँ। पहले तो आपको यहाँ सामने दिख रहा है, ये परमात्मा ने हमारे अन्दर पूरी तरह से यन्त्र बनाया हुआ है। अब यन्त्र, जैसे संसार की चीज़ों को हम देखते हैं, उस तरह का ये मरा हुआ यन्त्र नहीं है, जिवन्त यन्त्र है। और जिसे सुरति कहते हैं, वही कुण्डलिनी है। आखिर हम, जो मानव स्वरूप हैं वो किसी न किसी बूते पर चल रहे हैं नं! ये (अस्पष्ट.... ) को देखिये , कितनी कमाल की चीज़ है, सारे शरीर का चलन-वलन कितना इफिशियन्ट और कितना सुन्दर है। सारे सृष्टि की रचना कितनी खुबी से की है। ये सारी चीजें कोई न कोई शक्तियाँ जो गुप्त हैं। वो गुप्त इसलिये हैं कि हमारा जो ग्रोस अटेन्शन है, हमारा जो जड़ चित्त है वो उसे नहीं जान पाता। उसके लिए सूक्ष्मता आनी पड़ती है। ये सूक्ष्मता पाना ही सहजयोग का लक्षण है। इस सटलनेस में उतरना ही सहजयोग का लक्षण है। जिसे कहते हैं कि अपने को पहचानना, आत्मा को पहचानना। जैसे मैंने सबेरे बताया आपसे कि आत्मा को पहचाने बगैर आपका भ्रम टूट ही नहीं सकता। और आप परमात्मा को जान ही नहीं सकते। जो कुछ भी आप उसके बाद जानते हैं, वो ज्ञान मात्र है, बोध नहीं है। बोध आत्मा को जानने के बाद होता है। इसलिये आत्मा को पहले जाना जाएगा। उसके बाद सारी बात समझ में आ जाएगी। अब ये जो कुण्डलिनी है, ये पूरा जो यन्त्र है, इसको मैं समझाती हूँ और फिर कुण्डलिनी के बारे में भी बताती हैँ? पहले तो जो ये लेफ्ट साइड में आप देखिए, कि सर के राइट हैंड साइड से जो शक्ति हमारे अन्दर में गुजर कर उतरती है लेफ्ट हैंड साइड में, इस शक्ति से हमारा अस्तित्व हैं, एक्झिस्टंस। ये सूक्ष्म शक्ति है, ये हमें दिखाई नहीं देती। ये हमारे सर से निकल के और हमारे रीढ़ की हड्डी में गुजर के और नीचे तक आती है। ये आँखों से ऐसी दिखायी नहीं देती। लेकिन जब रियलाइझेशन होता है तब आपको एक-एक शक्ति मैं दिखा सकूंगी। इस शक्ति का वहन करने वाली नाड़ी को हम लोग इड़ा 9. नाड़ी या चंन्द्र नाड़ी इस प्रकार कहते हैं। ये सूक्ष्म शक्ति जब बाह्य में अपना आविर्भाव करती हैं, जब इसका एक्सप्रेशन होता है, मेनिफेस्टेशन होता है तो हमारी लेफ्ट सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम इससे बनती है। ये हमारी एक्झिस्टंस की, हमारे अस्तित्व की शक्ति है, और जब ये शक्ति सुप्त हो जाती है तो हमारी मृत्यू हो जाती है। इसीलिये इस शक्ति को लोग संहार शक्ति भी कहते हैं । संस्कृत में इस शक्ति को महाकाली शक्ति कहते हैं। अंग्रेजी में इसके शब्द नहीं क्योंकि अंग्रेजी में इस चीज़ का पता ही नहीं लगाया है कि इसके अण्डर करंट्स क्या है? सिम्परथैटिक और पैरासिम्पथेटिक नर्वस सिस्टीम के अण्डर करंट्स क्या है? उसका अभी तक पता ही नहीं लगाया है साइन्स ने। इसलिये इसके लिये अगर मैं महाकाली की शक्ति कहँ तो बड़े घबराने की बात नहीं है। हम लोग कोई अंग्रेज नहीं है। और दूसरी जो शक्ति हमारे अन्दर लेफ्ट हैण्ड साइड से गुजर कर के और राइट हैण्ड साइड पे आ जाती है इसे महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। इस शक्ति से हम अपने शरीर का चलन-वलन, शारीरिक क्रियायें और बौद्धिक क्रियायें, मेंटल अॅक्टिविटीज करते हैं। आप मैडिसन में लेफ्ट अॅण्ड राइट सिम्पर्थैटिक का फरक लोग नहीं लगा पाते। लेकिन ये दोनों दो चीज़ हैं। लेफ्ट से आपकी इमोशनल साइड होती है और राइट से आपकी मेंटल और फिजिकल साइड होती है। इसका फरक मेडिसीन में नहीं होता है। इसी के कारण डाइबेटिज जैसी बीमारी लोगों को समझ में नहीं आती और मैं बताऊंगी कि कैसे इम्बॅलन्सेस आ जाते हैं। और इम्बॅलन्स ये दो चीज़ का फरक समझ लेने से ही समझ में आता है कि एक नाड़ी जादा चलती है, एक कम चलती है। एक कम चलती है तो उसके कारण उसकी बीमारियाँ हो जाती है और जो ज़्यादा चलती है उसके कारण उस पे ऍग्रेषण भी हो जाता है। इम्बॅलन्स का सेन्स जो है वो तभी आता है जब उसके दो सीरे आप देख सकते हैं। सो राइट साइड में जो शक्ति है, उसका वहन करने वाली जो नाड़ी है, उसे पिंगला नाड़ी कहते हैं। इसको लोग सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इससे राइट साइड की जो सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम है उसका प्रादुर्भाव होता है। इसके बीचोबीच जो आप देख रहे हैं, नाड़ी है, इस नाड़ी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। ये नाड़ी जहाँ तक बनी हुई हमारे अन्दर में है, माने, ये पैरासिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम को मैन्यूफेस्ट करती है। वहीं तक मनुष्य पहुँच पाया है। अब जो कुछ हम लोगों ने आज तक हासिल किया, हमारे उत्क्रान्ति में, इवोल्यूशन में अमीबा की दशा से इन्सान की दशा तक वो सारा हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टम में है। हमारी सेंट्रल नर्वस सिस्टीम जो है वो समझ लीजिए इस सब का रिफ्लेक्टर है। वो हमारे कॉन्शस माइंड में है। 10 जो लेफ्ट हैण्ड साइड की जो इड़ा नाड़ी है ये हमारे सुप्त चेतन को प्लावित करती है, माने, सबकॉन्शस को प्लावित करती है या उसको चलाती है। जैसे आप मुझ से कुछ बात सुन रहे हैं अभी अपनी कॉन्शस माइंड से सुन रहे हैं। लेकिन ये बात आपके चेतन, माने सबकॉन्शस में चली जाती है। ये काम जो है, लेफ्ट साइड की जो ये नाड़ी है ये करती है कि जो हमारी आपसे बात सुनी उसको फौरन उधर रख दिया सबकॉन्शस में। और इसीलिये इसे कंडिशनिंग लोग कहते हैं। वो दो प्रकार के हो सकते हैं, सुसंस्कार भी हो सकते हैं और कुसंस्कार भी हो सकते हैं । ने कुसंस्कार ही देखे हैं। उनकी आँख तो, मतलब ये, जो नॉलेज लेने का तरीका है इन लोगों का वो ऐसा है कि अंधेरी जगह है, आये जिनके हाथ में जो मिल गया वही लेके बैठ गये, यही सत्य है। अॅबुजेक्टिव जिसको कहते हैं। दूसरा तरीका ये है कि लाइट जला दिया अब सब देख लो। ये सूप्त जैसे लोगों सहजयोग का तरीका है। और ऐसे ज्ञान पाने का, किसी से सुनने का या साइन्स या किसी तरह से पाने | का अंधा तरीका है। तो उस तरीके से जब खोजा गया तो श्री . फ्रॉइड साहब अंधे तो थे ही और खुद भी दिमाग के कुछ, अजीब - उल्टे आदमी थे मेरे ख्याल से। उनके बारे में तो क्या-क्या गंदी बाते लोग बताते हैं। उन्होंने पकड़ लिया एक उसको और इसी पे काम किया। और वो कहने लगे कि जो कुछ भी आप इस तरह से किसी को मना करते हैं कि 'ये नहीं करो, वो नहीं करो , ऐसा नहीं करो, वैसा नहीं करो', उसे कंडिशनिंग हो जाता है। उससे आदमी जो है फ्री नहीं रहता । पर उन्होंने ये नहीं सोचा कि अगर किसी आदमी को किसी चीज़ को मना नहीं करो तो दूसरी नाड़ी उसकी बलवति हो जाएगी। पहली नाड़ी से सुपर इगो हमारे अन्दर बनता है। पहली जो नाड़ी है, इड़ा नाड़ी, इससे सुपर इगो बनता है, कंडिशनिंग से। और जो दूसरी नाड़ी है, इगो की जो नाड़ी है, जो कि राइट हैंड साइड की है उससे इगो बनता है। याने आप अब सरकारी नौकर हो गये साहब, तो आप किसी से ठीक मूँह बात ही नहीं करते। कुछ लोग मिनिस्टर साहब से मिलने गये, तो वहाँ एक साहब बहुत उछल-कूद कर रहे थे। बेचारे देहाती लोगों को समझ में नहीं आया। तो उन्होंने पूछा कि भाई, बात क्या है? तो कहने लगे कि, 'तुमको पता नहीं कि मैं पीए हूँ।' कहने लगे कि, 'भाई पहले ही बता देते कि आप पी कर आये हैं तो हम काहे को आप से बात करते।' तो ये चलता है इगो, ये इनकी समझ में नहीं आया, फ्रॉइड साहब कहते है कि लेफ्ट साइड को आप काटेंगे तो दूसरी साइड चढ़ जाएगी तो इगो खोपड़ी पर चढ़ जाएगा, सुपर इंगो पे। इगो और सुपर इगो इस तरह से हमारे सर में हैं। अब इगो, सुपर इगो थोड़ासा समझाते हैं कि आप लोग कोई मनोविज्ञान के नहीं, भगवान की कृपा से हैं। मनोविज्ञान में भी इसे माना गया है, इगो और सुपर इगो को। समझ लीजिए एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पी रहा है। अपने आनन्द में बैठा है। आनन्द में है। उसके बाद माँ ने उसे दूध 11 उठाया, दूसरी तरफ उसे ले जाना चाहे। तो उसका इगो जागृत हो गया कि ऐसा क्यों किया । तो माँ ने उसे डाँटा कि, 'नहीं बेटे, ऐसे नहीं करो।' तो उसका सुपर इगो जागृत हो गया। इस तरह से हमारे अन्दर इगो और सुपर इगो जैसे बलून जैसी चीज़ हमारे सर में इस तरह से इकठ्ठी हो जाती है। इगो के सामने से ले कर के यहाँ तक और सुपर इगो की पीछे से इस तरह से। अब ये दोनो जब जम जाती हैं यहाँ पर आ कर ठीक से तभी हमारा सर का जो फॉन्टनेल बोन का हिस्सा है ये बिल्कुल कैल्सिफाइड हो जाता है। बिल्कुल पक्का हो जाता है। तालू भर जाती है। तब हो गया, तब 'आप' आप हो गये, 'आप' आप हो गये, 'आप' आप हो गये तब छूट गया। सब अलग हो गये। सब के अपने अपने शेल बन गये। जैसे अण्डे के शेल बन जाते हैं वैसे इन्सान के भी शेल बन जाते हैं। वो इसलिये बनाये जाते हैं कि उसके अन्दर इन्सान पूरी तरह से अपनी स्वतंत्रता को पहचाने। उसका ठीक से उपयोग करे। उसको उपयोग करने के बाद वो समझे कि कौन सी चीज़ ठीक है और कौनसी बुरी। बहरहाल आदमी पर पूरी तरह से छोड़ा हुआ नहीं। बड़े बड़े संतों ने संसार में अवतार लिया और आपको समझाया कि ये धर्म है, ये नहीं करो, ये करो । वो क्या सब पागल थे ? हम लोगों ने तो उनकी जाति अलग बना के उनको किनारे पे बिठा दिया। सबेरे से शाम उनको नमस्कार करना, काम खत्म! अपने जीवन में उनकी बात सुनना हमारे लिए व्यर्थ है। आखिर उन्होंने क्यों कहा? ये बात उन्होंने क्यों कहीं? कि ऐसा ना करो, ऐसा करो , ये करने से वैसा हो जाएगा, वो करने से वैसा हो जाएगा। क्योंकि हम बहुत अकलमंद हैं नं! हम तो सब चीज़ साइन्स से जानेंगे। साइन्स होता ही क्या है? बहुत ही थोड़ा हिस्सा है इसके अंग का। मैं वो भी आपको बताऊंगी कि साइन्स से आप कितना छोटा सा हिस्सा जानते हैं। बहुत थोड़ा सा। पिंगला नाड़ी से जो पाँच तत्व आपके अन्दर गुजरते हैं, उससे पंचमहाभूतों को, आप उनके बारे में जानते मात्र है कि जैसे कि, पृथ्वी के अन्दर में ग्रॅविटी है, पर क्यों हैं? कैसे है? एक सवाल आप पूछे कि हम अमीबा से इन्सान क्यों बने ? क्या वजह है? अगर हम इसको बना रहे हैं। तो इन्सान पूछेगा कि आप इसे क्यों बना रहे हैं? आखिर इसका कोई अर्थ होगा! परमात्मा ने क्यों बनाया है हमको? आज एक बाइलॉजी के आये थें, वो कहने लगे कि, 'मुझे भगवान पे विश्वास नहीं।' मैंने कहा, 'आप पे मुझे आश्चर्य होता है।' कि बाइलॉजी वाले को विश्वास नहीं, तो , तो फिर हो गया। बाकि तो जड़ तत्व से काम करते हैं, कम से कम जो आदमी बाइलॉजी में है उसको तो सोचना चाहिए कि कितने खुबसुरती से मनुष्य को बनाया है भगवान ने! और इतने छोटे टाइम में बनाया है कि बड़े-बड़े बाइलॉजिस्ट हैरान है कि 'लॉ ऑफ चान्स' से तो आदमी बन ही नहीं सकता था। ज़्यादा से ज़्यादा एक अमीबा बन जाता। 12 तो हमारे उपर ये जिम्मेदारी परमात्मा ने दे दी, हमें उसने स्वतंत्रता दे दी कि हम स्वतंत्र रूप से जाने की अच्छा और बुरा क्या है? और जब हम अपने स्वतंत्रता में परमात्मा को स्वीकार करें तो वो आपको ये वरदान दे कि आप उसे भी जाने। इस प्रकार ये मशीन बनायी गयी और तैयार की गयी। लेकिन जब तक इसको मेन से आप ने नहीं लगाया तब तक इसका क्या अर्थ निकलेगा। इसी के अन्दर कॉर्ड बना देते है नं! इसी प्रकार आपके अन्दर जो कॉर्ड बनाया है वही कुण्डलिनी है। परमात्मा ने बना के पहले से रखा है। आपको बनाना वगैरे कुछ नहीं। आपको कुछ मेहनत नहीं करने की। जैसे कोई अंकुर होता है, प्रिम्युल होता है, उसी प्रकार परमात्मा ने आपके अन्दर इसका अंकुर रखा हुआ है, वही कुण्डलिनी है, टूँग्युलर बोन में है। अब बीच में गैप आप देखते हैं। यही गैप इन्सान की सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में अभी है। वो गैप ये है कि उसके हृदय में जो आात्मा है, उसके हृदय में जो स्पिरीट है उससे उसकी जो गॅप बनी हुई है वही ये गॅप है। हमारे अन्दर आत्मा है, वो सब कुछ जानता है, वो क्षेत्रज्ञ है। लेकिन वो हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में नहीं है, माने हमारे कॉन्शस माइंड में नहीं है । माने ये , कि हमने उसे जाना नहीं। वो हमें जानता है। इसलिये ये जो गैप है इसको बनाया गया है। क्योंकि इसी के अन्दर से कुण्डलिनी को उठना है। यही घटना, जो मैं हैपनिंग आपसे कहती थी, वो होती है, कुण्डलिनी अवेकनिंग, वो घटना है। पर ये मैकॅनिकल, जिसको आप मरा हुआ नहीं समझिये, ये जिवंत घटना है। जैसे कि एक बीज में अंकुर निकलता है, उसी तरह की ये लीविंग चीज़ है। इन्सान ने आज तक कोई लीविंग काम नहीं किया। किया है क्या? एक बीज में से एक अंकुर निकाल दीजिए। कोई पेड़ मर गया, आपने खंबा खड़ा कर दिया हो गये बड़े भारी आदमी। ये तो मरे को आप बदल रहे है, चाहे उसकी कुर्सी बनाओ, चाहे उसका कुछ बना लो। फिर वो कुर्सी पर बैठने लग गये। तो कुर्सी खोपड़ी पे बैठ गयी तो नीचे नहीं बैठ सकते और टंग रहे हैं। देखिए, आप पीछे में बैठे हुए लोग, जमीन पर बैठ नहीं सकते। ये हालत आ गयी। उसकी गुलामी शुरू हो गयी । ये मरे हुए काम से फायदा क्या हुआ आपको ? सारे मरे हुए तत्व का आप पता लगाते हैं। कोई जिवंत तत्व का आप पता लगायें कि कैसे होता है! एक अंकुर किस प्रकार एक बड़ा भारी पेड़ बन जाता है इसका पता आप लगा पाये हैं क्या? हजारों ऐसी चीज़ें आप चारों तरफ देखते हैं। हाँ ये आप कहते हैं, इस प्रकार हैं, इस प्रकार है, जो दिखायी देता है। पर वो घटना कैसे घटित होती है? सी आवाजें, इतनी ये बहुत सूक्ष्म घटना है। वो आप देख नहीं पाते, यहाँ तक आप जानते हैं कि बहुत हाय फ्रिक्वेन्सी में होती हैं कि आप सुन नहीं सकते। मनुष्य जिस दशा में बनाया गया है उस दशा में इस सूक्ष्म को वो नहीं जान सकता। लेकिन वो ऐसा बनाया गया है कि वो उसको भी जान ले। फिर मनुष्य ही जान सकता है। मनुष्य में ही ऐसा ही विशेष रूप से ब्रेन बनाया गया है जो त्रिकोणाकार है, जिसमें ये सारी घटनायें 13 घटित होती है। इसके अन्दर इगो और सुपर इगो इस तरह से मिलते हैं और मनुष्य में ही कुण्डलिनी इस प्रकार से बैठी रहती है और ये घटना सिर्फ मनुष्य में ही हो सकती है। अब आप सोचिये, ये सारी सृष्टि बनायी गयी, उसमें पृथ्वी विशेष रूप से बनायी गयी। उसमें वनस्पति बनायी गयी। और उसके बाद आपको बनाया गया। और आपको विशेष रूप से बनाया गया और उसमें इस तरह की सब चीज़ें रखी गयी और आप ही को ये अधिकार है कि परमात्मा को जाने और उसकी शक्ति को अपने अन्दर से वहन करें। यही आपका लक्ष्य है, यही आपका फुलफिलमेंट है। जब तक आपके अन्दर से परमात्मा की शक्ति वहन नहीं होगी। तब तक आपका कोई अर्थ नहीं निकलता, आपका कोई मतलब नहीं बनता और सारे सृष्टि का भी कोई मतलब नहीं बनता। ये हँपनिंग होना है और आज जो हो रहा है ये भी हिस्टॉरिकल चीज़ है। सब का संसार में आना भी स्टेप बाय स्टेप सब का जरूरी है। उसके बारे में कल बताऊंगी कि कैसे हर, बड़े-बड़े अवतार और जिनको हम प्रॉफेट कहते हैं, जिनको हम गुरू कहते हैं। किस प्रकार वो इस संसार में आये और उन्होंने क्या क्या हमारे अवेअरनेस में, हमारी चेतना में किस तरह से काम किया। वो कहाँ हमारे अन्दर बसे हये हैं वो सब मैं | आपको कल बताऊंगी। ये कुण्डलिनी यहाँ त्रिकोणाकार अस्थि में है या नहीं, ये तक लोगों को नहीं मालूम है और कुण्डलिनी पे इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिख देते हैं। बताईये मैं क्या करूँ? इतनी बड़ी-बड़ी किताबों में ये भी पता नहीं कि कुण्डलिनी कहाँ है। इसका अब कौन साक्षात करा सकते हैं? आप अपनी आँख से कुण्डलिनी का स्पन्दन देख सकते हैं। आँख से। चाहे आप पार हो चाहे नहीं, उसका स्पन्दन आप देख सकते हैं। उसका उठना-गिरना ऑँख से आप देख सकते हैं। अरे भाई, तुम्हारा, जैसे तुम्हारा श्वास चल रहा है ऐसे कुण्डलिनी का श्वास दिखायी देगा । त्रिकोणाकार अस्थि को आप ठीक से देखेंगे उसके अन्दर कुण्डलिनी ऐसे-ऐसे पनपते दिखेगी। आप देख लेना आपकी आँख से देख लेना। उस पे हमने फिल्म भी बनायी । जब कुण्डलिनी उठती है तो उसका स्पन्दन शुरू होता है। और कोई-कोई लोग ऐसे बढ़िया लोग होते हैं कि एकदम उठे और खट् उपर पहुँच गये। उनमें नहीं दिखता। जिनमें नाभि चक्र की पकड़ होगी, जो नाभि चक्र वहाँ पर है, उसकी जब पकड़ होती है तब कुण्डलिनी यूँ घूमती है, दिखाई देती है। इतना ही नहीं आपको ये भी दिखायी देगा, जब कुण्डलिनी उठती है, समझ लीजिए आपको लिवर ट्ूबल है, तब आपको दिखायी देगा कि लिवर की तरफ जा कर के वहाँ पर बंधन हो रहा है। आपको दिखायी देगी आँखों से, आप अगर स्टेथॅस्कोप लगाये तो आप उसको देख सकते हैं 14 कहाँ चल रही है। अंत में वो जा कर के यहाँ पहुँच जाएगी। इसलिये कबीर ने कहा, 'शून्य शिखर पर अनहत बाजी रे'। पल्सेशन उसका फील होता है। अनहत माने पल्सेशन होता है। फिर जब वो खुल जाती तभी वो पल्सेशन रूक जाता है और जो सब दर, सर्वव्यापी जो शक्ति है, जो कि सूक्ष्म, जिसे आप नहीं जानते, जिसे एक-एक पत्ता दुनिया का, एक-एक फूल, एक-एक फल और एक- एक इन्सान जिससे पूरी तरह से सम्भाला हुआ है, चलता है, उसी के आश्रय में है उस शक्ति से आप एकाकार हो जाते हैं। अभी तक तो आपने जाना ही नहीं, अभी तक आपको खबर ही नहीं उसकी सिर्फ पढ़ा हुआ है उसके बारे में, उसका अभी तक बोध नहीं हुआ। उसका बोध होना चाहिए। बगैर बोध हुए सब चीज़ बेकार। आप पहले से ही शक कर के बैठ गये। अरे भाई, इसमें शक करने की कौन सी चीज़ है। क्या इसके बारे में पहले लिखा नहीं लोगों ने। सबने बताया है। लेकिन अगर टाइम आ गया है सबको पाने का तो सबको मिलना ही चाहिए । लेकिन सब लोग नहीं लेते ये भी मैं जानती हैं। लेकिन उसकी बहुत सी वजह है । उसकी बहुत सी वजह है। अब ये जो सेंटर्स है, ये जो चक्र है, ये सूक्ष्म सेंटर्स हमारे अन्दर बहते हैं। ये सेंटर्स हमारे अन्दर हमारी जो उत्क्रान्ति है, इवोल्यशन हुई है उसके एक-एक टप्पे हैं, स्टेजेस हैं । पहले जब हम कार्बन थे, तो ये पहला चक्र है श्रीगणेश जी का। उसके बाद में जब ब्रह्मदेव ने सारी सृष्टि बनायी तो दूसरा चक्र है, जो ब्रह्मदेव का है, जो स्वाधिष्ठान का है, वो भी हमारे अन्दर है। उसी की वजह से हम सृष्टि बना सकते हैं। उसी की वजह से हम सोचते हैं, प्लैन