नवंबर - दिसंबर २०१५ चैतन्य लहवी हिन्दी इस अंक में सबसे बड़ी चीज़ है अध्यात्म को पाना ...४ क्रिसमस पूजा, गणपतीपुले, २५ दिसंबर २००३ प्रेम एक बड़ी भारी साधना है ...६ सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, २३ मार्च १९७७ परम तत्त्व का अर्थ ..१४ सार्वजनिक कार्यक्रम, मुंबई, २५ मार्च १९७४ सहजयीग से आपके अन्दर जी सात सैंटर्स हैं, आपके अन्दर जी सुन्दर व्यवस्था परमात्मा ने की हुई है, वी कुण्डलिनी के प्रकाश से जीगृत ही जाती है। और ये देवता जागृत ही कर के उसका पूरा संतुलन करते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, २६ दिसंबर १e७५ कृपया ध्यान दें : चैतन्य लहरी २०१६ के अंकों की नोंदणी शुरू हो गयी है और ये १५ दिसंबर २०१५ को समाप्त हो जाएगी] to ा० ५० सबसे बड़ी चीज़ है अध्यात्म को पाना 4 ईसामसीह की आज जन्मतारीख है और हम लोग बहुत खुशी से मना रहे हैं। किंतु जीझस क्राइस्ट को कितनी तकलीफें हुईं वो भी हम लोग जानते हैं और जो तकलीफें, परेशानियाँ उनको हुई वो हम लोगों को नहीं हो सकती क्योंकि अब समाज बदल गया है, दुनिया बदल गयी है और इस बदली हुई दुनिया में आध्यात्मिक जीवन बहुत महत्त्वपूर्ण है। इससे कितने क्लेश हमारे दूर इस बदली हुई हो सकते हैं। हमारे शारीरिक क्लेश अध्यात्म से दुनिया में खत्म हो सकते हैं। मानसिक क्लेश अध्यात्म से खत्म हो आध्यात्मिक जीवन सकते हैं। इसके अलावा जागतिक जो क्लेश हैं वो भी खत्म हो सकते हैं। इस तरह सारी दुनिया की जिंदगी जो है अध्यात्म बहुत महत्त्वपूर्ण है । में पनप सकती है। कितना महत्त्वपूर्ण है ये जानना कि एक तरफ इससे तो ईसामसीह जैसा अध्यात्म का.... और दूसरी तरफ हम लोग जिन्होंने अध्यात्म को थोडा बहुत पाया है और हम लोगों कितने क्लेश हमारे की वजह से दुनिया शांत हो गयी। गयी है और मनुष्य जान गया कि उसके लिये सबसे बड़ी चीज़ सी तकलीफें दूर हो बहुत दूर हो सकते हैं। हमारे है अध्यात्म को पाना। ये आप लोगों की जिंदगी से उसने जाना है। आपको देख कर उसने जाना है। ये सारा परिवर्तन आप शारीरिक क्लेश लोगों की वजह से आया। हम अकेले क्या कर सकते थे ? अध्यात्म से जैसे ईसामसीह वैसे हम। हम कितना कर सकते थे । लेकिन खत्म हो सकते हैं। इतने आप लोगों ने जब अध्यात्म को प्राप्त कर लिया है, तब देख सकते हैं कि दुनिया कितनी बदल गयी है। आपके प्रभाव मानसिक क्लेश से और आपके इस अंतर्यामी जो शारीरिक, मानसिक, अध्यात्म से बौद्धिक जितनी भी तकलीफें हैं वो दूर हो गयी हैं। इसका प्रत्यंतर बहुत लोगों को आया है। दुनिया भर में लोग जान गये खत्म हो सकते हैं। हैं कि सहजयोग से बहत जबरदस्त परिवर्तन आ जाता है। सिर्फ एक व्यक्तिगत नहीं किंतु जागतिक हजारों लोगों में परिवर्तन आ सकता है। समाज में परिवर्तन आ सकता है और ये सब आप कर रहे हैं, जो बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। गणपतीपुले, २५ दिसंबर २००३ क मुंबई, २३ मार्च १९७७ प्रेम एक बडी भारी साधना है 6. बहुतों को ऐसा लगता है जब वो पहली मर्तबा देखते हैं कि ये कोई बच्चों का खेल है कि कुण्डलिनी जागरण है? कुण्डलिनी जागरण के बारे में इतना बताया है दुनिया भर में कि सर के बल खड़ा होना, दुनिया भर की आफ़त करना, और इतने सहज में कुण्डलिनी का जागरण कैसे हो जाता है? आप में से जो लोग पार हैं, यहाँ अधिक तर तो पार ही लोग बैठे हये हैं, उनकी जब कुण्डलिनी जागरण हुई तब तो आपको पता ही नहीं चला की कैसे हो गयी! लेकिन अब जब दूसरों की होती देखते हैं तो पता चलता है कि हाँ, भाई, हमारी हो गयी| क्योंकि आप एकदम से ही चन्द्रमा पर पहुँचते हैं। कैसे पहुँचे, क्या पहुँचे पता नहीं चला। उसका कारण तो है ही और उसका उद्देश्य भी है। फलीभूत होने का समय जब आता है तभी फल लगते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बाकी | जो होता रहा वो जरूरी नहीं था। वो भी था जरूरी और अब फल होना भी जरूरी है। कोई कहता है कि दस हजार वर्ष हो गये तब से तो कोई पार नहीं हुआ, अभी कैसे हो गये? भाई, दस हजार वर्ष पहले तो चन्द्रमा पर कभी गये नहीं थे अब क्यों जा रहे हैं? और अगर जा रहे हैं तो उसमें शंका करने की क्या बात है? रामदास स्वामी ने बताया है कि दुनिया में कुछ लोग होते हैं उनका नाम होता है पढ़त मूर्ख। पढ़त मूर्ख का मतलब होता है, पढ़ पढ़ के जो महामूर्ख हो जाते है। जिसको कबीरदास जी ने कहा है कि 'पढ़ी पढ़ी पण्डित, मूरख भये।' इस तरह की एक संस्था चलती रहती है। चाहे वो ईसामसीह का जमाना हो, चाहे वो ज्ञानेश्वरजी का जमाना हो, चाहे वो शंकराचार्य जी का जमाना हो, जरतुष्ट का जमाना हो, ये एक अपने को विशेष अतिशहाणे समझने वाले लोग, अपने को एक विशेष तरह के, बहत उच्च तरह के विद्वान समझने वाले लोग हमेशा रहे, और रहेंगे। वो हर समय इस तरह के अडंगे करते रहेंगे और