चैतन्य लहवी जुलाई-अगस्त २०१५ हिन्दी इस अंक में आप ही अपने हैं गुरु ४ ...8 श्री महादेवी पूजा, कोलकाता, १० अक्टूबर १९८६ सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है ...१४ सार्वजनिक कार्यक्रम, कोलकाता, १२ अप्रैल १९९५ यीगेश्वर की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है और वह पक्ष समझना हमारे लिए अत्येन्त आविश्यक है कि जब तक हम योगैश्वर द्वारा बताए गए मार्ग पर नहीं चलते तब तक स्वयं की पूरी तरह से स्थापित नहीं कर सकते । प.पू.श्रीमातीजी, लंडन, १५.८.१९८२ आप ही अपने R9 गुरु है। कोलकाता, १० अक्टूबर १९८६ आज पूजा में पधारे हुये सभी भाविकों को और साधकों को, हमारा प्रणिपात! इस कलियुग में माँ की इतनी सेवा, माँ का इतना प्यार, और इतना विचार जब मानव हृदय में आ जाता है, तो सत्ययुग की शुरूआत हो ही गयी। ये परम भाग्य है हमारा भी कि षष्ठी के दिन कोलकाता में आना हआ। जैसा कि विधि का लिखा है, कि कोलकाता में षष्ठी के ही दिन आया जाता है। ष्ठी का दिन शाकंभरी देवी का है। और उसको सब दूर हरियाली छानी चाहिये। हालांकि यहाँ पर मैंने सुना बहुत जोर की बाढ़ आयी। लोगों को बड़ी परेशानी हुई। लेकिन देखती हूँ कि हर जगह हरियाली छायी हुई है। रास्ते टूटे हुये थे, पर कोई पेड़ टूटा हुआ नज़र नहीं आया। मतलब ये कि सृष्टि जो कार्य करती है, उसके पीछे कोई न कोई एक निहित, एक गुप्तसी घटनायें होती हैं। कोलकाता का वातावरण अनेक कारणों से है और भी हो गया है । इसे हमें समझ लेना चाहिये। ये अशुद्ध प्रक्षुब्ध बहुत जरूरी है। इसी लिये देवी की अवकृपा हुई है या कहना चाहिये कि सफ़ाई हुई है। कोलकाता में, जहाँ कि साक्षात देवी का अवतरण हुआ। उनका स्थान यही है, जो कि सारे विश्व का हृदय चक्र यहीं पे बसा हआ है, ऐसी जगह हमने बहत ही अधार्मिक कार्य को महत्त्व दिया है। और सबसे बड़ा अधार्मिक कार्य तांत्रिकों को मानना है। तांत्रिक तो वास्तविक में माँ ही है। जो कि सारे तंत्र उसके हाथ में हैं। उसी ने तंत्र बनाये हैं और वही तंत्र की जानकारी मेरा ये जानती है। पर जो तंत्र के नाम पर दुनियाभर का व्यभिचार, अविचार और आचार करते हैं, उन सभी के 4 कहना है कि उन्हें ये काम छोड़ देना चाहिये। सतयुग में ऐसे लोगों पर घोर अत्याचार होगा, अन्याय होगा, ऐसे लोग बहुत पीड़ित होगे। कोलकाता में इतने तांत्रिक लोग हैं और उनसे दीक्षित ( दीक्षा लिये हये) इतने लोग हैं कि उनसे किस इस प्रकार कहा जाए कि ये सब गलत चीज़ें हैं । इसे करने से कभी भी लाभ नहीं होगा। ये दुष्टों की चालना है और यही राक्षस हैं, जो कि बार बार जन्म लेते हैं। इतनी बार हनन हो कर भी ये संसार में आ कर के और ऐसे दुष्ट कर्म करते हैं और वो भी परमात्मा के नाम पर, देवी के नाम पर। इस मामले में हमारी जो धारणारयें हैं उसे दुरुस्त कर लेना चाहिये क्योंकि सहजयोग जो है वो सत्य पे खड़ा है, असत्य पे नहीं और जो सत्य है वो हमें आपको बताना ही है। अगर आप ज्वाला की ओर दौड़ रहे हैं, अपने को भस्म कर रहे हैं, तो हमें साफ़ शब्दों में आपको बताना है कि ये गलत काम है उधर नहीं जायें। और इसलिये मैं बड़ी व्यग्र हो जाती हूँ और सोचती हूँ कि किस तरह से समझाया जाये कि इन लोगों से शापित इस भूमि को अगर वाकई में आपको उठाना है तो पहले जरूरी है कि इन लोगों की ओर न बढ़े। ऐसा लगता है कि त्राहि त्राहि हो कर के लोग सोचते हैं कि यही कुछ लोग फायदा कर देंगे। लेकिन फायदे से कहीं अधिक ज्यादा आपका नुकसान करते हैं। इनको तो जहर समझ के दूर रखना चाहिये। जब तक आप ये कार्य यहाँ पर जोरो में शुरू नहीं करियेगा और एक एक का भांडा नहीं फोडियेगा, तब तक ये भूमि शापित रहेगी। मैं इस भूमि पर अनेक बार आयी हूँ, लेकिन इस जन्म में मैं जब आयीं तो देखती हैँ कि धीरे-धीरे ये भूमि नष्ट हुई जा रही है। इतनी बड़ी ऊँची साधना प्राप्त की हुई ये भूमि, जहाँ गंगा भी बह कर के रसातल जा कर के और जिन्होंने भगीरथ के प्रयत्न से उनके इतने पूर्वजों को शाप विमुक्त किया। इस भूमि की धूलि को ले जा कर के वो ये कार्य कर सकी। उस पुण्य भूमि पर इस तरह के अपुण्य के कार्य बहुत हो रहे हैं। ये हम लोगों को जान लेना चाहिये कि इन्हीं अत्यंत सूक्ष्म ऐसी बातों से ये हमारा बंग देश इस तरह से आहत हो गया है। जब मैं सुनती थी कि यहाँ पर बहुत से राजकारण और राजकीय दौर पड़ रहे हैं, जिसके कारण मनुष्य में बहुत सा झगड़ा खड़ा हो गया है। आपस में गला काट रहे हैं। इसको, उसको मार-पीट रहे हैं, कोई समाधान नहीं है। हत्या हो रही है, चोरी हो रही है, डकैती हो रही है। तो आप इसे बाह्य से देखते हैं। इसका मूल कारण ये तांत्रिक हैं। ये स्मशान विद्या, प्रेत विद्या अत्यंत हानिकारक विद्या से अपने को बहुत होशियार समझते है और सबको बेवकूफ़ बना कर के, उल्लू बना कर के, उनसे रुपया, पैसा ले कर के उनमें ये दष्ट बाधायें डाल देते हैं। उस बाधा के कारण मनुष्य एक सभ्रान्त स्थिति में पड़ जाता है। और उस स्थिति से वो उलझता हुआ, पूर्णतया भ्रान्तिमय हो जाता है। उस भ्रान्ति में वो समझ नहीं पाता है, कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है? सच्चाई क्या है और बुराई क्या है? ऐसी दशा में इन लोगों के बारे में मैं साफ़ साफ़ नहीं कहँगी तो आपका बचाव कैसे होगा। बहुत से लोग मुझे सलाह देते हैं कि माँ, आपको इतना साफ़ कहना नहीं चाहिये। लेकिन अगर माँ नहीं कहेगी तो कौन आपको बतायेगा ? माँ को ये बात जरूरी बतायें । क्या आप सोच सकते हैं कि आपकी माँ कहेगी कि, 'अच्छा, जा कर बेटा तू साँप के मुँह में हाथ डाल दे ।' किसी की भी ऐसी माँ इस भारतवर्ष में हैं। जो कहेगी कि, अच्छा, ठीक है। ये साँप है। उसके मुँह में डाथ डाल। जिनको इलेक्शन लड़ना है या कुछ पाना है वो इस तरह की बातें करेंगे। वो कॉम्प्रोमाइज करेंगे । वो समझौता करेंगे। लेकिन एक माँ जो अपने बच्चों से नितांत प्रेम करती है, वो कभी भी ऐसी बातें नहीं कह सकती जो बातें अपने बच्चों के लिये हानिकारक हैं और उसे किसी का डर भी नहीं है। ये लोग कर भी क्या सकते हैं ? कुछ भी नहीं कर सकते। सिवाय इसके कि भूले-भटके हमारे जो बच्चे हैं, उनको पकड़ कर के सताते रहते हैं। उसी प्रकार अनेक दुष्ट गुरु लोगों ने इस कलियुग में जन्म लिया है। ये सभी पूर्व जन्मों में नरकासुर, महिषासुर, और सारे चण्डमुण्ड, जिन जिनका आप नाम ले रहे हैं उनसे भी अधिक मात्रा में सब के सब पैदा ह्ये हैं। उनमें से सोलह महामुख्य राक्षस लोग इस संसार में आये हैं। रावण का भी आगमन हो चुका है। सारे ही लोग स्टेज पर आ चुके हैं। अब इनको मारा कैसे जाए? इनका कर्दनकाल तो आ गया, लेकिन मारा कैसे जाए? हाथ में तलवार ले कर काट तो सकते हैं, कोई मुश्किल काम नहीं । लेकिन वो जनसाधारण के हृदय में घुस गये हैं। उनके मस्तिष्क में घुस गये हैं। उसके अन्दर जमा हो कर के बैठे हये हैं। उनको ये लोग गुरू मानते हैं, तो मैं क्या कहूँ? क्या मैं अपने बच्चों की भी गर्दनें काँट दूँ इनके साथ ? तो बेहतर है कि इन्हीं को जनता से ही हार माननी पड़ी। यही पूरी तरह से, सब के सामने स्पष्ट हो कर के इनका स्पष्टीकरण होगा। एक्सपोजर होगा। और लोग देख कर के समझ लेंगे, कि जो भी माँ इनके बारे में कहती थी एक-एक बात सही है। जर्मनी में एक साहब ने गुरुओं के खिलाफ़ लिखा कि ये ऐसी कोई चीज़ है कि जिसमें एक गुरु को मानते हैं और फिर दुनिया में कोई चीज़ को नहीं मानते। अब वो आधे-अधूरे लोग हैं। वो नहीं जानते कि हमारे देश में अनेक वर्षों से, अनंत काल से गुरुओं के बारे में बताया गया है कि एक तो होते हैं सद्गुरु। जो कि आपको परमात्मा से मिलाते हैं। 'सद्गुरु वो ही जो साहिब मिले'। जो आपको परमात्मा से मिलाता है वो सदुगुरु, फिर गुरु जो कि परमात्मा के बारे में बातचीत कर के आपमें धर्म बिठाता है। फिर अगुरु । जिनमें गुरुत्व नहीं है| जो आत्मसाक्षात्कारी भी नहीं है । तो भी वो अपने गुरु समझ कर के और लोगों को बातें बताते हैं और पैसा भी लेते होंगे। जैसे हमारे पाद्री साहब हैं, समझ लीजिये या पोप साहब हैं, ये लोग अगुरु हैं। कोई भी इनकी कुण्डलिनी जागृत नहीं हुई है। इनमें कोई विशेषता नहीं है और धर्म के नाम पे चर्चा करते हैं। ऐसे अपने देश में से लोग हैं। अधिकतर अपने सारे शंकराचार्य ऐसे ही हैं। एक शंकराचार्य पुराने, काँची के छोड़ कर के सब शंकराचार्य बिल्कुल अगुरु हैं। उनकी कुण्डलिनी तो नीचे में बैठी हुई है और जिनकी कुण्डलिनी भी नहीं चढ़ी हुई उनको हम लोग गुरु मान लेते हैं। क्यों मान लेते हैं? इनका इलेक्शन होता है। इलेक्शन हो सकता है गुरु का। परमात्मा से आनी चाहिये ना ये चीज़। समझने की बात है। ये तो बहुत चीज़ परमात्मा से आनी चाहिये । फिर उसके बाद में होते हैं, जिनको कहा जाता है, कुगुरु। वो ये लोग होते हैं, जो तांत्रिक, जो राक्षसी प्रवृत्ति के, अत्यंत दुष्ट स्वभाव के लोग होते हैं। वो अपने को गुरु मान लेते हैं। और ऐसे बहुत से गुरु जिन्हें की हम अत्यंत दुष्ट, दुराचारी इस तरह के लोग आज गुरु बन के बैठे हैं। और इस बंग देश में तो सब के सब आ के न जाने कैसे, जैसे गंगाजी सब हिमालय से अपनी जड़ीबूटियाँ ले कर यहाँ पहुँची हुई है। ऐसे ये न जाने कहाँ से सब मिलजुल कर के बंगाल में आ कर बैठ गये और बंग देश को पूरी तरह से गरीब बना दिया। इनको लूट लिया। इस सस्य श्यामला भूमि में उन्होंने जो जो हरकतें की हैं, वो हम जानते हैं, क्योंकि सूक्ष्म में आप देख नहीं सकते। आप ये सोचते हैं कि नॅक्सलाईटों ने ये किया, कम्युनिस्टों ने ये किया और काँग्रेसवालों ने ये किया और अमके ने किया । इन लोगों का 6. किसी का दोष नहीं। ये वातावरण जो खराब हो गया है, ये वातावरण खराब करने वाले ये तांत्रिक, ये दुष्ट आदमी हैं। और उनसे भी बढ़ के वो महा, दष्ट राक्षस, जिनका वर्णन है कि देवी ने जिनको मार डाला, वो भी यहाँ पूजे जाते हैं। महिषासुर अभी तक जिंदा बैठा हुआ है और महिषासुर को भी यहाँ बहुत पूजा गया है। जिसको देवी ने यहाँ मारा, उसी महिषासुर को आपने पूजा है! नरकासुर को भी इतना पूजा है कि उसको करोडों रुपये आपने दे दिये। उसके पास न जाने कितने तरह के रत्न हैं। कितने हिरे भरे हये हैं । ऐसे महा दष्ट लोगों को आपने पोसा हुआ है। तो आप लोग तो गरीब हो ही जायेंगे। ये तो पूरा यही हुआ कि 'आ बैल मुझको मार।' और अपनी बुद्धि से नहीं समझ पाते कि ये लोग कितने दुष्ट हैं। आज पूजा के समय में एक माँ को चाहिये कि बताया जायें। पूजा के लिये सब से पहले जाना जाय कि आप ही अपने गुरु हैं। और किसी को गुरु बनाने की जरूरत नहीं । हम तो कोई गुरु नहीं हैं। क्योंकि गुरु अगर होते तो आप लोग परेशान हो जाते| लेकिन माँ से बढ़ के गुरु कौन है? माँ तो सब गुरुओं की भी माँ हैं। और आप चाहें तो हमारे चरणों में बैठे, चाहे हमारे गोद में बैठे, चाहे हमारे सर पे बैठे आप हमारे बच्चे हैं। बात और है। तो भी ये बात कभी भी नहीं मानी जायेगी कि कोई राक्षस या जिसे हम कहते हैं कि निगेटिव पर्सनॅलिटी वो आ कर के आप पे छा जायें। ऐसा अगर घटित हुआ तो फौरन हम आपको बतायेंगे, 'ये चीज़ आप छोड़ दीजिये।' जिसके लिये आपको बुरा मानना नहीं चाहिये। क्योंकि हम माँ है। आपको मोक्ष देना तो हमारा स्वभाव है। उसमें कोई विशेष बात नहीं। लेकिन आपको किसी तरह का दुःख नहीं देना है। किंतु अगर आपको सत्य न बताया जाए तो आगे चल के तो दु:ख ही पाईयेगा। और सत्य शुरू में प्रिय नहीं लगता है। इसलिये कृष्ण ने कहा है कि, 'सत्यं वदेत्, हितं वदेत्, प्रियं वदेत्'। जो आपके हित में है, वो हमें बताना ही है। क्योंकि आप हमारे अपने हैं। थोडी देर हो सकता है आप मुझ से नाराज़ हो जाए। कोई हर्ज नहीं। आप बच तो जायेंगे। आपके दिमाग में बात तो बैठेगी। इस देश का नाश जो हुआ है, वो इसी वजह से। और आपको इतनी प्रचुर मात्रा में दिखायी देते हैं, कि आश्चर्य की बात है कि अभी तक ये लोग कैसे जीवित बैठे हैं! इनके भी इलाज हो जाएंगे | लेकिन पहले आप लोग इनके चक्करों से निकलिये । नहीं तो मेरा हाथ रूक जाता है। इनके सबके इलाज एकसाथ हो सकते हैं। लेकिन आप लोग मेरे लिये एक बंधन बन जाते हैं। इस प्यार और मोह की वजह से मैं आप से कह रही हूँ, कि कृपया इन लोगों से अपना संबंध पूरा तोड़ दें और कोई भी तरह की इनकी वस्तु, इनका चित्र, इनका दिया हुआ प्रसाद जो सब विषमय है उसे छोड़िये। आज पूजा से पहले क्या कहा जाए! इतना हृदय गद्गद् है, कि इतनी सुन्दर रचनाये, इतना सुन्दर आवाहन, इतना सुन्दर स्वागत आप सब ने अपने हृदय से किया। हृदय एकदम गद्गद् हो गया। सब कहते हैं कि, माँ प्रसन्न हैं। लेकिन न जानें क्यों आँखों में इतने आँसू भर आये हैं और गला भी भर आता है, सोच सोच कर के, कि इतने मेरे प्यारे बच्चे यहाँ रह रहे हैं। आपकी सारी विपदा खत्म हो सकती है। आपकी सब तकलीफ़ें मिट सकती है। क्योंकि परमात्मा जो है सर्वशक्तिमान है। उनसे शक्तिशाली कोई नहीं और उनसे प्रेम करने वाला भी कोई नहीं । अत्यंत प्रेमी और शक्तिशाली ऐसे परमात्मा आपके अपने होते हुए, आपको किसी चीज़ की क्या जरूरत है या किसी चीज़ का क्या ड्र है। बस एकही बात में हार जाते हैं, कि आपको स्वतंत्रता है। आपकी स्वतंत्रता हम छीन नहीं सकते। क्योंकि आपको परम स्वतंत्रता देने की जब बात होती है, तो स्वतंत्रता का पूरी तरह से आदर किया 7 में जाये। पर उस आदर ही मनुष्य खो जाता है। मनुष्य बहक जाता है और ऐसे लोगों के पास चला जाता है, जो आपके जीवन के दश्मन हैं, आपके शत्रु हैं। अनेक हजारा वर्षों से इन दष्टों ने इन भक्तों को सताया है और आज भी सता रहे हैं। लेकिन वो ऐसा सोंग बना कर आये हैं और ऐसी खुबी से आये हैं, की आप उसे पहचान नहीं सकते। सीताजी को भी रावण ने भेष बदल कर के भूल में डाल दिया था। तो आप तो मानव जाति है। आपको वो अगर भूल में डालते हैं, तो इसमें आपका दोष नहीं। पर पार होने के बाद, रियलाइजेशन के बाद आपको अपने पाँव पर खड़ा हो जाना चाहिये । और इन सब चीज़ों को छोड़ कर, झाड-झूड कर के एकदम स्वच्छ हो जाना चाहिये। आपकी कौनसी भी परेशानी टिक नहीं पायेगी । प्यार की शक्ति सबसे महान है। इसको आज तक हमने इस्तेमाल नहीं किया। ये आप जान लीजिये। और जिस दिन आप इसको समझ लेंगे कि इस प्यार की शक्ति से आप प्लावित हैं, आप जब इसका उपयोग करेंगे, आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे, कि लगेगा कि जैसे तारांगण आपके पैर पर लेटे हुए हैं। सारी शक्तियाँ आपके चारों तरफ़ हैं। सारे गण आपको सम्भाल रहे हैं। सारे देवदृत आप पे पुष्प की वर्षा कर रहे हैं। आप ही आज इस रंगमंच पे, इस स्टेज पे आये हैं। आपके लिये ही सारी सृष्टि बनायी गयी है। और उस सृष्टि के सर्वोच्च लोग आप ही हैं। और किस के लिये परमात्मा ने सृष्टि बनायी है! लेकिन जो जो गलत काम हो चुके, जो जो गलत बातें हो गयी, वो सब भूल कर के आज वर्तमान काल में खड़ा होना है। इस प्रेझेट में खड़ा हो कर के और उस आनन्द का भोग लेना है। उस अमृत का भोग लेना है। जो आपके लिये लालायित है। स्वयं साक्षात् परमेश्वर चाहता है, कि आप उसके दरबार में आयें और अपने अपने स्थान पे आसन ग्रहण करें। वो यथोचित आपका आदर कर के आपको हर तरह का आनन्द प्रदान करेगा। एक बाप यही चाहेगा और वही वो चाहते हैं और पूर्णतया वो आपके साथ है । आज यहाँ जो हरियाली देख रहे हैं हम। बड़ा सुन्दर सा रचाया हुआ बाग है। ऐसा ही परमात्मा का बाग है समझ लीजिये। और उसमें हर तरह के फूल, हर तरह का आनन्द, प्रमोद, मोद सब कुछ भरा हुआ है। बस उसमें बैठने की आपकी क्षमता चाहिये और उसका आनन्द भोगने की गहराई। इतनी होते हये सब ठीक हो जाता है। पाव होने के आाढ़, यहाँ के लायन क्लब के लिये क्या कहा जाए! मेरे ख्याल से वियलाइजेशन के आाढ जन्मजन्मांतर का संबंध सिंघ से रहा है। और सिंघ पे ही इतना काम किया आपको अपने पाँध पर गया है इसलिये लायन क्लब से मेरा संबंध जुट गया। आपका ये बड़ा ही सुन्दर उद्यान है। इस वाटिका को और भी सुन्दर आप बना सकते हैं। खड़ा हो जाना चाहिये। एक बार एक अमेरिकन औरत ने मुझ से पूछा था, कि आपके यहाँ कोई फूल नज़र नहीं आते। मैंने कहा, हमारे देश के फूल बहुत छोटे छोटे होते हैं। पर अत्यंत सुगंधमय होते है। वो बहुत ज्यादा दर्शनी नहीं होते, शोई नहीं होते, जैसे आपके फूल होते हैं। हर फूल बताईये कि आपके यहाँ कितने तरह के फूल होते हैं?' वहीं बैठे बैठे मैंने उनको चालीस फूल बता दिये। और हर फूल में अत्यंत सुगंध है । अब मैं देखती हूँ कि यहाँ भी आपको चाहिये कि ऐसे ऐसे फूल जैसे कि चमेली है, चंपा है और पारिजातक है। और इन सथ चीज़ों को छोड़ कर, झाड-झूड कर के में चमत्कार और मंत्र है। तो उन्होंने कहा, 'अच्छा, एकढम स्थच्छ हो जाना चाहिये इसका वर्णन आपको देवी माहात्म्य में मिलता है। अनेक तरह के सुन्दर सुन्दर फूल है। अनंत के फूल है। अपने देश में ऐसे अनेक फूल है। और जिसकी बड़ी बड़ी शाखायें बढ़ जाती है। और सबेरे सबेरे देखिये सब दूर आँगन में वो छाये रहते हैं। आपने , जिसे हम लोग बकुल कहते हैं, यूपी में उसे मौलसिरी कहते हैं उसका भी पेड़ बहुत सुन्दर है। जास्वंद के, अनेक तरह तरह के सुगंधमय पेड़ आप लगा सकते हैं। जापान में एक स्त्री से मैंने कहा कि, 'आपके बाल बहुत सुन्दर हैं। मुझे बड़े पसन्द हैं। कहने लगी, 'सुन्दर तो हैं। आर्टिफिशिअल हैं। नैसर्गिक नहीं।' और इंडियन किसी भी बाग में जायें तो सुगंध रहती है और सुगंध अपने देश की विशेषता, इस मिट्टी की विशेषता। आपको आश्चर्य होगा हम लोग इसे समझ नहीं पाते। खस में भी इतनी सुगन्ध है और हर चीज़ में इतनी सुगन्ध है। हम लोगों को पता नहीं कि बाहर के देशों में आप मिट्टी में हाथ नहीं डाल सकते। अगर डाल दीजिये तो हाथ में फोड़े आ जायेंगे, ब्लिस्टर्स आ जायेंगे| क्योंकि वहाँ कि जमीन जो है, वहाँ के पाप से तप्त हो गयी। तप्त होने के कारण वहाँ चूना है। आप कहीं हाथ नहीं डाल सकते। जब तक आप ग्लव्हज न पहनिये, आप मिट्टी में हाथ नहीं डाल सकते । लंडन में तो मैंने पहले सोचा था, कि मैं वहाँ बाग करूंगी। क्योंकि शाकंभरी का मुझे शौक है। तो मैं चाह रही थी कि वहाँ बाग किया जाये लेकिन जब देखा कि वहाँ की मिट्टी ऐसी है, तो मैंने छोड़ दिया। मेरा तो शौक ही वहाँ छूट गया। मैंने कहा अपने हिन्दुस्तान में जा के ये सारा काम करेंगे। ये तो जमीन कुछ और ही है। इस जमीन पर आप खड़े हुये हैं इसकी एक-एक कण-कण से इतना सुन्दर सुगन्ध बहता है। जरा सी बरसात हो जाती तो कितना सुन्दर सुगन्ध इस सुन्दर भूमि से आता है। और आप लोग भी कुछ न कुछ पूर्वपुण्याई से इस देश में पैदा हुये हैं और इस देश में बसे हुये हैं। सिर्फ इस पुण्याई को पूरी तरह से प्रकाशित करना है। प्रगटित करना है। जो आप सहजयोग से आसानी कर सकते हैं। रही बात हमारी, तो हम तो आते जाते रहते ही हैं। हर जगह आते-जाते हैं। लेकिन बंगाल से हमारा प्रेम बहुत है। बहुत पुराना है। अनेक वर्षों की बातें हैं, जो आप लोग कठिन बातें हुई हैं। बहुत कुछ जानते हैं, कुछ जानते नहीं। बड़ी तकलीफ़ें उठायी और इसको इतना समृद्ध किया और इसका इतना सुन्दर बन बनाया। और उसके बाद आप देखते हैं कि यहाँ पर इतनी गरीबी, इतनी परेशानी, इतनी आफ़त। जहाँ पर ये भूतविद्या होगी, जहाँ जहाँ पर ये भूतविद्या होगी वहाँ वहाँ गरीबी रहेगी। अब आप कहेंगे कि यहाँ टायफून आते हैं और आप पुराना बहुत लोग उससे नष्ट हो जाते हैं। अब आपको मैं एक किस्सा सुनाती हूँ। मैं एक बार त्रिचूर गयी थी। वहाँ पर बहुत से लोग मुझे लेने आये। वहाँ बहुत रईस लोग रहते हैं। मोटर वगैरे ले कर आये। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, कि ये सब मेरे पास किसलिये आये? पता हुआ कि ये लोग वहाँ तम्बाकू की खेती करते हैं। उनके घर में सब इंग्लिश टाईल्स लगी हुई, सब इंग्लिश बाथ लगे हुये। ये लोग सब इंग्लंड तम्बाकू भेजते हैं। और वहाँ से, इंग्लंड से सभी चीज़ें इंपोर्ट कर कर के अपने घर में बड़ी शान से लगाये हैं। भाई, हमको तो जरा साफ़ कहना ही पड़ता है। चाहे बुरा मानो, चाहे भला मानो। तो हमने कहा, भाई, 'आप लोग मोटर वरगैरा ले के आये, कहना नहीं चाहिये, अतिथि रूप से तो कुछ भी | कहना नहीं चाहिये, लेकिन हम माँ स्वरूप हो कर के आप से कहते हैं कि आप ये तम्बाकू लगाना बंद कर दो। ये गलत है।' तो उन्होंने कहा, 'वाह माँ, हम तम्बाकू नहीं तो और क्या लगायें।' तो मैंने कहा, 'आप कपास लगाईये । 9. बढ़िया कपास है। तम्बाकू मत लगाईये। तम्बाकू राक्षसी है। इसको मत लगाईये ।' तो कहने लगे कि, 'नहीं, हम तो नहीं पीते हैं। ये तो हम इंग्लंड भेजते हैं।' मैंने कहा, 'वाह, अगर इंग्लंड भेजते हैं तो कोई पाप नहीं?' तो कहने लगे कि, 'उन्होंने अपने को इतना सताया। पीने दो तम्बाकू और मरने दो उनको।' तो मैंने कहा, 'ये कोई तरीका हुआ?' ये कोई साधु-संतों का तरीका हुआ कि उनको मरने दो। उन्होंने अपने को इतना सताया। जिन्होंने सताया वो तो कब के मर गये। ये तो दूसरे आये हये हैं। उनको सताने से क्या फायदा? लेकिन वो किसी भी तरह से नहीं माने । लेकिन जब मैंने कहा कि नहीं, इसको बंद करना पड़ेगा। ये ठीक नहीं । तो वो लोग बहुत नाराज़ हो गये। उसके बाद हम इधर-उधर देखने गये तो देखा की बड़ी गरीबी है। एक तरफ़ बहुत अमीर लोग और एक तरफ़ बहुत ही गरीब लोग। बंगाल से भी गरीब लोग। पेड़ पे रहते हैं । पूछा , 'ये कैसे ?' कहने लगे, 'ये लोग बड़ी प्रेतविद्या करते हैं। स्मशान विद्या करते हैं। ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं । उसी से पैसा कमाते हैं।' मैंने कहा, 'पैसा क्या कमाते हैं, पेड़ पे रहते हैं। उनकी हालत तो ये है।' उसके बाद मैंने उनसे बात कही, इशारा, 'देखिये आप समुद्र के किनारे बैठे हैं। सम्भल के रहिये। समुद्र आपका पिता है और जो पिता है वो अत्यंत पवित्र है। उसके किनारे बैठ कर के | गड़बड़ काम मत करिये। अगर ये बिगड़ गया तो आप सब का सर्वनाश हो जायेगा।' तो उन्होंने कहा कि, 'ऐसे कैसे हो सकता है?' मैंने कहा, 'हो जायेगा, देख लीजिये। एक तो हमने चेतावनी अब दे दी। अब चेतावनी के बाद फिर अगर गड़बड़ हुई है तो फिर हम से न कहना।' उसी साल वहाँ पर एक बहुत बड़ा, इसी तरह का एक टायफून का नाना आया और वो सबको लटका गया। सब लोग पेड़ पे लटक गये। हजारो लोग मर गये। उसके बाद जब में दिल्ली आयीं तो सब मोटरे ले के दिल्ली पहँचे कि, 'माँ, हमको माफ़ कर दो।' हमने कहा, 'बेटा क्या माफ़ करने का? जो था वो तो गया। ये तो तुमने गड़बड़ का काम किया। मैंने तुमको चेतावनी दी।' यही मैं कह रही हूँ, कि चेतावनी आ रही है आपको कि ये गलत लोगों को यहाँ से हटाईये। वहाँ के जो गरीब लोग जो ये करते थे , प्रेत १ विद्या, स्मशान विद्या आदि वो सब के सब पेड़ पे लटके हये नज़र आये। तो जिस वक्त ये काली विद्यायें और इस तरह की विद्यायें चलती हैं तो वो सकिंग कर लेती है। वो अपने अन्दर खींच लेती है। इस तरह के आतंक को जो बाहर आ कर के सब नष्ट कर देता है। हालांकि हमारे आने से पहले अधिकतर ऐसा होता है । इंग्लंड में भी ऐसा होता है हमने देखा। जहाँ भी हम जाते हैं, बड़ी बिजली गरजती है , बहत बरसात होती है। एकदम साफ़ धुल जाता है तो हम पहुँचते हैं। लेकिन तो भी लोगों की समझ में नहीं आता है, कि हमें अपनी सफ़ाई खुद ही करना चाहिये। क्यों सृष्टि से कहा जायें ? कभी कभी वो | भी ऐसा हो जाता है कि उसमें बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिये अगर आप ही सत्य को मान ले और स्वीकार्य कर ले और अपने को सत्य के रास्ते पर, सफ़ाई पर ले आये तो सत्य कहीं से और से प्रगट हो, तो बड़ा भयंकर होता है। बहुत जोरो में उठता है वो और उसकी जो चाल होती है उसके अन्दर बहुत से अनाथ, दुःखी, बेसहाय, बेगुनाह लोग भी मारे जायेंगे। इसलिये बेहतर है कि इन्सान ही सत्य पे आ जाये और इन्सान ही अपने को साफ़ कर दे। न कि सारी चराचर सृष्टि में ये बात फैल जायें कि चलो अब कोलकाता को ठिकाने लगाना है तो यहाँ आठ-दस को मारों। और उसका कोई फायदा तो होता नहीं। कोई उसको समझता भी नहीं। कोई इनकी भाषा को समझता नहीं है। सब लोग सोचते हैं कि हम तो रोज देवी के मन्दिर में जाते हैं फिर ये प्रकोप क्यों हो गया ? उस देवी के मन्दिर में भी बैठे हये हैं राक्षस। बिल्कुल उनके सामने बैठे हुये हैं। बड़ी हिम्मत कर के बैठे हुये हैं। हालांकि जिस वक्त देवी जागृत होगी तो 10 पता चलेगा, एक-एक का ठिकाना हो जायेगा। एक बार गंगा जी में जागृति आयी थी तो सब, जितने भी ऐसे पंडे वरगैरा लोग थे, सब अपनी खटिया उठा के, सामान ले के भाग रहे थे। मैंने देखा था टीवी पर, कहा, अच्छा हुआ! गंगाजी ने ठिकाने लगा दिया सब को। जितने भी हरिद्वार से ले कर के पटना तक, जितने भी लोग थे, सब अपने झोले उठा कर के भाग रहे थे। लेकिन तो भी मनुष्य सीखता नहीं है। अगर उस पे निसर्ग से कोई उपचार हो, तो वो सीखता नहीं है । सिर्फ वो सीखता है अपनी आत्मा से। इसलिये आप सहजयोग को प्राप्त हो । कोई भी ऐसी बीमारी नहीं जो सहजयोग ठीक न कर हो सकती। हर तरह की मुश्किलें दूर हो सकती है। लेकिन पाने के बाद श्रद्धा होनी चाहिये। जो अंधश्रद्धा नहीं है। देखी हुई बात है, आपने पाया है। आप अपने में बिराजमान हये हैं। सकता। कोई भी ऐसी विपत्ती नहीं जो दर नहीं आप स्वयं अपने सिंहासन पर बैठिये। आपने पा लिया है। आप क्यों अब भी भिखारी जैसे बैठे ह्ये हैं? आप आराम से, समझ लीजिये आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और उसके सिंहासन पर बैठिये। और उसके आशीर्वाद से, पूरी तरह से, बेफिकर हो कर के, अपनी जिंदगी का सब से अत्युत्तम जो कुछ भी है उसे पाईये। इसमें में ये नहीं कहती कि आप संन्यासी भाव से बैठिये या कोई आपका सब कुछ छूट जायेगा। कुछ भी नहीं । लेकिन आप की उपभोग जो शक्ति है, वो बढ़ जाती है। जैसे कि अब यहाँ पर आपने देखा कि यहाँ एक बहुत सुन्दर सा एक चर्म बिछा हुआ है और ये चीते का बनाया है। अब आप लोग सोच रहे होंगे कि ये किसने मारा, ये किसने बनाया, क्या है, क्या नहीं? लेकिन हम इसको देखती ही निर्विचार हो गये। हम कुछ सोचते नहीं है। हम तो ये देख रहे हैं कि बनाने वाले की करामात कि क्या कमाल की चीज़ बनायी है! और न सोचते हैं न कुछ नहीं। सारा आनन्द जो उपर से नीचे तक दौड़ा चला आता है। तो हम तो भोक्ता हुये असली। ये सुन्दर सा बना हुआ है सब कुछ। कुछ इसके बारे में सोचते नहीं हैं। बस इसे देख भर रहे हैं। और देखते हैं कि इसका बनाया हुआ आनन्द, जिस आर्टिस्ट ने उसको बनाया है वो सारा ही आनन्द हमारे अन्दर झरा चला रहा है। उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचा। कुछ भी नहीं जाना। बस, अगव उस पे निसर्ग से ये बनाने वाले की जो सूक्ष्म शक्ति जिससे ये आनन्द इसमें डाला है, वो सारा कोई उपचाव हो, ही आनन्द हम अन्दर ले रहे हैं। तो भोक्ता आप बन गये। सब चीज़ों का भोग आप ले सकते हैं। अभी तक जो भी प्रॉपर्टी है तो भी हाय नहीं तो बाय । जो भी तो यो सीखता नहीं है। सामान है तो भी हाय नहीं तो बाय। इन्शुरन्स में लिखाया, इधर लिखाया। उसके सिर्फ बो सीखता है पास लिखाया, विल बनाया और क्या क्या दुनिया भर की चीजें करते रहते हैं। ये अपनी आत्मा से । परेशानी कि चोर न ले जायें। कुछ हो जाये। हम तो किसी के भी नाम की कोई भी चीज़ हो, अब ये लायन क्लब के नाम है समझ लीजिये, लेकिन हम तो उसे पूरी इसलिये आप सहजयोग तरह भोग रहे हैं। चाहे आपके नाम से हो, चाहे किसी के नाम से हो, भोगने का काम को प्राप्त हो। तो हमारा है। हम इसे पूरी तरह से भोग रहे हैं। इसी प्रकार आप को भी भोगने की अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिये। इसमें छोड़ने का क्या है। जब किसी चीज़ को पकड़ा ही नहीं तो इसे छोड़ने का क्या है और किस चीज़ का संन्यास लें। थोड़ी बात बढ़ती है, 11 लेकिन कहना पड़ेगा क्योंकि आप सहजयोगी हैं। आपसे ही ये बात कही जायेगी। अगर ये बात मैं जनरल पब्लिक में ५०% लोक उठ कर भाग जायेंगे । कहूँ तो दूसरी बात ये कहने की कि आपको सब चीज़ भोगना है। लेकिन उससे भी आगे मैं ये बात कहूँगी कि सिर्फ आपको भोगना ही नहीं है लेकिन आपको इसी जिंदगी में, यहीं पर मजे से जम के रहना है, कहीं भागना नहीं है। कोई पलायनवाद नहीं, कि आप गेरूवा वस्त्र पहन कर आये तो आपके वाइब्रेशन्स गये। रावण भी तो आया था गेरूवा वस्त्र पहन कर। विशेष कर गेरूवा वस्त्र से मुझे बड़ी चीड़ है। काहे को सन्यास ले रहे हो ? क्या आपकी माँ नहीं है ? आपकी माँ सामने बैठी हई है। आपकी क्या मजाल है कि आप संन्यास ले लें! इससे बढ़ के माँ के लिये क्या दु:ख की बात होगी। अगर किसी माँ को दुःख देना है तो आप कहेंगे कि, 'माँ, कल से मैं संन्यास ले रहा हूँ।' वो कहे कि, 'बेटा, तुझे जो चाहे वो ले ले, माफ़ कर।' ये समझ लीजिये की मैं आपकी माँ हूँ। और माँ को सुख किसी से होता है, वो भी समझ लेना चाहिये और दःख किस से होता है। अब दूसरी जो बात है, ये उपवास करने की बीमारी, जो हमारे अन्दर बना दी है, ये बिल्कुल गलत बात है कि आज शनिवार तो उपवास, कल रविवार तो उपवास। किस दिन आप खाना खाते हैं भगवान जाने! अगर आपको ऐसे उपवास का शौक है तो करिये। भगवान कहता है, 'अच्छा चलो, हिन्दुस्थानियों को उपवास का बड़ा शौक है। तो उपवास ही में मार डालता है। क्योंकि आपको शौक है तो वही करिये। लेकिन अगर माँ को दुःख देना है तो लड़का कहता है कि, 'माँ, मैं आज खाना नहीं खाऊंगा।' हो गया। माँ का तो सारा दिन खराब हो गया। बच्चे ने कह दिया की खाना नहीं खाऊंगा तो बड़ी बूरी बात। उसके तो प्राण निकल गये। 'अरे बाप रे, आज कैसे होगा? मेरी 6. जान गयी अब। मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया। सारे दिन वो टेप लगा के बैठेगी कि अरे मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया। सारी दुनिया को बतायेगी, पेड़ को बतायेगी , पत्तों को बतायेगी , सबको बतायेगी , मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया और इस देश में मैं देखती हूँ, जो देखो वही उपवास करता है। मेरी तो समझ नहीं आता मैं क्या करू? कैसे समझाऊँ, 'बाबा, क्यों ऐसा कर रहे हो?' आराम से खाओ, आराम से पिओ। लेकिन पीने का मतलब गलत नहीं लेना है। जो चेतना के विरोध में बात जाती है वो नहीं करने की । ये सब इसलिये बनाया गया है, कि आप तो भूखे रहो और जो पैसा बचे वो मेरी जेब में दो। उपवास सहजयोग में मना है। ऐसे ठीक है। आपका मन है, आपकी तंदरुस्ती के लिये कभी खाना नहीं खाना तो नहीं खाओ और कभी खाना खाना है तो खाओ | जैसे आपको कभी, कहीं जाना हो, किसी के घर और आपको नहीं मन कर रहा उसके घर खाना खाना, तो आप कह दीजिये, 'मुझे उपवास है।' तो ठीक है, वो छोड़ देते हैं आपको। इस तरह से आप उपवास करे तो हर्ज नहीं। मतलब उपवास आप अपने लिये करिये। ये नहीं की उपवास के लिये आप जी रहे हैं। सब चीज़ आपके हाथ में है। चाहे उपवास करेंगे, नहीं तो नहीं करेंगे। कौन कहने वाला है। ये टाईम ऐसा है, वो टाइम ऐसा है। हम तो मस्ती में बैठे हये हैं। कोई कहेगा अब खाओ, तो आप खा लेंगे। नहीं तो नहीं खायेंगे। क्योंकि खाने की तरफ चित्त ही नहीं होना चाहिये। और अगर आप पूछेंगे की क्या खाया, तो मुझे सोचना पड़ेगा, क्या खाया कि नहीं खाया। खाने की तरफ चित्त होने से ही आदमी उपवास करता है। उधर चित्त नहीं हो तो उपवास नहीं करेगा। क्योंकि वो बहुत बार उपवास भी कर जाता है, उसको पता ही नहीं चलता उसने उपवास किया की खाया। सिर्फ अपना चित्त जो है खाने में से निकालना चाहिये। क्योंकि हमारे भारतीय लोगों में एक बात है कि खाने में बड़ा चित्त है। बीबी भी होशियार है यहाँ की। स्त्रियों को बड़ी अकल है। वो कहती है कि 12 'चलो इनको ऐसा खाना बना के खिलाओ की ये हमारे चंगूल में फँसे रहें।' कहीं भी जायेंगे दौड़ के घर आ जायेंगे। क्योंकि खाना बनाना हिन्दुस्थानी आदमियों को नहीं आता । औरतों ने उनको ऐसा बना दिया कि वो खाना बना नहीं सकते और बीबी क्या बना रही है इधर ध्यान। बीबी इसी पर आपको पटा लेगी और इसलिये चित्त हमारा ज्यादा खाने पर रहेगा ही! पर और लोगों में ऐसा नहीं। जैसे जापनीज लोग है। वो देखेंगे कि वस्तु कैसी बनी है। सुन्दर है या नहीं। इसमें रूप है या नहीं। खाने पे वो चित्त नहीं देते। लेकिन हमारा हिन्दुस्थानियों का मुख्य धर्म है खाना। कौनसा खाना बना है आज घर में! या किसी ने कहा कि, 'मेरे घर अच्छा खाना बनता है। तो पहुँच गये वहाँ सारी मंडली सीधे। गाँवभर को पता हो जाता है की आज कहीं खाना बन रहा है। सब मंडली पहँच गयी खाने के लिये| खाने की वजह से प्यार भी औरतें बहुत प्रगट करती है। ऐसी मैंने हमारी ग्रॅण्डडॉटर से एक दिन पूछा कि, 'तुम क्या करना चाहती हो।' तो मुझसे कहने लगी कि, 'मैं एअर होस्टेस होना चाहती हूँ और या तो मैं नस होना चाहती हूँ।