सं चैतन्य लहरी मई-जून २०१५ हिन्दी म ৭ २> कर निर्मल वृक्ष इस अंक में अपने अन्दर जो है उसको खोजना है ४ ...8 गुरु नानक पूजा, नोएडा, २३ जनवरी १९९० कुण्डलिनी साक्षात् चैतन्य स्वरूपिणी है ...८ सार्वजनिक कार्यक्रम, मुंबई, २६ मार्च १९७४ हमें दूसरों से प्रेम करना है ..१६ सेमिनार अँड मिटींग, हैद्राबाद, ५ फेब्रुवारी १९९० सहस्रार खुलने के परिणामतः हमारे भरम समाप्त हो गए हैं। सर्व शक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व, उेसकी इच्छा की शक्ती और सहजयीग के सत्य के विषय में आपकी कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। आपको बिल्कुल कोई संदेह नहीं होना चाहिए। परमात्मा की शक्ति की उपयोग करते हुए आपकी पता होना चाहिए कि इसे संचालन करने की आपकी यीग्यता के कारण ही यह शक्ति आपकी दी गई है। सहस्रार पूजी, कबेली, इंटेली, १० मई १९९२ र अपने अन्दर जो है उसको खोजना है । नोएडा, २३ जनवरी १९९० का २- अन्दर की खोज तो है ही नहीं उनके अन्दर, जो होनी है । अन्दर की खोज ही नहीं है तो फिर कहाँ से आप सिख धर्म को फॉलो कर रहे हैं। यही सिख है और उसको वो कहते हैं सिख्खी । आज गुरु नानक साहब का जनम दिन है और सारे संसार में मनाया जा रहा है वैसे। और आश्चर्य की बात है कि इतना हिन्दुस्तान में मैंने नहीं देखा, फर्स्ट टाइम इतना पेपर में दिया है, सब कुछ किया है। उन्होंने सिर्फ सहज की बात की। सहज पे बोलते रहे। हमेशा कहा, कि सब जो है बाहर के अवडंबर हैं। धर्म के बारे में कहा, उपवास करना, तीर्थयात्रा करना और इधर जाना, उधर जाना, ये सब धर्म के अवडंबर हैं और आपको सिर्फ अपने अन्दर जो है उसको खोजना है। अपने अन्दर जो है उसको स्थित करना है। बार बार यही बात कहते थे । उन्होंने कोई दूसरी बात 4 कही ही नहीं। मतलब यहाँ तक कि कोई भी रिच्युअल की बात नहीं करी उसने। उसके बाद जब तेग बहादूर जी आये तो उनका भी आज ही शहीद दिन है, कल है, कल है। कल है उनका दिन। तो वो भी उसी विचार के थे। पर जो लास्ट गुरु थे, उन गुरु ने जो वृद्ध हो रहा था इसलिये सब बनाया, कि आप कड़ा पहनिये, बाल रखिये, ये सब जो चीजें बनायीं, ये सब उन्होंने बनायी। पर गुरु नानक साहब ने तो सिर्फ स्पिरिट की बात की। उन्होंने कहा कि बाकी सब चीजें बेकार हैं। बिल्कुल साफ़ साफ़ कहा है। कोई अब पढ़ता ही नहीं अब करें क्या! एक उँगली रखेंगे, ऐसे पढ़ेंगे, यहाँ तक आयेंगे फिर वहाँ तक पहुँच के फिर उँगली रखेंगे। इस तरह से कोई पढ़ सकता है। अगर उसको ठीक से पढ़ा जाए और उस पर मनन किया जाए तो ये जो शब्दजाल है ये खत्म हो जाएगा। पर लोग सब उसी में फँसे हुए हैं। और इसी में, सिख लोगों का देखिये , क्या हाल है! कहीं नहीं। अन्दर की खोज तो है ही नहीं उनके अन्दर, जो होनी है। अन्दर की खोज ही नहीं है तो फिर कहाँ से आप सिख धर्म को फॉलो कर रहे हैं। यही सिख है और उसको वो कहते हैं सिख्खी । ये आपको हमने लिख के दिया है, ये अब पढ़िये इनको। और जितने बड़े बड़े उस वख्त में, उस जमाने में पहले भी और बाद में भी, बड़े बड़े संत हुए, तुम लोग तो जानते ही थे कौन संत है, कौन असंत है। उनकी सब की कवितायें और ये सब उन्होंने अपने ग्रंथसाहब के लिये की इसलिये ग्रंथसाहब पूजनीय है। क्योंकि ऐसे लोग, जो की जाने हुए थे उस वख्त में, माने हुए थे कि ये बड़े भारी गुरु हैं और इन्होंने बड़ा कार्य किया और जो स्पिरिच्युअल है उनको सबको संघटित कर दिया उन्होंने । यही सहजयोग में हम करते हैं कि हम किसी एक विशेष को नहीं मानते। सब का हम आदर करते हैं। सब का सम्मान करते हैं। ये उन्होंने उस वख्त किया। पर उस वक्त जो कहा था वो शब्दों में खतम। उससे आगे कोई गया नहीं। कबीर ने लिखा है, 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भय', वही बात है कि सब मूर्खों को तैयार किया उन्होंने । अब न तो कोई लड़ाई हुई, न कुछ हुआ। तो ये पगड़ी रखने की जरूरत नहीं। और कच्छे रखने की जरूरत नहीं है | और फलाने और क्या, क्या, कंघी रखने की जरूरत नहीं। सब चीज़ें वो उसी तरह से कर रहे हैं। और शराब पीते हैं। शराब में उनको कोई दिलचस्पी नहीं। शराब को बहुत मना किया है उन्होंने । जो आदमी अपनी चेतना की बात करेगा, वो शराब को सपोर्ट ही नहीं कर सकता। और उधर शराब पीते हैं। इधर ये सब करने का, इसमें बड़े पर्टिक्युलर है। पगड़ी लगायेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे, एक क्लॅन जैसे बनाना चाहते हैं और उस क्लॅन में रहना चाहते हैं। और इसलिये ये सब करने से अन्दर की जो बात कही है वो कब होने वाली। सो, इसी तरह से चलता रहा है इन लोगों का। पता नहीं कैसे! दे हैव टेकन टू धिस काइंड ऑफ रिच्युअलिझम और बिल्कुल बाहर आ गये थे। बाह्य में आ गये। बाह्य से ही सब कुछ उनको समझ में आता है। अब इन लोगों को मोड़ना कोई कठिन काम तो नहीं होना चाहिए। उन्होंने वही कहा है जो हम कर रहे हैं। उन्होंने किया नहीं। फर्क ये है। हमने किया है, उन्होंने किया नहीं। कहा है सहज समाधी लागो। कैसे? दिया ही नहीं उन्होंने जहाँ तक। उनके दो शिष्य थे। उन दो शिष्यों को उन्होंने रियलाइझेशन दिया है। अब एक (अस्पष्ट) पर कौन करेगा ये। रियलाइझेशन तो मेरे ख्याल से आदमी अगर दो शिष्यों को दे, तो उसका क्या इफेक्ट आ सकता है। लोगों ने उसका जो बाह्य स्वरूप था वो ले | कर के वर्क शुरू कर दिया। बड़े बड़े वो बनाये, आप तो देखते हैं कितने सारे मंदिर बनाये। क्या क्या बनाया, सब कुछ! उसका कोई फायदा नहीं। मनुष्य कम बनाये। और बाकी बने वो सरदारजी हैं। वो क्या बताये! उनको किस तरह से समझाया जाए। अब सहज में आने लग गये हैं। मैं देखती हैँ। ८-१० सहजयोगी आते ही हैं, जो की सिख हैं। पगड़ी वगैरे लगाये रहते थे। बगैर पगड़ी के आते हैं तो मुझे पता नहीं। पर एक नामधारी सिख है। नामधारी हमें मानते हैं। वो लोग ज्यादा तर बैंकॉक में हैं। काफ़ी लोग आये, ५०-६० नामधारी। वो सफ़ेद पगड़ी पहनते हैं। पता नहीं उनकी क्या विशेषता हैं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वो फॉलो करते हैं। जो उन्होंने कहा होगा। इसी तरह से धर्म में डायव्हर्जन होते जा रहे हैं। पता नहीं कहाँ जा के पहुँचे हैं। आपस में लड़ रहे हैं। फायदा क्या! और उन्होंने तो ये कहा है कि 'मैं मुसलमानों का पीए हूँ। और इनका गुरु हूँ, हिन्दूुओं का और उनका पीए हूँ।' किसी के समझ में तो आने वाली बात नहीं है। जब तक आप पार नहीं होते आपके समझ में नहीं आयेगा और यही बात है। यही होना जरूरी था, पर उनका प्रिपरेशन था हमारे लिए। उन लोगों ने सबने आपको प्रिपेअर किया और अंत में हमारा काम है कि उन्होंने जो कहा कर के दिखाये। लेकिन ये दशा सब की हुई है। समझ में नहीं आता कि कितने लोग ऐसे खो गये हैं कहाँ से, कहाँ से। हमारे यहाँ ज्ञानदेव की मैं बात बता रही थी, कि ज्ञानदेव कितने बड़े हो गये। और वो नाथपंथी थे | और उन्होंने कुण्डलिनी का लिखा भी है। पर ग्यानदेव के शिष्य हये, वो अपने को वारकरी कहलाते है। और एक तमाशा है उनका। इतनी बड़ी बड़ी दो झानियां (झाँज) हाथ में ले कर के, दोनों मिला के एक किलो की, उसको कुटते फिरते जाते हैं पंढरीनाथ, पंढरपूर। और कपड़े, उसको लक्तर कहते हैं, माने झूठ के कपड़े पहन के जाते हैं, फटे ह बड़े हुए। सैक्रिफायसिंग और एक महिना कूटते कूटते वहाँ पहुँचते हैं। और रास्ते में तम्बाकू खाते हैं। ये वारकरी लोग। और फिर उन्होंने उसमें संप्रदाय बनाया। उस संप्रदाय में क्या विशेषता है, की जैसे वो एक पालखी निकालते हैं । ग्यानदेव की पालखी। जिनके पास की जूते नहीं थे पैर के, तो उनकी पादका उसमें रखते हैं। और वो ले कर के गाँव गाँव जाते हैं। अब जिस गाँव जाते हैं, वहाँ पालखी आयी तो सब वहाँ खाना खाते हैं। फिर दूसरे गाँव गयें, फिर पालखी आयीं, वहाँ खाना खाते हैं। भीख माँगने का नया तरीका वहाँ बना हो । इस तरह की चीजें | और तीसरा ये कि उनका जन्म हुआ था, जहाँ आळंदी में, पुणे के पास है। तो वहाँ औरतें एक पूरी कुंडी जिसमें तुलसी लगी हुई है और बिल्कुल मिट्टी से भरी हई है। कम से कम तीन-चार सेर से कम नहीं हुई है। सर पे ले कर के आळंदी तक पैदल जाती है। ये आँखों देखा हाल है। समझ में नहीं आता क्या करें? और बहुत से लोगों ने उनके नाम पर ही इतना पैसा बनाया है। कुछ समझ में नहीं आता है। कैसे लोग इस चीज़ को मानते हैं। किसी भी आदमी का नाम ले लो, पैसे बनाओ। और इसी तरह उसका सारा जो कार्य था खत्म हो गया। इतना ही नहीं, एक साहब है, वो ग्यानदेव पे बड़ा भारी लेक्चर देते हैं। वो बहुत पैसा बनाते हैं। सिर्फ लेक्चर दे के। अपने मन से जो चाहे वो बोलते रहें उनके बारे में। लोग अपना सुनते जा रहे हैं। इस तरह की अंधश्रद्धा भरी हुई है सब में। और इसी तरह से गुरु नानक साहब के साथ भी हो गया। मैं देखती हैूँ कि कोई जानता ही नहीं कि गुरु नानक साहब ने क्या कहा, क्या नहीं कहा। और यहाँ तक कि चंदीगढ़ बनाया है उन्होंने। चंदी सी बात करी है, हमारे आने की बात करी है। सबकुछ वर्णन किया हुआ है। कोई नहीं सुनता, कोई देखता भी नहीं। तो, इसी तरह हर एक का हो जाता है। पर अब जो है जिसको पार हो गये वो पार हो गये। क्यों कि आपको सत्य मिल गया तो आप झूठ नहीं स्वीकार कर सकते। और इसमें से कोई झूठ निकले भी तो खतम हो जाये। अब इतने लोग पार हो गये हैं सारे संसार में कि अब कोई झूठ नहीं फैल सकता। हमने जो कहा, वो टेप है, रेकॉर्डेड है। सब कुछ है। तो कोई उसको बदल नहीं सकता। इसलिये मैंने किताब नहीं लिखी । क्योंकि टेप को तो सुनना पड़ता है। पर जो किताब है उसको तो हम पढ़े जा रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। इससे बेहतर है किताब कम लिखो। ज्यादा जो है, वो सुनने को हो। सुन, 6. सुन के खोपड़ी में जायेगा। नहीं तो पढ़ने में बस, मनोरंजन हो रहा है, पढ़ रहे हैं। तो क्या फायदा! और जब, आप देखते हैं कि सहजयोग का हाल होने वाला है, समझ में नहीं आता, कि अब तो ये बिगड़ नहीं सकते हैं। अब एक हद तक पहुँच गये हैं, अब नहीं बिगड़ सकते। ऐसा मेरा विश्वास है। गलत काम नहीं करना चाहिए। यही एक उनके दिये हुए से सीखना है। गुरु नानक क्या कह गये। किताब पे किताब लिख गये । गुरुवाणी पढ़ी है, तो यही कहा है, कि अपने को जानो , अपने को पहचानो। और लोग कर क्या रहे हैं? लेकिन सहज में ऐसा होगा नहीं। क्योंकि अब तो सबको पका लिया मैंने। अब तो नहीं बदल सकते आप लोग, चाहे तो भी नहीं हो सकता। जो हो गया सो हो गया। और कितना अपमान है उनका। और कितने उन्होंने तकलीफ़ें कुछ झेलीं, कितनी उत्पत्ती हुई, पर जागृती नहीं दी, ये पॉइंट आज हम कह रहे हैं। कि जागृती नहीं दी, अनुभूती नहीं दी । तो फिर अब उसका जो भी करना चाहो, जैसे के वैसे। फिर आप किसी का नाम लीजिये, उस किताब में थोडी बदल होने वाला है। जागृती से ही होगा। और यही उनके सिख लेसन सबको लेना चाहिये कि हम इस तरह से गलत रास्ते से नहीं जाएंगे। या हम कोई अलग धारणा लगायें। ये बहुत जरूरी है। हम जो हैं, सहजयोगी हैं। इतना विशद रूप से सहजयोग समझते हैं, गहन समझते हैं कि अब इससे कोई और चीज़ निकालने की जरूरत नहीं । अभी भी एकाध-दो होते हैं कि ये ऐसा है तो ये करो, वो करो। सब बेकार की बात है। बिल्कुल, क्या कहना चाहिये, कि एक तरह का झूठा ही गँवा रहे हैं वो। सच्चाई कुछ भी नहीं। जो चीज़ कही ही नहीं वो चीज़ कर रहे हैं। पर अब ऐसा ही की अब वो कान से सुनेंगे। पता चलेगा। वो तो कान से तो जायेगा ना सर में। पढ़ने से नहीं जायेगा। समझेंगे कि ये नहीं काम आने वाला। जो नहीं कहा, नहीं कहा। क्यों करते हो ऐसे। पर वो पुराने संस्कारों की वजह से है। उससे भी होता है। जो हमारे पुराने संस्कार हैं कि दूसरा की हमारा जन्म इसमें हुआ तो वैसे हम चलें। ये जब तक नहीं छूटता है, तब तक सहज का असली रूप उतरता नहीं। और आपको तो स्पेशल बनाया हमने। स्पेशल लोग हैं आप। स्पेशल धर्म आप जानते हैं। सब कुछ आप जानते हैं। अपने बारे में जानते हैं, दूसरों के बारे में जानते हैं। जागृती आप कर सकते हैं। सब आज समझ सकते हैं। आप तो संपूर्ण हो गये। अब इसके बाद बिगड़ने की क्या बात है। तो इस पर आज मुझे ये विचार आया कि गुरु नानक साहब ने कितना सहन किया, वाईफ भी उनकी ठीक नहीं थी। बहुत परेशान थे। और कर के उन्होंने जो बनाया उसका क्या हाल है। ऐसे ईसा मसीह का, ऐसा ही सबका हाल है। महम्मद साहब का यही हाल है। सब से ज्यादा गुरु नानक साहब का हुआ, क्योंकि वो सब से लास्ट आये थे। और बहुत समझाया, बहुत कुछ किया। उसके बाद साईनाथ आये। साईनाथ कहते थे कोई जरूरत नहीं। सब बेकार है। साफ़ कह दिया उन्होंने । आपने कुछ चीज़ शुरू कर दी। तो सब लोग खराब हो जाये । जागृती नहीं दी। जागृती के बाद अलग है, सब एक हो जाते हैं, समझदार हो जाते हैं। उसके बगैर बहुत मुश्किल काम है। तो, उन्होंने तो किया ही नहीं ऐसे। कोई ऑर्गनाइज ही नहीं किया लोगों को, जोडा ही नहीं, कुछ नहीं। उनके शिष्य हो गये। बस। और हमने भी ऑर्गनाइज नहीं किया। हमारा कोई ऑर्गनाइझेशन नहीं है । कुछ नहीं । पर पार होने पर ऑटोमॅटिक ऑर्गनाइज्ड हो जाते हैं। जैसे ये शरीर है। इसके सारे अंग-प्रत्यंग ऑर्गनाइज्ड है। उसी तरह से । कोई ऑर्गनाइझेशन नहीं है। कुछ नहीं है। सब ऐसे ही चला है। आप सब को अनंत आशीर्वाद हैं । और ये ध्यान रखना है कि हमने जो पाया है, उसको विकृत नहीं करना है। इससे बढ़ के कोई और पाप नहीं है। उसको विकृत नहीं करना किसी भी वजह से। 