जीवन के अमूल्य क्षण हैं उसे इसी में बितायेंगे। उनका कोई इलाज नहीं। कलियुग में भी ऐसे बहुत हैं। जो किताबें रची सब पढ़ डाली , अब उस आदमी का दिमाग तो खराब हो ही जायेगा, इतनी मेहनत कर के किताबें खरीदी हैं, वो पढ़ी हैं। तो उसको ये समझ में नहीं आता कि, 'इतना मैंने पढ़ा, इतनी मैंने मेहनत की, उपास किये, तब तो नहीं आया। माताजी के आगे ऐसे हाथ किया और मैं पार हो गया।' कोई न कोई तो बात हमारे में है ही ये तो आप समझते हैं। समझ लीजिये, कोई बड़ा रईस आदमी है। तो उसके पास कोई रुपया माँगने को जाये और रुपया देने की उसकी इच्छा हो तो उसको चेक लिखना होता है, हो जाता है काम! कोई न कोई तो संपदा तो हमने जोड़ के रखी है अपनी। हमारी तो कोई न कोई मेहनत तो है ही इसके पीछे में जबरदस्त। इसके लिये कोई आपको मेहनत करनी नहीं पड़ती। सब आपको मिल जाता है। न तो आपको पढ़ने की जरूरत है, न आपको कोई मेहनत करने की जरूरत है। पाने की जरूरत है । लेकिन एक बात जरूर, कि सहजयोग का आधार धर्म है। धर्म का मतलब जो बाह्य में हम हिन्दू, मुसलमान कहते हैं वो नहीं। धर्म का मतलब है मनुष्य का धर्म। मानवता का धर्म। अब मानवता का धर्म भी बहुत से लोग करते हैं कि दूसरों की सेवा करना, दूसरों को पैसा देना । बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि चार लोगों को ठगेंगे और एक बड़ा भारी मन्दिर बना देंगे। और कहेंगे कि, 'हमने बहुत बड़ा दान धर्म कर दिया।' दूसरे लोग ऐसे होते हैं कि, अपने घर की बह तो सतायेंगे, अपनी बह को तो परेशान करेंगे, और दुनिया भर में धर्म फैलाते फिरेंगे । तीसरे लोग ऐसे होते हैं, कि अपना सर मुंडवायेंगे, गेरुओे वस्त्र पहनेंगे, चोगे पहनेंगे और सब दूर भगवान का नाम ले के फिरेंगे। 7 पाँचवे ऐसे होते हैं कि सोचते हैं कि हम धार्मिक हैं और दूसरे आधार्मिक हैं, तो उनके नीचे गिराते फिरेंगे । धर्म कि व्यवस्था हमारे अन्दर बनी पहले ही है। मनुष्य धर्म में ही पैदा होता है। और जब वो धर्म के विरोध में चलता है, तभी उसका पतन हो जाता है । और वो सहजयोग के लिये इतना उपयोगी नहीं होता। इसीलिये कुछ लोग पार नहीं होते और कुछ लोग पार होते हैं। कुछ लोग रुक जाते हैं, कुछ लोग जल्दी से पार हो जाते हैं। पहले अपने धर्म ठीक बाँधने चाहिये । फिर सारे धर्म का सार एक ही 'प्रेम तत्त्व' । प्रेम तत्त्व अगर आपके अन्दर है, अगर प्रेम तत्त्व से आप परिपूर्ण हैं, प्रेम तत्त्व का आपके अन्दर तत्त्व है और उसका आपके अन्दर में पूर्णतया प्रभाव है, आपके जीवन में उतरा हुआ है। तो इससे बढ़ के मनुष्य का धर्म और कोई नहीं। लेकिन प्रेम का मतलब ये नहीं होता है कि आप उसकी जाहिरात लगाते फिरें, कि हम बड़े प्रेमी हैं। हमने बड़े उपकार दुनिया पर किये और हम बड़े प्रेमी हैं, हम बड़े मातृप्रेमी हैं। ये एक अन्दर का धर्म अपना होता है। राम के जीवन आपने देखा है कि भिल्ली ने उनको बेर दिये । आप लोग सहजयोग में जानते हैं कि हर एक खाने को आप वाइब्रेट कर के खाते हैं । जब तक ये वाइब्रेट नहीं होता आप खाते नहीं है । उसमें जब तक ग्रेस नहीं उतरती आप लेते नहीं है। रामचन्द्रजी ने भिल्ली के बेर ऐसे ही खा लिये। भिल्ली ने दाँत उसको लगाये थे, एक एक बेर चख के देखा था। सब झूठे बेर को रामचन्द्रजी ने सर आँखों पर लगा के खा लिये । इसका कारण ये है कि भिल्ली प्रेम से परिपूर्ण थी। परमेश्वर के प्रति जो उसका प्रेम था, निष्कपट, निश्चल। पूर्णतया वो जानती थी कि राम एक अवतरण हैं और उससे वो नितांत प्रेम करती थी। उसको जो बेर मिले, उसे वो चख के और देखा कि कहीं कोई खट्टे न हो जायें, मेरे राम को खट्टा न लग जायें। उनको कोई तकलीफ़ न हो जायें। इस विचार को कर के उसने वो बेर खाये और राम को दिये। और राम ने वो खा लिये। उस भिल्ली की जो प्रेम शक्ति है, उसने कभी धर्म की व्याख्या भी नहीं जानी होगी। उसको पाप और पुण्य का कोई विचार भी नहीं होगा। उसने दुनिया की और भी कोई चीजें जानी नहीं होगी। ना तो वो अमीर जानती होगी, न तो वो गरीब जानती होगी। जंगलों में, कंधरों में रहती होगी। उसको विशेष कपड़े का ख्याल नहीं होगा। न ही उसमें कोई निर्लज्जता होगी, न ही लज्जा का विशेष आविर्भाव होगा। लेकिन उस में इतना प्रेम राम के प्रति था, कि उसने एक बेर को तीन दिन से उसने अपने दाँत से खाया और अत्यंत भोलेपन से राम को अर्पित कर के कहा कि, 'देखिये , इस में से हर एक बेर को मैंने खाया है। जब मनुष्य प्रेम में उतरता है तब निष्कपट होते जाता है। निष्कलंक होता है। प्रेम एक बड़ी भारी साधना है। वो की नहीं जाती, वो हो जाती है। प्रेम का धर्म जब तक आप में जगेगा नहीं, आप का सहजयोग टिक नहीं सकता। हमारे बहुत से सहजयोगी है, हमें बताते हैं कि हम एक एक घण्टा माताजी, ध्यान में बैठते हैं। बैठिये! हम चार-चार घण्टे फलाना करते हैं और ठिकाना होता