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगी कि, 'नानी, इन्हीं दो प्रोफेशन में ऐसा होता है कि, आप लोगों को खाना दे सकते हैं।' तो औरतों को बड़ा शौक है यहाँ की। ये कमाल है और कहीं नहीं ऐसा। कहीं नहीं है। आप लंडन में जाईयेगा तो तीन दिन में आपका वजन आधा हो जायेगा। वहाँ तो औरतें सब बॉइल्ड ही खाना देती है। तो हिन्दुस्थान की औरतों में ये भी एक खुबी है। उनको बड़ा शौक है कि ये बना के खिलाये । मेरे साथ बड़ा अत्याचार होता है। 'माँ, मैं आपके लिये स्पेशली बना के लायी हूँ रबडी।' अब मैं रबड़ी खाती नहीं भाई । तो खाने , पीने हमारा चित्त जो है उसमें भी एक सुन्दरता है। लेकिन मैं ये कह रही हूँ कि उससे चित्त ही हटा लेना चाहिये। तो आदमी उस सूक्ष्म में उतर सकता है, जैसे कि शबरी के बेर श्रीराम ने इतने शौक से खाये। उसकी जो सूक्ष्मता थी वो श्रीराम ने कैसे पकड़ी। क्योंकि उसके अन्दर उन्होंने उसका प्यार, उसकी नितांतता, उसका आदर, उसका विचार सब देख कर के कितने शौक से वो खाये। यही बात हमारे अन्दर अगर आ जायेगी कि हम खाने की ओर चित्त न देके, उसके पीछे जो भावना है उसकी ओर ध्यान दे तो हम सहजयोगी हो गये। इस जनम में बहुत सी चीज़ें जो पिछली जनम में मैंने बहुत खायी और पी है वो सब छोड़ दी। जैसे वर्णन है कि देवी को श्रीखंड बहुत पसन्द है। मैं बिल्कुल नहीं खाती हूँ। और पूरणपोली पसन्द है। मैं बिल्कुल नहीं खाती हूँ। और दूध बिल्कुल नहीं पीती हूँ। सब चीजें जो होती थी सब छोड़ दी। क्योंकि इस जनम में कर लिया अब इस जनम में क्या खाने का! अब इस जनम में भूतों के खाने के लिये देखते हैं कि मेरे पास पेट में जगह ही नहीं रहती। आप लोगों से मिल कर बहुत आनन्द हुआ। जैसे बहुत बिछडे हुये मेरे सब कुछ मिल गये। इस कोलकाता में एक बार जागृति आ जायेगी, तो आप देखेंगे कि यहीं पर सब चीज़ अत्यंत सुन्दर हो सकती है। और वो होनी चाहिये परमात्मा लालायित है आपको आशीर्वादित करने के लिये| सिर्फ आप इसे झेल सके। इतनी ही बात है। तो मेरी कोई बात का बुरा नहीं मानना। ये बात में कह रही हूँ वो सत्य है। उसको स्वीकार्य करना चाहिये। सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 13 सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है। कोलकाता, १२ अप्रैल १९९५ इस कलियुग में मनुष्य जीवन की अनेक समस्याओं के कारण विचलित हो गया है और घबरा रहा है। कलियुग में जितने सत्य को खोजने वाले हैं, उतने पहले कभी नहीं थे और यही समय है जब कि आपको सत्य मिलने वाला है। लेकिन ये समझ लेना चाहिए कि हम कौनसे सत्य को खोज रहे हैं? क्या खोज रहे हैं? नहीं तो किसी भी चीज़ के पीछे हम लग कर के ये सोचने लग जाते हैं कि यही सत्य है। इसका कारण ये है कि हमें अभी तक केवल सत्य, अॅबसल्यूट ट्रथ मालूम नहीं । कोई सोचता है कि ये अच्छा है, कोई सोचता है कि वो अच्छा, कोई सोचता है कि जीवन और ही तरह से बिताना चाहिए । तो विक्षुब्ध सारी मन की भावना और भ्रांति में इन्सान घूम रहा है। इस संभ्रांत स्थिति में उसको समझ में नहीं आता है कि, 'आखिर क्या कारण है, जो मेरे अन्दर शांति नहीं है। शांति को किस तरह से अपने अन्दर प्रस्थापित करूं । मैं ही अपने ही साथ लड़ रहा हूँ, झगड़ रहा हूँ, कुछ समझ में 14 नि ंब नहीं आता।' यही कलियुग की विशेषता है और इसी कारण इस कलियुग में ही मनुष्य खो देता है। पहले इस तरह की संभ्रांत स्थिति नहीं थी। मनुष्य अपने मानवता से ही प्रसन्न था। अब आप इस मानव स्थिति में आ गये हैं। इस स्थिति में आपको केवल सत्य मालूम होता तो कोई झगड़ा ही नहीं होता। हर एक इन्सान एक ही बात सोचता और कुछ भी समझाने से, बतलाने से मनुष्य सिर्फ मानसिक हो जाता है, मेंटल हो जाता है। पढ़ पढ़ के, पढ़ पढ़ के भी मानसिक हो जाता है और उसमें कोई शांति नहीं होती, उसमें कोई आराम नहीं होता। उसमें कोई चैन नहीं आता। तो सत्य क्या है, ये समझ लेना चाहिए। अब बात ये है कि मैं जो कुछ भी आपके सामने बात कहूँ इसे आप एकदम से मान्य मत करें क्योंकि अंधश्रद्धा से हम लोग पहले ही पीड़ित हैं। स्पेशली बंगाल में तो मैं सोचती हूँ कि यहाँ पर इस कदर तांत्रिक, ये , वो सब ने जकड़़ डाला और जब हम देखते हैं कि जो धर्म के नाम पर भी जो बहुत बोलते हैं और चलते हैं वो भी पीड़ित हैं। वो भी बीमार हैं। उनको भी ये तकलीफ़ है, वो तकलीफ़ है और वो भी आपस में लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। इसका मतलब उन्होंने अभी तक सत्य को प्राप्त नहीं किया। सिर्फ उसके बड़े बड़े इश्तिहार लगा के रखे हैं। तब मनुष्य घबरा के ये पूछता है, कि सत्य है क्या? सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है। आश्चर्य की बात है कि इसका मिलाफ़ लोग समझ नहीं पाते। समझ लीजिये कि आप किसी को नितांत प्रेम करते हैं। तो आप उसके बारे में हर एक छोटी छोटी बातें जान लेते हैं। पर ये परमात्मा का प्रेम है, ये दैवी प्रेम है। इस प्रेम को सत्य मान लीजिये ऐसा मैं नहीं कहूँगी, पर ये सिद्ध हो सकता है। उसके लिये आपको इस मानव चेतना से, ह्यूमन अवेअरनेस से उपर उठना होगा तभी आप समझ पायेंगे कि सत्य और प्रेम एक ही चीज़ है। और ये दोनो ही चीज़, दोनो ही बातें, दोनो ही गुण ऐसे मनुष्य में होते हैं जिसने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर लिया हो। और जिसने अभी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं किया और जो सिर्फ ऊपरी ऊपरी बातें करता है, काफ़ी लेक्चर देगा या काफ़ी कर्मकांड करायेगा उससे आज तक किसी का फायदा हआ नहीं और न होगा। इसके लिये जरूरी है कि हम समझ लें कि सत्य क्या है। हम ये शरीर, बुद्धि, मन, अहंकारादि उपाधियाँ नहीं, हम शुद्ध आत्मा है, ये सत्य है। क्योंकि हम कहते हैं, कि ये हमारा शरीर, ये हमारा मन, ये हमारी बुद्धि, हमारी, हमारी, हमारी, मेरी, मेरी, मेरी | ये 'मैं' है कौन? इसे जानना है। और ये 'मैं' ही शुद्ध आत्मा है। जो आपके हृदय में बिराजता है, वही शुद्ध आत्मा ! उसको प्राप्त करना, उसका प्रकाश अपने चित्त में लाना ही एक तरह से आत्म का दर्शन है। और दूसरा सत्य ऐसे है कि जैसे आप देखते हैं कि चारों तरफ़ फूल हैं। इतने सुंदर फूल! और ये जिस फूल पृथ्वी तत्त्व से निकले हैं, कितना चमत्कार है, कि हर एक तरह का फूल अलग अलग तरीके से आता है। और इसके लिये पैसा नहीं देना पड़ता। माँ का पृथ्वी तत्त्व जो प्रेममय है, वो अपने आप उसको बना पाता है, कुछ सुगन्धित करता है और रंगबिरंगों से भर देता है। ये एक महान आश्चर्य की बात है, कि हम इस बारे में सोचते ही नहीं, कि जीवित कार्य कैसे हैं। जैसे किसी डॉक्टर से पूछे, कि हमारा हार्ट कौन चलाता है? हमारा हृदय कौन स्पंदित करता है? तो डॉक्टर ये कहेगा कि इसकी एक ऑटोनॉमस नव्व्हस सिस्टीम है । तो ये ऑटो है कौन ? स्वयंचालित संस्था है। तो ये स्वयं कौन है? वो स्वयं ही आपका आत्मा है। इसको प्राप्त कर लेना, उसका प्रकाश 15 यही योग है और इसका जन्मसिद्ध अधिकार आप सब मानव जाति की है । लेकिन इसको प्राप्त करने के लिए अगर कोई मूढ़ हो ती वी प्राप्त नहीं करे सकती। अपने अन्दर लाना ही आत्मसाक्षात्कार है। और इस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम शक्ति, जिसने ये सुन्दर फूल उगाये, जो हमारे हृदय को भी चलाता है उससे एकाकारिता करना ये योग है। यही योग है और इसका जन्मसिद्ध अधिकार आप सब मानव जाति को है। लेकिन इसको प्राप्त करने के लिए अगर कोई मूढ़ हो तो वो प्राप्त नही कर सकता। कोई बेवकूफ़ हो वो नही। कोई उद्दाम, मग्रूर हो वो नहीं प्राप्त कर सकता। उसके लिये नम्रता चाहिये और माँग चाहिये कि हमें ये चीज़ चाहिये। हृदय से, प्रेम से अगर मनुष्य अपने को जरा सा भी देखें, तो वो अब एक अधूरा है और उसके अन्दर अनेक शक्तियाँ हैं जिसका प्रादर्भाव, मैनिफैस्टेशन हो सकता है। लेकिन उसके लिये मनुष्य को ये समझ लेना चाहिये कि नम्रतापूर्वक आप इसे अपने हृदय से माँगे। क्योंकि अगर प्रेम की शक्ति माँगनी है तो प्रेमपूर्वक ही माँगी जाती है। लड़ाई, झगड़े से और परेशान करने से ये शक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। इस शक्ति के बारे में आपको पहले बता ही चुके हैं वो, कि त्रिकोणाकार अस्थि में ये शक्ति कुण्डलिनी नाम की है। अब ये कोई नयी बात मैं नहीं कह रही हूं। हमारे शास्त्रों में, समझ लीजिये छठी शताब्दि में, शंकराचार्य, उन्होंने ये बात कही। लेकिन तेरह हजार पूर्व मार्कडेय ने कुण्डलिनी की बात की पर सब संस्कृत भाषा में। इसलिये बारहवी शताब्दि में ज्ञानेश्वर जी ने इसकी बात की है। जब उन्होंने ज्ञानेश्वरी लिखी जो कि गीता पर टीका थी, उसमें छठे अध्याय में उन्होंने लिख दिया कि कुण्डलिनी शक्ति से आत्मसाक्षात्कार घटित होता है। तो उस वक्त के जो धर्ममात्तण्ड थे, उन्होंने कहा, कि नहीं , नहीं ये निषिद्ध है । छठा जो अध्याय है निषिद्ध है। किसी ने पढ़ा नहीं, लिखा नहीं । इस तरह से जो हमारे अन्दर निहित, छुपी हुई जो शक्ति है, जो कि हमें उस स्थिति में पहुँचा सकती है, वो पूर्णतया एक अंध:कारमय, एक जिसको कहना फिर हमारे यहाँ एक से एक बुद्धिमान लोग निकले । इंटलेक्च्युअल्स। जिसके लिये कबीर ने कहा है कि, 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भय' । पहले मैं सोचती थी कि पढ़ पढ़ के पंडित मूर्ख कैसे हो जाय? ऐसे कैसे हो सकता है? लेकिन मुझे बहुत मिले ऐसे। उनसे बात करने चाहिये कि एक अज्ञानमय, इग्नोरन्स में छिप गयी। 16 से पहले वो ही बोले जाते थे। और क्या बोलते थे, भगवान जाने! ये किताब में लिखा है, वो किताब में लिखा है । मैंने कहा, 'आपकी किताब में क्या लिखा है? वो बताईये।' तो हम अपने से अनभिज्ञ, अपने से अपरिचित, दूसरों की ही बातें अपने खोपड़ी में भर लेते हैं। ये तो इंटलेक्च्युअल साईट हो गयी। और दूसरी हो गयी भक्ति की साईट। तो उसमें भी एक तरह का नशा है, चेतना नहीं है। दोनों चीज़ में एक तरह से वास्तविकता से दूर, असलियत से परे, रिअॅलिटी से बिल्कुल दूर हम खड़े हैं। अब हम आपको एक उदाहरण देंगे। आपके यहाँ 'हरे रामा हरे कृष्णा' का बहुत जोर चल रहा है। लेकिन शिकागो में मैं गयी थी। शिकागो में उनके जो गुरु हैं वो आयें तो बिल्कुल पतली धोती पहन के और उपर एक बनियन पहन के और इतनी ठंड थी कि मैं तो शॉल में भी ठिठ्र रही थी और वो भी ठिठूर रहे थे। मुझे मिलने आयें। तो मैंने कहा कि, 'आप ये क्या पहने रहे हो ? ये ऐसी पतली धोती क्यों पहने हये हो भाई इतनी ठंड है। मैं तो माँ हूँ नां!' तो कहने लगे कि, 'बात ये है कि मेरे गुरु ने कहा, कि आपको धोती पहननी चाहिये, तभी आपका मोक्ष होगा।' मैंने कहा, 'अच्छा!' हमारे भारत वर्ष में ८०% लोग धोती पहनते हैं। बंगाल में तो और भी ज्यादा। तो इन सब का मोक्ष होने वाला है तो तुमको स्थान कहाँ मिलेगा। फिर उसने बाल सब मुंडाये हये थे बेचारे ने और एक चोटी रखी थी। तो मैंने कहा कि, 'ये बाल क्यों मुंडवा लिये।' कहने लगे कि, 'गुरु ने कहा कि जब तक बाल नहीं मुंडवाओगे तब तक तुम्हारा मोक्ष नहीं हो सकता।' उस पर कबीर ने बड़ा सुन्दर कहा है कि, 'अगर बाल मुंडाने से आप स्वर्ग में जा सकते है, तो जिस मेंढे के दो बार बाल मुंडवाये जाते हैं वो आपसे पहले पहँच जायेगा।' और वो इसको (बाल मुंडवाने की बात) मानते हैं। बड़ी श्रद्धापूर्ण रीति से। मुझसे नाराज हो गये कि, 'आप मेरे गुरु के विरोध में बोल रहे हैं।' 'नहीं' मैंने कहा 'मैं माँ हूँ नां! तो इसलिये पूछ रही हूँ कि ये आपकी दर्दशा क्यों बनायी?' फिर दूसरी बात समझने की है, जो कि उपवास करना। ये नहीं खाओ, वो नहीं खाओ, उपवास करो, सर के बल खड़े हो जाओ। 'काहे के लिये?' कहने लगे 'मोक्ष प्राप्ति के लिये।' अगर परमात्मा आपके पिता स्वरूप, प्रेम स्वरूप है, तो कौन पिता चाहेगा, कि अपना बच्चा सर मुंडवा के, पतली सी धोती पहन कर सर के बल खड़ा हो जाये अपने पिता से मिलने के लिये? बताईये कि. कितनी अजीब सी बात है! कोई पिता चाहेगा, कि अपना बच्चा भूखा मरें और माँ, माँ को अगर सजा देनी है तो बच्चे कह देते हैं कि हम खाना नहीं खायेंगे। कि हो गया माँ खतम। कुछ भी गुस्सा होगा तो माँ खतम । आप तो माँ को अच्छे से जानते हैं। तो कौन ऐसा विचित्र तरह का आलंबन जिससे आप मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। आप जब मनुष्य हये तो आपने कितना पैसा खर्च किया ? आप कौन से तांत्रिक के पास गये थे, गुरु के पास गये किया था? आप मनुष्य तो हो ही गये ना! तो कोई न कोई अन्दर शक्ति है जिसे मैं प्रेम की शक्ति थे, कुछ कहती हूँ। जिसको की रिडम्पूशन की शक्ति कहते हैं। जिससे मनुष्य का उत्थान होता है। जिससे आज आप मनुष्य स्वरूप हो गये। और अगर ये आपके अन्दर शक्ति है, समझ लीजिये अगर है, तो उसका 17 उत्थान क्यों न किया जाय ? अब इसके लिये आप पैसा नहीं दे सकते। इसके लिये आप मुझे नहीं खरीद सकते। कोई अपने माँ को खरीदता है क्या? कम से कम अपने देश में तो नहीं खरीदता है। परदेस की बात छोडिये। तो इसको पाने की चीज़ क्या है? ये भी आपकी अपनी, व्यक्तिगत अपनी आपकी माँ है, हर एक की और आपके अन्दर जो भी कुछ है, आपका भूतकाल, आपका भविष्य काल, आपका सब कुछ इसमें टेपरेकॉर्ड के जैसे भरा हुआ है। और वो जानता है। ये आपकी माँ, व्यक्तिगत आपकी अपनी अपनी अलग अलग माँ है, वो आपके कुण्डलिनी में स्थित है। और इसकी शक्ति को जागृत करना है तो आप क्या पैसा दे सकते हैं। अगर समझ लीजिये इस पृथ्वी में आपको, उसकी उदर में एक बीज बोना है, तो वो अपने आप सहज, स्पॉन्टेनियसली पनप जाता है। उसके लिये क्या आप सर के बल खड़े हो, नहीं तो कुछ भी करो, उससे फायदा होगा! समझ की बात है। जो जीवित कार्य है, सारा जीवित कार्य सहज होता है। सहज का अर्थ 'सह' माने आप 'ज' माने आपके साथ पैदा हुआ। ये योग का अधिकार है। इसे आपको प्राप्त कर लेना चाहिये। फिर उससे अनेक लाभ हैं। मुझे पता नहीं योगीजी ने आपको क्या क्या लाभ बताये । लेकिन एक आप नहीं जानते कि सूक्ष्म में आपको कितने लाभ होते हैं । अगर संसार में आप किसी से प्यार करते हैं तो अगर आप प्यार करते हैं, वो भी आप से प्यार करता है, तो दोनों के आदान-प्रदान में एक सूक्ष्म सी सम्वेदना होती है, जो बहत सुखदायी और शांतिमय होती है। पर आजकल ऐसा प्यार तो देखने को नहीं मिलता। ऐसे तो कोई व्याख्या भी नहीं कर सकता। ऐसे कोई सेंटिमेंट्स नहीं होते। एकदूसरे