चैतन्य लहवी सितंबर-अक्टूबर २०१५ हिन्दी 38858665600 56000000SSA इस अंक में जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये ...४ दिवाली पूजा, पुणे, १ नवंबर १९८६ तीन शक्तियाँ ..९ सेमिनार अँड मिटिंग, दादर, २३ जनवरी १९७५ सत्य की पहचान चैतन्य से है ...१२ सार्वजनिक कार्यक्रम, लखनौ, ९४ दिसंबर १९९५ देवी के सभी अवतरणीं के समय बहुत सी आसुरी शक्तियाँ भी पृथ्वी पर अवतरित हुई और देवी की युद्ध कर के उनकी विनाश करना पड़ा। यह विनाश केवल इसलिये नहीं था कि आसुरी शक्तियों की समाप्त करना है। यह इसलिये था क्योंकि यह शक्तियाँ साधकों एवं सन्तीं का दमन करने तथा उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयत्न करती हैं। प.पू.श्रीमातीजी, जवरात्रि पूजा, २४.१०.१९९३ बन दिवाली के शुभ अवसर पे हम लोग यहाँ पुण्यपत्तणम् में पधारे हैं। न जाने कितने वर्षों से अपने देश में दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है, दिवाली की जो दीपावली है वो शुरू हो गयी | दिवाली में जो दीप जलाये जाते थे, वो थोड़ी देर में बुझ जाते हैं। फिर अगले साल दूसरे दीप खरीद के उस में तेल डाल कर, उस में बाती लगा कर दीपावली मनायी जाती थी। इस प्रकार हर साल नये नये दीप लाये जाते थे। दीप की विशेषता ये होती थी, कि पहले उसे पानी में डाल के पूरी तरह से भिगो लिया जाता था। फिर सुखा लिया जाता था। जिससे दीप जो है तेल पूरा न पी ले और काफ़ी देर तक वो जले। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है तब से हम लोग हृदय की दिवाली मना रहे हैं। हृदय हमारा दीप है। हृदय में बाती है, शांत है और उसमें प्रेम का तेल डाल कर के और हम लोग दीप जलाते हैं। इस तेल को डालने से पहले इस हृदय में जो कुछ भी खराबियाँ हैं उसे हम पूरी तरह से साफ़ धो कर के सुसज्जित कर लेते हैं। ये प्रेम हृदय में जब स्थित हो जाता है, तब उसको हृदय पूरी तरह से | अपने अन्दर शोषण नहीं कर लेता। जैसे पहले कोई आपको प्रेम देता है, माँ देती है प्रेम, पिताजी देते हैं प्रेम और भी लोग आपको प्रेम देते हैं। उस प्रेम को आप लोग अपने अन्दर शोषित कर लेते हैं। जो प्यार पति से मिला, पत्नी से मिला, वो आपके रोम रोम में छा जाता है और अपने तक ही सीमित रहता है। उसका प्रकाश औरों को नहीं मिलता। एक अगर माँ अपने बच्चे को प्यार करती है, तो वो उस बच्चे तक और उस माँ तक ही सीमित रहता है। कभी 4 जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये पुणे, १ नवंबर १९८६ कभी इसके विपरीत भी परिणाम निकल आते हैं। कोई माँ अगर अपने बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यार करती है तो बच्चा कभी कभी बूरा बर्ताव करता है। उसके व्यवहार में शुष्कता आ सकती है। धृष्टता आ सकती है। वो माँ को तंग कर सकता है। उसका अपमान कर सकता है। या कोई बच्चा अपने माँ के प्रति बहुत ज्यादा जागरूक हो, तो हो सकता है कि उसकी माँ उस पे हावी हो जाये। उसके सर पे सवार हो जाये। इसी प्रकार एक पति -पत्नी में भी जो प्रेम होता है वो अगर संतुलन से हट जाये, लेन-देन में फर्क पड़ जाये, तो उसके अनेक विपरीत परिणाम होते हये देखे गये हैं । लेकिन सहजयोग का जो स्निग्धमय प्रेम है | वो हृदय के इस दीप में भर दिया जाता है तो वो अपने तक सीमित नहीं रहता है। और उसमें जब दीप जल जाता है, जब आत्मा की ज्योत फैल जाती है, तो वो सारे संसार के लिये आलोकित करने का माध्यम है। उसकी ये शक्ति हो जाती है, उस हृदय की, कि वो सारे संसार को आलोकित करें । सारे संसार में प्रकाश फैलायें। सारे संसार का अज्ञान हटायें। सारे संसार में आनन्द फैलायें। यही एक मिट्टी का दीप हर साल तोड़ दिया जाता था, एक समर्थ, ऐसा विशेष दीप बन जाता है, कि कभी भी नहीं बुझता है और इस दीप से अनेक दीप जलते हैं। और वो जो दीप जलाये जाते हैं, कभी नहीं बुझते। ये कौनसी धातु का बनाया | हुआ दीप है, ऐसा अगर कोई पूछे, तो कहा जायेगा, कि ऐसा तो कोई धातु है ही नहीं संसार में जो इस तरह के दीप बनाये। जो जलते रहें और दूसरों को भी आलोकित करते रहे और कभी भी नष्ट न हो। उल्टा अमर हो के सारे संसार में तारांगण बन के चमक उठे। ऐसे अनेक दीप अकेले अकेले इस संसार में आये। कहीं पर, आपने देखा है, कि बड़े बड़े संत-साधु हो गये। इस महाराष्ट्र भूमि में भी अनेक संत -साधु हो गये। अकेले अकेले कहीं बैठे ह्ये, धीरे-धीरे, धीमे-धीमे जलते रहे । लेकिन वो आज भी तारांगण बन के संसार में छाये हैं। लेकिन वो अकेले दीप थे, दीपावली नहीं थी। अकेले दीप थे। कभी - कभी एक-दूसरे से मिल लेते थे। लेकिन आज हमारी दीपावली है । आप लोग सब वही दीप हैं, जिनकी मैं व्याख्या कर रही हूँ, जिनका मैं वर्णन कर रही हूँ, वही सुन्दर दीप है। जो कि आलोकित हो गये और आलोकित होने के बाद दूसरे अनेक दीप जला रहे हैं। एक दीप से हजारो दीप जल रहे हैं। यही एक तरीका है, जिससे संसार का अंध:कार, अज्ञान सब नष्ट हो सकता है। लेकिन इसके अन्दर एक बात याद रखनी है, कि हम जिस तेल से जल रहे हैं, जिस स्निग्धता से जल रहे हैं, वो प्रेम है। वो निव्व्याज्य प्रेम है। वो निरपेक्ष प्रेम है। वो प्रेम किसी से चिपकता नहीं। वो कोई अभिलाषा नहीं रखता। वो कोई प्रतिकृति नहीं चाहता। वो अविरल इस दीप को जलाये रखता है। अत्यन्त सुन्दरता से। ऐसे दीप की कांति आपके मुखराविंद पे भी छा जाती है। आपकी आँख से ये दीप चमकते हैं। | सहजयोगी की आँखें, आप अगर कभी देखें तो हीरे जैसी चमकती हैं। ऐसे हिे में अपनी ही ज्योत होती है। इसी प्रकार एक सहजयोगी की आँख के अन्दर अपनी ही एक दीपशिखा होती है, जो झिलमिल, झिलमिल चमकती रहती है। ये सब कायापलट हो गया। पत्थर के हृदय में एक ऐसा अनूठा सा दीप जल गया। एक मिट्टी की दीप की जगह एक अविनाशी, अक्षय ऐसा एक दीप जल गया। हृदय जो कि छोटी छोटी बात में रो पड़ता था। जो छोटी छोटी सी हानि से ही ग्लानि प्राप्त होता था। वो हृदय आज एक बलवान दीपक बन गया है। जो कि सुख या दु:ख के थपेडे से नहीं डरता है और ना ही किसी लाभ या हानि की ओर देखता है। उसका कार्य है अंध:कार को दूर करना और बड़ी हिम्मत के साथ। वो इस बात को जानता है कि वो एक विशेष दीप है, एक विशेष रूप में है। 'और वो एक विशेष रूप का मेरे हृदय में दीप जला हुआ है इससे मैं अनेक लोगों का दीप जला सकती हूँ।' उसको ये पूर्ण विश्वास हो गया है। और उस दीप के उजाले में वो अपने भी दोष अगर देख ले, उसे वो छोड़ देता है। उसे एकदम छोड़ देता है। धीरे धीरे उसका भी जीवन अत्यंत प्रकाशमय हो जाता है। और हृदय में बसा हुआ प्रकाश सारे अंग अंग से, उसकी आँख से, उसके मुख से टपकता है। उसका सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है। और उस प्रकाश से वो आंदोलित हो जाता है। उसके तरंगों में बैठ कर के आनंदित होता है। अपने ही अपने मन में मुस्कुराता हुआ, अपने ही मन को सोचता है कि मैं कितना सुन्दर हो गया हूँ। कितनी सुन्दरता मेरे अन्दर से बह रही है। पहली मर्तबा एक मानव अपने से पूर्णतया संतुष्ट हो जाता है। असंतोष मनुष्य में तब आता है, जब वो अपने संतुष्ट नहीं होता। अगर आप कहे कि आज हमारे पास एक चीज़ नहीं है । इसलिये आप असंतुष्ट हैं। कोई बात नहीं। कल दूसरी चीज़ आ जायेगी। उससे आप असंतुष्ट हो जायेंगे। आप असंतुष्ट ही रहेंगे। संतोष आप जब अपने में संतुष्ट होंगे तो फिर आपको वो बाहर खोजना नहीं पड़ेगा। और ना वो कभी आपको बाहर मिल सकता है। संतोष आपको अपने अन्दर, अपने ही 6. आत्मा से प्राप्त हो सकता है। ये प्रकाश आज हम लोग देख रहे है कि है। कितना बढ़ गया है। विशेष कर महाराष्ट्र में इसका प्रचार ज़्यादा हुआ और पुणे इस महाराष्ट्र का हृदय है। ये महाराष्ट्र का हृदय है। और इस हृदय में जो आप लोग आये हये हैं, तो आज जाते वक्त अपने साथ बहुत सारा सहजयोगी की आँखे, प्यार लेते जाईये। ये प्यार आपको वो प्रकाश देगा जो चिरंतन तक, अनंत आप अगर कभी देखें तक आपके अन्दर सुन्दरता की लहरें उत्पन्न करता रहेगा। और आपका तो हीरे जैसी चमकती है मार्गदर्शन करता हुआ आपको एक ऐसे आदर्शों तक पहुँचा देगा जिसकी ऐसे हिरे में अपनी ही आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जिसको आप सोच भी नहीं सकते, कि ज्योत होती है। आप ये सब कर सकते हैं। आपने बहुत बड़े बड़े महान लोगों के बारे में सुना होगा। इन सब से कहीं अधिक आप लोग कार्य कर सकते हैं। इनसे कहीं अधिक आसानी से ऊँचे ऊँचे शिखर तक पहुँच सकते हैं। फर्क इतना ही है कि उनकी महत्त्वाकांक्षायें जो थी उससे लड़ते लड़ते, जूझते जूझते वो लोग तंग आ इसी प्रकार एक सहजयोगी की आँख के अन्दर अपनी ही एक गये थे। लेकिन आप अपना रास्ता इतना सुगम, सुरक्षित और आलोकित दीशिखा होती है, पाईयेगा, कि उसमें किसी भी प्रकार की आपको अडचन नहीं। सिर्फ याद जो झिलमिल, झिलमिल रखने की बात एक ही है, कि ये प्रेम का दिया है। ये दीप प्रेम ही से जल चमकती रहती है। सकता है और किसी चीज़ से नहीं। जो भी आप कार्य करते हैं वो आप प्रेम ये सब कायापलट से करें। जब आप किसी को शिक्षा देते हैं, जब आप किसी को सहजयोग के बारे में समझाते है तब ये सोच लेना चाहिये कि क्या मैं इन को इसलिये हो गया। समझा रहा हूँ, कि मुझे इनसे प्रेम है। इनके प्रति प्रेम है और मैं चाहता हूँ कि में पत्थर के हदय जो मैंने पाया वही ये भी पा लें। क्या मैं यही विचार से इनको समझा कुछ एक ऐसा अनूठा सा रहा हूँ। या मैं इसलिये समझा रहा हूँ, कि मैं कुछ ज़्यादा इन लोगों के बारे में जान गया हूँ। और मैं काफ़ी अच्छे से बातचीत कर सकता हूँ और मैं इन दीप जल गया। एक मिट्टी की दीप की जगह सब लोगों के बुद्धि पर छा सकता हूँ। तो इस तरह की बात सोच कर अगर कोई सहजयोग चाहे तो फैलाये, तो नहीं हो सकता। धीरे धीरे, आराम से, एक अविनाशी, अक्षय जैसे कि चन्द्रमा की चाँदनी धीरे धीरे फैलती है और उस पे सभी चीज़ एक ऐसा एक दीप जल गया। स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगती है। इसी प्रकार आपका बर्ताव दूसरों के प्रति होना चाहिये। उसमें किसी भी प्रकार का आक्रमण, किसी भी तरह | की भीरुता, दिखने की जरूरत नहीं। हाँ, एक बात है, इस दीप को संजोना चाहिये, सम्हालना चाहिये। उसकी ओर ऐसी नज़र होनी चाहिये, जैसे 7 एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज़ को हमने पाया हुआ है। और ये अभी अगर बाल्य स्वरूप में है तो इसे धीरे धीरे हमें आगे बढ़ाना है। उसके प्रति बड़ा आदर और एक तरह की प्रतिष्ठा होनी चाहिये, कि आज हम सहजयोगी हैं। अगर आप सहजयोगी हैं तो हमारे अन्दर विशेष गुण होने चाहिये। इसलिये नहीं, कि हम गलत काम करेंगे तो हमें कोई दुर्घटना उठानी पड़ेगी। या हमें कोई नुकसान हो जायेगा | या परमात्मा हमें कोई किसी तरह का दण्ड देगा । इस भय से सहजयोग नहीं करना है। आनन्द से और प्रेम से सहजयोग में उतरना है। एक मजे की चीज़ है कि हमें माँ ने पानी में तैरना सिखा दिया है और अब हम इस पानी में तैर सकते हैं। डूबेंगे नहीं । कोई भी भय, आशंका मन में न रखते हये, हमें उस प्रेम को जानना चाहिये । जानना चाहिये कि ये क्यों हमारा हृदय है। एक मुठ्ठीभर का हृदय है। इस हृदय में ये सागर कहाँ से आया। अजीब सी चीज़़ है, कि देखा जाता है कि इस छोटे सी मुट्ठी में पूरा सागर सा, पता नहीं कहाँ से समाये चला जा रहा है। और जितना जितना उसके सूक्ष्म में आप उतरेंगे तो देखेंगे कि इस छोटे से हृदय में कितनी सुन्दर भावनायें दूसरों के प्रति, समाज के प्रति में आयेंगी। इतनी उदात्त भावनायें, इतनी महान भावनायें कि जिनसे संसार का हम लोग पूरी तरह से उद्धार कर सकते हैं। लोग आ गये हैं । मैं देखती हूँ की सहजयोग में बहुत बहुत ज़्यादा लोग भी आ जायेंगे। और आना चाहिये। लेकिन हर आदमी को एक विशेष रूप धारण कर के, एक विशेष समझ रख के आना चाहिये। ये नहीं कि सब लोग बैठे हैं तो हम चले गये सहजयोग में। आप एक विशेष हैं। और आप जो सहजयोग में आये हैं, आपका कोई न कोई इसमें विशेष काम होगा। अभी देखिये एक छोटी सी चीज़ खराब हो जाने से ही ये यंत्र नहीं चलता था। इस का हर एक छोटा छोटा पुर्जा भी कितना महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार हर इन्सान जो भी सहजयोग में आता है, वो स्त्री हो या पुरूष हो, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। और हर एक को चाहिये कि हम अपनी तबियत ऐसी रखें जिससे हमारी जो ये यंत्रणा है, जो परमात्मा ने यंत्रणा बनायी है, वो ठीक से चल पड़े। हमारे जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये कि हमने जीवन में जो गलतियाँ की है और जिस तरह से अपने अन्दर षडरिपु एकत्रित किये थे , वो एक एक कर के छोड़ देना चाहिये। वो बहुत ही आसान है। क्योंकि आप अपने अन्दर बसे हये साँप को देख सकते हैं। जब तक प्रकाश नहीं था आपने हाथ में साँप पकड़ लिया था । जैसे ही प्रकाश आ गया साँप गिर जाता है। आप जैसे ही अपने को देखना शुरू कर देंगे, इसी सुन्दर प्रकाश में आप वो भी देख सकते हैं कि जो आपकी सुन्दरता है और वो भी देख सकते हैं जो आपकी कुरूपता है। उस कुरूपता को एकदम से ही छोड़ देना चाहिये। आज छोड़ेंगे, फिर कल छोड़ेंगे, फिर कोशिश करेंगे, ऐसे आधे लोगों से ये काम नहीं होने वाला। तीन शक्तियाँ दादर, २३ जनवरी १९७५ जैसे कि माली बाग लगा देता है, और उस पे प्रेम से सिंचन करता है और उसके बाद देखते रहता है कि बाग में कितने फूल खिले हैं। वो