है हमको। लेकिन आपकी भावना क्या है ? जब आपका परमात्मा के प्रति प्रेम उभरता है, जब आप परमात्मा में लीन हो के प्रेम करते हैं, तब आप उसके बनाये सारी सृष्टि को, उसके बनाये सभी प्राणिमात्र को, सब को आप पूरी हृदय से प्यार करते हैं। अगर आप उसे नहीं कर सकते हैं तो आप के प्रेम में क्षति है, कमी है। जब हम दूसरों को लेक्चर देते हैं और उनसे कहते हैं कि तुमको ऐसा नहीं करना चाहिये, तुमने ऐसा क्यों किया ? तुमको ऐसा नहीं कहना चाहिए था। तब हम ये नहीं जानते की हमने इस आदमी से जो कहा है, वो क्या प्रेम में कहा है! अगर आप अतिशय प्रेम में किसी से कोई काम कहें, बाद में उसे बुरा नहीं लगता। सारे धर्मों का सार प्रेम है। परमेश्वर साक्षात् प्रेम है। सहजयोग में प्रेम ही संपूर्ण है । प्रेम के सिवाय और कुछ नहीं। उसमें त्याग अपने आप हो जाता है। उसको कोई भी चीज़़ त्यागते हुये विचार ही नहीं आता दूसरा। क्योंकि प्रेम की शक्ति त्याग को करवा देती है। प्रेम में प्रेम ही पाना, प्रेम ही करना यही लक्ष्य होता है। और जीवन में उसे कुछ नहीं चाहिये। लेकिन आप निर्दोष हो और आप प्रेम करते हैं, आप दूसरों को वाइब्रेशन्स देते हैं, लेकिन उसमें कुछ विचार है कि, 'इस आदमी से कोई लाभ हो जायें , इसका कोई फायदा उठा लें, ' इसलिये अगर आप वाइब्रेशन्स कर रहे हैं, या उसका कोई उपयोग कर लें, तो आपके प्रेम में कमी रह जायेगी। किसी को अगर आप वाइब्रेशन्स देते वक्त पाते हैं कि उसमें एकाध दोष है, उसका कोई चक्र कम है। उसको भी अत्यंत प्रेमपूर्वक, बहला कर के उसका उद्दीपन करना चाहिये। सारा संसार | आज द्वेष पे ही खड़ा है। कोई न कोई बहाना द्वेष करने का इन्सान ढूंढ लेता है। कुछ न कुछ तरीका, उसे ये मालूम है कि जिससे बड़े बड़े संघ तैयार हो जायें कि इसका द्वेष करो, उसका द्वेष करो। बड़े बड़े राष्ट्र, बड़ी संस्थायें संसार में प्रेम के बूते पर खड़ी हुई दिखायी नहीं देती। अधिकतर उसके पायें में, उसकी नींव में द्वेष की खाई है। इसलिये वो संस्थायें धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं । प्रेम की शक्ति कितनी अगाध है ये आप जानते हैं। आपके हाथ से जो शक्ति बह रही है वो साक्षात् प्रेम की शक्ति है। आप अगर पाषाण हृदय हैं और आपके अन्दर कोई भी दूसरों के लिये सहानुभूति नहीं है, आपके अन्दर कोई माध्र्य नहीं है, तो आप सहजयोग में बहुत आगे नहीं जा सकते| आपके बाल- बच्चे, अपने घरवाले, अपने नौकर-चाकर, अपने अडोसी-पड़ोसी, इधर उधर के कितने भी मिलने वाले हो उन सब से प्रेम करना चाहिये। फिर वो चाहे पार हो चाहे नहीं हो। आज नहीं तो कल सब पार हो सकते हैं । लेकिन आप अगर उनके साथ गिर गये, तो आपका भी पतन हो गया और उनका भी उत्थान होने की कोई भी बातचीत कर ही नहीं जा सकती। आपके प्रेम को ही देख कर के वो समझ सकते हैं सहजयोग की कितनी विशेषता है। प्रेम की शक्ति को मनुष्य ने कभी आजमाया ही नहीं। अभी अभी शुरू हुआ है, जब से सहजयोग से आप लोग पार हये हैं, तब से आपने इस शक्ति को जाना है, कि कितनी प्रचंड शक्ति है, कितनी व्यापक है और कितनी कार्यान्वित होती है। इसको बाह्य से अगर कोई देखना चाहें, कोई उस लेवल का आदमी हो कभी नहीं मिल सकता है। इसलिये मैंने कहा था जो लोग पढ़त मूर्ख होते हैं, उनकी समझ में नहीं आता। लेकिन जो दयार्द्रै, जो हृदयपूर्ण हैं उनके लिये सहजयोग बहुत आसान है। क्योंकि ये अत्यंत सूक्ष्म वेदना है, और वो घटित ही हो सकती है जिनके अगर हृदय का स्थान अभी भी पूरेपूर संसार के लिये बना है। हृदय में ही शिवजी का स्थान है। और हृदय में ही परमेश्वर का प्रकाश आत्मास्वरूप हमारे अन्दर विराजता है। जिस आदमी 9. का हृदय कठोर होगा, जो कठोरतापूर्ण दूसरों से व्यवहार करता होगा , उसका हृदय आत्मा दर्शन से वंचित रहेगा। सबको चाहिये कि अपनी ओर दृष्टि कर के देखें, कि हम प्रेम धर्म में कितने उठते हैं। उससे आपको 10 फलाना करेंगे। जिससे हम दूसरों को तकलीफ दे सकते हैं। ऐसे धर्म कभी भी धर्म नहीं हो सकते। तीसरे तरह के ये कि चाहे अगर पैसा हो ना हो हम मन्दिरों में जाएंगे। हम वहाँ जा कर पैसा लुटायेंगे। हम जा कर के पंडितों को पैसा देंगे और चोरों पर हम पैसे लुटायेंगे। ये भी कोई धर्म नहीं होता। अपने घर के बाल बच्चों को जिनको खाने को नहीं है। अपने बच्चों की तरफ जब हमारा कोई ध्यान नहीं है। हम अपने घर वालों को जब देख नहीं सकते, तो इस तरह का व्यर्थ समय बर्बाद करने वालों को भी .....