को नीचे गिराने में, इसकी उसकी गर्दन काटने में हम लोग लगे हुये हैं। प्यार की तो बात छोड़िये। यहाँ तक कि जो बड़े भक्तियोग, फलाना, ठिकाना स्पीच करते हैं और बिठा के लोगों से भक्ति कराते हैं उन सब लोगों का ध्यान सिर्फ पैसा लेने पर है, ये समझ लेना चाहिये। इस पृथ्वी माँ को आपने कितना पैसा दिया है, जो ऐसे सुन्दर सुन्दर फूल आपको दे रही है ! पहली तो चीज़ है कि आप प्यार को खरीद नहीं सकते। खरीदा हुआ प्यार नहीं होता और प्यार की महिमा आप तभी जान सकते हैं, जब आप इस महान चैतन्य के प्यार में डूब जाये। आपकी छोटी छोटी चीज़ भी वो देखता है। जैसे आज ही की बात बतायें कि नागपूर में बहत अच्छे गाने वाले हैं, बजाने वाले हैं । मैंने कहा कि न जाने उनको बुला लें तो अच्छा रहेगा यहाँ पर। क्योंकि बंगालियों का गाना तो बंगालियों ने ही है। दूसरा कुछ सुनाये तो अच्छा है। और देखिये सबेरे वो पहुँच गये अपने आप से। मैंने कहा, सुना 'आप कैसे आयें?' तो कहने लगे कि, 'दूर्गापूर में हमारा प्रोग्रॅम है, वहाँ हमें जाना था तो आ गये हम। ' सहज में ऐसी बातें होती है कि चमत्कार पे चमत्कार हो रहे हैं। आपको मैं बताऊंगी तो विश्वास नहीं होगा। कि चमत्कार जिसको हम कहते हैं वो चमत्कार नहीं है। क्योंकि ये परमात्मा का प्यार है। उसमें क्या चमत्कार हो सकता है! वो ही स्वयं चमत्कार है। हमारी दादीजी एक किस्सा सुनाती थी। बहत मजेदार, कि एक इन्सान परमात्मा को मिलने चला। तो 18 पहली तो चीज़ है कि आप प्यार को खरीद नहीं सकते। खरीदा हुआ प्यार नहीं होता और प्यार की महिमा आप तभी जान सकते हैं, में जायें । जब आप ईस महान चैतन्य के प्यार डुब उसको रास्ते में एक आदमी मिला जो सर के बल खड़ा था और कह रहा था कि, 'मैं कब से सर के बल खड़ा हूँ, मुझे भगवान कब दर्शन देंगे। तो जरा भगवान से जा के कहो, कि जरा जल्दी दर्शन दें।' तो ये गये। रास्ते में दूसरा एक बिल्कुल पड़ा था रास्ते के किनारे। तो उसने कहा कि, 'भगवान ने आज मेरे खाने की व्यवस्था नहीं की। उनसे कह देना कि जरा मेरे खाने की व्यवस्था करें।' तो इन्होंने कहा कि, 'अच्छा, हम कह देंगे भगवान से!' तो ये जब भगवान के पास गये, तो उनका काम हुआ सो हुआ। उसके बाद भगवान ने पूछा कि, 'और कोई बात हैं?' कहने लगे कि, 'हाँ, एक बात हैं। वहाँ एक आदमी है बेचारा, के सर बल खड़ा है, आपका इंतजार कर रहा है। आप ऐसा क्यों नहीं करते, कि थोडी उस पे मेहरबानी कर दें।' कहने लगे, 'उससे कहो कि थोडे दिन करते रहो तो अच्छा रहेगा। हो जायेगी मुलाकात।' उसके बाद दुसरे आदमी के बारे में कहा कि, 'उसको तो खाना नहीं मिला। ऐसे रास्ते पे पड़ा है। कह रहा था, भगवान से कह देना। 'अरे उसे खाना नहीं मिला! ये कैसे हो सकता है? एकदम उसका इंतजाम करो।' तो ये अचंभे में पड़ गया, कि वो तो सर के बल खड़ा है। उसकी कोई परवाह नहीं और ये ऐसे ही रास्ते पर ऑर्डर दे रहा है, इसकी इतनी परवाह कर रहे हैं! अब ये प्रेम की बात है। तो उनसे परमात्मा ने कहा कि 'अच्छा, तुम ऐसा करो , नीचे जा रहे हो ना, तो दोनों से एक ही बात कहो।' कहने लगा, 'क्या बात?' 'कि मैं तुम भगवान के यहाँ गया तो एक सुई के छेद में से एक उन्होंने ऊँट को निकाला। बस, इतनी बात करना तुम। तो ये आये नीचे। पहले उनको वो मिला जो सर के बल खड़ा था। उससे कहा कि, 'भाई अच्छा हम आयेंगे कभी, भगवान ने कहा है।' 'तो और क्या देखा तुमने?' 'अरे, मैंने बड़ा आश्चर्य देखा कि उन्होंने सुईं के छेद में से एक ऊँट निकाला।' वो कहने लगा, 'क्या झूठ बोल रहे हो? भगवान के यहाँ क्या हुआ मैंने ये मुझ से झूठ बता रहे हो। फिर वो दूसरे आदमी के पास गया। 'अरे, खाने का तो इंतजाम हो जाता, सोचा ऐसे ही बता दे। तो और क्या देखा तुमने ?' तो उसने बताया कि, 'एक आश्चर्य की बात है, कि एक सुई के छेद में से परमात्मा ने एक ऊँट को निकाला है।' अब इसमें जो सूक्ष्म बात है वो समझिये। तो वो कहता है कि, 'इसमें आश्चर्य कौनसा है ? अरे वो परमात्मा है। वो ऊँट तो क्या दुनिया ही निकाल दे । न 19 जाने विश्व का विश्व निकाल दें । वो परमात्मा है तुम क्या समझते हो उनको।' ये एक नितांत विश्वास है। क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी आदमी को, उसका जो विश्वास होता है वो अंधा विश्वास नहीं होता है । वो साक्षात् में विश्वास, साक्षात्। कोई भी चीज़ अंधे से मान लेना ये मनुष्य को शोभा नहीं देता। आप पहले इसका साक्षात् करिये। पहले आप सत्य को जान लीजिये और सत्य को जानने के बाद आप जानियेगा आप कितने महान और गौरवशाली हैं। अभी तो आप अपने बारे में जानते ही नहीं । जैसे कि किसी छोटे गाँव मे चले जाईये। जहाँ बिजली नहीं, कुछ नहीं और टेलिविजन ले जाईये। और उनसे कहिये कि इसमें सब तरह की फिल्म आयेंगी , फोटो आयेंगे देखो। कहने लगेंगे, 'डब्बे में, इस डब्बे में।' 'हाँ, इसी डब्बे में ।' जब उसका कनेक्शन हो जाता है, तब वो हैरान कि 'इस डब्बे में ये चीज़ कैसे आयी!' वैसे हम भी अपने को एक डिब्बा समझते हैं। और खास कर बंगाल में मैंने देखा है, कि इन्सान बहुत निराश रहता है, हमेशा और रोने के गाने गाता है। रोते ही रहता है। अब दिन बदल गये। ये समझना चाहिये, नया समय आ गया है। ये एक बड़ा एक विशेष समय, इसको मैं ब्लॉसम टाइम कहती हैँ। बसंत बहार कहती हैं। लेकिन बहुत से लोग इतने निराश हो गये। इतने निराशा में फँसे हये हैं । वो समझ ही नहीं सकते कि इस निराशा के बाद एक बड़ी भारी सुबह होनी जा रही है। जो सारे दुनिया में छा जायेगी। और वो आज का समय है। कोई भी चीज़ अंधे से मान लेना ये को शोभा नहीं देता। आप पहले इसका साक्षात् करिये। मनुष्य पहले आप सत्य को जान लीजिये और सत्य को जानने के बाद आप जानियेगा आप कितने महान और गौरवशाली हैं। अभी तो आप अपने बारे में जानते ही नहीं । जैसे कि किसी छोटे गाँव मे चले जाईये| जहाँ बिजली नहीं, कुछ नहीं और टेलिविजन ले जाईये। और उनसे कहिये कि इसमें सब तरह की फिल्म आयेंगी , फोटो आयेंगे देखो। कहने लगेंगे, 'डब्बे में, इस डब्बे में।' 'हाँ, इसी डब्बे में।' जब उसका कनेक्शन हो जाता है, तब वो हैरान कि 'इस डब्बे में ये चीज़ कैसे आयी!' वैसे हम भी अपने को एक डिब्बा समझते हैं | और खास कर बंगाल में मैंने देखा है, कि इन्सान बहुत निराश रहता है, हमेशा और रोने के गाने गाता है। रोते ही रहता है। अब दिन बदल गये। ये समझना चाहिये, नया समय आ गया है। ये एक बड़ा एक विशेष समय, इसको मैं ब्लॉसम टाइम कहती हूँ। बसंत बहार कहती हूँ। लेकिन बहुत से लोग इतने निराश हो गये। इतने निराशा में फँसे हये हैं। वो समझ ही नहीं सकते कि इस निराशा के बाद एक बड़ी भारी सुबह होनी जा रही है। जो सारे दुनिया में छा जायेगी। और वो आज का समय है। पर वर्तमान को हम नहीं जानते और वर्तमान असलियत है। तो विचार उठे, नीचे गये, फिर विचार उठे, नीचे गये। उसके बीच में एक जगह है उसे विलंब कहते हैं। पॉज। वो विलंब को हम नहीं पकड़ पाते जो वर्तमान है। या तो आगे की बात सोचे या पीछे की। जैसे कि अभी इनको जाना है वापस| सोच रहे हैं कि ट्राम मिले की नहीं, बस मिले की नहीं, ये नहीं, वो नहीं। या तो पिछली बातें सोचते हैं। और अगर मैं कहूँ कि अभी वर्तमान खडे हो जाईये, तो नहीं हो सकते। क्योंकि एक विचार उठा, खतम हो गया, दुसरा विचार 20 उठा, खतम और हम उसके ऊपर में नाचते रहते हैं। लेकिन जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो विचार लंबाकृत हो जाते हैं, ऐसे। रिलॅक्स हो जाते हैं, लंबाकृत और उसके बीच में जो जगह बन जाती है और वर्तमान में आप खड़े हो जाते हैं और जब आपका चित्त वर्तमान में होता है, तो आप कुछ नहीं सोचते, निर्विचार। निर्विचार में आनन्द झरने लग जाता है। अब जैसे यहाँ एक बड़ा सुन्दर कार्पेट हैं। एक उदाहरण के लिये| तो मैं कहँगी कि, भाई, कितना सुन्दर है! और अगर ये मेरा है तो सब जो होते हैं प्रॉब्लेम्स कोई चीज़ पाने के। और मेरा नहीं दूसरे का है, तो मैं ये सोचूंगी, कितने का ये मेरे लिये सरदर्द हो जायेगा कि खराब न हो जाये, ये नहीं, वो नहीं। ये मिला, कहाँ मिला, कब पायेंगे ये लोग? लेकिन हम निर्विचार से देखे, तो जिस कलाकार ने इसको बनाने में अपना आनन्द लूट लिया है, वही आनन्द सर से ले के नीचे तक ठण्डा ठण्डा बहना शुरू हो जाये। और उस आनन्द में आप स्नात हो जाये। जब आप निर्विचार हो जाते हैं, तब आप अपने शांति में खड़े हो जाते हैं। शांति। ये कहने की बातें हैं। शांति के इन लोगों ने बड़े बड़े ऑर्गनाइझेशन्स बनायें हैं । शांति में अॅवॉर्ड्स दिये, ये, वो। मैंने तो बहुत से लोगों को देखा है, जिनको शांति अॅवॉर्ड मिले, इतने गरम होते हैं, इतनी गरम तबियत, कि उनसे अगर मिलना हो तो लकड़ी ले के जाईये सामने। नहीं तो जा कर के दो-चार झापड़ ही मार देना। आप कोई उनसे बात ही नहीं कर सकते, इतने गुस्सैले लोग। उनमें कोई प्रेम की झलक भी नहीं। वो क्या शांति दें और उनको इंटरनैशनल अॅवॉर्ड मिले। पता नहीं किस तरफ से देख कर दिये इंटर नैशनल अॅवॉर्ड। इस प्रकार हम लोग बिल्कुल भुलावे मे रहते हैं। क्योंकि हमारे अन्दर की जब शान्ति प्रस्थापित होती है, तब हम समझते है कि शांत होना क्या होता है। जैसे कि आप पानी में खड़े हैं और आप परेशान हैं उसकी लहरों से। क्योंकि लहरे आ कर के आपको डरा रही हैं, कि कहीं डूब न जाये । पर अगर आप किसी नाव में चले जाये। तो आप लहरें देख रहे हैं और आपको मजा आ रहा है। आपको घबराहट नहीं। और अगर आप तैरना जानते हैं, तो कूदते है नीचे और जो डूब रहे हैं उनको बचा लेते हैं। इसी प्रकार सहजयोग में आपकी प्रगति होती है। पहले आप निर्विचार समाधि में उतरते हैं, फिर आप निर्विकल्प समाधि में। कभी कभी किसी किसी को दोनों एकसाथ मिल जाते हैं। ये बड़ी आश्चर्य की बात है। दोनों चीज़ एकसाथ घटित होती है। और इसमें इन्सान जो है शांति को भी प्राप्त कर लेता है और उन शक्तियों को भी प्राप्त करता है जो उसके अन्दर नहीं है। पर उसके लिये बाल मुंडवा ले या उसके लिये भगवा वस्त्र पहने, कुछ नहीं। ये सारे भाव अन्दर है। आपको तो राजा जनक की कहानी मालूम है, मुझे नहीं बताना चाहिये। पर अब मैं जैसे गृहस्थ हूँ, मेरे पति ऐसे ऐसे हैं। चलो, उन्होंने कहा तो कपड़े पहन लिये अच्छे, काफ़ी जेवर पहने । जब किसी चीज़ को पकड़ा ही नहीं तो छोड़ेंगे क्या! अगर आपने पकड़ के रखा है तो छोड़ सकते हो। मैंने पकड़ा ही नहीं तो छोड़ू क्या! इस तरह की स्थिति संन्यस्त अन्दर से होती है बाह्य से दिखाने की नहीं होती। बाहर से कपड़े संन्यासी के और धंदे अन्दर चोरों के। इसका फायदा क्या! तो ये जो ढोंग है ये खतम हो जाता है । क्योंकि 21 मानव अपनी इज्जत करने लगता है। अपना मान उसको होता है। उसके अन्दर एक तरह की चमक आ जाती है, कि मैं क्यों? और ये आत्मसाक्षात्कारी लोग ही दुनिया में बड़ा बड़ा नाम करते हैं। जैसे तिलक साहब। तिलक आत्मसाक्षात्कारी थे इसमें कोई शक नहीं है। अब्राहम लिंकन थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। शास्त्रीजी थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। हम तो कहते हैं कि जो लोग आत्मसाक्षात्कारी नहीं वो लोग सत्य पे टिक ही नहीं सकते। आप कोई भी ऑर्गनाइझेशन ले लीजिये बस झगड़े शुरू आपस में। क्यों? क्योंकि असत्य पे खड़े हैं। इसलिये सब डावाडौल हो रहा है। तो पहले आपको प्राप्त करना चाहिये, कि अपने अन्दर की शांति। इस शांति को प्रस्थापित किये बगैर आप विश्व में कोई भी शांति नहीं कर सकते। अब ये कहना है कि जिसको जाना है चले जाये। जिस वक्त में हम जागृति का कार्य करेंगे, तब उठ के जाने की कोई जरूरत नहीं। दोनों हाथ हमारी तरफ करें। और पहले तो आपको चाहिये, कि आप अपने को बिल्कुल क्षमा करें। इस वक्त अपनी गलतियाँ, पाप-पुण्य जोड़ने की जरूरत नहीं। और अब आँख बंद कर लें। चश्मा निकालें। जिनके पैर में जूते हैं वो जूते निकाल लें जो बैठे हैं ऊपर में लोग। अब लेफ्ट हैण्ड मेरी ओर करें इस तरह और सर झुका लें और सिर के उपर में आप अपना राइट हैण्ड यहाँ पर जो तालू है, इसे ब्रह्मरन्ध्र भी कहते हैं कि जो ब्रह्म में एकाकारिता करता है ऐसा छेद ब्रह्मरन्ध्र। अब इस पे राइट हैण्ड रखें। दूर, ऐसे। और देखें कि आपके ब्रह्मरन्ध्र में से ठण्डी या गरम कोई हवा जैसी चैतन्य की लहरियाँ आ रही है क्या। जिसको की आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी कहा था। नीचे सर झुकायें। अब मेरी ओर राइट हैण्ड करें और फिर से अपना सर झुकायें और लेफ्ट हैण्ड से, सर पे हाथ नहीं रखें, सर से दूर, सर झुका के। लेकिन शंका नहीं करने की। आप ही के सर से ठण्डक आ रही है। शंका नहीं करनी है। सर झुकायें। अब अगर गरम आ रहा है, तो इसका मतलब ये है, कि आपने अपने को या दूसरों को क्षमा नहीं की। तो अभी आप क्षमा करें। और इस वक्त ये माँगना है कि, 'माँ, हमें आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' आप माँगिये मन में कि, 'माँ, कृपया आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' मैं जबरदस्ती नहीं कर सकती। मैं आपकी जो स्वतंत्रता है, उसको नहीं छू सकती। क्योंकि अगर स्व का तंत्र बताना है, तो उसके लिये जरूरी है कि आपकी इच्छा से सब होगा। अब फिर से राइट हैण्ड से आप देखिये और कहिये की, 'माँ, मुझे मेरा आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' राइट हैण्ड से। अब दोनों हाथ आकाश की ओर करें और सर ऊपर की तरफ और यहाँ एक प्रश्न पूछे अपने मन में, विश्वास के साथ, 'माँ, क्या ये परमचैतन्य की लहरें हैं?' प्रश्न करें तीन बार। अन्दर अपने हृदय में पूछिये। 'माँ, क्या ये परमचैतन्य की लहरे हैं?' सर पीछे थोडा। आत्मविश्वास के साथ पूछिये। शंका नहीं करने की। अब हाथ नीचे करें। अब दोनों हाथ मेरी ओर करें, इस तरह। चश्मा पहन लें और मेरी ओर देखें और विचार नहीं करें। आपके विचार ठहर गये। निर्विचार। यही निर्विचार समाधि। अब जिन लोगों के हाथ में या उंगलियों में या ब्रह्मरन्ध्र से ठण्डी या गरम हवा आयी हो, वो दोनों हाथ उपर करें। वा, वा ! क्षणभर में सब पार हो गये। सब ने प्राप्त कर लिया। अब इसको आगे बढ़ाना है। आप सारे आत्मसाक्षात्कारी लोगों को हमारा वन्दन! 22 े न म २ य सब कुछ बदल डालो और एक नयी व्यक्ति बनो। फूल की तरह आप फूलते हैं, फिर वृक्ष बनती है और फिर आपकी स्थान ग्रहण करते हैं। सहजयोगी बन कर स्थान ग्रहण करें। ये आसान है। मुझे प्रसन्न करना होगा, क्योंकि मैं ही चित्त हँ। मैं प्रसन्न हो गयी तब आपका काम होगा। पर भौतिक चीज़ों से या चर्चा करने से मैं प्रसन्न नहीं हो सकती। मैं प्रसन्न होती हूँ आपकी तरक्की से । इसलिये स्वयं की तलाश करो। श्रीमाताजी, २१.५.१९८४ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in श्रीकृष्ण चाहते थे, कि लोग इस बात को समझे कि धर्म दासत्व नहीं है। धर्मातीत होकर आपको स्वयं धर्म बन जाना है। परन्तु योगेश्वर की पूजा शुद्ध हृदय से होनी चाहिये। श्रीकृष्ण पूजा, लंडन, १५.८.१९८२ क ० ---------------------- 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-0.txt चैतन्य लहवी जुलाई-अगस्त २०१५ हिन्दी 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-2.txt इस अंक में आप ही अपने हैं गुरु ४ ...8 श्री महादेवी पूजा, कोलकाता, १० अक्टूबर १९८६ सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है ...१४ सार्वजनिक कार्यक्रम, कोलकाता, १२ अप्रैल १९९५ यीगेश्वर की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है और वह पक्ष समझना हमारे लिए अत्येन्त आविश्यक है कि जब तक हम योगैश्वर द्वारा बताए गए मार्ग पर नहीं चलते तब तक स्वयं की पूरी तरह से स्थापित नहीं कर सकते । प.पू.