देखने पर जो आनन्द उस माली को आता है उसका क्या वर्णन हो सकता है! कृषि नाम का अर्थ होता है, कृषि से, कृषि आप जानते है खेती। कृष्ण के समय में खेती ही थी और ख्रिस्त के समय में इसे फूल से सींचा गया था। इस संसार की भूमि को कितने ही अवतारों ने पहले संवारा हुआ है। आज कलियुग में ये समय आ गया है कि उस खेती की बहार देखूं। जिसकी फूलों का सुगन्ध उठायें। वो जो आपके हाथ में से चैतन्य लहरियाँ बह रही हैं ये वही सुगन्ध है, जिसके सहारे सारा संसार, सारी सृष्टि, सारी प्रकृति चल रही है। लेकिन आज आप वो चुने हुये फूल हैं जो युगों से चुने गये हैं कि आज आपकी लहरें और आपके अन्दर की ये सुगन्ध संसार में फैल कर के इस कीचड़ से, मायासागर से सारी ही गन्दगी को खत्म कर दे। देखने में ऐसा लगता है कि ये कैसे हो सकता है? माताजी इस बहुत बड़ी बात कह रही है। लेकिन ये एक सिलसिला है, और जब मंजिल सामने आ गयी तो ये सोचना कि मंजिल क्यों आ गयी? कैसे आ गयी? कैसे हो सकता है? जब आप चल रहे थे तो क्या मंजिल नहीं आयी! जब आप खोज रहे थे तो क्या आपका स्थान मिलेगा नहीं? लेकिन जब वो मिल गया है तो इससे शंका की बात क्यों खड़ी होनी चाहिए । आज मैं आपको तीन शक्तियों के बारे में बताना चाहती हूँ कि परमेश्वर एक ही है। वो दो नहीं, अनेक है। मैं एक ही हूँ। अनेक नहीं हूँ। लेकिन आपकी माताजी हूँ, मेरे पति की पत्नी हूँ, मेरे बच्चों की माँ हूँ, आपकी अलौकिक माँ हूँ, उनकी लौकिक माँ हूँ। इसी तरह परमात्मा के भी तीन अंदाज है, थ्री अॅसपेक्ट्स। पहले अंदाज से वो साक्षिस्वरूप हैं। वो साक्षी हैं अपने सत्य के खेल से, जिसे वो देखते हैं। जिसे हम ईश्वर कहते हैं। और उनकी शक्ति को हम ईश्वरीय शक्ति कहते हैं या ईश्वरी कहते हैं। हमारे सहजयोग में इसे हम महाकाली की शक्ति कहते हैं। जिस वक्त उनका ये साक्षी स्वरूपत्व खत्म होता है, माने जब वो और कुछ देखना नहीं चाहते, वो नापसन्द करते हैं, जब वो अपनी आँख मूँद लेते हैं अपनी शक्ति के खेल से, उस वक्त सब चीज़ खत्म हो जाती है । इसलिये उस शक्ति को हम लोग संहारक शक्ति कहते हैं। असल में संहारक नहीं है। लेकिन वो सारे संसार के कार्य का नियोजन करती है और उसे खत्म करती है। दूसरी शक्ति जो परमात्मा उपयोग में लाते हैं, वो है उनकी त्रिगुणात्मक शक्ति, जिससे वो सारे संसार 9. की रचना करते हैं। जिसमें बड़े बड़े ग्रह- तारे होते हैं, जिससे वो पृथ्वी की एक परम पवित्र वस्तु तैयार होती है। इस अवस्था में परमात्मा को हिरण्यगर्भ कहते हैं और उनकी पत्नी को हिरण्यगर्भिणी कहते हैं। हमारे सहजयोग में इसको महासरस्वती कहते हैं। तीसरी परमात्मा की जो शक्ति है वो विराट स्वरूप है, विराट शक्ति है। जिस शक्ति के द्वारा संसार में जीव पैदा होते हैं। उनकी उत्क्रांति याने इवोल्यूशन होता है। जानवर से मानव बनता है और मानव से अति मानव बनता है और अति मानव से परमात्मा बनता है। इस विराट् शक्ति को सहजयोग में हम लोग महालक्ष्मी कहते हैं । इस तरह से संसार में तीन शक्तियाँ हैं जो परमेश्वर अपनी आभा को फैलाते हैं । पहली शक्ति जिसे ईश्वरी शक्ति कहलाते है, दुसरी हिरण्यगर्भिणी और तिसरी विराटांगना। सहजयोग कार्य जो है वो विराट का कार्य है। मनुष्य के अन्दर भी परमात्मा ने तीनों ही शक्तियाँ दी हैं। एक शक्ति से मनुष्य जो कुछ भी मानता है, (अस्पष्ट) करता है वो महाकाली की शक्ति है। एक शक्ति से भविष्य के लिये वो नियोजन करता है, प्लॅनिंग करता है, सोचता-विचारता है वो महासरस्वती की शक्ति है। और जिस शक्ति के द्वारा वो उत्क्रान्ति पाता है, इवॉल्व्ह होता है वो महालक्ष्मी की शक्ति है। इन तीनों शक्तिओं का मिलाप विराट में, उसके सहस्त्रार में है। यही अधिकृत है। उसके जैसे मनुष्य को बनाने की पूर्ण व्यवस्था परमेश्वर ने की है। महालक्ष्मी शक्ति प्राणिमात्रों तक तो अपना कार्य सुव्यवस्थित करती है। वो इतने चयन करती है, चॉइस करती है और ठीक लोगों को, ठीक जानवरों को एक हद तक इस (अस्पष्ट) पहुँचा देती है। पर मनुष्य की दशा पर आने पर उसको पूर्णतया स्वतंत्रता मिलती है कि वो अपनी चेतना में, अपनी अवेअरनेस में, अपनी ही उत्क्रान्ति को खोजें और जाने की उसकी उत्क्रान्ति कैसे हो गयी ? न तो जानवर अपनी उत्क्रान्ति की बात सोचता है, लेकिन मनुष्य ही ये सोचता है और उसे देखता भी है और जान भी सकता है, जब उसके हाथ से ये वाइब्रेशन्स आने लगते हैं। मंजिल तो आ गयी है। आप लोग आँगन में आ खड़े हैं। कितना सरल, सहज है सबकुछ, किन्तु मनुष्य ने ही अपने को बड़ा कॉम्प्लिकेटेड कर दिया है, बहत ही ज़्यादा। मनुष्य के लिये बहत कठिन हो जाता है। धर्म और कुछ नहीं है सीधा साधा बिल्कुल भोला है। इनोसन्स, लेकिन इतनी खोपडिओं के ऊपर खड़े हो कर के इनोसनन्स की बात कैसे करें ? इसलिये छोटे बच्चे बहुत जल्दी पार हो जाते हैं। क्योंकि उनमें भोलापन है। कलियुग में बहुत सी बातें हो रही हैं। जैसे ही विराट शक्ति बहुत प्रबलित हो चुकी है उसी वक्त में पाताल लोग से यहाँ पर की वेस्ट मटेरिअल जैसे अधोगति को गये हुये बहत से पुरूष जिनको कि हम लोग राक्षस कहते है उनकी ही शक्तियाँ बलवत्तर हो रही हैं। दोनों शक्तियों का मुकाबला हो रहा है। एक शक्ति मृत है और एक शक्ति जीवंत है।....(अस्पष्ट) कभी भी जीवंत शक्ति से शक्तिशाली नहीं हो सकती। क्योंकि जीवंत शक्ति अत्यंत सेन्सिटिव होती है, संवेदनशील होती है। इसी वजह से उनका पनपना बहुत कठिन है। प्लास्टिक का फूल कभी भी असली फूल से सुन्दर, महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है। प्लास्टिक के 10 फूल हजारों बनाये जा सकते हैं, जिवंत फूल दो- चार ही खिलते हैं । इसलिये जो लोग सहजयोग में पनपे हैं, सहजयोग में जिन्होंने जो कुछ पाया है वो लोग भी मुरझा जाते हैं, फिर पनपते हैं, फिर मुरझा जाते हैं। एक माँ जैसे अपने आँचल में अपने बच्चे को बड़़े दुलार से सम्भालती है, उसी तरह से सहजयोग पालता है, पोसता है। लेकिन बच्चे भी एक खुद शक्ति है कि अपनी शक्ति को जानें । सहजयोग के बाद मनुष्य उस दशा तक पहुँच सकता है, इस थोड़े से टाइम में पहुँच सकता है, जिसके लिये बड़े बड़े ऋषि-मुनियों को हज़ारों जन्म लेने पड़े और हज़ारों वर्षों की, तपों की, युगों की साधना करनी पड़ी। हम लोगों के परम भाग्य कि हम एक विशेष युग में पैदा हये हैं। सामान्य ही लोग हैं, असामान्य कार्य के लिये पैदा हये हैं। असामान्य परदे के पीछे ही है, सब आपकी मदद कर रहे हैं। लेकिन सामान्य को अपने विराट में चुना हुआ है अपने सहस्रार को बढ़ाने क्योंकि सामान्य में शक्ति है असामान्य होने की । किंतु सहजयोग में सत्य पे विचार है कि अन्दर में भोलापन होना चाहिये और शान्ति चाहिये। शांति, संतोष है। किसी न किसी को कोई न कोई दु:ख है, कोई विशेष परेशानी है, उलझन है । लंडन में में हो एक साहब कहने लगे, 'विएतनाम रहा है। आप ये क्या बात कर रहे हैं?' मैंने कहा कि, इतना युद्ध अपने 'तुम क्या विएतनाम जा रहे हो ? वहाँ के प्राइम मिनिस्टर हो ? तुमको इतनी क्यों परेशानी ? तुम अन्दर का देखो।' छोटी छोटी चीज़ों से अपने मन को भ्रम में ले आते हैं। एक आँख में अगर तिनका भी चला जाये तो आँख खराब हो सकती है। उसका कोई महत्त्व नहीं है। शांत, देखिये, वो समय आ गया है कि परमेश्वर का राज्य इतना शांत है, संतोष है। सहजयोगियों को पहले अन्य लोगों से ज़्यादा शांत रहना है। संतोष से भरे रहना है और अपने आनन्द से सारे संसार को भरते रहे । अन्दर का चमत्कार सहजयोग दिखायेगा। बहुत जोरों में चर्वण चला है, मंथन चला है। आप में से कोई लोग नये भी आये हैं यहाँ पर, कोई बहुत पुराने हैं। कोई नये खट् से कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं और कोई पुराने है यहीं बैठे हैं। नितांत परमात्मा की असीम कृपा पर जिसको विश्वास है वो | जानता है कि सारी सृष्टि का रचयिता वही है और सबको पार लगाने वाला वही है। वो एक क्षण में ही सहजयोग में पार हो के जम जाता है। और एक बार वो जम जाता है तो कभी भी निकलता नहीं। अपने विश्वास को दूढ़ करो क्योंकि आपके हाथ से वो चीज़ बह रही है। आपने इसके चमत्कार देखे हुये हैं। अपने पर विश्वास करें । अपने को जानें । बहुत कुछ और भी हो रहा है। बहुत से बच्चे, छोटे छोटे बच्चे मैंने देखे है जिनमें बहुत बड़े बड़े जीव, जो कि आपके बापदादा ही हैं वो जन्म ले रहे हैं आपकी मदद करने के लिये। १०-१२ साल के अन्दर बहुत बड़े बड़े लोग इस संसार में आ जायेंगे। उनकी स्वागत की तैय्यारियाँ हो रही है। उनको पहले सूली पर चढ़ाया गया था, उनको मारा-पीटा गया था। वो सब आज जन्म लेने वाले हैं। एक नवीन युग संसार में आने वाला है। सारे धर्मों का आशीर्वाद और आशा कि मनुष्य परमात्मा तक पहुँचेगा। हम लोग थोड़ी देर ध्यान में जाएंगे। 11 'सत्य की पहचान चतन्य सा है. लखनौ, १४ दिसंबर १९९५ सब से पहले ये जान लेना चाहिये, कि सत्य है वो अपनी जगह। उसको हम बदल नहीं सकते, उसका हम वर्णन नहीं कर सकते। वो अपनी जगह स्थिर है। हमें ये भी करना है कि हम उस सत्य सृष्टि को प्राप्त करें। परमात्मा ने हमारे अन्दर ही सारी व्यवस्था की हुई है। इस सत्य को जानना अत्यावश्यक है। आज मनुष्य हम देख रहे हैं कि भ्रमित है। इस कलियुग में बहुता चला जा रहा है। उसकी समझ में नहीं आता कि पुराने मूल्य क्या हो गये और हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये और आगे का हमारा भविष्य क्या होगा। जब वो सोचने लगता है कि हमारे भविष्य का क्या है? क्या इसका इंतजाम है? हमारे बच्चों के लिये कौनसी व्यवस्था है ? तब वो जान लेता है, कि जो आज की व्यवस्था है, मनुष्य आज तक जिस स्थिति में पहुँचा है वो स्थिति संपूर्ण स्थिति नहीं क्योंकि वो एकमेव सत्य को नहीं जानती। केवल सत्य को नहीं जानती। हर एक अपनी मस्तिष्क जो सत्य आता है, उसे समझ लेता है। दो प्रकार के विचार हैं। एक तो विचार ये है कि हम अपने मस्तिष्क से जो मान ले, जिस चीज़ को हम ठीक समझ ले, उसी को हम मान लेते हैं। लेकिन बुद्धि से सोची हुई, बुद्धि पुरस्सर चीज़ सीमित है। कोई सोचता है, कि ये अच्छा है, तो कोई सोचता है कि वो अच्छा है। और ये ले कर के सब लोग आपस में झगड़ा कर रहे हैं। दूसरों की बात सुनने से पहले अपनी ही बात कहते हैं और इसी प्रकार पूरी समय कश्मकश चल रही है। अब रही बात उन लोगों की जो कोई न कोई बात को अंधतापूर्वक मान रही है, सोच के कि अब कोई इलाज ही नहीं है। चलो यही कर लेते हैं।' वो भी अंधता पूर्वक मानी हुई बातें भी किसी काम की 12 घ नहीं ये ज्ञात हो जाता है। फिर वो भी मुडता है इस ओर कि, 'सत्य क्या है भाई ? हमने तो इतनी देर तक ये ये काम किये, हमें तो कुछ लाभ नहीं हुआ। तो कोई सत्य नाम की चीज़ है या नहीं?' यही साधक, यही असली साधक है। जो समझ गया है, कि इस बुद्धि पुरस्सर जो हमने न्याय दिये, जो हमने अपने अन्दर विचार कायम किये थे , वो गलत हैं। गलत साबित हये। उससे हमें कोई फायदा नहीं होने वाला और दूसरा है कि जो सोचता है कि इतने सालों तक हमने आँखें बाँध कर के जो हमने काम किये वो काम ही कोई लाभदायक हैं। अब सत्य क्या है ? हालांकि मैं जो आपको बताऊँ उसे आपने फिर से अंधों जैसे मान नहीं लेना चाहिये। क्योंकि वही बात हो जायेगी जो और लोग कुछ कहते हैं और आप मान लेते हैं। किन्तु अगर इसकी प्रचीति आ जाये, उसका अनुभव आ जाये और अगर आप नहीं मानें तो इसका मतलब ये है कि आपने अपने साथ इमानदारी नहीं रखी। क्योंकि इसी में आपका लाभ है। इसी से आप अपने घर-गृहस्थी का, अपने समाज का, अपने देश का और सारे संसार का हित साध्य कर सकते हैं। एक व्यक्ति में ये चीज़ मिलेगी, एक इन्सान में ये चीज़ मिलेगी और वो व्यष्टि माने समष्टि अर्थात् सामूहिकता में फैल जायेगी। 13 हमें ये सुन के बहुत खुशी हुई कि यू.पी. में हर एक गाँव से एक, एक इन्सान आया और वो सहजयोग की ज्योत वहाँ ले गया। मैं यहाँ की बहू हूँ। मैं यहाँ शादी हो के दूल्हन बन के आयी थी। मैं सोच भी नहीं सकती, कि इस यू.