करते हैं, थिंक करते हैं। उसके बाद नाभि चक्र है। नाभि चक्र से आपको मालूम है कि मछली से ले कर के इन्सान बनने तक जो कुछ भी हुआ है वो इसी गोल में हुआ है। इसकी मदद करने के लिए हमारे अन्दर जो बड़े-बड़े गुरू हो गये। जिनको कि आप जानते हैं, सॉक्रेटिस से ले कर कन्फ्यूशियस, मोजेस, राजा जनक, महम्मद साहब, नानक | साहब, कबीर ये सब जो बड़े-बड़़े गुरू हो गये ये सारे गुरूओं ने इस पर मेहनत की और मनुष्य धर्म बनाये। मनुष्य का धर्म है। अन्दर में, पेट में है उसके धर्म, बाहर नहीं है । जैसे ये जो सोना है, इसका धर्म है कि ये खराब नहीं होता, अनटार्निशेबल है। उसी प्रकार मनुष्य के दस धर्म पेट में बने हये हैं। अगर ये दस धर्म से मनुष्य चूक हो जाये तो उसकी कुण्डलिनी नहीं उठती भाई । इन धर्मों को फिर से ठीक करना पड़ता है। कुण्डलिनी को खुद आ कर के इनको ठीक करना पड़ता है, प्लावित करना पड़ता है। उसके बाद में ही कुण्डलिनी उठती है, नहीं तो सख्त होता है वहाँ पर । और ये जो काम है, ये काम 15 कुण्डलिनी करती है, आपको कुछ नहीं करना है, एफर्टलेस है । आप पैदा हुये, आपने कौनसा एफर्ट किया है या बीज में से पेड़ निकला बीज ने कौनसा एफर्ट किया है। उसने कौनसी किताबें पढ़ी। ऐसे ही ये जब जिवंत क्रिया है तो आपको कौनसा एफर्ट करना है। एफर्टलेस। सहज का मतलब होता है एफर्टलेस। और सहज, जन्म से आया है, इसका मतलब है आपके साथ पैदा हुआ। ये योग का अधिकार आपके साथ पैदा हुआ है। क्योंकि आप इन्सान है, आपका ये जन्मसिद्ध अधिकार है कि आप इस योग को प्राप्त करे, जिससे आप परमात्मा को जाने। ये आपका अधिकार है। लेकिन आप खुद ही नहीं चाहते अपने अधिकार को इस्तेमाल करने। उसे परमात्मा क्या करे? अब ये जो सटल सेंटर्स हैं, सूक्ष्म सेंटर्स, अगर आप इन सेंटर्स को पा लें और इनको आप अगर जागृत कर सकें तो आपकी तंदुरुस्ती वैसे ही ठीक हो जाए । एक बीमारी है, समझ लीजिए, क्या कहते हैं उसे, मल्टिपल सिरॉसिस कहते हैं । वो डॉक्टर लोग कहते हैं ठीक नहीं होती। हम कहते हैं सहजयोग से ठीक हो जाएगी। बिल्कुल ठीक १००% होती है। इसमें तीन चक्र हम देखते हैं जो कि खराब है, मूलाधार चक्र, नाभि चक्र और आज्ञा चक्र। ये तीन चक्र अगर हमने ठीक कर दिये तो ठीक हो जायें। एक चीज़ की खोज जब आप बाहर से करते हैं, समझ लीजिए एक पेड़ है। उसमें खराबी आ गयी। अब बाहर से उसमें आपने ठीक-ठाक किया भी तो कितनी ठीक-ठाक हो सकती है। पर अगर आप उसके जड़ से ही कोई चीज़ ठीक करना जाने तो पेड़ ठीक हो जाएगा। इसी तरह से कैन्सर की बीमारी हैं। कैन्सर की बीमारी भी आपकी इसलिये होती है कि आपकी जो सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टीम है इसको बहुत इस्तमाल करते हैं। या तो इमोशनली करते हैं या बहुत ज़्यादा आप और वजह से करते हैं। कभी इरिटेशन हो जाता है, कभी इन्फेक्शन हो जाता है किसी भी वजह से आपके लाइफ में इमर्जन्सी बनी सिम्पथैटिक इमर्जन्सी जो होती है वो आप पे बनी रहती है। अगर रहे, तो जैसे यहाँ इमर्जन्सी का (अस्पष्ट) आता है वैसे ही इन्सान का हो जाता है। उस वख्त में पैरासिम्परथैटिक जो है हर समय आपका कैन्सर ठीक करती रहती है। आप का कैन्सर रोज होते ही रहता है। मतलब रोज आप इस्तमाल करते ही रहते हैं और उसको पैरासिम्पथैटिक ही फिट करती रहती है, बैलन्स करती रहती है। ये बीचोबीच है, सुषुम्ना नाड़ी। लेकिन जैसे ही समझ लीजिये ये लेफ्ट साइड है और राइट की सिम्पथैटिक है और राइट साइड की सिम्परथैटिक है। ये दोनो पूरी साइड है। अब लेफ्ट साइड समय चल रहे हैं इस तरफ से इस तरफ और जब ये टूट जाते हैं तो इसके अन्दर के जो देवता हैं वो भी 16 सो जाते हैं। फिर (अस्पष्ट) हो जाती है शुरू। ये एक सेल जो है बहुत बढ़ने लग जाता है। उससे दूसरे को लग गया वो भी बढ़ने लग गया। उसका सम्बन्ध सब से होता नहीं, पूरे से होता नहीं। पूरे शरीर से नहीं होता, एक अकेला आर्बिटरी बन गया। कैन्सर बन गया। अगर हम इस देवता को जागृत करते हैं कैन्सर ठीक होगा। अब देवता है या नहीं। लोग कहेंगे कि देवता में क्या विश्वास करेंगे। देवता हैं या नहीं। अब ये तो सहजयोग के बाद खुद ही देख लेंगे कि उनके नाम लेते ही चीजें ठीक होती है, तो देवता है। ये तो सहजयोग के बाद होगा। पर मेंटली भी हम समझा सकते हैं। जैसे अँड्रीनलिन और अॅसिटलीन दो केमिकल्स हैं। दो समझ लीजिए बिल्कुल डेड केमिकल्स हैं। लेकिन वो अपने शरीर में अजीब तरह से व्यवहार करते हैं। किसी को समझ ही नहीं आता । कहते हैं कि 'मोड ऑफ अॅक्शन' इनका, हम समझा नहीं सकते। मतलब इमानदार लोग हैं सब साइंटिस्ट, झूठे नहीं हैं। लेकिन उनकी अपनी मर्यादायें हैं, लिमिटेशन्स हैं, उसके हिसाब से बता रहे हैं कि हम ये नहीं बता सकते की कहीं जगह तो वो ऑग्ग्युमेंट करता है और कहीं रिलॅक्स करता है, समझ में नहीं आता है। एक ही चीज़ ये देवता लोग करते हैं। हमारे अन्दर अगर कोई फारेन मैटर चला जाए तो शरीर से फेंकने की कोशिश होती है। लेकिन पेट में अगर बच्चा होता है, वो पिंड जब उग जाए तो फेंका तो नहीं जाता है उसको। सम्भाला जाता है उसको। नर्चर किया जाता है, देखा जाता है और टाइम आने पर, बराबर टाइम भी कैसे बनता है, उस वख्त उसे फेक दिया जाता है। ये गणेश जी के काम। ये गणेश जी करते हैं। गणेश जी का तत्व हमारे अन्दर कार्य करता है। अब डॉक्टर लोग गणेश जी को नहीं मानेंगे, फोटो रखेंगे घर में जरूर। नानक जी का रहेगा, गणेश जी का रहेगा सब रहेगा। लेकिन गणेश जी हमारे अन्दर बसे हुये, यहाँ मूलाधार चक्र पे हैं ये नहीं मानने वाले। अब मैं क्या करूं बताईये! इनको कैसे सिखाया जाए? अब स्कोलियोसिस की वो लड़की जो आयी थी यहाँ पर, मल्टिपल स्कोलियोसिस, उससे मैंने सिर्फ कहा तुम श्रीगणेश जी का मंत्र बोलो, हमारे सामने । उनका ठीक हो गया। लेकिन आप कहेंगे तो नहीं होने वाला। क्योंकि आपको अधिकार होना चाहिए गणेश जी को जगाने का। लेकिन अगर आप पार हो जाए तो आपको भी अधिकार आ जाएगा। जब आप दिल्ली के सिटीझन हैं, तो आप दिल्ली के जो कुछ भी अधिकार है उससे पूरे हैं नं! अगर आप परमात्मा के साम्राज्य के सिटीझन हो जाएंगे तो गणेश जी क्या, हनुमान जी क्या, सब आपके सामने पूरी तरह से हाथ जोड़ के खडे हैं और कहेंगे, 'बेटे बोलो क्या करने का तुम्हारा काम, बोलो।' अब ये बात सही है या नहीं है इसका पड़ताला कर के देखना चाहिए। पहले परमात्मा के साम्राज्य में आ जाओ। ये पहली चीज़ है। नहीं तो उसके तो आप सिटीझन 17 नहीं हैं, आप तो 'गवन्मेंट ऑफ इंडिया' के हैं। उसके इफिशिअन्सी में रहिए। हम तो कह रहे हैं कि 'गवन्म्मेंट ऑफ गॉड' में आप आईये, फिर हम आपको बताते हैं बात, फिर देखिये कि आपके पॉवर्स कहाँ से कहाँ तक पहुँचते हैं। फिर तो कोई बीमारी आपको छूयेगी नहीं, कैन्सर वैन्सर तो छोड़ दीजिये। आप दूसरों के कैन्सर ठीक करियेगा। लेकिन पार हये बगैर कोई बात ही नहीं कर सकते हैं | नं! पॉइंट ये है कि पार तो होना चाहिए पहले। तभी सूक्ष्म में आप उतरते हैं। आप सूक्ष्म में जब उतर जाते हैं तो आप खुद ही उसको कंट्रोल कर लेंगे। आप खुद उस चीज़ को कंट्रोल कर सकते हैं । जिससे सारी सृष्टि कंट्रोल है। क्योंकि ये सर्वव्यापी शक्ति है। उसमें जैसे ही आप आ जाते हैं आपका अटेंशन ही, आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में से ही ये बहना शुरू हो जाता है। आपका जो हृदय है उसका स्पंदन आपके सेंट्रल न्वस सिस्टीम में से बहना शुरू हो जाता है। आपको वाइब्रेशन्स हाथ में से आते हैं, ठण्डी-ठण्डी, उसको चैतन्य लहरियाँ कहते हैं। जब वो आपके अन्दर से बहना शुरू हो जाता है, माने आत्मा आपके अन्दर से बहने लगता है, तब फिर आप जो भी करते हैं वो परमात्मा के ही साम्राज्य में कर रहे हैं। ये होना जरूरी है इन्सान में। फिर मुझे ये भी कहना नहीं पड़ता कि आप शराब छोडो, सिगरेट छोड़ो, कुछ भी। छोड़ना ही पड़ता है। छोड़ ही देते हैं। क्योंकि जब अन्दर का मजा आने लग जाए तो बाहर का मजा कौन उठायेगा। अब यहाँ जितने बैठे हैं नं, बड़े पियक्कड लोग थे पीछे में जितने लोग बैठे हये हैं । बड़े पक्के पियक्कड थे। पियक्कड तो क्या, आप लोगों को ठिकाने पहुँचा दे इस तरह से ड्रग्ज लेते थे ये। सब छोड़-छाड़ के आज मजे में बैठे है। ऑटामैटिक हो जाता है। उसको फिर कहने की कोई जरूरत नहीं रहती। जब अन्दर का आनन्द आने लग जाता है तो बाह्य की सब चीज़ें अपने आप छूट जाती है। मुझे तो कुछ कहना भी नहीं पड़ता खास। जैसे एक छोटी बात है कि जानवर को चाहे आप गन्दगी में से ले जाओ, लीद में से ले जाओ, गोबर में से ले जाओ, उसको बदबू नहीं आती, जानवर को। लेकिन इन्सान को ले जाओ तो उसको आती है ना। उसी प्रकार जब आप परमात्मा के साम्राज्य में जाते हैं तो आपकी चेतना ऐसी हो जाती है कि आपसे बर्दाश्त ही नहीं होता। आपके हाथ से बर्निंग सी आ जाएगी, अच्छा ही नहीं लगेगा ये सब! अपने आप ही ये चीजें छूट जाती है। और इसलिये जितनी भी आदतें हैं सब कुछ आपका अपने आप झड जाता है। उसमें मुझे कहना नहीं पड़ेगा । सब घटना अपने आप घटित होगी। आज आपके सामने सहजयोग के बारे में मैंने थोडी प्रस्तावना की है। कल इतनी जितनी भी गहरी बातें हैं सब बताऊंगी। मैंने कहा है कि कितना सूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम इसका ज्ञान है वो सब मैं आपको बताने को तैय्यार हँ। सारी विद्या यही है बाकि सब अविद्या है। आपके उंगलियों 18 के इशारे पे चीजें चलेंगी। आप अपने को पहले जान तो लो। आप अपनी शक्ति ही नहीं जान रहे हो । और फिर हतबद्ध हये बैठे हो। अभी तक आपकी मोटर शुरू नहीं हुई। मोटर शुरू करो , फिर पता चलेगा। उससे पहले ही आप दसरे काम कर रहे हैं। तो पहली चीज़ है ये घटना घटित होना। दूसरी चीज़ है इसमें जम जाना। तीसरी चीज़, पूरी विद्या को जान लेना। कौनसा चक्र कहाँ हैं? किस तरह से उस चक्र को चलाना है? किस तरह से ठीक करना है। बस तीन स्टेप्स होते हैं सहजयोग के। ये एक बार हो गये तो आप हो गये बड़े भारी सहजयोगी। और यहीं बैठे - बैठे करिश्मे करो, अपने के भी और दूसरों के भी और मजा उठाओ। क्योंकि आपके अन्दर से शक्ति बहती रहेगी पूरी समय। बा ॐ ० ना आ मय सामूहिक होना गहती प्राप्त करने का एकमात्र उपाय कबेला, इटली, २० जुलाई १९९७ आज की पूजा हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आप सबको आत्मसाक्षात्कार मिल चुका है। आप सबके पास अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने के लिए आवश्यक ज्ञान भी है, जो आप प्राप्त कर चुके हैं। उसके विषय में आपको जानना है। ऐसा करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि अगर आप इस ज्ञान का उपयोग नहीं करते और अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं देते तो आपको स्वयं पर विश्वास नहीं होगा। आपमें आत्मसम्मान भी नहीं जागेगा। दुसरी बात यह है कि आज अन्य लोगों को आप चैतन्य तो दें, पर उनमें अधिक इन्व्हॉल्व्ह न हो। मैंने 21 लोग बहुत अधिक इन्व्हॉल्व्ह हो जाते हैं। एक व्यक्ति को साक्षात्कार देकर वे देखा है, कि कुछ आमूहि उसके समझते हैं कि उन्होंने बहुत महान काम कर दिया है। वे उस व्यक्ति पर, उसके परिवार पर, गहनती प्राप्त करने सम्बन्धियों पर कार्य करने लगते हैं। अब तक तो आप जान गये होंगे कि व्यक्ति के किसी से संबंधित होने या समीप होने का अर्थ ये नहीं है कि उसे भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने का उतना ही अवसर मिल जाए। सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। इसके सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं। लोग यदि ये सोचें कि आश्रमों से दूर कहीं अकेले रहकर वे बहुत अधिक प्राप्त कर लेंगे तो सहजयोग में ऐसा नहीं होता। प्राचीन काल में लोग हिमालय में चले जाते थे, अलग-अलग तपस्या करते थे, परन्तु उनमें से कोई एक-दो ही आध्यात्मिक उत्थान के लिये चुने जाते थे। यहाँ पर आध्यात्मिक उत्थान का प्रश्न नहीं है, यहाँ तो सामूहिक उत्थान का प्रश्न है। इस प्रकार आप एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जो सामूहिक है, सामूहिकता का आनन्द लेता है, सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है। ऐसे व्यक्ति में नई प्ररकार की शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं । ये शक्तियाँ अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं, इतनी सूक्ष्म कि किसी भी अणु, परमाणु या मानव में प्रवेश कर सकती हैं। यह प्रवेश भी तभी सम्भव है जब आप स्वभाव से सामूहिक हों। बिना सामूहिक हुए आप वे ऊँचाईयाँ प्राप्त नहीं कर सकते जो आज सहजयोग के लिये आवश्यक हैं। आप जानते हैं कि चारों तरफ समस्यायें ही समस्यायें हैं, हमें ऐसा लगता है, मानों वह विश्व डूबने वाला हो। जब मैं अमेरिका गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वहाँ उन्होंने एक नर्क की सृष्टि कर दी हो। हे परमात्मा, उनका कोई धर्म नहीं है, धर्म में वे विश्वास ही नहीं करते। अधर्म की पूर्णत: पूजा करते हैं। इस प्रकार का वातावरण पूरे विश्व में बन गया है, पूरे विश्व में अमेरिका के अधार्मिक जीवन की प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। परन्तु लोग सोचते हैं कि इसमें कोई बुराई नहीं। आप उन्हें कुछ भी बतायें वे विश्वास नहीं करते, सोचते हैं कि इसका कोई मूल्य नहीं। अपने जीवन, अपने परिवार तथा समाज के मूल में छिपे विनाश को वे नहीं देखते। पूरा देश, मुझे लगता है, ऐसे घिनौनी अधार्मिक प्रकृति से भरा हुआ है, कि व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता कि इस प्रकार के विचार इनके मस्तिष्क में कैसे आते हैं। ये विचार मैं आपको नहीं बताऊंगी, आप इन्हें भलि-भाँति जानते हैं। परन्तु यदि आप अपने बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं, तो आपको स्वयं एक आदर्श गुरू बनना होगा। इन शक्तियों के अपने अन्दर जागृत हुए बगैर यदि आप सहजयोग की बात करते हैं, स्वयं को सहजयोगी समझते हैं, या सहजयोग का प्रचार करते हैं, तो यह सफल न होगा। तो हमें देखना होगा, कि किस प्रकार हम इन शक्तियों को अपने अन्दर विकसित करें । 22 आपको यह बताना है, कि अपने गुरू के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करें। मेरे लिए बहुत उलझन क्र होना वाली बात है। ज्यों ही आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होता है और आप इसमें उतर जाते हैं, तो परन्तु का एकमात्र उपाय स्वत: ही आपका दृष्टिकोण नम्र होने लगता है, जिसके माध्यम से आपमें गुरु के बहत से विकसित होने लगते हैं। मान लो कि गुरु उँचे स्थान पर बैठा है, तो आपको चाहिये कि उससे नीचे बैठें । कुछ लोग गुण मेरे अच्छे स्वभाव का अनुचित लाभ उठाते हैं। बहुत से लोग मुझे कहते हैं, कि 'आप अपने शिष्यों को सुधारें, वे आपसे बराबर के स्तर पर बात करते हैं।' मैंने कहा, 'उन्हें सबक मिल जाएगा, उन्हें सबक मिल जाएगा।' परन्तु कभी-कभी ऐसा नहीं होता और वे इस प्रकार बातें करने लगते हैं, मानों किसी मित्र से या समान व्यक्ति से कर रहे हों। नम्रता सर्वप्रथम है। आपको विनम्र होना होगा, अत्यन्त विनम्र। अब आप इस बात को जाँचें : दूसरों से बातचीत करते हुए क्या आप नम्र होते हैं? दूसरों के विषय में सोचते हुए क्या आप विनम्र होते हैं? अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल करते हुए क्या आप विनम्र होते हैं? स्वयं को गुरु समझने वाले हर व्यक्ति के लिए यह गुण आवश्यक हैं। नम्रता प्रथम गुण है, या मैं कहूँ, एक सागर है जिसमें आपको कूदना होगा। कुछ लोग सोचते हैं, 'श्रीमाताजी यदि हम विनम्र होंगे, तो अन्य लोग हमारा लाभ उठायेंगे।' कोई आपका अनुचित लाभ नहीं उठा सकता। आपको एक अन्य बात भी याद रखनी है, कि आप सुरक्षित हैं और परम चैतन्य आपकी देखभाल कर रहा है। आप इस बात को जानते हैं, परन्तु वास्तव में कितने लोग हैं जिन्हें ये विश्वास है, कि परम चैतन्य हमारे साथ है। वास्तव में यदि आपको यह विश्वास है, कि परम चैतन्य है, तो न तो आप घबराते हैं और न चिन्तित होते हैं और न ही सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण विचार आप में आते हैं। परन्तु स्वयं को असुरक्षित मानते हुए यदि आप सोचते हैं कि क्या होगा? कैसे सबकुछ चलेगा ? तो परम चैतन्य आपको अकेला छोड़ देता है। आपको सारा नाटक देखना है, कि किस प्रकार परम चैतन्य कार्य करता है, किस प्रकार ये सब कुछ चलाता है और किस प्रकार आप व्यवहार कर रहे हैं। मान लो, आपकी स्थिति ठीक नहीं हैं और आप बहुत अधिक दिखावा करते हैं, तो क्या होता है? तो आपको इसका इनाम मिलता है; ऐसा नहीं है, कि मैं कुछ करती हूँ परन्तु परम चैतन्य आपको सबक सिखाएगा, ऐसा सबक कि आप याद रखेंगे, कि आपको एक भिन्न प्रकार का व्यक्ति होना चाहिए था। हमें समझना चाहिए कि हम सहजयोग में क्यों आए हैं। इसकी जड़ों से आरम्भ करें। हम सहजयोग में क्योंकि हम पूर्ण सत्य को जानना चाहते थे और अब अपनी चैतन्य लहरियों के माध्यम से आप इस सत्य को जान गए हैं। आपको सभी कार्य चैतन्य लहरियों पर पूर्ण सत्य को जैसा भी आप महसूस करते हैं आपको उसका अनुसरण करना चाहिए। परन्तु कई बार मैंने देखा है, कि दुर्भाग्यवश बहुत से लोग सोचते 23 हैं, कि उनकी लहरियाँ ठीक हैं। वे ठीक हैं, और जो भी कुछ उन लहरियों पर वे प्राप्त कर रहे हैं, वह बहुत आमूहि अच्छा है। अब इसे कैसे ठीक किया जाए? यह अत्यन्त कठिन कार्य हैं। अहम् के कारण ऐसा होता है। गहनती प्राप्त करने जब आप अहम् ग्रस्त होते हैं तो आपको स्वयं में कोई दोष नहीं नजर आता। तब यदि लहरियाँ भी आपकी कुछ बता रही हैं तो हो सकता है कि कोई अन्य ही आपको बता रहा है क्योंकि आप तो वहाँ हैं ही नहीं, केवल आपका अहम् वहाँ है और आपका अहम् आपको बिगाड़ रहा है तथा ऐसी बात सिखा रहा है, जिन्हें सर्वसाधारण स्थिति में आप स्पष्ट देख लेते कि, 'मैं कुछ अनुचित कर रहा हूँ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।' इस शुद्धिकरण तथा सुधार की प्रक्रिया में जब आप लग जाते हैं, तो आपको देखना चाहिए कि आप सूक्ष्म हो रहे हैं या स्थूल। आंकलन की यह सर्वोत्तम विधि है। मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो छोटी-छोटी चीज़ों पर चैतन्य लहरियों को आंकते रहते हैं। इस पेड़, इन फूलों, इस लैम्प या इन भौतिक चीज़ों की चैतन्य लहरियां ठीक हैं या नहीं। परन्तु किसलिए आप चैतन्य लहरियाँ देखना चाहते हैं? भौतिक लाभ के लिए आप चैतन्य लहरियाँ देखते हैं। आप सोचते हैं, कि यदि चैतन्य लहरियाँ ठीक होंगी तो आप सुरक्षित हैं, आपको कोई हानि न होगी। यह सत्य नहीं है, क्योंकि चैतन्य लहरियाँ सांसारिक वस्तुओं और सांसारिक मामलों को आंकने के लिए नहीं होती। चैतन्य लहरियों का यह सबसे घटिया अर्थ है। हमें चैतन्य लहरियों को घटिया नहीं बनाना चाहिए क्योंकि चैतन्य लहरियाँ ऐसा मार्गदर्शन भी कर सकती हैं, जो हमारे उत्थान के लिए बहुत ही हानिकारक हो सकता है। एक बार मैंने किसी सहजयोगी को कहीं भेजना चाहा, पर उसने कहा, 'श्रीमाताजी मैं वहाँ नहीं 'इसलिए गया।' मैंने पूछा, 'क्यों?' 