श्रीमातीजी, लंडन, १५.८.१९८२ 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-3.txt आप ही अपने R9 गुरु है। कोलकाता, १० अक्टूबर १९८६ आज पूजा में पधारे हुये सभी भाविकों को और साधकों को, हमारा प्रणिपात! इस कलियुग में माँ की इतनी सेवा, माँ का इतना प्यार, और इतना विचार जब मानव हृदय में आ जाता है, तो सत्ययुग की शुरूआत हो ही गयी। ये परम भाग्य है हमारा भी कि षष्ठी के दिन कोलकाता में आना हआ। जैसा कि विधि का लिखा है, कि कोलकाता में षष्ठी के ही दिन आया जाता है। ष्ठी का दिन शाकंभरी देवी का है। और उसको सब दूर हरियाली छानी चाहिये। हालांकि यहाँ पर मैंने सुना बहुत जोर की बाढ़ आयी। लोगों को बड़ी परेशानी हुई। लेकिन देखती हूँ कि हर जगह हरियाली छायी हुई है। रास्ते टूटे हुये थे, पर कोई पेड़ टूटा हुआ नज़र नहीं आया। मतलब ये कि सृष्टि जो कार्य करती है, उसके पीछे कोई न कोई एक निहित, एक गुप्तसी घटनायें होती हैं। कोलकाता का वातावरण अनेक कारणों से है और भी हो गया है । इसे हमें समझ लेना चाहिये। ये अशुद्ध प्रक्षुब्ध बहुत जरूरी है। इसी लिये देवी की अवकृपा हुई है या कहना चाहिये कि सफ़ाई हुई है। कोलकाता में, जहाँ कि साक्षात देवी का अवतरण हुआ। उनका स्थान यही है, जो कि सारे विश्व का हृदय चक्र यहीं पे बसा हआ है, ऐसी जगह हमने बहत ही अधार्मिक कार्य को महत्त्व दिया है। और सबसे बड़ा अधार्मिक कार्य तांत्रिकों को मानना है। तांत्रिक तो वास्तविक में माँ ही है। जो कि सारे तंत्र उसके हाथ में हैं। उसी ने तंत्र बनाये हैं और वही तंत्र की जानकारी मेरा ये जानती है। पर जो तंत्र के नाम पर दुनियाभर का व्यभिचार, अविचार और आचार करते हैं, उन सभी के 4 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-4.txt कहना है कि उन्हें ये काम छोड़ देना चाहिये। सतयुग में ऐसे लोगों पर घोर अत्याचार होगा, अन्याय होगा, ऐसे लोग बहुत पीड़ित होगे। कोलकाता में इतने तांत्रिक लोग हैं और उनसे दीक्षित ( दीक्षा लिये हये) इतने लोग हैं कि उनसे किस इस प्रकार कहा जाए कि ये सब गलत चीज़ें हैं । इसे करने से कभी भी लाभ नहीं होगा। ये दुष्टों की चालना है और यही राक्षस हैं, जो कि बार बार जन्म लेते हैं। इतनी बार हनन हो कर भी ये संसार में आ कर के और ऐसे दुष्ट कर्म करते हैं और वो भी परमात्मा के नाम पर, देवी के नाम पर। इस मामले में हमारी जो धारणारयें हैं उसे दुरुस्त कर लेना चाहिये क्योंकि सहजयोग जो है वो सत्य पे खड़ा है, असत्य पे नहीं और जो सत्य है वो हमें आपको बताना ही है। अगर आप ज्वाला की ओर दौड़ रहे हैं, अपने को भस्म कर रहे हैं, तो हमें साफ़ शब्दों में आपको बताना है कि ये गलत काम है उधर नहीं जायें। और इसलिये मैं बड़ी व्यग्र हो जाती हूँ और सोचती हूँ कि किस तरह से समझाया जाये कि इन लोगों से शापित इस भूमि को अगर वाकई में आपको उठाना है तो पहले जरूरी है कि इन लोगों की ओर न बढ़े। ऐसा लगता है कि त्राहि त्राहि हो कर के लोग सोचते हैं कि यही कुछ लोग फायदा कर देंगे। लेकिन फायदे से कहीं अधिक ज्यादा आपका नुकसान करते हैं। इनको तो जहर समझ के दूर रखना चाहिये। जब तक आप ये कार्य यहाँ पर जोरो में शुरू नहीं करियेगा और एक एक का भांडा नहीं फोडियेगा, तब तक ये भूमि शापित रहेगी। मैं इस भूमि पर अनेक बार आयी हूँ, लेकिन इस जन्म में मैं जब आयीं तो देखती हैँ कि धीरे-धीरे ये भूमि नष्ट हुई जा रही है। इतनी बड़ी ऊँची साधना प्राप्त की हुई ये भूमि, जहाँ गंगा भी बह कर के रसातल जा कर के और जिन्होंने भगीरथ के प्रयत्न से उनके इतने पूर्वजों को शाप विमुक्त किया। इस भूमि की धूलि को ले जा कर के वो ये कार्य कर सकी। उस पुण्य भूमि पर इस तरह के अपुण्य के कार्य बहुत हो रहे हैं। ये हम लोगों को जान लेना चाहिये कि इन्हीं अत्यंत सूक्ष्म ऐसी बातों से ये हमारा बंग देश इस तरह से आहत हो गया है। जब मैं सुनती थी कि यहाँ पर बहुत से राजकारण और राजकीय दौर पड़ रहे हैं, जिसके कारण मनुष्य में बहुत सा झगड़ा खड़ा हो गया है। आपस में गला काट रहे हैं। इसको, उसको मार-पीट रहे हैं, कोई समाधान नहीं है। हत्या हो रही है, चोरी हो रही है, डकैती हो रही है। तो आप इसे बाह्य से देखते हैं। इसका मूल कारण ये तांत्रिक हैं। ये स्मशान विद्या, प्रेत विद्या अत्यंत हानिकारक विद्या से अपने को बहुत होशियार समझते है और सबको बेवकूफ़ बना कर के, उल्लू बना कर के, उनसे रुपया, पैसा ले कर के उनमें ये दष्ट बाधायें डाल देते हैं। उस बाधा के कारण मनुष्य एक सभ्रान्त स्थिति में पड़ जाता है। और उस स्थिति से वो उलझता हुआ, पूर्णतया भ्रान्तिमय हो जाता है। उस भ्रान्ति में वो समझ नहीं पाता है, कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है? सच्चाई क्या है और बुराई क्या है? ऐसी दशा में इन लोगों के बारे में मैं साफ़ साफ़ नहीं कहँगी तो आपका बचाव कैसे होगा। बहुत से लोग मुझे सलाह देते हैं कि माँ, आपको इतना साफ़ कहना नहीं चाहिये। लेकिन अगर माँ नहीं कहेगी तो कौन आपको बतायेगा ? माँ को ये बात जरूरी बतायें । क्या आप सोच सकते हैं कि आपकी माँ कहेगी कि, 'अच्छा, जा कर बेटा तू साँप के मुँह में हाथ डाल दे ।' किसी की भी ऐसी माँ इस भारतवर्ष में हैं। जो कहेगी कि, अच्छा, ठीक है। ये साँप है। उसके मुँह में डाथ डाल। जिनको इलेक्शन लड़ना है या कुछ पाना है वो इस तरह की बातें करेंगे। वो कॉम्प्रोमाइज करेंगे । वो समझौता करेंगे। लेकिन 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-5.txt एक माँ जो अपने बच्चों से नितांत प्रेम करती है, वो कभी भी ऐसी बातें नहीं कह सकती जो बातें अपने बच्चों के लिये हानिकारक हैं और उसे किसी का डर भी नहीं है। ये लोग कर भी क्या सकते हैं ? कुछ भी नहीं कर सकते। सिवाय इसके कि भूले-भटके हमारे जो बच्चे हैं, उनको पकड़ कर के सताते रहते हैं। उसी प्रकार अनेक दुष्ट गुरु लोगों ने इस कलियुग में जन्म लिया है। ये सभी पूर्व जन्मों में नरकासुर, महिषासुर, और सारे चण्डमुण्ड, जिन जिनका आप नाम ले रहे हैं उनसे भी अधिक मात्रा में सब के सब पैदा ह्ये हैं। उनमें से सोलह महामुख्य राक्षस लोग इस संसार में आये हैं। रावण का भी आगमन हो चुका है। सारे ही लोग स्टेज पर आ चुके हैं। अब इनको मारा कैसे जाए? इनका कर्दनकाल तो आ गया, लेकिन मारा कैसे जाए? हाथ में तलवार ले कर काट तो सकते हैं, कोई मुश्किल काम नहीं । लेकिन वो जनसाधारण के हृदय में घुस गये हैं। उनके मस्तिष्क में घुस गये हैं। उसके अन्दर जमा हो कर के बैठे हये हैं। उनको ये लोग गुरू मानते हैं, तो मैं क्या कहूँ? क्या मैं अपने बच्चों की भी गर्दनें काँट दूँ इनके साथ ? तो बेहतर है कि इन्हीं को जनता से ही हार माननी पड़ी। यही पूरी तरह से, सब के सामने स्पष्ट हो कर के इनका स्पष्टीकरण होगा। एक्सपोजर होगा। और लोग देख कर के समझ लेंगे, कि जो भी माँ इनके बारे में कहती थी एक-एक बात सही है। जर्मनी में एक साहब ने गुरुओं के खिलाफ़ लिखा कि ये ऐसी कोई चीज़ है कि जिसमें एक गुरु को मानते हैं और फिर दुनिया में कोई चीज़ को नहीं मानते। अब वो आधे-अधूरे लोग हैं। वो नहीं जानते कि हमारे देश में अनेक वर्षों से, अनंत काल से गुरुओं के बारे में बताया गया है कि एक तो होते हैं सद्गुरु। जो कि आपको परमात्मा से मिलाते हैं। 'सद्गुरु वो ही जो साहिब मिले'। जो आपको परमात्मा से मिलाता है वो सदुगुरु, फिर गुरु जो कि परमात्मा के बारे में बातचीत कर के आपमें धर्म बिठाता है। फिर अगुरु । जिनमें गुरुत्व नहीं है| जो आत्मसाक्षात्कारी भी नहीं है । तो भी वो अपने गुरु समझ कर के और लोगों को बातें बताते हैं और पैसा भी लेते होंगे। जैसे हमारे पाद्री साहब हैं, समझ लीजिये या पोप साहब हैं, ये लोग अगुरु हैं। कोई भी इनकी कुण्डलिनी जागृत नहीं हुई है। इनमें कोई विशेषता नहीं है और धर्म के नाम पे चर्चा करते हैं। ऐसे अपने देश में से लोग हैं। अधिकतर अपने सारे शंकराचार्य ऐसे ही हैं। एक शंकराचार्य पुराने, काँची के छोड़ कर के सब शंकराचार्य बिल्कुल अगुरु हैं। उनकी कुण्डलिनी तो नीचे में बैठी हुई है और जिनकी कुण्डलिनी भी नहीं चढ़ी हुई उनको हम लोग गुरु मान लेते हैं। क्यों मान लेते हैं? इनका इलेक्शन होता है। इलेक्शन हो सकता है गुरु का। परमात्मा से आनी चाहिये ना ये चीज़। समझने की बात है। ये तो बहुत चीज़ परमात्मा से आनी चाहिये । फिर उसके बाद में होते हैं, जिनको कहा जाता है, कुगुरु। वो ये लोग होते हैं, जो तांत्रिक, जो राक्षसी प्रवृत्ति के, अत्यंत दुष्ट स्वभाव के लोग होते हैं। वो अपने को गुरु मान लेते हैं। और ऐसे बहुत से गुरु जिन्हें की हम अत्यंत दुष्ट, दुराचारी इस तरह के लोग आज गुरु बन के बैठे हैं। और इस बंग देश में तो सब के सब आ के न जाने कैसे, जैसे गंगाजी सब हिमालय से अपनी जड़ीबूटियाँ ले कर यहाँ पहुँची हुई है। ऐसे ये न जाने कहाँ से सब मिलजुल कर के बंगाल में आ कर बैठ गये और बंग देश को पूरी तरह से गरीब बना दिया। इनको लूट लिया। इस सस्य श्यामला भूमि में उन्होंने जो जो हरकतें की हैं, वो हम जानते हैं, क्योंकि सूक्ष्म में आप देख नहीं सकते। आप ये सोचते हैं कि नॅक्सलाईटों ने ये किया, कम्युनिस्टों ने ये किया और काँग्रेसवालों ने ये किया और अमके ने किया । इन लोगों का 6. 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-6.txt किसी का दोष नहीं। ये वातावरण जो खराब हो गया है, ये वातावरण खराब करने वाले ये तांत्रिक, ये दुष्ट आदमी हैं। और उनसे भी बढ़ के वो महा, दष्ट राक्षस, जिनका वर्णन है कि देवी ने जिनको मार डाला, वो भी यहाँ पूजे जाते हैं। महिषासुर अभी तक जिंदा बैठा हुआ है और महिषासुर को भी यहाँ बहुत पूजा गया है। जिसको देवी ने यहाँ मारा, उसी महिषासुर को आपने पूजा है! नरकासुर को भी इतना पूजा है कि उसको करोडों रुपये आपने दे दिये। उसके पास न जाने कितने तरह के रत्न हैं। कितने हिरे भरे हये हैं । ऐसे महा दष्ट लोगों को आपने पोसा हुआ है। तो आप लोग तो गरीब हो ही जायेंगे। ये तो पूरा यही हुआ कि 'आ बैल मुझको मार।' और अपनी बुद्धि से नहीं समझ पाते कि ये लोग कितने दुष्ट हैं। आज पूजा के समय में एक माँ को चाहिये कि बताया जायें। पूजा के लिये सब से पहले जाना जाय कि आप ही अपने गुरु हैं। और किसी को गुरु बनाने की जरूरत नहीं । हम तो कोई गुरु नहीं हैं। क्योंकि गुरु अगर होते तो आप लोग परेशान हो जाते| लेकिन माँ से बढ़ के गुरु कौन है? माँ तो सब गुरुओं की भी माँ हैं। और आप चाहें तो हमारे चरणों में बैठे, चाहे हमारे गोद में बैठे, चाहे हमारे सर पे बैठे आप हमारे बच्चे हैं। बात और है। तो भी ये बात कभी भी नहीं मानी जायेगी कि कोई राक्षस या जिसे हम कहते हैं कि निगेटिव पर्सनॅलिटी वो आ कर के आप पे छा जायें। ऐसा अगर घटित हुआ तो फौरन हम आपको बतायेंगे, 'ये चीज़ आप छोड़ दीजिये।' जिसके लिये आपको बुरा मानना नहीं चाहिये। क्योंकि हम माँ है। आपको मोक्ष देना तो हमारा स्वभाव है। उसमें कोई विशेष बात नहीं। लेकिन आपको किसी तरह का दुःख नहीं देना है। किंतु अगर आपको सत्य न बताया जाए तो आगे चल के तो दु:ख ही पाईयेगा। और सत्य शुरू में प्रिय नहीं लगता है। इसलिये कृष्ण ने कहा है कि, 'सत्यं वदेत्, हितं वदेत्, प्रियं वदेत्'। जो आपके हित में है, वो हमें बताना ही है। क्योंकि आप हमारे अपने हैं। थोडी देर हो सकता है आप मुझ से नाराज़ हो जाए। कोई हर्ज नहीं। आप बच तो जायेंगे। आपके दिमाग में बात तो बैठेगी। इस देश का नाश जो हुआ है, वो इसी वजह से। और आपको इतनी प्रचुर मात्रा में दिखायी देते हैं, कि आश्चर्य की बात है कि अभी तक ये लोग कैसे जीवित बैठे हैं! इनके भी इलाज हो जाएंगे | लेकिन पहले आप लोग इनके चक्करों से निकलिये । नहीं तो मेरा हाथ रूक जाता है। इनके सबके इलाज एकसाथ हो सकते हैं। लेकिन आप लोग मेरे लिये एक बंधन बन जाते हैं। इस प्यार और मोह की वजह से मैं आप से कह रही हूँ, कि कृपया इन लोगों से अपना संबंध पूरा तोड़ दें और कोई भी तरह की इनकी वस्तु, इनका चित्र, इनका दिया हुआ प्रसाद जो सब विषमय है उसे छोड़िये। आज पूजा से पहले क्या कहा जाए! इतना हृदय गद्गद् है, कि इतनी सुन्दर रचनाये, इतना सुन्दर आवाहन, इतना सुन्दर स्वागत आप सब ने अपने हृदय से किया। हृदय एकदम गद्गद् हो गया। सब कहते हैं कि, माँ प्रसन्न हैं। लेकिन न जानें क्यों आँखों में इतने आँसू भर आये हैं और गला भी भर आता है, सोच सोच कर के, कि इतने मेरे प्यारे बच्चे यहाँ रह रहे हैं। आपकी सारी विपदा खत्म हो सकती है। आपकी सब तकलीफ़ें मिट सकती है। क्योंकि परमात्मा जो है सर्वशक्तिमान है। उनसे शक्तिशाली कोई नहीं और उनसे प्रेम करने वाला भी कोई नहीं । अत्यंत प्रेमी और शक्तिशाली ऐसे परमात्मा आपके अपने होते हुए, आपको किसी चीज़ की क्या जरूरत है या किसी चीज़ का क्या ड्र है। बस एकही बात में हार जाते हैं, कि आपको स्वतंत्रता है। आपकी स्वतंत्रता हम छीन नहीं सकते। क्योंकि आपको परम स्वतंत्रता देने की जब बात होती है, तो स्वतंत्रता का पूरी तरह से आदर किया 7 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-7.txt में जाये। पर उस आदर ही मनुष्य खो जाता है। मनुष्य बहक जाता है और ऐसे लोगों के पास चला जाता है, जो आपके जीवन के दश्मन हैं, आपके शत्रु हैं। अनेक हजारा वर्षों से इन दष्टों ने इन भक्तों को सताया है और आज भी सता रहे हैं। लेकिन वो ऐसा सोंग बना कर आये हैं और ऐसी खुबी से आये हैं, की आप उसे पहचान नहीं सकते। सीताजी को भी रावण ने भेष बदल कर के भूल में डाल दिया था। तो आप तो मानव जाति है। आपको वो अगर भूल में डालते हैं, तो इसमें आपका दोष नहीं। पर पार होने के बाद, रियलाइजेशन के बाद आपको अपने पाँव पर खड़ा हो जाना चाहिये । और इन सब चीज़ों को छोड़ कर, झाड-झूड कर के एकदम स्वच्छ हो जाना चाहिये। आपकी कौनसी भी परेशानी टिक नहीं पायेगी । प्यार की शक्ति सबसे महान है। इसको आज तक हमने इस्तेमाल नहीं किया। ये आप जान लीजिये। और जिस दिन आप इसको समझ लेंगे कि इस प्यार की शक्ति से आप प्लावित हैं, आप जब इसका उपयोग करेंगे, आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे, कि लगेगा कि जैसे तारांगण आपके पैर पर लेटे हुए हैं। सारी शक्तियाँ आपके चारों तरफ़ हैं। सारे गण आपको सम्भाल रहे हैं। सारे देवदृत आप पे पुष्प की वर्षा कर रहे हैं। आप ही आज इस रंगमंच पे, इस स्टेज पे आये हैं। आपके लिये ही सारी सृष्टि बनायी गयी है। और उस सृष्टि के सर्वोच्च लोग आप ही हैं। और किस के लिये परमात्मा ने सृष्टि बनायी है! लेकिन जो जो गलत काम हो चुके, जो जो गलत बातें हो गयी, वो सब भूल कर के आज वर्तमान काल में खड़ा होना है। इस प्रेझेट में खड़ा हो कर के और उस आनन्द का भोग लेना है। उस अमृत का भोग लेना है। जो आपके लिये लालायित है। स्वयं साक्षात् परमेश्वर चाहता है, कि आप उसके दरबार में आयें और अपने अपने स्थान पे आसन ग्रहण करें। वो यथोचित आपका आदर कर के आपको हर तरह का आनन्द प्रदान करेगा। एक बाप यही चाहेगा और वही वो चाहते हैं और पूर्णतया वो आपके साथ है । आज यहाँ जो हरियाली देख रहे हैं हम। बड़ा सुन्दर सा रचाया हुआ बाग है। ऐसा ही परमात्मा का बाग है समझ लीजिये। और उसमें हर तरह के फूल, हर तरह का आनन्द, प्रमोद, मोद सब कुछ भरा हुआ है। बस उसमें बैठने की आपकी क्षमता चाहिये और उसका आनन्द भोगने की गहराई। इतनी होते हये सब ठीक हो जाता है। पाव होने के आाढ़, यहाँ के लायन क्लब के लिये क्या कहा जाए! मेरे ख्याल से वियलाइजेशन के आाढ जन्मजन्मांतर का संबंध सिंघ से रहा है। और सिंघ पे ही इतना काम किया आपको अपने पाँध पर गया है इसलिये लायन क्लब से मेरा संबंध जुट गया। आपका ये बड़ा ही सुन्दर