जाना चाहिये। मैं तो यहाँ तक कहँगी कि मनन शक्ति में भी मनुष्य अगर अपना समय बर्बाद कर रहा है और अपने घर के लोगों को भूखा मार रहा है तो ऐसे मनन से अच्छा है आदमी मनन न करें। धर्म का मतलब है सब के प्रति प्रेम की पूर्ण व्यवस्था रखना। प्रेम पूर्वक सब तरफ जागरूक रहना। यही धर्म है और जब तक ये धर्म आप पाईयेगा नहीं तब तक आप धर्मातीत नहीं हो सकते। धर्मातीत तब मनुष्य होता जब वो प्रेमी हो जायें। उसमें और कुछ बच ही नहीं जाता है। वो जो भी | करता है वो प्रेम में ही करता है। जैसे श्रीकृष्ण का संहार है। जब वो किसी का संहार भी करते हैं तो वो भी प्रेम में ही होता है। जब ईसामसीह ने हाथ में हंटर ले के लोगों को मारना शुरू कर दिया क्योंकि वो मन्दिरों में बैठ के बाजार कर रहे थे । वो भी प्रेम है। उसकी हर एक चीज़ भी प्रेम हो जाती है । और तब आदमी धर्मातीत हो जाता है। उसके लिये कोई धर्म नहीं बच जाता फिर। सिर्फ प्रेम ही प्रेम रहता है। वो जो भी करता है, जो भी कहता है, जो भी बोलता है, जो भी खाता है, पीता है, सब धर्म करता है और धर्म वही होता है जो कि प्रेम हो जाये । हमारे सहजयोग में मैं अनेक बार देखती हूँ कि आप मानव हैं और मानव से अति मानव होने के बाद भी आप इस बात को समझते नहीं है कि प्रेम की व्यवस्था सब से बड़ी होती है। प्रेम के प्रति जागरूक होना। कोई मनुष्य है, वो अपनी पत्नी को अगर मारता है, कोई स्त्री है वो अगर अपने पती को सताती है, और अपने को बहत बड़ा सहजयोगी समझती है, उसको समझ लेना चाहिये कि ये महापाप है। किसी को भी सताने की व्यवस्था सहजयोग में नहीं है। किसी को मारने की व्यवस्था सहजयोग में नहीं है। आप किसी पे भी हाथ फेरे आपके अन्दर से प्रेम ही की शक्ति बहेगी और प्रेम में हमेशा दुसरों का हित ही होगा। अहित नहीं हो सकता। आप कितनी भी कोशिश करे आप किसी का अहित नहीं कर सकते। हाँ, अगर आप सहजयोग से हट जाये या गिर जाये, आपका पतन हो जाये, तब आप जरूर अहित कर सकते हैं। धर्म के प्रति आज तक हर एक धर्मों में ही लोगों ने से खोल कर इस बात को बताया है। किसी ने ये बात को बताया ऐसे बहुत पूरी तरह नहीं। लेकिन मनुष्य हमेशा मिथ की ओर दौड़ता है। इसलिये धर्म का जो भी विपरीत रूप बन जाता है उसी को हम मान लेते हैं। 11 जैसे ईसामसीह ने बताया है, कि भूत और प्रेत इन सब चीज़ों से काम नहीं लेना चाहिये। मोहम्मद ने बताया है, कि आपको शराब आदि चीज़ों का सेवन नहीं करना है। राजा जनक ने बताया है, कि साहब आपको परमेश्वर में लीन, परमेश्वर के सामने हमेशा हर एक इन्सान को .... दृष्टि से देखना चाहिये। नानक ने बताया है कि सारे संसार में हर एक मनुष्य में परमात्मा का भाव है। उन्होंने भी मादक पदार्थ को एकदम मना किया है । लेकिन उनके धर्म को जो मानने वाले हैं और जो अपने को बहत बड़े धार्मिक कहलाते हैं और कहते हैं, कि हम बड़े भारी नानक के, बड़े भारी सपोर्टर्स है। वो लोग आज क्या कर रहे हैं? क्राइस्ट के जो सपोर्टर्स हैं, वो लोग आज क्या कर रहे हैं? ईसामसीह ने सब से बड़ी चीज़ बतायी थी कि मनुष्य को अबोध, बच्चे जैसा होना चाहिये। हार्ट अटैक के मामले में ईसामसीह ने दिखाया था कि मनुष्य को बहुत (अस्पष्ट), अत्यंत व्यवस्थित, विवाहित रूप से ही जीवन में इस्तेमाल करना चाहिये। लेकिन उनके शिष्यों ने आज क्या हालत कर दी। उन्होंने आज क्या व्यवस्था कर के रख दी। वो किस तरह से चल रहे हैं। उनको देखें तो आश्चर्य होता है कि क्या ये ईसामसीह के ही ईसाई हैं या कोई और ईसामसीह राक्षस पैदा हुआ था। उसके ये लोग ईसाई बने हये हैं। हिन्दू धर्म में एक बहुत बड़ी बात कही गयी है कि सब के अन्दर एक ही आत्मा का वास है। पर हम अनेक बार जन्म संसार में लेते हैं। अनेक बार इसको खोजते हैं, इसलिये एक ही जन्म में सब चीज़ को खोज डालो। जब हम अनेक बार जन्म लेते हैं, तब हम ये कैसे कह सकते हैं, कि कोई मुसलमान है, कोई हिन्दू है, हम ऐसे कैसे कह सकते हैं कि कोई निम्न है, कोई उच्च है? अनेक बार मैं आपको ये समझाती हूँ और आप इस बात को पूरी तरह से समझ लें कि प्रेम में जब तक आप पूरी तरह से लीन नहीं होगे सहजयोग इस संसार में बैठने वाला नहीं। जब आप प्रेममय हो जाएंगे, एक प्रेम का फूल अगर सींचा जायें तो सारे संसार में इसकी खुशबू आयेगी। आप भी अपने जिंदगी में सोचें कि एक इन्सान जिसको आपने पाया था कभी उसने कितना आपको प्रेम दिया था। ऐसा एक भी आदमी कहीं हो तो आपको आश्चर्य होगा उसके पीछे हजारों लोग घूमते हैं और उससे प्रेम की याचना करते हैं। उसको माँगते हैं। लेकिन वो लोग जो कि झूठे, प्रेम का दंभ कर के और लोगों को लूटते हैं, उनको खरचोटते हैं, उनसे झूठ बोलते हैं ऐसे लोगों को मनुष्य छोड़ देता है। प्रेम ऐसी चीज़ है जो हृदय तक पहुँचती है और उसी की चाव सब से ज्यादा होती है और यही परमात्मा का सबसे बड़ा धर्म है। परमेश्वर का कौन सा भी धर्म हो या उसका अगर कोई तत्त्व है तो वो सिर्फ प्रेम! आप अपने प्रेम तत्त्व पे थोड़ा सा मनन करें और जो लोग नये आयें हैं उनको हम रियलाइझेशन देंगे अभी। और कोशिश करेंगे की वो लोग पार हो जायें । सब लोग अपनी प्रेम तत्त्व की ओर देखें, कि हमने कहाँ तक प्रेम किया हआ है। 