'क्योंकि मुझे लगा कि चैतन्य लहरियाँ बहुत खराब थीं। मैंने कहा, तो मैंने तुम्हें वहाँ जाने के लिए कहा था। यदि चैतन्य लहरियाँ ठीक होती तो तुम्हारा वहाँ जाने का क्या लाभ होता ?' तुम्हें वहाँ भेजने का लक्ष्य तो यह था कि तुम वहाँ कुछ मदद कर सको, परन्तु इससे पूर्व ही तुमने अपनी चैतन्य लहरियों पर निर्णय कर लिया और वहाँ गए ही नहीं। तो होता क्या है, कि हम अत्यन्त सहज एवं सुखमय जीवन प्राप्त करना चाहते हैं, तथा यह भी चाहते हैं, कि हमारी सारी समस्याएं सहजयोग द्वारा ही सुलझनी चाहिएं। जो भी हमारी इच्छा हो वह पूर्ण होनी चाहिए अन्यथा हम सोचते हैं कि सहजयोग किसी काम का नहीं । और इच्छाएं भी अधिकतर व्यक्तिगत होती हैं। मेरा बच्चा ठीक नहीं है, वह ठीक हो जाना चाहिए, मेरे पति का आचरण ठीक नहीं है, मेरा पति ठीक हो जाना चाहिए, या मेरे मकान नहीं है, मुझे मकान प्राप्त हो जाना चाहिए। एक ग्राहक की ১১ तरह से हम अपने को चलाते रहते हैं। हर समय हम सोचते रहते हैं, अब मुझे लड़की की जगह लड़का 24 मिल जाना चाहिए और यदि पुत्र न मिला तो सहजयोग को दोष देते हैं। आप की इच्छानुरूप यदि कोई कार्य नहीं होता तो आप सोचते हैं कि सहजयोग के कारण ही आपको हानि हुई है और सहजयोग के क्र होना का एकमात्र उपाय कारण आप कष्ट उठा रहे हैं। आपका विश्वास सहजयोग के प्रति गहन नहीं है। यदि सहजयोग में आपका विश्वास गहन हो तो आप कहेंगे, 'जो मर्ज़ी हो मैं सहजयोगी रहँगा।' मान लो, किसी की मृत्यु हो जाती है, यद्यपि सहजयोग में प्राय: लोगों की मृत्यु जल्दी से नहीं होती, वे यदि मरना भी चाहें तो नहीं मरते। परम चैतन्य ही इसका निर्णय करते हैं। परन्तु मान लो कि आप ऐसी इच्छा कर भी लें तो भी वह पूर्ण नहीं होती। जब यह पूर्ण नहीं होती तो आप परेशान हो जाते हैं और सोचते हैं, 'कि गलती क्या है?' परन्तु आपकी इच्छा परमात्मा की इच्छा है। उदाहरणार्थ में अमेरिका गई और वहाँ मुझ पर नकारात्मकता का आक्रमण हुआ और मुझे कष्ट पहुँचा। इन दिनों में परेशान रही, मुझे काफ़ी दर्द तथा अन्य प्रकार की तकलीफें थीं। परन्ती ये कष्ट मुझे भुगतना ही था क्योंकि अब अमेरिका के सहजयोगी इस बात को महसूस करेंगे कि उनके झुके हुए सिर उठाने के लिए कितना बलिदान करना है। पैसा ऐंठने वाले लोगों से जो लोग प्रभावित हों वे कितने मूर्ख हैं। बहुत से लोग मेंरे पास आए | पड़ता और कहने लगे कि, 'श्रीमाताजी यदि आप कहें कि मैं ३०० डालर लेती हूँ तो आपको यहाँ हजारों शिष्य मिल जाएंगे।' मैंने कहा, 'वे शिष्य नहीं होंगे।' ऐसे लोग तो पूर्णतया मूर्ख होंगे। सहजयोग आप पैसे से प्राप्त नहीं कर सकते। यह पहला सिद्धान्त है, जिसे उन में से अधिकतर लोग नहीं समझते, उनकी समझ में नहीं आता कि बिना धन दिए वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेना कैसे सम्भव है?' यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह बहुत कठिन कार्य है। सभी शास्त्रों ने और सभी लोगों ने कहा कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना कठिन कार्य है। तो आप इतनी सुगमता से किस प्रकार प्राप्त कर रहे हैं। कोई नहीं जानता था कि इन लोगों को किस प्रकार उत्तर दिया जाए। आपको यह कहना चाहिए था, 'ठीक है, यह कठिन है, बहुत कठिन है और यह सच है, कि सामूहिक रूप से इसे दिया भी नहीं जा सकता। परन्तु यदि कोई ऐसा कर रहा है, तो आपको इसके विषय में सोचना चाहिए कि वह कैसे कर रहा है?' तो इस प्रकार मूर्खतापूर्ण प्रश्न हैं और इनके उत्तर में आपको अत्यन्त नम्रतापूर्वक बताना चाहिए कि, 'श्रीमन, यह कार्य करने के लिए व्यक्ति में इसकी योग्यता भी होनी चाहिए।' तो लोग तो उनके पीछे भाग रहे हैं, जो उनसे धन ऐंठ रहे हैं और उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं। लोग डींग मारते हैं, कि हमारे तीन गुरु हैं, हमारे सात गुरु हैं। उनकी दशा पर मुझे हैरानी होती है। तो वे लोग, जिन्हें संस्कृत में मूढ़ कहते हैं, जो मस्तिष्क विहीन हैं, उन्हें साक्षात्कार नहीं मिल सकता। अत: उन्हें छोड़ दीजिये। वे यदि आपसे बहस भी करें तो आप उन्हें छोड़ दें। आपसे बहस करना उनका अधिकार नहीं हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना उनका अधिकार है, परन्तु आपसे बहस करना या 25 मूर्खतापूर्ण प्रश्न करना उनका हक नहीं है। आपको सदा याद रखना है, क्योंकि आप गुरु हैं। एक बार जब आमूहि आप जान जाते हैं कि आप गुरु हैं, तो आप विदूषक की तरह से बताव नहीं करते, आपका आचरण गहनती प्राप्त करने गरिमामय होना चाहिए। आपका व्यक्तिगत भी मनोहर होना चाहिए, लोगों को चिढ़ाने वाला नहीं । आपका व्यक्तित्व ही दर्शायेगा कि आपमें कुछ विशिष्ट है। इस प्रकार का व्यक्तित्व आप किस प्रकार विकसित करेंगे? पश्चिम में अहम् सबसे बड़ी समस्या है और पूर्व में प्रति-अहम्। मैं नहीं जानती यह अहम् की समस्या कहाँ से आयी! जीवन के सभी कार्यों में वे दर्शाते हैं कि वे कितने अहंकारी हैं। उदाहरणार्थ मैं अमेरिका गयी तो देखकर हैरान हुई कि वहाँ एक सामाजिक समस्या है, कि वे लोग श्वेत तथा श्याम रंग के लोगों से भिन्न प्रकार का बर्ताव करते हैं। रंग तो परमात्मा की देन है, कोई श्वेत होगा और कोई श्याम। यदि सभी लोग एक से हों तो यह पल्टन सी लगेगी । कुछ वैचित्र्य तो होना ही चाहिए, शक्लों तथा अभिव्यक्ति में भी कुछ भिन्नता तो होनी ही चाहिए । व्यक्ति को भिन्न या अच्छी अभिव्यक्ति वाला होना चाहिए अन्यथा आप ऐसे संसार में होंगे जहाँ सभी एक से दिखाई देंगे। परन्तु वहाँ इतना समाजवाद है कि मैं हैरान थी कि यह किस प्रकार मानव मस्तिष्क में बैठ पाया। तो इस प्रकार के समाजवाद के लिए आपके मन में घृणाभाव आ जाना चाहिए। यह समझना तो अत्यन्त सुगम है कि श्वेत रंग का व्यक्ति भी अत्यन्त अत्याचारी स्त्री या पुरूष हो सकता है और श्वेत रंग की महिला एक अत्यन्त अत्याचारी माँ भी हो सकती है और श्याम वर्ण व्यक्ति अत्यन्त करुणामय एवं उदार हो सकता है, इन चीज़ों का रंग से कोई सम्बन्ध नहीं। स्वभाव का व्यक्ति के रंग से कोई सम्बन्ध नहीं। काले रंग के लोगों से इतनी घृणा की गई है कि वे प्रतिक्रिया कर बैठते हैं और 'स्वाभाविक रूप से' कभी-कभी वे अत्यन्त अपरिपक्व और क्रूर ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं। परन्तु इस प्रकार का क्रूर चित्त, मानव के लिए इस प्रकार का गलत दृष्टिकोण, यह तो पशु भी सहन नहीं करेंगे। मानव के लिए ऐसा दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि अभी तक आप सहजयोग के योग्य नहीं हुए । तो आप में से कोई भी यदि रंग भेद करता है तो वह सहजयोग में गुरु नहीं हो सकता। भारत में जातिवाद है, जो कि समान रूप से भयावह है। इसमें न तो कोई विवेक है और न ही इसका कोई आधार है। परन्तु भारत में लोग मानते हैं, कि कुछ जातियाँ उच्च हैं और कुछ नीच। सभी जातियों के लोग कुकर्म कर सकते हैं, उसकी कोई सीमा नहीं। नीची जाति के लोग भी बहुत अच्छे हो सकते हैं। भारत में छोटी जाति के लोगों में भी बहत से महान सूफ़ी तथा कवि हो चुके हैं। ये जातियाँ मनुष्य की बनाई हुई हैं और आप तो जानते हैं कि मनुष्य की बनाई हुई बातें हमें रुचिकर नहीं हैं। मानव प्रदत्त विचार हमें पूर्ण विनाश की ओर ले जाएंगे क्योंकि घृणा-घृणा को बढ़ावा देती है। आप यदि घृणा छुटकारा से नहीं पा सकते तो मैं कहँगी कि आप सहजयोगी नहीं हैं। ये सब बन्धन हैं - आपने श्वेत परिवार में जन्म 26 लिया है इसलिए आप श्वेत हैं, आप ईसाई परिवार में जन्मे हैं, इसलिए आप ईसाई हैं। ऐसा केवल क्र होना आपके जन्म के कारण हैं। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप उच्च हैं या नीच। यदि आप देखें तो का एकमात्र उपाय आज विश्व की सभी समस्याएं मनुष्य के स्वयं को उच्च समझने के कारण हैं। इसे हम सामूहिक बनकर ही बदल सकते हैं। उदाहरणार्थ, आश्रमों में हम सभी रंगों के लोग समान अधिकार, सूझबूझ, प्रेम तथा स्नेह से रहें। ऐसा यदि नहीं है, तो इसे आश्रम कहने का कोई लाभ नहीं । एक बार इन लोगों ने मुझसे पूछा, 'श्रीमाताजी क्या आप हार्लेन में प्रवचन देंगी?' मैंने कहा , 'क्यों नहीं!' तो कुछ सहजयोगी कहने लगे कि, 'श्रीमाताजी आप नहीं जानती कि हार्लेन क्या है!' मैंने कहा, 'मैं जानती हूँ। कोई हानि नहीं है।' वे कहने लगे, 'आप जानती हैं कि यहाँ काले लोगा हैं और वे.....।' मैंने कहा, 'मैं भी श्याम रंग की हूँ। आप चाहें तो मुझे श्याम कहें चाहें तो श्वेत।' परन्तु प्रेम हमारे अन्दर के इस प्रकार के हास्यास्प्रद विचारों को शुद्ध कर सकता है। किसी को श्वेत या श्याम कहना यह दर्शाता है कि आपके पास देखने के लिए दृष्टि नहीं है। प्रेम से परिपूर्ण हृदय व्यर्थ की चीज़ों को नहीं देखता। आज के दिन हम गुरु की महानता का उत्सव मना रहे हैं। सभी गुरुओं की ओर देखिए, वे कैसे थे और किस प्रकार बर्ताव करते थे। भारत में तथा अन्य देशों में बहुत से सन्त हुए। इन सूफियें तथा सन्तों ने कभी जाति पाति में तथा श्याम और श्वेत रंग में कोई भेद नहीं किया। ईसा तथा बुद्ध ने कभी इन चीज़ों में विश्वास नहीं किया। ये सब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीज़ें हैं और हमने इन्हें स्वीकार कर लिया है तथा आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् भी इनसे चिपके हुए हैं। अब इनके विषय में बातें करने मात्र से हम इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करें। इसका एक बहुत सहज तरीका यह है, कि ध्यान में बैठकर आप यह देखें कि आप कितने लोगों को प्रेम करते हैं और क्यों। दया के कारण नहीं, केवल प्रेम के कारण। केवल प्रेम के कारण आप कितने लोगों की परवाह करते हैं ? मैंने इसके बहुत सुन्दर उदाहरण देखे हैं। परन्तु अभी तक कुछ ऐसे बन्धन हैं जिन्हें पूर्णत: त्यागना आवश्यक है और विशेषकर उस व्यक्ति के लिए जो सहजयोग में गुरु हैं। आपको शुद्ध एवं खुला हृदय और प्रेममय व्यक्ति होना होगा। सहजयोगी के हृदय को परम चैतन्य की धुन बजानी होगी। उसका हृदय यदि मानव प्रदत्त विचारों से परिपूर्ण होगा तो मैं नहीं जानती कि इसका परिणाम क्या होगा। हृदय प्रत्यारोपण करते हुए भी इन लोगों को वास्तविक हृदय लेना पड़ता है, मानव रचित नहीं। तो जब भी आप इन व्यर्थ के विचारों में फँसने लगें तो यह सोच लें कि यह कभी भी आपको सामूहिक न होने देंगे। अत: आपको अन्तर्दर्शन करना होगा। क्या हम एक हैं या एक दूसरे को ही तोल रहे हैं। सामूहिक रह कर ही हम यह सब देख सकते हैं। सामूहिकता में रहते हुए ही आप देखने लगते हैं कि आप में क्या कमी है, आप में क्या होना चाहिए । प्रेम से परिपूर्ण हृदय शान्तिदायक होता है। उस हृदय का हर क्षण 27 म आनन्ददायी है। श्रीराम की एक कहानी है कि उन्होंने वृद्ध शबरी के बेर बड़े प्रेम से खाए थे। यह क्या दर्शाता है। उच्च कुलीन राजा श्रीराम का नीची जाति की वृद्धा के प्रेम से दिए बेर खाना। यह दर्शाता है कि गुरु रूप में आपके व्यक्तित्व के स्तर को आपके शुद्ध तथा प्रेममय हृदय से और आपके उच्चतम व्यक्तित्व से आंका जा सकता है। व्यक्तित्व ऐसी चीज़ नहीं है जिसे बनावटी रूप से बनाया जा सके। यह बनावटी नहीं है, स्वाभाविक है, पूर्णतः स्वाभाविक। जो भी कुछ आप करते हैं वह स्वाभाविक होना चाहिए। तो बातचीत तथा रहन-सहन में यह बनावट बहुत सी समस्याओं को जन्म देती है। उदाहरणार्थ न्यूयार्क (अमेरिका) में हमारा एक आश्रम था, जहाँ एक स्त्री बहुत ही नियमनिष्ठ थीं। सब चीज़ टिपटाप होनी चाहिए-चम्मच वहाँ होने चाहिएं, काँटे वहाँ होने चाहिएं। उस र्त्री 28 ने बहुत से लोगों की भावनाओं को चोट पहँचाई। ऐसा करना आवश्यक नहीं है। सहजयोग में सांस्कृतिक बंधन महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि अब आप गुरु बन गए हैं और गुरु कहीं भी रह सकता है, कहीं भी और कहीं भी खा सकता है। ऐसा होना चाहिए। परन्तु सहजयोग में भी मैंने देखा है कि ज्यों ही खाना लगता है लोग एकदम इस पर टूट पड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे सामने खाना परोसा गया। कुछ देर बाद वे प्लेटें हटाने लगे तो मैंने पूछा कि क्या हुआ? मैंने तो अभी खाना है। 'ओह, श्रीमाताजी अभी तक आपने खाना नहीं खाया?' 'नहीं, अभी तो मैंने इसे छुआ भी नहीं।' तो भूख समसे निम्न कोटि की इच्छा है। एक गुरु इसकी चिन्ता नहीं करता । जो भी कुछ आप दें-ठीक है। जो भी कुछ आप देना चाहें ठीक है और न भी दें तो ठीक है। यह गुण आपने अपने अहम् का इलाज करके विकसित करना होता है। लोगों को | यदि आप किसी अन्य से बाद में खाना परोसें तो उन्हें बहुत चोट पहुँचती है। यह सब बेकार की चीज़ें मैंने सहजयोग में देखी है। वास्तव में तो यह अत्यन्त घटिया इच्छा है। यदि आप वास्तविक गुरु बनना चाहते हैं तो आपको इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करनी चाहिए। इससे, नि:सन्देह बहुत सी समस्याएं सुलझ जाती हैं। अभी तक, जैसा कि मैंने देखा है, सहजयोगी नशीली दवाओं, शराब तथा अन्य ऐसी चीज़ों को नहीं अपनाते। यह बहुत बड़ा वरदान है। यदि मुझे उस स्तर से कार्यारम्भ करना पड़ता तो, मैं नहीं जानती, मुझे कितनी गहराई में जाना पड़ता और कहाँ से आपको खींचकर ऊपर लाना पड़ता? परन्तु यह, वास्तव में बहुत अच्छी चीज़ है - बहुत ही अच्छी। अभी भी आपने जीवन की सुन्दरता, जो अन्य लोगों के चित्त को आकर्षित परन्तु कर सके, आपकी बातचीत, आपके आचरण और प्रेम व्यवहार पर निर्भर करेगी। तो यह कहना पड़ेगा कि गुरु पद केवल आपके प्रेम से ही प्राप्त हो सकता है। उदाहरणार्थ यदि आपने कोई नाटक मंचन करना हो जिसके लिए आप को दस व्यक्तियों की आवश्यकता हो और वे सभी व्यक्ति यदि आप किसी देश या समूह विशेष से लें तो उसमें कोई मजेदारी नहीं होती। संगीतज्ञों की एक मंडली भी उन्हें चाहिए होती है, तो वे एक विशेष जाति, धर्म या स्कूल से लेते हैं। तो इससे पता चलता है, कि आप अभी तक उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचे। गुरु रूप में आप को सभी प्रकार की संस्कृति और सभी प्रकार के सौन्दर्य अच्छे लगने चाहिए तथा यह बात हमारे रोज़मर्रा के जीवन में आनी चाहिए । रंग, जाति, पद तथा वर्ग के आधार पर आपको किसी का तिरस्कार 29 नहीं करना चाहिए। सभी गुरुओं तथा सन्तों के जीवन ने यही दर्शाया है। तुकाराम ने कहा था कि, 'हे आमूहि परमात्मा, आपका कोटि-कोटि धन्यवाद कि आपने मुझे निम्नजाति का बनाया।' वे निम्न जाति के नहीं गहनती प्राप्त करने थे। परन्तु उन्होंने ऐसा कहा। हम सबको भी सदा इसी बात में नहीं उलझे रहना चाहिए कि हमारा जन्म कौन से कुल में हुआ, हमारा व्यक्तित्व क्या है, या हमारा कितना ऊँचा नाम है। किसी को पता भी नहीं | लगना चाहिए कि कौन सन्त है और कौन नहीं है। लोगों को तो अपने सन्त होने का भी घमण्ड हो जाता है। अमेरिका में, मैं हैरान थी, कि रूप से जो लोग वहाँ गए हुए थे वे भिन्न प्रकार के ही लोग थे । वे अपनी आँखे उठाकर मेरी तरफ देखते भी न थे। परन्तु बहुत गहन थे, अत्यन्त गहन। उनकी चैतन्य लहरियाँ बहुत गहन थीं। संभवत: इसका कारण यह हो कि साम्यवाद के समय उन पर अत्याचार हुए हों और अब अमेरिका में आकर उन्होंने, तथाकथित स्वतन्त्रता तथा इसका अभिशाप देखा हो। तो यह दोनों चरम बिन्दु देखने के पश्चात्, में सोचती हूँ, वे अपने अन्तस में बहुत गहन चले गए हैं। उनमें परस्पर गहन एकता है तथा वे सशक्त हैं। मैं हैरान थी कि इससे पूर्व मैं उनसे कभी नहीं मिली। इससे पहले वे रूस से कभी नहीं आए। उनके इस प्रकार बने रहने का कारण यह था कि उनका कोई धर्म न था जो उनके मस्तिष्क में घुसा हुआ हो। सभी धर्म उनके लिए समान हैं। वे किसी धर्म के अनुयायी नहीं हैं। अतः गुरु किसी धर्म विशेष से जुड़ नहीं सकता क्योंकि यह धर्म भी मानव द्वारा बनाए गए हैं। इन धर्मों की वजह से चहूँ ओर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं और लोग परस्पर लड़ रहे हैं। किस प्रकार वे दिव्य हो सकते हैं? तो आप किसी भी प्रकार के धार्मिक पक्ष-पात में न फँसे। मैंने देखा है कि कोई सहजयोगी यदि ईसाई है, तो वह ईसाई मत के प्रति पक्ष-पात करता है, और यदि यहदी है, तो अपने धर्म के प्रति। तो सहजयोग में आने का क्या लाभ है ? उनका चित्त यदि अन्तर्मुखी होगा तभी वे जान पायेंगे। आपको स्वयं को यह देखने के लिए निर्देशित करना होगा कि आपमें क्या कमी है और गुरु रूप में आप अधिक सफल क्यों नहीं हैं। गुरु की सफलता क्या है : - वह समय की परवाह नहीं करता, सभी समय उसके लिए पावन होते हैं। उसे किसी के देर से या जल्दी आने की कोई चिन्ता नहीं होती, वह घड़ियों तथा समय का गुलाम नहीं होता। यह सब भी मानव रचित है। मेरे विचार में, तीन सौ वर्ष पूर्व घड़ियाँ नहीं होती थी और कोई भी समय के विषय में तुनकमिजाज नहीं होता था। तो पहली चीज़ यह है कि वह समय से परे होता है - कालातीत। वह गुणातीत होता है। गुणातीत का अर्थ है, कि उसकी प्रवृत्ति बायें, दायें या मध्य की ओर की नहीं होती। वह इन चीज़ों से, इन गुणों से परे होता है। हर चीज़ को वह दिव्य प्रकाश में देखता है। हर चीज़ को। यदि उसके साथ कुछ अच्छा