7 कृण्डलिर्नी साक्षात् चैतन्य-स्वरूपिणी है ७) १प मुंबई, २६ मार्च १९७४ आप लोग परमात्मा पर विश्वास करे या न करे, इससे परमात्मा का होना या न होना निर्भर नहीं है। अगर हम आपसे कितना भी कहे की परमात्मा है, और आप उसका विश्वास भी कर ले तो भी उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। चाहे आप अविश्वास करें, तो भी आप अज्ञान में ही अविश्वास कर रहे हैं और अगर आप विश्वास कर रहे हैं, तब भी आप अज्ञान में ही कर रहे हैं। उसको पाये बगैर विश्वास कर लेना भी अज्ञान ही होता है और उस पर अविश्वास कर लेना भी अज्ञान ही होता है। इसलिये जब मैं इस विषय पे बातचीत कर रही हैँ, आपको एक खुले दिमाग से, जैसे कि एक साइंटिस्ट होता है, एक शोधक होता है उनको कुछ भी पता नहीं है। उसकी प्रिकन्सीव्ड आइडिया नहीं है, जिससे पहले से कुछ सोच के रखा है। इस तरह से आपको बैठना चाहिये। इस विषय पे न जाने कितनी किताबें मनुष्यों ने लिख मारी। एक अनन्त सागर सा है। उस में से न जाने कितने ही लोगों ने असत्य ही ये लिखा है। लेकिन सत्य और असत्य की पहचान क्या है? सत्य की पहचान है, वो हर हालत (अस्पष्ट) हो जाता है और किसी भी कसौटी पर वो झूठा साबित नहीं होता है, वही सत्य है। जो हम आपके सामने अभी बातचीत करेंगे, या जो कुछ भी आपको बतायेंगे , इसको एक साइंटिस्ट की तरह सुनने का मतलब ही होता है कि आपके सामने हायपोथिसिस हम रख रहे हैं। एक विचार रख रहे हैं। उस विचार को बाद में हम सिद्ध कर के दिखा सकते हैं और जो यहाँ लोग पार बैठे हैं, जिन्होंने हमारे काम देखे हैं, वो जानते हैं कि ये बात सिद्ध होती है। लेकिन दिमाग खुला रखें । ये बहुत जरूरी है। क्योंकि आप में से बहुत से लोग ऐसे हैं कि इस विषय में बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। सीखने को तो कुछ भी नहीं लगता है। आपके पास अगर थोड़ा सा पैसा हो या कुछ आपके चेले मदद करने के लिये तैयार हो, तो आप किताबों पे किताबें लिख के चले जा सकते हैं। और आपको मामले में पूछने वाला कौन है कि तुमने ऐसा क्यों लिखा ? धर्म पे सत्य की कोई भी खोज करना जरूरी नहीं। धर्म के तो चाहे जो भी चाहे बोल सकता है। हिटलर जैसा आदमी भी धर्म पे बोलता था और नेपोलियन जैसा आदमी भी बोलता था। क्योंकि (अस्पष्ट) में, उनको पकड़ने वाला कायदा अभी बना कहाँ है ? जिनको जो चाहे धर्म के नाम पे बेचिये उनको जेल में डालने वाला कायदा बना कहाँ है? लेकिन आप सत्य के ही पुजारी हैं और आप सत्य को ही जानना चाहते है, तो हमारी भी बात पर यकीन आपको पूरी तरह से बिल्कुल नहीं करना चाहिये। जब तक आप ये न देखे कि जो हम कह रहे हैं वो वास्तविक ही है। आप मनुष्य हैं और अपनी में खड़े रहना चाहिये । ये नहीं की जो आपको कुछ कह गये, या लिख गये या बता दे वो आपमें छा जायें। ये मनुष्य का लक्षण बिल्कुल नहीं है। जो स्वतंत्रता के सीढ़ी पर खड़ा हो कर के परमात्मा को ये भी कहता है कि , 'तू नहीं है।' वो कहीं अधिक मनुष्य अच्छा है, उस आदमी से, परवशता में परमात्मा को कहता है कि, 'हाँ, तू है।' सहजयोग में परतंत्र आदमी के साथ हम कुछ नहीं कर सकते । कल मैंने आपसे यही कहा था, कि सहजयोग में आपकी अबोधिता, इनोसेन्स जरूरी है, लेकिन स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है। और इसलिये स्वतंत्र बुद्धि से आप बैठे । न तो हमारा नकार हो और न ही हमारा स्वीकार हो, जब तक आप उसको पा न ले। जो कुछ भी हम बात कह रहे हैं वो जब तक आपका सेल्फ रियलाइझेशन नहीं हो जाता है तब तक पता ही नहीं हो सकती। आप जान ही नहीं सकते उस बात को, जिसे हम कह रहे हैं। जैसे कि आपका कनेक्शन नहीं लगता है, आप कोई भी टेलिफोन करिये उसका कोई अर्थ ही नहीं होता है। कम से कम, कम से कम मनुष्य को धर्म के बारे में जानना होता है, तो रियलाइझेशन कम से कम हो । उसके पहले मनुष्य योग्य नहीं है कि धर्म को जाने। जैसे अपने देश में पहले कहते थे कि किसी ब्राह्मणही धर्म को जाने। ब्राह्मण का अर्थ ही वो होता था कि जो रियलाइज्ड है। हर एक आदमी ब्राह्मण नहीं होता है। आज मैंने आपसे कहा था, कि मैं सृष्टि, स्रष्टा, ब्रह्मा आदि बातों की चर्चा करूंगी। पहले भी मैंने बताया हुआ है, कि जैसे कोई एक जीव होता है और उसके अन्दर जो कुछ भी उसी से पैदा होने वाला है उस सब का नक्शा होता है। उसी तरह आप एक ब्रह्म स्वरूप का विचार करे, कि एक ब्रह्म स्वरूप ही वर्तमान है। जिसका आदि नहीं और अंत नहीं। जो अनादि है ऐसा एक ब्रह्म बीज स्वरूप में घटित आप अपने चित्त में धरे। उस ब्रह्म की स्थिति एक साधारण जीव जैसी है, जो कि सृजन शक्ति से स्पंदित है। जैसे कि एक छोटा सा बीज होता है। उसके अन्दर उसकी जर्मिनेटिंग पॉवर या उसकी सृजन शक्ति होती है। उसी तरह से इस ब्रह्म में भी अपनी सृजन शक्ति है। और जब वो पहले ही फूट पड़ता है, पहले ही उसमें उसका स्पंदन होता है, पहले ही जब वो स्पंदित हो जाता है, उसी वक्त प्रणव की स्थापना होती है। उस शक्ति की स्थापना होती है। और वो शक्ति उस बीज से अलग हट कर के अपने अहंकार में स्थापित हो कर के सारी सृष्टि की रचना करती है और वो जो बीज है वो ईश्वर स्वरूप हो कर के और उसका खेल देख रहा है। जैसे कि एक टैलिविजन रखा हुआ है उसे वो देख रहा है। उसका पसन्द खेल आ गया तो वो देख रहा है और उसे नापसन्द आ गया तो वो ऑफ़ कर देता है। इसी ईश्वर को हमारे शा्रों में शिव के नाम से जानते हैं और उस शक्ति को शिबानी कहते हैं। जिसे हम महाशिव कर के पुकारते हैं । उसी को लोग ईश्वर, फादर, गॉड, परमात्मा और जिसे हम शक्ति कहते हैं उसी को लोग होली घोस्ट, रूह आदि अनेक शब्दों से जानते हैं। यही शक्ति सारा सृजन करती है। यही शक्ति जब सृजन करने लग जाती है, उस वक्त ये अपने ढंग से सृजित होता 9. कि एक है। उसका अपना एक ढंग होता है। मानव दशा में आने पर जिसे की एक शक्ति जैसे मैंने कल बताया था, जड़ तत्त्व है और एक चैतन्य तत्त्व है। दो तत्त्वों से ये सारी सृष्टि बनती है। चैतन्य तत्त्व जब जड़ तत्त्व से काम करता है, तब ये सृष्टि का सृजन होता है और सारी सृष्टि तैयार होती है। करते करते मनुष्य दशा पे हम आ जाते हैं। विस्तृत रूप से तो मैं बहुत बार बता चुकी हूँ। लेकिन आज विशेषत: कुण्डलिनी पर आना है। इसलिये मैं जरा जल्दी में वहाँ पहुँचना चाहती हूँ। मनुष्य में ये जब जड़ शक्ति, छोटे से बच्चे के रूप में माँ के गर्भ में दो-तीन महिने की दशा में पहिली मर्तबा स्पंदित होती है, उस वक्त उसके हृदय में जो पहला स्पंदन होता है, वो पहला स्पंदन उस व्यक्ति के हृदय में होता है, वो ईश्वर का होता है। इसी को हम आत्मा कहते हैं। परमात्मा आत्मास्वरूप हमारे हृदय में पहली बार और शक्ति जो है वो हमारे सर के इस तालु प्रदेश से चीर कर के अन्दर हमारे पृष्ठ भाग में एक स्पाइनल कॉर्ड है, जो रीढ़ की हड्डी है, उस से गुज़र के और त्रिकोणाकार उस अस्थि में, अस्थिपूर्ण में जा कर के बैठती है। ये बैठती है या नहीं, वहाँ होती है या नहीं? उसकी क्या स्थिति है, वास्तविकता है या नहीं? आप कह रही थी तो माना। बिल्कुल न मानिये। लेकिन मैं आपको दिखा सकती हूँ। आप चाहे पार हो न हो, अगर आपके पास आँखें हैं आप अँधे नहीं हैं, तो आप देख सकते हैं कि वहाँ पर कुण्डलिनी के नाम से स्थित है और जब कोई मेरे पैर पे आता है तो फौरन वहाँ पे स्पंदन होने लगता है, जहाँ पर की त्रिकोणाकार अस्थि है। त्रिकोणाकार अस्थि में स्पंदन होने की कोई बात नहीं है क्योंकि वहाँ हृदय नहीं है। वहाँ पे हृदय नहीं है, लेकिन वहाँ आपको दिखाई देता है कि उस आदमी का अगर कोई कपड़ा पहने हो , तो वो ऊपर-नीचे हिलता है और कभी कभी बहत जोर से हिलता है। उसके बाद आप जब देखते है, कि जब वो चढ़ती है, ऊपर में, ऊपर में चढ़ते वक्त वो किसी किसी जगह रुकते स्पंदित होती है, और किसी-किसी जगह इसका स्पंदन इतने जोर से दिखाई देता है, कि जैसे हृदय चक्र जहाँ हुए, पीछे में है, वहाँ पर आपको ऐसा लगता है कि कपड़ा उठ रहा है, गिर रहा है, कपड़ा उठ रहा है, गिर रहा है। इसलिये हम लोगों ने प्रयोग किये हैं, एक्स्परिमेंट किये हैं, जो लोगों ने अपने आँखों से साक्षात देखा हुआ है। ये लोग कहते हैं कि, कुण्डलिनी कोई चीज़ ही नहीं होती। कुण्डलिनी पे विश्वास ही नहीं करते हैं । इनको चाहिये कि एक मर्तबा आ कर देखें कि कुण्डलिनी नाम की चीज़ आपके अन्दर में है, शक्ति नाम की चीज़़ अपने अन्दर में है और वो आपके त्रिकोणाकार अस्थि में है। इधर-उधर नहीं है। इसका सामने साक्षात हो सकता है। आप इन आँखों से, नेकेड आई से आप देख सकते हैं, कि कुण्डलिनी है। उसके बाद आप ये भी देखते हैं, कि धीरे-धीरे आपकी पीठ में ऐसा लगता है कि कभी कभी की चीज़ बह रही है। किसी किसी को तो सिर्फ हमें देखते ही साथ फटाक् के साथ ऐसा लगता है कि कोई भी ...(अस्पष्ट)। या उनके पूर्वजन्मों के पुण्यों का तरीका है। जो उन्होंने धंदे इकट्ठे किये हैं कि एकदम से साक्षात् हो जाते हैं, खट् से कुण्डलिनी खोल देते हैं। और किसी किसी में रुकावट सी लगती है। धीरे चढ़ी, नीचे चढ़ गयी, किसी को थोड़ी सी गर्मी महसूस हो गयी। इसकी वजह ये है कि आपके अन्दर जो कुण्डलिनी का मार्ग है, वो जैसे मैं आपको दिखा रही हूँ, इस तरह से ....प्रतीक है। जैसे कि एक इधर से गिर सकते हैं, एक इधर से गिर सकते हैं। ये देख रहे हैं न आप! ये दो और शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं जो इड़ा और पिंगला हैं। इसके बारे में मैं कल बताऊंगी। ये किसी न किसी कारण से अपनी तरफ़ इस मार्ग से खींच लेती है। और इसीलिये ये मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और 10 कुण्डलिनी ऊपर चढ़ नहीं पाती वो जा कर रुक जाती है, इस जगह जहाँ मार्ग रुकता है। ये कुण्डलिनी साक्षात् चैतन्य-स्वरूपिणी है। चैतन्य का अर्थ मैंने कल आपको बताया था कि चैतन्य सब जानता है। चैतन्य सब पहचानता है। इतना ही नहीं लेकिन संसार का सारा सृजन चैतन्य से होता है । और चैतन्य जो है प्रेममय है। ये कुण्डलिनी भी प्रेमस्वरूपिणी आपकी अपनी माँ है । ये जरासा फर्क आ जाता है। जो आपकी अपनी माँ है, उसका और कोई बेटा नहीं है। वो आपके बारे में सबकुछ जानती है। जैसे कोई टेपरेकॉर्डर अपने है कि इस बच्चे में क्या दोष है? इसे क्या तकलीफ़ है? इसके शरीर में कौनसी पीड़ा है? अन्दर सब कुछ लिखे हुए इसकी कौनसी वेदना है? इसने क्या क्या तकलीफ़ उठाई? ये साक्षात् में है। आजकल के मॉडर्न टाइम में कोई अगर कुण्डलिनी की बात करे तो लोग विश्वास नहीं करते। लेकिन इसी टाइम में जब कि आप साइन्स की इतनी बड़ी हज़ार पताका लगा कर घूम रहे हैं, तो क्षण आ गया है कि आपको फिर से धर्म के रास्ते की ओर अपनी नज़र उठा के देखना पड़ेगा। क्योंकि साइन्स समझ चुका है कि अभी तक हमने कुछ जाना ही नहीं। मेडिकल साइन्स में, कैन्सर, कैन्सर समझ ही नहीं आ रहे है किसी को क्या है । कैन्सर क्या चीज़ है किसी को समझ ही नहीं आ रहा है । जो लोग साइन्स की नाम पर डंके की चोट पर बड़ी शान से अहंकार दिखाते हैं, वो मुझे बता दें कि कैन्सर क्यों है? बड़े बड़े डॉक्टर होते हैं, वो नहीं बता पाएंगे। मैं बताती हूँ कि कैन्सर यही जो | आपने कहा था कि खिंचाव, सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम के खिंचाव से, ओवरोंक्टिविटी से होता है। और इसका इलाज सहजयोग के सिवाय कोई और है ही नहीं। आज जो मैं कह रही हूँ दस साल के बाद शायद लोग मान जायें। पर न जाने कितने लोग कैन्सर से खतम हो जाये । संसार अजीब है। कोई चीज़ का आप पता लगाईये। तो मानव का दिमाग ऐसा होता है, जो पता लगाता है, उसी को फाँसी चढ़ा दें। उसकी बात मत सुनो। लेकिन मरने के बाद मंदिर बनाएंगे और उसका गौरव करेंगे आज मैं जिंदा आपके सामने बता रही हूँ कि कैन्सर किसी बीमारी का नाम है, जिसे मैं कहती हँ कि ओवरोंक्टिविटी ऑफ द सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टीम तो ये डॉक्टर लोग सुनने के लिए तैयार नहीं। लेकिन एकाध डॉक्टर कैन्सर से बीमार पड़ जाए तो माताजी के शरण में आते हैं। हम तो रियलाइझेशन के पीछे में है, कैन्सर के पीछे में नहीं। लेकिन डॉक्टर लोग अगर आँख खोल के देखे और इसको समझने की कोशिश करें और इतना विचार न करें कि उनके पैसों का क्या होगा। तो वो स्वयं ही इस बीमारी का इलाज कर सकते हैं और लोगों को ठीक कर सकते हैं । इसलिये साइन्स से आप कुण्डलिनी के बारे में अगर पूछना चाहते हैं, तो मैं ये कहूँगी कि आपके आँखों पर तो आपका विश्वास है या नहीं। अगर इतना विश्वास है तो आपकी आँखों से देख लीजिये कि किसी की पीठ की रीढ़ की हड्डी में अगर स्पंदन हो रहा है तो आखिर वो क्या है? और वो होने के बाद, आपके पूरे होश में अगर निर्विचारिता स्थापित हो रही है तो आखिर ऐसी कौन सी चीज़ है कि जिससे आप निर्विचार हो सकते हैं । साइकोलॉजिस्ट कितने भी बड़े हो उनसे पूछ लीजिये कि आप निर्विचारिता हमारे अन्दर स्थापित कर सकते हैं ? आपका मन खिंचाव कर ले, लेकिन आपके होश में ही न बात साइलेन्स की और अन्दर शान्ति की बात है, वो अगर कर के दिखा दे तो हम मान जाएंगे कि आपका साइन्स बहुत बड़ा है। अन्दर की शान्ति आये बगैर हम बाहर 11 की शान्ति ला नहीं सकते। लेकिन सारी साइकोलॉजी की किताबें खोल के आप सुन लीजिये और इन्ही साइकोलॉजिस्ट के पास जा के देखिये कि क्या ये शान्त हैं? ये क्या हमारा इलाज करेंगे! जो स्वयं ही इसके शिकार है, जिसके हम हैं। लेकिन कितनी भी बात कहूँ, कैसे कैसे समझाऊँ कि बचो, ये कल्कि का जमाना है! और इस कलियुग में ही बड़ा भारी उद्धार होने का समा आ गया है। और उसी के साथ पूरे क्योंकि जो ईश्वर सुपरवाईजर कर के बैठे हुए हैं, जो सर्वसाक्षी हैं, वो आपका स्विच ऑफ करने के लिये बड़े का भी पूरा इंतजाम है, लालायित हैं। देख रहे हैं, कि खेल बनेगा तो जीत हमारी है और नहीं तो संहार है। आप देख ही रहे हैं कि संसार में किस तरह की चीजे आज खड़ी हो रही है। युद्ध है, गरीबी है, रुग्णावस्थायें हैं, देखा नहीं जाता। और इसका कोई भी इलाज मनुष्य टाल नहीं सकता। कोई कहता है कि कम्युनिझम लाओ, कोई कहता है कि सोशलिझम लाओ। कोई कहता है कि फलाना लिझम लाओ। ये सब चलाने के लिये इस परम आनन्द की उपलब्धि हये बगैर, उन तारों को छेड़ने की शक्ति लिये बगैर आप कभी भी आनन्द पा ही नहीं सकते हैं और संतुष्ट तो आप हो ही नहीं सकते हैं। संतोष मनुष्य को परमात्मा के चरणों में मिल सकता है। लेकिन मैं जब परमात्मा की बात करती हूँ तो 'अहाहा, माताजी आ गयी रास्ते पर।' वहाँ तक तो लोग ठीक ठीक चलते हैं, जब मैं साइन्स की बात करती हूँ, पर जैसे ही मैंने परमात्मा की बात की, कि गये। इतना अहंकार है आदमी में। कितना अहंकारी हो गया है, अपने को समझता क्या है। ये परमात्मा जिसने हमें बनाया, इसने सारी सृष्टि की रचना की उसको हम चुनौती दे रहे हैं! आप है किस खेत की मूली। कल उखाड़ के फेंक दिये जाओगे। परमात्मा के नाम में अधर्म देख रहे हैं। सेक्स की बातें अगर परमात्मा के नाम में करियेगा तो आप बड़े धर्मात्मा कहलाये जाते हैं । कलियुग की भी हद होती है। परिसीमा के पाप में हम लोग वाकई डूब चुके है। साइन्स से अगर आप पाप धो कर दिखा सके, साइन्स से अगर आप प्यार बना कर दिखा सके, तो मैं साइन्स के सामने हार मानूंगी। लेकिन हमारा भाषण भी एक भाषण मात्र रह जाये, और कोई अनुभूति आपको न मिले, आप अगर हमारे रहते हुए भी कुछ न पाये, तो हमारा आना भी व्यर्थ हुआ और कहना भी व्यर्थ हुआ। ऐसा कलियुग का घोर, ऐसा अंध:कार हमारे सर पे छाया हुआ है, कि हम अपने आगे किसी को कुछ सोचता ही नहीं । एक पाँव के धूल के बराबर भी ये सारी सृष्टि नहीं है । मेरी बात का आपको मैं यकीन दिलाना नहीं चाहती हूँ। लेकिन एक दिन इसका आपको मैं साक्षात् बनाऊंगी। पहले अपनी तैयारी कर लें। आज कल के नौजवान लड़के और आज कल का जो समाज तैयार हो रहा है, उसमें उतना ही बताया जाये। उनके सर में ये चीज़ नहीं घुसने वाली। इसका कारण ये है कि धर्म के नाम पे महा अधर्म खड़ा कर दिया। कुण्डलिनी की तो बात किसी ने की ही नहीं । कौन करता कुण्डलिनी की बात उस जमाने में। बिचारों ने कुछ कहा ही नहीं, उस पर भी क्रॉस पे चढ़ा दिया। कुण्डलिनी अन्दर साक्षात् है और उसका साक्षात् हो सकता है। और अगर आपको देखना हो तो आप आईये। और अगर नहीं देखना है, और अगर नहीं जानना है तो अज्ञान की जो जो तकलीफ़ें हैं उसे सहना ही होगा। पर एक विचार तो करना ही है कि आखिर हम कर क्या रहे हैं? हम दौड़ कहाँ रहे हैं? क्या पा रहे हैं? अपने ही अन्दर, अपने ही उस ....(अस्पष्ट) के अन्दर सारे देवता बसे हैं। अब ये कहते ही, दिमाग में नहीं जाता, कि ऐसे कैसे माताजी कह रही हैं कि हमारे अन्दर देवता हुए 12 बसे हुए हैं? उसका भी आपको मैं प्रमाण देती हूँ। एक साहब थे, उनकी शिकायत है। वो हमारे पास आते हैं। बहुत दर्द होता है। एक दूसरी आती है, हमें बच्चे नहीं होते है। हमने कहा, 'अच्छा! तुम हमारी ओर हाथ करो।' देखते हैं कि कुण्डलिनी उनके स्वाधिष्ठान चक्र में बैठी हुई है। एक छोटा बच्चा बता देगा, कि यहाँ पर इस उँगली में हमें गर्मी आ रही है । जितने भी लोग बैठे हैं, आप लोग देखें, वो आँख बंद कर के बता दें कि इसी उँगली पर, इसी अंगुली पर हमें गर्मी आ रही है। इससे बढ़ के साइन्स और क्या हो सकता है कि सब के सब एक ही चीज़ बतायें की इसमें हमें गर्मी आ रही है। मैं तुमसे नहीं बता रही हूँ। इससे पूछा कि साब, आपको बीमारी क्या है? 