12 13 परम तत्त्व अर्थ का मुंबई, २५ मार्च १९७४ परम तत्त्व का अर्थ क्या है? वो किस तरह से सृजन करता है? ये चीज़ क्या है? इसके बारे में अनेक ग्रंथ , भाषणादि बहुत कुछ व्याख्यान संसार में ह्ये हैं। बहुत कुछ कहा गया है। परम शब्द परमात्मा का द्योतक है। ये परमेश्वरी शक्ति है, जो हर अणु-रेणु में वास कर के परमेश्वर का कार्य को संचलित करती है, चलाती है। अब ऐसे कहने से, बातचीत करने से इस जमाने में विश्वास नहीं करता । कोई इसको मान नहीं सकता। लेकिन जैसे मैंने आपसे पहले भी बताया है, कि अभी लंडन में, हाल ही में मैंने एक चित्र देखा था, जिसमें उन्होंने सल्फर डाय ऑक्साईड के मॉलेक्यूल्स दिखाये थे| उसमें दिखाया कि सल्फर और ऑक्सिजन के बीच में, उसके अणुओं के बीच में जो बंध है, बाँड है, उनमें कोई परम जो है जिसे ये लोग भी, साइंटिस्ट भी वाइब्रेशन्स ही कहते हैं। आँखों देखी बात है। आँखो से आप भी देख सकते हैं । अणु और रेणुओं की स्थिति ये साइंटिस्ट बता सकते हैं कि ये अणु क्या हैं और रेणु क्या हैं? वो किस तरह से हैं? वो किस तरह से स्थित हैं? जड़ तत्त्व का पता साइंटिस्ट लगा सकते हैं। लेकिन उस में आंदोलित होने वाला चैतन्य जिसे वो वाइब्रेशन्स कहते हैं उसके बारे में वो बहुत ही अनजान हैं और उसके बारे में वो कुछ भी बता नहीं सकते। हर एक के लिये वो तत्त्व आंदोलित हो रहा है । वो जड़ में है, वनस्पति में है, पशुओं में है और आप में है। अपनी अपनी जगह वो आंदोलित है और संपूर्ण में चेतित भी है। माने ये कि जो परम तत्त्व आप के अन्दर चेतना पा रहा है वही इस बैठक में भी है। अन्तर इतना ही है कि उस 14 चेतन तत्त्व को जानने वाला इतना भी जागृत नहीं हुआ है, लेकिन मानव में ही ये जागृति आयी हुई है कि उस चेतन त्त्व को जानें। वही चेतन तत्त्व, परम तत्त्व सारे संसार का संचालक है। जो कुछ भी है, संसार का जो भी कुछ है वो इसी का बनाया हुआ है। आप अगर कहे कि ये पंखा है, ये किसने बनाया? ये भी उसी चेतन तत्त्व की चालना से ही मूर्त स्वरूप में आज पंखे की रूप में आाया है। साइन्स भी उसी चेतन तत्त्व की चालना से, उसी की प्रेरणा से हमारी बुद्धि में समाया हुआ है। जो वाणी हमारी मुख से चल रही है वो भी उसी चेतन तत्त्व की प्रभुत्व में चलती है। सब कुछ उसी चेतन तत्त्व से चल रहा है। आप इसी से समझ लें कि हमारे अन्दर जो जीवन है वो उसी चेतन तत्त्व का आविर्भाव है । जिस दिन ये हृदय बंद हो जायेगा उस दिन आप देखियेगा कि यही वाणी रुक जायेगी, आँखें रुक जायेगी, विचार आना रुक जायेगा, कहना-सुनना बंद हो जायेगा, ये शरीर एक व्यर्थ सा, बुझे हुये दीप जैसा खत्म हो जायेगा। फिर चेतन तत्त्व को जानने की क्या जरूरत है? ये जरूर जान लेना चाहिये। इस युग में मानव ये सोचता है कि ये सब जानने की क्या जरूरत है? 'भगवान भगवान' करने की जरूरत क्या है? इसका हमें क्या फायदा? इसके पीछे में क्यों भाग रहे हैं? क्यों समय बरबाद कर रहे हैं? अपनी जिंदगी का क्यों न आनन्द ले रखे? लेकिन एक बड़ा भारी सत्य है जो हम से छुपा है माया के रूप में, आनन्द, चैतन्य स्वरूप अपना। इसीलिये संसार में आप किसी से भी पूछे कि, 'क्या भाई, तुम सुखी हो?' वो कहेगा, 'नहीं भाई!' 'क्या तुम्हें आनन्द आ रहा है?' 'नहीं आ रहा है!' आखिर इस देश में, अपने देश को छोडिये, लेकिन और देशों में, जहाँ पर इतनी अधिभौतिक प्रगति हो गयी है, जहाँ लोग इतने ऊँचे सिरे पर पहुँच गये हैं कि उनके पास कभी कुछ नहीं रहा है, वो लोग महान दुःखी क्यों? सोचने ही की बात है। बहुत से लोगों में ये विचार ही नहीं उत्पन्न होता है, कि हमें आनन्द क्यों नहीं होता है? हम किसी भी चीज़ की ओर दौड़ते हैं? सारे इकोनॉमिक साइन्स आधारस्तंभ में एक ही वाक्य है कि 'नो इकोनॉमिक वाँट्स इन कॉपी फॅशन!' किसी भी, कितनी भी आप जरूरत रखें, आज आपको चूड़ियों की जरूरत हैं, चूड़ियाँ मिलीं, चूड़ियों के बाद साड़ी मिल गयी। साड़ी मिलने के बाद आपको कुछ और चीज़ चाहिये, इसके बाद में और चीज़। इन जनरल नो इकोनॉमिक्स वाँट्स् धिस फॅशन। इसका मतलब ये है कि मन उसी को हर कुछ एक चीज़ में खो गया हो, लेकिन किसी भी चीज़ में वो तृप्त नहीं है। तृप्ति कहीं भी नहीं होती, त्याग कहीं भी नहीं दिखता है, प्यास बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है। प्यासा आदमी मर जाता है, फिर जन्म लेता है, फिर प्यासे के साथ दौड़ता है। घर में भी वो दौड़ते रहता है। खुश नहीं रहता है, लेकिन आनन्द नहीं पाता। कारण उसका एक ही है, कि जिस चीज़ से आनन्द का उपभोग होता है वही चीज़ हमारे अन्दर पु अभी जागृत नहीं हुई है। वो अगर दीप है और वो अगर चाहे की मेरे से प्रकाश, मेरे अन्दर प्रकाश और बाहर प्रकाश हो तो उसके अन्दर दीप ही जलाना पड़ेगा और दूसरा कोई भी मार्ग नहीं। वो प्रकाश से भाग कर अगर प्रकाश जलाना