घटित होता है तो वह कहता है : दिव्य ज्योति की कृपा से ही यह कार्य हुआ है। यदि उसके साथ कुछ बुरा घटित हो जाये तो वह कहता है कि 30 दिव्य ज्योति ऐसा ही चाहती थी क्र होना दिव्य प्रकाश के लिए ही वह सब कुछ छोड़ देता है। वह गुणों से परे है। मान लो कोई व्यक्ति का एकमात्र उपाय आक्रमक है, अहम् ग्रस्त है तो वह कहेगा, 'आह, यह कैसे हुआ? मुझे ऐसा चाहिए था, ऐसा नहीं हुआ।' और अब वह चुनौती देगा तथा आलसी प्रवृत्ति (बायीं ओर का) व्यक्ति रोने -बिलखने लगेगा कि, 'मुझे खेद है, कि मेरे साथ ऐसा घटित हुआ; ऐसा नहीं होना चाहिए था' आदि आदि। मध्य में रहने वाला व्यक्ति भी सोच सकता है कि, 'मेरी चैतन्य लहरियाँ कहाँ तक हैं? कैसे मैं न समझ पाया' आदि। परन्तु जो व्यक्ति सच्चा गुरु है वह इन घटनाओं को नाटक की तरह से देखता है, नाटक के मात्र एक साक्षी के रूप में। ऐसा घटित हुआ ऐसा होना था, इसलिए तो हुआ। तो हम इसमें से क्या निकालते हैं? वह इसमें से अवश्य कुछ निकालता है; एक शिक्षा (सबक) कि यह ठीक नहीं था या यह गलत था। बस इतना ही, उस क्षण के लिए अपने मस्तिष्क का मंथन न किये चले जाना; मात्र इतना ही व्यक्ति प्राप्त करता है तथा वह व्यक्ति किसी चीज़ के बारे में चिन्तित नहीं है। तो वह गुणों से ऊपर उठ जाता है। गुणों से वह परे है। कहीं भी वह खा सकता है, कहीं भी वह सो सकता है। उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि वह कहाँ रहता है। वह कार में चलता है या बैलगाड़ी में इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती। यदि उसका सम्मान न किया जाये तो भी उसे बुरा नहीं लगता और यदि उसको पुष्पमाल अर्पण की जाये तो भी वह अपने आपको सम्मानित महसूस नहीं करता। वास्तव में उसके व्यक्तित्व को कोई बाह्य चीज़ उच्च नहीं बना सकती। कुछ भी नहीं। आप उसे कोई साधारण सी चीज़ दे दें तो ठीक है और न दें तो भी ठीक है। अपना आकलन वह आपकी दृष्टि के माध्यम से नहीं करता । स्वयं को वह अपनी दृष्टि से आंकता है। स्वानंद के आनन्द को वह स्वयं अपने लिए देखता है। किसी चीज़ के बारे में मिजाज़ होने में क्या तुनक रखा है, किसी चीज़ के पीछे भटकने में क्या रखा है? सभी कुछ अपने समय पर हो जाता है और यदि नहीं होता तो नहीं होता। क्या फर्क पड़ता है? मात्र इसे सोचें। सहजयोग में गुरु को एक संयोजी शक्ति भी होना पड़ता है। मैंने देखा है कि दो प्रकार के लोग होते हैं। जो सम्बन्ध तोड़ने में ही लगे रहते हैं उनके लिए ऐसा करना बहत सुगम होता है। वे शिकायतें ही करते रहते हैं। परन्तु कुछ अन्य लोग होते हैं जिसमें लोगों को इस प्रकार से समीप लाने की शक्ति होती है, इतनी मधुरता से वे इस कार्य को करते हैं कि लोग परस्पर समीप आ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें क्षमा करना पड़ता है, स्वत: ही ऐसा हो जाता है तथा लोग इस प्रकार के व्यक्ति के समीप आ जाते हैं। मैं आश्चर्यचकित थी कि अमेरिका में बहुत ही कम सहजयोगी हैं। उन्होंने बताया कि पचास हज़ार डालर खर्च करके उन्हें पचास सहजयोगी मिले। एक सहजयोगी के लिए एक हज़ार डालर का खर्च! तो इतनी दुर्दशा है। फिर भी उन्हें खोजने के लिए जाना पड़ता है क्योंकि बहुत से साधक साधना के जंगल में 31 अब भी खोए हुए हैं। परन्तु मैंने सोचा, हो सकता है, कि यह एक वृत्त (गोल दायरा) हो । मूर्खता के इस आमूहि वृत्त को उन्हें पार करना है और तब निश्चित रूप से वे तत्व को देख सकेंगे। और ऐसा हआ। गहनती प्राप्त करने मेरे प्रवचन के लिए इस बार चार हज़ार लोग आये, उस देश में इतने लोग कभी नहीं आये। किसी को भी इतनी संख्या में इतने श्रोता नहीं मिले, परन्तु अभी भी बहुत से लोग नहीं आये। परन्तु उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया। तो शनै: शनै: मैं देख सकी कि अमेरिका में यह कार्य आरम्भ हो गया है। सहजयोगियों को भी केवल अपने घरों तथा निवास स्थानों के विषय में चिन्ता न करके पूरे हृदय से लोगों के पास जाना चाहिए। मैं तो कहूँगी कि जो भी सहजयोग जा सकें अमेरिका जायें और इस कार्य को करें। ऐसा भी हो सकता है कि जब बाहर के लोग आ कर सहजयोग बतायेंगे तो सम्भवत: वहाँ के लोग प्रभावित हों। झूठे गुरुओं की संख्या इतनी अधिक है, कि आप इनकी गिनती नहीं कर सकते। हैरानी की बात है, कि इन गुरुओं को भी वहाँ के लोगों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उन्होंने कष्ट उठाये हैं, अपना धन गवांया है, सभी कुछ फिर भी उन्होंने इन लोगों को स्वीकार किया है, 'कुछ भी हो वह हमारा गुरु है। तो मुलत: उनमें कुछ कमी है, कि वे नहीं समझ पाते कि किस चीज़ की आशा करनी चाहिए । मैंने एक पुस्तक लिखी है, शायद यह उन तक पहुँच पायेगी। परन्तु आप सब भी यदि अपने अनुभव आदि लिख सकते, उन्हें छपवा सकते, तो हो सकता है कि यह उनकी आँखें खोलने में सहायक होता। कुछ भी लिखते हुए आपको याद रखना है कि यह सहजयोगी के गुणों को दर्शाये। उन्हें पता चले कि आप कैसे हैं? उन्हें ऐसा न लगे कि उनका आंकलन किया जा रहा है, उन्हें घटिया कहा जा रहा है या उन्हें चोट पहुँचाने की कोशिश की जा रही है। परन्तु इस बात को ऐसे ढंग से कहें कि यह उनकी सहायता करे और उन्हें सुधारे। गुरु के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने विषय में कोई झूठे विचार न बना ले। वह चाहे गरीब परिवार से हो या धनवान परिवार से इसके विषय में उसे सचेत नहीं होना चाहिए। आप कबीर को लें। वह मात्र एक जुलाहा था, आप रै दास को देखें, वह एक साधारण जूते बनाने वाला था। भारत में यह अत्यन्त छोटी जाति मानी जाती है। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर कविता लिखी है। नामदेव दर्जी थे। इन सब लोगों ने अत्यन्त सुन्दर कविताओं के माध्यम से एक ही बात कही है। तो उन्होंने किस प्रकार यह उपलब्धि पायी? क्योंकि वे महान आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश कर गये थे। मैं जानती हूँ, कि आप लोग भी उसी प्रकार की सुन्दर कवितायें लिखते हैं, मैं जानती हूँ। परन्तु कुछ अच्छे कवी अत्यन्त जिद्दी तथा अहंकारी व्यक्ति भी हो सकते हैं। मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि आप इतनी सुन्दर कवितायें लिख रहे हैं और फिर भी आप अहम् से भरे हुए हैं। तो यह कविता आप में कहाँ से आ रही है? तो आपकी आत्मा ही सर्वप्रथम है, आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए, कि लोग कह उठें, 32 'हम वास्तविक गुरु से मिले हैं। इसके लिए, आप भली भांति जानते हैं, आपको न तो अपने परिवार क्र होना त्यागने हैं और न ही कुछ और, परन्तु यदि अब भी आप में अहम् विद्यमान है तो मैं नहीं जानती कि क्या का एकमात्र उपाय कहूँ। परन्तु आपको इससे छुटकारा पाना होगा। पूर्णत: सामूहिक रूप से भी अहम् का त्याग किया जाना चाहिए । सामूहिक रूप से। यह भी एक बात है, कि लोग गुप्त रूप से, अपने अन्दर, अहम् ग्रस्त हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है, कि लोगों को यह अति सूक्ष्म रोग है और वे इसमें फँसे रहते हैं । आज गुरुपूजा के दिन मुझे यह कहना है, कि व्यक्ति को कठिन परीश्रम करना होगा। बहुत कठिन परीश्रम! सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कहाँ तक आपने अपना समय सहजयोग को समर्पित किया है ? तभी आप गुरु पद को पा सकेंगे। मेरी ओर देखें, मैं एक घरेलु स्त्री हूँ, मेरा परिवार है, जिम्मेदारियाँ हैं, समस्याएं हैं। परन्तु इसके बावजूद भी मैं हर समय सहजयोगियों, सहजयोग और विश्व भर के मानवों के उद्धार के विषय में सोचती रहती हैं। न केवल किसी स्थान विशेष पर, विश्व भर में । तो आपका स्वप्न भी 6. विशाल होना चाहिए-अपने स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। ऐसा विशाल स्वप्न कि अपने परीश्रम से आपने हर स्थिति में, सभी प्रकार की समस्याओं के बीच विकसित होना है। एक बार जब आपका इस प्रकार का व्यक्तित्व बन जाएगा तो, आप हैरान होंगे, कि आप बहुत सी अच्छी चीजें घटित होने में सहायक होंगे। मैं जानती हूँ कि यहाँ ऐसे बहुत से सहजयोगी हैं जो इसके योग्य हैं। मैं वास्तव में उनसे बहुत प्रेम करती हूँ तथा वे भी मुझे बहुत प्रेम करते हैं। क्योंकि अब आप गुरु पद प्राप्त करने वाले हैं अत: आपको सावधान रहना है, कि गुरु होने का गुमान आपको न हो जाए। कभी नहीं। यदि ऐसा हो गया तो 'गुरु' का अहं आपमें जाग उठेगा । अत: आप निर्णय कीजिए कि 'मैं कुछ भी नहीं। मैं कुछ भी नहीं।' यदि आपमें इतनी नम्र भावना है, तो सभी समस्याएं सुलझ सकती हैं और सभी कुछ घटित हो सकता है क्योंकि आपका चित्त तथा आचरण अवश्य लोगों को प्रभावित करेगा। इसके अतिरिक्त सभी कुछ निष्प्रभावी होगा। केवल आप ही अन्य लोगों के लिए सहजयोग प्राप्त कर सकते हैं। अच्छा गुरु बनने की विधियों के विषय में बहुत कुछ बताया जा सकता है। परन्तु मैं सोचती हूँ कि यह सब में आगामी गुरु पूजा के लिए छोड़ दें। आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! 33 बुद्ध पूजा जैसा आप जानते है, गौतम थे। उनका जन्म राज परिवार में हुआ था। बड़े होकर भगवान बुद्ध उन्होंने मनुष्य को तीन तरह के दु:खों से कष्ट उठाते हुए देखा और वे सन्यासी बन गये। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इच्छाओं के कारण ही ये तीनों प्रकार की समस्या है तो उन्होंने कहा, कि व्यक्ति यदि इच्छाएं त्याग दे तो वह सभी समस्याओं से मुक्त हो जाएगा। (२०/५/१९८९, बार्सिलोना, स्पेन) एक बार एक लडका उनके पास आया और उनसे पूछा, 'श्रीमान क्या आप मुझे बुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे ?' उन्होने उत्तर दिया, 'मेरे बच्चे केवल ब्राह्मणों को दिक्षा दी जाती है अर्थात् आत्मसाक्षात्कारी लोगों हुआ?' लड़के ने उत्तर दिया, 'श्रीमन, मैं अपना कुल नहीं जानता। को ही। आपका जन्म किस कुल में वह लड़का अपनी माँ के पास गया और उससे पूछा, 'माँ मेरा कुल कौन सा है ? मेरे पिता कौन थे ?' माँ ने उत्तर दिया, 'मेरे बच्चे, मैं अत्यन्त गरीब महिला थी और मेरे पास जीवनयापन का कोई साधन न था, इसलिए मुझे बहुत से स्वामियों के साथ रहना पड़ा, में नहीं जानती कि तुम्हारे पिता कौन है ?' उसने कहा, 'नही!' वह लड़का भगवान बुद्धर के पास गया और भगवान ने उससे पूछा, 'आपके पिता कौन है? तुम्हारी जाति कौन सी है?' लड़के ने उत्तर दिया, 'श्रीमान , मेरी कोई जाति नहीं है, क्योंकि मेरी माँ ने बताया है उनके कई स्वामी थे और वे नहीं जानती कि किससे मेरा जन्म हुआ। अत: मैं अपने पिता को नहीं जानता।' भगवान बुद्ध ने उसे गले लगा लिया और कहा, 'तुम वास्तव में ब्राह्मण हो क्योंकि तुमने सत्य बात बता दी है। अत: सत्य ही उनके जीवन का सार तत्वहै। सर्वप्रथम हमें अपने प्रति ईमानदार होना पडता है और मुझे लगता है कि स्वयं के प्रति ईमानदार होना कुछ लोगों के लिए बहुत कठीण कार्य है। वे जानते है कि सत्य से पलायन किस प्रकार करना है। वो इस कार्य को करना जानते है। सत्य से बचने के लिए वे तर्क देते है और युक्तियाँ लगाते है, ये स्पष्टिकरण आप किसे दे रहे है? केवल अपने आपको? आपकी आत्मा का निवास आपके अन्दर है और आपके चित्त द्वारा यह ज्योतिर्मय हो गईहै। अब आप किससे तर्क कर रहे है? अपनी आत्मा से? ईसामसीह का सन्देश ये है कि हमने पुनरुत्थान प्राप्त करना है, परन्तु कैसे पुनरुत्थान प्राप्त करना है। सर्वप्रथम आपको अपने प्रति ईमानदार होना है। यह समझना सबसे जरूरी है कि आपका जाति ब्राह्मण है, आपको ब्रह्म का ज्ञान है, आप सर्वव्यापक शक्ति को जानते है, और इसे आपने महसूस किया है। आप सच्चे ब्राह्मण है और सच्चे ब्राह्मण होने के नाते आपको चुस्त होना है । (२०/५/१९८९, बार्सिलोना, स्पेन) 34 बन हमे अपने गुरु को सागर के रूप में मानते हैं। सागर हमारे पिता हैं| विश्व द्वारा डाली गई गन्दगी को अपने अन्दर ड्रबोकर बादलों के कुप में जब समूद्र आकाश में उठती है तो यह अत्यन्त शुद्ध एवं सुन्देर बन जाती है। (प. पू.श्रीमाताजी, देवी पूजा, धर्मशाली, २६.३.१९८५) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in की पृथ्वी तत्व बहुत ही पवित् तत्व है और सोख लेना ही उसकी शक्ती है। कोई भी तत्व सोख लेने में इतना सशक्त नहीं है। पृथ्वी हमारी माँ है। प.पू.श्री माताजी, पुणे, २६.२.१९७९ े ेु क कं 2ा0 ---------------------- 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt चैवन्य लहरी जुलाई-अगस्त २०१४ हिन्दी की ै। १० 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-2.txt इस अंक में परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि...४ सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय २१ बुद्ध पूजा ...३४ नम्रता सर्वप्रथम है। आपको विनम्र होना होगा , अत्यन्त विनम्र। प. पू.श्रीमात्ाजी, इटली १० जुलाई १९९७ 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt 51 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt दिल्ली, १२ मार्च १९७९ परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि ा कि 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt उसके लिए कुछ न कुछ घटना अन्दर होनी चाहिए, कुछ हॅपनिंग होनी चाहिए। ऐसा मैंने सबेरे बताया था आपसे मैंने। दूसरी और एक बात जरूरी है, कि परमात्मा की और आत्मा की उपलब्धि अगर एक-दो लोगों को ही हो, सिलेक्टेड लोगों को हो, और सर्वसामान्य अगर इससे अछूते रह जाये तो इसका कोई अर्थ ही नहीं निकलता। परमात्मा का भी कोई अर्थ नहीं लगने वाला, ना इस संसार का कोई अर्थ निकलने वाला है। इस क्रिएशन का भी कोई अर्थ नहीं निकलने वाला। ये उपलब्धि सर्वसामान्य की होनी ही चाहिए। अगर ये सर्वसामान्य की न हो और बहुत ही सिलेक्टेड लोगों की हुई तो वही हाल होगा जो सब का हुआ। जो ऐसे रहे उनको कभी किसी ने माना नहीं । और मानने से भी क्या होता है ये बताईये मुझे! समझ लीजिये कि कोई अगर बड़े राजा हैं, तो राजा हैं अपने घर में, हमको क्या? हमको तो कुछ मिला नहीं। हमको भी तो कुछ मिलना चाहिए। तब तो उसका मतलब होता है। इसलिये ये घटना घटित होनी ही चाहिए। इतना ही नहीं, ये सर्वसामान्य में अधिक होना चाहिए। काफ़ी लोगों होना चाहिए। साइन्स का भी मैंने बताया ऐसा ही तरीका होता है की कोई आप एक, बिजली का आपको पता लग गया, जिसको पता लगा होगा, वो अगर सर्वसामान्य के लिये नहीं उपयोग में आयेगी तो उस बिजली का क्या मतलब! आज जो सहजयोग की उपलब्धि है। सहज, तो कितने सालों से चले ही आ रहा है । जब से सृष्टि बनी, सहज ही बनी है सृष्टि। जैसे एक बीज होता है और उस बीज के अन्दर उसके अंकुर बने रहते है। सब चीज़ उसके अन्दर बनी रहती है। सारे लक्षण उसके अन्दर बने रहते हैं, जितने भी उसके अन्दर पेड़ निकलने वाला हैं। उसी प्रकार इस सृष्टि का सारा नक्शा ही माइक्रोस्कोपिक, पहले से ही बना हो और वो सारा बना हुआ, खिलता हुआ चला आ रहा है, सहज से ही। सहज माने, 'सह' याने आपके साथ और 'ज' माने पैदा हुआ। आप ही के साथ ये चीज़ पैदा हुई है। और जिस प्रकार पेड़ में एक-दो फूल पहले लगते हैं, लेकिन जब वृक्ष बड़ा होता है, बहार आती है, तब अनेक फूल लग के उसके अनेक फल हो जाते हैं। उसी प्रकार जो आज ये सहजयोग हमारे हाथ में नये आयाम में, डाइमेंशन में खड़ा हुआ है वो सर्वसामान्य के लिए है। असामान्य के लिए नहीं । इससे पहले तो अपने दिमाग से ये बात निकाल देना चाहिए कि हमें कैसे होगा भाई ? हम तो इसके योग्य हैं भी या नहीं है। ये घटना हमारे अन्दर घटित हो ही नहीं सकती। ऐसे दिमाग में बातचीत ले के पहले से आये हो तो उसे अपने जूते के साथ बाहर रख दीजिए । ये तो होना है ही । ये घटना होनी 6. 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt ही है। चाहे आज नहीं होगी कल जरूर होगी और हमें करना ही है। और आप इसके पात्र भी है। अब सत्पात्र ढूंढ के कहाँ तक घूमा-फिरा जाए? तुम्हारे घर एकदम सब से बढ़िया चीज़ हो और उसमें ही काम कर दिया तो कौनसी कमाल कर दिया! सो ये कभी नहीं सोचना कि ये चीज़ हमें होगी ही नहीं, पहली बात तो ये। इस मामले में कोई भी नव्व्हसनेस हो उसे निकाल दीजिए आप। क्योंकि हम तो मेहनत करेंगे और ये चीज़ होगी। अब दूसरी बात ये है कि शंका होती है कि, 'माँ, ये कौन होती है करने वाली? और हमने तो सुना था कि कुण्डलिनी की जागृति तो बड़ी ही कठिन चीज़ है। वो तो सर के बल खड़े होईये, हज़ारों वर्षों बाद हो जाती है।' सब लोग यही कहते हैं। पता नहीं क्या क्या चीज़ें लिख मारी है। लेकिन ये बात हमारे साथ नहीं। हो सकता है कि हम बड़े माहिर हैं इसके, कारीगर हैं। जानते हैं काम इसलिये कभी हमने आज तक देखा ही नहीं कि किसी ने कहा है कि, 'माँ, हमें पार करो' और किया नहीं। हर तरह के होते हैं प्रॉब्लम्स । बड़े परम्यूटेशन्स, कॉम्बिनेशन्स है इसके । प्रॉब्लम्स भी हैं। क्यों कि इन्सान ने अपने को गलत रास्तों में डाल रखा है। जरूरी नहीं कि वो खराब आदमी है, अच्छा आदमी होता है। पर धर्म में भी गलतियाँ हो जाती हैं। गलत जगह मथ्थे टिक जाते हैं। गलत लोगों को मान लेते हैं, चक्कर चलते हैं। आदमी बड़े शरीफ़ हैं बेचारे । बहत शरीफ़ आदमी हैं, कोई खराबी | नहीं है, ये चक्कर में आ रहे हैं। थोड़ी बेवकूफ़ी कर गये और क्या? और क्योंकि शैतान की जो शक्तियाँ इतनी ज़्यादा कार्यान्वित हैं कलयुग में, उसके चक्कर से मुश्किल से बचते हैं। बच्चे हैं न! हज़ारों की कुण्डलिनियाँ हमने जागृत करी हैं और आपकी भी कर सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं । लेकिन अगर हम कर सकते हैं तो इसके लिए आपको हमसे नाराज़ होने की भी कोई जरूरत नहीं। आज सबेरे ही मैंने बताया था कि अगर हम इसके कारीगर हैं तो कर लेते हैं, आप अगर इसके कारीगर हैं, हमसे अगर कोई कहे कि इसे ठीक करें तो हम तो नहीं कर सकते। इसका मतलब कोई हम नीचे नहीं हो गये, न हीं ऊंचे हो गये। हमसे अगर कहिए कि इसे चलाईये, तो हम इसे चला नहीं सकते। आप सतरह मरतबा सिखाईगा हमारे बस का नहीं। इतने हम इस मामले में बेकार हैं। लेकिन जिसको हम जानते हैं, वो काम जानते हैं, वो हम करते हैं और किया है और आप में भी घटित हो सकता है। इसलिये इस तरह की तैय्यारी कर के बैठ जाएं कि होना है, हम पात्र भी हैं और ये घटना होगी और सर्वसामान्य के लिए ये है, सिर्फ तैय्यारी रखनी चाहिए। अगर कोई दोष हो तो हमें बताना होगा। कोई परहेज करना हो तो बताना होगा। या कुछ आपने ऐसा परहेज गड़बड़ कर दिया हो तो उसके बारे में भी कहना होगा। तो लोग तो बात-बात में नाराज़ हो जाते हैं। 