पी. में सहज में इतने लोग आ जायेंगे। मुझे तो बहुत ही आश्चर्य हो रहा था कि ये कैसे हो सकता है! यहाँ तो लोग इतने अंधश्रद्धा से पीड़ित है और कुछ लोग इतने मग्नूर है, इसके बीच के ये जो चीज़ के है सहज इसे कैसे प्राप्त करेंगे? पर आज सब को देख बड़ा आनन्द हुआ। न जाने कैसे आप लोग इस स्थिति में आये, कि आप सहज को प्राप्त ह्ये। मैं सोचती हूँ कि पूर्वजन्म के आपके बड़े पुण्यकर्म है और पुण्यकर्म से ही ये चीज़ प्राप्त होती हैं। एक बड़ी पुरानी किताब है, भृगु मुनि ने लिखी हुई, नाड़ी ग्रंथ, उस में उन्होंने लिखा, कि जो लोग आज गिरिकंदरों में परमेश्वर को खोज रहे हैं, उसे प्राप्त करेंगे कलियुग में और जब वो कलियुग में उसे प्राप्त करेंगे तब वो गृहस्थी में बैठे ह्ये है। वही बात आज सिद्ध हो रही है। ये आपके पूर्वजन्म के सारे जो कुछ भी महान पुण्य थे वही फलित हुये हैं। नहीं तो मेरे बस की बात नहीं थी। जिस तरह से आज आप लोग एकत्रित हये हैं वो देख कर के बहुत आश्चर्यचकित हो रही हूँ। अब रही बात कि सत्य क्या है, ये मैं आपको बताऊँ। सत्य ये है कि आपके शरीर, बुद्धि मन, आपके संस्कार, कुसंस्कार और आपका अहंकार आदि कोई भी उपाधियाँ हैं आपके अन्दर , ये सारी उपाधियाँ सब व्यर्थ हैं , झूठी हैं। हृदय से जो यहाँ सजावट की है, बहुत ही सुन्दर! ये सब पूर्व जहाँ से आये हैं उस धरती माता को सोचो। यहाँ पर तो खेती बहुत होती है और ये खेतीप्रधान उत्तर प्रदेश है। ये खेती जो कराती हैं, ये हमारी जमीन, हमारी माँ, ये पृथ्वी माता हमें ये सब चीजें सहज में ही दे देती है। एक बीज को हम बो दे तो इसमें सहज में ही फूल आ जाते हैं। ये ऋतूओं को बदलने वाली कौनसी शक्ति है। तो ये सारे सृष्टि में चारों तरफ फैली हुई ये जो शक्ति है, यही शक्ति जिसे की हम ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं या फिर इसे हम रूह कहते हैं। इसे ही हम परम चैतन्य कहते हैं। ये शक्ति चैतन्यमय है। ये सोचती है, समझती है, सृजन करती है, सारे कार्यों को करती है, हमारे | हृदय की धड़कन भी यही चलाती है। पर सब से अधिक इस शक्ति की जो विशेषता है, वो ये है कि वो प्रेमभरी है। इसमें सिर्फ प्रेम है। ये सारा कार्य प्रेम से करती है। अब मैं कहँगी सत्य और प्रेम में कोई अन्तर नहीं। अगर समझ लीजिये कि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो आप उस व्यक्ति के बारे में पूरा पूरा जान लेते हैं। पूरा सत्य आप जान लेते हैं। इसी प्रकार प्रेम और सत्य दोनों एक ही चीज़ है। और जब आप सत्य को प्राप्त करते हैं, तभी आप मन में शांति को स्थापित करते हैं । शांति भी इस सत्य से दर्शन से ही होती है। तो ये सत्य जाज्वल्य नहीं है। इसमें भड़क नहीं है। इस में कोई ऐसी तड़पाने की चीज़ नहीं है। बस ये शांत रस, शांतमय, आनन्ददायी है और ये सब प्राप्त करने की 14 आपकी क्षमता है। आपकी लियाकत है कि आप इसे प्राप्त करें। कारण पूर्वजन्म के अनेक क्मं के पुण्य लाभ से ही आज आप यहाँ पहुँचे हैं और ये आपका हक बनता है कि इस योग को आप प्राप्त करें। जब आप इस योग को आप प्राप्त करेंगे, पहले तो आपको पहली मर्तबा एहसास होगा, ये आप जानेंगे, आपको प्रचीति होगी, अनुभव होगा आपकी उँगलियों के ऊपर ये ठण्डी ठण्डी हवा सी चलती है। ये बड़ी सुखद ऐसी ठण्डी हवा है। आदि शंकराचार्य ने इसे 'सलिलं, सलिलं' कहा है। ईसामसीहा ने इसे 'कूल ब्रीज ऑफ द होली घोस्ट' कहा है। महम्मद साहब ने इसे 'रूह' कहा है। नानक साहब ने इसे 'अलख निरंजन' कहा है। आदि अनेक अनेक विशेषणों से अलंकृत किया गया है। इसको सजाया गया है। पर उनकी बात सब तक पहुँचने के लिये जरूरी था कि सब लोग भी किसी हद तक पहुँच जायें, इसे महसूस करें। हमें अगर कोई लखनौ के बारे में बतायें, कि लखनौ ऐसा है, लखनौ वैसा है, तो भाई, हमें लखनौ ले जाये तभी तो हम समझें कि लखनौ क्या है ? इसी प्रकार कोई भी बात आप इस महान शक्ति की तरह वो सारी ही बात बात है। और बात करते करते आदमी ऊब जाता है और सोचता है, कि ये क्या बात हो रही है। इसका तो कोई अन्त ही नहीं । इससे कोई मिलता जुलता तो नहीं और पूरी समय एक मनोरंजन सा हो जाता है। काम खत्म ! इसके लिये जो शक्ति हमारे अन्दर परमात्मा ने स्थापित की है उसे कुण्डलिनी कहते हैं। जितना इस पर कार्य हमारे इस महान भारतवर्ष में हुआ है और कहीं नहीं हुआ। हाँ, बाहर बहुत से द्रष्टा हो गये जिन्होंने इसके बारे में लिखा है, ये बात सच है। लेकिन जितना हमारे देश में इसको प्लावित किया गया उतना कहीं भी हुआ नहीं। क्योंकि हमारे देश के लोग शुरू से ही आध्यात्मिक है। और हमेशा जानना चाहा उन्होंने कि हम हैं क्या? हमारी हैसियत क्या है? शख्सियत क्या है? हमारा व्यक्तित्व क्या है? ये हमेशा जानने की हिन्दुस्तानिओं ने जानने की चेष्टा की है। अनादि काल से भारतीय लोग इसकी खोज में पड़े हैं। और जंगलों में, गिरिकंदरों में जा कर के खोजते रहे हैं, कि 'मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ?' और ये जो खोज थी आज फलीभूत हो रही है कि हज़ारों की तादाद में हज़ारों लोग इसको प्राप्त कर रहे हैं और आप भी इसे प्राप्त करेंगे। सबसे तो पहले कुण्डलिनी का जागरण होता है तो बिल्कुल सहज तरीके से होता है और बीच का जो मध्य पथ है सुषुम्ना, उससे गुजरते हुये ब्रह्मरन्ध्र को छेदती है। आपको इस मामले में बताया गया है। अपने अन्दर जो तीन नाड़ियाँ विशेष हैं, उसमें से जो मध्य नाड़ी है, उसी नाड़ी के मार्ग से कुण्डलिनी का | जागरण होता है। विशेषत: सब चीज़ जो दुनिया की है वो जमीन की तरफ़ दौड़ती है, सिर्फ आग ऐसी चीज़ है जो ऊपर की तरफ़ उठती है। पर ये एकदम शांत आग है। एकदम शांत। इस आग में शांति बनी हुई है। क्योंकि ये बड़ा भारी परमात्मा का चमत्कार है। और जब ये ऊपर चढ़ती है तो अपने आप चक्र खुलते हैं। और आपको इसमें कुछ करने का नहीं। सहज आप जब बीज को लगाते हैं तो क्या आप इस पृथ्वी माता को पैसा देते हैं? उसको कोई 15 नमस्कार करते हैं? वो तो उनका धर्म है, कि कोई भी चीज़ जो उनके उदर में आयें उसका पनपा दें और ये धर्म बीज में भी है, कि वो पनप जाता है। वो भी अंकुरित हो जाता है, अपने आप| इसी प्रकार अपने अन्दर भी, सबके अन्दर भी। किसी भी जाति, किसी भी धर्म, किसी भी देश के लोगों में ये नहीं कह सकते की कुण्डलिनी नहीं है। अब ६५ देशों में हम कार्य कर रहे हैं। और बड़ा आश्चर्य है कि रशिया में जैसे आप लोग बैठे हैं ऐसे ही लोग वहाँ एक-एक गाँव में, पता नहीं इन लोगों ने कभी भगवान का नाम नहीं सुना। इनको तो किसी भगवान का तो क्या, ऐसे आदमी का भी नाम लेना मना था जो भगवान की बात करता था। लेकिन मेरे ख्याल से एकदम साफ़ उनके व्यक्तित्त्व की पाटी थी जिस पर सहजयोग बहुत जल्दी चढ़ गया । और इतनी जल्दी चढ़ गया और हजारों की तादाद में। और आप लोगों को देख कर इसलिये आश्चर्य होता है, कि पहले मैं यहाँ देखती थी कि उनको मजा किस चीज़ में आता है । बड़े हैरानी की बात है कि जिसमें उनको मज़ा आता था वो सब छोड़छाड़ अब सहजयोग में सब उतर आयें। और वो जो मज़ा आने की चीज़ें थी वो सब स्वयं को नष्ट करने वाली थी । आज अमेरिका में यही हाल है। वो लोग कहते हैं कि हम तो चाहते हैं कि, 'क्षण-क्षण हम आनन्द में रहें।' और क्षण-क्षण में आप अपने को मिटाने की व्यवस्था कर रहे हैं। तो कौनसा आनन्द आयेगा? आप तो मृत्यु की ओर जा रहे हैं । सर्वनाश की ओर जा रहे हैं, तो आपको आनन्द कैसे आ सकता है! लेकिन उनकी खोपड़ी में ये बात जाती नहीं आपको बताऊँ। हम लोग हालंकि बहुत सीधे-साधे हैं, गरीब हैं लेकिन मेरे ख्याल से हमारे अन्दर सुबुद्धि उन लोगों से बहुत ज़्यादा है। वो तो मूढ़ लोग हैं। उनकी समझ में नहीं आता है। मुझे कहते थे कि 'जब तक आप हमसे पैसे नहीं लेंगे हम आप पे विश्वास ही नहीं कर सकते। ' ऐसे बेवकूफ़ लोगों से कौन बात करें? पर अब थोड़ा थोड़ा मामला बैठ रहा है। इन लोगों से कुछ सीखने का है नहीं। हमारा जो अपना, स्वयं का जो अपना कल्चर है, जो संस्कृति हैं वो इतनी ऊँची हैं कि सहज में आने के बाद आप धीरे- धीरे समझ लेंगे कि ऐसी संस्कृति है ये कि जिसमें सिवाय मनुष्य परमात्मा की ओर उठे और इस योग में बढ़े और कुछ हो ही नहीं सकता। ये नहीं कि आप चीज़ छोड़िये और जंगल में जा कर बैठिये। संन्यास लीजिये या भूखे मरिये, इस तरह की बेकार की चीज़ें सहजयोग में कोई जरूरत नहीं । क्योंकि ये बाह्य में सब होता है। बहत से लोग भूखे मरते रहते हैं यहाँ पर। एक बार नारद मुनि ने पूछा भगवान से कि, 'हिन्दुस्तान के लोग इतने भूखे क्यों रहते हैं?' तो उन्होंने कहा कि, 'भूखे रहने की उनको आदत हो गयी है। वो इतनी बार भूखे रहते हैं, उनको भूखा ही रहने दो।' तो ये जो है, उपवास आदि तपस्या करने का जो गुण है वो हो गया, वो समय बीत गया। उसकी अब जरूरत नहीं। अब जैसे कि आप एक सीढ़ी से चढ़ के दालान में पहुँचे हैं, तो आईये, तशरीफ़ लाईये। अन्दर बैठिये। बजाय इसके कि आप सीढ़ी पे लटक के बैठे हये है, आप ऊपर चढ़ना ही नहीं चाहते। इसी प्रकार एक तरह से ये भी समझ लेना चाहिये कि ये समय आ गया है, ये विशेष समय है। इसको तो मैं कहती हैं कि बसंत ऋतु आ गया, ब्लॉसम टाइम आ गया। और इस समय में हजारों लोग पार होने वाले हैं। हजारों क्या कहिए 16 करोड़ों लोग पार होने वाले हैं। और जिनको जो मिलना है, वो मिलना ही है। कोई इसे रोक नहीं सकता। इस बात को अगर मैं आपसे कह रही हूँ, वो इसलिये नहीं कि मैं सोचती हूँ कि ऐसे की कोई बड़ी भारी योजना है, ये बिल्कुल सत्य है, कि ये चीज़ आज इतनी घटित हो रही है, इतने देशों में, एकदम फलीभूत हो रही है, इसके पीछे में कोई न कोई समय की विशेषता है। और ये समय घोर कलियुग में ऐसा आया हुआ है, जहाँ मनुष्य चाहता है कि सत्य को प्राप्त करे। अब सत्य के प्रकाश में क्या क्या हो सकता है? पहले तो सत्य के प्रकाश में जो असत्य है उसे आदमी एकदम सहज में छोड़ देता है। एकदम सहज में। जैसे कि एक साँप हैं आपके हाथ में। रात अंधेरी और आपको दिखायी नहीं दे रहा है। और कोई कहें कि, 'भाई, तुम्हारे हाथ में साँप है इसे छोड़ दों।' तो आप कहेंगे कि, 'नहीं, नहीं, ये साँप नहीं। ये तो रस्सी है। इसे मैं नहीं छोड़ सकता हूँ। और आप पकड़े ही रहेंगे उसको । और जरा सा भी प्रकाश आ जाये तो आप फौरन छोड़ देंगे। तो ये समर्थता आपके अन्दर हैं, सिर्फ एक तरह का अन्धापन है। बहुत से लोगों ने, हजारों लोगों ने मुझे देखा कि परदेस में ऐसी ऐसी चीज़ें जिसे हम विषैली , जहरीली कहते हैं, खाना वगैरे छोड़ दें। हर तरह की जो चीजें हमको नष्ट कर रही है वो सब छोड़ देते हैं। बहुत से लोग चाहते भी हैं नष्ट करें, खत्म करें। लेकिन नहीं खत्म कर पाते। वजह ये है कि उनके अन्दर समर्थता नहीं है। समर्थ का मतलब है, कि आप जो है वो आपका अर्थ बनाया जाए। याने ये कि अगर आत्मा बन जाए तो अपने आप ये चीज़ें छोड़ के भाग जाएंगी। अब आपके बच्चों को देखिये । बहत सी शिकायतें मेरे पास आयी थीं कि बच्चे बिगड़ रहे हैं, वो रहे हैं। एक बार सहज में ले आईये। एक साहब है, उनका लड़का पढ़ता-लिखता नहीं था। मेरे पास आये। मैंने | कहा, कि जागृति करूं। बस देखें तो फिर। और वो फर्स्ट आया सब के बीच में। ये होता है। ये साक्षात् है। उसकी वजह ये क्या होती है, अपने मस्तिष्क के कितने हिस्से में काम कर सकती है, बहुत थोड़े से और कुण्डलिनी के जागरण से जो प्रकाश हमारे मस्तिष्क में फैलता है उससे हम असाधारण बुद्धिमान बन जाते हैं। उससे हमारा चित्त जो वो है अत्यन्त शुद्ध हो जाता है और ऐसे की चित्त जो बार बार इधर-उधर दौड़ते रहता था, एकदम शांत हो के एकाग्र हो जाता है। इसलिये कौन सा भी कार्य हम बहुत अच्छे से कर सकते हैं। किसी भी कार्य में हम प्रवीण हो सकते हैं। 17 इस देश में तो खेती बहत है। हमने खेती पर प्रयोग कर के देखें कि ये जो हाथ में की चैतन्य लहरियाँ हैं इससे अगर पानी को आप चेतित कर दें तो उस पानी से दस गुना फसल अच्छी आती है। हाइब्रीड सीड से जितनी आती हैं उससे कहीं अधिक नॉनहाइब्रीड सीड से आती है। नॉनहाइब्रीड सीड अगर आप लीजिये और वो लगाईये कोई खाद डालने की जरूरत नहीं, कुछ नहीं। आप देखियेगा कि, हमने सूरज का फूल इतना बड़ा, एक-दो फूट डाइमीटर का निकाला। बहुत ने देखे। इसको उठाना मुश्किल। एक आदमी इसको उठा नहीं सकता। बहुतों ने कहा, कि यहाँ ट्यूलिप्स हो ही नहीं सकते। हमने देखा नहीं । हमारे जो खेत हैं वहाँ हर तरह की चीज़ हो रही है और हमने ऐसा देखा नहीं कि ये चीज़ हो नहीं सकती, वो चीज़ हो नहीं सकती। लेकिन बड़े पैमाने पर, और बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी जिसकी क्वालिटी है, ऐसी चीज़ें होती है। और ये हमारा देश पूरा ही कृषिप्रधान है। इसके लिये ये बहुत ही फायदे की चीज़़ है । अब बहुत जगह खबर करी, बहुत जगह बताया और एक कलेक्टर साहब ने हमारा सन्मान भी किया। पर उसी दिन उनकी बदली करा दी। अब ये सब चीजज़ें बदलेंगी। लेकिन जो लोग सहजयोग में आ गये हैं उनकी खेती-बाडी, उनके घर के जानवर, उनके घर के सारे प्रश्न, उनके समाज के सारे प्रश्न एकदम से हल हो जाएंगे। आज हम उस कतार पर खड़े हैं कि आप मूड़ कर देखेंगे नहीं तो खाई में आप लोग गिर जाएंगे हे हमें मालूम है। अब जब ये अपने को मालूम है, तब थोड़ा सा मूड़ कर के इसे स्वीकार करना चाहिये। इसे आपको कोई पैसा नहीं देने का। आप इस जमीन को कितना पैसा देते हैं, जो आपको फल-फूल दे रही है। इसी प्रकार इसके लिये आपको कोई पैसा नहीं देने का। आपको कोई खर्चा नहीं करने का कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई भूखा नहीं, कुछ नहीं। बस इसके थोड़े से ज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिये, कि हमारे चक्र क्या हैं? इस चक्रों में कौनसी हामी है और कौनसी खराबी है? जब आपको ये चीज़ प्राप्त हो गयी तो आप देखेंगे कि आपके हाथ से ठण्डी ठण्डी हवा सी आने लगेंगी। और ये उंगलियों के आखरी हिस्से में, सब कहते हैं कि सिम्परथैटिक नव्व्हस सिस्टीम है, यहाँ आपको महसूस होगा, इस पर आपको महसूस होगा कि आपके कौनसे चक्र पकड़े हैं। ५, ६ और ७ ये थाव चक्र जो हैं हमारे राइट साइड के हैं और इसी प्रकार लेफ्ट पे हैं। और जो हमारी राइट साइड है वो हमारे कार्यप्रणाली से बनती है या बनाती है। माने ये कि बुद्धि और शरीर से हम जो कार्य करते हैं वो कार्य करती है और जो लेफ्ट साइड है उसमें हमारी जो भावनायें, हमारी इच्छायें, ये सब कुछ, इनको चलाने की, जिसको कहना चाहिये कि भावना का उद्भव करने वाली ये शक्ति लेफ्ट साइड में है। इस प्रकार हमारे अन्दर दो शक्तियाँ हैं और बीच में जो शक्ति है वो आपके उत्थान की है। आप 18 बिल्कुल थोड़ा सा और चलने की बात करें। साढ़े तीन फूट कहते हैं और अगर आप चलें ये कुण्डलिनी चल पड़ी तो आपका ब्रह्मरन्ध्र खुल जायेगा। और चारों तरफ आप पाईयेगा कि एकदम से