'हमारे पेट में बहुत दर्द होता है, तो किसी ने कहा हमें की शिकायत रहती है और किसी ने कहा हमारे बच्चे नहीं है।' सारे के सारे अेऑर्टिक प्लेक्सस जिसे कहते हैं, 6. जो स्वाधिष्ठान चक्र से चालित है उसकी बिमारियाँ हैं और वो इस उँगली पर आप महसूस कर सकते हैं। अब इससे और ज्यादा प्रमाण मैं आपको क्या दूं! जो दो साल का बच्चा भी यही अँगूठा दिखायेगा और सब लोग यही अँगूठा दिखा कर कहेंगे, 'माँ, यहाँ पर।' और फिर जब मैं उस आदमी से कहती हैँ कि, 'अच्छा तुम ब्रह्मदेव का और सरस्वती का नाम लो ।' वैसे लेते ही वो खट्कन खतम हो गया और कहता है कि, 'माँ, मेरी तबियत ठीक हो गयी।' अब इससे भी ज्यादा कोई प्रमाण चाहिये। साक्षात् ब्रह्मदेव और सरस्वती वहाँ बैठे ही हये हैं। अगर नहीं बैठे हैं तो काम कैसे हो गये ! और किसी भी नाम लीजियेगा होने नहीं वाला काम्। अब इससे ज़्यादा और क्या प्रमाण देना चाहिये आप लोगों के सामने | इसको बुद्धिवादी कहे कि बुद्किवादी कहे, जो देखते हये भी उस चीज़ को नहीं मानते। जिसके मूलाधार चक्र पे तकलीफ़ हो उसको यहाँ (हात) गर्मी आती है। अगर उसको बहुत जोर की बाधा हो, बाधा जिसे कहते है रुकावट। या किसी किसी में भूतबाधा पर बैठता है, तब बहत जोर की गर्मी आती है, यहाँ तक कि यहाँ ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। बहुत से लोग अपने को भगवान आदि कह कर घूम रहे हैं, इनको तो छोड़िये, पर उनके शिष्यों पर भी, ब्लिस्टर्स आ जाते हैं हाथ में। हाथ जल गये हम लोगों के। उँगलियाँ जल गयी। सब की एक साथ उँगलियाँ जल गयी है। लेकिन लोगों से। (अस्पष्ट) दो साल की पार ही वो पैदा हुई है। वो भागती है सब एक ही उँगली पर सब के ही जलन आती है, एक ही उँगली पर सबसे जलन आ रही है, तो उसके आज्ञा चक्र पर पकड़ है। आज्ञा चक्र पे जो क्रॉस है उसपे ईसामसीह को लटका दिया और ईसामसीह वहाँ हैं, चाहे आप ईसाई हो, चाहे नहीं। इसका साक्षात् हमें आता है। बड़े आये हिन्दू बनने वाले और बड़े आये ईसाई बनने वाले। सब से द्वेष करने के तरीके सीखते हैं। कोई उनका तरीका सीखा है। सबके यहाँ पर अन्दर ईसामसीह का स्थान है और वही गणेशजी हैं। यदि साक्षात् मनुष्य स्वरूप प्रणव, इसकी पहचान में भी गणेशजी के भी बाप वही थे और ईसा के भी बाप हैं। लेकिन अगर कोई पागल आदमी हो, या जिसे भूतबाधा हो, जो मेंटली के रिसिपिएन्ट हो और वो अगर हमारे सामने आ जाये तब हम जो उनको मदद कर रहे हैं या उनके आज्ञा चक्र को रहे हैं। हम उससे छुड़ा अगर कहें कि तुम ईसामसीह का नाम लों। जीजस क्राईस्ट का नाम लो, खट् से खुल जायेगा आज्ञा। | 13 अब हम कैसे जानते हैं? ये तो कोई प्रश्न नहीं हुआ, क्योंकि हम जानते हैं और वो होने पर भी, इस पर भी अगर आप लोग विश्वास नहीं करेंगे, की अलग अलग अपने चक्रों पर अलग अलग देवताओं का स्थान पहले से ही आदिशक्ति ने बनाया हुआ है। जब आप का नामोनिशान भी नहीं था और जो लोग आपस में लड़ रहे हैं, उनको भी पता होना चाहिये, कि आप आपस में जिनके लिये लड़ रहे है वो एक है, जैसे हम मोहम्मद साहब और गुरुनानक के लिये है कहते हैं। मोहम्मद साहब और गुरुनानक दोनो एक आदमी थे। उनकी एक पहचान थी। नानक जी के जीवन में ही हम आपको बता दें, की एक बार नानक जी लेटे थे, तो लोगों ने कहा कि, 'आप क्या मक्का की तरफ़, उधर में काबा है, उधर में आप अपने पॉव कर के क्यों लेटे हैं?' उन्होंने कहा, 'अच्छा, मैं पैर कर लेता, ये है काबा घूम गया।' काबा क्या है? मोहम्मद साहब की पाँव की धूल है और वही नानक साहब की भी है। दोनों एक ही आदमी है और उसकी पहचान हम कुण्डलिनी में आपको कराते हैं । जिस वक्त किसी को कैन्सर हो जाए या तो नानक साहब उसे ठीक कर सकते हैं या मोहम्मद साहब, और कोई नहीं कर सकता। क्योंकि हमारे यहाँ जो वॉइड हैं, हमारे यहाँ इस जगह में जो गैप है, जिसे हम भवसागर कहते हैं। भवसागर को पार करने वाले जो आदि हमारे दत्तात्रेय जिसे इन्हीं के सारे अपराध हैं, इनमें से किसी का भी तो गुरु नाम लिये बगैर आपकी जो वॉइड की तकलीफ़ है, जो कैन्सर को बनाता है। कैन्सर की पहचान है, यहाँ पर धकाधक धकाधक कुण्डलिनी मारती रहती है। आप ठीक नहीं हो सकते। मैं पूछना चाहती हूँ कितने यहाँ मुसलमान हैं और कितने यहाँ सिख है। एक चीज़ के लिये मोहम्मद साहब मना कर गये थे कि शराब को पीना नहीं । उन्होंने कहा था कि शराब को छूये नहीं। वो बिचारे कुछ नहीं कह गये। उनके पीछे उनका ....(अस्पष्ट) ही कर दिया। उनकी क्या दशा कर दी हम जानते हैं। और आज जो मुसलमानों से पूछना चाहती हूँ कि शराब जरूर पियेंगे वो। चाहे मस्जिद में जरासा बच जाये तो बिगाड़ना शुरू कर देते है और शराब जरूर पीते हैं। इतना ही नहीं शराब पर कवितायें लिखी है। भगवान हो गये शराब उनके लिये। जब हम, जिन्होंने हमें इस सत्य का पथ बताया है, उसी पथ को तोड़ने पर हर समय अपने से ही नफ़रत करने पर जीते हैं, सारे संसार में नफ़रत को बाँटने की सोच रहे हैं। तब और क्या होगा! और इसलिये अहंकार है। इतना छुपा हुआ अहंकार हमारे अन्दर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर है। वो अहंकार आपको विशेष रूप से दिया गया था कि अहम् करें, मुझे करने का है। मुझे क्या करने का है ? किसे पाने का है? किस का कार्य मुझे करने का है ? इसकी मुझे शक्ति दें। एक ब्रश है, उसे क्या करने का है कि एक कलाकार के हाथ में पूरी तरह से हो जाने का है। समर्पण करने का है। उस समर्पण को तो छोड़ कर ही उस अहंकार में इतनी जड़त्व की सृष्टि करी हुई है, उसका ही रूप देख लीजिये। कभी अरब लोग अकड़े बैठे हुये हैं, कभी ये लोग अकड़े बैठे हैं, वो अकड़े बैठे हैं। सब के दिल खुलने वाले हैं। आपको पता होना चाहिये, कि किसी भी देश में किसी भी तरह की हानि होगी तो वो देश नहीं मिटेगा, लेकिन सारा संसार मिट जायेगा। इसी तरह से हर एक मनुष्य का है, हमारे अन्दर अगर कोई हानि होगी तो एक ही सृष्टि की रचना करने वाली वो शक्ति हमारे अन्दर और सब के अन्दर सूत्ररूप से ये बह रही है, इसमें धक्का लगेगा । और कौनसा 14 (अस्पष्ट) आप चाहते हैं। अंधों के लिये कोई ..... पूरा नहीं। उनके लिये तो यही एक अजीब बात है कि एक औरत जात, वो भी एक हाऊस वाईफ़। वो कैसे ये बातें जानती है। और सीताजी कौन थी ? और राधाजी कौन थी? और मेरी कौन थी? कोई बड़ी सी बड़ी भारी विदुषियाँ थीं? आपको पहचानने के लिये पहले अपने लिये प्यार होना चाहिये। थोड़ा सा प्यार आपके अन्दर आ जाये, तो आपकी कुण्डलिनी हम ठिकाने कर देते हैं। क्योंकि ये प्रेमस्वरूपिणी है। इसका आपसे अत्यंत प्रेम है। और जब मनुष्य अत्यंत प्रेम किसी से करता है, तो वो क्या चाहता है? कि यही प्रेम सारे संसार में हो। क्योंकि प्रेम देने का अत्यानंद, वो चाहता है कि वो भी अपनायें, और वो भी अपनायें और वो भी अपनायें। सब कुछ हम जिस आनन्द के लिये कर रहे हैं, वो सिर्फ इस प्रेम के प्रकाश से ही है। इस प्रेम के प्रकाश के लिये आपको ....(अस्पष्ट) किया है, जैसे मैंने कहा था। आपका दीप जलाया जायेगा, लेकिन उसको छुपा के रखिये। बहुत बड़े काम के लिये आप चुने गये है। आप दिव्य लोग है, हज़ारों। हज़ारों लोग चुने हैं। बाद में ये न कहना कि माँ ये नहीं बताया, वो नहीं बताया। सब चीज़ हम बताने के लिये तैयार हैं। और आपके स्थान पर बतायेंगे। और तरह का आपको संरक्षण देंगे। ये नहीं कि आप जंगलों में भाग जाईये, संसार से। कोई ज़रूरत नहीं। आपको कोई भी अॅबनॉर्मल बात करने की जरूरत नहीं। घर-गृहस्थी में, बाल-बच्चों में ही आपके अन्दर ये कार्य होने वाला है। और बहार आ गयी है और बहार की खबर आपको है नहीं। फूलों की सजावट जरूर होनी चाहिये। आप लोग मेरे सामने बैठे है। मुरझी हुई कली जैसे मेरे सामने | मैं चाहती थी कि किस तरह से आपके हृदय में दौड़ कर के उसकी सुगंध मैं बहार घूमा दें। और फिर आप ही एक दूसरे को दे सकते हैं। अहाहा, अहाहा। सबसे सृष्टि में जो तेज़ कार्य हुआ है तो मनुष्य चीज़ है। सबसे सुन्दर वस्तु है मनुष्य। बहुत ही आल्हाददायी। और इस वाइब्रेशन्स को जानने वाली और इस प्रेम को जानने वाली इस आनन्द को जानने वाली, अपनाने वाली, एक ही चीज़ है वो है मनुष्य। ऐसे सुन्दर मनुष्य के हृदय में मैं यही चाहती हूँ कि उस आनन्द के दर्शन हो। और फिर वो आनन्द से तादात्म्य पायें। आप लोग मेरी ओर हाथ कर के बैठिये। आप में से कुछ लोगों के हाथ में से ठण्डा ठण्डा सा, जैसे कि कोई एअर कंडिशनर से आता है, ऐसी ठण्डक सी आयेगी । सब लोग अपने ब्रेन की ओर देखें। बुद्धि में आप देखियेगा कि कोई विचार नहीं आ रहा है, विचार ही नहीं। लेकिन आप होश में हैं, पूरे होश में हैं। आप देखियेगा आपकी आँखें खुली हैं । 15 हमें दूसरों से प्रेम करनी है हैद्राबाद, ५ फरवरी १९९० आप सब लोगों को मिल के बड़ा आनन्द आया। और मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी कि इतने सहजयोगी हैद्राबाद में हो गये। एक विशेषता हैद्राबाद की है कि यहाँ सब तरह के लोग आपस में मिल गये हैं। जैसे कि हमारे नागपूर में भी। मैंने देखा है कि हिन्दुस्थान के सब ओर के लोग नागपूर में बसे हुए हैं। और इसलिये वहाँ पर लोगों में | जो संस्कार है उसमें बड़ा खुलापन है। और एक दूसरे की ओर देखने की दृष्टि भी बहुत खुली हुई है। अब हम लोगों को सहजयोग की ओर नये तरीके से मुड़ना है तो बहुत सी बातें ऐसी जान लेनी चाहिये की सहजयोग सत्य स्वरूप है और हम सत्यनिष्ठ हैं। जो कुछ असत्य है, उसे हमें छोड़ना है। कभी भी असत्य का छोड़ना बड़ा कठिन हो जाता है। क्योंकि बहुत देर तक हम किसी असत्य के साथ जुटे रहते हैं, फिर कठिन हो जाता है कि उस असत्य को हम कैसे छोडें। लेकिन असत्य हम से चिपका रहेगा, तो हमें शुद्धता नहीं आ सकती। क्योंकि असत्यतता एक भ्रामकता है और उस भ्रम से लड़ने के लिए हमें एक निश्चय कर लेना चाहिए, कि जो भी सत्य होगा उसे हम स्वीकार्य करेंगे और जो असत्य होगा उसे हम छोड़ देंगे । इसके निश्चय से ही, आपको आश्चर्य होगा , कि कुण्डलिनी स्वयं आपके जो कि जागृत हो गयी है, इस कार्य को करेगी और आपके सामने वो स्थिती ला खड़ी करेगी की आप जान अन्दर , जाएंगे कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। यही नहीं, और आपके अन्दर वो शक्ति आ जाएगी, जिससे आप सिर्फ सत्य को ही प्राप्त करना चाहेंगे और जितना भी असत्य आपको दिखायी देता, उसे छोड़ देंगे। अब बहुत सी बातें जो सहजयोग में बतायी जाती हैं वो बड़े सोच-समझ कर के और आप लोगों के संस्कारों का विचार कर के, कि जिससे आप किसी तरह से दुःखी न हो समझायी जा सकती हैं। लेकिन इस समझाये जाने में भी हो सकता है, कि आप सोचें कि ये बात ठीक नहीं है, वो बात ठीक नहीं। बहुत से शास्त्रों में जो बातें लिखी गयी हैं वो अधिकतर सत्य है। पर कहीं कहीं ऐसा देखा जाता है, कि बीच बीच में बहुत सी गलत धारणायें भी बढ़ती हैं 16 और इन गलत धारणाओं की वजह से हम उसी को सत्य मान के चल रहे हैं। जैसे कि ज्ञानेश्वरी में ऐसा लिखा गया है, कि जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो आप हवा में उड़ने लग जाते हैं और आप पानी पे चलने लग जाते हैं और आप को बहत सात समंदर के दूर की बातें दिखायी देती है। अब ये अशक्य है। क्योंकि ग्यानेश्वरजी एक संत थे, महान संत थे। हम लोगों को उस पर सोचना चाहिये, कि संत लोग जनहिताय, जनसुखाय संसार में आ गये। वो इस तरह की बातें मनुष्य को सिखा कर कौनसा सुख देने वाले हैं? उससे कौनसा आराम होने वाला है कि आप हवा में उड़ने लग गये, तो क्या विशेष हो गये? या अगर आप पानी पे चलने लग जाये कि विशेष हो जाये ? लेकिन जिस चीज़ से हमको असल में लाभ होता है, वो है हमारे अन्दर का परिवर्तन और हमारा परमात्मा से संबंध होना । पर उसी ग्यानेश्वरी में लिखा गया है, कि के जो आत्मा है, विश्वव्यापक जो है उन्होंने खुश होना पसायदान, याने ये की वो कहते हैं, कि अब विश्व चाहिए। क्योंकि मैंने वाणी का यज्ञ किया है और अब ऐसा पसायदान दें, ऐसा चैतन्य दें, जिससे सारे संसार में परिवर्तन आ जाये। और सारी बात परिवर्तन की लंबी चौड़ी हो । तो ये समझ लेना चाहिए कि जो पहली बात थी वो किसी ने उसमें भर दी है। क्योंकि ऐसी बात ग्यानेश्वरजी कभी लिख ही नहीं सकते, कि आप हवा में उड़ेंगे, आप पानी पे चलेंगे। इससे क्या लोगों का फायदा होने वाला! वैसे ही हम लोग हवा में उड़ रहे हैं। वैसे ही हम लोग जहाजों में चल रहे हैं। और वैसे ही दूरदर्शन से हम देखते हैं। इसमें कुण्डलिनी की क्या जरूरत है। सो, कुण्डलिनी से जो कार्य होने वाला है, उसको समझना चाहिए और जिस तरह से हर एक ग्रंथ को हम पढ़ते हैं, तो इसमें ये सोचना चाहिए कि इसका विचार जो है, वो सत्य को पकड़ के है या नहीं। इसी कारण, गीता में भी, हर धर्मशास्त्रों में गलत चीजें लिख दी । जैसे कि गीता में लिखा हुआ है, कि आपका जन्म जिस जाति में होता है, वही आपकी जाति हो जाती है। कभी हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिसने गीता लिखी, वो कौन थे ? व्यास। और व्यास किस के लड़के थे आप जानते हैं, कि एक धीवरनी के, एक मछिहारनी के लड़के थे, जिनकी शादी भी नहीं हुई थी। ऐसे की वो बेटे थे , वो है व्यास | वो ऐसा कैसे लिखेंगे, कि आपकी जो जन्मसिद्ध जाति होगी वही जाति हो जाएगी। लेकिन कहा गया है, 'या देवी सर्वभूतेषु, जातिरूपेण संस्थिता', माने सब के अन्दर | बसी हुई उसकी जाति है। जाति का मतलब होता है, जो हमारे अन्दर जन्मजात, हमारे अन्दर जो एक तरह का रुझान है, अॅप्टिट्यूड है, हमारे रुझान का, हम किस ओर उलझे हुए हैं। बहुत से लोग हैं जो कि पैसे को खोजते रहते हैं। बहुत से लोग हैं जो कि बड़ी सत्ता को खोजते रहते हैं। लेकिन ऐसे भी बहत से लोग हैं जो कि परमात्मा को खोजते हैं। जिसकी जो जाति, माने जिसका जो रुझान है, जिसका अॅप्टिट्यूड है, वो उसके अन्दर एक बसी हुई अॅप्टिटयूड है। इसका मतलब ये है, कि सहजयोग में वही लोग आयेंगे , जो परमात्मा को खोजते हैं, जो ब्रह्म को सोचते हैं, और जो इसमें ध्यान देते हैं कि हमें परम को प्राप्त करना है और दुनियाई चीज़ों में क्या करना है। पहले ऐसे ही लोग आयेंगे। प्रथम में ऐसे ही लोग आयेंगे। जो कि वास्तविक में सोचते हैं, कि किसी तरह से 17 परमात्मा को प्राप्त कर ले। इस परमात्मा चीज़ को जान ले या इस आत्मा में हम लोग समा जाए। इस तरह से जो लोग सोचते हैं, किसी भी तरह से, किसी भी पुस्तक को पढ़ने से, या किसी संत-साधुओं के साथ रहने से, किसी गुरुजन के साथ रहने से, जो लोग इस तरह का सोचते है वो पहले सहजयोग में आता है। इसलिये आप देखियेगा कि सहजयोग की प्रगति धीरे होती है। और सब चीज़ों की प्लास्टिक प्रगती है। हजारों आदमी आप पा लें, कि जो किसी गुरु के पीछे में दौड़ेंगे। लेकिन वो छोड़ देते हैं, उनको कोई लाभ नहीं होता। उनको पैसा देते हैं, किसी तरह से ठीक हो जाते हैं। लेकिन हमको ये सोचना चाहिए कि जो सच्चाई होती है और जो जीवंत चीज़ होती है, वो धीरे-धीरे पनपती है। एकदम ज्यादा नहीं पनप सकती। आपको अगर एक वृक्ष में फूल आने हैं, तो एक-दो ही फूल आते हैं, फिर चार-पाँच फूल आते हैं, फिर धीरे-धीरे उसमें अनेक फूल आ जाते हैं। तो मनुष्य को जब सहजयोग की ओर रुझान हो जाती है और वो सहजयोग में आ जाता है, तो उसको कभी -कभी बड़ा दू:ख होता है, और उसे लगता है कि इतने धीरे-धीरे सहजयोग क्यों बढता है? सहजयोग की प्रगती इतने धीरे क्यों होती है? फिर उसकी वजह आप समझ गये कि ये जीवंत चीज़ है और इसमें किसी पे जबरदस्ती हम नहीं कर सकते। हम किसी को कहें कि आप पार हो गये। तो नहीं हो सकते। ये होना पड़ता है। जब तक ये होना नहीं होगा, जब तक ये बात घटित नहीं होगी, तब तक हम नहीं कह सकते, कि ये हो गया। से तो मुझे कहने लगे कि, जैसे हमारे साथ एक देवीजी थी, वो गयी अमेरिका। उनका लड़का आया होनोलुलु 'माँ, इनको आप पार कराओ।' मैंने कहा, 'ये होते नहीं, मैं क्या करूँ? तुम करा दो पार।' कहने लगी कि, 'जब आप से नहीं होते तो मैं कैसे करूँ?' मैंने कहा कि, 'क्या उसको झूठा सर्टिफिकेट दे दें कि ये पार हो गया ?' कहने लगी, 'उससे क्या फायदा होने वाला!' मैंने कहा, 'यही बात है।' इसलिये ये घटित होना पड़ता है और ये सत्य स्वरूप प्राप्त होना चाहिए। अगर ये नहीं हुआ और कोई झूटमूट में ही कहने लगे कि, 'मुझे पार हो गया , बहूुत हो गया।' और हर आदमी पार हुआ ऐसा भी नहीं कह सकते। बहुत से लोग नहीं होते हैं। अनेक कारणों से नहीं हो सकते। किसी को कभी ये लगता है कि ऐसे कैसे हो सकता है। ज्यादा तर लोगों में तो ये विचार आता है, कि 'जब कभी हुआ नहीं, इसके लिये इतनी तपस्या करनी पड़ती थी, हिमालय जाना पड़ता था, ये करना पड़ता था, तो अब हमें कैसे होगा?' असल में किसी से कहा जाये कि यहाँ एक हीरा रखा है और आपको मुफ़्त में मिल जायेगा तो सब दौड़ आयेंगे। उसको नहीं छोड़ेंगे। लेकिन जब कहा जाये कि सहज में ही, सस्ते में ही, बगैर पैसे दिये ही आपकी कुण्डलिनी जागृत हो जायेंगी तो लोग विश्वास नहीं करते। क्योंकि अपने आत्मविश्वास में और वो समझ नहीं | सकते कि ये समा कौनसी है? ये कौनसी विशेष समा है जिसमें ये चीज़ घटित हो सकती है? तो हमारे लिये क्या सोचना चाहिए कि हम लोग जो हैं आज एक विशेष स्थिति है। हम लोगों ने कुण्डलिनी का अभ्यास नहीं किया हो, उसके बारे में पढ़ा न हो, लिखा न हो और हमारी जागृति हो गयी| और जब जागृति हो गयी है और हमें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है, तो ये सोच लेना चाहिए कि अब सब कार्य जो है, वो हम नहीं करने वाले। ये चारों तरफ फैला हुआ परम चैतन्य है, जिस परम चैतन्य ने सारी सृष्टि की रचना की हुई है उसी परम चैतन्य में हम एकाकारिता प्राप्त करते हैं और उस परम चैतन्य का ही ये कार्य है कि वो हमारे सारे कार्य करें। सो, हम कुछ भी नहीं 18 उसी प्रकार हमारा संबंध उस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सूष्टि, परम चैतन्य से हो जाता है उस वक्त हमें कोई भी फिक्र करने की या किसी भी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं। कर रहे हैं। हम तो अकर्म में ही खड़े हये हैं । जैसे कि आज इसमें (मायक्रोफोन) कनेक्शन है, आपका मेन से लग गया, तो मैं इसमें बोल रही हूँ तो सुनाई दे रहा है। इसका उपयोग हो रहा है। उसी प्रकार हमारा संबंध उस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सृष्टि, परम चैतन्य से हो जाता है उस वक्त हमें कोई भी फिक्र करने की या किसी भी तरह की चिंता करने की में सहजयोग में आता है, तो वो सोचता है कि चलो ये भी कर के देख लें, चलो वो भी कर के देख लें। बहुत तर्क - वितर्क करता है। और सोचता है कि चलो इससे काम बन जायेगा, ऐसा होना चाहिये और उसी चिंता में रहता है। लेकिन धींरे -धीरे वो समझ लेता है, कि 'मेरा' करने कुछ नहीं होगा। लेकिन अगर आप ऐसा सोचें कि, 'मैं कर के देख लेता हूँ।' तो परमात्मा कहते हैं कि, 'अच्छा, कर लो तुमको जो कुछ करना है, करो । ' उसको कहते है अल्पधारिष्ट। अल्पधारिष्ट जो है, वो देखता जरूरत नहीं। सारी चिंता वही करते हैं। उस पर भी, मनुष्य जब शुरू शुरू है कि आप एक अल्पधारिष्ट है, चलो इसको कर लें। पर उसके बाद धीरे-धीरे आप में एक पूर्ण विश्वास आ जाता है, कि परम चैतन्य सब कार्य कर रहे हैं। अपने आप स्वयं परम चैतन्य सारे कार्य को दिखा देते हैं और सब कार्य बनते जाते हैं। उसको स्वीकार्य करना चाहिये । किसी भी चीज़ को ऐसा नहीं कहना चाहिये कि ऐसा क्यों है ? अब जैसे बताये कि कभी अगर हमारा रास्ता भूल गये और हम किसी और रास्ते से चलें, यही सोचतें हैं कि किस रास्ते से जाना जरूरी था। इसलिये रास्ता भूल गये और इसलिये हम इस रास्ते पर आ गये। फिर कोई सोचता है, कि इस तरह से क्यों हुआ? ऐसा नहीं होना चाहिये। कभी कभी बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती है । बहुत दिनों बाद समझ में आ जाती है, कि ये होना जरूरी था और इसलिये ये चीज़ घटित हो गयी। तब हम लोग एक तरह से उसमें इतमिनान कर लेते है और यही जान लेते हैं कि जो कुछ भी कहा था वो कितने बढ़िया तरीके से। तो कोई चीज़ हमारे मन के विरोध में हो जाये तो ये नहीं सोचना चाहिये कि परमात्मा ने हमारी मदद नहीं की । परमात्मा ने तो मदद दी है, कि आपके जो मन की जो इच्छा थी वो ठीक नहीं थी। इसलिये जो सही बात होनी चाहिये वो परमात्मा ने आपके लिये कर दी। क्योंकि परमात्मा से ज़्यादा तो हम सोच नहीं सकते। इस परम चैतन्य के कार्य से हम ज़्यादा कार्य तो कर नहीं सकते। इसलिये उसने जो कार्य किये है और उसने जो व्यवस्था की है और वो जो हमारे लिये कर रहे है और जो कुछ हो रहा है, वो सब चीज़़ अत्यंत सुंदर है। और किसी भी परिश्रम के बगैर सहज में ही घटित हो जाती है। मुझे बड़ी ही आनन्द की बात है कि हैद्राबाद में इतने सहजयोगी हो गये। अब सहजयोग में, इसके दो अंग हैं, मेरा ऐसा कहना है कि इन दोनों अंगों को सम्भालना चाहिए। एक अंग ऐसा है, जिसमें ध्यान-धारणा आदि 19 करनी चाहिये। घर में अपने, व्यक्तिगत रूप से ध्यान धारणा जरूर करनी चाहिये। और हमारे अन्दर के दोषों को निकालना है। ध्यान-धारणा की जो हम लोगों की प्रणाली है बहुत ही सरल, सहज है। एक सबेरे दस मिनट, शाम को १०-१५ मिनट बैठने से भी ध्यान- धारणा होती है। पहले अपने अन्दर कौन सा दोष है इसे देख लेना चाहिये। बहुत बार लोग ये नहीं समझते कि समझ लीजिये, कोई राईट साइडेड है, कोई लेफ्ट साइडेड है, तो वो उल्टे इलाज करने शुरू हो जाते हैं। इसलिये पहले जान लेना चाहिये कि हमारी कौनसी दशा है? हमारा कौनसा चक्र पकड़ रहा ? हम कहाँ हैं? ये सब हम लोग जान सकते हैं। आप जब फोटो की ओर ध्यान करेंगे तो आप जान लेंगे कि आपके इस चक्र में दोष है कि उस चक्र में दोष है। उसको पूरी तरह से समझ कर के, उसके ज्ञान के साथ में, उसको आत्मसुविधा लेना चाहिये। उसको सुलझाने के बाद वो व्यक्तिगत हो गया| फिर आपको सामूहिकता में उतरना चाहिये। और सामूहिकता में उतरते वक्त आपको जान लेना चाहिये, अपना हमें दिल खोल देना चाहिये। जिस आदमी का दिल खुला नहीं है, वो सामूहिकता में उतर नहीं सकता। बहुत से लोग संकुचित प्रवृत्ती के हो गये हैं। कारण उन्होंने वो जाना नहीं कि दुनिया कितनी अच्छी है और कितनी हम उसे अच्छे बना सकते हैं। जिसने अच्छी | व्यवस्था देखी ही नहीं, जिसने अच्छा सुन्दर सा संसार देखा ही नहीं , उनको विश्वास ही नहीं होता कि असल संसार में वो भी है। इसलिये वो अपने समुचित हृदय से रहते हैं और दूसरी बात उसमें ऐसी होती है, कि जब हम औरों की ओर नज़र करते हैं, तो पहले हमें उनके दोष दिखायी देते हैं। जब हम दूसरों के दोष देखने लगते हैं, तो हमारे अन्दर ज़्यादा दोष आ जाते हैं। लेकिन हम उनके गुण देखें, उनकी अच्छाई देखें और उनकी सुन्दरता को देखें, तो हमारे अन्दर भी वो सुन्दरता आ जायेगी और उस आदमी की जो दोष होते हैं वो भी लुप्त हो जायेंगे। जब दूसरा कोई है ही नहीं, जब वो हमारे ही शरीर का एक अंग मात्र है, तो फिर उसमें दोष देखने से क्या फायदा! दोष को हटाना ही चाहिये। और दोष को हटाने का सब से अच्छा तरीका है कि उसको किसी तरह से सुलझा कर प्रेम भाव से ही उसको हटाया जाता है। क्योंकि अपना सारा कार्य जो है, वो प्रेम की शक्ति का है और प्रेम ही सत्य है और सत्य ही प्रेम है। जो प्रेम की शक्ति को इस्तेमाल करेगा , वो बहुत ऊँचा उठ जायेगा। हृदय को खोल कर के प्रेम से आपको दूसरों की ओर देखना है। इस तरह से एक तो ये आपका अंग है, जिसमें आप अपने व्यक्तिगत व्यष्टि में प्रगति करते हैं और एक आप समष्टि में प्रगति करते हैं, जो दूसरों के साथ मेलजोल, प्यार हो जाएं। जिसका मेलजोल दूसरों के साथ नहीं बैठता है तो उसको सोच लेना चाहिये कि वो सहज नहीं । जिसका , जो प्रश्न खड़े कर देता है, जिससे लोगों को तकलीफ़ हो जाये, जिससे आपस में प्रेम न बढ़े, आपस में झगड़ा हो जाये, ऐसा आदमी सहज नहीं और ऐसे आदमी से बच के रहना चाहिये। क्योंकि ऐसा आदमी, एक भी आम अगर खराब हो जाये तो सारे आम को खराब कर उसके सकता है। जो आदमी इधर से उधर लगाते जायेगा, इधर से उधर बात करेगा , इसके खिलाफ़ बोलेगा, खिलाफ़ बोलेगा । इसलिये किसी भी सहजयोगी की निंदा सुनना हमारे सहज में एक पाप सा है। क्योंकि उसको सुनने से हमारे कान खराब हो जाते हैं। और उससे हम उस आदमी के प्रति एक तरह से गलत तरीके से कहना चाहिये कि उसके प्रति हमारा जो विचार होता है, वो ठीक नहीं रहता है। आपको दूसरों से जब व्यवहार करना है, तो देखना चाहिये कि हमारे अन्दर कितना औदार्य है। हम कितनी 20 বt दूसरी जो स्थिति है, उसमें है सहजयोग का प्यार होना और सहजयोग का प्रचार होना। ये भी अत्यावश्यक है, विशेषतः औरतों के लिये, रित्रयों के लिये क्योंकि स्त्री जो है शक्तिस्वरूपिणी है। क्षमा कर सकते हैं, हम कितने प्यार से उसे बोल सकते हैं। उनको हम कितने नज़दीक ले सकते हैं। क्योंकि ये सब हमारे असली रिश्तेदार हैं। बाकी की रिश्तेदारी आप तो जानते ही हैं, कि कैसे होती है। लेकिन जो असली रिश्तेदारी है, वो सहजयोग की है और आपको पता होना चाहिये कि चालीस देशों में आपके भाई-बहन बैठे हये हैं। और जब कभी आप उनसे मिलेंगे तो आपकी तबियत खुश हो जायेगी। दूसरी जो स्थिति है, उसमें है सहजयोग का प्यार होना और सहजयोग का प्रचार होना। ये भी अत्यावश्यक है, विशेषत: औरतों के लिये, स्त्रियों के लिये क्योंकि स्त्री जो है शक्तिस्वरूपिणी है। उसको समझ लेना चाहिये कि कौनसा चक्र पकड़ता है। कौन से पैर की उँगली पकड़ी है। उसको कैसे निवारण करना चाहिये। उसमें क्या दोष है। उसे क्या बिमारियाँ हो सकती है। किस तरह से हम लोगों को ठीक कर सकते हैं । कौन से दोषों से हम जान सकते हैं कि कौन से चक्र पकड़े हये हैं। उसका निवारण कैसे करना चाहिये। आदि जो कुछ भी ग्यान है, कुण्डलिनी के बारे में ग्यान क्या है? आदि सब बैठ कर के, मन कर के, सोच कर के और आपको जान लेना चाहिये। लेकिन अधिकतर लोग सहजयोग में आने के बाद उसके ओर ध्यान नहीं देते। उनको ग्यान नहीं होता है और सहजयोग करते रहते हैं। तो उसका ग्यान होना अत्यावश्यक है। क्योंकि ऐसे तो दुनिया में बहत से लोग आये। जो कि हम देखते हैं कि पार हैं। बच्चे हैं बहुत सारे, वो भी ऐसे पैदा होते हैं जो सहजी हैं। लेकिन उनको सहज का ग्यान नहीं। तो माँ लोगों को चाहिये कि वो जाने सहज क्या चीज़ है। उससे वो अपने बच्चों को भी समझ जायेंगे और ये भी समझ जायेंगे की कोई बच्चा जो कि सहज में पैदा हुआ है, वो क्यों ऐसा करता है। उसकी क्या बात है। वो समझने | के लिये उसका ग्यान होना बहुत अत्यावश्यक है। जिन लोगों को इसका ग्यान नहीं होता है वो समझ नहीं पाते कि क्या बात कर रहे हैं? क्या कर रहे हैं? औरों पे इसका असर नहीं आता है। इसका इसलिये ग्यान होना बहुत जरूरी है। और जो चौथी चीज़ बहुत जरूरी है, सहजयोग का प्रचार। अगर आप एक कमरे में बैठे है और एक दरवाज़ा है, यहाँ से अब आपको हवा मिल रही है लेकिन अगर दूसरा दरवाज़ा आपने खोला नहीं, तो हवा का खुला सक्य्युलेशन रुकता है। हवा का प्रवाह है वो रुक जाये। इसी तरह से हम लोग जब दूसरों को सहजयोग से प्लावित करते हैं, उनकी मदद करते हैं, उनको रियलाइझेशन देते हैं, उसका प्रचार करते हैं, उसके बारे में बोलते हैं। अपने रिश्तेदारों को बताते हैं, उनको घर बुला-बुला कर, उनको चाय पिला - पिला कर, ये सहजयोग देते हैं। तब, जब तक आप प्रचार नहीं करेंगे, तब तक आपकी प्रगति नहीं हो सकती। क्योंकि आप जानते हैं कि जब पेड़ बढ़ता है उसकी शाखायें बढ़नी चाहिये और शाखाओं के नीचे उसकी छाया में अनेक लोगों को बैठना चाहिये। नहीं तो ऐसे 21 अनेक पेड़ हैं, पर हम लोग तो वटवृक्ष की तरह हैं और इसलिये हमें चाहिये कि इसके प्रचार में पूरी तरह से सहाय्य करें। उसके लिये जो जो जरूरतें होंगी वो हमें करनी चाहिये। उसकी ओर हमें मुड़ना चाहिये । उसके प्रति हमें पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये और अपना पूरा समय हम सहजयोग के लिये क्या कर सकते हैं, हम सहजयोग में कौनसा प्रदान कर सकते हैं? इसमें आप जानते हैं कि पैसा नहीं लिया जाता। पर जैसे कि आपको कार्यक्रम करना है, तो मैंने सुना कि एक ही नागोराव साहब सारा पैसा दे रहे हैं, ये बात अच्छी नहीं है। अभी से आप थोड़े थोड़े पैसे इकट्ठे कर लें और जब हम आयें तो ऐसा होना चाहिये कि सब को उसमें तन, मन धन से, सब तरह से मदद करनी चाहिये। और उसमें आपको मजा आयेगा। ऐसे हम लोग और तो | इकट्ठे करते रहते ही हैं। ये खरीदते, वो खरीदते हैं। एक चीज़ नहीं खरीदी और सोचा की सहजयोग के लिये रख दी। बहुत से लोग सहजयोग में ऐसे ही हैं, जो पूरी समय सहजयोग का विचार करते हैं । वो ये सोचते हैं कि इससे सारे समाज का, सारे सृष्टि का ही परिवर्तन हो जायेगा। और सारे संसार में आनन्द का राज्य आ जायेगा और हम लोग सारे सुख से रहने लगेंगे। और जो कुछ वर्णित किया गया है स्वर, इस संसार में उतर आयेगा। इतने दिव्य और महान कार्य के लिये सब लोग सोचते हैं, कि हम इसमें पूरी तरह से सम्मिलित हो जाये। लेकिन ऐसे लोग जो सहजयोग में हैं, वो बड़े ऊँचे पद पर हैं और वो बड़ी ऊँची स्थिति में रहते हैं । और इसी में आनन्दित रहते हैं कि हम सहजयोग में बैठे हैं। उनका बिझनेस चलता है। उनको पैसे मिलते हैं। उनके सारे प्रश्न छूट जाते हैं। जो प्रॉब्लेम्स है वो हल हो जाते हैं। और उनकी समझ ही नहीं आता कि कोई | प्रॉब्लेम ही नहीं रहा। ये प्रॉब्लेम भी छूट गया, वो प्रॉब्लेम भी छूट गया। सब ठीक ठाक है। सो, इस प्रकार का जो हमारे अन्दर जागरण हो जाये और हम सत्य की सृष्टि में उतर जाये तो अपने आप हम देखते हैं कि कितनी रूढियाँ और कितने गलत संस्कार, हमारे अन्दर इतने दिनों से आये, और वो हमारे अन्दर घर कर के बैठे हये हैं। और उससे हमारी प्रगति नहीं हो सकती। चाहे कुछ भी हम सोचते रहे होंगे पिछले इस में, कुछ भी हमारे माँ-बाप ने बताया हो, कुछ भी हमारे समाज ने समझाया हो, हमारे उपर इतना भारी उत्तरदायित्व है, जिम्मेदारी है, रिस्पॉन्सिबिलिटी है कि हम ऐसा समाज बनायें, कि वो शुद्ध, निर्मल हो और उस शुद्ध, निर्मल में हमारी धारणा रहें और उस धर्म में हम स्थित हो । आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद । 22 कुण्डलिनी भी एक ज्वाली है, इसकी उत्थाने धधकरती ज्वाली सम है। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है और ऊपर की ओर जाने वाली कोई भी चीज़ पृथ्वी की ओर रिवचती है, केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है। प.पू.श्री माताजी, गणपति पुले, महाराष्ट्र, २१.११.१९९१ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in सूर्य को ग्रहण लग सकता है, पर वह अपने स्थान पर स्थिर रहता है। सूर्य को आप ज्योतिर्मय आत्मी की तुलना हम सूर्य से कर सकते हैं। सूर्य बादलों से आच्छादित हो सकती है, नहीं कर सकते, वह तो अपने आप से ही प्रकाशवान है । बादलों को यदि हटा दिया जाए तो आच्छादन समाप्त हो जाता है, और सूर्य एक बार फिर वातावरण में चमक उठता है। प.पू.श्रीमाताजी, १८.०६.१९८३ ा ---------------------- 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt सं चैतन्य लहरी मई-जून २०१५ हिन्दी म ৭ २> कर 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-1.txt निर्मल वृक्ष 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt इस अंक में अपने अन्दर जो है उसको खोजना है ४ ...8 गुरु नानक पूजा, नोएडा, २३ जनवरी १९९० कुण्डलिनी साक्षात् चैतन्य स्वरूपिणी है ...८ सार्वजनिक कार्यक्रम, मुंबई, २६ मार्च १९७४ हमें दूसरों से प्रेम करना है ..