उद्यान है। इस वाटिका को और भी सुन्दर आप बना सकते हैं। खड़ा हो जाना चाहिये। एक बार एक अमेरिकन औरत ने मुझ से पूछा था, कि आपके यहाँ कोई फूल नज़र नहीं आते। मैंने कहा, हमारे देश के फूल बहुत छोटे छोटे होते हैं। पर अत्यंत सुगंधमय होते है। वो बहुत ज्यादा दर्शनी नहीं होते, शोई नहीं होते, जैसे आपके फूल होते हैं। हर फूल बताईये कि आपके यहाँ कितने तरह के फूल होते हैं?' वहीं बैठे बैठे मैंने उनको चालीस फूल बता दिये। और हर फूल में अत्यंत सुगंध है । अब मैं देखती हूँ कि यहाँ भी आपको चाहिये कि ऐसे ऐसे फूल जैसे कि चमेली है, चंपा है और पारिजातक है। और इन सथ चीज़ों को छोड़ कर, झाड-झूड कर के में चमत्कार और मंत्र है। तो उन्होंने कहा, 'अच्छा, एकढम स्थच्छ हो जाना चाहिये 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-8.txt इसका वर्णन आपको देवी माहात्म्य में मिलता है। अनेक तरह के सुन्दर सुन्दर फूल है। अनंत के फूल है। अपने देश में ऐसे अनेक फूल है। और जिसकी बड़ी बड़ी शाखायें बढ़ जाती है। और सबेरे सबेरे देखिये सब दूर आँगन में वो छाये रहते हैं। आपने , जिसे हम लोग बकुल कहते हैं, यूपी में उसे मौलसिरी कहते हैं उसका भी पेड़ बहुत सुन्दर है। जास्वंद के, अनेक तरह तरह के सुगंधमय पेड़ आप लगा सकते हैं। जापान में एक स्त्री से मैंने कहा कि, 'आपके बाल बहुत सुन्दर हैं। मुझे बड़े पसन्द हैं। कहने लगी, 'सुन्दर तो हैं। आर्टिफिशिअल हैं। नैसर्गिक नहीं।' और इंडियन किसी भी बाग में जायें तो सुगंध रहती है और सुगंध अपने देश की विशेषता, इस मिट्टी की विशेषता। आपको आश्चर्य होगा हम लोग इसे समझ नहीं पाते। खस में भी इतनी सुगन्ध है और हर चीज़ में इतनी सुगन्ध है। हम लोगों को पता नहीं कि बाहर के देशों में आप मिट्टी में हाथ नहीं डाल सकते। अगर डाल दीजिये तो हाथ में फोड़े आ जायेंगे, ब्लिस्टर्स आ जायेंगे| क्योंकि वहाँ कि जमीन जो है, वहाँ के पाप से तप्त हो गयी। तप्त होने के कारण वहाँ चूना है। आप कहीं हाथ नहीं डाल सकते। जब तक आप ग्लव्हज न पहनिये, आप मिट्टी में हाथ नहीं डाल सकते । लंडन में तो मैंने पहले सोचा था, कि मैं वहाँ बाग करूंगी। क्योंकि शाकंभरी का मुझे शौक है। तो मैं चाह रही थी कि वहाँ बाग किया जाये लेकिन जब देखा कि वहाँ की मिट्टी ऐसी है, तो मैंने छोड़ दिया। मेरा तो शौक ही वहाँ छूट गया। मैंने कहा अपने हिन्दुस्तान में जा के ये सारा काम करेंगे। ये तो जमीन कुछ और ही है। इस जमीन पर आप खड़े हुये हैं इसकी एक-एक कण-कण से इतना सुन्दर सुगन्ध बहता है। जरा सी बरसात हो जाती तो कितना सुन्दर सुगन्ध इस सुन्दर भूमि से आता है। और आप लोग भी कुछ न कुछ पूर्वपुण्याई से इस देश में पैदा हुये हैं और इस देश में बसे हुये हैं। सिर्फ इस पुण्याई को पूरी तरह से प्रकाशित करना है। प्रगटित करना है। जो आप सहजयोग से आसानी कर सकते हैं। रही बात हमारी, तो हम तो आते जाते रहते ही हैं। हर जगह आते-जाते हैं। लेकिन बंगाल से हमारा प्रेम बहुत है। बहुत पुराना है। अनेक वर्षों की बातें हैं, जो आप लोग कठिन बातें हुई हैं। बहुत कुछ जानते हैं, कुछ जानते नहीं। बड़ी तकलीफ़ें उठायी और इसको इतना समृद्ध किया और इसका इतना सुन्दर बन बनाया। और उसके बाद आप देखते हैं कि यहाँ पर इतनी गरीबी, इतनी परेशानी, इतनी आफ़त। जहाँ पर ये भूतविद्या होगी, जहाँ जहाँ पर ये भूतविद्या होगी वहाँ वहाँ गरीबी रहेगी। अब आप कहेंगे कि यहाँ टायफून आते हैं और आप पुराना बहुत लोग उससे नष्ट हो जाते हैं। अब आपको मैं एक किस्सा सुनाती हूँ। मैं एक बार त्रिचूर गयी थी। वहाँ पर बहुत से लोग मुझे लेने आये। वहाँ बहुत रईस लोग रहते हैं। मोटर वगैरे ले कर आये। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, कि ये सब मेरे पास किसलिये आये? पता हुआ कि ये लोग वहाँ तम्बाकू की खेती करते हैं। उनके घर में सब इंग्लिश टाईल्स लगी हुई, सब इंग्लिश बाथ लगे हुये। ये लोग सब इंग्लंड तम्बाकू भेजते हैं। और वहाँ से, इंग्लंड से सभी चीज़ें इंपोर्ट कर कर के अपने घर में बड़ी शान से लगाये हैं। भाई, हमको तो जरा साफ़ कहना ही पड़ता है। चाहे बुरा मानो, चाहे भला मानो। तो हमने कहा, भाई, 'आप लोग मोटर वरगैरा ले के आये, कहना नहीं चाहिये, अतिथि रूप से तो कुछ भी | कहना नहीं चाहिये, लेकिन हम माँ स्वरूप हो कर के आप से कहते हैं कि आप ये तम्बाकू लगाना बंद कर दो। ये गलत है।' तो उन्होंने कहा, 'वाह माँ, हम तम्बाकू नहीं तो और क्या लगायें।' तो मैंने कहा, 'आप कपास लगाईये । 9. 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-9.txt बढ़िया कपास है। तम्बाकू मत लगाईये। तम्बाकू राक्षसी है। इसको मत लगाईये ।' तो कहने लगे कि, 'नहीं, हम तो नहीं पीते हैं। ये तो हम इंग्लंड भेजते हैं।' मैंने कहा, 'वाह, अगर इंग्लंड भेजते हैं तो कोई पाप नहीं?' तो कहने लगे कि, 'उन्होंने अपने को इतना सताया। पीने दो तम्बाकू और मरने दो उनको।' तो मैंने कहा, 'ये कोई तरीका हुआ?' ये कोई साधु-संतों का तरीका हुआ कि उनको मरने दो। उन्होंने अपने को इतना सताया। जिन्होंने सताया वो तो कब के मर गये। ये तो दूसरे आये हये हैं। उनको सताने से क्या फायदा? लेकिन वो किसी भी तरह से नहीं माने । लेकिन जब मैंने कहा कि नहीं, इसको बंद करना पड़ेगा। ये ठीक नहीं । तो वो लोग बहुत नाराज़ हो गये। उसके बाद हम इधर-उधर देखने गये तो देखा की बड़ी गरीबी है। एक तरफ़ बहुत अमीर लोग और एक तरफ़ बहुत ही गरीब लोग। बंगाल से भी गरीब लोग। पेड़ पे रहते हैं । पूछा , 'ये कैसे ?' कहने लगे, 'ये लोग बड़ी प्रेतविद्या करते हैं। स्मशान विद्या करते हैं। ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं । उसी से पैसा कमाते हैं।' मैंने कहा, 'पैसा क्या कमाते हैं, पेड़ पे रहते हैं। उनकी हालत तो ये है।' उसके बाद मैंने उनसे बात कही, इशारा, 'देखिये आप समुद्र के किनारे बैठे हैं। सम्भल के रहिये। समुद्र आपका पिता है और जो पिता है वो अत्यंत पवित्र है। उसके किनारे बैठ कर के | गड़बड़ काम मत करिये। अगर ये बिगड़ गया तो आप सब का सर्वनाश हो जायेगा।' तो उन्होंने कहा कि, 'ऐसे कैसे हो सकता है?' मैंने कहा, 'हो जायेगा, देख लीजिये। एक तो हमने चेतावनी अब दे दी। अब चेतावनी के बाद फिर अगर गड़बड़ हुई है तो फिर हम से न कहना।' उसी साल वहाँ पर एक बहुत बड़ा, इसी तरह का एक टायफून का नाना आया और वो सबको लटका गया। सब लोग पेड़ पे लटक गये। हजारो लोग मर गये। उसके बाद जब में दिल्ली आयीं तो सब मोटरे ले के दिल्ली पहँचे कि, 'माँ, हमको माफ़ कर दो।' हमने कहा, 'बेटा क्या माफ़ करने का? जो था वो तो गया। ये तो तुमने गड़बड़ का काम किया। मैंने तुमको चेतावनी दी।' यही मैं कह रही हूँ, कि चेतावनी आ रही है आपको कि ये गलत लोगों को यहाँ से हटाईये। वहाँ के जो गरीब लोग जो ये करते थे , प्रेत १ विद्या, स्मशान विद्या आदि वो सब के सब पेड़ पे लटके हये नज़र आये। तो जिस वक्त ये काली विद्यायें और इस तरह की विद्यायें चलती हैं तो वो सकिंग कर लेती है। वो अपने अन्दर खींच लेती है। इस तरह के आतंक को जो बाहर आ कर के सब नष्ट कर देता है। हालांकि हमारे आने से पहले अधिकतर ऐसा होता है । इंग्लंड में भी ऐसा होता है हमने देखा। जहाँ भी हम जाते हैं, बड़ी बिजली गरजती है , बहत बरसात होती है। एकदम साफ़ धुल जाता है तो हम पहुँचते हैं। लेकिन तो भी लोगों की समझ में नहीं आता है, कि हमें अपनी सफ़ाई खुद ही करना चाहिये। क्यों सृष्टि से कहा जायें ? कभी कभी वो | भी ऐसा हो जाता है कि उसमें बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिये अगर आप ही सत्य को मान ले और स्वीकार्य कर ले और अपने को सत्य के रास्ते पर, सफ़ाई पर ले आये तो सत्य कहीं से और से प्रगट हो, तो बड़ा भयंकर होता है। बहुत जोरो में उठता है वो और उसकी जो चाल होती है उसके अन्दर बहुत से अनाथ, दुःखी, बेसहाय, बेगुनाह लोग भी मारे जायेंगे। इसलिये बेहतर है कि इन्सान ही सत्य पे आ जाये और इन्सान ही अपने को साफ़ कर दे। न कि सारी चराचर सृष्टि में ये बात फैल जायें कि चलो अब कोलकाता को ठिकाने लगाना है तो यहाँ आठ-दस को मारों। और उसका कोई फायदा तो होता नहीं। कोई उसको समझता भी नहीं। कोई इनकी भाषा को समझता नहीं है। सब लोग सोचते हैं कि हम तो रोज देवी के मन्दिर में जाते हैं फिर ये प्रकोप क्यों हो गया ? उस देवी के मन्दिर में भी बैठे हये हैं राक्षस। बिल्कुल उनके सामने बैठे हुये हैं। बड़ी हिम्मत कर के बैठे हुये हैं। हालांकि जिस वक्त देवी जागृत होगी तो 10 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-10.txt पता चलेगा, एक-एक का ठिकाना हो जायेगा। एक बार गंगा जी में जागृति आयी थी तो सब, जितने भी ऐसे पंडे वरगैरा लोग थे, सब अपनी खटिया उठा के, सामान ले के भाग रहे थे। मैंने देखा था टीवी पर, कहा, अच्छा हुआ! गंगाजी ने ठिकाने लगा दिया सब को। जितने भी हरिद्वार से ले कर के पटना तक, जितने भी लोग थे, सब अपने झोले उठा कर के भाग रहे थे। लेकिन तो भी मनुष्य सीखता नहीं है। अगर उस पे निसर्ग से कोई उपचार हो, तो वो सीखता नहीं है । सिर्फ वो सीखता है अपनी आत्मा से। इसलिये आप सहजयोग को प्राप्त हो । कोई भी ऐसी बीमारी नहीं जो सहजयोग ठीक न कर हो सकती। हर तरह की मुश्किलें दूर हो सकती है। लेकिन पाने के बाद श्रद्धा होनी चाहिये। जो अंधश्रद्धा नहीं है। देखी हुई बात है, आपने पाया है। आप अपने में बिराजमान हये हैं। सकता। कोई भी ऐसी विपत्ती नहीं जो दर नहीं आप स्वयं अपने सिंहासन पर बैठिये। आपने पा लिया है। आप क्यों अब भी भिखारी जैसे बैठे ह्ये हैं? आप आराम से, समझ लीजिये आप परमात्मा के साम्राज्य में हैं और उसके सिंहासन पर बैठिये। और उसके आशीर्वाद से, पूरी तरह से, बेफिकर हो कर के, अपनी जिंदगी का सब से अत्युत्तम जो कुछ भी है उसे पाईये। इसमें में ये नहीं कहती कि आप संन्यासी भाव से बैठिये या कोई आपका सब कुछ छूट जायेगा। कुछ भी नहीं । लेकिन आप की उपभोग जो शक्ति है, वो बढ़ जाती है। जैसे कि अब यहाँ पर आपने देखा कि यहाँ एक बहुत सुन्दर सा एक चर्म बिछा हुआ है और ये चीते का बनाया है। अब आप लोग सोच रहे होंगे कि ये किसने मारा, ये किसने बनाया, क्या है, क्या नहीं? लेकिन हम इसको देखती ही निर्विचार हो गये। हम कुछ सोचते नहीं है। हम तो ये देख रहे हैं कि बनाने वाले की करामात कि क्या कमाल की चीज़ बनायी है! और न सोचते हैं न कुछ नहीं। सारा आनन्द जो उपर से नीचे तक दौड़ा चला आता है। तो हम तो भोक्ता हुये असली। ये सुन्दर सा बना हुआ है सब कुछ। कुछ इसके बारे में सोचते नहीं हैं। बस इसे देख भर रहे हैं। और देखते हैं कि इसका बनाया हुआ आनन्द, जिस आर्टिस्ट ने उसको बनाया है वो सारा ही आनन्द हमारे अन्दर झरा चला रहा है। उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचा। कुछ भी नहीं जाना। बस, अगव उस पे निसर्ग से ये बनाने वाले की जो सूक्ष्म शक्ति जिससे ये आनन्द इसमें डाला है, वो सारा कोई उपचाव हो, ही आनन्द हम अन्दर ले रहे हैं। तो भोक्ता आप बन गये। सब चीज़ों का भोग आप ले सकते हैं। अभी तक जो भी प्रॉपर्टी है तो भी हाय नहीं तो बाय । जो भी तो यो सीखता नहीं है। सामान है तो भी हाय नहीं तो बाय। इन्शुरन्स में लिखाया, इधर लिखाया। उसके सिर्फ बो सीखता है पास लिखाया, विल बनाया और क्या क्या दुनिया भर की चीजें करते रहते हैं। ये अपनी आत्मा से । परेशानी कि चोर न ले जायें। कुछ हो जाये। हम तो किसी के भी नाम की कोई भी चीज़ हो, अब ये लायन क्लब के नाम है समझ लीजिये, लेकिन हम तो उसे पूरी इसलिये आप सहजयोग तरह भोग रहे हैं। चाहे आपके नाम से हो, चाहे किसी के नाम से हो, भोगने का काम को प्राप्त हो। तो हमारा है। हम इसे पूरी तरह से भोग रहे हैं। इसी प्रकार आप को भी भोगने की अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिये। इसमें छोड़ने का क्या है। जब किसी चीज़ को पकड़ा ही नहीं तो इसे छोड़ने का क्या है और किस चीज़ का संन्यास लें। थोड़ी बात बढ़ती है, 11 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-11.txt लेकिन कहना पड़ेगा क्योंकि आप सहजयोगी हैं। आपसे ही ये बात कही जायेगी। अगर ये बात मैं जनरल पब्लिक में ५०% लोक उठ कर भाग जायेंगे । कहूँ तो दूसरी बात ये कहने की कि आपको सब चीज़ भोगना है। लेकिन उससे भी आगे मैं ये बात कहूँगी कि सिर्फ आपको भोगना ही नहीं है लेकिन आपको इसी जिंदगी में, यहीं पर मजे से जम के रहना है, कहीं भागना नहीं है। कोई पलायनवाद नहीं, कि आप गेरूवा वस्त्र पहन कर आये तो आपके वाइब्रेशन्स गये। रावण भी तो आया था गेरूवा वस्त्र पहन कर। विशेष कर गेरूवा वस्त्र से मुझे बड़ी चीड़ है। काहे को सन्यास ले रहे हो ? क्या आपकी माँ नहीं है ? आपकी माँ सामने बैठी हई है। आपकी क्या मजाल है कि आप संन्यास ले लें! इससे बढ़ के माँ के लिये क्या दु:ख की बात होगी। अगर किसी माँ को दुःख देना है तो आप कहेंगे कि, 'माँ, कल से मैं संन्यास ले रहा हूँ।' वो कहे कि, 'बेटा, तुझे जो चाहे वो ले ले, माफ़ कर।' ये समझ लीजिये की मैं आपकी माँ हूँ। और माँ को सुख किसी से होता है, वो भी समझ लेना चाहिये और दःख किस से होता है। अब दूसरी जो बात है, ये उपवास करने की बीमारी, जो हमारे अन्दर बना दी है, ये बिल्कुल गलत बात है कि आज शनिवार तो उपवास, कल रविवार तो उपवास। किस दिन आप खाना खाते हैं भगवान जाने! अगर आपको ऐसे उपवास का शौक है तो करिये। भगवान कहता है, 'अच्छा चलो, हिन्दुस्थानियों को उपवास का बड़ा शौक है। तो उपवास ही में मार डालता है। क्योंकि आपको शौक है तो वही करिये। लेकिन अगर माँ को दुःख देना है तो लड़का कहता है कि, 'माँ, मैं आज खाना नहीं खाऊंगा।' हो गया। माँ का तो सारा दिन खराब हो गया। बच्चे ने कह दिया की खाना नहीं खाऊंगा तो बड़ी बूरी बात। उसके तो प्राण निकल गये। 