फैली हुई एक प्रचंड परमात्मा की शांतमय शक्ति आपके अन्दर उतरने लगेंगी। अब शांति भी आपके अन्दर प्रस्थापित होती है। क्यों कि हम रहते है मस्तिष्क में, हमेशा हमारे विचार एक के बाद एक उठते गिरते रहते हैं और इस उठते गिरते विचारों के उपर हम लोग कूदते रहते हैं। कभी तो हम आगे का सोचते हैं, कभी पीछे का सोचते हैं। कभी हम भविष्य का सोचते हैं, कभी भूत का सोचते हैं| पर आज वर्तमान, आज जहाँ हम खड़े हैं, यहाँ हम नहीं रुक सकते। क्योंकि एकदम से चित्त हमारा चला जायेगा आगे को या पीछे को। पर जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है, तो ये जो बीच में दोनों की जगह है वहाँ आपका चित्त रुक जाता है, आप वर्तमान में आ जाते हैं और एकदम निर्विचार समाधि लग जाती है। निर्विचार होने का मतलब यही है, कि जैसे कोई चीज़ देखिये तो उसके ऊपर आप कोई भी अपना प्रतिबिंब नहीं डालते। जैसे आपने देखा कि इतने सुन्दर फूल बने हैं। कहाँ मिले होंगे, कहाँ से लाये होंगे? किस तरह से, क्या होगा ? कोई बात आप सोच नहीं सकते। आप बस इसका मजा उठाते हैं। तो ये जो शक्ति आपके अन्दर आ जाती है, इससे शांति प्रस्थापित होती है। फिर ऐसा आदमी भी इस शांति में उतर जायें वो जहाँ भी खड़ा होगा वहाँ शांति उस में से बहेगी। वो सारे अपने इलाके को शांत कर सकता है। विशेष इन्सान बन सकता है। आप सभी एक विशेष इन्सान बन सकते हैं और इस तरह का कार्य कर सकते हैं। चित्त आपका ऐसा हो जायेगा कि आप जहाँ चित्त डालें वो चित्त ही कार्य करता है। यहाँ बैठे बैठे आप चित्त डाल लें किसी के ऊपर कि इसकी | तबियत ठीक नहीं है, तो उसकी तबियत वहाँ ठीक हो सकती है। पर आपकी वो स्थिती आनी पड़ेगी। इसलिये दूसरी स्थिति में जाना चाहिये । जिसे हम निर्विकल्प समाधि कहते हैं। जहाँ दिमाग में कोई भी संशय आदि नहीं रह सकता। निर्विकल्प समाधि| पता है, यहाँ बहुत से लोग निर्विकल्प में ही उतर गये। खटाखट् निर्विकल्प में चले गये, बड़े बड़े लोग हैं। मैं बड़ी हैरान हो गयी, कि वो लाँघ गये अपनी पहली दशा को और दूसरी दशा में आये। कोई आपको शंका नहीं रह जाती अपने ऊपर और सहज पर आपको कोई शंका नहीं आती। पूरी तरह से आप एक गुरुत्व को ले लेते हैं, मास्टरी ले लेते हैं। आप खुद अपने गुरु हो जाते हैं। आपको कोई गुरु ढूंढने की जरूरत नहीं। आप अपने स्वयं ही गुरु हो जाते हैं । इस गुरु को वो पा लें। आप अपने को तो ठीक कर ही सकते हैं क्योंकि आप अपने चक्रों को जानते हैं अपने उंगलियों पर, लेकिन आप दसरों को भी ठीक कर सकते हैं। दसरों की भी मदद कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण से आपकी तंदुरुस्ती ठीक हो जाती है। ये बात सही है कि इसके जागरण से कैन्सर के भी रोग ठीक हो गये। यहाँ के कोई डॉक्टर साहब मिलना चाहते हैं। मैं उनसे बात करूंगी। क्योंकि इसमें आपको पैसा खर्च करना नहीं है। आप ही की शक्ति जो है वो जागृत हो जाती है और आप अपनी शक्ति से अपने को ठीक कर लेते हैं और आप दूसरों को भी ठीक कर सकते हैं। हालांकि डॉक्टर लोग कभी कभी घबराते हैं 19 कि इससे फिर हमारी प्रॅक्टिस क्या होगी? उसके लिये बहुत से अमीर लोग बैठे हैं। अभी सहजयोग में आये | ही कितने लोग हैं! तो इस प्रकार आप देख लेंगे कि आप स्वयं ही धन्वंतरी माने एक एक वैद्यजी हो जाते हैं। खुद ही बगैर किसी दवा के, किसी चीज़ के आप ठीक हो सकते हैं। इसमें आपको एक तरह से बड़ी ताज़गी लगेगी । अब हमारी उमर तो आप जानते हैं कि बहुत हम बूढे हैं। बहुत ज़्यादा। शायद यहाँ हमारे उमर के बहुत ही कम लोग होंगे। लेकिन रोज हमारा सफर चलते रहता है। रोज ये होता है| अब बोल बोल के कभी थोड़ा सा गला बिगड़ जाता है। लेकिन हम देखते हैं कि काफ़ी अच्छे तरीके से हमारी जिन्दगी बीत रही है। इसी प्रकार आप सब की भी बितेगी । और ये जो बेकार की बीमारियाँ हैं इससे आपको छुट्टी मिल जायेगी। शरीर ठीक हो गया, मन का स्वास्थ्य मिल गया और बहत से लोग ठीक हो गये। आपकी भावनायें भी ठीक हो गयी। और आप केवल सत्य को उंगलियों पर जानियेगा। आप जानियेगा कि आपके कौनसे चक्र पकड़े हैं, किसी के कौन से चक्र पकड़े है। कौन क्या है? दूसरी बात, कि आप अपने को माफ कर दीजिये, उसी प्रकार आप सब को माफ कर दीजिये। बहरहाल आप माफ करें या नहीं करें आप करते क्या है? भी नहीं। कुछ सिर्फ दिमागी जमा-खर्च है। हर समय ऐसे आदमी के बारे में सोचना जिसने आपको तकलीफ दी, इससे आप अपने को तकलीफ दे रहे हैं। वो तो बहरहाल आराम से बैठे हैं। इसलिये आप चाहते हैं कि अपने को तकलीफ दें। मन ही मन ये सोच के की 'उसने मुझे ये सताया, वो सताया' सताया होगा खत्म कर दीजिये । उसको याद करने से न तो आप उसको ठीक कर सकते हैं किंतु आप जरूर गलत हाथों में खेल रहे हैं। इसलिये सबको एकसाथ आप माफ कर दीजिये। जब ये चक्र पकड़ता है तो कुण्डलिनी का चढ़ना मुश्किल हो जाता है और जब ये चक्र पकड़ता है तो असम्भव है। ये चक्र जो है ये माफ़ न करने से होता है। आप सबको एकसाथ माफ़ करिये। ये नहीं कहने का कि ' इस आदमी को मैं नहीं माफ करूंगा। नाम भी लेना बेकार है इसका। जब आपका ये चक्र पकड़ता है, तब जान लेना चाहिये कि ये चक्र ऐसा है। बिल्कुल पक्का ऐसा। जब आप माफ कर देते हों तो यूं खुल जाता है। अभी आप देखियेगा कि अगर मन में आप कहें कि, 'मैंने सबको एकसाथ माफ कर दिया।' तो देखिये कितना हल्का होता है। नहीं तो फिर इस क्षण, जब कि आप अपने आत्मसाक्षात्कार की ओर सब से महत्त्वपूर्ण क्षण के लिये आये हैं, तो कैसे प्राप्त करियेगा। इतनी बड़ी चीज़ को आप इतनी छोटी सी एक गलती के लिये क्या छोड़ दीजियेगा। इसलिये कृपया आप सबको...सबको...सबको माफ कर दीजियेगा, अपने मन से और खुश हो जाईये । प्रसन्नचित्त होना चाहिये। प्रसन्नचित्त आदमी परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। हमें तो परमात्मा के दरबार में जाना है, तो क्या रोनी सूरत ले के जायेंगे। तो वहाँ पर तो हमें खुश खुश रहना चाहिये। तो इसी खुशी में हम इसे प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि इससे जो आनन्द हमें प्राप्त होगा उसके जैसे कोई स्वागत की तैयारियाँ हमारे मन में होनी चाहिये। और आपसे मैं बताना चाहती हैँ, कि आप सब में ये शक्तियाँ हैं, सब में पार होने की क्षमता है, सब में ही ये चीज़ पाने का पूर्ण अधिकार है, जन्मसिद्ध। अब एक 20 और बात है कि जबरदस्ती किसी पर नहीं हो सकती। किसी को पार नहीं होना है वो कृपया बाहर चले वो जायें या हट जायें। रही बात ये कि बहुत से लोगों ने लिखा है, कि कुण्डलिनी के जागरण से ये होता है, होता है, हमने तो कहीं देखा नहीं । कोई भी ऐसी बात नहीं होती कुण्डलिनी की जागरण से। हाँ, अगर कोई आपको बाधा वगैरा हो तो कभी-कभी मैंने देखा कि नाचने, कूदने लगते हैं, कभी-कभी, बहुत कम। इस लेक्चर में जितना भी कहना था, कह दिया। पर इससे सबकुछ तो नहीं हुआ ना! अभी बहुत कुछ है और इसके लिये हमारी टेप्स वरगैरा वहाँ आप लोग आईये। ये नहीं कि सहजयोग आज कर दिया और खत्म ! हैं और इसका जो फॉलोऑन होगा ऐसे नहीं। आज तो सिर्फ आपका अंकुरित होना है। उसके बाद आपको वृक्ष बनना है। हजारों वृक्ष खड़े करने हैं। इसलिये आपको इसमें मन से आगे बढ़ना चाहिये। उसमें किसी को पैसा नहीं देना है, कुछ नहीं । एक बार रोज रात सोने से पहले पाँच मिनट ध्यान करना होता है और शायद एक बार हप्ते में आपको एकत्रित होना होता है। इससे बहुत बहुत ज्यादा आपको समाधान और इसके ऊपर प्रभुत्व, मास्टरी आ जायेगी। इतना सा टाइम आपको अपने लिये और अपने आत्मसाक्षात्कार के लिये देना होगा। क्योंकि अपने आत्मसाक्षात्कार का पालन करना, इसे महत्त्व देना, उसकी इज्जत करना उसका गौरव समझने के लिये, क्योंकि उसी में आपका भी गौरव छिपा हुआ है। आपका जो गौरव है उसी से ज्ञात होगा। जैसे एक दीप की बाती आप बार - बार ठीक करते रहते हैं और उसे प्रज्वलित करते रहते हैं, इसी तरह से इस कुण्डलिनी की बाती को भी आपको बारबार उठा कर के और ठीक करना होगा। पर जब आप उस दशा में हो जायेंगे जहाँ आपके विकल्प में आप स्वयं ही उस कार्य को कर सकेंगे। लेकिन आप बहकेंगे नहीं। ये नहीं की दूसरों को भला बूरा कहेंगे और कहेंगे कि मैं तुमसे अच्छा हूँ। वो चीज़ खत्म हो जाती है। वो अहंकार खत्म हो जाता है। इसके बाद मुझे पूर्ण आशा है कि आप लोग कहाँ कहाँ से, कौनसे कौनसे गाँव से आये हैं और बहुत दूर दूर से आये हैं इसके लिये मैं बहुत आशीर्वाद देती हूँ आपको। विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो रात को यहाँ आ कर सो गये थे मैंने सुना। इतना प्यार, इतनी समझ जो मिली है, मुझे तो समझ ही नहीं आता कि किसको धन्यवाद दें ! हिन्दुस्तानिओं को पार कराना बहुत आसान है। क्योंकि आप पूर्व जन्म के बड़े कोई लोग रहेंगे कभी, जो इस पुण्यभूमि में आपका जन्म हुआ है। इसमें कोई शक नहीं। आपको तो बिल्कुल मुश्किल नहीं है। क्योंकि वाकई में मैंने देखा है, कि जितना आसान बहुत 21 हिन्दुस्तानिओं को पार कराना है, कहीं नहीं है। अब आपको इतना ही करना है, जैसा मैं बताती हूँ कि आप लोग जो कुर्सी पर बैठे हैं अपने जूते उतार लें। और दोनों पैर अलग रखे। अब आपका राइट हैण्ड मेरी ओर करें। मैं इसलिये राइट और लेफ्ट कहती हैँ कि अपने देश में इसको अलग अलग नाम है इसलिये मैं राइट और लेफ्ट कहती हूँ। चश्मा भी उतार लें। राइट हैण्ड मेरी ओर करें और लेफ्ट हैण्ड जो है वो अपने तालू के ऊपर, तालू, जब हम बच्चे थे तो यहाँ (सिर के ऊपर का भाग) की स्निग्ध हड्डी, उसे फॉन्टनेल बोन एरिया कहते हैं, उस तालू के ऊपर अधांतरी, आप लेफ्ट हैण्ड रखिये, राइट हैण्ड मेरी तरफ। और सर को झुका दीजिये। अब देखिये की उसमें से, आप ही के अन्दर से, ये ब्रह्मरन्ध्र इसे कहते हैं। माने ब्रह्म का रन्ध्र, याने ब्रह्म का छेद जो है उसके अन्दर से ठण्डी या गरम हवा, आप ही के सर के अन्दर से आ रही है क्या। देखिये, सर झुका के देखिये। आपने अपने को माफ नहीं किया, अभी तक आपने दूसरों को भी माफ नहीं किया, तो गरम गरम हवा आयेगी। अब फिर से लेफ्ट हैण्ड मेरी ओर करें और राइट हैण्ड से देखिये। सर झुका के देखिये ठण्डी या गरम हवा आ रही है क्या सर में से। आपको चाहिये की आपका हाथ ऊपर साइड में घुमा कर के देखें क्योंकि कभी किसी को जोर से बाहर की ओर आती है। लेकिन सर को छूना नहीं। सर के ऊपर , अधांतरी, हमारी मराठी भाषा में कहते हैं। अब फिर से राइट हैण्ड हमारी ओर करिये, सर झुका के और देखिये की ठण्डी या गरम हवा तो नहीं आ रही। बाहर से नहीं आ रही। अन्दर से, आपके ही अन्दर से आ रही है। अगर आप माफ कर दें, अपने को और दूसरों को, तो ठण्डी आने लग जायेंगी। बहुत ठण्डी नहीं आती है । जिसको आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी स्पन्द कहा है। स्पन्द। अब दोनों हाथ आकाश की ओर उठा के और सर पीछे झुका के पूछिये कि, 'माँ, ये क्या परम चैतन्य है?' तीन बार पूछिये। 'क्या माँ, यही वो परम चैतन्य है?' मुसलमान हो तो पूछिये, 'रूह है?' ईसाई होंगे तो पूछिये, 'यही होली घोस्ट, कूल ब्रीज है ? ' तीन बार पूछिये। ये परमात्मा की प्रेम की शक्ति है। अब हाथ नीचे लीजिये। हाथ नीचे ले कर दोनों हाथ मेरी ओर करिये । और निर्विचार हो के मुझे देखें। बिल्कुल निर्विचार हो के मेरी ओर देखें। किसी किसी को नीचे से अगर आ रही हो तो उसको ऊपर उठा सकते है, इस तरह। अब जिन जिन लोगों के उंगलियों में या तलवे में, हाथ में या सर से ठण्डी हवा आयी हो, या गरम वो सब लोग दोनों हाथ ऊपर करें। ये तो सारा लखनौ ही पार हो गया। आपको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 22 श्री गणेश की तरह मनुष्य को ही अपनी चित्त साफ करना चाहिये। चित्त को साफ करने के लिये प्रथम ये देखना जरूरी है कि अपना चित्त कहाँ है? अगर आपका चित्त परमात्मा की ओर होगा तो वो शुब्ध है। क्योंकि आपके अन्दर से चैतन्य बह रहा है। श्रीमाताजी, १८.९.१९८८ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in मा पर् প कर wwww. म बि अपना चित्त, इस पेड़ के जैसा, जो पृथ्वी से पूरी तरह जुड़ा है, ऐसा आपको अपनी माँ के साथ जुड़ा रखना चाहिये और पेड़ की ऊँचाई जो है उसकी ओर दुष्टि रखनी चाहिये। ये १२ ऊँचाई जो भी इन पेड़ों ने हासिल की है, वो इसे वातीवरण से लड़कर, झञगड़ कर, बीहर आकर, सर ऊँचा उठाकर की है। जो लोग अपना सिर दुनियाई चीज़ों के लिये, कृत्रिम ं य० चीज़ों के लिये बाह्मयचीजों के लिये झूका लेते हैं, तो वे कैसे उठ सकते हैं? या जो अपना र चित्त इसधटंती माँ से हटा लेते हैं, गो तो मर ही.जाएंगे । प. पू.श्री माताजी, बोर्डी पूजा, १२.२.१९८४. ---------------------- 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-0.txt चैतन्य लहवी सितंबर-अक्टूबर २०१५ हिन्दी 38858665600 56000000SSA 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-2.txt इस अंक में जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये ...४ दिवाली पूजा, पुणे, १ नवंबर १९८६ तीन शक्तियाँ ..९ सेमिनार अँड मिटिंग, दादर, २३ जनवरी १९७५ सत्य की पहचान चैतन्य से है ...१२ सार्वजनिक कार्यक्रम, लखनौ, ९४ दिसंबर १९९५ देवी के सभी अवतरणीं के समय बहुत सी आसुरी शक्तियाँ भी पृथ्वी पर अवतरित हुई और देवी की युद्ध कर के उनकी विनाश करना पड़ा। यह विनाश केवल इसलिये नहीं था कि आसुरी शक्तियों की समाप्त करना है। यह इसलिये था क्योंकि यह शक्तियाँ साधकों एवं सन्तीं का दमन करने तथा उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयत्न करती हैं। प.