१६ सेमिनार अँड मिटींग, हैद्राबाद, ५ फेब्रुवारी १९९० सहस्रार खुलने के परिणामतः हमारे भरम समाप्त हो गए हैं। सर्व शक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व, उेसकी इच्छा की शक्ती और सहजयीग के सत्य के विषय में आपकी कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। आपको बिल्कुल कोई संदेह नहीं होना चाहिए। परमात्मा की शक्ति की उपयोग करते हुए आपकी पता होना चाहिए कि इसे संचालन करने की आपकी यीग्यता के कारण ही यह शक्ति आपकी दी गई है। सहस्रार पूजी, कबेली, इंटेली, १० मई १९९२ 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-3.txt र अपने अन्दर जो है उसको खोजना है । नोएडा, २३ जनवरी १९९० का २- अन्दर की खोज तो है ही नहीं उनके अन्दर, जो होनी है । अन्दर की खोज ही नहीं है तो फिर कहाँ से आप सिख धर्म को फॉलो कर रहे हैं। यही सिख है और उसको वो कहते हैं सिख्खी । आज गुरु नानक साहब का जनम दिन है और सारे संसार में मनाया जा रहा है वैसे। और आश्चर्य की बात है कि इतना हिन्दुस्तान में मैंने नहीं देखा, फर्स्ट टाइम इतना पेपर में दिया है, सब कुछ किया है। उन्होंने सिर्फ सहज की बात की। सहज पे बोलते रहे। हमेशा कहा, कि सब जो है बाहर के अवडंबर हैं। धर्म के बारे में कहा, उपवास करना, तीर्थयात्रा करना और इधर जाना, उधर जाना, ये सब धर्म के अवडंबर हैं और आपको सिर्फ अपने अन्दर जो है उसको खोजना है। अपने अन्दर जो है उसको स्थित करना है। बार बार यही बात कहते थे । उन्होंने कोई दूसरी बात 4 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt कही ही नहीं। मतलब यहाँ तक कि कोई भी रिच्युअल की बात नहीं करी उसने। उसके बाद जब तेग बहादूर जी आये तो उनका भी आज ही शहीद दिन है, कल है, कल है। कल है उनका दिन। तो वो भी उसी विचार के थे। पर जो लास्ट गुरु थे, उन गुरु ने जो वृद्ध हो रहा था इसलिये सब बनाया, कि आप कड़ा पहनिये, बाल रखिये, ये सब जो चीजें बनायीं, ये सब उन्होंने बनायी। पर गुरु नानक साहब ने तो सिर्फ स्पिरिट की बात की। उन्होंने कहा कि बाकी सब चीजें बेकार हैं। बिल्कुल साफ़ साफ़ कहा है। कोई अब पढ़ता ही नहीं अब करें क्या! एक उँगली रखेंगे, ऐसे पढ़ेंगे, यहाँ तक आयेंगे फिर वहाँ तक पहुँच के फिर उँगली रखेंगे। इस तरह से कोई पढ़ सकता है। अगर उसको ठीक से पढ़ा जाए और उस पर मनन किया जाए तो ये जो शब्दजाल है ये खत्म हो जाएगा। पर लोग सब उसी में फँसे हुए हैं। और इसी में, सिख लोगों का देखिये , क्या हाल है! कहीं नहीं। अन्दर की खोज तो है ही नहीं उनके अन्दर, जो होनी है। अन्दर की खोज ही नहीं है तो फिर कहाँ से आप सिख धर्म को फॉलो कर रहे हैं। यही सिख है और उसको वो कहते हैं सिख्खी । ये आपको हमने लिख के दिया है, ये अब पढ़िये इनको। और जितने बड़े बड़े उस वख्त में, उस जमाने में पहले भी और बाद में भी, बड़े बड़े संत हुए, तुम लोग तो जानते ही थे कौन संत है, कौन असंत है। उनकी सब की कवितायें और ये सब उन्होंने अपने ग्रंथसाहब के लिये की इसलिये ग्रंथसाहब पूजनीय है। क्योंकि ऐसे लोग, जो की जाने हुए थे उस वख्त में, माने हुए थे कि ये बड़े भारी गुरु हैं और इन्होंने बड़ा कार्य किया और जो स्पिरिच्युअल है उनको सबको संघटित कर दिया उन्होंने । यही सहजयोग में हम करते हैं कि हम किसी एक विशेष को नहीं मानते। सब का हम आदर करते हैं। सब का सम्मान करते हैं। ये उन्होंने उस वख्त किया। पर उस वक्त जो कहा था वो शब्दों में खतम। उससे आगे कोई गया नहीं। कबीर ने लिखा है, 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भय', वही बात है कि सब मूर्खों को तैयार किया उन्होंने । अब न तो कोई लड़ाई हुई, न कुछ हुआ। तो ये पगड़ी रखने की जरूरत नहीं। और कच्छे रखने की जरूरत नहीं है | और फलाने और क्या, क्या, कंघी रखने की जरूरत नहीं। सब चीज़ें वो उसी तरह से कर रहे हैं। और शराब पीते हैं। शराब में उनको कोई दिलचस्पी नहीं। शराब को बहुत मना किया है उन्होंने । जो आदमी अपनी चेतना की बात करेगा, वो शराब को सपोर्ट ही नहीं कर सकता। और उधर शराब पीते हैं। इधर ये सब करने का, इसमें बड़े पर्टिक्युलर है। पगड़ी लगायेंगे, ये करेंगे, वो करेंगे, एक क्लॅन जैसे बनाना चाहते हैं और उस क्लॅन में रहना चाहते हैं। और इसलिये ये सब करने से अन्दर की जो बात कही है वो कब होने वाली। सो, इसी तरह से चलता रहा है इन लोगों का। पता नहीं कैसे! दे हैव टेकन टू धिस काइंड ऑफ रिच्युअलिझम और बिल्कुल बाहर आ गये थे। बाह्य में आ गये। बाह्य से ही सब कुछ उनको समझ में आता है। अब इन लोगों को मोड़ना कोई कठिन काम तो नहीं होना चाहिए। उन्होंने वही कहा है जो हम कर रहे हैं। उन्होंने किया नहीं। फर्क ये है। हमने किया है, उन्होंने किया नहीं। कहा है सहज समाधी लागो। कैसे? दिया ही नहीं उन्होंने जहाँ तक। उनके दो शिष्य थे। उन दो शिष्यों को उन्होंने रियलाइझेशन दिया है। अब एक (अस्पष्ट) पर कौन करेगा ये। रियलाइझेशन तो मेरे ख्याल से आदमी अगर दो शिष्यों को दे, तो उसका क्या इफेक्ट आ सकता है। लोगों ने उसका जो बाह्य स्वरूप था वो ले | कर के वर्क शुरू कर दिया। बड़े बड़े वो बनाये, आप तो देखते हैं कितने सारे मंदिर बनाये। क्या क्या बनाया, सब कुछ! उसका कोई फायदा नहीं। मनुष्य कम बनाये। और बाकी बने वो सरदारजी हैं। वो क्या बताये! उनको किस तरह से समझाया जाए। अब सहज में आने लग गये हैं। मैं देखती हैँ। ८-१० सहजयोगी आते ही हैं, जो की सिख हैं। पगड़ी वगैरे लगाये रहते थे। बगैर पगड़ी के आते हैं तो मुझे पता नहीं। पर एक नामधारी सिख है। नामधारी हमें 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt मानते हैं। वो लोग ज्यादा तर बैंकॉक में हैं। काफ़ी लोग आये, ५०-६० नामधारी। वो सफ़ेद पगड़ी पहनते हैं। पता नहीं उनकी क्या विशेषता हैं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वो फॉलो करते हैं। जो उन्होंने कहा होगा। इसी तरह से धर्म में डायव्हर्जन होते जा रहे हैं। पता नहीं कहाँ जा के पहुँचे हैं। आपस में लड़ रहे हैं। फायदा क्या! और उन्होंने तो ये कहा है कि 'मैं मुसलमानों का पीए हूँ। और इनका गुरु हूँ, हिन्दूुओं का और उनका पीए हूँ।' किसी के समझ में तो आने वाली बात नहीं है। जब तक आप पार नहीं होते आपके समझ में नहीं आयेगा और यही बात है। यही होना जरूरी था, पर उनका प्रिपरेशन था हमारे लिए। उन लोगों ने सबने आपको प्रिपेअर किया और अंत में हमारा काम है कि उन्होंने जो कहा कर के दिखाये। लेकिन ये दशा सब की हुई है। समझ में नहीं आता कि कितने लोग ऐसे खो गये हैं कहाँ से, कहाँ से। हमारे यहाँ ज्ञानदेव की मैं बात बता रही थी, कि ज्ञानदेव कितने बड़े हो गये। और वो नाथपंथी थे | और उन्होंने कुण्डलिनी का लिखा भी है। पर ग्यानदेव के शिष्य हये, वो अपने को वारकरी कहलाते है। और एक तमाशा है उनका। इतनी बड़ी बड़ी दो झानियां (झाँज) हाथ में ले कर के, दोनों मिला के एक किलो की, उसको कुटते फिरते जाते हैं पंढरीनाथ, पंढरपूर। और कपड़े, उसको लक्तर कहते हैं, माने झूठ के कपड़े पहन के जाते हैं, फटे ह बड़े हुए। सैक्रिफायसिंग और एक महिना कूटते कूटते वहाँ पहुँचते हैं। और रास्ते में तम्बाकू खाते हैं। ये वारकरी लोग। और फिर उन्होंने उसमें संप्रदाय बनाया। उस संप्रदाय में क्या विशेषता है, की जैसे वो एक पालखी निकालते हैं । ग्यानदेव की पालखी। जिनके पास की जूते नहीं थे पैर के, तो उनकी पादका उसमें रखते हैं। और वो ले कर के गाँव गाँव जाते हैं। अब जिस गाँव जाते हैं, वहाँ पालखी आयी तो सब वहाँ खाना खाते हैं। फिर दूसरे गाँव गयें, फिर पालखी आयीं, वहाँ खाना खाते हैं। भीख माँगने का नया तरीका वहाँ बना हो । इस तरह की चीजें | और तीसरा ये कि उनका जन्म हुआ था, जहाँ आळंदी में, पुणे के पास है। तो वहाँ औरतें एक पूरी कुंडी जिसमें तुलसी लगी हुई है और बिल्कुल मिट्टी से भरी हई है। कम से कम तीन-चार सेर से कम नहीं हुई है। सर पे ले कर के आळंदी तक पैदल जाती है। ये आँखों देखा हाल है। समझ में नहीं आता क्या करें? और बहुत से लोगों ने उनके नाम पर ही इतना पैसा बनाया है। कुछ समझ में नहीं आता है। कैसे लोग इस चीज़ को मानते हैं। किसी भी आदमी का नाम ले लो, पैसे बनाओ। और इसी तरह उसका सारा जो कार्य था खत्म हो गया। इतना ही नहीं, एक साहब है, वो ग्यानदेव पे बड़ा भारी लेक्चर देते हैं। वो बहुत पैसा बनाते हैं। सिर्फ लेक्चर दे के। अपने मन से जो चाहे वो बोलते रहें उनके बारे में। लोग अपना सुनते जा रहे हैं। इस तरह की अंधश्रद्धा भरी हुई है सब में। और इसी तरह से गुरु नानक साहब के साथ भी हो गया। मैं देखती हैूँ कि कोई जानता ही नहीं कि गुरु नानक साहब ने क्या कहा, क्या नहीं कहा। और यहाँ तक कि चंदीगढ़ बनाया है उन्होंने। चंदी सी बात करी है, हमारे आने की बात करी है। सबकुछ वर्णन किया हुआ है। कोई नहीं सुनता, कोई देखता भी नहीं। तो, इसी तरह हर एक का हो जाता है। पर अब जो है जिसको पार हो गये वो पार हो गये। क्यों कि आपको सत्य मिल गया तो आप झूठ नहीं स्वीकार कर सकते। और इसमें से कोई झूठ निकले भी तो खतम हो जाये। अब इतने लोग पार हो गये हैं सारे संसार में कि अब कोई झूठ नहीं फैल सकता। हमने जो कहा, वो टेप है, रेकॉर्डेड है। सब कुछ है। तो कोई उसको बदल नहीं सकता। इसलिये मैंने किताब नहीं लिखी । क्योंकि टेप को तो सुनना पड़ता है। पर जो किताब है उसको तो हम पढ़े जा रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। इससे बेहतर है किताब कम लिखो। ज्यादा जो है, वो सुनने को हो। सुन, 6. 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt सुन के खोपड़ी में जायेगा। नहीं तो पढ़ने में बस, मनोरंजन हो रहा है, पढ़ रहे हैं। तो क्या फायदा! और जब, आप देखते हैं कि सहजयोग का हाल होने वाला है, समझ में नहीं आता, कि अब तो ये बिगड़ नहीं सकते हैं। अब एक हद तक पहुँच गये हैं, अब नहीं बिगड़ सकते। ऐसा मेरा विश्वास है। गलत काम नहीं करना चाहिए। यही एक उनके दिये हुए से सीखना है। गुरु नानक क्या कह गये। किताब पे किताब लिख गये । गुरुवाणी पढ़ी है, तो यही कहा है, कि अपने को जानो , अपने को पहचानो। और लोग कर क्या रहे हैं? लेकिन सहज में ऐसा होगा नहीं। क्योंकि अब तो सबको पका लिया मैंने। अब तो नहीं बदल सकते आप लोग, चाहे तो भी नहीं हो सकता। जो हो गया सो हो गया। और कितना अपमान है उनका। और कितने उन्होंने तकलीफ़ें कुछ झेलीं, कितनी उत्पत्ती हुई, पर जागृती नहीं दी, ये पॉइंट आज हम कह रहे हैं। कि जागृती नहीं दी, अनुभूती नहीं दी । तो फिर अब उसका जो भी करना चाहो, जैसे के वैसे। फिर आप किसी का नाम लीजिये, उस किताब में थोडी बदल होने वाला है। जागृती से ही होगा। और यही उनके सिख लेसन सबको लेना चाहिये कि हम इस तरह से गलत रास्ते से नहीं जाएंगे। या हम कोई अलग धारणा लगायें। ये बहुत जरूरी है। हम जो हैं, सहजयोगी हैं। इतना विशद रूप से सहजयोग समझते हैं, गहन समझते हैं कि अब इससे कोई और चीज़ निकालने की जरूरत नहीं । अभी भी एकाध-दो होते हैं कि ये ऐसा है तो ये करो, वो करो। सब बेकार की बात है। बिल्कुल, क्या कहना चाहिये, कि एक तरह का झूठा ही गँवा रहे हैं वो। सच्चाई कुछ भी नहीं। जो चीज़ कही ही नहीं वो चीज़ कर रहे हैं। पर अब ऐसा ही की अब वो कान से सुनेंगे। पता चलेगा। वो तो कान से तो जायेगा ना सर में। पढ़ने से नहीं जायेगा। समझेंगे कि ये नहीं काम आने वाला। जो नहीं कहा, नहीं कहा। क्यों करते हो ऐसे। पर वो पुराने संस्कारों की वजह से है। उससे भी होता है। जो हमारे पुराने संस्कार हैं कि दूसरा की हमारा जन्म इसमें हुआ तो वैसे हम चलें। ये जब तक नहीं छूटता है, तब तक सहज का असली रूप उतरता नहीं। और आपको तो स्पेशल बनाया हमने। स्पेशल लोग हैं आप। स्पेशल धर्म आप जानते हैं। सब कुछ आप जानते हैं। अपने बारे में जानते हैं, दूसरों के बारे में जानते हैं। जागृती आप कर सकते हैं। सब आज समझ सकते हैं। आप तो संपूर्ण हो गये। अब इसके बाद बिगड़ने की क्या बात है। तो इस पर आज मुझे ये विचार आया कि गुरु नानक साहब ने कितना सहन किया, वाईफ भी उनकी ठीक नहीं थी। बहुत परेशान थे। और कर के उन्होंने जो बनाया उसका क्या हाल है। ऐसे ईसा मसीह का, ऐसा ही सबका हाल है। महम्मद साहब का यही हाल है। सब से ज्यादा गुरु नानक साहब का हुआ, क्योंकि वो सब से लास्ट आये थे। और बहुत समझाया, बहुत कुछ किया। उसके बाद साईनाथ आये। साईनाथ कहते थे कोई जरूरत नहीं। सब बेकार है। साफ़ कह दिया उन्होंने । आपने कुछ चीज़ शुरू कर दी। तो सब लोग खराब हो जाये । जागृती नहीं दी। जागृती के बाद अलग है, सब एक हो जाते हैं, समझदार हो जाते हैं। उसके बगैर बहुत मुश्किल काम है। तो, उन्होंने तो किया ही नहीं ऐसे। कोई ऑर्गनाइज ही नहीं किया लोगों को, जोडा ही नहीं, कुछ नहीं। उनके शिष्य हो गये। बस। और हमने भी ऑर्गनाइज नहीं किया। हमारा कोई ऑर्गनाइझेशन नहीं है । कुछ नहीं । पर पार होने पर ऑटोमॅटिक ऑर्गनाइज्ड हो जाते हैं। जैसे ये शरीर है। इसके सारे अंग-प्रत्यंग ऑर्गनाइज्ड है। उसी तरह से । कोई ऑर्गनाइझेशन नहीं है। कुछ नहीं है। सब ऐसे ही चला है। आप सब को अनंत आशीर्वाद हैं । और ये ध्यान रखना है कि हमने जो पाया है, उसको विकृत नहीं करना है। इससे बढ़ के कोई और पाप नहीं है। उसको विकृत नहीं करना किसी भी वजह से। 7 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt कृण्डलिर्नी साक्षात् चैतन्य-स्वरूपिणी है ७) १प मुंबई, २६ मार्च १९७४ आप लोग परमात्मा पर विश्वास करे या न करे, इससे परमात्मा का होना या न होना निर्भर नहीं है। अगर हम आपसे कितना भी कहे की परमात्मा है, और आप उसका विश्वास भी कर ले तो भी उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। चाहे आप अविश्वास करें, तो भी आप अज्ञान में ही अविश्वास कर रहे हैं और अगर आप विश्वास कर रहे हैं, तब भी आप अज्ञान में ही कर रहे हैं। उसको पाये बगैर विश्वास कर लेना भी अज्ञान ही होता है और उस पर अविश्वास कर लेना भी अज्ञान ही होता है। इसलिये जब मैं इस विषय पे बातचीत कर रही हैँ, आपको एक खुले दिमाग से, जैसे कि एक साइंटिस्ट होता है, एक शोधक होता है उनको कुछ भी पता नहीं है। उसकी प्रिकन्सीव्ड आइडिया नहीं है, जिससे पहले से कुछ सोच के रखा है। इस तरह से आपको बैठना चाहिये। इस विषय पे न जाने कितनी किताबें मनुष्यों ने लिख मारी। एक अनन्त सागर सा है। उस में से न जाने कितने ही लोगों ने असत्य ही ये लिखा है। लेकिन सत्य और असत्य की पहचान क्या है? सत्य की पहचान है, वो हर हालत (अस्पष्ट) हो जाता है और किसी भी कसौटी पर वो झूठा साबित नहीं होता है, वही सत्य है। जो हम आपके सामने अभी बातचीत करेंगे, या जो कुछ भी आपको बतायेंगे , इसको एक साइंटिस्ट की तरह सुनने का मतलब ही होता है कि आपके सामने हायपोथिसिस हम रख रहे हैं। एक विचार रख रहे हैं। उस विचार को बाद में हम सिद्ध कर के दिखा सकते हैं और जो यहाँ लोग पार बैठे हैं, जिन्होंने हमारे काम देखे हैं, वो जानते हैं कि ये बात सिद्ध होती है। लेकिन दिमाग खुला रखें । ये बहुत जरूरी है। क्योंकि आप में से बहुत से लोग ऐसे हैं कि इस विषय में बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। सीखने को तो कुछ भी नहीं लगता है। आपके पास अगर थोड़ा सा पैसा हो या कुछ आपके चेले मदद करने के लिये तैयार हो, तो आप किताबों पे किताबें लिख के चले जा सकते हैं। और आपको मामले में पूछने वाला कौन है कि तुमने ऐसा क्यों लिखा ? धर्म पे सत्य की कोई भी खोज करना जरूरी नहीं। धर्म के तो चाहे जो भी चाहे बोल सकता है। हिटलर जैसा आदमी भी धर्म पे बोलता था और नेपोलियन जैसा आदमी भी 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt बोलता था। क्योंकि (अस्पष्ट) में, उनको पकड़ने