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt इन्सान भी अजीब है। अगर में आपसे कहूँ कि मेरे लिए आप तीन हजार रूपये लाईये, तो आप को कोई हर्ज नहीं, आप लाके फौरन दे देते हैं। लेकिन मैं कहूँ कि बेटा, ये जरा गलत काम हैं। इसको जरा छोड़ दो । तो बड़ा बुरा मान जाएंगे। फौरन पंडाल छोड़ के चले जाएंगे । तो हम तो माँ हैं, थोड़ा बहुत तो बताना पड़ेगा। इसका बुरा नहीं मानना, पहली बात। दूसरी बात ये है कि इसमें जमना होता है। आज आप आयें बहुत से लोग, कुछ लोग सबेरे आयें थे, वो फिर से आयें। सहजयोग में जमना होता है। क्योंकि जैसे एक पौधा होता है और इसकी जिवंत क्रिया होती है, उसे जमाना पड़ता है । पहले ही जैसे ही बीज अंकुरित होता है, तो कितना कोमल होता है सारा कुछ मामला, उसको बहुत संजोना पड़ता है, सम्भालना पड़ता है। फिर जब पेड़ अच्छे से जम जाए तो फिर चाहे कितने भी जोर से हवा चले, कोई भी आफ़त आ जाए, कितना भी झंझावात हो जाए कोई डर नहीं होता उसे। इसलिए ये चीज़ जानना चाहिए कि पाने के बाद आपको जमना है। तिसरी बात ये भी है कि बहुत से लोगों को भाषण सुनने की बहुत आदत हो गयी। एक साहब आये थे, वो तो मेरे ख्याल से गुरू शॉपिंग करते हैं। उनसे मैंने कहा कि, 'वो उन सब गुरूओं के पास जायें।' मेरे पास भी ऐसे आ गये झोला उठा कर के। गुरू शॉपिंग हो रहा है, तो आयें चलो यहाँ भी कुछ कर ही लो। सो, यहाँ मामला और हैं। यहाँ कोई आप शॉपिंग नहीं कर सकते। भाषण से मैं नहीं संतोष पाती हूँ। भाषण ठीक है। उसमें भी मैं आपकी कुंडलिनी मैं नचा रही हूँ और उठा रही हूँ। और पार जब तक आप नहीं होंगे , तब तक मुझे संतोष नहीं होने वाला। और आप भी क्यों इस झमेले में हैं? क्यों नहीं पार हो जाते ? आखिर तो वही पाने का है। उसी को जानने का है । लेकिन फँसे हुए सहजयोग इसीलिये नहीं जमता है कि लोग चाहते हैं, कि माँ को पैसा दे दो, कुछ तो भी करो ऐसा वैसा, कुछ करा दो, छुट्टी करो। हर एक गुरू ऐसे करते हैं और माँ को यहाँ पैसा नहीं दे पाये। माँ को आप जीत नहीं सकते जब तक आप पार नहीं हो और उसमें जमे नहीं। ये दो चीज़ होती हैं। लोग नहीं चाहते हैं। वो सोचते हैं, भाई, चलो ये तो मेहनत की चीज़ है । पार होते वख्त तो आपको कोई मेहनत नहीं करने की, उस वख्त नहीं। पार होने के बाद, आपको जमना पड़ता है और जमना चाहिए। समय आ गया है। ये समय की पुकार है। और इस समय की पुकार में अगर आप अपने को जागृत न करें तो बड़ी मुश्किल होगी बाद में। बहुत बड़ी मुश्किल होगी वो मैं आपको बताऊंगी। दूसरी बात ये भी है कि सहजयोग में लोग जमते नहीं। उसके बाद बीमारियाँ हो जाती हैं। उसके | 8 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt बाद वो मेरे पास आते हैं और कहते हैं, माँ, हमें ठीक कर लो। सहजयोग में आने के बाद लोगों ने डॉक्टरों के लिए दरवाजे बंद कर दिये। उनके घर नहीं जाते अब। सब तरह से ठीक हो सकता है। पर एक बात है कि अपने को जानने के बाद अपने में उतरना पड़ता है, समरस होना पड़ता है और पूरी अपनी शक्ति को इस्तेमाल करना होता है। ऐसे-वैसे लोगों के लिए सहजयोग नहीं है। 'जो कोई होगा माई का लाल वही माई से पाएगा।' ये मैं पहले से ही आपसे बता दूँ, आप बूरा नहीं मानना। तुकाराम ने कहा है, 'येर्यागबाळ्याचे काम नोहे।.......सहजयोग में उतरना हर किसी के बस का काम नहीं हैं। अब थोडा सा आपको मैं कुंण्डलिनी के बारे में बताती हूँ। हम यहाँ पाँच एक दिन हैं और, पाँच दिन में कुण्डलिनी के बारे में पूरा हम आपको बताते हैं। कल से आप थोड़ा कागज पेन्सिल भी लेके आईये, तो आप नोट भी कर सकेंगे, बातें जो में बता रही हूँ। पहले तो आपको यहाँ सामने दिख रहा है, ये परमात्मा ने हमारे अन्दर पूरी तरह से यन्त्र बनाया हुआ है। अब यन्त्र, जैसे संसार की चीज़ों को हम देखते हैं, उस तरह का ये मरा हुआ यन्त्र नहीं है, जिवन्त यन्त्र है। और जिसे सुरति कहते हैं, वही कुण्डलिनी है। आखिर हम, जो मानव स्वरूप हैं वो किसी न किसी बूते पर चल रहे हैं नं! ये (अस्पष्ट.... ) को देखिये , कितनी कमाल की चीज़ है, सारे शरीर का चलन-वलन कितना इफिशियन्ट और कितना सुन्दर है। सारे सृष्टि की रचना कितनी खुबी से की है। ये सारी चीजें कोई न कोई शक्तियाँ जो गुप्त हैं। वो गुप्त इसलिये हैं कि हमारा जो ग्रोस अटेन्शन है, हमारा जो जड़ चित्त है वो उसे नहीं जान पाता। उसके लिए सूक्ष्मता आनी पड़ती है। ये सूक्ष्मता पाना ही सहजयोग का लक्षण है। इस सटलनेस में उतरना ही सहजयोग का लक्षण है। जिसे कहते हैं कि अपने को पहचानना, आत्मा को पहचानना। जैसे मैंने सबेरे बताया आपसे कि आत्मा को पहचाने बगैर आपका भ्रम टूट ही नहीं सकता। और आप परमात्मा को जान ही नहीं सकते। जो कुछ भी आप उसके बाद जानते हैं, वो ज्ञान मात्र है, बोध नहीं है। बोध आत्मा को जानने के बाद होता है। इसलिये आत्मा को पहले जाना जाएगा। उसके बाद सारी बात समझ में आ जाएगी। अब ये जो कुण्डलिनी है, ये पूरा जो यन्त्र है, इसको मैं समझाती हूँ और फिर कुण्डलिनी के बारे में भी बताती हैँ? पहले तो जो ये लेफ्ट साइड में आप देखिए, कि सर के राइट हैंड साइड से जो शक्ति हमारे अन्दर में गुजर कर उतरती है लेफ्ट हैंड साइड में, इस शक्ति से हमारा अस्तित्व हैं, एक्झिस्टंस। ये सूक्ष्म शक्ति है, ये हमें दिखाई नहीं देती। ये हमारे सर से निकल के और हमारे रीढ़ की हड्डी में गुजर के और नीचे तक आती है। ये आँखों से ऐसी दिखायी नहीं देती। लेकिन जब रियलाइझेशन होता है तब आपको एक-एक शक्ति मैं दिखा सकूंगी। इस शक्ति का वहन करने वाली नाड़ी को हम लोग इड़ा 9. 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt नाड़ी या चंन्द्र नाड़ी इस प्रकार कहते हैं। ये सूक्ष्म शक्ति जब बाह्य में अपना आविर्भाव करती हैं, जब इसका एक्सप्रेशन होता है, मेनिफेस्टेशन होता है तो हमारी लेफ्ट सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम इससे बनती है। ये हमारी एक्झिस्टंस की, हमारे अस्तित्व की शक्ति है, और जब ये शक्ति सुप्त हो जाती है तो हमारी मृत्यू हो जाती है। इसीलिये इस शक्ति को लोग संहार शक्ति भी कहते हैं । संस्कृत में इस शक्ति को महाकाली शक्ति कहते हैं। अंग्रेजी में इसके शब्द नहीं क्योंकि अंग्रेजी में इस चीज़ का पता ही नहीं लगाया है कि इसके अण्डर करंट्स क्या है? सिम्परथैटिक और पैरासिम्पथेटिक नर्वस सिस्टीम के अण्डर करंट्स क्या है? उसका अभी तक पता ही नहीं लगाया है साइन्स ने। इसलिये इसके लिये अगर मैं महाकाली की शक्ति कहँ तो बड़े घबराने की बात नहीं है। हम लोग कोई अंग्रेज नहीं है। और दूसरी जो शक्ति हमारे अन्दर लेफ्ट हैण्ड साइड से गुजर कर के और राइट हैण्ड साइड पे आ जाती है इसे महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। इस शक्ति से हम अपने शरीर का चलन-वलन, शारीरिक क्रियायें और बौद्धिक क्रियायें, मेंटल अॅक्टिविटीज करते हैं। आप मैडिसन में लेफ्ट अॅण्ड राइट सिम्पर्थैटिक का फरक लोग नहीं लगा पाते। लेकिन ये दोनों दो चीज़ हैं। लेफ्ट से आपकी इमोशनल साइड होती है और राइट से आपकी मेंटल और फिजिकल साइड होती है। इसका फरक मेडिसीन में नहीं होता है। इसी के कारण डाइबेटिज जैसी बीमारी लोगों को समझ में नहीं आती और मैं बताऊंगी कि कैसे इम्बॅलन्सेस आ जाते हैं। और इम्बॅलन्स ये दो चीज़ का फरक समझ लेने से ही समझ में आता है कि एक नाड़ी जादा चलती है, एक कम चलती है। एक कम चलती है तो उसके कारण उसकी बीमारियाँ हो जाती है और जो ज़्यादा चलती है उसके कारण उस पे ऍग्रेषण भी हो जाता है। इम्बॅलन्स का सेन्स जो है वो तभी आता है जब उसके दो सीरे आप देख सकते हैं। सो राइट साइड में जो शक्ति है, उसका वहन करने वाली जो नाड़ी है, उसे पिंगला नाड़ी कहते हैं। इसको लोग सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इससे राइट साइड की जो सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम है उसका प्रादुर्भाव होता है। इसके बीचोबीच जो आप देख रहे हैं, नाड़ी है, इस नाड़ी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। ये नाड़ी जहाँ तक बनी हुई हमारे अन्दर में है, माने, ये पैरासिम्पथैटिक नर्वस सिस्टम को मैन्यूफेस्ट करती है। वहीं तक मनुष्य पहुँच पाया है। अब जो कुछ हम लोगों ने आज तक हासिल किया, हमारे उत्क्रान्ति में, इवोल्यूशन में अमीबा की दशा से इन्सान की दशा तक वो सारा हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टम में है। हमारी सेंट्रल नर्वस सिस्टीम जो है वो समझ लीजिए इस सब का रिफ्लेक्टर है। वो हमारे कॉन्शस माइंड में है। 10 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt जो लेफ्ट हैण्ड साइड की जो इड़ा नाड़ी है ये हमारे सुप्त चेतन को प्लावित करती है, माने, सबकॉन्शस को प्लावित करती है या उसको चलाती है। जैसे आप मुझ से कुछ बात सुन रहे हैं अभी अपनी कॉन्शस माइंड से सुन रहे हैं। लेकिन ये बात आपके चेतन, माने सबकॉन्शस में चली जाती है। ये काम जो है, लेफ्ट साइड की जो ये नाड़ी है ये करती है कि जो हमारी आपसे बात सुनी उसको फौरन उधर रख दिया सबकॉन्शस में। और इसीलिये इसे कंडिशनिंग लोग कहते हैं। वो दो प्रकार के हो सकते हैं, सुसंस्कार भी हो सकते हैं और कुसंस्कार भी हो सकते हैं । ने कुसंस्कार ही देखे हैं। उनकी आँख तो, मतलब ये, जो नॉलेज लेने का तरीका है इन लोगों का वो ऐसा है कि अंधेरी जगह है, आये जिनके हाथ में जो मिल गया वही लेके बैठ गये, यही सत्य है। अॅबुजेक्टिव जिसको कहते हैं। दूसरा तरीका ये है कि लाइट जला दिया अब सब देख लो। ये सूप्त जैसे लोगों सहजयोग का तरीका है। और ऐसे ज्ञान पाने का, किसी से सुनने का या साइन्स या किसी तरह से पाने | का अंधा तरीका है। तो उस तरीके से जब खोजा गया तो श्री . फ्रॉइड साहब अंधे तो थे ही और खुद भी दिमाग के कुछ, अजीब - उल्टे आदमी थे मेरे ख्याल से। उनके बारे में तो क्या-क्या गंदी बाते लोग बताते हैं। उन्होंने पकड़ लिया एक उसको और इसी पे काम किया। और वो कहने लगे कि जो कुछ भी आप इस तरह से किसी को मना करते हैं कि 'ये नहीं करो, वो नहीं करो , ऐसा नहीं करो, वैसा नहीं करो', उसे कंडिशनिंग हो जाता है। उससे आदमी जो है फ्री नहीं रहता । पर उन्होंने ये नहीं सोचा कि अगर किसी आदमी को किसी चीज़ को मना नहीं करो तो दूसरी नाड़ी उसकी बलवति हो जाएगी। पहली नाड़ी से सुपर इगो हमारे अन्दर बनता है। पहली जो नाड़ी है, इड़ा नाड़ी, इससे सुपर इगो बनता है, कंडिशनिंग से। और जो दूसरी नाड़ी है, इगो की जो नाड़ी है, जो कि राइट हैंड साइड की है उससे इगो बनता है। याने आप अब सरकारी नौकर हो गये साहब, तो आप किसी से ठीक मूँह बात ही नहीं करते। कुछ लोग मिनिस्टर साहब से मिलने गये, तो वहाँ एक साहब बहुत उछल-कूद कर रहे थे। बेचारे देहाती लोगों को समझ में नहीं आया। तो उन्होंने पूछा कि भाई, बात क्या है? तो कहने लगे कि, 'तुमको पता नहीं कि मैं पीए हूँ।' कहने लगे कि, 'भाई पहले ही बता देते कि आप पी कर आये हैं तो हम काहे को आप से बात करते।' तो ये चलता है इगो, ये इनकी समझ में नहीं आया, फ्रॉइड साहब कहते है कि लेफ्ट साइड को आप काटेंगे तो दूसरी साइड चढ़ जाएगी तो इगो खोपड़ी पर चढ़ जाएगा, सुपर इंगो पे। इगो और सुपर इगो इस तरह से हमारे सर में हैं। अब इगो, सुपर इगो थोड़ासा समझाते हैं कि आप लोग कोई मनोविज्ञान के नहीं, भगवान की कृपा से हैं। मनोविज्ञान में भी इसे माना गया है, इगो और सुपर इगो को। समझ लीजिए एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पी रहा है। अपने आनन्द में बैठा है। आनन्द में है। उसके बाद माँ ने उसे दूध 11 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt उठाया, दूसरी तरफ उसे ले जाना चाहे। तो उसका इगो जागृत हो गया कि ऐसा क्यों किया । तो माँ ने उसे डाँटा कि, 'नहीं बेटे, ऐसे नहीं करो।' तो उसका सुपर इगो जागृत हो गया। इस तरह से हमारे अन्दर इगो और सुपर इगो जैसे बलून जैसी चीज़ हमारे सर में इस तरह से इकठ्ठी हो जाती है। इगो के सामने से ले कर के यहाँ तक और सुपर इगो की पीछे से इस तरह से। अब ये दोनो जब जम जाती हैं यहाँ पर आ कर ठीक से तभी हमारा सर का जो फॉन्टनेल बोन का हिस्सा है ये बिल्कुल कैल्सिफाइड हो जाता है। बिल्कुल पक्का हो जाता है। तालू भर जाती है। तब हो गया, तब 'आप' आप हो गये, 'आप' आप हो गये, 'आप' आप हो गये तब छूट गया। सब अलग हो गये। सब के अपने अपने शेल बन गये। जैसे अण्डे के शेल बन जाते हैं वैसे इन्सान के भी शेल बन जाते हैं। वो इसलिये बनाये जाते हैं कि उसके अन्दर इन्सान पूरी तरह से अपनी स्वतंत्रता को पहचाने। उसका ठीक से उपयोग करे। उसको उपयोग करने के बाद वो समझे कि कौन सी चीज़ ठीक है और कौनसी बुरी। बहरहाल आदमी पर पूरी तरह से छोड़ा हुआ नहीं। बड़े बड़े संतों ने संसार में अवतार लिया और आपको समझाया कि ये धर्म है, ये नहीं करो, ये करो । वो क्या सब पागल थे ? हम लोगों ने तो उनकी जाति अलग बना के उनको किनारे पे बिठा दिया। सबेरे से शाम उनको नमस्कार करना, काम खत्म! अपने जीवन में उनकी बात सुनना हमारे लिए व्यर्थ है। आखिर उन्होंने क्यों कहा? ये बात उन्होंने क्यों कहीं? कि ऐसा ना करो, ऐसा करो , ये करने से वैसा हो जाएगा, वो करने से वैसा हो जाएगा। क्योंकि हम बहुत अकलमंद हैं नं! हम तो सब चीज़ साइन्स से जानेंगे। साइन्स होता ही क्या है? बहुत ही थोड़ा हिस्सा है इसके अंग का। मैं वो भी आपको बताऊंगी कि साइन्स से आप कितना छोटा सा हिस्सा जानते हैं। बहुत थोड़ा सा। पिंगला नाड़ी से जो पाँच तत्व आपके अन्दर गुजरते हैं, उससे पंचमहाभूतों को, आप उनके बारे में जानते मात्र है कि जैसे कि, पृथ्वी के अन्दर में ग्रॅविटी है, पर क्यों हैं? कैसे है? एक सवाल आप पूछे कि हम अमीबा से इन्सान क्यों बने ? क्या वजह है? अगर हम इसको बना रहे हैं। तो इन्सान पूछेगा कि आप इसे क्यों बना रहे हैं? आखिर इसका कोई अर्थ होगा! परमात्मा ने क्यों बनाया है हमको? आज एक बाइलॉजी के आये थें, वो कहने लगे कि, 'मुझे भगवान पे विश्वास नहीं।' मैंने कहा, 'आप पे मुझे आश्चर्य होता है।' कि बाइलॉजी वाले को विश्वास नहीं, तो , तो फिर हो गया। बाकि तो जड़ तत्व से काम करते हैं, कम से कम जो आदमी बाइलॉजी में है उसको तो सोचना चाहिए कि कितने खुबसुरती से मनुष्य को बनाया है भगवान ने! और इतने छोटे टाइम में बनाया है कि बड़े-बड़े बाइलॉजिस्ट हैरान है कि 'लॉ ऑफ चान्स' से तो आदमी बन ही नहीं सकता था। ज़्यादा से ज़्यादा एक अमीबा बन जाता। 12 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt तो हमारे उपर ये जिम्मेदारी परमात्मा ने दे दी, हमें उसने स्वतंत्रता दे दी कि हम स्वतंत्र रूप से जाने की अच्छा और बुरा क्या है? और जब हम अपने स्वतंत्रता में परमात्मा को स्वीकार करें तो वो आपको ये वरदान दे कि आप उसे भी जाने। इस प्रकार ये मशीन बनायी गयी और तैयार की गयी। लेकिन जब तक इसको मेन से आप ने नहीं लगाया तब तक इसका क्या अर्थ निकलेगा। इसी के अन्दर कॉर्ड बना देते है नं! इसी प्रकार आपके अन्दर जो कॉर्ड बनाया है वही कुण्डलिनी है। परमात्मा ने बना के पहले से रखा है। आपको बनाना वगैरे कुछ नहीं। आपको कुछ मेहनत नहीं करने की। जैसे कोई अंकुर होता है, प्रिम्युल होता है, उसी प्रकार परमात्मा ने आपके अन्दर इसका अंकुर रखा हुआ है, वही कुण्डलिनी है, टूँग्युलर बोन में है। अब बीच में गैप आप देखते हैं। यही गैप इन्सान की सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में अभी है। वो गैप ये है कि उसके हृदय में जो आात्मा है, उसके हृदय में जो स्पिरीट है उससे उसकी जो गॅप बनी हुई है वही ये गॅप है। हमारे अन्दर आत्मा है, वो सब कुछ जानता है, वो क्षेत्रज्ञ है। लेकिन वो हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में नहीं है, माने हमारे कॉन्शस माइंड में नहीं है । माने ये , कि हमने उसे जाना नहीं। वो हमें जानता है। इसलिये ये जो गैप है इसको बनाया गया है। क्योंकि इसी के अन्दर से कुण्डलिनी को उठना है। यही घटना, जो मैं हैपनिंग आपसे कहती थी, वो होती है, कुण्डलिनी अवेकनिंग, वो घटना है। पर ये मैकॅनिकल, जिसको आप मरा हुआ नहीं समझिये, ये जिवंत घटना है। जैसे कि एक बीज में अंकुर निकलता है, उसी तरह की ये लीविंग चीज़ है। इन्सान ने आज तक कोई लीविंग काम नहीं किया। किया है क्या? एक बीज में से एक अंकुर निकाल दीजिए। कोई पेड़ मर गया, आपने खंबा खड़ा कर दिया हो गये बड़े भारी आदमी। ये तो मरे को आप बदल रहे है, चाहे उसकी कुर्सी बनाओ, चाहे उसका कुछ बना लो। फिर वो कुर्सी पर बैठने लग गये। तो कुर्सी खोपड़ी पे बैठ गयी तो नीचे नहीं बैठ सकते और टंग रहे हैं। देखिए, आप पीछे में बैठे हुए लोग, जमीन पर बैठ नहीं सकते। ये हालत आ गयी। उसकी गुलामी शुरू हो गयी । ये मरे हुए काम से फायदा क्या हुआ आपको ? सारे मरे हुए तत्व का आप पता लगाते हैं। कोई जिवंत तत्व का आप पता लगायें कि कैसे होता है! एक अंकुर किस प्रकार एक बड़ा भारी पेड़ बन जाता है इसका पता आप लगा पाये हैं क्या? हजारों ऐसी चीज़ें आप चारों तरफ देखते हैं। हाँ ये आप कहते हैं, इस प्रकार हैं, इस प्रकार है, जो दिखायी देता है। पर वो घटना कैसे घटित होती है? सी आवाजें, इतनी ये बहुत सूक्ष्म घटना है। वो आप देख नहीं पाते, यहाँ तक आप जानते हैं कि बहुत हाय फ्रिक्वेन्सी में होती हैं कि आप सुन नहीं सकते। मनुष्य जिस दशा में बनाया गया है उस दशा में इस सूक्ष्म को वो नहीं जान सकता। लेकिन वो ऐसा बनाया गया है कि वो उसको भी जान ले। फिर मनुष्य ही जान सकता है। मनुष्य में ही ऐसा ही विशेष रूप से ब्रेन बनाया गया है जो