पू.श्रीमातीजी, जवरात्रि पूजा, २४.१०.१९९३ 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-3.txt बन दिवाली के शुभ अवसर पे हम लोग यहाँ पुण्यपत्तणम् में पधारे हैं। न जाने कितने वर्षों से अपने देश में दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है, दिवाली की जो दीपावली है वो शुरू हो गयी | दिवाली में जो दीप जलाये जाते थे, वो थोड़ी देर में बुझ जाते हैं। फिर अगले साल दूसरे दीप खरीद के उस में तेल डाल कर, उस में बाती लगा कर दीपावली मनायी जाती थी। इस प्रकार हर साल नये नये दीप लाये जाते थे। दीप की विशेषता ये होती थी, कि पहले उसे पानी में डाल के पूरी तरह से भिगो लिया जाता था। फिर सुखा लिया जाता था। जिससे दीप जो है तेल पूरा न पी ले और काफ़ी देर तक वो जले। लेकिन जब से सहजयोग शुरू हुआ है तब से हम लोग हृदय की दिवाली मना रहे हैं। हृदय हमारा दीप है। हृदय में बाती है, शांत है और उसमें प्रेम का तेल डाल कर के और हम लोग दीप जलाते हैं। इस तेल को डालने से पहले इस हृदय में जो कुछ भी खराबियाँ हैं उसे हम पूरी तरह से साफ़ धो कर के सुसज्जित कर लेते हैं। ये प्रेम हृदय में जब स्थित हो जाता है, तब उसको हृदय पूरी तरह से | अपने अन्दर शोषण नहीं कर लेता। जैसे पहले कोई आपको प्रेम देता है, माँ देती है प्रेम, पिताजी देते हैं प्रेम और भी लोग आपको प्रेम देते हैं। उस प्रेम को आप लोग अपने अन्दर शोषित कर लेते हैं। जो प्यार पति से मिला, पत्नी से मिला, वो आपके रोम रोम में छा जाता है और अपने तक ही सीमित रहता है। उसका प्रकाश औरों को नहीं मिलता। एक अगर माँ अपने बच्चे को प्यार करती है, तो वो उस बच्चे तक और उस माँ तक ही सीमित रहता है। कभी 4 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-4.txt जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये पुणे, १ नवंबर १९८६ कभी इसके विपरीत भी परिणाम निकल आते हैं। कोई माँ अगर अपने बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यार करती है तो बच्चा कभी कभी बूरा बर्ताव करता है। उसके व्यवहार में शुष्कता आ सकती है। धृष्टता आ सकती है। वो माँ को तंग कर सकता है। उसका अपमान कर सकता है। या कोई बच्चा अपने माँ के प्रति बहुत ज्यादा जागरूक हो, तो हो सकता है कि उसकी माँ उस पे हावी हो जाये। उसके सर पे सवार हो जाये। इसी प्रकार एक पति -पत्नी में भी जो प्रेम होता है वो अगर संतुलन से हट जाये, लेन-देन में फर्क पड़ जाये, तो उसके अनेक विपरीत परिणाम होते हये देखे गये हैं । लेकिन सहजयोग का जो स्निग्धमय प्रेम है | वो हृदय के इस दीप में भर दिया जाता है तो वो अपने तक सीमित नहीं रहता है। और उसमें जब दीप जल जाता है, जब आत्मा की ज्योत फैल जाती है, तो वो सारे संसार के लिये आलोकित करने का माध्यम है। उसकी ये शक्ति हो जाती है, उस हृदय की, कि वो सारे संसार को आलोकित करें । सारे संसार में प्रकाश फैलायें। सारे संसार का अज्ञान हटायें। सारे संसार में आनन्द फैलायें। यही एक मिट्टी का दीप हर साल तोड़ दिया जाता था, एक समर्थ, ऐसा विशेष दीप बन जाता है, कि कभी भी नहीं बुझता है और इस दीप से अनेक दीप जलते हैं। और वो जो दीप जलाये जाते हैं, कभी नहीं बुझते। ये कौनसी धातु का बनाया | हुआ दीप है, ऐसा अगर कोई पूछे, तो कहा जायेगा, कि ऐसा तो कोई धातु है ही नहीं संसार में जो इस तरह के दीप बनाये। जो जलते रहें और दूसरों को भी आलोकित करते रहे और कभी भी नष्ट न हो। उल्टा अमर हो के सारे संसार में तारांगण बन के चमक उठे। ऐसे अनेक दीप अकेले अकेले इस संसार में आये। 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-5.txt कहीं पर, आपने देखा है, कि बड़े बड़े संत-साधु हो गये। इस महाराष्ट्र भूमि में भी अनेक संत -साधु हो गये। अकेले अकेले कहीं बैठे ह्ये, धीरे-धीरे, धीमे-धीमे जलते रहे । लेकिन वो आज भी तारांगण बन के संसार में छाये हैं। लेकिन वो अकेले दीप थे, दीपावली नहीं थी। अकेले दीप थे। कभी - कभी एक-दूसरे से मिल लेते थे। लेकिन आज हमारी दीपावली है । आप लोग सब वही दीप हैं, जिनकी मैं व्याख्या कर रही हूँ, जिनका मैं वर्णन कर रही हूँ, वही सुन्दर दीप है। जो कि आलोकित हो गये और आलोकित होने के बाद दूसरे अनेक दीप जला रहे हैं। एक दीप से हजारो दीप जल रहे हैं। यही एक तरीका है, जिससे संसार का अंध:कार, अज्ञान सब नष्ट हो सकता है। लेकिन इसके अन्दर एक बात याद रखनी है, कि हम जिस तेल से जल रहे हैं, जिस स्निग्धता से जल रहे हैं, वो प्रेम है। वो निव्व्याज्य प्रेम है। वो निरपेक्ष प्रेम है। वो प्रेम किसी से चिपकता नहीं। वो कोई अभिलाषा नहीं रखता। वो कोई प्रतिकृति नहीं चाहता। वो अविरल इस दीप को जलाये रखता है। अत्यन्त सुन्दरता से। ऐसे दीप की कांति आपके मुखराविंद पे भी छा जाती है। आपकी आँख से ये दीप चमकते हैं। | सहजयोगी की आँखें, आप अगर कभी देखें तो हीरे जैसी चमकती हैं। ऐसे हिे में अपनी ही ज्योत होती है। इसी प्रकार एक सहजयोगी की आँख के अन्दर अपनी ही एक दीपशिखा होती है, जो झिलमिल, झिलमिल चमकती रहती है। ये सब कायापलट हो गया। पत्थर के हृदय में एक ऐसा अनूठा सा दीप जल गया। एक मिट्टी की दीप की जगह एक अविनाशी, अक्षय ऐसा एक दीप जल गया। हृदय जो कि छोटी छोटी बात में रो पड़ता था। जो छोटी छोटी सी हानि से ही ग्लानि प्राप्त होता था। वो हृदय आज एक बलवान दीपक बन गया है। जो कि सुख या दु:ख के थपेडे से नहीं डरता है और ना ही किसी लाभ या हानि की ओर देखता है। उसका कार्य है अंध:कार को दूर करना और बड़ी हिम्मत के साथ। वो इस बात को जानता है कि वो एक विशेष दीप है, एक विशेष रूप में है। 'और वो एक विशेष रूप का मेरे हृदय में दीप जला हुआ है इससे मैं अनेक लोगों का दीप जला सकती हूँ।' उसको ये पूर्ण विश्वास हो गया है। और उस दीप के उजाले में वो अपने भी दोष अगर देख ले, उसे वो छोड़ देता है। उसे एकदम छोड़ देता है। धीरे धीरे उसका भी जीवन अत्यंत प्रकाशमय हो जाता है। और हृदय में बसा हुआ प्रकाश सारे अंग अंग से, उसकी आँख से, उसके मुख से टपकता है। उसका सारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है। और उस प्रकाश से वो आंदोलित हो जाता है। उसके तरंगों में बैठ कर के आनंदित होता है। अपने ही अपने मन में मुस्कुराता हुआ, अपने ही मन को सोचता है कि मैं कितना सुन्दर हो गया हूँ। कितनी सुन्दरता मेरे अन्दर से बह रही है। पहली मर्तबा एक मानव अपने से पूर्णतया संतुष्ट हो जाता है। असंतोष मनुष्य में तब आता है, जब वो अपने संतुष्ट नहीं होता। अगर आप कहे कि आज हमारे पास एक चीज़ नहीं है । इसलिये आप असंतुष्ट हैं। कोई बात नहीं। कल दूसरी चीज़ आ जायेगी। उससे आप असंतुष्ट हो जायेंगे। आप असंतुष्ट ही रहेंगे। संतोष आप जब अपने में संतुष्ट होंगे तो फिर आपको वो बाहर खोजना नहीं पड़ेगा। और ना वो कभी आपको बाहर मिल सकता है। संतोष आपको अपने अन्दर, अपने ही 6. 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-6.txt आत्मा से प्राप्त हो सकता है। ये प्रकाश आज हम लोग देख रहे है कि है। कितना बढ़ गया है। विशेष कर महाराष्ट्र में इसका प्रचार ज़्यादा हुआ और पुणे इस महाराष्ट्र का हृदय है। ये महाराष्ट्र का हृदय है। और इस हृदय में जो आप लोग आये हये हैं, तो आज जाते वक्त अपने साथ बहुत सारा सहजयोगी की आँखे, प्यार लेते जाईये। ये प्यार आपको वो प्रकाश देगा जो चिरंतन तक, अनंत आप अगर कभी देखें तक आपके अन्दर सुन्दरता की लहरें उत्पन्न करता रहेगा। और आपका तो हीरे जैसी चमकती है मार्गदर्शन करता हुआ आपको एक ऐसे आदर्शों तक पहुँचा देगा जिसकी ऐसे हिरे में अपनी ही आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जिसको आप सोच भी नहीं सकते, कि ज्योत होती है। आप ये सब कर सकते हैं। आपने बहुत बड़े बड़े महान लोगों के बारे में सुना होगा। इन सब से कहीं अधिक आप लोग कार्य कर सकते हैं। इनसे कहीं अधिक आसानी से ऊँचे ऊँचे शिखर तक पहुँच सकते हैं। फर्क इतना ही है कि उनकी महत्त्वाकांक्षायें जो थी उससे लड़ते लड़ते, जूझते जूझते वो लोग तंग आ इसी प्रकार एक सहजयोगी की आँख के अन्दर अपनी ही एक गये थे। लेकिन आप अपना रास्ता इतना सुगम, सुरक्षित और आलोकित दीशिखा होती है, पाईयेगा, कि उसमें किसी भी प्रकार की आपको अडचन नहीं। सिर्फ याद जो झिलमिल, झिलमिल रखने की बात एक ही है, कि ये प्रेम का दिया है। ये दीप प्रेम ही से जल चमकती रहती है। सकता है और किसी चीज़ से नहीं। जो भी आप कार्य करते हैं वो आप प्रेम ये सब कायापलट से करें। जब आप किसी को शिक्षा देते हैं, जब आप किसी को सहजयोग के बारे में समझाते है तब ये सोच लेना चाहिये कि क्या मैं इन को इसलिये हो गया। समझा रहा हूँ, कि मुझे इनसे प्रेम है। इनके प्रति प्रेम है और मैं चाहता हूँ कि में पत्थर के हदय जो मैंने पाया वही ये भी पा लें। क्या मैं यही विचार से इनको समझा कुछ एक ऐसा अनूठा सा रहा हूँ। या मैं इसलिये समझा रहा हूँ, कि मैं कुछ ज़्यादा इन लोगों के बारे में जान गया हूँ। और मैं काफ़ी अच्छे से बातचीत कर सकता हूँ और मैं इन दीप जल गया। एक मिट्टी की दीप की जगह सब लोगों के बुद्धि पर छा सकता हूँ। तो इस तरह की बात सोच कर अगर कोई सहजयोग चाहे तो फैलाये, तो नहीं हो सकता। धीरे धीरे, आराम से, एक अविनाशी, अक्षय जैसे कि चन्द्रमा की चाँदनी धीरे धीरे फैलती है और उस पे सभी चीज़ एक ऐसा एक दीप जल गया। स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगती है। इसी प्रकार आपका बर्ताव दूसरों के प्रति होना चाहिये। उसमें किसी भी प्रकार का आक्रमण, किसी भी तरह | की भीरुता, दिखने की जरूरत नहीं। हाँ, एक बात है, इस दीप को संजोना चाहिये, सम्हालना चाहिये। उसकी ओर ऐसी नज़र होनी चाहिये, जैसे 7 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-7.txt एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चीज़ को हमने पाया हुआ है। और ये अभी अगर बाल्य स्वरूप में है तो इसे धीरे धीरे हमें आगे बढ़ाना है। उसके प्रति बड़ा आदर और एक तरह की प्रतिष्ठा होनी चाहिये, कि आज हम सहजयोगी हैं। अगर आप सहजयोगी हैं तो हमारे अन्दर विशेष गुण होने चाहिये। इसलिये नहीं, कि हम गलत काम करेंगे तो हमें कोई दुर्घटना उठानी पड़ेगी। या हमें कोई नुकसान हो जायेगा | या परमात्मा हमें कोई किसी तरह का दण्ड देगा । इस भय से सहजयोग नहीं करना है। आनन्द से और प्रेम से सहजयोग में उतरना है। एक मजे की चीज़ है कि हमें माँ ने पानी में तैरना सिखा दिया है और अब हम इस पानी में तैर सकते हैं। डूबेंगे नहीं । कोई भी भय, आशंका मन में न रखते हये, हमें उस प्रेम को जानना चाहिये । जानना चाहिये कि ये क्यों हमारा हृदय है। एक मुठ्ठीभर का हृदय है। इस हृदय में ये सागर कहाँ से आया। अजीब सी चीज़़ है, कि देखा जाता है कि इस छोटे सी मुट्ठी में पूरा सागर सा, पता नहीं कहाँ से समाये चला जा रहा है। और जितना जितना उसके सूक्ष्म में आप उतरेंगे तो देखेंगे कि इस छोटे से हृदय में कितनी सुन्दर भावनायें दूसरों के प्रति, समाज के प्रति में आयेंगी। इतनी उदात्त भावनायें, इतनी महान भावनायें कि जिनसे संसार का हम लोग पूरी तरह से उद्धार कर सकते हैं। लोग आ गये हैं । मैं देखती हूँ की सहजयोग में बहुत बहुत ज़्यादा लोग भी आ जायेंगे। और आना चाहिये। लेकिन हर आदमी को एक विशेष रूप धारण कर के, एक विशेष समझ रख के आना चाहिये। ये नहीं कि सब लोग बैठे हैं तो हम चले गये सहजयोग में। आप एक विशेष हैं। और आप जो सहजयोग में आये हैं, आपका कोई न कोई इसमें विशेष काम होगा। अभी देखिये एक छोटी सी चीज़ खराब हो जाने से ही ये यंत्र नहीं चलता था। इस का हर एक छोटा छोटा पुर्जा भी कितना महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार हर इन्सान जो भी सहजयोग में आता है, वो स्त्री हो या पुरूष हो, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। और हर एक को चाहिये कि हम अपनी तबियत ऐसी रखें जिससे हमारी जो ये यंत्रणा है, जो परमात्मा ने यंत्रणा बनायी है, वो ठीक से चल पड़े। हमारे जीवन की ओर ध्यान देना चाहिये कि हमने जीवन में जो गलतियाँ की है और जिस तरह से अपने अन्दर षडरिपु एकत्रित किये थे , वो एक एक कर के छोड़ देना चाहिये। वो बहुत ही आसान है। क्योंकि आप अपने अन्दर बसे हये साँप को देख सकते हैं। जब तक प्रकाश नहीं था आपने हाथ में साँप पकड़ लिया था । जैसे ही प्रकाश आ गया साँप गिर जाता है। आप जैसे ही अपने को देखना शुरू कर देंगे, इसी सुन्दर प्रकाश में आप वो भी देख सकते हैं कि जो आपकी सुन्दरता है और वो भी देख सकते हैं जो आपकी कुरूपता है। उस कुरूपता को एकदम से ही छोड़ देना चाहिये। आज छोड़ेंगे, फिर कल छोड़ेंगे, फिर कोशिश करेंगे, ऐसे आधे लोगों से ये काम नहीं होने वाला। 