वाला कायदा अभी बना कहाँ है ? जिनको जो चाहे धर्म के नाम पे बेचिये उनको जेल में डालने वाला कायदा बना कहाँ है? लेकिन आप सत्य के ही पुजारी हैं और आप सत्य को ही जानना चाहते है, तो हमारी भी बात पर यकीन आपको पूरी तरह से बिल्कुल नहीं करना चाहिये। जब तक आप ये न देखे कि जो हम कह रहे हैं वो वास्तविक ही है। आप मनुष्य हैं और अपनी में खड़े रहना चाहिये । ये नहीं की जो आपको कुछ कह गये, या लिख गये या बता दे वो आपमें छा जायें। ये मनुष्य का लक्षण बिल्कुल नहीं है। जो स्वतंत्रता के सीढ़ी पर खड़ा हो कर के परमात्मा को ये भी कहता है कि , 'तू नहीं है।' वो कहीं अधिक मनुष्य अच्छा है, उस आदमी से, परवशता में परमात्मा को कहता है कि, 'हाँ, तू है।' सहजयोग में परतंत्र आदमी के साथ हम कुछ नहीं कर सकते । कल मैंने आपसे यही कहा था, कि सहजयोग में आपकी अबोधिता, इनोसेन्स जरूरी है, लेकिन स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है। और इसलिये स्वतंत्र बुद्धि से आप बैठे । न तो हमारा नकार हो और न ही हमारा स्वीकार हो, जब तक आप उसको पा न ले। जो कुछ भी हम बात कह रहे हैं वो जब तक आपका सेल्फ रियलाइझेशन नहीं हो जाता है तब तक पता ही नहीं हो सकती। आप जान ही नहीं सकते उस बात को, जिसे हम कह रहे हैं। जैसे कि आपका कनेक्शन नहीं लगता है, आप कोई भी टेलिफोन करिये उसका कोई अर्थ ही नहीं होता है। कम से कम, कम से कम मनुष्य को धर्म के बारे में जानना होता है, तो रियलाइझेशन कम से कम हो । उसके पहले मनुष्य योग्य नहीं है कि धर्म को जाने। जैसे अपने देश में पहले कहते थे कि किसी ब्राह्मणही धर्म को जाने। ब्राह्मण का अर्थ ही वो होता था कि जो रियलाइज्ड है। हर एक आदमी ब्राह्मण नहीं होता है। आज मैंने आपसे कहा था, कि मैं सृष्टि, स्रष्टा, ब्रह्मा आदि बातों की चर्चा करूंगी। पहले भी मैंने बताया हुआ है, कि जैसे कोई एक जीव होता है और उसके अन्दर जो कुछ भी उसी से पैदा होने वाला है उस सब का नक्शा होता है। उसी तरह आप एक ब्रह्म स्वरूप का विचार करे, कि एक ब्रह्म स्वरूप ही वर्तमान है। जिसका आदि नहीं और अंत नहीं। जो अनादि है ऐसा एक ब्रह्म बीज स्वरूप में घटित आप अपने चित्त में धरे। उस ब्रह्म की स्थिति एक साधारण जीव जैसी है, जो कि सृजन शक्ति से स्पंदित है। जैसे कि एक छोटा सा बीज होता है। उसके अन्दर उसकी जर्मिनेटिंग पॉवर या उसकी सृजन शक्ति होती है। उसी तरह से इस ब्रह्म में भी अपनी सृजन शक्ति है। और जब वो पहले ही फूट पड़ता है, पहले ही उसमें उसका स्पंदन होता है, पहले ही जब वो स्पंदित हो जाता है, उसी वक्त प्रणव की स्थापना होती है। उस शक्ति की स्थापना होती है। और वो शक्ति उस बीज से अलग हट कर के अपने अहंकार में स्थापित हो कर के सारी सृष्टि की रचना करती है और वो जो बीज है वो ईश्वर स्वरूप हो कर के और उसका खेल देख रहा है। जैसे कि एक टैलिविजन रखा हुआ है उसे वो देख रहा है। उसका पसन्द खेल आ गया तो वो देख रहा है और उसे नापसन्द आ गया तो वो ऑफ़ कर देता है। इसी ईश्वर को हमारे शा्रों में शिव के नाम से जानते हैं और उस शक्ति को शिबानी कहते हैं। जिसे हम महाशिव कर के पुकारते हैं । उसी को लोग ईश्वर, फादर, गॉड, परमात्मा और जिसे हम शक्ति कहते हैं उसी को लोग होली घोस्ट, रूह आदि अनेक शब्दों से जानते हैं। यही शक्ति सारा सृजन करती है। यही शक्ति जब सृजन करने लग जाती है, उस वक्त ये अपने ढंग से सृजित होता 9. 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt कि एक है। उसका अपना एक ढंग होता है। मानव दशा में आने पर जिसे की एक शक्ति जैसे मैंने कल बताया था, जड़ तत्त्व है और एक चैतन्य तत्त्व है। दो तत्त्वों से ये सारी सृष्टि बनती है। चैतन्य तत्त्व जब जड़ तत्त्व से काम करता है, तब ये सृष्टि का सृजन होता है और सारी सृष्टि तैयार होती है। करते करते मनुष्य दशा पे हम आ जाते हैं। विस्तृत रूप से तो मैं बहुत बार बता चुकी हूँ। लेकिन आज विशेषत: कुण्डलिनी पर आना है। इसलिये मैं जरा जल्दी में वहाँ पहुँचना चाहती हूँ। मनुष्य में ये जब जड़ शक्ति, छोटे से बच्चे के रूप में माँ के गर्भ में दो-तीन महिने की दशा में पहिली मर्तबा स्पंदित होती है, उस वक्त उसके हृदय में जो पहला स्पंदन होता है, वो पहला स्पंदन उस व्यक्ति के हृदय में होता है, वो ईश्वर का होता है। इसी को हम आत्मा कहते हैं। परमात्मा आत्मास्वरूप हमारे हृदय में पहली बार और शक्ति जो है वो हमारे सर के इस तालु प्रदेश से चीर कर के अन्दर हमारे पृष्ठ भाग में एक स्पाइनल कॉर्ड है, जो रीढ़ की हड्डी है, उस से गुज़र के और त्रिकोणाकार उस अस्थि में, अस्थिपूर्ण में जा कर के बैठती है। ये बैठती है या नहीं, वहाँ होती है या नहीं? उसकी क्या स्थिति है, वास्तविकता है या नहीं? आप कह रही थी तो माना। बिल्कुल न मानिये। लेकिन मैं आपको दिखा सकती हूँ। आप चाहे पार हो न हो, अगर आपके पास आँखें हैं आप अँधे नहीं हैं, तो आप देख सकते हैं कि वहाँ पर कुण्डलिनी के नाम से स्थित है और जब कोई मेरे पैर पे आता है तो फौरन वहाँ पे स्पंदन होने लगता है, जहाँ पर की त्रिकोणाकार अस्थि है। त्रिकोणाकार अस्थि में स्पंदन होने की कोई बात नहीं है क्योंकि वहाँ हृदय नहीं है। वहाँ पे हृदय नहीं है, लेकिन वहाँ आपको दिखाई देता है कि उस आदमी का अगर कोई कपड़ा पहने हो , तो वो ऊपर-नीचे हिलता है और कभी कभी बहत जोर से हिलता है। उसके बाद आप जब देखते है, कि जब वो चढ़ती है, ऊपर में, ऊपर में चढ़ते वक्त वो किसी किसी जगह रुकते स्पंदित होती है, और किसी-किसी जगह इसका स्पंदन इतने जोर से दिखाई देता है, कि जैसे हृदय चक्र जहाँ हुए, पीछे में है, वहाँ पर आपको ऐसा लगता है कि कपड़ा उठ रहा है, गिर रहा है, कपड़ा उठ रहा है, गिर रहा है। इसलिये हम लोगों ने प्रयोग किये हैं, एक्स्परिमेंट किये हैं, जो लोगों ने अपने आँखों से साक्षात देखा हुआ है। ये लोग कहते हैं कि, कुण्डलिनी कोई चीज़ ही नहीं होती। कुण्डलिनी पे विश्वास ही नहीं करते हैं । इनको चाहिये कि एक मर्तबा आ कर देखें कि कुण्डलिनी नाम की चीज़ आपके अन्दर में है, शक्ति नाम की चीज़़ अपने अन्दर में है और वो आपके त्रिकोणाकार अस्थि में है। इधर-उधर नहीं है। इसका सामने साक्षात हो सकता है। आप इन आँखों से, नेकेड आई से आप देख सकते हैं, कि कुण्डलिनी है। उसके बाद आप ये भी देखते हैं, कि धीरे-धीरे आपकी पीठ में ऐसा लगता है कि कभी कभी की चीज़ बह रही है। किसी किसी को तो सिर्फ हमें देखते ही साथ फटाक् के साथ ऐसा लगता है कि कोई भी ...(अस्पष्ट)। या उनके पूर्वजन्मों के पुण्यों का तरीका है। जो उन्होंने धंदे इकट्ठे किये हैं कि एकदम से साक्षात् हो जाते हैं, खट् से कुण्डलिनी खोल देते हैं। और किसी किसी में रुकावट सी लगती है। धीरे चढ़ी, नीचे चढ़ गयी, किसी को थोड़ी सी गर्मी महसूस हो गयी। इसकी वजह ये है कि आपके अन्दर जो कुण्डलिनी का मार्ग है, वो जैसे मैं आपको दिखा रही हूँ, इस तरह से ....प्रतीक है। जैसे कि एक इधर से गिर सकते हैं, एक इधर से गिर सकते हैं। ये देख रहे हैं न आप! ये दो और शक्तियाँ हमारे अन्दर हैं जो इड़ा और पिंगला हैं। इसके बारे में मैं कल बताऊंगी। ये किसी न किसी कारण से अपनी तरफ़ इस मार्ग से खींच लेती है। और इसीलिये ये मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और 10 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt कुण्डलिनी ऊपर चढ़ नहीं पाती वो जा कर रुक जाती है, इस जगह जहाँ मार्ग रुकता है। ये कुण्डलिनी साक्षात् चैतन्य-स्वरूपिणी है। चैतन्य का अर्थ मैंने कल आपको बताया था कि चैतन्य सब जानता है। चैतन्य सब पहचानता है। इतना ही नहीं लेकिन संसार का सारा सृजन चैतन्य से होता है । और चैतन्य जो है प्रेममय है। ये कुण्डलिनी भी प्रेमस्वरूपिणी आपकी अपनी माँ है । ये जरासा फर्क आ जाता है। जो आपकी अपनी माँ है, उसका और कोई बेटा नहीं है। वो आपके बारे में सबकुछ जानती है। जैसे कोई टेपरेकॉर्डर अपने है कि इस बच्चे में क्या दोष है? इसे क्या तकलीफ़ है? इसके शरीर में कौनसी पीड़ा है? अन्दर सब कुछ लिखे हुए इसकी कौनसी वेदना है? इसने क्या क्या तकलीफ़ उठाई? ये साक्षात् में है। आजकल के मॉडर्न टाइम में कोई अगर कुण्डलिनी की बात करे तो लोग विश्वास नहीं करते। लेकिन इसी टाइम में जब कि आप साइन्स की इतनी बड़ी हज़ार पताका लगा कर घूम रहे हैं, तो क्षण आ गया है कि आपको फिर से धर्म के रास्ते की ओर अपनी नज़र उठा के देखना पड़ेगा। क्योंकि साइन्स समझ चुका है कि अभी तक हमने कुछ जाना ही नहीं। मेडिकल साइन्स में, कैन्सर, कैन्सर समझ ही नहीं आ रहे है किसी को क्या है । कैन्सर क्या चीज़ है किसी को समझ ही नहीं आ रहा है । जो लोग साइन्स की नाम पर डंके की चोट पर बड़ी शान से अहंकार दिखाते हैं, वो मुझे बता दें कि कैन्सर क्यों है? बड़े बड़े डॉक्टर होते हैं, वो नहीं बता पाएंगे। मैं बताती हूँ कि कैन्सर यही जो | आपने कहा था कि खिंचाव, सिम्परथैटिक नर्वस सिस्टीम के खिंचाव से, ओवरोंक्टिविटी से होता है। और इसका इलाज सहजयोग के सिवाय कोई और है ही नहीं। आज जो मैं कह रही हूँ दस साल के बाद शायद लोग मान जायें। पर न जाने कितने लोग कैन्सर से खतम हो जाये । संसार अजीब है। कोई चीज़ का आप पता लगाईये। तो मानव का दिमाग ऐसा होता है, जो पता लगाता है, उसी को फाँसी चढ़ा दें। उसकी बात मत सुनो। लेकिन मरने के बाद मंदिर बनाएंगे और उसका गौरव करेंगे आज मैं जिंदा आपके सामने बता रही हूँ कि कैन्सर किसी बीमारी का नाम है, जिसे मैं कहती हँ कि ओवरोंक्टिविटी ऑफ द सिम्पथेटिक नर्वस सिस्टीम तो ये डॉक्टर लोग सुनने के लिए तैयार नहीं। लेकिन एकाध डॉक्टर कैन्सर से बीमार पड़ जाए तो माताजी के शरण में आते हैं। हम तो रियलाइझेशन के पीछे में है, कैन्सर के पीछे में नहीं। लेकिन डॉक्टर लोग अगर आँख खोल के देखे और इसको समझने की कोशिश करें और इतना विचार न करें कि उनके पैसों का क्या होगा। तो वो स्वयं ही इस बीमारी का इलाज कर सकते हैं और लोगों को ठीक कर सकते हैं । इसलिये साइन्स से आप कुण्डलिनी के बारे में अगर पूछना चाहते हैं, तो मैं ये कहूँगी कि आपके आँखों पर तो आपका विश्वास है या नहीं। अगर इतना विश्वास है तो आपकी आँखों से देख लीजिये कि किसी की पीठ की रीढ़ की हड्डी में अगर स्पंदन हो रहा है तो आखिर वो क्या है? और वो होने के बाद, आपके पूरे होश में अगर निर्विचारिता स्थापित हो रही है तो आखिर ऐसी कौन सी चीज़ है कि जिससे आप निर्विचार हो सकते हैं । साइकोलॉजिस्ट कितने भी बड़े हो उनसे पूछ लीजिये कि आप निर्विचारिता हमारे अन्दर स्थापित कर सकते हैं ? आपका मन खिंचाव कर ले, लेकिन आपके होश में ही न बात साइलेन्स की और अन्दर शान्ति की बात है, वो अगर कर के दिखा दे तो हम मान जाएंगे कि आपका साइन्स बहुत बड़ा है। अन्दर की शान्ति आये बगैर हम बाहर 11 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt की शान्ति ला नहीं सकते। लेकिन सारी साइकोलॉजी की किताबें खोल के आप सुन लीजिये और इन्ही साइकोलॉजिस्ट के पास जा के देखिये कि क्या ये शान्त हैं? ये क्या हमारा इलाज करेंगे! जो स्वयं ही इसके शिकार है, जिसके हम हैं। लेकिन कितनी भी बात कहूँ, कैसे कैसे समझाऊँ कि बचो, ये कल्कि का जमाना है! और इस कलियुग में ही बड़ा भारी उद्धार होने का समा आ गया है। और उसी के साथ पूरे क्योंकि जो ईश्वर सुपरवाईजर कर के बैठे हुए हैं, जो सर्वसाक्षी हैं, वो आपका स्विच ऑफ करने के लिये बड़े का भी पूरा इंतजाम है, लालायित हैं। देख रहे हैं, कि खेल बनेगा तो जीत हमारी है और नहीं तो संहार है। आप देख ही रहे हैं कि संसार में किस तरह की चीजे आज खड़ी हो रही है। युद्ध है, गरीबी है, रुग्णावस्थायें हैं, देखा नहीं जाता। और इसका कोई भी इलाज मनुष्य टाल नहीं सकता। कोई कहता है कि कम्युनिझम लाओ, कोई कहता है कि सोशलिझम लाओ। कोई कहता है कि फलाना लिझम लाओ। ये सब चलाने के लिये इस परम आनन्द की उपलब्धि हये बगैर, उन तारों को छेड़ने की शक्ति लिये बगैर आप कभी भी आनन्द पा ही नहीं सकते हैं और संतुष्ट तो आप हो ही नहीं सकते हैं। संतोष मनुष्य को परमात्मा के चरणों में मिल सकता है। लेकिन मैं जब परमात्मा की बात करती हूँ तो 'अहाहा, माताजी आ गयी रास्ते पर।' वहाँ तक तो लोग ठीक ठीक चलते हैं, जब मैं साइन्स की बात करती हूँ, पर जैसे ही मैंने परमात्मा की बात की, कि गये। इतना अहंकार है आदमी में। कितना अहंकारी हो गया है, अपने को समझता क्या है। ये परमात्मा जिसने हमें बनाया, इसने सारी सृष्टि की रचना की उसको हम चुनौती दे रहे हैं! आप है किस खेत की मूली। कल उखाड़ के फेंक दिये जाओगे। परमात्मा के नाम में अधर्म देख रहे हैं। सेक्स की बातें अगर परमात्मा के नाम में करियेगा तो आप बड़े धर्मात्मा कहलाये जाते हैं । कलियुग की भी हद होती है। परिसीमा के पाप में हम लोग वाकई डूब चुके है। साइन्स से अगर आप पाप धो कर दिखा सके, साइन्स से अगर आप प्यार बना कर दिखा सके, तो मैं साइन्स के सामने हार मानूंगी। लेकिन हमारा भाषण भी एक भाषण मात्र रह जाये, और कोई अनुभूति आपको न मिले, आप अगर हमारे रहते हुए भी कुछ न पाये, तो हमारा आना भी व्यर्थ हुआ और कहना भी व्यर्थ हुआ। ऐसा कलियुग का घोर, ऐसा अंध:कार हमारे सर पे छाया हुआ है, कि हम अपने आगे किसी को कुछ सोचता ही नहीं । एक पाँव के धूल के बराबर भी ये सारी सृष्टि नहीं है । मेरी बात का आपको मैं यकीन दिलाना नहीं चाहती हूँ। लेकिन एक दिन इसका आपको मैं साक्षात् बनाऊंगी। पहले अपनी तैयारी कर लें। आज कल के नौजवान लड़के और आज कल का जो समाज तैयार हो रहा है, उसमें उतना ही बताया जाये। उनके सर में ये चीज़ नहीं घुसने वाली। इसका कारण ये है कि धर्म के नाम पे महा अधर्म खड़ा कर दिया। कुण्डलिनी की तो बात किसी ने की ही नहीं । कौन करता कुण्डलिनी की बात उस जमाने में। बिचारों ने कुछ कहा ही नहीं, उस पर भी क्रॉस पे चढ़ा दिया। कुण्डलिनी अन्दर साक्षात् है और उसका साक्षात् हो सकता है। और अगर आपको देखना हो तो आप आईये। और अगर नहीं देखना है, और अगर नहीं जानना है तो अज्ञान की जो जो तकलीफ़ें हैं उसे सहना ही होगा। पर एक विचार तो करना ही है कि आखिर हम कर क्या रहे हैं? हम दौड़ कहाँ रहे हैं? क्या पा रहे हैं? अपने ही अन्दर, अपने ही उस ....(अस्पष्ट) के अन्दर सारे देवता बसे हैं। अब ये कहते ही, दिमाग में नहीं जाता, कि ऐसे कैसे माताजी कह रही हैं कि हमारे अन्दर देवता हुए 12 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt बसे हुए हैं? उसका भी आपको मैं प्रमाण देती हूँ। एक साहब थे, उनकी शिकायत है। वो हमारे पास आते हैं। बहुत दर्द होता है। एक दूसरी आती है, हमें बच्चे नहीं होते है। हमने कहा, 'अच्छा! तुम हमारी ओर हाथ करो।' देखते हैं कि कुण्डलिनी उनके स्वाधिष्ठान चक्र में बैठी हुई है। एक छोटा बच्चा बता देगा, कि यहाँ पर इस उँगली में हमें गर्मी आ रही है । जितने भी लोग बैठे हैं, आप लोग देखें, वो आँख बंद कर के बता दें कि इसी उँगली पर, इसी अंगुली पर हमें गर्मी आ रही है। इससे बढ़ के साइन्स और क्या हो सकता है कि सब के सब एक ही चीज़ बतायें की इसमें हमें गर्मी आ रही है। मैं तुमसे नहीं बता रही हूँ। इससे पूछा कि साब, आपको बीमारी क्या है? 