चाहे तो कैसे प्रकाश आयेगा ? परम तत्त्व से मुँह मोड़ कर के आप कभी भी संसार में आनन्द नहीं पा सकते। अब ये कोई मैं नयी 15 बात नहीं बता रही हूँ। ऐसी बातें हज़ारों वर्षों से ऋषि- मुनियों ने इस भारत वर्ष में , इस योगभूमि में और भोग भूमिओं में भी बहुतों ने कह दी। और कहा और कह के मर भी गये और तीसरे दिन फिर कहा और फिर मर गये। दुनिया भर की चीज़ें हो गयी| पर किसी ने इसको पाया नहीं। अन्तर इतना ही है कि मैं आपको थोड़ा इस आनन्द का दर्शन मात्र दे रही हूँ। इस आनन्द को पाने के लिये आपको थोड़े से अपने दर्शन होने हैं। जो आपके अन्दर आनन्द दे रहा है वो आप अपने स्वयं हैं और उस के दर्शन देने की पात्रता आप में स्वयं ही स्थित है। सिर्फ मैं इतना ही करती हूँ कि जरा आपका शीशा पोंछ देती हूँ। इसकी भी बहुत लोग ऐसी चर्चा करते हैं कि 'बड़े बड़े युगों के और कल्पांतरों के बाद में ही ऐसी दशा में मनुष्य आता है, कि वो इस चीज़ को पाता है।' होगा और ऐसा भी कहते हैं कि 'ऐसे कैसे संभव हो जाता है । आज कल तो कलियुग में मनुष्य तो अत्यंत ....(अस्पष्ट) हो गया है और वो किस तरह से पा सकता है। अब इसका जवाब ऐसा ही देना चाहिये कि इसी कलियुग में हम चंद्रमा पर जा सकते हैं तो हो सकता है कि अपने अंतर्तम में ही चलें। कोई ऐसी करुणा ही स्वयं हो कर आये कि आप लोग इस दशा में आ जाये । क्यों नहीं हो सकता है? आखिर इतने दिनों से जो आप घंटियाँ बजा रहे थे और आरतियाँ उतार रहे थे और आवाहन पे आवाहन हो रहे थे , हजारों देवताओं के जो पूजन हये थे और जो मस्जिदों में बुलंद आवाज में परमेश्वर को पुकारा जा रहा था वो सुनने वाला कोई बहरा था। जो कभी हिल नहीं सकता। या एकदम वो बहरा था या आप एकदम मूर्ख थे। और अगर सुनवाई हो गयी हो और अगर समझ लीजिये कि इंतजामात हो गये हो तो इसमें इतनी शंका करने की क्या जरूरत है? आपकी गठरी से मैं कुछ लेती नहीं हूँ। आपसे मैं कुछ माँगती नहीं हूँ। आप ही में आपको जगा रही हूँ। आप ही की शक्तियाँ आपको दे रही हूँ। लेकिन मनुष्य बड़ा विचित्र है। जो आपकी सारी पॉवर्स और शक्तियाँ खींच ले और अपने वश में कर के आपको नचाये ऐसा आदमी आपको पसन्द आये। जो जन्मजन्मांतर तक आपको लूटता रहे, आपके पैसे, आपकी अब्रू, इसके पीछे नाचना आपको पसन्द है। बड़ा अरज़ीब मनुष्य का मन है! हज़ारों आदमी ऐसे आदमी के पीछे भागते हैं, जो पूरी तरह से आप पर छा कर और आपको एकदम ही गिरा देता है और छोटा सा ....(अस्पष्ट) बना कर के और जन्मजन्मांतर के लिये आपको शापित कर देता है। ऐसे आदमी की तरफ़ दौड़ बड़ी जल्दी होती है और जो आपकी ही स्थापना करने के लिये और आप ही का पूजन करने के लिये बैठा है, उधर आँख नहीं उठती इन्सान की! ये विचार क्यों नहीं आता, सोच क्यों नहीं लेता कि 'उस पागल दशा में जहाँ दौड़ा जा रहा था इतनी दिन तक मैंने.... इस दिन में मैंने कौनसी ऐसी शक्ति पायी हैं जो मेरी अपनी स्वयं है।' गुरु वही है जो आपके अन्दर आपकी शक्ति का सृजन करे और आपको अपने से परिचित करे वही गुरु है। जो आपकी सारी पॉवर छीन ले और आपको बेवकूफ़ बनाता है, ये गुरु है कि घण्टाल है! आपको खुद 16 सोचना है। मानव के अन्दर ऐसे विचित्र दोष मैं देखती हूँ। हो सकता है कि हमारे लिये मानव का समझना मुश्किल है। जैसे मानव को हमारी ओर देखना मुश्किल जाता है। दूसरा दोष बड़ा विचित्र सा मानव में है कि जब कोई जीवित रहता है तो उसकी दुर्दशा कर देते हैं और जब वो मर जाता है तो उसको चार चाँद लगाते है। सीता जी को उसके घर से निकाल दिया तब कोई साधु-संत मिला नहीं। जब वो मर गयी तो उनके हज़ारों मंदिर बना कर रख दिये । क्राइस्ट को क्रॉस पर चढ़ा दिया। जब वो मर गयें तो उनके हज़ारों मंदिर बना कर रख दिये। समझ में नहीं आता। जिस वख्त वो जीवित हैं सब आँखें, सबकुछ क्या खत्म हो गयी। अरे, उनको जानने वाले कम से कम एक- दो तो आदमी थे। उनकी भी बात नहीं सुनी। उन्होंने कमाल कर के दिखायें वो भी नहीं देखा। और उनको उठा के क्रॉस पर डाल दिया। मोहम्मद साहब का हाल वही हुआ। ज्ञानेश्वर जी का हाल दूसरा हुआ। वो मर गये तो आपने उनके पचासों मंदिर इस बंबई शहर में बना दिये। मानव को समझना बड़ा कठिन है कि जब सत्य जीवित खड़ा हो जाता है तब मानव पीठ मोड़ लेता है। और जब वो किसी आत्मा में मृत हो कर खत्म हो जाता है तब मानव अपने माथे पर लगा के 'मैं फलाना, मैं ढिकाना, मैं ज्ञानेश्वर जी का संत हूँ,' और घूमता है। मरी हुई चीज़ों से इतना प्रेम मानव को क्यों हैं मेरी कुछ समझ में नहीं आता। जो विनाशी चीजें हैं उससे मनुष्य इतना प्रेम क्यों करता है? रियलाइझेशन के बाद भी मैं देखती हूँ कि थोडा डगाडग डगाडग मन चलता ही है। मृत में, किसी भी मृत वस्तु में, जड़ वस्तु में अपना ध्यान देना ही स्वयं मृत हो जाना है। विराट का पूरा चित्र भी हम अगर आपके सामने खड़ा