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-8.txt तीन शक्तियाँ दादर, २३ जनवरी १९७५ जैसे कि माली बाग लगा देता है, और उस पे प्रेम से सिंचन करता है और उसके बाद देखते रहता है कि बाग में कितने फूल खिले हैं। वो देखने पर जो आनन्द उस माली को आता है उसका क्या वर्णन हो सकता है! कृषि नाम का अर्थ होता है, कृषि से, कृषि आप जानते है खेती। कृष्ण के समय में खेती ही थी और ख्रिस्त के समय में इसे फूल से सींचा गया था। इस संसार की भूमि को कितने ही अवतारों ने पहले संवारा हुआ है। आज कलियुग में ये समय आ गया है कि उस खेती की बहार देखूं। जिसकी फूलों का सुगन्ध उठायें। वो जो आपके हाथ में से चैतन्य लहरियाँ बह रही हैं ये वही सुगन्ध है, जिसके सहारे सारा संसार, सारी सृष्टि, सारी प्रकृति चल रही है। लेकिन आज आप वो चुने हुये फूल हैं जो युगों से चुने गये हैं कि आज आपकी लहरें और आपके अन्दर की ये सुगन्ध संसार में फैल कर के इस कीचड़ से, मायासागर से सारी ही गन्दगी को खत्म कर दे। देखने में ऐसा लगता है कि ये कैसे हो सकता है? माताजी इस बहुत बड़ी बात कह रही है। लेकिन ये एक सिलसिला है, और जब मंजिल सामने आ गयी तो ये सोचना कि मंजिल क्यों आ गयी? कैसे आ गयी? कैसे हो सकता है? जब आप चल रहे थे तो क्या मंजिल नहीं आयी! जब आप खोज रहे थे तो क्या आपका स्थान मिलेगा नहीं? लेकिन जब वो मिल गया है तो इससे शंका की बात क्यों खड़ी होनी चाहिए । आज मैं आपको तीन शक्तियों के बारे में बताना चाहती हूँ कि परमेश्वर एक ही है। वो दो नहीं, अनेक है। मैं एक ही हूँ। अनेक नहीं हूँ। लेकिन आपकी माताजी हूँ, मेरे पति की पत्नी हूँ, मेरे बच्चों की माँ हूँ, आपकी अलौकिक माँ हूँ, उनकी लौकिक माँ हूँ। इसी तरह परमात्मा के भी तीन अंदाज है, थ्री अॅसपेक्ट्स। पहले अंदाज से वो साक्षिस्वरूप हैं। वो साक्षी हैं अपने सत्य के खेल से, जिसे वो देखते हैं। जिसे हम ईश्वर कहते हैं। और उनकी शक्ति को हम ईश्वरीय शक्ति कहते हैं या ईश्वरी कहते हैं। हमारे सहजयोग में इसे हम महाकाली की शक्ति कहते हैं। जिस वक्त उनका ये साक्षी स्वरूपत्व खत्म होता है, माने जब वो और कुछ देखना नहीं चाहते, वो नापसन्द करते हैं, जब वो अपनी आँख मूँद लेते हैं अपनी शक्ति के खेल से, उस वक्त सब चीज़ खत्म हो जाती है । इसलिये उस शक्ति को हम लोग संहारक शक्ति कहते हैं। असल में संहारक नहीं है। लेकिन वो सारे संसार के कार्य का नियोजन करती है और उसे खत्म करती है। दूसरी शक्ति जो परमात्मा उपयोग में लाते हैं, वो है उनकी त्रिगुणात्मक शक्ति, जिससे वो सारे संसार 9. 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-9.txt की रचना करते हैं। जिसमें बड़े बड़े ग्रह- तारे होते हैं, जिससे वो पृथ्वी की एक परम पवित्र वस्तु तैयार होती है। इस अवस्था में परमात्मा को हिरण्यगर्भ कहते हैं और उनकी पत्नी को हिरण्यगर्भिणी कहते हैं। हमारे सहजयोग में इसको महासरस्वती कहते हैं। तीसरी परमात्मा की जो शक्ति है वो विराट स्वरूप है, विराट शक्ति है। जिस शक्ति के द्वारा संसार में जीव पैदा होते हैं। उनकी उत्क्रांति याने इवोल्यूशन होता है। जानवर से मानव बनता है और मानव से अति मानव बनता है और अति मानव से परमात्मा बनता है। इस विराट् शक्ति को सहजयोग में हम लोग महालक्ष्मी कहते हैं । इस तरह से संसार में तीन शक्तियाँ हैं जो परमेश्वर अपनी आभा को फैलाते हैं । पहली शक्ति जिसे ईश्वरी शक्ति कहलाते है, दुसरी हिरण्यगर्भिणी और तिसरी विराटांगना। सहजयोग कार्य जो है वो विराट का कार्य है। मनुष्य के अन्दर भी परमात्मा ने तीनों ही शक्तियाँ दी हैं। एक शक्ति से मनुष्य जो कुछ भी मानता है, (अस्पष्ट) करता है वो महाकाली की शक्ति है। एक शक्ति से भविष्य के लिये वो नियोजन करता है, प्लॅनिंग करता है, सोचता-विचारता है वो महासरस्वती की शक्ति है। और जिस शक्ति के द्वारा वो उत्क्रान्ति पाता है, इवॉल्व्ह होता है वो महालक्ष्मी की शक्ति है। इन तीनों शक्तिओं का मिलाप विराट में, उसके सहस्त्रार में है। यही अधिकृत है। उसके जैसे मनुष्य को बनाने की पूर्ण व्यवस्था परमेश्वर ने की है। महालक्ष्मी शक्ति प्राणिमात्रों तक तो अपना कार्य सुव्यवस्थित करती है। वो इतने चयन करती है, चॉइस करती है और ठीक लोगों को, ठीक जानवरों को एक हद तक इस (अस्पष्ट) पहुँचा देती है। पर मनुष्य की दशा पर आने पर उसको पूर्णतया स्वतंत्रता मिलती है कि वो अपनी चेतना में, अपनी अवेअरनेस में, अपनी ही उत्क्रान्ति को खोजें और जाने की उसकी उत्क्रान्ति कैसे हो गयी ? न तो जानवर अपनी उत्क्रान्ति की बात सोचता है, लेकिन मनुष्य ही ये सोचता है और उसे देखता भी है और जान भी सकता है, जब उसके हाथ से ये वाइब्रेशन्स आने लगते हैं। मंजिल तो आ गयी है। आप लोग आँगन में आ खड़े हैं। कितना सरल, सहज है सबकुछ, किन्तु मनुष्य ने ही अपने को बड़ा कॉम्प्लिकेटेड कर दिया है, बहत ही ज़्यादा। मनुष्य के लिये बहत कठिन हो जाता है। धर्म और कुछ नहीं है सीधा साधा बिल्कुल भोला है। इनोसन्स, लेकिन इतनी खोपडिओं के ऊपर खड़े हो कर के इनोसनन्स की बात कैसे करें ? इसलिये छोटे बच्चे बहुत जल्दी पार हो जाते हैं। क्योंकि उनमें भोलापन है। कलियुग में बहुत सी बातें हो रही हैं। जैसे ही विराट शक्ति बहुत प्रबलित हो चुकी है उसी वक्त में पाताल लोग से यहाँ पर की वेस्ट मटेरिअल जैसे अधोगति को गये हुये बहत से पुरूष जिनको कि हम लोग राक्षस कहते है उनकी ही शक्तियाँ बलवत्तर हो रही हैं। दोनों शक्तियों का मुकाबला हो रहा है। एक शक्ति मृत है और एक शक्ति जीवंत है।....(अस्पष्ट) कभी भी जीवंत शक्ति से शक्तिशाली नहीं हो सकती। क्योंकि जीवंत शक्ति अत्यंत सेन्सिटिव होती है, संवेदनशील होती है। इसी वजह से उनका पनपना बहुत कठिन है। प्लास्टिक का फूल कभी भी असली फूल से सुन्दर, महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है। प्लास्टिक के 10 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-10.txt फूल हजारों बनाये जा सकते हैं, जिवंत फूल दो- चार ही खिलते हैं । इसलिये जो लोग सहजयोग में पनपे हैं, सहजयोग में जिन्होंने जो कुछ पाया है वो लोग भी मुरझा जाते हैं, फिर पनपते हैं, फिर मुरझा जाते हैं। एक माँ जैसे अपने आँचल में अपने बच्चे को बड़़े दुलार से सम्भालती है, उसी तरह से सहजयोग पालता है, पोसता है। लेकिन बच्चे भी एक खुद शक्ति है कि अपनी शक्ति को जानें । सहजयोग के बाद मनुष्य उस दशा तक पहुँच सकता है, इस थोड़े से टाइम में पहुँच सकता है, जिसके लिये बड़े बड़े ऋषि-मुनियों को हज़ारों जन्म लेने पड़े और हज़ारों वर्षों की, तपों की, युगों की साधना करनी पड़ी। हम लोगों के परम भाग्य कि हम एक विशेष युग में पैदा हये हैं। सामान्य ही लोग हैं, असामान्य कार्य के लिये पैदा हये हैं। असामान्य परदे के पीछे ही है, सब आपकी मदद कर रहे हैं। लेकिन सामान्य को अपने विराट में चुना हुआ है अपने सहस्रार को बढ़ाने क्योंकि सामान्य में शक्ति है असामान्य होने की । किंतु सहजयोग में सत्य पे विचार है कि अन्दर में भोलापन होना चाहिये और शान्ति चाहिये। शांति, संतोष है। किसी न किसी को कोई न कोई दु:ख है, कोई विशेष परेशानी है, उलझन है । लंडन में में हो एक साहब कहने लगे, 'विएतनाम रहा है। आप ये क्या बात कर रहे हैं?' मैंने कहा कि, इतना युद्ध अपने 'तुम क्या विएतनाम जा रहे हो ? वहाँ के प्राइम मिनिस्टर हो ? तुमको इतनी क्यों परेशानी ? तुम अन्दर का देखो।' छोटी छोटी चीज़ों से अपने मन को भ्रम में ले आते हैं। एक आँख में अगर तिनका भी चला जाये तो आँख खराब हो सकती है। उसका कोई महत्त्व नहीं है। शांत, देखिये, वो समय आ गया है कि परमेश्वर का राज्य इतना शांत है, संतोष है। सहजयोगियों को पहले अन्य लोगों से ज़्यादा शांत रहना है। संतोष से भरे रहना है और अपने आनन्द से सारे संसार को भरते रहे । अन्दर का चमत्कार सहजयोग दिखायेगा। बहुत जोरों में चर्वण चला है, मंथन चला है। आप में से कोई लोग नये भी आये हैं यहाँ पर, कोई बहुत पुराने हैं। कोई नये खट् से कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं और कोई पुराने है यहीं बैठे हैं। नितांत परमात्मा की असीम कृपा पर जिसको विश्वास है वो | जानता है कि सारी सृष्टि का रचयिता वही है और सबको पार लगाने वाला वही है। वो एक क्षण में ही सहजयोग में पार हो के जम जाता है। और एक बार वो जम जाता है तो कभी भी निकलता नहीं। अपने विश्वास को दूढ़ करो क्योंकि आपके हाथ से वो चीज़ बह रही है। आपने इसके चमत्कार देखे हुये हैं। अपने पर विश्वास करें । अपने को जानें । बहुत कुछ और भी हो रहा है। बहुत से बच्चे, छोटे छोटे बच्चे मैंने देखे है जिनमें बहुत बड़े बड़े जीव, जो कि आपके बापदादा ही हैं वो जन्म ले रहे हैं आपकी मदद करने के लिये। १०-१२ साल के अन्दर बहुत बड़े बड़े लोग इस संसार में आ जायेंगे। उनकी स्वागत की तैय्यारियाँ हो रही है। उनको पहले सूली पर चढ़ाया गया था, उनको मारा-पीटा गया था। वो सब आज जन्म लेने वाले हैं। एक नवीन युग संसार में आने वाला है। सारे धर्मों का आशीर्वाद और आशा कि मनुष्य परमात्मा तक पहुँचेगा। हम लोग थोड़ी देर ध्यान में जाएंगे। 11 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-11.txt 'सत्य की पहचान चतन्य सा है. लखनौ, १४ दिसंबर १९९५ सब से पहले ये जान लेना चाहिये, कि सत्य है वो अपनी जगह। उसको हम बदल नहीं सकते, उसका हम वर्णन नहीं कर सकते। वो अपनी जगह स्थिर है। हमें ये भी करना है कि हम उस सत्य सृष्टि को प्राप्त करें। परमात्मा ने हमारे अन्दर ही सारी व्यवस्था की हुई है। इस सत्य को जानना अत्यावश्यक है। आज मनुष्य हम देख रहे हैं कि भ्रमित है। इस कलियुग में बहुता चला जा रहा है। उसकी समझ में नहीं आता कि पुराने मूल्य क्या हो गये और हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये और आगे का हमारा भविष्य क्या होगा। जब वो सोचने लगता है कि हमारे भविष्य का क्या है? क्या इसका इंतजाम है? हमारे बच्चों के लिये कौनसी व्यवस्था है ? तब वो जान लेता है, कि जो आज की व्यवस्था है, मनुष्य आज तक जिस स्थिति में पहुँचा है वो स्थिति संपूर्ण स्थिति नहीं क्योंकि वो एकमेव सत्य को नहीं जानती। केवल सत्य को नहीं जानती। हर एक अपनी मस्तिष्क जो सत्य आता है, उसे समझ लेता है। दो प्रकार के विचार हैं। एक तो विचार ये है कि हम अपने मस्तिष्क से जो मान ले, जिस चीज़ को हम ठीक समझ ले, उसी को हम मान लेते हैं। लेकिन बुद्धि से सोची हुई, बुद्धि पुरस्सर चीज़ सीमित है। कोई सोचता है, कि ये अच्छा है, तो कोई सोचता है कि वो अच्छा है। और ये ले कर के सब लोग आपस में झगड़ा कर रहे हैं। दूसरों की बात सुनने से पहले अपनी ही बात कहते हैं और इसी प्रकार पूरी समय कश्मकश चल रही है। अब रही बात उन लोगों की जो कोई न कोई बात को अंधतापूर्वक मान रही है, सोच के कि अब कोई इलाज ही नहीं है। चलो यही कर लेते हैं।' वो भी अंधता पूर्वक मानी हुई बातें भी किसी काम की 12 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-12.txt घ नहीं ये ज्ञात हो जाता है। फिर वो भी मुडता है इस ओर कि, 'सत्य क्या है भाई ? हमने तो इतनी देर तक ये ये काम किये, हमें तो कुछ लाभ नहीं हुआ। तो कोई सत्य नाम की चीज़ है या नहीं?' यही साधक, यही असली साधक है। जो समझ गया है, कि इस बुद्धि पुरस्सर जो हमने न्याय दिये, जो हमने अपने अन्दर विचार कायम किये थे , वो गलत हैं। गलत साबित हये। उससे हमें कोई फायदा नहीं होने वाला और दूसरा है कि जो सोचता है कि इतने सालों तक हमने आँखें बाँध कर के जो हमने काम किये वो काम ही कोई लाभदायक हैं। अब सत्य क्या है ? हालांकि मैं जो आपको बताऊँ उसे आपने फिर से अंधों जैसे मान नहीं लेना चाहिये। क्योंकि वही बात हो जायेगी जो और लोग कुछ कहते हैं और आप मान लेते हैं। किन्तु अगर इसकी प्रचीति आ जाये, उसका अनुभव आ जाये और अगर आप नहीं मानें तो इसका मतलब ये है कि आपने अपने साथ इमानदारी नहीं रखी। क्योंकि इसी में आपका लाभ है। इसी से आप अपने घर-गृहस्थी का, अपने समाज का, अपने देश का और सारे संसार का हित साध्य कर सकते हैं। एक व्यक्ति में ये चीज़ मिलेगी, एक इन्सान में ये चीज़ मिलेगी और वो व्यष्टि माने समष्टि अर्थात् सामूहिकता में फैल जायेगी। 13 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-13.txt हमें ये सुन के बहुत खुशी हुई कि यू.पी. में हर एक गाँव से एक, एक इन्सान आया और वो सहजयोग की ज्योत वहाँ ले गया। मैं यहाँ की बहू हूँ। मैं यहाँ शादी हो के दूल्हन बन के आयी थी। मैं सोच भी नहीं सकती, कि इस यू.