'अरे बाप रे, आज कैसे होगा? मेरी 6. जान गयी अब। मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया। सारे दिन वो टेप लगा के बैठेगी कि अरे मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया। सारी दुनिया को बतायेगी, पेड़ को बतायेगी , पत्तों को बतायेगी , सबको बतायेगी , मेरे बच्चे ने खाना नहीं खाया और इस देश में मैं देखती हूँ, जो देखो वही उपवास करता है। मेरी तो समझ नहीं आता मैं क्या करू? कैसे समझाऊँ, 'बाबा, क्यों ऐसा कर रहे हो?' आराम से खाओ, आराम से पिओ। लेकिन पीने का मतलब गलत नहीं लेना है। जो चेतना के विरोध में बात जाती है वो नहीं करने की । ये सब इसलिये बनाया गया है, कि आप तो भूखे रहो और जो पैसा बचे वो मेरी जेब में दो। उपवास सहजयोग में मना है। ऐसे ठीक है। आपका मन है, आपकी तंदरुस्ती के लिये कभी खाना नहीं खाना तो नहीं खाओ और कभी खाना खाना है तो खाओ | जैसे आपको कभी, कहीं जाना हो, किसी के घर और आपको नहीं मन कर रहा उसके घर खाना खाना, तो आप कह दीजिये, 'मुझे उपवास है।' तो ठीक है, वो छोड़ देते हैं आपको। इस तरह से आप उपवास करे तो हर्ज नहीं। मतलब उपवास आप अपने लिये करिये। ये नहीं की उपवास के लिये आप जी रहे हैं। सब चीज़ आपके हाथ में है। चाहे उपवास करेंगे, नहीं तो नहीं करेंगे। कौन कहने वाला है। ये टाईम ऐसा है, वो टाइम ऐसा है। हम तो मस्ती में बैठे हये हैं। कोई कहेगा अब खाओ, तो आप खा लेंगे। नहीं तो नहीं खायेंगे। क्योंकि खाने की तरफ चित्त ही नहीं होना चाहिये। और अगर आप पूछेंगे की क्या खाया, तो मुझे सोचना पड़ेगा, क्या खाया कि नहीं खाया। खाने की तरफ चित्त होने से ही आदमी उपवास करता है। उधर चित्त नहीं हो तो उपवास नहीं करेगा। क्योंकि वो बहुत बार उपवास भी कर जाता है, उसको पता ही नहीं चलता उसने उपवास किया की खाया। सिर्फ अपना चित्त जो है खाने में से निकालना चाहिये। क्योंकि हमारे भारतीय लोगों में एक बात है कि खाने में बड़ा चित्त है। बीबी भी होशियार है यहाँ की। स्त्रियों को बड़ी अकल है। वो कहती है कि 12 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-12.txt 'चलो इनको ऐसा खाना बना के खिलाओ की ये हमारे चंगूल में फँसे रहें।' कहीं भी जायेंगे दौड़ के घर आ जायेंगे। क्योंकि खाना बनाना हिन्दुस्थानी आदमियों को नहीं आता । औरतों ने उनको ऐसा बना दिया कि वो खाना बना नहीं सकते और बीबी क्या बना रही है इधर ध्यान। बीबी इसी पर आपको पटा लेगी और इसलिये चित्त हमारा ज्यादा खाने पर रहेगा ही! पर और लोगों में ऐसा नहीं। जैसे जापनीज लोग है। वो देखेंगे कि वस्तु कैसी बनी है। सुन्दर है या नहीं। इसमें रूप है या नहीं। खाने पे वो चित्त नहीं देते। लेकिन हमारा हिन्दुस्थानियों का मुख्य धर्म है खाना। कौनसा खाना बना है आज घर में! या किसी ने कहा कि, 'मेरे घर अच्छा खाना बनता है। तो पहुँच गये वहाँ सारी मंडली सीधे। गाँवभर को पता हो जाता है की आज कहीं खाना बन रहा है। सब मंडली पहँच गयी खाने के लिये| खाने की वजह से प्यार भी औरतें बहुत प्रगट करती है। ऐसी मैंने हमारी ग्रॅण्डडॉटर से एक दिन पूछा कि, 'तुम क्या करना चाहती हो।' तो मुझसे कहने लगी कि, 'मैं एअर होस्टेस होना चाहती हूँ और या तो मैं नस होना चाहती हूँ।' मैंने कहा, 'क्यों?' कहने लगी कि, 'नानी, इन्हीं दो प्रोफेशन में ऐसा होता है कि, आप लोगों को खाना दे सकते हैं।' तो औरतों को बड़ा शौक है यहाँ की। ये कमाल है और कहीं नहीं ऐसा। कहीं नहीं है। आप लंडन में जाईयेगा तो तीन दिन में आपका वजन आधा हो जायेगा। वहाँ तो औरतें सब बॉइल्ड ही खाना देती है। तो हिन्दुस्थान की औरतों में ये भी एक खुबी है। उनको बड़ा शौक है कि ये बना के खिलाये । मेरे साथ बड़ा अत्याचार होता है। 'माँ, मैं आपके लिये स्पेशली बना के लायी हूँ रबडी।' अब मैं रबड़ी खाती नहीं भाई । तो खाने , पीने हमारा चित्त जो है उसमें भी एक सुन्दरता है। लेकिन मैं ये कह रही हूँ कि उससे चित्त ही हटा लेना चाहिये। तो आदमी उस सूक्ष्म में उतर सकता है, जैसे कि शबरी के बेर श्रीराम ने इतने शौक से खाये। उसकी जो सूक्ष्मता थी वो श्रीराम ने कैसे पकड़ी। क्योंकि उसके अन्दर उन्होंने उसका प्यार, उसकी नितांतता, उसका आदर, उसका विचार सब देख कर के कितने शौक से वो खाये। यही बात हमारे अन्दर अगर आ जायेगी कि हम खाने की ओर चित्त न देके, उसके पीछे जो भावना है उसकी ओर ध्यान दे तो हम सहजयोगी हो गये। इस जनम में बहुत सी चीज़ें जो पिछली जनम में मैंने बहुत खायी और पी है वो सब छोड़ दी। जैसे वर्णन है कि देवी को श्रीखंड बहुत पसन्द है। मैं बिल्कुल नहीं खाती हूँ। और पूरणपोली पसन्द है। मैं बिल्कुल नहीं खाती हूँ। और दूध बिल्कुल नहीं पीती हूँ। सब चीजें जो होती थी सब छोड़ दी। क्योंकि इस जनम में कर लिया अब इस जनम में क्या खाने का! अब इस जनम में भूतों के खाने के लिये देखते हैं कि मेरे पास पेट में जगह ही नहीं रहती। आप लोगों से मिल कर बहुत आनन्द हुआ। जैसे बहुत बिछडे हुये मेरे सब कुछ मिल गये। इस कोलकाता में एक बार जागृति आ जायेगी, तो आप देखेंगे कि यहीं पर सब चीज़ अत्यंत सुन्दर हो सकती है। और वो होनी चाहिये परमात्मा लालायित है आपको आशीर्वादित करने के लिये| सिर्फ आप इसे झेल सके। इतनी ही बात है। तो मेरी कोई बात का बुरा नहीं मानना। ये बात में कह रही हूँ वो सत्य है। उसको स्वीकार्य करना चाहिये। सबको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 13 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-13.txt सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है। कोलकाता, १२ अप्रैल १९९५ इस कलियुग में मनुष्य जीवन की अनेक समस्याओं के कारण विचलित हो गया है और घबरा रहा है। कलियुग में जितने सत्य को खोजने वाले हैं, उतने पहले कभी नहीं थे और यही समय है जब कि आपको सत्य मिलने वाला है। लेकिन ये समझ लेना चाहिए कि हम कौनसे सत्य को खोज रहे हैं? क्या खोज रहे हैं? नहीं तो किसी भी चीज़ के पीछे हम लग कर के ये सोचने लग जाते हैं कि यही सत्य है। इसका कारण ये है कि हमें अभी तक केवल सत्य, अॅबसल्यूट ट्रथ मालूम नहीं । कोई सोचता है कि ये अच्छा है, कोई सोचता है कि वो अच्छा, कोई सोचता है कि जीवन और ही तरह से बिताना चाहिए । तो विक्षुब्ध सारी मन की भावना और भ्रांति में इन्सान घूम रहा है। इस संभ्रांत स्थिति में उसको समझ में नहीं आता है कि, 'आखिर क्या कारण है, जो मेरे अन्दर शांति नहीं है। शांति को किस तरह से अपने अन्दर प्रस्थापित करूं । मैं ही अपने ही साथ लड़ रहा हूँ, झगड़ रहा हूँ, कुछ समझ में 14 नि ंब 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-14.txt नहीं आता।' यही कलियुग की विशेषता है और इसी कारण इस कलियुग में ही मनुष्य खो देता है। पहले इस तरह की संभ्रांत स्थिति नहीं थी। मनुष्य अपने मानवता से ही प्रसन्न था। अब आप इस मानव स्थिति में आ गये हैं। इस स्थिति में आपको केवल सत्य मालूम होता तो कोई झगड़ा ही नहीं होता। हर एक इन्सान एक ही बात सोचता और कुछ भी समझाने से, बतलाने से मनुष्य सिर्फ मानसिक हो जाता है, मेंटल हो जाता है। पढ़ पढ़ के, पढ़ पढ़ के भी मानसिक हो जाता है और उसमें कोई शांति नहीं होती, उसमें कोई आराम नहीं होता। उसमें कोई चैन नहीं आता। तो सत्य क्या है, ये समझ लेना चाहिए। अब बात ये है कि मैं जो कुछ भी आपके सामने बात कहूँ इसे आप एकदम से मान्य मत करें क्योंकि अंधश्रद्धा से हम लोग पहले ही पीड़ित हैं। स्पेशली बंगाल में तो मैं सोचती हूँ कि यहाँ पर इस कदर तांत्रिक, ये , वो सब ने जकड़़ डाला और जब हम देखते हैं कि जो धर्म के नाम पर भी जो बहुत बोलते हैं और चलते हैं वो भी पीड़ित हैं। वो भी बीमार हैं। उनको भी ये तकलीफ़ है, वो तकलीफ़ है और वो भी आपस में लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। इसका मतलब उन्होंने अभी तक सत्य को प्राप्त नहीं किया। सिर्फ उसके बड़े बड़े इश्तिहार लगा के रखे हैं। तब मनुष्य घबरा के ये पूछता है, कि सत्य है क्या? सत्य और प्रेम ये दोनों एक चीज़ है। आश्चर्य की बात है कि इसका मिलाफ़ लोग समझ नहीं पाते। समझ लीजिये कि आप किसी को नितांत प्रेम करते हैं। तो आप उसके बारे में हर एक छोटी छोटी बातें जान लेते हैं। पर ये परमात्मा का प्रेम है, ये दैवी प्रेम है। इस प्रेम को सत्य मान लीजिये ऐसा मैं नहीं कहूँगी, पर ये सिद्ध हो सकता है। उसके लिये आपको इस मानव चेतना से, ह्यूमन अवेअरनेस से उपर उठना होगा तभी आप समझ पायेंगे कि सत्य और प्रेम एक ही चीज़ है। और ये दोनो ही चीज़, दोनो ही बातें, दोनो ही गुण ऐसे मनुष्य में होते हैं जिसने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर लिया हो। और जिसने अभी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं किया और जो सिर्फ ऊपरी ऊपरी बातें करता है, काफ़ी लेक्चर देगा या काफ़ी कर्मकांड करायेगा उससे आज तक किसी का फायदा हआ नहीं और न होगा। इसके लिये जरूरी है कि हम समझ लें कि सत्य क्या है। हम ये शरीर, बुद्धि, मन, अहंकारादि उपाधियाँ नहीं, हम शुद्ध आत्मा है, ये सत्य है। क्योंकि हम कहते हैं, कि ये हमारा शरीर, ये हमारा मन, ये हमारी बुद्धि, हमारी, हमारी, हमारी, मेरी, मेरी, मेरी | ये 'मैं' है कौन? इसे जानना है। और ये 'मैं' ही शुद्ध आत्मा है। जो आपके हृदय में बिराजता है, वही शुद्ध आत्मा ! उसको प्राप्त करना, उसका प्रकाश अपने चित्त में लाना ही एक तरह से आत्म का दर्शन है। और दूसरा सत्य ऐसे है कि जैसे आप देखते हैं कि चारों तरफ़ फूल हैं। इतने सुंदर फूल! और ये जिस फूल पृथ्वी तत्त्व से निकले हैं, कितना चमत्कार है, कि हर एक तरह का फूल अलग अलग तरीके से आता है। और इसके लिये पैसा नहीं देना पड़ता। माँ का पृथ्वी तत्त्व जो प्रेममय है, वो अपने आप उसको बना पाता है, कुछ सुगन्धित करता है और रंगबिरंगों से भर देता है। ये एक महान आश्चर्य की बात है, कि हम इस बारे में सोचते ही नहीं, कि जीवित कार्य कैसे हैं। जैसे किसी डॉक्टर से पूछे, कि हमारा हार्ट कौन चलाता है? हमारा हृदय कौन स्पंदित करता है? तो डॉक्टर ये कहेगा कि इसकी एक ऑटोनॉमस नव्व्हस सिस्टीम है । तो ये ऑटो है कौन ? स्वयंचालित संस्था है। तो ये स्वयं कौन है? वो स्वयं ही आपका आत्मा है। इसको प्राप्त कर लेना, उसका प्रकाश 15 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-15.txt यही योग है और इसका जन्मसिद्ध अधिकार आप सब मानव जाति की है । लेकिन इसको प्राप्त करने के लिए अगर कोई मूढ़ हो ती वी प्राप्त नहीं करे सकती। अपने अन्दर लाना ही आत्मसाक्षात्कार है। और इस चारों तरफ फैली हुई परमात्मा की प्रेम शक्ति, जिसने ये सुन्दर फूल उगाये, जो हमारे हृदय को भी चलाता है उससे एकाकारिता करना ये योग है। यही योग है और इसका जन्मसिद्ध अधिकार आप सब मानव जाति को है। लेकिन इसको प्राप्त करने के लिए अगर कोई मूढ़ हो तो वो प्राप्त नही कर सकता। कोई बेवकूफ़ हो वो नही। कोई उद्दाम, मग्रूर हो वो नहीं प्राप्त कर सकता। उसके लिये नम्रता चाहिये और माँग चाहिये कि हमें ये चीज़ चाहिये। हृदय से, प्रेम से अगर मनुष्य अपने को जरा सा भी देखें, तो वो अब एक अधूरा है और उसके अन्दर अनेक शक्तियाँ हैं जिसका प्रादर्भाव, मैनिफैस्टेशन हो सकता है। लेकिन उसके लिये मनुष्य को ये समझ लेना चाहिये कि नम्रतापूर्वक आप इसे अपने हृदय से माँगे। क्योंकि अगर प्रेम की शक्ति माँगनी है तो प्रेमपूर्वक ही माँगी जाती है। लड़ाई, झगड़े से और परेशान करने से ये शक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। इस शक्ति के बारे में आपको पहले बता ही चुके हैं वो, कि त्रिकोणाकार अस्थि में ये शक्ति कुण्डलिनी नाम की है। अब ये कोई नयी बात मैं नहीं कह रही हूं। हमारे शास्त्रों में, समझ लीजिये छठी शताब्दि में, शंकराचार्य, उन्होंने ये बात कही। लेकिन तेरह हजार पूर्व मार्कडेय ने कुण्डलिनी की बात की पर सब संस्कृत भाषा में। इसलिये बारहवी शताब्दि में ज्ञानेश्वर जी ने इसकी बात की है। जब उन्होंने ज्ञानेश्वरी लिखी जो कि गीता पर टीका थी, उसमें छठे अध्याय में उन्होंने लिख दिया कि कुण्डलिनी शक्ति से आत्मसाक्षात्कार घटित होता है। तो उस वक्त के जो धर्ममात्तण्ड थे, उन्होंने कहा, कि नहीं , नहीं ये निषिद्ध है । छठा जो अध्याय है निषिद्ध है। किसी ने पढ़ा नहीं, लिखा नहीं । इस तरह से जो हमारे अन्दर निहित, छुपी हुई जो शक्ति है, जो कि हमें उस स्थिति में पहुँचा सकती है, वो पूर्णतया एक अंध:कारमय, एक जिसको कहना फिर हमारे यहाँ एक से एक बुद्धिमान लोग निकले । इंटलेक्च्युअल्स। जिसके लिये कबीर ने कहा है कि, 'पढ़ी पढ़ी पंडित मूरख भय' । पहले मैं सोचती थी कि पढ़ पढ़ के पंडित मूर्ख कैसे हो जाय? ऐसे कैसे हो सकता है? लेकिन मुझे बहुत मिले ऐसे। उनसे बात करने चाहिये कि एक अज्ञानमय, इग्नोरन्स में छिप गयी। 16 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-16.txt से पहले वो ही बोले जाते थे। और क्या बोलते थे, भगवान जाने! ये किताब में लिखा है, वो किताब में लिखा है । मैंने कहा, 'आपकी किताब में क्या लिखा है? वो बताईये।' तो हम अपने से अनभिज्ञ, अपने से अपरिचित, दूसरों की ही बातें अपने खोपड़ी में भर लेते हैं। ये तो इंटलेक्च्युअल साईट हो गयी। और दूसरी हो गयी भक्ति की साईट। तो उसमें भी एक तरह का नशा है, चेतना नहीं है। दोनों चीज़ में एक तरह से वास्तविकता से दूर, असलियत से परे, रिअॅलिटी से बिल्कुल दूर हम खड़े हैं। अब हम आपको एक उदाहरण देंगे। आपके यहाँ 'हरे रामा हरे कृष्णा' का बहुत जोर चल रहा है। लेकिन शिकागो में मैं गयी थी। शिकागो में उनके जो गुरु हैं वो आयें तो बिल्कुल पतली धोती पहन के और उपर एक बनियन पहन के और इतनी ठंड थी कि मैं तो शॉल में भी ठिठ्र रही थी और वो भी ठिठूर रहे थे। मुझे मिलने आयें। तो मैंने कहा कि, 'आप ये क्या पहने रहे हो ? ये ऐसी पतली धोती क्यों पहने हये हो भाई इतनी ठंड है। मैं तो माँ हूँ नां!' तो कहने लगे कि, 'बात ये है कि मेरे गुरु ने कहा, कि आपको धोती पहननी चाहिये, तभी आपका मोक्ष होगा।' मैंने कहा, 'अच्छा!' हमारे भारत वर्ष में ८०% लोग धोती पहनते हैं। बंगाल में तो और भी ज्यादा। तो इन सब का मोक्ष होने वाला है तो तुमको स्थान कहाँ मिलेगा। फिर उसने बाल सब मुंडाये हये थे बेचारे ने और एक चोटी रखी थी। तो मैंने कहा कि, 'ये बाल क्यों मुंडवा लिये।' कहने लगे कि, 'गुरु ने कहा कि जब तक बाल नहीं मुंडवाओगे तब तक तुम्हारा मोक्ष नहीं हो सकता।' उस पर कबीर ने बड़ा सुन्दर कहा है कि, 'अगर बाल मुंडाने से आप स्वर्ग में जा सकते है, तो जिस मेंढे के दो बार बाल मुंडवाये जाते हैं वो आपसे पहले पहँच जायेगा।' और वो इसको (बाल मुंडवाने की बात) मानते हैं। बड़ी श्रद्धापूर्ण रीति से। मुझसे नाराज हो गये कि, 'आप मेरे गुरु के विरोध में बोल रहे हैं।' 'नहीं' मैंने कहा 'मैं माँ हूँ नां! तो इसलिये पूछ रही हूँ कि ये आपकी दर्दशा क्यों बनायी?' फिर दूसरी बात समझने की है, जो कि उपवास करना। ये नहीं खाओ, वो नहीं खाओ, उपवास करो, सर के बल खड़े हो जाओ। 'काहे के लिये?' कहने लगे 'मोक्ष प्राप्ति के लिये।' अगर परमात्मा आपके पिता स्वरूप, प्रेम स्वरूप है, तो कौन पिता चाहेगा, कि अपना बच्चा सर मुंडवा के, पतली सी धोती पहन कर सर के बल खड़ा हो जाये अपने पिता से मिलने के लिये? बताईये कि. कितनी अजीब सी बात है! कोई पिता चाहेगा, कि अपना बच्चा भूखा मरें और माँ, माँ को अगर सजा देनी है तो बच्चे कह देते हैं कि हम खाना नहीं खायेंगे। कि हो गया माँ खतम। कुछ भी गुस्सा होगा तो माँ खतम । आप तो माँ को अच्छे से जानते हैं। तो कौन ऐसा विचित्र तरह का आलंबन जिससे आप मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। आप जब मनुष्य हये तो आपने कितना पैसा खर्च किया ? आप कौन से तांत्रिक के पास गये थे, गुरु के पास गये किया था? आप मनुष्य तो हो ही गये ना! तो कोई न कोई अन्दर शक्ति है जिसे मैं प्रेम की शक्ति थे, कुछ कहती हूँ। जिसको की रिडम्पूशन की शक्ति कहते हैं। जिससे मनुष्य का उत्थान होता है। जिससे आज आप मनुष्य स्वरूप हो गये। और अगर ये आपके अन्दर शक्ति है, समझ लीजिये अगर है, तो उसका 17 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-17.txt उत्थान क्यों न किया जाय ? अब इसके लिये आप पैसा नहीं दे सकते। इसके लिये आप मुझे नहीं खरीद सकते। कोई अपने माँ को खरीदता है क्या? कम से कम अपने देश में तो नहीं खरीदता है। परदेस की बात छोडिये। तो इसको पाने की चीज़ क्या है? ये भी आपकी अपनी, व्यक्तिगत अपनी आपकी माँ है, हर एक की और आपके अन्दर जो भी कुछ है, आपका भूतकाल, आपका भविष्य काल, आपका सब कुछ इसमें टेपरेकॉर्ड के जैसे भरा हुआ है। और वो जानता है। ये आपकी माँ, व्यक्तिगत आपकी अपनी अपनी अलग अलग माँ है, वो आपके कुण्डलिनी में स्थित है। और इसकी शक्ति को जागृत करना है तो आप क्या पैसा दे सकते हैं। अगर समझ लीजिये इस पृथ्वी में आपको, उसकी उदर में एक बीज बोना है, तो वो अपने आप सहज, स्पॉन्टेनियसली पनप जाता है। उसके लिये क्या आप सर के बल खड़े हो, नहीं तो कुछ भी करो, उससे फायदा होगा! समझ की बात है। जो जीवित कार्य है, सारा जीवित कार्य सहज होता है। सहज का अर्थ 'सह' माने आप 'ज' माने आपके साथ पैदा हुआ। ये योग का अधिकार है। इसे आपको प्राप्त कर लेना चाहिये। फिर उससे अनेक लाभ हैं। मुझे पता नहीं योगीजी ने आपको क्या क्या लाभ बताये । लेकिन एक आप नहीं जानते कि सूक्ष्म में आपको कितने लाभ होते हैं । अगर संसार में आप किसी से प्यार करते हैं तो अगर आप प्यार करते हैं, वो भी आप से प्यार करता है, तो दोनों के आदान-प्रदान में एक सूक्ष्म सी सम्वेदना होती है, जो बहत सुखदायी और शांतिमय होती है। पर आजकल ऐसा प्यार तो देखने को नहीं मिलता। ऐसे तो कोई व्याख्या भी नहीं कर सकता। ऐसे कोई सेंटिमेंट्स नहीं होते। एकदूसरे को नीचे गिराने में, इसकी उसकी गर्दन काटने में हम लोग लगे हुये हैं। प्यार की तो बात छोड़िये। यहाँ तक कि जो बड़े भक्तियोग, फलाना, ठिकाना स्पीच करते हैं और बिठा के लोगों से भक्ति कराते हैं उन सब लोगों का ध्यान सिर्फ पैसा लेने पर है, ये समझ लेना चाहिये। इस पृथ्वी माँ को आपने कितना पैसा दिया है, जो ऐसे सुन्दर सुन्दर फूल आपको दे रही है ! पहली तो चीज़ है कि आप प्यार को खरीद नहीं सकते। खरीदा हुआ प्यार नहीं होता और प्यार की महिमा आप तभी जान सकते हैं, जब आप इस महान चैतन्य के प्यार में डूब जाये। आपकी छोटी छोटी चीज़ भी वो देखता है। जैसे आज ही की बात बतायें कि नागपूर में बहत अच्छे गाने वाले हैं, बजाने वाले हैं । मैंने कहा कि न जाने उनको बुला लें तो अच्छा रहेगा यहाँ पर। क्योंकि बंगालियों का गाना तो बंगालियों ने ही है। दूसरा कुछ सुनाये तो अच्छा है। और देखिये सबेरे वो पहुँच गये अपने आप से। मैंने कहा, सुना 'आप कैसे आयें?' तो कहने लगे कि, 'दूर्गापूर में हमारा प्रोग्रॅम है, वहाँ हमें जाना था तो आ गये हम। ' सहज में ऐसी बातें होती है कि चमत्कार पे चमत्कार हो रहे हैं। आपको मैं बताऊंगी तो विश्वास नहीं होगा। कि चमत्कार जिसको हम कहते हैं वो चमत्कार नहीं है। क्योंकि ये परमात्मा का प्यार है। उसमें क्या चमत्कार हो सकता है! वो ही स्वयं चमत्कार है। हमारी दादीजी एक किस्सा सुनाती थी। बहत मजेदार, कि एक इन्सान परमात्मा को मिलने चला। तो 18 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-18.txt पहली तो चीज़ है कि आप प्यार को खरीद नहीं सकते। खरीदा हुआ प्यार नहीं होता और प्यार की महिमा आप तभी जान सकते हैं, में जायें । जब आप ईस महान चैतन्य के प्यार डुब उसको रास्ते में एक आदमी मिला जो सर के बल खड़ा था और कह रहा था कि, 'मैं कब से सर के बल खड़ा हूँ, मुझे भगवान कब दर्शन देंगे। तो जरा भगवान से जा के कहो, कि जरा जल्दी दर्शन दें।' तो ये गये। रास्ते में दूसरा एक बिल्कुल पड़ा था रास्ते के किनारे। तो उसने कहा कि, 'भगवान ने आज मेरे खाने की व्यवस्था नहीं की। उनसे कह देना कि जरा मेरे खाने की व्यवस्था करें।' तो इन्होंने कहा कि, 'अच्छा, हम कह देंगे भगवान से!' तो ये जब भगवान के पास गये, तो उनका काम हुआ सो हुआ। उसके बाद भगवान ने पूछा कि, 'और कोई बात हैं?' कहने लगे कि, 'हाँ, एक बात हैं। वहाँ एक आदमी है बेचारा, के सर बल खड़ा है, आपका इंतजार कर रहा है। आप ऐसा क्यों नहीं करते, कि थोडी उस पे मेहरबानी कर दें।' कहने लगे, 'उससे कहो कि थोडे दिन करते रहो तो अच्छा रहेगा। हो जायेगी मुलाकात।' उसके बाद दुसरे आदमी के बारे में कहा कि, 'उसको तो खाना नहीं मिला। ऐसे रास्ते पे पड़ा है। कह रहा था, भगवान से कह देना। 'अरे उसे खाना नहीं मिला! ये कैसे हो सकता है? एकदम उसका इंतजाम करो।' तो ये अचंभे में पड़ गया, कि वो तो सर के बल खड़ा है। उसकी कोई परवाह नहीं और ये ऐसे ही रास्ते पर ऑर्डर दे रहा है, इसकी इतनी परवाह कर रहे हैं! अब ये प्रेम की बात है। तो उनसे परमात्मा ने कहा कि 'अच्छा, तुम ऐसा करो , नीचे जा रहे हो ना, तो दोनों से एक ही बात कहो।' कहने लगा, 'क्या बात?' 'कि मैं तुम भगवान के यहाँ गया तो एक सुई के छेद में से एक उन्होंने ऊँट को निकाला। बस, इतनी बात करना तुम। तो ये आये नीचे। पहले उनको वो मिला जो सर के बल खड़ा था। उससे कहा कि, 'भाई अच्छा हम आयेंगे कभी, भगवान ने कहा है।' 'तो और क्या देखा तुमने?' 'अरे, मैंने बड़ा आश्चर्य देखा कि उन्होंने सुईं के छेद में से एक ऊँट निकाला।' वो कहने लगा, 'क्या झूठ बोल रहे हो? भगवान के यहाँ क्या हुआ मैंने ये मुझ से झूठ बता रहे हो। फिर वो दूसरे आदमी के पास गया। 'अरे, खाने का तो इंतजाम हो जाता, सोचा ऐसे ही बता दे। तो और क्या देखा तुमने ?' तो उसने बताया कि, 'एक आश्चर्य की बात है, कि एक सुई के छेद में से परमात्मा ने एक ऊँट को निकाला है।' अब इसमें जो सूक्ष्म बात है वो समझिये। तो वो कहता है कि, 'इसमें आश्चर्य कौनसा है ? अरे वो परमात्मा है। वो ऊँट तो क्या दुनिया ही निकाल दे । न 19 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-19.txt जाने विश्व का विश्व निकाल दें । वो परमात्मा है तुम क्या समझते हो उनको।' ये एक नितांत विश्वास है। क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी आदमी को, उसका जो विश्वास होता है वो अंधा विश्वास नहीं होता है । वो साक्षात् में विश्वास, साक्षात्। कोई भी चीज़ अंधे से मान लेना ये मनुष्य को शोभा नहीं देता। आप पहले इसका साक्षात् करिये। पहले आप सत्य को जान लीजिये और सत्य को जानने के बाद आप जानियेगा आप कितने महान और गौरवशाली हैं। अभी तो आप अपने बारे में जानते ही नहीं । जैसे कि किसी छोटे गाँव मे चले जाईये। जहाँ बिजली नहीं, कुछ नहीं और टेलिविजन ले जाईये। और उनसे कहिये कि इसमें सब तरह की फिल्म आयेंगी , फोटो आयेंगे देखो। कहने लगेंगे, 'डब्बे में, इस डब्बे में।' 'हाँ, इसी डब्बे में ।' जब उसका कनेक्शन हो जाता है, तब वो हैरान कि 'इस डब्बे में ये चीज़ कैसे आयी!' वैसे हम भी अपने को एक डिब्बा समझते हैं। और खास कर बंगाल में मैंने देखा है, कि इन्सान बहुत निराश रहता है, हमेशा और रोने के गाने गाता है। रोते ही रहता है। अब दिन बदल गये। ये समझना चाहिये, नया समय आ गया है। ये एक बड़ा एक विशेष समय, इसको मैं ब्लॉसम टाइम कहती हैँ। बसंत बहार कहती हैं। लेकिन बहुत से लोग इतने निराश हो गये। इतने निराशा में फँसे हये हैं । वो समझ ही नहीं सकते कि इस निराशा के बाद एक बड़ी भारी सुबह होनी जा रही है। जो सारे दुनिया में छा जायेगी। और वो आज का समय है। कोई भी चीज़ अंधे से मान लेना ये को शोभा नहीं देता। आप पहले इसका साक्षात् करिये। मनुष्य पहले आप सत्य को जान लीजिये और सत्य को जानने के बाद आप जानियेगा आप कितने महान और गौरवशाली हैं। अभी तो आप अपने बारे में जानते ही नहीं । जैसे कि किसी छोटे गाँव मे चले जाईये| जहाँ बिजली नहीं, कुछ नहीं और टेलिविजन ले जाईये। और उनसे कहिये कि इसमें सब तरह की फिल्म आयेंगी , फोटो आयेंगे देखो। कहने लगेंगे, 'डब्बे में, इस डब्बे में।' 'हाँ, इसी डब्बे में।' जब उसका कनेक्शन हो जाता है, तब वो हैरान कि 'इस डब्बे में ये चीज़ कैसे आयी!' वैसे हम भी अपने को एक डिब्बा समझते हैं | और खास कर बंगाल में मैंने देखा है, कि इन्सान बहुत निराश रहता है, हमेशा और रोने के गाने गाता है। रोते ही रहता है। अब दिन बदल गये। ये समझना चाहिये, नया समय आ गया है। ये एक बड़ा एक विशेष समय, इसको मैं ब्लॉसम टाइम कहती हूँ। बसंत बहार कहती हूँ। लेकिन बहुत से लोग इतने निराश हो गये। इतने निराशा में फँसे हये हैं। वो समझ ही नहीं सकते कि इस निराशा के बाद एक बड़ी भारी सुबह होनी जा रही है। जो सारे दुनिया में छा जायेगी। और वो आज का समय है। पर वर्तमान को हम नहीं जानते और वर्तमान असलियत है। तो विचार उठे, नीचे गये, फिर विचार उठे, नीचे गये। उसके बीच में एक जगह है उसे विलंब कहते हैं। पॉज। वो विलंब को हम नहीं पकड़ पाते जो वर्तमान है। या तो आगे की बात सोचे या पीछे की। जैसे कि अभी इनको जाना है वापस| सोच रहे हैं कि ट्राम मिले की नहीं, बस मिले की नहीं, ये नहीं, वो नहीं। या तो पिछली बातें सोचते हैं। और अगर मैं कहूँ कि अभी वर्तमान खडे हो जाईये, तो नहीं हो सकते। क्योंकि एक विचार उठा, खतम हो गया, दुसरा विचार 20 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-20.txt उठा, खतम और हम उसके ऊपर में नाचते रहते हैं। लेकिन जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो विचार लंबाकृत हो जाते हैं, ऐसे। रिलॅक्स हो जाते हैं, लंबाकृत और उसके बीच में जो जगह बन जाती है और वर्तमान में आप खड़े हो जाते हैं और जब आपका चित्त वर्तमान में होता है, तो आप कुछ नहीं सोचते, निर्विचार। निर्विचार में आनन्द झरने लग जाता है। अब जैसे यहाँ एक बड़ा सुन्दर कार्पेट हैं। एक उदाहरण के लिये| तो मैं कहँगी कि, भाई, कितना सुन्दर है! और अगर ये मेरा है तो सब जो होते हैं प्रॉब्लेम्स कोई चीज़ पाने के। और मेरा नहीं दूसरे का है, तो मैं ये सोचूंगी, कितने का ये मेरे लिये सरदर्द हो जायेगा कि खराब न हो जाये, ये नहीं, वो नहीं। ये मिला, कहाँ मिला, कब पायेंगे ये लोग? लेकिन हम निर्विचार से देखे, तो जिस कलाकार ने इसको बनाने में अपना आनन्द लूट लिया है, वही आनन्द सर से ले के नीचे तक ठण्डा ठण्डा बहना शुरू हो जाये। और उस आनन्द में आप स्नात हो जाये। जब आप निर्विचार हो जाते हैं, तब आप अपने शांति में खड़े हो जाते हैं। शांति। ये कहने की बातें हैं। शांति के इन लोगों ने बड़े बड़े ऑर्गनाइझेशन्स बनायें हैं । शांति में अॅवॉर्ड्स दिये, ये, वो। मैंने तो बहुत से लोगों को देखा है, जिनको शांति अॅवॉर्ड मिले, इतने गरम होते हैं, इतनी गरम तबियत, कि उनसे अगर मिलना हो तो लकड़ी ले के जाईये सामने। नहीं तो जा कर के दो-चार झापड़ ही मार देना। आप कोई उनसे बात ही नहीं कर सकते, इतने गुस्सैले लोग। उनमें कोई प्रेम की झलक भी नहीं। वो क्या शांति दें और उनको इंटरनैशनल अॅवॉर्ड मिले। पता नहीं किस तरफ से देख कर दिये इंटर नैशनल अॅवॉर्ड। इस प्रकार हम लोग बिल्कुल भुलावे मे रहते हैं। क्योंकि हमारे अन्दर की जब शान्ति प्रस्थापित होती है, तब हम समझते है कि शांत होना क्या होता है। जैसे कि आप पानी में खड़े हैं और आप परेशान हैं उसकी लहरों से। क्योंकि लहरे आ कर के आपको डरा रही हैं, कि कहीं डूब न जाये । पर अगर आप किसी नाव में चले जाये। तो आप लहरें देख रहे हैं और आपको मजा आ रहा है। आपको घबराहट नहीं। और अगर आप तैरना जानते हैं, तो कूदते है नीचे और जो डूब रहे हैं उनको बचा लेते हैं। इसी प्रकार सहजयोग में आपकी प्रगति होती है। पहले आप निर्विचार समाधि में उतरते हैं, फिर आप निर्विकल्प समाधि में। कभी कभी किसी किसी को दोनों एकसाथ मिल जाते हैं। ये बड़ी आश्चर्य की बात है। दोनों चीज़ एकसाथ घटित होती है। और इसमें इन्सान जो है शांति को भी प्राप्त कर लेता है और उन शक्तियों को भी प्राप्त करता है जो उसके अन्दर नहीं है। पर उसके लिये बाल मुंडवा ले या उसके लिये भगवा वस्त्र पहने, कुछ नहीं। ये सारे भाव अन्दर है। आपको तो राजा जनक की कहानी मालूम है, मुझे नहीं बताना चाहिये। पर अब मैं जैसे गृहस्थ हूँ, मेरे पति ऐसे ऐसे हैं। चलो, उन्होंने कहा तो कपड़े पहन लिये अच्छे, काफ़ी जेवर पहने । जब किसी चीज़ को पकड़ा ही नहीं तो छोड़ेंगे क्या! अगर आपने पकड़ के रखा है तो छोड़ सकते हो। मैंने पकड़ा ही नहीं तो छोड़ू क्या! इस तरह की स्थिति संन्यस्त अन्दर से होती है बाह्य से दिखाने की नहीं होती। बाहर से कपड़े संन्यासी के और धंदे अन्दर चोरों के। इसका फायदा क्या! तो ये जो ढोंग है ये खतम हो जाता है । क्योंकि 21 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-21.txt मानव अपनी इज्जत करने लगता है। अपना मान उसको होता है। उसके अन्दर एक तरह की चमक आ जाती है, कि मैं क्यों? और ये आत्मसाक्षात्कारी लोग ही दुनिया में बड़ा बड़ा नाम करते हैं। जैसे तिलक साहब। तिलक आत्मसाक्षात्कारी थे इसमें कोई शक नहीं है। अब्राहम लिंकन थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। शास्त्रीजी थे वो आत्मसाक्षात्कारी थे। हम तो कहते हैं कि जो लोग आत्मसाक्षात्कारी नहीं वो लोग सत्य पे टिक ही नहीं सकते। आप कोई भी ऑर्गनाइझेशन ले लीजिये बस झगड़े शुरू आपस में। क्यों? क्योंकि असत्य पे खड़े हैं। इसलिये सब डावाडौल हो रहा है। तो पहले आपको प्राप्त करना चाहिये, कि अपने अन्दर की शांति। इस शांति को प्रस्थापित किये बगैर आप विश्व में कोई भी शांति नहीं कर सकते। अब ये कहना है कि जिसको जाना है चले जाये। जिस वक्त में हम जागृति का कार्य करेंगे, तब उठ के जाने की कोई जरूरत नहीं। दोनों हाथ हमारी तरफ करें। और पहले तो आपको चाहिये, कि आप अपने को बिल्कुल क्षमा करें। इस वक्त अपनी गलतियाँ, पाप-पुण्य जोड़ने की जरूरत नहीं। और अब आँख बंद कर लें। चश्मा निकालें। जिनके पैर में जूते हैं वो जूते निकाल लें जो बैठे हैं ऊपर में लोग। अब लेफ्ट हैण्ड मेरी ओर करें इस तरह और सर झुका लें और सिर के उपर में आप अपना राइट हैण्ड यहाँ पर जो तालू है, इसे ब्रह्मरन्ध्र भी कहते हैं कि जो ब्रह्म में एकाकारिता करता है ऐसा छेद ब्रह्मरन्ध्र। अब इस पे राइट हैण्ड रखें। दूर, ऐसे। और देखें कि आपके ब्रह्मरन्ध्र में से ठण्डी या गरम कोई हवा जैसी चैतन्य की लहरियाँ आ रही है क्या। जिसको की आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी कहा था। नीचे सर झुकायें। अब मेरी ओर राइट हैण्ड करें और फिर से अपना सर झुकायें और लेफ्ट हैण्ड से, सर पे हाथ नहीं रखें, सर से दूर, सर झुका के। लेकिन शंका नहीं करने की। आप ही के सर से ठण्डक आ रही है। शंका नहीं करनी है। सर झुकायें। अब अगर गरम आ रहा है, तो इसका मतलब ये है, कि आपने अपने को या दूसरों को क्षमा नहीं की। तो अभी आप क्षमा करें। और इस वक्त ये माँगना है कि, 'माँ, हमें आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' आप माँगिये मन में कि, 'माँ, कृपया आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' मैं जबरदस्ती नहीं कर सकती। मैं आपकी जो स्वतंत्रता है, उसको नहीं छू सकती। क्योंकि अगर स्व का तंत्र बताना है, तो उसके लिये जरूरी है कि आपकी इच्छा से सब होगा। अब फिर से राइट हैण्ड से आप देखिये और कहिये की, 'माँ, मुझे मेरा आत्मसाक्षात्कार दीजिये।' राइट हैण्ड से। अब दोनों हाथ आकाश की ओर करें और सर ऊपर की तरफ और यहाँ एक प्रश्न पूछे अपने मन में, विश्वास के साथ, 'माँ, क्या ये परमचैतन्य की लहरें हैं?' प्रश्न करें तीन बार। अन्दर अपने हृदय में पूछिये। 'माँ, क्या ये परमचैतन्य की लहरे हैं?' सर पीछे थोडा। आत्मविश्वास के साथ पूछिये। शंका नहीं करने की। अब हाथ नीचे करें। अब दोनों हाथ मेरी ओर करें, इस तरह। चश्मा पहन लें और मेरी ओर देखें और विचार नहीं करें। आपके विचार ठहर गये। निर्विचार। यही निर्विचार समाधि। अब जिन लोगों के हाथ में या उंगलियों में या ब्रह्मरन्ध्र से ठण्डी या गरम हवा आयी हो, वो दोनों हाथ उपर करें। वा, वा ! क्षणभर में सब पार हो गये। सब ने प्राप्त कर लिया। अब इसको आगे बढ़ाना है। आप सारे आत्मसाक्षात्कारी लोगों को हमारा वन्दन! 22 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-22.txt े न म २ य सब कुछ बदल डालो और एक नयी व्यक्ति बनो। फूल की तरह आप फूलते हैं, फिर वृक्ष बनती है और फिर आपकी स्थान ग्रहण करते हैं। सहजयोगी बन कर स्थान ग्रहण करें। ये आसान है। मुझे प्रसन्न करना होगा, क्योंकि मैं ही चित्त हँ। मैं प्रसन्न हो गयी तब आपका काम होगा। पर भौतिक चीज़ों से या चर्चा करने से मैं प्रसन्न नहीं हो सकती। मैं प्रसन्न होती हूँ आपकी तरक्की से । इसलिये स्वयं की तलाश करो। श्रीमाताजी, २१.५.१९८४ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2015_Chaitanya_Lehari_H_IV.pdf-page-23.txt श्रीकृष्ण चाहते थे, कि लोग इस बात को समझे कि धर्म दासत्व नहीं है। धर्मातीत होकर आपको स्वयं धर्म बन जाना है। परन्तु योगेश्वर की पूजा शुद्ध हृदय से होनी चाहिये। श्रीकृष्ण पूजा, लंडन, १५.८.१९८२ क ०