त्रिकोणाकार है, जिसमें ये सारी घटनायें 13 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt घटित होती है। इसके अन्दर इगो और सुपर इगो इस तरह से मिलते हैं और मनुष्य में ही कुण्डलिनी इस प्रकार से बैठी रहती है और ये घटना सिर्फ मनुष्य में ही हो सकती है। अब आप सोचिये, ये सारी सृष्टि बनायी गयी, उसमें पृथ्वी विशेष रूप से बनायी गयी। उसमें वनस्पति बनायी गयी। और उसके बाद आपको बनाया गया। और आपको विशेष रूप से बनाया गया और उसमें इस तरह की सब चीज़ें रखी गयी और आप ही को ये अधिकार है कि परमात्मा को जाने और उसकी शक्ति को अपने अन्दर से वहन करें। यही आपका लक्ष्य है, यही आपका फुलफिलमेंट है। जब तक आपके अन्दर से परमात्मा की शक्ति वहन नहीं होगी। तब तक आपका कोई अर्थ नहीं निकलता, आपका कोई मतलब नहीं बनता और सारे सृष्टि का भी कोई मतलब नहीं बनता। ये हँपनिंग होना है और आज जो हो रहा है ये भी हिस्टॉरिकल चीज़ है। सब का संसार में आना भी स्टेप बाय स्टेप सब का जरूरी है। उसके बारे में कल बताऊंगी कि कैसे हर, बड़े-बड़े अवतार और जिनको हम प्रॉफेट कहते हैं, जिनको हम गुरू कहते हैं। किस प्रकार वो इस संसार में आये और उन्होंने क्या क्या हमारे अवेअरनेस में, हमारी चेतना में किस तरह से काम किया। वो कहाँ हमारे अन्दर बसे हये हैं वो सब मैं | आपको कल बताऊंगी। ये कुण्डलिनी यहाँ त्रिकोणाकार अस्थि में है या नहीं, ये तक लोगों को नहीं मालूम है और कुण्डलिनी पे इतनी बड़ी-बड़ी किताबें लिख देते हैं। बताईये मैं क्या करूँ? इतनी बड़ी-बड़ी किताबों में ये भी पता नहीं कि कुण्डलिनी कहाँ है। इसका अब कौन साक्षात करा सकते हैं? आप अपनी आँख से कुण्डलिनी का स्पन्दन देख सकते हैं। आँख से। चाहे आप पार हो चाहे नहीं, उसका स्पन्दन आप देख सकते हैं। उसका उठना-गिरना ऑँख से आप देख सकते हैं। अरे भाई, तुम्हारा, जैसे तुम्हारा श्वास चल रहा है ऐसे कुण्डलिनी का श्वास दिखायी देगा । त्रिकोणाकार अस्थि को आप ठीक से देखेंगे उसके अन्दर कुण्डलिनी ऐसे-ऐसे पनपते दिखेगी। आप देख लेना आपकी आँख से देख लेना। उस पे हमने फिल्म भी बनायी । जब कुण्डलिनी उठती है तो उसका स्पन्दन शुरू होता है। और कोई-कोई लोग ऐसे बढ़िया लोग होते हैं कि एकदम उठे और खट् उपर पहुँच गये। उनमें नहीं दिखता। जिनमें नाभि चक्र की पकड़ होगी, जो नाभि चक्र वहाँ पर है, उसकी जब पकड़ होती है तब कुण्डलिनी यूँ घूमती है, दिखाई देती है। इतना ही नहीं आपको ये भी दिखायी देगा, जब कुण्डलिनी उठती है, समझ लीजिए आपको लिवर ट्ूबल है, तब आपको दिखायी देगा कि लिवर की तरफ जा कर के वहाँ पर बंधन हो रहा है। आपको दिखायी देगी आँखों से, आप अगर स्टेथॅस्कोप लगाये तो आप उसको देख सकते हैं 14 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt कहाँ चल रही है। अंत में वो जा कर के यहाँ पहुँच जाएगी। इसलिये कबीर ने कहा, 'शून्य शिखर पर अनहत बाजी रे'। पल्सेशन उसका फील होता है। अनहत माने पल्सेशन होता है। फिर जब वो खुल जाती तभी वो पल्सेशन रूक जाता है और जो सब दर, सर्वव्यापी जो शक्ति है, जो कि सूक्ष्म, जिसे आप नहीं जानते, जिसे एक-एक पत्ता दुनिया का, एक-एक फूल, एक-एक फल और एक- एक इन्सान जिससे पूरी तरह से सम्भाला हुआ है, चलता है, उसी के आश्रय में है उस शक्ति से आप एकाकार हो जाते हैं। अभी तक तो आपने जाना ही नहीं, अभी तक आपको खबर ही नहीं उसकी सिर्फ पढ़ा हुआ है उसके बारे में, उसका अभी तक बोध नहीं हुआ। उसका बोध होना चाहिए। बगैर बोध हुए सब चीज़ बेकार। आप पहले से ही शक कर के बैठ गये। अरे भाई, इसमें शक करने की कौन सी चीज़ है। क्या इसके बारे में पहले लिखा नहीं लोगों ने। सबने बताया है। लेकिन अगर टाइम आ गया है सबको पाने का तो सबको मिलना ही चाहिए । लेकिन सब लोग नहीं लेते ये भी मैं जानती हैं। लेकिन उसकी बहुत सी वजह है । उसकी बहुत सी वजह है। अब ये जो सेंटर्स है, ये जो चक्र है, ये सूक्ष्म सेंटर्स हमारे अन्दर बहते हैं। ये सेंटर्स हमारे अन्दर हमारी जो उत्क्रान्ति है, इवोल्यशन हुई है उसके एक-एक टप्पे हैं, स्टेजेस हैं । पहले जब हम कार्बन थे, तो ये पहला चक्र है श्रीगणेश जी का। उसके बाद में जब ब्रह्मदेव ने सारी सृष्टि बनायी तो दूसरा चक्र है, जो ब्रह्मदेव का है, जो स्वाधिष्ठान का है, वो भी हमारे अन्दर है। उसी की वजह से हम सृष्टि बना सकते हैं। उसी की वजह से हम सोचते हैं, प्लैन करते हैं, थिंक करते हैं। उसके बाद नाभि चक्र है। नाभि चक्र से आपको मालूम है कि मछली से ले कर के इन्सान बनने तक जो कुछ भी हुआ है वो इसी गोल में हुआ है। इसकी मदद करने के लिए हमारे अन्दर जो बड़े-बड़े गुरू हो गये। जिनको कि आप जानते हैं, सॉक्रेटिस से ले कर कन्फ्यूशियस, मोजेस, राजा जनक, महम्मद साहब, नानक | साहब, कबीर ये सब जो बड़े-बड़़े गुरू हो गये ये सारे गुरूओं ने इस पर मेहनत की और मनुष्य धर्म बनाये। मनुष्य का धर्म है। अन्दर में, पेट में है उसके धर्म, बाहर नहीं है । जैसे ये जो सोना है, इसका धर्म है कि ये खराब नहीं होता, अनटार्निशेबल है। उसी प्रकार मनुष्य के दस धर्म पेट में बने हये हैं। अगर ये दस धर्म से मनुष्य चूक हो जाये तो उसकी कुण्डलिनी नहीं उठती भाई । इन धर्मों को फिर से ठीक करना पड़ता है। कुण्डलिनी को खुद आ कर के इनको ठीक करना पड़ता है, प्लावित करना पड़ता है। उसके बाद में ही कुण्डलिनी उठती है, नहीं तो सख्त होता है वहाँ पर । और ये जो काम है, ये काम 15 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt कुण्डलिनी करती है, आपको कुछ नहीं करना है, एफर्टलेस है । आप पैदा हुये, आपने कौनसा एफर्ट किया है या बीज में से पेड़ निकला बीज ने कौनसा एफर्ट किया है। उसने कौनसी किताबें पढ़ी। ऐसे ही ये जब जिवंत क्रिया है तो आपको कौनसा एफर्ट करना है। एफर्टलेस। सहज का मतलब होता है एफर्टलेस। और सहज, जन्म से आया है, इसका मतलब है आपके साथ पैदा हुआ। ये योग का अधिकार आपके साथ पैदा हुआ है। क्योंकि आप इन्सान है, आपका ये जन्मसिद्ध अधिकार है कि आप इस योग को प्राप्त करे, जिससे आप परमात्मा को जाने। ये आपका अधिकार है। लेकिन आप खुद ही नहीं चाहते अपने अधिकार को इस्तेमाल करने। उसे परमात्मा क्या करे? अब ये जो सटल सेंटर्स हैं, सूक्ष्म सेंटर्स, अगर आप इन सेंटर्स को पा लें और इनको आप अगर जागृत कर सकें तो आपकी तंदुरुस्ती वैसे ही ठीक हो जाए । एक बीमारी है, समझ लीजिए, क्या कहते हैं उसे, मल्टिपल सिरॉसिस कहते हैं । वो डॉक्टर लोग कहते हैं ठीक नहीं होती। हम कहते हैं सहजयोग से ठीक हो जाएगी। बिल्कुल ठीक १००% होती है। इसमें तीन चक्र हम देखते हैं जो कि खराब है, मूलाधार चक्र, नाभि चक्र और आज्ञा चक्र। ये तीन चक्र अगर हमने ठीक कर दिये तो ठीक हो जायें। एक चीज़ की खोज जब आप बाहर से करते हैं, समझ लीजिए एक पेड़ है। उसमें खराबी आ गयी। अब बाहर से उसमें आपने ठीक-ठाक किया भी तो कितनी ठीक-ठाक हो सकती है। पर अगर आप उसके जड़ से ही कोई चीज़ ठीक करना जाने तो पेड़ ठीक हो जाएगा। इसी तरह से कैन्सर की बीमारी हैं। कैन्सर की बीमारी भी आपकी इसलिये होती है कि आपकी जो सिम्पथैटिक नर्वस सिस्टीम है इसको बहुत इस्तमाल करते हैं। या तो इमोशनली करते हैं या बहुत ज़्यादा आप और वजह से करते हैं। कभी इरिटेशन हो जाता है, कभी इन्फेक्शन हो जाता है किसी भी वजह से आपके लाइफ में इमर्जन्सी बनी सिम्पथैटिक इमर्जन्सी जो होती है वो आप पे बनी रहती है। अगर रहे, तो जैसे यहाँ इमर्जन्सी का (अस्पष्ट) आता है वैसे ही इन्सान का हो जाता है। उस वख्त में पैरासिम्परथैटिक जो है हर समय आपका कैन्सर ठीक करती रहती है। आप का कैन्सर रोज होते ही रहता है। मतलब रोज आप इस्तमाल करते ही रहते हैं और उसको पैरासिम्पथैटिक ही फिट करती रहती है, बैलन्स करती रहती है। ये बीचोबीच है, सुषुम्ना नाड़ी। लेकिन जैसे ही समझ लीजिये ये लेफ्ट साइड है और राइट की सिम्पथैटिक है और राइट साइड की सिम्परथैटिक है। ये दोनो पूरी साइड है। अब लेफ्ट साइड समय चल रहे हैं इस तरफ से इस तरफ और जब ये टूट जाते हैं तो इसके अन्दर के जो देवता हैं वो भी 16 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt सो जाते हैं। फिर (अस्पष्ट) हो जाती है शुरू। ये एक सेल जो है बहुत बढ़ने लग जाता है। उससे दूसरे को लग गया वो भी बढ़ने लग गया। उसका सम्बन्ध सब से होता नहीं, पूरे से होता नहीं। पूरे शरीर से नहीं होता, एक अकेला आर्बिटरी बन गया। कैन्सर बन गया। अगर हम इस देवता को जागृत करते हैं कैन्सर ठीक होगा। अब देवता है या नहीं। लोग कहेंगे कि देवता में क्या विश्वास करेंगे। देवता हैं या नहीं। अब ये तो सहजयोग के बाद खुद ही देख लेंगे कि उनके नाम लेते ही चीजें ठीक होती है, तो देवता है। ये तो सहजयोग के बाद होगा। पर मेंटली भी हम समझा सकते हैं। जैसे अँड्रीनलिन और अॅसिटलीन दो केमिकल्स हैं। दो समझ लीजिए बिल्कुल डेड केमिकल्स हैं। लेकिन वो अपने शरीर में अजीब तरह से व्यवहार करते हैं। किसी को समझ ही नहीं आता । कहते हैं कि 'मोड ऑफ अॅक्शन' इनका, हम समझा नहीं सकते। मतलब इमानदार लोग हैं सब साइंटिस्ट, झूठे नहीं हैं। लेकिन उनकी अपनी मर्यादायें हैं, लिमिटेशन्स हैं, उसके हिसाब से बता रहे हैं कि हम ये नहीं बता सकते की कहीं जगह तो वो ऑग्ग्युमेंट करता है और कहीं रिलॅक्स करता है, समझ में नहीं आता है। एक ही चीज़ ये देवता लोग करते हैं। हमारे अन्दर अगर कोई फारेन मैटर चला जाए तो शरीर से फेंकने की कोशिश होती है। लेकिन पेट में अगर बच्चा होता है, वो पिंड जब उग जाए तो फेंका तो नहीं जाता है उसको। सम्भाला जाता है उसको। नर्चर किया जाता है, देखा जाता है और टाइम आने पर, बराबर टाइम भी कैसे बनता है, उस वख्त उसे फेक दिया जाता है। ये गणेश जी के काम। ये गणेश जी करते हैं। गणेश जी का तत्व हमारे अन्दर कार्य करता है। अब डॉक्टर लोग गणेश जी को नहीं मानेंगे, फोटो रखेंगे घर में जरूर। नानक जी का रहेगा, गणेश जी का रहेगा सब रहेगा। लेकिन गणेश जी हमारे अन्दर बसे हुये, यहाँ मूलाधार चक्र पे हैं ये नहीं मानने वाले। अब मैं क्या करूं बताईये! इनको कैसे सिखाया जाए? अब स्कोलियोसिस की वो लड़की जो आयी थी यहाँ पर, मल्टिपल स्कोलियोसिस, उससे मैंने सिर्फ कहा तुम श्रीगणेश जी का मंत्र बोलो, हमारे सामने । उनका ठीक हो गया। लेकिन आप कहेंगे तो नहीं होने वाला। क्योंकि आपको अधिकार होना चाहिए गणेश जी को जगाने का। लेकिन अगर आप पार हो जाए तो आपको भी अधिकार आ जाएगा। जब आप दिल्ली के सिटीझन हैं, तो आप दिल्ली के जो कुछ भी अधिकार है उससे पूरे हैं नं! अगर आप परमात्मा के साम्राज्य के सिटीझन हो जाएंगे तो गणेश जी क्या, हनुमान जी क्या, सब आपके सामने पूरी तरह से हाथ जोड़ के खडे हैं और कहेंगे, 'बेटे बोलो क्या करने का तुम्हारा काम, बोलो।' अब ये बात सही है या नहीं है इसका पड़ताला कर के देखना चाहिए। पहले परमात्मा के साम्राज्य में आ जाओ। ये पहली चीज़ है। नहीं तो उसके तो आप सिटीझन 17 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-17.txt नहीं हैं, आप तो 'गवन्मेंट ऑफ इंडिया' के हैं। उसके इफिशिअन्सी में रहिए। हम तो कह रहे हैं कि 'गवन्म्मेंट ऑफ गॉड' में आप आईये, फिर हम आपको बताते हैं बात, फिर देखिये कि आपके पॉवर्स कहाँ से कहाँ तक पहुँचते हैं। फिर तो कोई बीमारी आपको छूयेगी नहीं, कैन्सर वैन्सर तो छोड़ दीजिये। आप दूसरों के कैन्सर ठीक करियेगा। लेकिन पार हये बगैर कोई बात ही नहीं कर सकते हैं | नं! पॉइंट ये है कि पार तो होना चाहिए पहले। तभी सूक्ष्म में आप उतरते हैं। आप सूक्ष्म में जब उतर जाते हैं तो आप खुद ही उसको कंट्रोल कर लेंगे। आप खुद उस चीज़ को कंट्रोल कर सकते हैं । जिससे सारी सृष्टि कंट्रोल है। क्योंकि ये सर्वव्यापी शक्ति है। उसमें जैसे ही आप आ जाते हैं आपका अटेंशन ही, आपके सेंट्रल नर्वस सिस्टीम में से ही ये बहना शुरू हो जाता है। आपका जो हृदय है उसका स्पंदन आपके सेंट्रल न्वस सिस्टीम में से बहना शुरू हो जाता है। आपको वाइब्रेशन्स हाथ में से आते हैं, ठण्डी-ठण्डी, उसको चैतन्य लहरियाँ कहते हैं। जब वो आपके अन्दर से बहना शुरू हो जाता है, माने आत्मा आपके अन्दर से बहने लगता है, तब फिर आप जो भी करते हैं वो परमात्मा के ही साम्राज्य में कर रहे हैं। ये होना जरूरी है इन्सान में। फिर मुझे ये भी कहना नहीं पड़ता कि आप शराब छोडो, सिगरेट छोड़ो, कुछ भी। छोड़ना ही पड़ता है। छोड़ ही देते हैं। क्योंकि जब अन्दर का मजा आने लग जाए तो बाहर का मजा कौन उठायेगा। अब यहाँ जितने बैठे हैं नं, बड़े पियक्कड लोग थे पीछे में जितने लोग बैठे हये हैं । बड़े पक्के पियक्कड थे। पियक्कड तो क्या, आप लोगों को ठिकाने पहुँचा दे इस तरह से ड्रग्ज लेते थे ये। सब छोड़-छाड़ के आज मजे में बैठे है। ऑटामैटिक हो जाता है। उसको फिर कहने की कोई जरूरत नहीं रहती। जब अन्दर का आनन्द आने लग जाता है तो बाह्य की सब चीज़ें अपने आप छूट जाती है। मुझे तो कुछ कहना भी नहीं पड़ता खास। जैसे एक छोटी बात है कि जानवर को चाहे आप गन्दगी में से ले जाओ, लीद में से ले जाओ, गोबर में से ले जाओ, उसको बदबू नहीं आती, जानवर को। लेकिन इन्सान को ले जाओ तो उसको आती है ना। उसी प्रकार जब आप परमात्मा के साम्राज्य में जाते हैं तो आपकी चेतना ऐसी हो जाती है कि आपसे बर्दाश्त ही नहीं होता। आपके हाथ से बर्निंग सी आ जाएगी, अच्छा ही नहीं लगेगा ये सब! अपने आप ही ये चीजें छूट जाती है। और इसलिये जितनी भी आदतें हैं सब कुछ आपका अपने आप झड जाता है। उसमें मुझे कहना नहीं पड़ेगा । सब घटना अपने आप घटित होगी। आज आपके सामने सहजयोग के बारे में मैंने थोडी प्रस्तावना की है। कल इतनी जितनी भी गहरी बातें हैं सब बताऊंगी। मैंने कहा है कि कितना सूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम इसका ज्ञान है वो सब मैं आपको बताने को तैय्यार हँ। सारी विद्या यही है बाकि सब अविद्या है। आपके उंगलियों 18 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt के इशारे पे चीजें चलेंगी। आप अपने को पहले जान तो लो। आप अपनी शक्ति ही नहीं जान रहे हो । और फिर हतबद्ध हये बैठे हो। अभी तक आपकी मोटर शुरू नहीं हुई। मोटर शुरू करो , फिर पता चलेगा। उससे पहले ही आप दसरे काम कर रहे हैं। तो पहली चीज़ है ये घटना घटित होना। दूसरी चीज़ है इसमें जम जाना। तीसरी चीज़, पूरी विद्या को जान लेना। कौनसा चक्र कहाँ हैं? किस तरह से उस चक्र को चलाना है? किस तरह से ठीक करना है। बस तीन स्टेप्स होते हैं सहजयोग के। ये एक बार हो गये तो आप हो गये बड़े भारी सहजयोगी। और यहीं बैठे - बैठे करिश्मे करो, अपने के भी और दूसरों के भी और मजा उठाओ। क्योंकि आपके अन्दर से शक्ति बहती रहेगी पूरी समय। बा ॐ ० ना आ मय 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt सामूहिक होना गहती प्राप्त करने का एकमात्र उपाय कबेला, इटली, २० जुलाई १९९७ आज की पूजा हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आप सबको आत्मसाक्षात्कार मिल चुका है। आप सबके पास अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार प्रदान करने के लिए आवश्यक ज्ञान भी है, जो आप प्राप्त कर चुके हैं। उसके विषय में आपको जानना है। ऐसा करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि अगर आप इस ज्ञान का उपयोग नहीं करते और अन्य लोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं देते तो आपको स्वयं पर विश्वास नहीं होगा। आपमें आत्मसम्मान भी नहीं जागेगा। दुसरी बात यह है कि आज अन्य लोगों को आप चैतन्य तो दें, पर उनमें अधिक इन्व्हॉल्व्ह न हो। मैंने 21 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-21.txt लोग बहुत अधिक इन्व्हॉल्व्ह हो जाते हैं। एक व्यक्ति को साक्षात्कार देकर वे देखा है, कि कुछ आमूहि उसके समझते हैं कि उन्होंने बहुत महान काम कर दिया है। वे उस व्यक्ति पर, उसके परिवार पर, गहनती प्राप्त करने सम्बन्धियों पर कार्य करने लगते हैं। अब तक तो आप जान गये होंगे कि व्यक्ति के किसी से संबंधित होने या समीप होने का अर्थ ये नहीं है कि उसे भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने का उतना ही अवसर मिल जाए। सामूहिक होना गहनता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। इसके सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं। लोग यदि ये सोचें कि आश्रमों से दूर कहीं अकेले रहकर वे बहुत अधिक प्राप्त कर लेंगे तो सहजयोग में ऐसा नहीं होता। प्राचीन काल में लोग हिमालय में चले जाते थे, अलग-अलग तपस्या करते थे, परन्तु उनमें से कोई एक-दो ही आध्यात्मिक उत्थान के लिये चुने जाते थे। यहाँ पर आध्यात्मिक उत्थान का प्रश्न नहीं है, यहाँ तो सामूहिक उत्थान का प्रश्न है। इस प्रकार आप एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जो सामूहिक है, सामूहिकता का आनन्द लेता है, सामूहिकता के साथ कार्य करता है और सामूहिकता में रहता है। ऐसे व्यक्ति में नई प्ररकार की शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं । ये शक्तियाँ अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं, इतनी सूक्ष्म कि किसी भी अणु, परमाणु या मानव में प्रवेश कर सकती हैं। यह प्रवेश भी तभी सम्भव है जब आप स्वभाव से सामूहिक हों। बिना सामूहिक हुए आप वे ऊँचाईयाँ प्राप्त नहीं कर सकते जो आज सहजयोग के लिये आवश्यक हैं। आप जानते हैं कि चारों तरफ समस्यायें ही समस्यायें हैं, हमें ऐसा लगता है, मानों वह विश्व डूबने वाला हो। जब मैं अमेरिका गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वहाँ उन्होंने एक नर्क की सृष्टि कर दी हो। हे परमात्मा, उनका कोई धर्म नहीं है, धर्म में वे विश्वास ही नहीं करते। अधर्म की पूर्णत: पूजा करते हैं। इस प्रकार का वातावरण पूरे विश्व में बन गया है, पूरे विश्व में अमेरिका के अधार्मिक जीवन की प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। परन्तु लोग सोचते हैं कि इसमें कोई बुराई नहीं। आप उन्हें कुछ भी बतायें वे विश्वास नहीं करते, सोचते हैं कि इसका कोई मूल्य नहीं। अपने जीवन, अपने परिवार तथा समाज के मूल में छिपे विनाश को वे नहीं देखते। पूरा देश, मुझे लगता है, ऐसे घिनौनी अधार्मिक प्रकृति से भरा हुआ है, कि व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता कि इस प्रकार के विचार इनके मस्तिष्क में कैसे आते हैं। ये विचार मैं आपको नहीं बताऊंगी, आप इन्हें भलि-भाँति जानते हैं। परन्तु यदि आप अपने बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं, तो आपको स्वयं एक आदर्श गुरू बनना होगा। इन शक्तियों के अपने अन्दर जागृत हुए बगैर यदि आप सहजयोग की बात करते हैं, स्वयं को सहजयोगी समझते हैं, या सहजयोग का प्रचार करते हैं, तो यह सफल न होगा। तो हमें देखना होगा, कि किस प्रकार हम इन शक्तियों को अपने अन्दर विकसित करें । 