पी. में सहज में इतने लोग आ जायेंगे। मुझे तो बहुत ही आश्चर्य हो रहा था कि ये कैसे हो सकता है! यहाँ तो लोग इतने अंधश्रद्धा से पीड़ित है और कुछ लोग इतने मग्नूर है, इसके बीच के ये जो चीज़ के है सहज इसे कैसे प्राप्त करेंगे? पर आज सब को देख बड़ा आनन्द हुआ। न जाने कैसे आप लोग इस स्थिति में आये, कि आप सहज को प्राप्त ह्ये। मैं सोचती हूँ कि पूर्वजन्म के आपके बड़े पुण्यकर्म है और पुण्यकर्म से ही ये चीज़ प्राप्त होती हैं। एक बड़ी पुरानी किताब है, भृगु मुनि ने लिखी हुई, नाड़ी ग्रंथ, उस में उन्होंने लिखा, कि जो लोग आज गिरिकंदरों में परमेश्वर को खोज रहे हैं, उसे प्राप्त करेंगे कलियुग में और जब वो कलियुग में उसे प्राप्त करेंगे तब वो गृहस्थी में बैठे ह्ये है। वही बात आज सिद्ध हो रही है। ये आपके पूर्वजन्म के सारे जो कुछ भी महान पुण्य थे वही फलित हुये हैं। नहीं तो मेरे बस की बात नहीं थी। जिस तरह से आज आप लोग एकत्रित हये हैं वो देख कर के बहुत आश्चर्यचकित हो रही हूँ। अब रही बात कि सत्य क्या है, ये मैं आपको बताऊँ। सत्य ये है कि आपके शरीर, बुद्धि मन, आपके संस्कार, कुसंस्कार और आपका अहंकार आदि कोई भी उपाधियाँ हैं आपके अन्दर , ये सारी उपाधियाँ सब व्यर्थ हैं , झूठी हैं। हृदय से जो यहाँ सजावट की है, बहुत ही सुन्दर! ये सब पूर्व जहाँ से आये हैं उस धरती माता को सोचो। यहाँ पर तो खेती बहुत होती है और ये खेतीप्रधान उत्तर प्रदेश है। ये खेती जो कराती हैं, ये हमारी जमीन, हमारी माँ, ये पृथ्वी माता हमें ये सब चीजें सहज में ही दे देती है। एक बीज को हम बो दे तो इसमें सहज में ही फूल आ जाते हैं। ये ऋतूओं को बदलने वाली कौनसी शक्ति है। तो ये सारे सृष्टि में चारों तरफ फैली हुई ये जो शक्ति है, यही शक्ति जिसे की हम ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं या फिर इसे हम रूह कहते हैं। इसे ही हम परम चैतन्य कहते हैं। ये शक्ति चैतन्यमय है। ये सोचती है, समझती है, सृजन करती है, सारे कार्यों को करती है, हमारे | हृदय की धड़कन भी यही चलाती है। पर सब से अधिक इस शक्ति की जो विशेषता है, वो ये है कि वो प्रेमभरी है। इसमें सिर्फ प्रेम है। ये सारा कार्य प्रेम से करती है। अब मैं कहँगी सत्य और प्रेम में कोई अन्तर नहीं। अगर समझ लीजिये कि आप किसी से प्रेम करते हैं, तो आप उस व्यक्ति के बारे में पूरा पूरा जान लेते हैं। पूरा सत्य आप जान लेते हैं। इसी प्रकार प्रेम और सत्य दोनों एक ही चीज़ है। और जब आप सत्य को प्राप्त करते हैं, तभी आप मन में शांति को स्थापित करते हैं । शांति भी इस सत्य से दर्शन से ही होती है। तो ये सत्य जाज्वल्य नहीं है। इसमें भड़क नहीं है। इस में कोई ऐसी तड़पाने की चीज़ नहीं है। बस ये शांत रस, शांतमय, आनन्ददायी है और ये सब प्राप्त करने की 14 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-14.txt आपकी क्षमता है। आपकी लियाकत है कि आप इसे प्राप्त करें। कारण पूर्वजन्म के अनेक क्मं के पुण्य लाभ से ही आज आप यहाँ पहुँचे हैं और ये आपका हक बनता है कि इस योग को आप प्राप्त करें। जब आप इस योग को आप प्राप्त करेंगे, पहले तो आपको पहली मर्तबा एहसास होगा, ये आप जानेंगे, आपको प्रचीति होगी, अनुभव होगा आपकी उँगलियों के ऊपर ये ठण्डी ठण्डी हवा सी चलती है। ये बड़ी सुखद ऐसी ठण्डी हवा है। आदि शंकराचार्य ने इसे 'सलिलं, सलिलं' कहा है। ईसामसीहा ने इसे 'कूल ब्रीज ऑफ द होली घोस्ट' कहा है। महम्मद साहब ने इसे 'रूह' कहा है। नानक साहब ने इसे 'अलख निरंजन' कहा है। आदि अनेक अनेक विशेषणों से अलंकृत किया गया है। इसको सजाया गया है। पर उनकी बात सब तक पहुँचने के लिये जरूरी था कि सब लोग भी किसी हद तक पहुँच जायें, इसे महसूस करें। हमें अगर कोई लखनौ के बारे में बतायें, कि लखनौ ऐसा है, लखनौ वैसा है, तो भाई, हमें लखनौ ले जाये तभी तो हम समझें कि लखनौ क्या है ? इसी प्रकार कोई भी बात आप इस महान शक्ति की तरह वो सारी ही बात बात है। और बात करते करते आदमी ऊब जाता है और सोचता है, कि ये क्या बात हो रही है। इसका तो कोई अन्त ही नहीं । इससे कोई मिलता जुलता तो नहीं और पूरी समय एक मनोरंजन सा हो जाता है। काम खत्म ! इसके लिये जो शक्ति हमारे अन्दर परमात्मा ने स्थापित की है उसे कुण्डलिनी कहते हैं। जितना इस पर कार्य हमारे इस महान भारतवर्ष में हुआ है और कहीं नहीं हुआ। हाँ, बाहर बहुत से द्रष्टा हो गये जिन्होंने इसके बारे में लिखा है, ये बात सच है। लेकिन जितना हमारे देश में इसको प्लावित किया गया उतना कहीं भी हुआ नहीं। क्योंकि हमारे देश के लोग शुरू से ही आध्यात्मिक है। और हमेशा जानना चाहा उन्होंने कि हम हैं क्या? हमारी हैसियत क्या है? शख्सियत क्या है? हमारा व्यक्तित्व क्या है? ये हमेशा जानने की हिन्दुस्तानिओं ने जानने की चेष्टा की है। अनादि काल से भारतीय लोग इसकी खोज में पड़े हैं। और जंगलों में, गिरिकंदरों में जा कर के खोजते रहे हैं, कि 'मैं कौन हूँ, मैं क्या हूँ?' और ये जो खोज थी आज फलीभूत हो रही है कि हज़ारों की तादाद में हज़ारों लोग इसको प्राप्त कर रहे हैं और आप भी इसे प्राप्त करेंगे। सबसे तो पहले कुण्डलिनी का जागरण होता है तो बिल्कुल सहज तरीके से होता है और बीच का जो मध्य पथ है सुषुम्ना, उससे गुजरते हुये ब्रह्मरन्ध्र को छेदती है। आपको इस मामले में बताया गया है। अपने अन्दर जो तीन नाड़ियाँ विशेष हैं, उसमें से जो मध्य नाड़ी है, उसी नाड़ी के मार्ग से कुण्डलिनी का | जागरण होता है। विशेषत: सब चीज़ जो दुनिया की है वो जमीन की तरफ़ दौड़ती है, सिर्फ आग ऐसी चीज़ है जो ऊपर की तरफ़ उठती है। पर ये एकदम शांत आग है। एकदम शांत। इस आग में शांति बनी हुई है। क्योंकि ये बड़ा भारी परमात्मा का चमत्कार है। और जब ये ऊपर चढ़ती है तो अपने आप चक्र खुलते हैं। और आपको इसमें कुछ करने का नहीं। सहज आप जब बीज को लगाते हैं तो क्या आप इस पृथ्वी माता को पैसा देते हैं? उसको कोई 15 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-15.txt नमस्कार करते हैं? वो तो उनका धर्म है, कि कोई भी चीज़ जो उनके उदर में आयें उसका पनपा दें और ये धर्म बीज में भी है, कि वो पनप जाता है। वो भी अंकुरित हो जाता है, अपने आप| इसी प्रकार अपने अन्दर भी, सबके अन्दर भी। किसी भी जाति, किसी भी धर्म, किसी भी देश के लोगों में ये नहीं कह सकते की कुण्डलिनी नहीं है। अब ६५ देशों में हम कार्य कर रहे हैं। और बड़ा आश्चर्य है कि रशिया में जैसे आप लोग बैठे हैं ऐसे ही लोग वहाँ एक-एक गाँव में, पता नहीं इन लोगों ने कभी भगवान का नाम नहीं सुना। इनको तो किसी भगवान का तो क्या, ऐसे आदमी का भी नाम लेना मना था जो भगवान की बात करता था। लेकिन मेरे ख्याल से एकदम साफ़ उनके व्यक्तित्त्व की पाटी थी जिस पर सहजयोग बहुत जल्दी चढ़ गया । और इतनी जल्दी चढ़ गया और हजारों की तादाद में। और आप लोगों को देख कर इसलिये आश्चर्य होता है, कि पहले मैं यहाँ देखती थी कि उनको मजा किस चीज़ में आता है । बड़े हैरानी की बात है कि जिसमें उनको मज़ा आता था वो सब छोड़छाड़ अब सहजयोग में सब उतर आयें। और वो जो मज़ा आने की चीज़ें थी वो सब स्वयं को नष्ट करने वाली थी । आज अमेरिका में यही हाल है। वो लोग कहते हैं कि हम तो चाहते हैं कि, 'क्षण-क्षण हम आनन्द में रहें।' और क्षण-क्षण में आप अपने को मिटाने की व्यवस्था कर रहे हैं। तो कौनसा आनन्द आयेगा? आप तो मृत्यु की ओर जा रहे हैं । सर्वनाश की ओर जा रहे हैं, तो आपको आनन्द कैसे आ सकता है! लेकिन उनकी खोपड़ी में ये बात जाती नहीं आपको बताऊँ। हम लोग हालंकि बहुत सीधे-साधे हैं, गरीब हैं लेकिन मेरे ख्याल से हमारे अन्दर सुबुद्धि उन लोगों से बहुत ज़्यादा है। वो तो मूढ़ लोग हैं। उनकी समझ में नहीं आता है। मुझे कहते थे कि 'जब तक आप हमसे पैसे नहीं लेंगे हम आप पे विश्वास ही नहीं कर सकते। ' ऐसे बेवकूफ़ लोगों से कौन बात करें? पर अब थोड़ा थोड़ा मामला बैठ रहा है। इन लोगों से कुछ सीखने का है नहीं। हमारा जो अपना, स्वयं का जो अपना कल्चर है, जो संस्कृति हैं वो इतनी ऊँची हैं कि सहज में आने के बाद आप धीरे- धीरे समझ लेंगे कि ऐसी संस्कृति है ये कि जिसमें सिवाय मनुष्य परमात्मा की ओर उठे और इस योग में बढ़े और कुछ हो ही नहीं सकता। ये नहीं कि आप चीज़ छोड़िये और जंगल में जा कर बैठिये। संन्यास लीजिये या भूखे मरिये, इस तरह की बेकार की चीज़ें सहजयोग में कोई जरूरत नहीं । क्योंकि ये बाह्य में सब होता है। बहत से लोग भूखे मरते रहते हैं यहाँ पर। एक बार नारद मुनि ने पूछा भगवान से कि, 'हिन्दुस्तान के लोग इतने भूखे क्यों रहते हैं?' तो उन्होंने कहा कि, 'भूखे रहने की उनको आदत हो गयी है। वो इतनी बार भूखे रहते हैं, उनको भूखा ही रहने दो।' तो ये जो है, उपवास आदि तपस्या करने का जो गुण है वो हो गया, वो समय बीत गया। उसकी अब जरूरत नहीं। अब जैसे कि आप एक सीढ़ी से चढ़ के दालान में पहुँचे हैं, तो आईये, तशरीफ़ लाईये। अन्दर बैठिये। बजाय इसके कि आप सीढ़ी पे लटक के बैठे हये है, आप ऊपर चढ़ना ही नहीं चाहते। इसी प्रकार एक तरह से ये भी समझ लेना चाहिये कि ये समय आ गया है, ये विशेष समय है। इसको तो मैं कहती हैं कि बसंत ऋतु आ गया, ब्लॉसम टाइम आ गया। और इस समय में हजारों लोग पार होने वाले हैं। हजारों क्या कहिए 16 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-16.txt करोड़ों लोग पार होने वाले हैं। और जिनको जो मिलना है, वो मिलना ही है। कोई इसे रोक नहीं सकता। इस बात को अगर मैं आपसे कह रही हूँ, वो इसलिये नहीं कि मैं सोचती हूँ कि ऐसे की कोई बड़ी भारी योजना है, ये बिल्कुल सत्य है, कि ये चीज़ आज इतनी घटित हो रही है, इतने देशों में, एकदम फलीभूत हो रही है, इसके पीछे में कोई न कोई समय की विशेषता है। और ये समय घोर कलियुग में ऐसा आया हुआ है, जहाँ मनुष्य चाहता है कि सत्य को प्राप्त करे। अब सत्य के प्रकाश में क्या क्या हो सकता है? पहले तो सत्य के प्रकाश में जो असत्य है उसे आदमी एकदम सहज में छोड़ देता है। एकदम सहज में। जैसे कि एक साँप हैं आपके हाथ में। रात अंधेरी और आपको दिखायी नहीं दे रहा है। और कोई कहें कि, 'भाई, तुम्हारे हाथ में साँप है इसे छोड़ दों।' तो आप कहेंगे कि, 'नहीं, नहीं, ये साँप नहीं। ये तो रस्सी है। इसे मैं नहीं छोड़ सकता हूँ। और आप पकड़े ही रहेंगे उसको । और जरा सा भी प्रकाश आ जाये तो आप फौरन छोड़ देंगे। तो ये समर्थता आपके अन्दर हैं, सिर्फ एक तरह का अन्धापन है। बहुत से लोगों ने, हजारों लोगों ने मुझे देखा कि परदेस में ऐसी ऐसी चीज़ें जिसे हम विषैली , जहरीली कहते हैं, खाना वगैरे छोड़ दें। हर तरह की जो चीजें हमको नष्ट कर रही है वो सब छोड़ देते हैं। बहुत से लोग चाहते भी हैं नष्ट करें, खत्म करें। लेकिन नहीं खत्म कर पाते। वजह ये है कि उनके अन्दर समर्थता नहीं है। समर्थ का मतलब है, कि आप जो है वो आपका अर्थ बनाया जाए। याने ये कि अगर आत्मा बन जाए तो अपने आप ये चीज़ें छोड़ के भाग जाएंगी। अब आपके बच्चों को देखिये । बहत सी शिकायतें मेरे पास आयी थीं कि बच्चे बिगड़ रहे हैं, वो रहे हैं। एक बार सहज में ले आईये। एक साहब है, उनका लड़का पढ़ता-लिखता नहीं था। मेरे पास आये। मैंने | कहा, कि जागृति करूं। बस देखें तो फिर। और वो फर्स्ट आया सब के बीच में। ये होता है। ये साक्षात् है। उसकी वजह ये क्या होती है, अपने मस्तिष्क के कितने हिस्से में काम कर सकती है, बहुत थोड़े से और कुण्डलिनी के जागरण से जो प्रकाश हमारे मस्तिष्क में फैलता है उससे हम असाधारण बुद्धिमान बन जाते हैं। उससे हमारा चित्त जो वो है अत्यन्त शुद्ध हो जाता है और ऐसे की चित्त जो बार बार इधर-उधर दौड़ते रहता था, एकदम शांत हो के एकाग्र हो जाता है। इसलिये कौन सा भी कार्य हम बहुत अच्छे से कर सकते हैं। किसी भी कार्य में हम प्रवीण हो सकते हैं। 17 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-17.txt इस देश में तो खेती बहत है। हमने खेती पर प्रयोग कर के देखें कि ये जो हाथ में की चैतन्य लहरियाँ हैं इससे अगर पानी को आप चेतित कर दें तो उस पानी से दस गुना फसल अच्छी आती है। हाइब्रीड सीड से जितनी आती हैं उससे कहीं अधिक नॉनहाइब्रीड सीड से आती है। नॉनहाइब्रीड सीड अगर आप लीजिये और वो लगाईये कोई खाद डालने की जरूरत नहीं, कुछ नहीं। आप देखियेगा कि, हमने सूरज का फूल इतना बड़ा, एक-दो फूट डाइमीटर का निकाला। बहुत ने देखे। इसको उठाना मुश्किल। एक आदमी इसको उठा नहीं सकता। बहुतों ने कहा, कि यहाँ ट्यूलिप्स हो ही नहीं सकते। हमने देखा नहीं । हमारे जो खेत हैं वहाँ हर तरह की चीज़ हो रही है और हमने ऐसा देखा नहीं कि ये चीज़ हो नहीं सकती, वो चीज़ हो नहीं सकती। लेकिन बड़े पैमाने पर, और बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी जिसकी क्वालिटी है, ऐसी चीज़ें होती है। और ये हमारा देश पूरा ही कृषिप्रधान है। इसके लिये ये बहुत ही फायदे की चीज़़ है । अब बहुत जगह खबर करी, बहुत जगह बताया और एक कलेक्टर साहब ने हमारा सन्मान भी किया। पर उसी दिन उनकी बदली करा दी। अब ये सब चीजज़ें बदलेंगी। लेकिन जो लोग सहजयोग में आ गये हैं उनकी खेती-बाडी, उनके घर के जानवर, उनके घर के सारे प्रश्न, उनके समाज के सारे प्रश्न एकदम से हल हो जाएंगे। आज हम उस कतार पर खड़े हैं कि आप मूड़ कर देखेंगे नहीं तो खाई में आप लोग गिर जाएंगे हे हमें मालूम है। अब जब ये अपने को मालूम है, तब थोड़ा सा मूड़ कर के इसे स्वीकार करना चाहिये। इसे आपको कोई पैसा नहीं देने का। आप इस जमीन को कितना पैसा देते हैं, जो आपको फल-फूल दे रही है। इसी प्रकार इसके लिये आपको कोई पैसा नहीं देने का। आपको कोई खर्चा नहीं करने का कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई भूखा नहीं, कुछ नहीं। बस इसके थोड़े से ज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिये, कि हमारे चक्र क्या हैं? इस चक्रों में कौनसी हामी है और कौनसी खराबी है? जब आपको ये चीज़ प्राप्त हो गयी तो आप देखेंगे कि आपके हाथ से ठण्डी ठण्डी हवा सी आने लगेंगी। और ये उंगलियों के आखरी हिस्से में, सब कहते हैं कि सिम्परथैटिक नव्व्हस सिस्टीम है, यहाँ आपको महसूस होगा, इस पर आपको महसूस होगा कि आपके कौनसे चक्र पकड़े हैं। ५, ६ और ७ ये थाव चक्र जो हैं हमारे राइट साइड के हैं और इसी प्रकार लेफ्ट पे हैं। और जो हमारी राइट साइड है वो हमारे कार्यप्रणाली से बनती है या बनाती है। माने ये कि बुद्धि और शरीर से हम जो कार्य करते हैं वो कार्य करती है और जो लेफ्ट साइड है उसमें हमारी जो भावनायें, हमारी इच्छायें, ये सब कुछ, इनको चलाने की, जिसको कहना चाहिये कि भावना का उद्भव करने वाली ये