भी करे, तो कोई फायदा होने वाला नहीं, ये हमें कभी कभी लगने लगता है। मनुष्य की खोज क्या सत्य की है या असत्य की है? मनुष्य का प्रेम असत्य से क्यों हैं? हालांकि वैसे देखिये , तो हमें असत्य कोई अच्छा नहीं लगता । अगर हम आपसे कोई बात झूठ बोले तो आपको थोड़ी हम अच्छे लगेंगे! लेकिन सूक्ष्म से, सूक्ष्मतर में मनुष्य अपने को अगर जा के ये देख सकता है कि उसमें जड़ की ओर, मृत की ओर ध्यान बहुत अधिक है, अधिक है और फिर वो दुःखी है। सारा संसार दुःखी है। इनका क्या किया जायें जो बेकार ही में दुःखी हैं? वो तो ऐसा ही हुआ आपका दिया बहुत ही (दीप), सजाया, सँवारा, सुन्दर बनाया, इसमें सुन्दर सा दीप ही जलाने की व्यवस्था कर दी, अब बाती लगाओ। बाती भी सजा दी और दीप भी जला दिया तो भी आप दुःखी हैं, अंधेरे में हैं। इस पर गौर करना होगा। इस पर सोचना होगा। संसार में बहुत बड़ा, घनघोर संग्राम चल रहा है। वो संग्राम आपने काली के अवतार सुना था उससे महाभयंकर संग्राम आज संसार में चल रहा है। इसमें जिसकी जीत में होगी वो ही निर्धार करेगा कि इस सृष्टि का सृजन पूरा होगा कि खत्म होगा। एक तरफ तो पूरी तरह से राक्षस और उनकी सेनायें तैयार बैठी हुई हैं। अभी तक तो मृतावस्था 17 में ही वो है। और कुछ कुछ राक्षसों ने जन्म लिया हुआ है। क्या हमें उन लोगों का साथ देना है? या हमें सत्ययुग को इस संसार में लाना है? बहुत से लोग मुझ से कहते हैं कि इस देश की गरीबी कैसे दूर होगी? आपके बकवास होगी क्या? विएतनाम का युद्ध कैसे बंद होगा? आपकी चिंता से बंद होगा क्या? नहीं होगा ना ! वो तो जितनी आप बातचीत कर रहे हैं क्या आप असलियत से अपना मन होगा। जो से दूर युद्ध | विएतनाम में है वो युद्ध आपके अन्दर भी है। जो अभी भी गरीबी की बातचीत है वो अभी भी आपके अन्दर भी हो रही है। आप अगर अमीर होना चाहे तो अपने अन्दर हो सकते हैं और अगर गरीब, दरिद्र होना चाहे तो अपने अन्दर हो सकते हैं। जिस देश की आत्मा ही गरीब हो जाये वो देश अमीर कैसे हो सकता है? हमारी आत्मा में दरिद्रता है। उस पर बादल छा गये हैं, अज्ञान के बादल। जिसको कि मैं निगेटिविटी कहती हैँ उसके बादल छाये हैं इस सारे संसार पर । और सब से ज्यादा इस देश में मैं ज्यादा देखती हूँ कि सारे भूत यहीं पर हैं उनको और कोई जगह नहीं मिली और तुम लोग अपने हृदय में उनको स्थान दिये बैठे हो । मन की दरिद्रता दूर हुये बगैर सारा सुहाना समय भी बेकार जाता है। ऐसे ऐसे राक्षसों को आपने में स्थान दिया है इस देश में कि राक्षसों का नाश कर भी नहीं सकते। क्योंकि उनके सारे निशाचर आपके अन्दर घुसे पड़े हये हैं। इनका अगर नाश करे तो उनके निशाचर आपको खा जाये । हदय जिस दिन आप लोग उनको निकाल फेकेंगे उसी दिन सब का ठिकाना हो जायेगा अपने आप। लेकिन पहली बात तय कर लें कि हमें परम तत्त्व को पूरी तरह से, पूरी सच्चाई के साथ जानना है। इससे बढ़ के संसार में कोई धनसंपत्ती नहीं । परम धन वही है। सारे परम आनन्द की उपलब्धि ही उसी में है उसको पहले पा लीजिये। अपने मन को इधर से उधर उधर से इधर करने की कोई जरूरत नहीं। बेकार की बातें ले कर के कि इस देश की गरीबी कैसे होगी? आप प्राइम मिनिस्टर ऑफ दूर इंडिया हैं? जो आप सब चीज़ का ठेका लिये बैठे हैं? गरीबी तो शायद दूर भी हो जायेगी लेकिन आप लोगों के भूत दर होने हैं। जिनके देशों में गरीबी नहीं वहाँ देखिये दूसरे तरह के भूत काम कर रहे हैं। लंडन में गये। ईसामसीह ने बताया था कि भूतों के चक्कर में जाना मत। उन्होंने साफ़ साफ़ बता दिया बेचारों ने, सौ मर्तबा कहा होगा, कि सारे ईसाई देश इसी भूतों के चक्कर में फँसे हये हैं। जो वहाँ के बूढ़ें लोग हैं उनके अपने लिये मिडियम चल रहे हैं, ये चल रहे हैं, वो चल रहे हैं और जो जवान हैं वो यहाँ से गये उनको लूटने के लिये। सब भूतों के चक्कर में घूम रहे हैं। किसी ने परम तत्त्व को आज तक खोजा नहीं। न उधर किसी की . उठाने वाले हैं, और अपने को ईसा मसीह का बड़ा भारी चेला कहते हैं। अमेरिका में यही हाल हैं। वहाँ तो विच (witch) राष्ट्र चल रहा है, खुले आम। 18 जैसे अपना भानामती होता है, ये निकालते हैं, वो निकालते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं, वो वहाँ पे बाकायदा खुले आम, रेग्यूलर सोसाइटी है । अपने यहाँ उसका नाम भाविक और भगवान बन के लोग करते हैं, जैसे अपने यहाँ डबल स्टैंडर्ड हैं न, ढोंग बहुत है। इसी देश में ऐसा ढोंग है। आप अग२ हम लोगों को तो ढोंग को तो त्याग करना आता नहीं, सत्य को क्या करें? ऐसा ढोंग इन लोगों ने रचा हुआ है। ढोंगियों के पीछे में आप लोग अभी२ होनी चाहें भागे चले जा रहे हैं। हो सकता है आप मोड़ लो अपने को पूरी तरह। तौ अपने अन्द२ अब संसार के रंगमंच में आप ही लोग बैठे हये हैं। आपको आश्चर्य होगा कि आप बड़े चुने हुये लोग हैं, बड़े ही