'हमारे पेट में बहुत दर्द होता है, तो किसी ने कहा हमें की शिकायत रहती है और किसी ने कहा हमारे बच्चे नहीं है।' सारे के सारे अेऑर्टिक प्लेक्सस जिसे कहते हैं, 6. जो स्वाधिष्ठान चक्र से चालित है उसकी बिमारियाँ हैं और वो इस उँगली पर आप महसूस कर सकते हैं। अब इससे और ज्यादा प्रमाण मैं आपको क्या दूं! जो दो साल का बच्चा भी यही अँगूठा दिखायेगा और सब लोग यही अँगूठा दिखा कर कहेंगे, 'माँ, यहाँ पर।' और फिर जब मैं उस आदमी से कहती हैँ कि, 'अच्छा तुम ब्रह्मदेव का और सरस्वती का नाम लो ।' वैसे लेते ही वो खट्कन खतम हो गया और कहता है कि, 'माँ, मेरी तबियत ठीक हो गयी।' अब इससे भी ज्यादा कोई प्रमाण चाहिये। साक्षात् ब्रह्मदेव और सरस्वती वहाँ बैठे ही हये हैं। अगर नहीं बैठे हैं तो काम कैसे हो गये ! और किसी भी नाम लीजियेगा होने नहीं वाला काम्। अब इससे ज़्यादा और क्या प्रमाण देना चाहिये आप लोगों के सामने | इसको बुद्धिवादी कहे कि बुद्किवादी कहे, जो देखते हये भी उस चीज़ को नहीं मानते। जिसके मूलाधार चक्र पे तकलीफ़ हो उसको यहाँ (हात) गर्मी आती है। अगर उसको बहुत जोर की बाधा हो, बाधा जिसे कहते है रुकावट। या किसी किसी में भूतबाधा पर बैठता है, तब बहत जोर की गर्मी आती है, यहाँ तक कि यहाँ ब्लिस्टर्स आ जाते हैं। बहुत से लोग अपने को भगवान आदि कह कर घूम रहे हैं, इनको तो छोड़िये, पर उनके शिष्यों पर भी, ब्लिस्टर्स आ जाते हैं हाथ में। हाथ जल गये हम लोगों के। उँगलियाँ जल गयी। सब की एक साथ उँगलियाँ जल गयी है। लेकिन लोगों से। (अस्पष्ट) दो साल की पार ही वो पैदा हुई है। वो भागती है सब एक ही उँगली पर सब के ही जलन आती है, एक ही उँगली पर सबसे जलन आ रही है, तो उसके आज्ञा चक्र पर पकड़ है। आज्ञा चक्र पे जो क्रॉस है उसपे ईसामसीह को लटका दिया और ईसामसीह वहाँ हैं, चाहे आप ईसाई हो, चाहे नहीं। इसका साक्षात् हमें आता है। बड़े आये हिन्दू बनने वाले और बड़े आये ईसाई बनने वाले। सब से द्वेष करने के तरीके सीखते हैं। कोई उनका तरीका सीखा है। सबके यहाँ पर अन्दर ईसामसीह का स्थान है और वही गणेशजी हैं। यदि साक्षात् मनुष्य स्वरूप प्रणव, इसकी पहचान में भी गणेशजी के भी बाप वही थे और ईसा के भी बाप हैं। लेकिन अगर कोई पागल आदमी हो, या जिसे भूतबाधा हो, जो मेंटली के रिसिपिएन्ट हो और वो अगर हमारे सामने आ जाये तब हम जो उनको मदद कर रहे हैं या उनके आज्ञा चक्र को रहे हैं। हम उससे छुड़ा अगर कहें कि तुम ईसामसीह का नाम लों। जीजस क्राईस्ट का नाम लो, खट् से खुल जायेगा आज्ञा। | 13 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt अब हम कैसे जानते हैं? ये तो कोई प्रश्न नहीं हुआ, क्योंकि हम जानते हैं और वो होने पर भी, इस पर भी अगर आप लोग विश्वास नहीं करेंगे, की अलग अलग अपने चक्रों पर अलग अलग देवताओं का स्थान पहले से ही आदिशक्ति ने बनाया हुआ है। जब आप का नामोनिशान भी नहीं था और जो लोग आपस में लड़ रहे हैं, उनको भी पता होना चाहिये, कि आप आपस में जिनके लिये लड़ रहे है वो एक है, जैसे हम मोहम्मद साहब और गुरुनानक के लिये है कहते हैं। मोहम्मद साहब और गुरुनानक दोनो एक आदमी थे। उनकी एक पहचान थी। नानक जी के जीवन में ही हम आपको बता दें, की एक बार नानक जी लेटे थे, तो लोगों ने कहा कि, 'आप क्या मक्का की तरफ़, उधर में काबा है, उधर में आप अपने पॉव कर के क्यों लेटे हैं?' उन्होंने कहा, 'अच्छा, मैं पैर कर लेता, ये है काबा घूम गया।' काबा क्या है? मोहम्मद साहब की पाँव की धूल है और वही नानक साहब की भी है। दोनों एक ही आदमी है और उसकी पहचान हम कुण्डलिनी में आपको कराते हैं । जिस वक्त किसी को कैन्सर हो जाए या तो नानक साहब उसे ठीक कर सकते हैं या मोहम्मद साहब, और कोई नहीं कर सकता। क्योंकि हमारे यहाँ जो वॉइड हैं, हमारे यहाँ इस जगह में जो गैप है, जिसे हम भवसागर कहते हैं। भवसागर को पार करने वाले जो आदि हमारे दत्तात्रेय जिसे इन्हीं के सारे अपराध हैं, इनमें से किसी का भी तो गुरु नाम लिये बगैर आपकी जो वॉइड की तकलीफ़ है, जो कैन्सर को बनाता है। कैन्सर की पहचान है, यहाँ पर धकाधक धकाधक कुण्डलिनी मारती रहती है। आप ठीक नहीं हो सकते। मैं पूछना चाहती हूँ कितने यहाँ मुसलमान हैं और कितने यहाँ सिख है। एक चीज़ के लिये मोहम्मद साहब मना कर गये थे कि शराब को पीना नहीं । उन्होंने कहा था कि शराब को छूये नहीं। वो बिचारे कुछ नहीं कह गये। उनके पीछे उनका ....(अस्पष्ट) ही कर दिया। उनकी क्या दशा कर दी हम जानते हैं। और आज जो मुसलमानों से पूछना चाहती हूँ कि शराब जरूर पियेंगे वो। चाहे मस्जिद में जरासा बच जाये तो बिगाड़ना शुरू कर देते है और शराब जरूर पीते हैं। इतना ही नहीं शराब पर कवितायें लिखी है। भगवान हो गये शराब उनके लिये। जब हम, जिन्होंने हमें इस सत्य का पथ बताया है, उसी पथ को तोड़ने पर हर समय अपने से ही नफ़रत करने पर जीते हैं, सारे संसार में नफ़रत को बाँटने की सोच रहे हैं। तब और क्या होगा! और इसलिये अहंकार है। इतना छुपा हुआ अहंकार हमारे अन्दर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर है। वो अहंकार आपको विशेष रूप से दिया गया था कि अहम् करें, मुझे करने का है। मुझे क्या करने का है ? किसे पाने का है? किस का कार्य मुझे करने का है ? इसकी मुझे शक्ति दें। एक ब्रश है, उसे क्या करने का है कि एक कलाकार के हाथ में पूरी तरह से हो जाने का है। समर्पण करने का है। उस समर्पण को तो छोड़ कर ही उस अहंकार में इतनी जड़त्व की सृष्टि करी हुई है, उसका ही रूप देख लीजिये। कभी अरब लोग अकड़े बैठे हुये हैं, कभी ये लोग अकड़े बैठे हैं, वो अकड़े बैठे हैं। सब के दिल खुलने वाले हैं। आपको पता होना चाहिये, कि किसी भी देश में किसी भी तरह की हानि होगी तो वो देश नहीं मिटेगा, लेकिन सारा संसार मिट जायेगा। इसी तरह से हर एक मनुष्य का है, हमारे अन्दर अगर कोई हानि होगी तो एक ही सृष्टि की रचना करने वाली वो शक्ति हमारे अन्दर और सब के अन्दर सूत्ररूप से ये बह रही है, इसमें धक्का लगेगा । और कौनसा 14 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-14.txt (अस्पष्ट) आप चाहते हैं। अंधों के लिये कोई ..... पूरा नहीं। उनके लिये तो यही एक अजीब बात है कि एक औरत जात, वो भी एक हाऊस वाईफ़। वो कैसे ये बातें जानती है। और सीताजी कौन थी ? और राधाजी कौन थी? और मेरी कौन थी? कोई बड़ी सी बड़ी भारी विदुषियाँ थीं? आपको पहचानने के लिये पहले अपने लिये प्यार होना चाहिये। थोड़ा सा प्यार आपके अन्दर आ जाये, तो आपकी कुण्डलिनी हम ठिकाने कर देते हैं। क्योंकि ये प्रेमस्वरूपिणी है। इसका आपसे अत्यंत प्रेम है। और जब मनुष्य अत्यंत प्रेम किसी से करता है, तो वो क्या चाहता है? कि यही प्रेम सारे संसार में हो। क्योंकि प्रेम देने का अत्यानंद, वो चाहता है कि वो भी अपनायें, और वो भी अपनायें और वो भी अपनायें। सब कुछ हम जिस आनन्द के लिये कर रहे हैं, वो सिर्फ इस प्रेम के प्रकाश से ही है। इस प्रेम के प्रकाश के लिये आपको ....(अस्पष्ट) किया है, जैसे मैंने कहा था। आपका दीप जलाया जायेगा, लेकिन उसको छुपा के रखिये। बहुत बड़े काम के लिये आप चुने गये है। आप दिव्य लोग है, हज़ारों। हज़ारों लोग चुने हैं। बाद में ये न कहना कि माँ ये नहीं बताया, वो नहीं बताया। सब चीज़ हम बताने के लिये तैयार हैं। और आपके स्थान पर बतायेंगे। और तरह का आपको संरक्षण देंगे। ये नहीं कि आप जंगलों में भाग जाईये, संसार से। कोई ज़रूरत नहीं। आपको कोई भी अॅबनॉर्मल बात करने की जरूरत नहीं। घर-गृहस्थी में, बाल-बच्चों में ही आपके अन्दर ये कार्य होने वाला है। और बहार आ गयी है और बहार की खबर आपको है नहीं। फूलों की सजावट जरूर होनी चाहिये। आप लोग मेरे सामने बैठे है। मुरझी हुई कली जैसे मेरे सामने | मैं चाहती थी कि किस तरह से आपके हृदय में दौड़ कर के उसकी सुगंध मैं बहार घूमा दें। और फिर आप ही एक दूसरे को दे सकते हैं। अहाहा, अहाहा। सबसे सृष्टि में जो तेज़ कार्य हुआ है तो मनुष्य चीज़ है। सबसे सुन्दर वस्तु है मनुष्य। बहुत ही आल्हाददायी। और इस वाइब्रेशन्स को जानने वाली और इस प्रेम को जानने वाली इस आनन्द को जानने वाली, अपनाने वाली, एक ही चीज़ है वो है मनुष्य। ऐसे सुन्दर मनुष्य के हृदय में मैं यही चाहती हूँ कि उस आनन्द के दर्शन हो। और फिर वो आनन्द से तादात्म्य पायें। आप लोग मेरी ओर हाथ कर के बैठिये। आप में से कुछ लोगों के हाथ में से ठण्डा ठण्डा सा, जैसे कि कोई एअर कंडिशनर से आता है, ऐसी ठण्डक सी आयेगी । सब लोग अपने ब्रेन की ओर देखें। बुद्धि में आप देखियेगा कि कोई विचार नहीं आ रहा है, विचार ही नहीं। लेकिन आप होश में हैं, पूरे होश में हैं। आप देखियेगा आपकी आँखें खुली हैं । 15 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt हमें दूसरों से प्रेम करनी है हैद्राबाद, ५ फरवरी १९९० आप सब लोगों को मिल के बड़ा आनन्द आया। और मुझे इसकी कल्पना भी नहीं थी कि इतने सहजयोगी हैद्राबाद में हो गये। एक विशेषता हैद्राबाद की है कि यहाँ सब तरह के लोग आपस में मिल गये हैं। जैसे कि हमारे नागपूर में भी। मैंने देखा है कि हिन्दुस्थान के सब ओर के लोग नागपूर में बसे हुए हैं। और इसलिये वहाँ पर लोगों में | जो संस्कार है उसमें बड़ा खुलापन है। और एक दूसरे की ओर देखने की दृष्टि भी बहुत खुली हुई है। अब हम लोगों को सहजयोग की ओर नये तरीके से मुड़ना है तो बहुत सी बातें ऐसी जान लेनी चाहिये की सहजयोग सत्य स्वरूप है और हम सत्यनिष्ठ हैं। जो कुछ असत्य है, उसे हमें छोड़ना है। कभी भी असत्य का छोड़ना बड़ा कठिन हो जाता है। क्योंकि बहुत देर तक हम किसी असत्य के साथ जुटे रहते हैं, फिर कठिन हो जाता है कि उस असत्य को हम कैसे छोडें। लेकिन असत्य हम से चिपका रहेगा, तो हमें शुद्धता नहीं आ सकती। क्योंकि असत्यतता एक भ्रामकता है और उस भ्रम से लड़ने के लिए हमें एक निश्चय कर लेना चाहिए, कि जो भी सत्य होगा उसे हम स्वीकार्य करेंगे और जो असत्य होगा उसे हम छोड़ देंगे । इसके निश्चय से ही, आपको आश्चर्य होगा , कि कुण्डलिनी स्वयं आपके जो कि जागृत हो गयी है, इस कार्य को करेगी और आपके सामने वो स्थिती ला खड़ी करेगी की आप जान अन्दर , जाएंगे कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। यही नहीं, और आपके अन्दर वो शक्ति आ जाएगी, जिससे आप सिर्फ सत्य को ही प्राप्त करना चाहेंगे और जितना भी असत्य आपको दिखायी देता, उसे छोड़ देंगे। अब बहुत सी बातें जो सहजयोग में बतायी जाती हैं वो बड़े सोच-समझ कर के और आप लोगों के संस्कारों का विचार कर के, कि जिससे आप किसी तरह से दुःखी न हो समझायी जा सकती हैं। लेकिन इस समझाये जाने में भी हो सकता है, कि आप सोचें कि ये बात ठीक नहीं है, वो बात ठीक नहीं। बहुत से शास्त्रों में जो बातें लिखी गयी हैं वो अधिकतर सत्य है। पर कहीं कहीं ऐसा देखा जाता है, कि बीच बीच में बहुत सी गलत धारणायें भी बढ़ती हैं 16 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt और इन गलत धारणाओं की वजह से हम उसी को सत्य मान के चल रहे हैं। जैसे कि ज्ञानेश्वरी में ऐसा लिखा गया है, कि जब कुण्डलिनी का जागरण होता है तो आप हवा में उड़ने लग जाते हैं और आप पानी पे चलने लग जाते हैं और आप को बहत सात समंदर के दूर की बातें दिखायी देती है। अब ये अशक्य है। क्योंकि ग्यानेश्वरजी एक संत थे, महान संत थे। हम लोगों को उस पर सोचना चाहिये, कि संत लोग जनहिताय, जनसुखाय संसार में आ गये। वो इस तरह की बातें मनुष्य को सिखा कर कौनसा सुख देने वाले हैं? उससे कौनसा आराम होने वाला है कि आप हवा में उड़ने लग गये, तो क्या विशेष हो गये? या अगर आप पानी पे चलने लग जाये कि विशेष हो जाये ? लेकिन जिस चीज़ से हमको असल में लाभ होता है, वो है हमारे अन्दर का परिवर्तन और हमारा परमात्मा से संबंध होना । पर उसी ग्यानेश्वरी में लिखा गया है, कि के जो आत्मा है, विश्वव्यापक जो है उन्होंने खुश होना पसायदान, याने ये की वो कहते हैं, कि अब विश्व चाहिए। क्योंकि मैंने वाणी का यज्ञ किया है और अब ऐसा पसायदान दें, ऐसा चैतन्य दें, जिससे सारे संसार में परिवर्तन आ जाये। और सारी बात परिवर्तन की लंबी चौड़ी हो । तो ये समझ लेना चाहिए कि जो पहली बात थी वो किसी ने उसमें भर दी है। क्योंकि ऐसी बात ग्यानेश्वरजी कभी लिख ही नहीं सकते, कि आप हवा में उड़ेंगे, आप पानी पे चलेंगे। इससे क्या लोगों का फायदा होने वाला! वैसे ही हम लोग हवा में उड़ रहे हैं। वैसे ही हम लोग जहाजों में चल रहे हैं। और वैसे ही दूरदर्शन से हम देखते हैं। इसमें कुण्डलिनी की क्या जरूरत है। सो, कुण्डलिनी से जो कार्य होने वाला है, उसको समझना चाहिए और जिस तरह से हर एक ग्रंथ को हम पढ़ते हैं, तो इसमें ये सोचना चाहिए कि इसका विचार जो है, वो सत्य को पकड़ के है या नहीं। इसी कारण, गीता में भी, हर धर्मशास्त्रों में गलत चीजें लिख दी । जैसे कि गीता में लिखा हुआ है, कि आपका जन्म जिस जाति में होता है, वही आपकी जाति हो जाती है। कभी हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिसने गीता लिखी, वो कौन थे ? व्यास। और व्यास किस के लड़के थे आप जानते हैं, कि एक धीवरनी के, एक मछिहारनी के लड़के थे, जिनकी शादी भी नहीं हुई थी। ऐसे की वो बेटे थे , वो है व्यास | वो ऐसा कैसे लिखेंगे, कि आपकी जो जन्मसिद्ध जाति होगी वही जाति हो जाएगी। लेकिन कहा गया है, 'या देवी सर्वभूतेषु, जातिरूपेण संस्थिता', माने सब के अन्दर | बसी हुई उसकी जाति है। जाति का मतलब होता है, जो हमारे अन्दर जन्मजात, हमारे अन्दर जो एक तरह का रुझान है, अॅप्टिट्यूड है, हमारे रुझान का, हम किस ओर उलझे हुए हैं। बहुत से लोग हैं जो कि पैसे को खोजते रहते हैं। बहुत से लोग हैं जो कि बड़ी सत्ता को खोजते रहते हैं। लेकिन ऐसे भी बहत से लोग हैं जो कि परमात्मा को खोजते हैं। जिसकी जो जाति, माने जिसका जो रुझान है, जिसका अॅप्टिट्यूड है, वो उसके अन्दर एक बसी हुई अॅप्टिटयूड है। इसका मतलब ये है, कि सहजयोग में वही लोग आयेंगे , जो परमात्मा को खोजते हैं, जो ब्रह्म को सोचते हैं, और जो इसमें ध्यान देते हैं कि हमें परम को प्राप्त करना है और दुनियाई चीज़ों में क्या करना है। पहले ऐसे ही लोग आयेंगे। प्रथम में ऐसे ही लोग आयेंगे। जो कि वास्तविक में सोचते हैं, कि किसी तरह से 17 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt परमात्मा को प्राप्त कर ले। इस परमात्मा चीज़ को जान ले या इस आत्मा में हम लोग समा जाए। इस तरह से जो लोग सोचते हैं, किसी भी तरह से, किसी भी पुस्तक को पढ़ने से, या किसी संत-साधुओं के साथ रहने से, किसी गुरुजन के साथ रहने से, जो लोग इस तरह का सोचते है वो पहले सहजयोग में आता है। इसलिये आप देखियेगा कि सहजयोग की प्रगति धीरे होती है। और सब चीज़ों की प्लास्टिक प्रगती है। हजारों आदमी आप पा लें, कि जो किसी गुरु के पीछे में दौड़ेंगे। लेकिन वो छोड़ देते हैं, उनको कोई लाभ नहीं होता। उनको पैसा देते हैं, किसी तरह से ठीक हो जाते हैं। लेकिन हमको ये सोचना चाहिए कि जो सच्चाई होती है और जो जीवंत चीज़ होती है, वो धीरे-धीरे पनपती है। एकदम ज्यादा नहीं पनप सकती। आपको अगर एक वृक्ष में फूल आने हैं, तो एक-दो ही फूल आते हैं, फिर चार-पाँच फूल आते हैं, फिर धीरे-धीरे उसमें अनेक फूल आ जाते हैं। तो मनुष्य को जब सहजयोग की ओर रुझान हो जाती है और वो सहजयोग में आ जाता है, तो उसको कभी -कभी बड़ा दू:ख होता है, और उसे लगता है कि इतने धीरे-धीरे सहजयोग क्यों बढता है? सहजयोग की प्रगती इतने धीरे क्यों होती है? फिर उसकी वजह आप समझ गये कि ये जीवंत चीज़ है और इसमें किसी पे जबरदस्ती हम नहीं कर सकते। हम किसी को कहें कि आप पार हो गये। तो नहीं हो सकते। ये होना पड़ता है। जब तक ये होना नहीं होगा, जब तक ये बात घटित नहीं होगी, तब तक हम नहीं कह सकते, कि ये हो गया। से तो मुझे कहने लगे कि, जैसे हमारे साथ एक देवीजी थी, वो गयी अमेरिका। उनका लड़का आया