22 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-22.txt आपको यह बताना है, कि अपने गुरू के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करें। मेरे लिए बहुत उलझन क्र होना वाली बात है। ज्यों ही आपको आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होता है और आप इसमें उतर जाते हैं, तो परन्तु का एकमात्र उपाय स्वत: ही आपका दृष्टिकोण नम्र होने लगता है, जिसके माध्यम से आपमें गुरु के बहत से विकसित होने लगते हैं। मान लो कि गुरु उँचे स्थान पर बैठा है, तो आपको चाहिये कि उससे नीचे बैठें । कुछ लोग गुण मेरे अच्छे स्वभाव का अनुचित लाभ उठाते हैं। बहुत से लोग मुझे कहते हैं, कि 'आप अपने शिष्यों को सुधारें, वे आपसे बराबर के स्तर पर बात करते हैं।' मैंने कहा, 'उन्हें सबक मिल जाएगा, उन्हें सबक मिल जाएगा।' परन्तु कभी-कभी ऐसा नहीं होता और वे इस प्रकार बातें करने लगते हैं, मानों किसी मित्र से या समान व्यक्ति से कर रहे हों। नम्रता सर्वप्रथम है। आपको विनम्र होना होगा, अत्यन्त विनम्र। अब आप इस बात को जाँचें : दूसरों से बातचीत करते हुए क्या आप नम्र होते हैं? दूसरों के विषय में सोचते हुए क्या आप विनम्र होते हैं? अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल करते हुए क्या आप विनम्र होते हैं? स्वयं को गुरु समझने वाले हर व्यक्ति के लिए यह गुण आवश्यक हैं। नम्रता प्रथम गुण है, या मैं कहूँ, एक सागर है जिसमें आपको कूदना होगा। कुछ लोग सोचते हैं, 'श्रीमाताजी यदि हम विनम्र होंगे, तो अन्य लोग हमारा लाभ उठायेंगे।' कोई आपका अनुचित लाभ नहीं उठा सकता। आपको एक अन्य बात भी याद रखनी है, कि आप सुरक्षित हैं और परम चैतन्य आपकी देखभाल कर रहा है। आप इस बात को जानते हैं, परन्तु वास्तव में कितने लोग हैं जिन्हें ये विश्वास है, कि परम चैतन्य हमारे साथ है। वास्तव में यदि आपको यह विश्वास है, कि परम चैतन्य है, तो न तो आप घबराते हैं और न चिन्तित होते हैं और न ही सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण विचार आप में आते हैं। परन्तु स्वयं को असुरक्षित मानते हुए यदि आप सोचते हैं कि क्या होगा? कैसे सबकुछ चलेगा ? तो परम चैतन्य आपको अकेला छोड़ देता है। आपको सारा नाटक देखना है, कि किस प्रकार परम चैतन्य कार्य करता है, किस प्रकार ये सब कुछ चलाता है और किस प्रकार आप व्यवहार कर रहे हैं। मान लो, आपकी स्थिति ठीक नहीं हैं और आप बहुत अधिक दिखावा करते हैं, तो क्या होता है? तो आपको इसका इनाम मिलता है; ऐसा नहीं है, कि मैं कुछ करती हूँ परन्तु परम चैतन्य आपको सबक सिखाएगा, ऐसा सबक कि आप याद रखेंगे, कि आपको एक भिन्न प्रकार का व्यक्ति होना चाहिए था। हमें समझना चाहिए कि हम सहजयोग में क्यों आए हैं। इसकी जड़ों से आरम्भ करें। हम सहजयोग में क्योंकि हम पूर्ण सत्य को जानना चाहते थे और अब अपनी चैतन्य लहरियों के माध्यम से आप इस सत्य को जान गए हैं। आपको सभी कार्य चैतन्य लहरियों पर पूर्ण सत्य को जैसा भी आप महसूस करते हैं आपको उसका अनुसरण करना चाहिए। परन्तु कई बार मैंने देखा है, कि दुर्भाग्यवश बहुत से लोग सोचते 23 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-23.txt हैं, कि उनकी लहरियाँ ठीक हैं। वे ठीक हैं, और जो भी कुछ उन लहरियों पर वे प्राप्त कर रहे हैं, वह बहुत आमूहि अच्छा है। अब इसे कैसे ठीक किया जाए? यह अत्यन्त कठिन कार्य हैं। अहम् के कारण ऐसा होता है। गहनती प्राप्त करने जब आप अहम् ग्रस्त होते हैं तो आपको स्वयं में कोई दोष नहीं नजर आता। तब यदि लहरियाँ भी आपकी कुछ बता रही हैं तो हो सकता है कि कोई अन्य ही आपको बता रहा है क्योंकि आप तो वहाँ हैं ही नहीं, केवल आपका अहम् वहाँ है और आपका अहम् आपको बिगाड़ रहा है तथा ऐसी बात सिखा रहा है, जिन्हें सर्वसाधारण स्थिति में आप स्पष्ट देख लेते कि, 'मैं कुछ अनुचित कर रहा हूँ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।' इस शुद्धिकरण तथा सुधार की प्रक्रिया में जब आप लग जाते हैं, तो आपको देखना चाहिए कि आप सूक्ष्म हो रहे हैं या स्थूल। आंकलन की यह सर्वोत्तम विधि है। मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो छोटी-छोटी चीज़ों पर चैतन्य लहरियों को आंकते रहते हैं। इस पेड़, इन फूलों, इस लैम्प या इन भौतिक चीज़ों की चैतन्य लहरियां ठीक हैं या नहीं। परन्तु किसलिए आप चैतन्य लहरियाँ देखना चाहते हैं? भौतिक लाभ के लिए आप चैतन्य लहरियाँ देखते हैं। आप सोचते हैं, कि यदि चैतन्य लहरियाँ ठीक होंगी तो आप सुरक्षित हैं, आपको कोई हानि न होगी। यह सत्य नहीं है, क्योंकि चैतन्य लहरियाँ सांसारिक वस्तुओं और सांसारिक मामलों को आंकने के लिए नहीं होती। चैतन्य लहरियों का यह सबसे घटिया अर्थ है। हमें चैतन्य लहरियों को घटिया नहीं बनाना चाहिए क्योंकि चैतन्य लहरियाँ ऐसा मार्गदर्शन भी कर सकती हैं, जो हमारे उत्थान के लिए बहुत ही हानिकारक हो सकता है। एक बार मैंने किसी सहजयोगी को कहीं भेजना चाहा, पर उसने कहा, 'श्रीमाताजी मैं वहाँ नहीं 'इसलिए गया।' मैंने पूछा, 'क्यों?' 'क्योंकि मुझे लगा कि चैतन्य लहरियाँ बहुत खराब थीं। मैंने कहा, तो मैंने तुम्हें वहाँ जाने के लिए कहा था। यदि चैतन्य लहरियाँ ठीक होती तो तुम्हारा वहाँ जाने का क्या लाभ होता ?' तुम्हें वहाँ भेजने का लक्ष्य तो यह था कि तुम वहाँ कुछ मदद कर सको, परन्तु इससे पूर्व ही तुमने अपनी चैतन्य लहरियों पर निर्णय कर लिया और वहाँ गए ही नहीं। तो होता क्या है, कि हम अत्यन्त सहज एवं सुखमय जीवन प्राप्त करना चाहते हैं, तथा यह भी चाहते हैं, कि हमारी सारी समस्याएं सहजयोग द्वारा ही सुलझनी चाहिएं। जो भी हमारी इच्छा हो वह पूर्ण होनी चाहिए अन्यथा हम सोचते हैं कि सहजयोग किसी काम का नहीं । और इच्छाएं भी अधिकतर व्यक्तिगत होती हैं। मेरा बच्चा ठीक नहीं है, वह ठीक हो जाना चाहिए, मेरे पति का आचरण ठीक नहीं है, मेरा पति ठीक हो जाना चाहिए, या मेरे मकान नहीं है, मुझे मकान प्राप्त हो जाना चाहिए। एक ग्राहक की ১১ तरह से हम अपने को चलाते रहते हैं। हर समय हम सोचते रहते हैं, अब मुझे लड़की की जगह लड़का 24 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-24.txt मिल जाना चाहिए और यदि पुत्र न मिला तो सहजयोग को दोष देते हैं। आप की इच्छानुरूप यदि कोई कार्य नहीं होता तो आप सोचते हैं कि सहजयोग के कारण ही आपको हानि हुई है और सहजयोग के क्र होना का एकमात्र उपाय कारण आप कष्ट उठा रहे हैं। आपका विश्वास सहजयोग के प्रति गहन नहीं है। यदि सहजयोग में आपका विश्वास गहन हो तो आप कहेंगे, 'जो मर्ज़ी हो मैं सहजयोगी रहँगा।' मान लो, किसी की मृत्यु हो जाती है, यद्यपि सहजयोग में प्राय: लोगों की मृत्यु जल्दी से नहीं होती, वे यदि मरना भी चाहें तो नहीं मरते। परम चैतन्य ही इसका निर्णय करते हैं। परन्तु मान लो कि आप ऐसी इच्छा कर भी लें तो भी वह पूर्ण नहीं होती। जब यह पूर्ण नहीं होती तो आप परेशान हो जाते हैं और सोचते हैं, 'कि गलती क्या है?' परन्तु आपकी इच्छा परमात्मा की इच्छा है। उदाहरणार्थ में अमेरिका गई और वहाँ मुझ पर नकारात्मकता का आक्रमण हुआ और मुझे कष्ट पहुँचा। इन दिनों में परेशान रही, मुझे काफ़ी दर्द तथा अन्य प्रकार की तकलीफें थीं। परन्ती ये कष्ट मुझे भुगतना ही था क्योंकि अब अमेरिका के सहजयोगी इस बात को महसूस करेंगे कि उनके झुके हुए सिर उठाने के लिए कितना बलिदान करना है। पैसा ऐंठने वाले लोगों से जो लोग प्रभावित हों वे कितने मूर्ख हैं। बहुत से लोग मेंरे पास आए | पड़ता और कहने लगे कि, 'श्रीमाताजी यदि आप कहें कि मैं ३०० डालर लेती हूँ तो आपको यहाँ हजारों शिष्य मिल जाएंगे।' मैंने कहा, 'वे शिष्य नहीं होंगे।' ऐसे लोग तो पूर्णतया मूर्ख होंगे। सहजयोग आप पैसे से प्राप्त नहीं कर सकते। यह पहला सिद्धान्त है, जिसे उन में से अधिकतर लोग नहीं समझते, उनकी समझ में नहीं आता कि बिना धन दिए वे आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लेना कैसे सम्भव है?' यह सम्भव नहीं है क्योंकि यह बहुत कठिन कार्य है। सभी शास्त्रों ने और सभी लोगों ने कहा कि आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना कठिन कार्य है। तो आप इतनी सुगमता से किस प्रकार प्राप्त कर रहे हैं। कोई नहीं जानता था कि इन लोगों को किस प्रकार उत्तर दिया जाए। आपको यह कहना चाहिए था, 'ठीक है, यह कठिन है, बहुत कठिन है और यह सच है, कि सामूहिक रूप से इसे दिया भी नहीं जा सकता। परन्तु यदि कोई ऐसा कर रहा है, तो आपको इसके विषय में सोचना चाहिए कि वह कैसे कर रहा है?' तो इस प्रकार मूर्खतापूर्ण प्रश्न हैं और इनके उत्तर में आपको अत्यन्त नम्रतापूर्वक बताना चाहिए कि, 'श्रीमन, यह कार्य करने के लिए व्यक्ति में इसकी योग्यता भी होनी चाहिए।' तो लोग तो उनके पीछे भाग रहे हैं, जो उनसे धन ऐंठ रहे हैं और उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं। लोग डींग मारते हैं, कि हमारे तीन गुरु हैं, हमारे सात गुरु हैं। उनकी दशा पर मुझे हैरानी होती है। तो वे लोग, जिन्हें संस्कृत में मूढ़ कहते हैं, जो मस्तिष्क विहीन हैं, उन्हें साक्षात्कार नहीं मिल सकता। अत: उन्हें छोड़ दीजिये। वे यदि आपसे बहस भी करें तो आप उन्हें छोड़ दें। आपसे बहस करना उनका अधिकार नहीं हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना उनका अधिकार है, परन्तु आपसे बहस करना या 25 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-25.txt मूर्खतापूर्ण प्रश्न करना उनका हक नहीं है। आपको सदा याद रखना है, क्योंकि आप गुरु हैं। एक बार जब आमूहि आप जान जाते हैं कि आप गुरु हैं, तो आप विदूषक की तरह से बताव नहीं करते, आपका आचरण गहनती प्राप्त करने गरिमामय होना चाहिए। आपका व्यक्तिगत भी मनोहर होना चाहिए, लोगों को चिढ़ाने वाला नहीं । आपका व्यक्तित्व ही दर्शायेगा कि आपमें कुछ विशिष्ट है। इस प्रकार का व्यक्तित्व आप किस प्रकार विकसित करेंगे? पश्चिम में अहम् सबसे बड़ी समस्या है और पूर्व में प्रति-अहम्। मैं नहीं जानती यह अहम् की समस्या कहाँ से आयी! जीवन के सभी कार्यों में वे दर्शाते हैं कि वे कितने अहंकारी हैं। उदाहरणार्थ मैं अमेरिका गयी तो देखकर हैरान हुई कि वहाँ एक सामाजिक समस्या है, कि वे लोग श्वेत तथा श्याम रंग के लोगों से भिन्न प्रकार का बर्ताव करते हैं। रंग तो परमात्मा की देन है, कोई श्वेत होगा और कोई श्याम। यदि सभी लोग एक से हों तो यह पल्टन सी लगेगी । कुछ वैचित्र्य तो होना ही चाहिए, शक्लों तथा अभिव्यक्ति में भी कुछ भिन्नता तो होनी ही चाहिए । व्यक्ति को भिन्न या अच्छी अभिव्यक्ति वाला होना चाहिए अन्यथा आप ऐसे संसार में होंगे जहाँ सभी एक से दिखाई देंगे। परन्तु वहाँ इतना समाजवाद है कि मैं हैरान थी कि यह किस प्रकार मानव मस्तिष्क में बैठ पाया। तो इस प्रकार के समाजवाद के लिए आपके मन में घृणाभाव आ जाना चाहिए। यह समझना तो अत्यन्त सुगम है कि श्वेत रंग का व्यक्ति भी अत्यन्त अत्याचारी स्त्री या पुरूष हो सकता है और श्वेत रंग की महिला एक अत्यन्त अत्याचारी माँ भी हो सकती है और श्याम वर्ण व्यक्ति अत्यन्त करुणामय एवं उदार हो सकता है, इन चीज़ों का रंग से कोई सम्बन्ध नहीं। स्वभाव का व्यक्ति के रंग से कोई सम्बन्ध नहीं। काले रंग के लोगों से इतनी घृणा की गई है कि वे प्रतिक्रिया कर बैठते हैं और 'स्वाभाविक रूप से' कभी-कभी वे अत्यन्त अपरिपक्व और क्रूर ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं। परन्तु इस प्रकार का क्रूर चित्त, मानव के लिए इस प्रकार का गलत दृष्टिकोण, यह तो पशु भी सहन नहीं करेंगे। मानव के लिए ऐसा दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि अभी तक आप सहजयोग के योग्य नहीं हुए । तो आप में से कोई भी यदि रंग भेद करता है तो वह सहजयोग में गुरु नहीं हो सकता। भारत में जातिवाद है, जो कि समान रूप से भयावह है। इसमें न तो कोई विवेक है और न ही इसका कोई आधार है। परन्तु भारत में लोग मानते हैं, कि कुछ जातियाँ उच्च हैं और कुछ नीच। सभी जातियों के लोग कुकर्म कर सकते हैं, उसकी कोई सीमा नहीं। नीची जाति के लोग भी बहुत अच्छे हो सकते हैं। भारत में छोटी जाति के लोगों में भी बहत से महान सूफ़ी तथा कवि हो चुके हैं। ये जातियाँ मनुष्य की बनाई हुई हैं और आप तो जानते हैं कि मनुष्य की बनाई हुई बातें हमें रुचिकर नहीं हैं। मानव प्रदत्त विचार हमें पूर्ण विनाश की ओर ले जाएंगे क्योंकि घृणा-घृणा को बढ़ावा देती है। आप यदि घृणा छुटकारा से नहीं पा सकते तो मैं कहँगी कि आप सहजयोगी नहीं हैं। ये सब बन्धन हैं - आपने श्वेत परिवार में जन्म 26 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-26.txt लिया है इसलिए आप श्वेत हैं, आप ईसाई परिवार में जन्मे हैं, इसलिए आप ईसाई हैं। ऐसा केवल क्र होना आपके जन्म के कारण हैं। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप उच्च हैं या नीच। यदि आप देखें तो का एकमात्र उपाय आज विश्व की सभी समस्याएं मनुष्य के स्वयं को उच्च समझने के कारण हैं। इसे हम सामूहिक बनकर ही बदल सकते हैं। उदाहरणार्थ, आश्रमों में हम सभी रंगों के लोग समान अधिकार, सूझबूझ, प्रेम तथा स्नेह से रहें। ऐसा यदि नहीं है, तो इसे आश्रम कहने का कोई लाभ नहीं । एक बार इन लोगों ने मुझसे पूछा, 'श्रीमाताजी क्या आप हार्लेन में प्रवचन देंगी?' मैंने कहा , 'क्यों नहीं!' तो कुछ सहजयोगी कहने लगे कि, 'श्रीमाताजी आप नहीं जानती कि हार्लेन क्या है!' मैंने कहा, 'मैं जानती हूँ। कोई हानि नहीं है।' वे कहने लगे, 'आप जानती हैं कि यहाँ काले लोगा हैं और वे.....।' मैंने कहा, 'मैं भी श्याम रंग की हूँ। आप चाहें तो मुझे श्याम कहें चाहें तो श्वेत।' परन्तु प्रेम हमारे अन्दर के इस प्रकार के हास्यास्प्रद विचारों को शुद्ध कर सकता है। किसी को श्वेत या श्याम कहना यह दर्शाता है कि आपके पास देखने के लिए दृष्टि नहीं है। प्रेम से परिपूर्ण हृदय व्यर्थ की चीज़ों को नहीं देखता। आज के दिन हम गुरु की महानता का उत्सव मना रहे हैं। सभी गुरुओं की ओर देखिए, वे कैसे थे और किस प्रकार बर्ताव करते थे। भारत में तथा अन्य देशों में बहुत से सन्त हुए। इन सूफियें तथा सन्तों ने कभी जाति पाति में तथा श्याम और श्वेत रंग में कोई भेद नहीं किया। ईसा तथा बुद्ध ने कभी इन चीज़ों में विश्वास नहीं किया। ये सब मनुष्य द्वारा बनाई गई चीज़ें हैं और हमने इन्हें स्वीकार कर लिया है तथा आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् भी इनसे चिपके हुए हैं। अब इनके विषय में बातें करने मात्र से हम इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करें। इसका एक बहुत सहज तरीका यह है, कि ध्यान में बैठकर आप यह देखें कि आप कितने लोगों को प्रेम करते हैं और क्यों। दया के कारण नहीं, केवल प्रेम के कारण। केवल प्रेम के कारण आप कितने लोगों की परवाह करते हैं ? मैंने इसके बहुत सुन्दर उदाहरण देखे हैं। परन्तु अभी तक कुछ ऐसे बन्धन हैं जिन्हें पूर्णत: त्यागना आवश्यक है और विशेषकर उस व्यक्ति के लिए जो सहजयोग में गुरु हैं। आपको शुद्ध एवं खुला हृदय और प्रेममय व्यक्ति होना होगा। सहजयोगी के हृदय को परम चैतन्य की धुन बजानी होगी। उसका हृदय यदि मानव प्रदत्त विचारों से परिपूर्ण होगा तो मैं नहीं जानती कि इसका परिणाम क्या होगा। हृदय प्रत्यारोपण करते हुए भी इन लोगों को वास्तविक हृदय लेना पड़ता है, मानव रचित नहीं। तो जब भी आप इन व्यर्थ के विचारों में फँसने लगें तो यह सोच लें कि यह कभी भी आपको सामूहिक न होने देंगे। अत: आपको अन्तर्दर्शन करना होगा। क्या हम एक हैं या एक दूसरे को ही तोल रहे हैं। सामूहिक रह कर ही हम यह सब देख सकते हैं। सामूहिकता में रहते हुए ही आप देखने लगते हैं कि आप में क्या कमी है, आप में क्या होना चाहिए । प्रेम से परिपूर्ण हृदय शान्तिदायक होता है। उस हृदय का हर क्षण 27 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-27.txt म आनन्ददायी है। श्रीराम की एक कहानी है कि उन्होंने वृद्ध शबरी के बेर बड़े प्रेम से खाए थे। यह क्या दर्शाता है। उच्च कुलीन राजा श्रीराम का नीची जाति की वृद्धा के प्रेम से दिए बेर खाना। यह दर्शाता है कि गुरु रूप में आपके व्यक्तित्व के स्तर को आपके शुद्ध तथा प्रेममय हृदय से और आपके उच्चतम व्यक्तित्व से आंका जा सकता है। व्यक्तित्व ऐसी चीज़ नहीं है जिसे बनावटी रूप से बनाया जा सके। यह बनावटी नहीं है, स्वाभाविक है, पूर्णतः स्वाभाविक। जो भी कुछ आप करते हैं वह स्वाभाविक होना चाहिए। तो बातचीत तथा रहन-सहन में यह बनावट बहुत सी समस्याओं को जन्म देती है। उदाहरणार्थ न्यूयार्क (अमेरिका) में हमारा एक आश्रम था, जहाँ एक स्त्री बहुत ही नियमनिष्ठ थीं। सब चीज़ टिपटाप होनी चाहिए-चम्मच वहाँ होने चाहिएं, काँटे वहाँ होने चाहिएं। उस र्त्री 28 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-28.txt ने बहुत से लोगों की भावनाओं को चोट पहँचाई। ऐसा करना आवश्यक नहीं है। सहजयोग में सांस्कृतिक बंधन महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि अब आप गुरु बन गए हैं और गुरु कहीं भी रह सकता है, कहीं भी और कहीं भी खा सकता है। ऐसा होना चाहिए। परन्तु सहजयोग में भी मैंने देखा है कि ज्यों ही खाना लगता है लोग एकदम इस पर टूट पड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे सामने खाना परोसा गया। कुछ देर बाद वे प्लेटें हटाने लगे तो मैंने पूछा कि क्या हुआ? मैंने तो अभी खाना है। 