शक्ति लेफ्ट साइड में है। इस प्रकार हमारे अन्दर दो शक्तियाँ हैं और बीच में जो शक्ति है वो आपके उत्थान की है। आप 18 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-18.txt बिल्कुल थोड़ा सा और चलने की बात करें। साढ़े तीन फूट कहते हैं और अगर आप चलें ये कुण्डलिनी चल पड़ी तो आपका ब्रह्मरन्ध्र खुल जायेगा। और चारों तरफ आप पाईयेगा कि एकदम से फैली हुई एक प्रचंड परमात्मा की शांतमय शक्ति आपके अन्दर उतरने लगेंगी। अब शांति भी आपके अन्दर प्रस्थापित होती है। क्यों कि हम रहते है मस्तिष्क में, हमेशा हमारे विचार एक के बाद एक उठते गिरते रहते हैं और इस उठते गिरते विचारों के उपर हम लोग कूदते रहते हैं। कभी तो हम आगे का सोचते हैं, कभी पीछे का सोचते हैं। कभी हम भविष्य का सोचते हैं, कभी भूत का सोचते हैं| पर आज वर्तमान, आज जहाँ हम खड़े हैं, यहाँ हम नहीं रुक सकते। क्योंकि एकदम से चित्त हमारा चला जायेगा आगे को या पीछे को। पर जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है, तो ये जो बीच में दोनों की जगह है वहाँ आपका चित्त रुक जाता है, आप वर्तमान में आ जाते हैं और एकदम निर्विचार समाधि लग जाती है। निर्विचार होने का मतलब यही है, कि जैसे कोई चीज़ देखिये तो उसके ऊपर आप कोई भी अपना प्रतिबिंब नहीं डालते। जैसे आपने देखा कि इतने सुन्दर फूल बने हैं। कहाँ मिले होंगे, कहाँ से लाये होंगे? किस तरह से, क्या होगा ? कोई बात आप सोच नहीं सकते। आप बस इसका मजा उठाते हैं। तो ये जो शक्ति आपके अन्दर आ जाती है, इससे शांति प्रस्थापित होती है। फिर ऐसा आदमी भी इस शांति में उतर जायें वो जहाँ भी खड़ा होगा वहाँ शांति उस में से बहेगी। वो सारे अपने इलाके को शांत कर सकता है। विशेष इन्सान बन सकता है। आप सभी एक विशेष इन्सान बन सकते हैं और इस तरह का कार्य कर सकते हैं। चित्त आपका ऐसा हो जायेगा कि आप जहाँ चित्त डालें वो चित्त ही कार्य करता है। यहाँ बैठे बैठे आप चित्त डाल लें किसी के ऊपर कि इसकी | तबियत ठीक नहीं है, तो उसकी तबियत वहाँ ठीक हो सकती है। पर आपकी वो स्थिती आनी पड़ेगी। इसलिये दूसरी स्थिति में जाना चाहिये । जिसे हम निर्विकल्प समाधि कहते हैं। जहाँ दिमाग में कोई भी संशय आदि नहीं रह सकता। निर्विकल्प समाधि| पता है, यहाँ बहुत से लोग निर्विकल्प में ही उतर गये। खटाखट् निर्विकल्प में चले गये, बड़े बड़े लोग हैं। मैं बड़ी हैरान हो गयी, कि वो लाँघ गये अपनी पहली दशा को और दूसरी दशा में आये। कोई आपको शंका नहीं रह जाती अपने ऊपर और सहज पर आपको कोई शंका नहीं आती। पूरी तरह से आप एक गुरुत्व को ले लेते हैं, मास्टरी ले लेते हैं। आप खुद अपने गुरु हो जाते हैं। आपको कोई गुरु ढूंढने की जरूरत नहीं। आप अपने स्वयं ही गुरु हो जाते हैं । इस गुरु को वो पा लें। आप अपने को तो ठीक कर ही सकते हैं क्योंकि आप अपने चक्रों को जानते हैं अपने उंगलियों पर, लेकिन आप दसरों को भी ठीक कर सकते हैं। दसरों की भी मदद कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण से आपकी तंदुरुस्ती ठीक हो जाती है। ये बात सही है कि इसके जागरण से कैन्सर के भी रोग ठीक हो गये। यहाँ के कोई डॉक्टर साहब मिलना चाहते हैं। मैं उनसे बात करूंगी। क्योंकि इसमें आपको पैसा खर्च करना नहीं है। आप ही की शक्ति जो है वो जागृत हो जाती है और आप अपनी शक्ति से अपने को ठीक कर लेते हैं और आप दूसरों को भी ठीक कर सकते हैं। हालांकि डॉक्टर लोग कभी कभी घबराते हैं 19 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-19.txt कि इससे फिर हमारी प्रॅक्टिस क्या होगी? उसके लिये बहुत से अमीर लोग बैठे हैं। अभी सहजयोग में आये | ही कितने लोग हैं! तो इस प्रकार आप देख लेंगे कि आप स्वयं ही धन्वंतरी माने एक एक वैद्यजी हो जाते हैं। खुद ही बगैर किसी दवा के, किसी चीज़ के आप ठीक हो सकते हैं। इसमें आपको एक तरह से बड़ी ताज़गी लगेगी । अब हमारी उमर तो आप जानते हैं कि बहुत हम बूढे हैं। बहुत ज़्यादा। शायद यहाँ हमारे उमर के बहुत ही कम लोग होंगे। लेकिन रोज हमारा सफर चलते रहता है। रोज ये होता है| अब बोल बोल के कभी थोड़ा सा गला बिगड़ जाता है। लेकिन हम देखते हैं कि काफ़ी अच्छे तरीके से हमारी जिन्दगी बीत रही है। इसी प्रकार आप सब की भी बितेगी । और ये जो बेकार की बीमारियाँ हैं इससे आपको छुट्टी मिल जायेगी। शरीर ठीक हो गया, मन का स्वास्थ्य मिल गया और बहत से लोग ठीक हो गये। आपकी भावनायें भी ठीक हो गयी। और आप केवल सत्य को उंगलियों पर जानियेगा। आप जानियेगा कि आपके कौनसे चक्र पकड़े हैं, किसी के कौन से चक्र पकड़े है। कौन क्या है? दूसरी बात, कि आप अपने को माफ कर दीजिये, उसी प्रकार आप सब को माफ कर दीजिये। बहरहाल आप माफ करें या नहीं करें आप करते क्या है? भी नहीं। कुछ सिर्फ दिमागी जमा-खर्च है। हर समय ऐसे आदमी के बारे में सोचना जिसने आपको तकलीफ दी, इससे आप अपने को तकलीफ दे रहे हैं। वो तो बहरहाल आराम से बैठे हैं। इसलिये आप चाहते हैं कि अपने को तकलीफ दें। मन ही मन ये सोच के की 'उसने मुझे ये सताया, वो सताया' सताया होगा खत्म कर दीजिये । उसको याद करने से न तो आप उसको ठीक कर सकते हैं किंतु आप जरूर गलत हाथों में खेल रहे हैं। इसलिये सबको एकसाथ आप माफ कर दीजिये। जब ये चक्र पकड़ता है तो कुण्डलिनी का चढ़ना मुश्किल हो जाता है और जब ये चक्र पकड़ता है तो असम्भव है। ये चक्र जो है ये माफ़ न करने से होता है। आप सबको एकसाथ माफ़ करिये। ये नहीं कहने का कि ' इस आदमी को मैं नहीं माफ करूंगा। नाम भी लेना बेकार है इसका। जब आपका ये चक्र पकड़ता है, तब जान लेना चाहिये कि ये चक्र ऐसा है। बिल्कुल पक्का ऐसा। जब आप माफ कर देते हों तो यूं खुल जाता है। अभी आप देखियेगा कि अगर मन में आप कहें कि, 'मैंने सबको एकसाथ माफ कर दिया।' तो देखिये कितना हल्का होता है। नहीं तो फिर इस क्षण, जब कि आप अपने आत्मसाक्षात्कार की ओर सब से महत्त्वपूर्ण क्षण के लिये आये हैं, तो कैसे प्राप्त करियेगा। इतनी बड़ी चीज़ को आप इतनी छोटी सी एक गलती के लिये क्या छोड़ दीजियेगा। इसलिये कृपया आप सबको...सबको...सबको माफ कर दीजियेगा, अपने मन से और खुश हो जाईये । प्रसन्नचित्त होना चाहिये। प्रसन्नचित्त आदमी परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। हमें तो परमात्मा के दरबार में जाना है, तो क्या रोनी सूरत ले के जायेंगे। तो वहाँ पर तो हमें खुश खुश रहना चाहिये। तो इसी खुशी में हम इसे प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि इससे जो आनन्द हमें प्राप्त होगा उसके जैसे कोई स्वागत की तैयारियाँ हमारे मन में होनी चाहिये। और आपसे मैं बताना चाहती हैँ, कि आप सब में ये शक्तियाँ हैं, सब में पार होने की क्षमता है, सब में ही ये चीज़ पाने का पूर्ण अधिकार है, जन्मसिद्ध। अब एक 20 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-20.txt और बात है कि जबरदस्ती किसी पर नहीं हो सकती। किसी को पार नहीं होना है वो कृपया बाहर चले वो जायें या हट जायें। रही बात ये कि बहुत से लोगों ने लिखा है, कि कुण्डलिनी के जागरण से ये होता है, होता है, हमने तो कहीं देखा नहीं । कोई भी ऐसी बात नहीं होती कुण्डलिनी की जागरण से। हाँ, अगर कोई आपको बाधा वगैरा हो तो कभी-कभी मैंने देखा कि नाचने, कूदने लगते हैं, कभी-कभी, बहुत कम। इस लेक्चर में जितना भी कहना था, कह दिया। पर इससे सबकुछ तो नहीं हुआ ना! अभी बहुत कुछ है और इसके लिये हमारी टेप्स वरगैरा वहाँ आप लोग आईये। ये नहीं कि सहजयोग आज कर दिया और खत्म ! हैं और इसका जो फॉलोऑन होगा ऐसे नहीं। आज तो सिर्फ आपका अंकुरित होना है। उसके बाद आपको वृक्ष बनना है। हजारों वृक्ष खड़े करने हैं। इसलिये आपको इसमें मन से आगे बढ़ना चाहिये। उसमें किसी को पैसा नहीं देना है, कुछ नहीं । एक बार रोज रात सोने से पहले पाँच मिनट ध्यान करना होता है और शायद एक बार हप्ते में आपको एकत्रित होना होता है। इससे बहुत बहुत ज्यादा आपको समाधान और इसके ऊपर प्रभुत्व, मास्टरी आ जायेगी। इतना सा टाइम आपको अपने लिये और अपने आत्मसाक्षात्कार के लिये देना होगा। क्योंकि अपने आत्मसाक्षात्कार का पालन करना, इसे महत्त्व देना, उसकी इज्जत करना उसका गौरव समझने के लिये, क्योंकि उसी में आपका भी गौरव छिपा हुआ है। आपका जो गौरव है उसी से ज्ञात होगा। जैसे एक दीप की बाती आप बार - बार ठीक करते रहते हैं और उसे प्रज्वलित करते रहते हैं, इसी तरह से इस कुण्डलिनी की बाती को भी आपको बारबार उठा कर के और ठीक करना होगा। पर जब आप उस दशा में हो जायेंगे जहाँ आपके विकल्प में आप स्वयं ही उस कार्य को कर सकेंगे। लेकिन आप बहकेंगे नहीं। ये नहीं की दूसरों को भला बूरा कहेंगे और कहेंगे कि मैं तुमसे अच्छा हूँ। वो चीज़ खत्म हो जाती है। वो अहंकार खत्म हो जाता है। इसके बाद मुझे पूर्ण आशा है कि आप लोग कहाँ कहाँ से, कौनसे कौनसे गाँव से आये हैं और बहुत दूर दूर से आये हैं इसके लिये मैं बहुत आशीर्वाद देती हूँ आपको। विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो रात को यहाँ आ कर सो गये थे मैंने सुना। इतना प्यार, इतनी समझ जो मिली है, मुझे तो समझ ही नहीं आता कि किसको धन्यवाद दें ! हिन्दुस्तानिओं को पार कराना बहुत आसान है। क्योंकि आप पूर्व जन्म के बड़े कोई लोग रहेंगे कभी, जो इस पुण्यभूमि में आपका जन्म हुआ है। इसमें कोई शक नहीं। आपको तो बिल्कुल मुश्किल नहीं है। क्योंकि वाकई में मैंने देखा है, कि जितना आसान बहुत 21 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-21.txt हिन्दुस्तानिओं को पार कराना है, कहीं नहीं है। अब आपको इतना ही करना है, जैसा मैं बताती हूँ कि आप लोग जो कुर्सी पर बैठे हैं अपने जूते उतार लें। और दोनों पैर अलग रखे। अब आपका राइट हैण्ड मेरी ओर करें। मैं इसलिये राइट और लेफ्ट कहती हैँ कि अपने देश में इसको अलग अलग नाम है इसलिये मैं राइट और लेफ्ट कहती हूँ। चश्मा भी उतार लें। राइट हैण्ड मेरी ओर करें और लेफ्ट हैण्ड जो है वो अपने तालू के ऊपर, तालू, जब हम बच्चे थे तो यहाँ (सिर के ऊपर का भाग) की स्निग्ध हड्डी, उसे फॉन्टनेल बोन एरिया कहते हैं, उस तालू के ऊपर अधांतरी, आप लेफ्ट हैण्ड रखिये, राइट हैण्ड मेरी तरफ। और सर को झुका दीजिये। अब देखिये की उसमें से, आप ही के अन्दर से, ये ब्रह्मरन्ध्र इसे कहते हैं। माने ब्रह्म का रन्ध्र, याने ब्रह्म का छेद जो है उसके अन्दर से ठण्डी या गरम हवा, आप ही के सर के अन्दर से आ रही है क्या। देखिये, सर झुका के देखिये। आपने अपने को माफ नहीं किया, अभी तक आपने दूसरों को भी माफ नहीं किया, तो गरम गरम हवा आयेगी। अब फिर से लेफ्ट हैण्ड मेरी ओर करें और राइट हैण्ड से देखिये। सर झुका के देखिये ठण्डी या गरम हवा आ रही है क्या सर में से। आपको चाहिये की आपका हाथ ऊपर साइड में घुमा कर के देखें क्योंकि कभी किसी को जोर से बाहर की ओर आती है। लेकिन सर को छूना नहीं। सर के ऊपर , अधांतरी, हमारी मराठी भाषा में कहते हैं। अब फिर से राइट हैण्ड हमारी ओर करिये, सर झुका के और देखिये की ठण्डी या गरम हवा तो नहीं आ रही। बाहर से नहीं आ रही। अन्दर से, आपके ही अन्दर से आ रही है। अगर आप माफ कर दें, अपने को और दूसरों को, तो ठण्डी आने लग जायेंगी। बहुत ठण्डी नहीं आती है । जिसको आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी स्पन्द कहा है। स्पन्द। अब दोनों हाथ आकाश की ओर उठा के और सर पीछे झुका के पूछिये कि, 'माँ, ये क्या परम चैतन्य है?' तीन बार पूछिये। 'क्या माँ, यही वो परम चैतन्य है?' मुसलमान हो तो पूछिये, 'रूह है?' ईसाई होंगे तो पूछिये, 'यही होली घोस्ट, कूल ब्रीज है ? ' तीन बार पूछिये। ये परमात्मा की प्रेम की शक्ति है। अब हाथ नीचे लीजिये। हाथ नीचे ले कर दोनों हाथ मेरी ओर करिये । और निर्विचार हो के मुझे देखें। बिल्कुल निर्विचार हो के मेरी ओर देखें। किसी किसी को नीचे से अगर आ रही हो तो उसको ऊपर उठा सकते है, इस तरह। अब जिन जिन लोगों के उंगलियों में या तलवे में, हाथ में या सर से ठण्डी हवा आयी हो, या गरम वो सब लोग दोनों हाथ ऊपर करें। ये तो सारा लखनौ ही पार हो गया। आपको मेरा अनन्त आशीर्वाद ! 22 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-22.txt श्री गणेश की तरह मनुष्य को ही अपनी चित्त साफ करना चाहिये। चित्त को साफ करने के लिये प्रथम ये देखना जरूरी है कि अपना चित्त कहाँ है? अगर आपका चित्त परमात्मा की ओर होगा तो वो शुब्ध है। क्योंकि आपके अन्दर से चैतन्य बह रहा है। श्रीमाताजी, १८.९.१९८८ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा। लि. प्लॉट नं. १०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in मा पर् 2015_Chaitanya_Lehari_H_V.pdf-page-23.txt প कर wwww. म बि अपना चित्त, इस पेड़ के जैसा, जो पृथ्वी से पूरी तरह जुड़ा है, ऐसा आपको अपनी माँ के साथ जुड़ा रखना चाहिये और पेड़ की ऊँचाई जो है उसकी ओर दुष्टि रखनी चाहिये। ये १२ ऊँचाई जो भी इन पेड़ों ने हासिल की है, वो इसे वातीवरण से लड़कर, झञगड़ कर, बीहर आकर, सर ऊँचा उठाकर की है। जो लोग अपना सिर दुनियाई चीज़ों के लिये, कृत्रिम ं य० चीज़ों के लिये बाह्मयचीजों के लिये झूका लेते हैं, तो वे कैसे उठ सकते हैं? या जो अपना र चित्त इसधटंती माँ से हटा लेते हैं, गो तो मर ही.जाएंगे । प. पू.श्री माताजी, बोर्डी पूजा, १२.२.१९८४.