होनोलुलु 'माँ, इनको आप पार कराओ।' मैंने कहा, 'ये होते नहीं, मैं क्या करूँ? तुम करा दो पार।' कहने लगी कि, 'जब आप से नहीं होते तो मैं कैसे करूँ?' मैंने कहा कि, 'क्या उसको झूठा सर्टिफिकेट दे दें कि ये पार हो गया ?' कहने लगी, 'उससे क्या फायदा होने वाला!' मैंने कहा, 'यही बात है।' इसलिये ये घटित होना पड़ता है और ये सत्य स्वरूप प्राप्त होना चाहिए। अगर ये नहीं हुआ और कोई झूटमूट में ही कहने लगे कि, 'मुझे पार हो गया , बहूुत हो गया।' और हर आदमी पार हुआ ऐसा भी नहीं कह सकते। बहुत से लोग नहीं होते हैं। अनेक कारणों से नहीं हो सकते। किसी को कभी ये लगता है कि ऐसे कैसे हो सकता है। ज्यादा तर लोगों में तो ये विचार आता है, कि 'जब कभी हुआ नहीं, इसके लिये इतनी तपस्या करनी पड़ती थी, हिमालय जाना पड़ता था, ये करना पड़ता था, तो अब हमें कैसे होगा?' असल में किसी से कहा जाये कि यहाँ एक हीरा रखा है और आपको मुफ़्त में मिल जायेगा तो सब दौड़ आयेंगे। उसको नहीं छोड़ेंगे। लेकिन जब कहा जाये कि सहज में ही, सस्ते में ही, बगैर पैसे दिये ही आपकी कुण्डलिनी जागृत हो जायेंगी तो लोग विश्वास नहीं करते। क्योंकि अपने आत्मविश्वास में और वो समझ नहीं | सकते कि ये समा कौनसी है? ये कौनसी विशेष समा है जिसमें ये चीज़ घटित हो सकती है? तो हमारे लिये क्या सोचना चाहिए कि हम लोग जो हैं आज एक विशेष स्थिति है। हम लोगों ने कुण्डलिनी का अभ्यास नहीं किया हो, उसके बारे में पढ़ा न हो, लिखा न हो और हमारी जागृति हो गयी| और जब जागृति हो गयी है और हमें आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हो गया है, तो ये सोच लेना चाहिए कि अब सब कार्य जो है, वो हम नहीं करने वाले। ये चारों तरफ फैला हुआ परम चैतन्य है, जिस परम चैतन्य ने सारी सृष्टि की रचना की हुई है उसी परम चैतन्य में हम एकाकारिता प्राप्त करते हैं और उस परम चैतन्य का ही ये कार्य है कि वो हमारे सारे कार्य करें। सो, हम कुछ भी नहीं 18 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-18.txt उसी प्रकार हमारा संबंध उस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सूष्टि, परम चैतन्य से हो जाता है उस वक्त हमें कोई भी फिक्र करने की या किसी भी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं। कर रहे हैं। हम तो अकर्म में ही खड़े हये हैं । जैसे कि आज इसमें (मायक्रोफोन) कनेक्शन है, आपका मेन से लग गया, तो मैं इसमें बोल रही हूँ तो सुनाई दे रहा है। इसका उपयोग हो रहा है। उसी प्रकार हमारा संबंध उस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम की सृष्टि, परम चैतन्य से हो जाता है उस वक्त हमें कोई भी फिक्र करने की या किसी भी तरह की चिंता करने की में सहजयोग में आता है, तो वो सोचता है कि चलो ये भी कर के देख लें, चलो वो भी कर के देख लें। बहुत तर्क - वितर्क करता है। और सोचता है कि चलो इससे काम बन जायेगा, ऐसा होना चाहिये और उसी चिंता में रहता है। लेकिन धींरे -धीरे वो समझ लेता है, कि 'मेरा' करने कुछ नहीं होगा। लेकिन अगर आप ऐसा सोचें कि, 'मैं कर के देख लेता हूँ।' तो परमात्मा कहते हैं कि, 'अच्छा, कर लो तुमको जो कुछ करना है, करो । ' उसको कहते है अल्पधारिष्ट। अल्पधारिष्ट जो है, वो देखता जरूरत नहीं। सारी चिंता वही करते हैं। उस पर भी, मनुष्य जब शुरू शुरू है कि आप एक अल्पधारिष्ट है, चलो इसको कर लें। पर उसके बाद धीरे-धीरे आप में एक पूर्ण विश्वास आ जाता है, कि परम चैतन्य सब कार्य कर रहे हैं। अपने आप स्वयं परम चैतन्य सारे कार्य को दिखा देते हैं और सब कार्य बनते जाते हैं। उसको स्वीकार्य करना चाहिये । किसी भी चीज़ को ऐसा नहीं कहना चाहिये कि ऐसा क्यों है ? अब जैसे बताये कि कभी अगर हमारा रास्ता भूल गये और हम किसी और रास्ते से चलें, यही सोचतें हैं कि किस रास्ते से जाना जरूरी था। इसलिये रास्ता भूल गये और इसलिये हम इस रास्ते पर आ गये। फिर कोई सोचता है, कि इस तरह से क्यों हुआ? ऐसा नहीं होना चाहिये। कभी कभी बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती है । बहुत दिनों बाद समझ में आ जाती है, कि ये होना जरूरी था और इसलिये ये चीज़ घटित हो गयी। तब हम लोग एक तरह से उसमें इतमिनान कर लेते है और यही जान लेते हैं कि जो कुछ भी कहा था वो कितने बढ़िया तरीके से। तो कोई चीज़ हमारे मन के विरोध में हो जाये तो ये नहीं सोचना चाहिये कि परमात्मा ने हमारी मदद नहीं की । परमात्मा ने तो मदद दी है, कि आपके जो मन की जो इच्छा थी वो ठीक नहीं थी। इसलिये जो सही बात होनी चाहिये वो परमात्मा ने आपके लिये कर दी। क्योंकि परमात्मा से ज़्यादा तो हम सोच नहीं सकते। इस परम चैतन्य के कार्य से हम ज़्यादा कार्य तो कर नहीं सकते। इसलिये उसने जो कार्य किये है और उसने जो व्यवस्था की है और वो जो हमारे लिये कर रहे है और जो कुछ हो रहा है, वो सब चीज़़ अत्यंत सुंदर है। और किसी भी परिश्रम के बगैर सहज में ही घटित हो जाती है। मुझे बड़ी ही आनन्द की बात है कि हैद्राबाद में इतने सहजयोगी हो गये। अब सहजयोग में, इसके दो अंग हैं, मेरा ऐसा कहना है कि इन दोनों अंगों को सम्भालना चाहिए। एक अंग ऐसा है, जिसमें ध्यान-धारणा आदि 19 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-19.txt करनी चाहिये। घर में अपने, व्यक्तिगत रूप से ध्यान धारणा जरूर करनी चाहिये। और हमारे अन्दर के दोषों को निकालना है। ध्यान-धारणा की जो हम लोगों की प्रणाली है बहुत ही सरल, सहज है। एक सबेरे दस मिनट, शाम को १०-१५ मिनट बैठने से भी ध्यान- धारणा होती है। पहले अपने अन्दर कौन सा दोष है इसे देख लेना चाहिये। बहुत बार लोग ये नहीं समझते कि समझ लीजिये, कोई राईट साइडेड है, कोई लेफ्ट साइडेड है, तो वो उल्टे इलाज करने शुरू हो जाते हैं। इसलिये पहले जान लेना चाहिये कि हमारी कौनसी दशा है? हमारा कौनसा चक्र पकड़ रहा ? हम कहाँ हैं? ये सब हम लोग जान सकते हैं। आप जब फोटो की ओर ध्यान करेंगे तो आप जान लेंगे कि आपके इस चक्र में दोष है कि उस चक्र में दोष है। उसको पूरी तरह से समझ कर के, उसके ज्ञान के साथ में, उसको आत्मसुविधा लेना चाहिये। उसको सुलझाने के बाद वो व्यक्तिगत हो गया| फिर आपको सामूहिकता में उतरना चाहिये। और सामूहिकता में उतरते वक्त आपको जान लेना चाहिये, अपना हमें दिल खोल देना चाहिये। जिस आदमी का दिल खुला नहीं है, वो सामूहिकता में उतर नहीं सकता। बहुत से लोग संकुचित प्रवृत्ती के हो गये हैं। कारण उन्होंने वो जाना नहीं कि दुनिया कितनी अच्छी है और कितनी हम उसे अच्छे बना सकते हैं। जिसने अच्छी | व्यवस्था देखी ही नहीं, जिसने अच्छा सुन्दर सा संसार देखा ही नहीं , उनको विश्वास ही नहीं होता कि असल संसार में वो भी है। इसलिये वो अपने समुचित हृदय से रहते हैं और दूसरी बात उसमें ऐसी होती है, कि जब हम औरों की ओर नज़र करते हैं, तो पहले हमें उनके दोष दिखायी देते हैं। जब हम दूसरों के दोष देखने लगते हैं, तो हमारे अन्दर ज़्यादा दोष आ जाते हैं। लेकिन हम उनके गुण देखें, उनकी अच्छाई देखें और उनकी सुन्दरता को देखें, तो हमारे अन्दर भी वो सुन्दरता आ जायेगी और उस आदमी की जो दोष होते हैं वो भी लुप्त हो जायेंगे। जब दूसरा कोई है ही नहीं, जब वो हमारे ही शरीर का एक अंग मात्र है, तो फिर उसमें दोष देखने से क्या फायदा! दोष को हटाना ही चाहिये। और दोष को हटाने का सब से अच्छा तरीका है कि उसको किसी तरह से सुलझा कर प्रेम भाव से ही उसको हटाया जाता है। क्योंकि अपना सारा कार्य जो है, वो प्रेम की शक्ति का है और प्रेम ही सत्य है और सत्य ही प्रेम है। जो प्रेम की शक्ति को इस्तेमाल करेगा , वो बहुत ऊँचा उठ जायेगा। हृदय को खोल कर के प्रेम से आपको दूसरों की ओर देखना है। इस तरह से एक तो ये आपका अंग है, जिसमें आप अपने व्यक्तिगत व्यष्टि में प्रगति करते हैं और एक आप समष्टि में प्रगति करते हैं, जो दूसरों के साथ मेलजोल, प्यार हो जाएं। जिसका मेलजोल दूसरों के साथ नहीं बैठता है तो उसको सोच लेना चाहिये कि वो सहज नहीं । जिसका , जो प्रश्न खड़े कर देता है, जिससे लोगों को तकलीफ़ हो जाये, जिससे आपस में प्रेम न बढ़े, आपस में झगड़ा हो जाये, ऐसा आदमी सहज नहीं और ऐसे आदमी से बच के रहना चाहिये। क्योंकि ऐसा आदमी, एक भी आम अगर खराब हो जाये तो सारे आम को खराब कर उसके सकता है। जो आदमी इधर से उधर लगाते जायेगा, इधर से उधर बात करेगा , इसके खिलाफ़ बोलेगा, खिलाफ़ बोलेगा । इसलिये किसी भी सहजयोगी की निंदा सुनना हमारे सहज में एक पाप सा है। क्योंकि उसको सुनने से हमारे कान खराब हो जाते हैं। और उससे हम उस आदमी के प्रति एक तरह से गलत तरीके से कहना चाहिये कि उसके प्रति हमारा जो विचार होता है, वो ठीक नहीं रहता है। आपको दूसरों से जब व्यवहार करना है, तो देखना चाहिये कि हमारे अन्दर कितना औदार्य है। हम कितनी 20 বt 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt दूसरी जो स्थिति है, उसमें है सहजयोग का प्यार होना और सहजयोग का प्रचार होना। ये भी अत्यावश्यक है, विशेषतः औरतों के लिये, रित्रयों के लिये क्योंकि स्त्री जो है शक्तिस्वरूपिणी है। क्षमा कर सकते हैं, हम कितने प्यार से उसे बोल सकते हैं। उनको हम कितने नज़दीक ले सकते हैं। क्योंकि ये सब हमारे असली रिश्तेदार हैं। बाकी की रिश्तेदारी आप तो जानते ही हैं, कि कैसे होती है। लेकिन जो असली रिश्तेदारी है, वो सहजयोग की है और आपको पता होना चाहिये कि चालीस देशों में आपके भाई-बहन बैठे हये हैं। और जब कभी आप उनसे मिलेंगे तो आपकी तबियत खुश हो जायेगी। दूसरी जो स्थिति है, उसमें है सहजयोग का प्यार होना और सहजयोग का प्रचार होना। ये भी अत्यावश्यक है, विशेषत: औरतों के लिये, स्त्रियों के लिये क्योंकि स्त्री जो है शक्तिस्वरूपिणी है। उसको समझ लेना चाहिये कि कौनसा चक्र पकड़ता है। कौन से पैर की उँगली पकड़ी है। उसको कैसे निवारण करना चाहिये। उसमें क्या दोष है। उसे क्या बिमारियाँ हो सकती है। किस तरह से हम लोगों को ठीक कर सकते हैं । कौन से दोषों से हम जान सकते हैं कि कौन से चक्र पकड़े हये हैं। उसका निवारण कैसे करना चाहिये। आदि जो कुछ भी ग्यान है, कुण्डलिनी के बारे में ग्यान क्या है? आदि सब बैठ कर के, मन कर के, सोच कर के और आपको जान लेना चाहिये। लेकिन अधिकतर लोग सहजयोग में आने के बाद उसके ओर ध्यान नहीं देते। उनको ग्यान नहीं होता है और सहजयोग करते रहते हैं। तो उसका ग्यान होना अत्यावश्यक है। क्योंकि ऐसे तो दुनिया में बहत से लोग आये। जो कि हम देखते हैं कि पार हैं। बच्चे हैं बहुत सारे, वो भी ऐसे पैदा होते हैं जो सहजी हैं। लेकिन उनको सहज का ग्यान नहीं। तो माँ लोगों को चाहिये कि वो जाने सहज क्या चीज़ है। उससे वो अपने बच्चों को भी समझ जायेंगे और ये भी समझ जायेंगे की कोई बच्चा जो कि सहज में पैदा हुआ है, वो क्यों ऐसा करता है। उसकी क्या बात है। वो समझने | के लिये उसका ग्यान होना बहुत अत्यावश्यक है। जिन लोगों को इसका ग्यान नहीं होता है वो समझ नहीं पाते कि क्या बात कर रहे हैं? क्या कर रहे हैं? औरों पे इसका असर नहीं आता है। इसका इसलिये ग्यान होना बहुत जरूरी है। और जो चौथी चीज़ बहुत जरूरी है, सहजयोग का प्रचार। अगर आप एक कमरे में बैठे है और एक दरवाज़ा है, यहाँ से अब आपको हवा मिल रही है लेकिन अगर दूसरा दरवाज़ा आपने खोला नहीं, तो हवा का खुला सक्य्युलेशन रुकता है। हवा का प्रवाह है वो रुक जाये। इसी तरह से हम लोग जब दूसरों को सहजयोग से प्लावित करते हैं, उनकी मदद करते हैं, उनको रियलाइझेशन देते हैं, उसका प्रचार करते हैं, उसके बारे में बोलते हैं। अपने रिश्तेदारों को बताते हैं, उनको घर बुला-बुला कर, उनको चाय पिला - पिला कर, ये सहजयोग देते हैं। तब, जब तक आप प्रचार नहीं करेंगे, तब तक आपकी प्रगति नहीं हो सकती। क्योंकि आप जानते हैं कि जब पेड़ बढ़ता है उसकी शाखायें बढ़नी चाहिये और शाखाओं के नीचे उसकी छाया में अनेक लोगों को बैठना चाहिये। नहीं तो ऐसे 21 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt अनेक पेड़ हैं, पर हम लोग तो वटवृक्ष की तरह हैं और इसलिये हमें चाहिये कि इसके प्रचार में पूरी तरह से सहाय्य करें। उसके लिये जो जो जरूरतें होंगी वो हमें करनी चाहिये। उसकी ओर हमें मुड़ना चाहिये । उसके प्रति हमें पूरी तरह से समर्पित होना चाहिये और अपना पूरा समय हम सहजयोग के लिये क्या कर सकते हैं, हम सहजयोग में कौनसा प्रदान कर सकते हैं? इसमें आप जानते हैं कि पैसा नहीं लिया जाता। पर जैसे कि आपको कार्यक्रम करना है, तो मैंने सुना कि एक ही नागोराव साहब सारा पैसा दे रहे हैं, ये बात अच्छी नहीं है। अभी से आप थोड़े थोड़े पैसे इकट्ठे कर लें और जब हम आयें तो ऐसा होना चाहिये कि सब को उसमें तन, मन धन से, सब तरह से मदद करनी चाहिये। और उसमें आपको मजा आयेगा। ऐसे हम लोग और तो | इकट्ठे करते रहते ही हैं। ये खरीदते, वो खरीदते हैं। एक चीज़ नहीं खरीदी और सोचा की सहजयोग के लिये रख दी। बहुत से लोग सहजयोग में ऐसे ही हैं, जो पूरी समय सहजयोग का विचार करते हैं । वो ये सोचते हैं कि इससे सारे समाज का, सारे सृष्टि का ही परिवर्तन हो जायेगा। और सारे संसार में आनन्द का राज्य आ जायेगा और हम लोग सारे सुख से रहने लगेंगे। और जो कुछ वर्णित किया गया है स्वर, इस संसार में उतर आयेगा। इतने दिव्य और महान कार्य के लिये सब लोग सोचते हैं, कि हम इसमें पूरी तरह से सम्मिलित हो जाये। लेकिन ऐसे लोग जो सहजयोग में हैं, वो बड़े ऊँचे पद पर हैं और वो बड़ी ऊँची स्थिति में रहते हैं । और इसी में आनन्दित रहते हैं कि हम सहजयोग में बैठे हैं। उनका बिझनेस चलता है। उनको पैसे मिलते हैं। उनके सारे प्रश्न छूट जाते हैं। जो प्रॉब्लेम्स है वो हल हो जाते हैं। और उनकी समझ ही नहीं आता कि कोई | प्रॉब्लेम ही नहीं रहा। ये प्रॉब्लेम भी छूट गया, वो प्रॉब्लेम भी छूट गया। सब ठीक ठाक है। सो, इस प्रकार का जो हमारे अन्दर जागरण हो जाये और हम सत्य की सृष्टि में उतर जाये तो अपने आप हम देखते हैं कि कितनी रूढियाँ और कितने गलत संस्कार, हमारे अन्दर इतने दिनों से आये, और वो हमारे अन्दर घर कर के बैठे हये हैं। और उससे हमारी प्रगति नहीं हो सकती। चाहे कुछ भी हम सोचते रहे होंगे पिछले इस में, कुछ भी हमारे माँ-बाप ने बताया हो, कुछ भी हमारे समाज ने समझाया हो, हमारे उपर इतना भारी उत्तरदायित्व है, जिम्मेदारी है, रिस्पॉन्सिबिलिटी है कि हम ऐसा समाज बनायें, कि वो शुद्ध, निर्मल हो और उस शुद्ध, निर्मल में हमारी धारणा रहें और उस धर्म में हम स्थित हो । आप सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद । 22 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt कुण्डलिनी भी एक ज्वाली है, इसकी उत्थाने धधकरती ज्वाली सम है। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है और ऊपर की ओर जाने वाली कोई भी चीज़ पृथ्वी की ओर रिवचती है, केवल अग्नि ही गुरुत्वाकर्षण के विपरीत ऊपर को जाती है। प.पू.श्री माताजी, गणपति पुले, महाराष्ट्र, २१.११.१९९१ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2015_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt सूर्य को ग्रहण लग सकता है, पर वह अपने स्थान पर स्थिर रहता है। सूर्य को आप ज्योतिर्मय आत्मी की तुलना हम सूर्य से कर सकते हैं। सूर्य बादलों से आच्छादित हो सकती है, नहीं कर सकते, वह तो अपने आप से ही प्रकाशवान है । बादलों को यदि हटा दिया जाए तो आच्छादन समाप्त हो जाता है, और सूर्य एक बार फिर वातावरण में चमक उठता है। प.पू.श्रीमाताजी, १८.०६.१९८३ ा