'ओह, श्रीमाताजी अभी तक आपने खाना नहीं खाया?' 'नहीं, अभी तो मैंने इसे छुआ भी नहीं।' तो भूख समसे निम्न कोटि की इच्छा है। एक गुरु इसकी चिन्ता नहीं करता । जो भी कुछ आप दें-ठीक है। जो भी कुछ आप देना चाहें ठीक है और न भी दें तो ठीक है। यह गुण आपने अपने अहम् का इलाज करके विकसित करना होता है। लोगों को | यदि आप किसी अन्य से बाद में खाना परोसें तो उन्हें बहुत चोट पहुँचती है। यह सब बेकार की चीज़ें मैंने सहजयोग में देखी है। वास्तव में तो यह अत्यन्त घटिया इच्छा है। यदि आप वास्तविक गुरु बनना चाहते हैं तो आपको इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करनी चाहिए। इससे, नि:सन्देह बहुत सी समस्याएं सुलझ जाती हैं। अभी तक, जैसा कि मैंने देखा है, सहजयोगी नशीली दवाओं, शराब तथा अन्य ऐसी चीज़ों को नहीं अपनाते। यह बहुत बड़ा वरदान है। यदि मुझे उस स्तर से कार्यारम्भ करना पड़ता तो, मैं नहीं जानती, मुझे कितनी गहराई में जाना पड़ता और कहाँ से आपको खींचकर ऊपर लाना पड़ता? परन्तु यह, वास्तव में बहुत अच्छी चीज़ है - बहुत ही अच्छी। अभी भी आपने जीवन की सुन्दरता, जो अन्य लोगों के चित्त को आकर्षित परन्तु कर सके, आपकी बातचीत, आपके आचरण और प्रेम व्यवहार पर निर्भर करेगी। तो यह कहना पड़ेगा कि गुरु पद केवल आपके प्रेम से ही प्राप्त हो सकता है। उदाहरणार्थ यदि आपने कोई नाटक मंचन करना हो जिसके लिए आप को दस व्यक्तियों की आवश्यकता हो और वे सभी व्यक्ति यदि आप किसी देश या समूह विशेष से लें तो उसमें कोई मजेदारी नहीं होती। संगीतज्ञों की एक मंडली भी उन्हें चाहिए होती है, तो वे एक विशेष जाति, धर्म या स्कूल से लेते हैं। तो इससे पता चलता है, कि आप अभी तक उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचे। गुरु रूप में आप को सभी प्रकार की संस्कृति और सभी प्रकार के सौन्दर्य अच्छे लगने चाहिए तथा यह बात हमारे रोज़मर्रा के जीवन में आनी चाहिए । रंग, जाति, पद तथा वर्ग के आधार पर आपको किसी का तिरस्कार 29 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-29.txt नहीं करना चाहिए। सभी गुरुओं तथा सन्तों के जीवन ने यही दर्शाया है। तुकाराम ने कहा था कि, 'हे आमूहि परमात्मा, आपका कोटि-कोटि धन्यवाद कि आपने मुझे निम्नजाति का बनाया।' वे निम्न जाति के नहीं गहनती प्राप्त करने थे। परन्तु उन्होंने ऐसा कहा। हम सबको भी सदा इसी बात में नहीं उलझे रहना चाहिए कि हमारा जन्म कौन से कुल में हुआ, हमारा व्यक्तित्व क्या है, या हमारा कितना ऊँचा नाम है। किसी को पता भी नहीं | लगना चाहिए कि कौन सन्त है और कौन नहीं है। लोगों को तो अपने सन्त होने का भी घमण्ड हो जाता है। अमेरिका में, मैं हैरान थी, कि रूप से जो लोग वहाँ गए हुए थे वे भिन्न प्रकार के ही लोग थे । वे अपनी आँखे उठाकर मेरी तरफ देखते भी न थे। परन्तु बहुत गहन थे, अत्यन्त गहन। उनकी चैतन्य लहरियाँ बहुत गहन थीं। संभवत: इसका कारण यह हो कि साम्यवाद के समय उन पर अत्याचार हुए हों और अब अमेरिका में आकर उन्होंने, तथाकथित स्वतन्त्रता तथा इसका अभिशाप देखा हो। तो यह दोनों चरम बिन्दु देखने के पश्चात्, में सोचती हूँ, वे अपने अन्तस में बहुत गहन चले गए हैं। उनमें परस्पर गहन एकता है तथा वे सशक्त हैं। मैं हैरान थी कि इससे पूर्व मैं उनसे कभी नहीं मिली। इससे पहले वे रूस से कभी नहीं आए। उनके इस प्रकार बने रहने का कारण यह था कि उनका कोई धर्म न था जो उनके मस्तिष्क में घुसा हुआ हो। सभी धर्म उनके लिए समान हैं। वे किसी धर्म के अनुयायी नहीं हैं। अतः गुरु किसी धर्म विशेष से जुड़ नहीं सकता क्योंकि यह धर्म भी मानव द्वारा बनाए गए हैं। इन धर्मों की वजह से चहूँ ओर समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं और लोग परस्पर लड़ रहे हैं। किस प्रकार वे दिव्य हो सकते हैं? तो आप किसी भी प्रकार के धार्मिक पक्ष-पात में न फँसे। मैंने देखा है कि कोई सहजयोगी यदि ईसाई है, तो वह ईसाई मत के प्रति पक्ष-पात करता है, और यदि यहदी है, तो अपने धर्म के प्रति। तो सहजयोग में आने का क्या लाभ है ? उनका चित्त यदि अन्तर्मुखी होगा तभी वे जान पायेंगे। आपको स्वयं को यह देखने के लिए निर्देशित करना होगा कि आपमें क्या कमी है और गुरु रूप में आप अधिक सफल क्यों नहीं हैं। गुरु की सफलता क्या है : - वह समय की परवाह नहीं करता, सभी समय उसके लिए पावन होते हैं। उसे किसी के देर से या जल्दी आने की कोई चिन्ता नहीं होती, वह घड़ियों तथा समय का गुलाम नहीं होता। यह सब भी मानव रचित है। मेरे विचार में, तीन सौ वर्ष पूर्व घड़ियाँ नहीं होती थी और कोई भी समय के विषय में तुनकमिजाज नहीं होता था। तो पहली चीज़ यह है कि वह समय से परे होता है - कालातीत। वह गुणातीत होता है। गुणातीत का अर्थ है, कि उसकी प्रवृत्ति बायें, दायें या मध्य की ओर की नहीं होती। वह इन चीज़ों से, इन गुणों से परे होता है। हर चीज़ को वह दिव्य प्रकाश में देखता है। हर चीज़ को। यदि उसके साथ कुछ अच्छा घटित होता है तो वह कहता है : दिव्य ज्योति की कृपा से ही यह कार्य हुआ है। यदि उसके साथ कुछ बुरा घटित हो जाये तो वह कहता है कि 30 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-30.txt दिव्य ज्योति ऐसा ही चाहती थी क्र होना दिव्य प्रकाश के लिए ही वह सब कुछ छोड़ देता है। वह गुणों से परे है। मान लो कोई व्यक्ति का एकमात्र उपाय आक्रमक है, अहम् ग्रस्त है तो वह कहेगा, 'आह, यह कैसे हुआ? मुझे ऐसा चाहिए था, ऐसा नहीं हुआ।' और अब वह चुनौती देगा तथा आलसी प्रवृत्ति (बायीं ओर का) व्यक्ति रोने -बिलखने लगेगा कि, 'मुझे खेद है, कि मेरे साथ ऐसा घटित हुआ; ऐसा नहीं होना चाहिए था' आदि आदि। मध्य में रहने वाला व्यक्ति भी सोच सकता है कि, 'मेरी चैतन्य लहरियाँ कहाँ तक हैं? कैसे मैं न समझ पाया' आदि। परन्तु जो व्यक्ति सच्चा गुरु है वह इन घटनाओं को नाटक की तरह से देखता है, नाटक के मात्र एक साक्षी के रूप में। ऐसा घटित हुआ ऐसा होना था, इसलिए तो हुआ। तो हम इसमें से क्या निकालते हैं? वह इसमें से अवश्य कुछ निकालता है; एक शिक्षा (सबक) कि यह ठीक नहीं था या यह गलत था। बस इतना ही, उस क्षण के लिए अपने मस्तिष्क का मंथन न किये चले जाना; मात्र इतना ही व्यक्ति प्राप्त करता है तथा वह व्यक्ति किसी चीज़ के बारे में चिन्तित नहीं है। तो वह गुणों से ऊपर उठ जाता है। गुणों से वह परे है। कहीं भी वह खा सकता है, कहीं भी वह सो सकता है। उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि वह कहाँ रहता है। वह कार में चलता है या बैलगाड़ी में इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती। यदि उसका सम्मान न किया जाये तो भी उसे बुरा नहीं लगता और यदि उसको पुष्पमाल अर्पण की जाये तो भी वह अपने आपको सम्मानित महसूस नहीं करता। वास्तव में उसके व्यक्तित्व को कोई बाह्य चीज़ उच्च नहीं बना सकती। कुछ भी नहीं। आप उसे कोई साधारण सी चीज़ दे दें तो ठीक है और न दें तो भी ठीक है। अपना आकलन वह आपकी दृष्टि के माध्यम से नहीं करता । स्वयं को वह अपनी दृष्टि से आंकता है। स्वानंद के आनन्द को वह स्वयं अपने लिए देखता है। किसी चीज़ के बारे में मिजाज़ होने में क्या तुनक रखा है, किसी चीज़ के पीछे भटकने में क्या रखा है? सभी कुछ अपने समय पर हो जाता है और यदि नहीं होता तो नहीं होता। क्या फर्क पड़ता है? मात्र इसे सोचें। सहजयोग में गुरु को एक संयोजी शक्ति भी होना पड़ता है। मैंने देखा है कि दो प्रकार के लोग होते हैं। जो सम्बन्ध तोड़ने में ही लगे रहते हैं उनके लिए ऐसा करना बहत सुगम होता है। वे शिकायतें ही करते रहते हैं। परन्तु कुछ अन्य लोग होते हैं जिसमें लोगों को इस प्रकार से समीप लाने की शक्ति होती है, इतनी मधुरता से वे इस कार्य को करते हैं कि लोग परस्पर समीप आ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें क्षमा करना पड़ता है, स्वत: ही ऐसा हो जाता है तथा लोग इस प्रकार के व्यक्ति के समीप आ जाते हैं। मैं आश्चर्यचकित थी कि अमेरिका में बहुत ही कम सहजयोगी हैं। उन्होंने बताया कि पचास हज़ार डालर खर्च करके उन्हें पचास सहजयोगी मिले। एक सहजयोगी के लिए एक हज़ार डालर का खर्च! तो इतनी दुर्दशा है। फिर भी उन्हें खोजने के लिए जाना पड़ता है क्योंकि बहुत से साधक साधना के जंगल में 31 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-31.txt अब भी खोए हुए हैं। परन्तु मैंने सोचा, हो सकता है, कि यह एक वृत्त (गोल दायरा) हो । मूर्खता के इस आमूहि वृत्त को उन्हें पार करना है और तब निश्चित रूप से वे तत्व को देख सकेंगे। और ऐसा हआ। गहनती प्राप्त करने मेरे प्रवचन के लिए इस बार चार हज़ार लोग आये, उस देश में इतने लोग कभी नहीं आये। किसी को भी इतनी संख्या में इतने श्रोता नहीं मिले, परन्तु अभी भी बहुत से लोग नहीं आये। परन्तु उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया। तो शनै: शनै: मैं देख सकी कि अमेरिका में यह कार्य आरम्भ हो गया है। सहजयोगियों को भी केवल अपने घरों तथा निवास स्थानों के विषय में चिन्ता न करके पूरे हृदय से लोगों के पास जाना चाहिए। मैं तो कहूँगी कि जो भी सहजयोग जा सकें अमेरिका जायें और इस कार्य को करें। ऐसा भी हो सकता है कि जब बाहर के लोग आ कर सहजयोग बतायेंगे तो सम्भवत: वहाँ के लोग प्रभावित हों। झूठे गुरुओं की संख्या इतनी अधिक है, कि आप इनकी गिनती नहीं कर सकते। हैरानी की बात है, कि इन गुरुओं को भी वहाँ के लोगों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उन्होंने कष्ट उठाये हैं, अपना धन गवांया है, सभी कुछ फिर भी उन्होंने इन लोगों को स्वीकार किया है, 'कुछ भी हो वह हमारा गुरु है। तो मुलत: उनमें कुछ कमी है, कि वे नहीं समझ पाते कि किस चीज़ की आशा करनी चाहिए । मैंने एक पुस्तक लिखी है, शायद यह उन तक पहुँच पायेगी। परन्तु आप सब भी यदि अपने अनुभव आदि लिख सकते, उन्हें छपवा सकते, तो हो सकता है कि यह उनकी आँखें खोलने में सहायक होता। कुछ भी लिखते हुए आपको याद रखना है कि यह सहजयोगी के गुणों को दर्शाये। उन्हें पता चले कि आप कैसे हैं? उन्हें ऐसा न लगे कि उनका आंकलन किया जा रहा है, उन्हें घटिया कहा जा रहा है या उन्हें चोट पहुँचाने की कोशिश की जा रही है। परन्तु इस बात को ऐसे ढंग से कहें कि यह उनकी सहायता करे और उन्हें सुधारे। गुरु के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने विषय में कोई झूठे विचार न बना ले। वह चाहे गरीब परिवार से हो या धनवान परिवार से इसके विषय में उसे सचेत नहीं होना चाहिए। आप कबीर को लें। वह मात्र एक जुलाहा था, आप रै दास को देखें, वह एक साधारण जूते बनाने वाला था। भारत में यह अत्यन्त छोटी जाति मानी जाती है। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर कविता लिखी है। नामदेव दर्जी थे। इन सब लोगों ने अत्यन्त सुन्दर कविताओं के माध्यम से एक ही बात कही है। तो उन्होंने किस प्रकार यह उपलब्धि पायी? क्योंकि वे महान आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश कर गये थे। मैं जानती हूँ, कि आप लोग भी उसी प्रकार की सुन्दर कवितायें लिखते हैं, मैं जानती हूँ। परन्तु कुछ अच्छे कवी अत्यन्त जिद्दी तथा अहंकारी व्यक्ति भी हो सकते हैं। मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि आप इतनी सुन्दर कवितायें लिख रहे हैं और फिर भी आप अहम् से भरे हुए हैं। तो यह कविता आप में कहाँ से आ रही है? तो आपकी आत्मा ही सर्वप्रथम है, आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए, कि लोग कह उठें, 32 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-32.txt 'हम वास्तविक गुरु से मिले हैं। इसके लिए, आप भली भांति जानते हैं, आपको न तो अपने परिवार क्र होना त्यागने हैं और न ही कुछ और, परन्तु यदि अब भी आप में अहम् विद्यमान है तो मैं नहीं जानती कि क्या का एकमात्र उपाय कहूँ। परन्तु आपको इससे छुटकारा पाना होगा। पूर्णत: सामूहिक रूप से भी अहम् का त्याग किया जाना चाहिए । सामूहिक रूप से। यह भी एक बात है, कि लोग गुप्त रूप से, अपने अन्दर, अहम् ग्रस्त हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है, कि लोगों को यह अति सूक्ष्म रोग है और वे इसमें फँसे रहते हैं । आज गुरुपूजा के दिन मुझे यह कहना है, कि व्यक्ति को कठिन परीश्रम करना होगा। बहुत कठिन परीश्रम! सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कहाँ तक आपने अपना समय सहजयोग को समर्पित किया है ? तभी आप गुरु पद को पा सकेंगे। मेरी ओर देखें, मैं एक घरेलु स्त्री हूँ, मेरा परिवार है, जिम्मेदारियाँ हैं, समस्याएं हैं। परन्तु इसके बावजूद भी मैं हर समय सहजयोगियों, सहजयोग और विश्व भर के मानवों के उद्धार के विषय में सोचती रहती हैं। न केवल किसी स्थान विशेष पर, विश्व भर में । तो आपका स्वप्न भी 6. विशाल होना चाहिए-अपने स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। ऐसा विशाल स्वप्न कि अपने परीश्रम से आपने हर स्थिति में, सभी प्रकार की समस्याओं के बीच विकसित होना है। एक बार जब आपका इस प्रकार का व्यक्तित्व बन जाएगा तो, आप हैरान होंगे, कि आप बहुत सी अच्छी चीजें घटित होने में सहायक होंगे। मैं जानती हूँ कि यहाँ ऐसे बहुत से सहजयोगी हैं जो इसके योग्य हैं। मैं वास्तव में उनसे बहुत प्रेम करती हूँ तथा वे भी मुझे बहुत प्रेम करते हैं। क्योंकि अब आप गुरु पद प्राप्त करने वाले हैं अत: आपको सावधान रहना है, कि गुरु होने का गुमान आपको न हो जाए। कभी नहीं। यदि ऐसा हो गया तो 'गुरु' का अहं आपमें जाग उठेगा । अत: आप निर्णय कीजिए कि 'मैं कुछ भी नहीं। मैं कुछ भी नहीं।' यदि आपमें इतनी नम्र भावना है, तो सभी समस्याएं सुलझ सकती हैं और सभी कुछ घटित हो सकता है क्योंकि आपका चित्त तथा आचरण अवश्य लोगों को प्रभावित करेगा। इसके अतिरिक्त सभी कुछ निष्प्रभावी होगा। केवल आप ही अन्य लोगों के लिए सहजयोग प्राप्त कर सकते हैं। अच्छा गुरु बनने की विधियों के विषय में बहुत कुछ बताया जा सकता है। परन्तु मैं सोचती हूँ कि यह सब में आगामी गुरु पूजा के लिए छोड़ दें। आप सबको अनन्त आशीर्वाद ! 33 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-33.txt बुद्ध पूजा जैसा आप जानते है, गौतम थे। उनका जन्म राज परिवार में हुआ था। बड़े होकर भगवान बुद्ध उन्होंने मनुष्य को तीन तरह के दु:खों से कष्ट उठाते हुए देखा और वे सन्यासी बन गये। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इच्छाओं के कारण ही ये तीनों प्रकार की समस्या है तो उन्होंने कहा, कि व्यक्ति यदि इच्छाएं त्याग दे तो वह सभी समस्याओं से मुक्त हो जाएगा। (२०/५/१९८९, बार्सिलोना, स्पेन) एक बार एक लडका उनके पास आया और उनसे पूछा, 'श्रीमान क्या आप मुझे बुद्ध धर्म की शिक्षा देंगे ?' उन्होने उत्तर दिया, 'मेरे बच्चे केवल ब्राह्मणों को दिक्षा दी जाती है अर्थात् आत्मसाक्षात्कारी लोगों हुआ?' लड़के ने उत्तर दिया, 'श्रीमन, मैं अपना कुल नहीं जानता। को ही। आपका जन्म किस कुल में वह लड़का अपनी माँ के पास गया और उससे पूछा, 'माँ मेरा कुल कौन सा है ? मेरे पिता कौन थे ?' माँ ने उत्तर दिया, 'मेरे बच्चे, मैं अत्यन्त गरीब महिला थी और मेरे पास जीवनयापन का कोई साधन न था, इसलिए मुझे बहुत से स्वामियों के साथ रहना पड़ा, में नहीं जानती कि तुम्हारे पिता कौन है ?' उसने कहा, 'नही!' वह लड़का भगवान बुद्धर के पास गया और भगवान ने उससे पूछा, 'आपके पिता कौन है? तुम्हारी जाति कौन सी है?' लड़के ने उत्तर दिया, 'श्रीमान , मेरी कोई जाति नहीं है, क्योंकि मेरी माँ ने बताया है उनके कई स्वामी थे और वे नहीं जानती कि किससे मेरा जन्म हुआ। अत: मैं अपने पिता को नहीं जानता।' भगवान बुद्ध ने उसे गले लगा लिया और कहा, 'तुम वास्तव में ब्राह्मण हो क्योंकि तुमने सत्य बात बता दी है। अत: सत्य ही उनके जीवन का सार तत्वहै। सर्वप्रथम हमें अपने प्रति ईमानदार होना पडता है और मुझे लगता है कि स्वयं के प्रति ईमानदार होना कुछ लोगों के लिए बहुत कठीण कार्य है। वे जानते है कि सत्य से पलायन किस प्रकार करना है। वो इस कार्य को करना जानते है। सत्य से बचने के लिए वे तर्क देते है और युक्तियाँ लगाते है, ये स्पष्टिकरण आप किसे दे रहे है? केवल अपने आपको? आपकी आत्मा का निवास आपके अन्दर है और आपके चित्त द्वारा यह ज्योतिर्मय हो गईहै। अब आप किससे तर्क कर रहे है? अपनी आत्मा से? ईसामसीह का सन्देश ये है कि हमने पुनरुत्थान प्राप्त करना है, परन्तु कैसे पुनरुत्थान प्राप्त करना है। सर्वप्रथम आपको अपने प्रति ईमानदार होना है। यह समझना सबसे जरूरी है कि आपका जाति ब्राह्मण है, आपको ब्रह्म का ज्ञान है, आप सर्वव्यापक शक्ति को जानते है, और इसे आपने महसूस किया है। आप सच्चे ब्राह्मण है और सच्चे ब्राह्मण होने के नाते आपको चुस्त होना है । (२०/५/१९८९, बार्सिलोना, स्पेन) 34 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-34.txt बन हमे अपने गुरु को सागर के रूप में मानते हैं। सागर हमारे पिता हैं| विश्व द्वारा डाली गई गन्दगी को अपने अन्दर ड्रबोकर बादलों के कुप में जब समूद्र आकाश में उठती है तो यह अत्यन्त शुद्ध एवं सुन्देर बन जाती है। (प. पू.श्रीमाताजी, देवी पूजा, धर्मशाली, २६.३.१९८५) प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाउसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in की 2014_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-35.txt पृथ्वी तत्व बहुत ही पवित् तत्व है और सोख लेना ही उसकी शक्ती है। कोई भी तत्व सोख लेने में इतना सशक्त नहीं है। पृथ्वी हमारी माँ है। प.पू.श्री माताजी, पुणे, २६.२.१९७९ े ेु क कं 2ा0