चुने हुये लोग हैं इसलिये हो सकते हैं और आप पार हैं। कितने लोगों के हाथ से वाइब्रेशन्स आते हैं संसार में जरा अग२ गरीब, जा के देखिये तो। बड़े बड़े लोग मैंने देख लिये, बड़े स्वामी और साधु और फलाने, ऐसे कौन बड़़े भारी लगे हुये हैं दुनिया में जरा जा के देख दरिद्र होनी चाहें लीजिये जिनके अन्दर से वाइब्रेशन्स आते हैं। सब ढोंगी लोग हैं, भोंद लोग हैं। और आप लोगों की हाथ से वाइब्रेशन्स आ रहे हैं। जिसका वर्णन बड़े बड़े महात्माओं ने 'बड़ी ऊँची दशा में जब मनुष्य पहुँचता हैं तौ अपने अन्द२ हो सकते हैं। तब मिलता है, इस तरह से किया है। कुछ कर के दिखाना है ये बात है। जिस देश की मैं देखती हूँ, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। चालाकी से धर्म अन्दर कभी खड़ा नहीं हो सकता। और मेरे पास चालाकी है, चालाकी आयी कहाँ से? मेरी पेट से आयी हैं। मुझ से चालाकी करते हैं। मेरे सामने बड़े आत्मा ही गरीब हो जाये वो देश साधु, महात्मा बन के बैठते हैं। उस चालाकी को त्याग दो। ये जो कुछ वाइब्रेशन्स हैं, ये तुम्हारे अन्दर जो कुछ भोलापन है वही बह रहा है। ये अभी२ कैसे हो जो थोड़ा सा तुम्हारे अन्दर भोलापन आया है तुम्हारी माँ से वही बह रहा है। भोलेपन में रहो। भोले आदमी को कोई ठग नहीं सकता। ये २कती है? सत्य है। और ठगेगा तो भी ऐसा नाटक बनेगा कि ठगने वाला ही ठग | हमारी आत्मा में जायेगा । रावण के चक्कर में सीताजी फँस गयी थीं, उनके भोलेपन का एक दरिद्रता है । दर्शन है, लेकिन मज़ाल नहीं कि उनका वो हाथ पकड़ सके या उनसे कोई बदतमीजी कर सके? भोलेपन की तेजस्विता कहाँ और रावण की चालाकी कहाँ! एक साधारण सी अबला, उसके ऊपर किसी भी तरह का हमला नहीं कर सका और जब तक सीताजी को अपने सर पे उठाये 19 रखा, उसे अपनी साक्षात् माँ याद आ गयी। उसका सारा बड़प्पन एक छोटे बच्चे जैसे हो गया। ......ऐसा ही श्री रावण जी का हाल था। इसलिये अपने भोलेपन को न त्यागिये। अपने भोलेपन में सहजयोग में उठिये। वही ढूरों से लड़ने आपको अत्यंत कर्तृत्व शक्ति देगा। आप ही लोग स्टेज पर हैं। कोई और में अपनी शक्ति आता ही नहीं और कोई आ जायें मेरा बेटा तो मैं आपको दिखा देँ अपना करिश्मा! लेकिन कोई आता ही नहीं। कहता है, चलने दो| क्योंकि आज व्यर्थ न करें। स्पेशलिटी पॅटर्न चला हैं न। सामान्य जनता से ही असामान्य काम करना है। आपस में सामान्य लोगों से असामान्य कर के दिखाना है। इसलिये ऐसे कोई आते नहीं और आते हैं तो जंगल में जा के बैठते हैं। आप लोग स्टेज पर आये हैं लड़ाई-इगड़ा और बैकग्राऊंड में सब लोग बैठे हैं गण आदि, उसका आपको पता नहीं लगाने में अपनी लगेगा। लेकिन याद रखना एक-एक आपकी अँक्शन, एक-एक आपकी बात जो आप छुपाये और गड़बड़ आप करें सब चीज़ उनके पास लिखी जा शक्ति व्यर्थ न रही है। और वो ऐसा आपको टाँग अड़ा कर गिरायेंगे कि फिर कहियेगा मुँह करें। दूरों की के बल आ कर कि, 'माँ, ये क्या हुआ? हम तो तुम्हारी ही सेवा करते थे।' उनसे आप पार नहीं आ सकते। इसलिये मैं बार बार आपसे बता रही हैूँ कि ओ२ देख कर बच के रहना। सहजयोग में बहुत ही भोलापन चाहिये और जो आप में भोला होगा उसके चरणों में पड़ने के लिये तैयार है। किसी भी चालाकी में के अपनी शक्ति घुसने का प्रयत्न ना करें। फिर आप बचेंगे, फिर आप प्रोटेक्टेड है, फिर नष्ट ने करें। आप मेरे कवच में हैं। चालाकी से बचिये। लेकिन अपने से आज के शुभमुहूर्त पर बार बार आपसे एक ही कहना है, कि कोई क्षण अपने जीवन में ऐसे महत्त्वपूर्ण होते हैं कि हम इस किनारे से उस किनारे तक लडिये, खुद से चल ही जाये, भवसागर तर ही जाते हैं, लेकिन भवसागर की थपेड़ें खाने के बाद अगर किनारे पर पहुँच गये तो बहुत नयी उम्मीद सोचने की बहुत लंड़िये, अपने जरूरत है। नहीं तो भवसागर पार करने का कुछ फायदा ही नहीं। आप लोगों औ२ देखें, को जो भी अनुभव साक्षात्कार से आये, वो किनारे पर बिल्कुल ही बेकार हो जाते हैं। तब मुझे समझ ही नहीं आता कि अब इनको कौनसा इंजेक्शन अपनी औ२ दूँ कि उठ कर खड़े हो जाओ| नज़२ करें। हर एक को आज प्रतिज्ञा करनी चाहिये, जो लोग पार हैं, कि हमारे हाथों से बहुतों के हृदय में दीप जलें। और जो सब को बाँटें। इतनी प्रतिज्ञा आप सबको करनी चाहिये। इसके लिये हम ... हमने उठाया है वहीं . 20 क्या कर रहे हैं? हम इसके लिये क्या प्रयत्नशील हैं? इतने शिष्य तो कभी भी किसी गुरु के नहीं होंगे जितने मेरे बच्चे हैं। और शिष्य से भी कहीं अधिक बच्चे अपने होते हैं। लेकिन कलियुग का मामला और माँ का हिसाब-किताब जोड़ लें इससे बहुत बचने की जरूरत है। माँ की स्थापना कलियुग में बड़ी मुश्किल से होती है। और अगर हो जाये तो ऐसा आदमी परम शक्तिशाली हो सकता है। दूसरों से लड़ने में अपनी शक्ति व्यर्थ न करें। आपस में लड़ाई-झगड़ा लगाने में अपनी शक्ति व्यर्थ न करें। दूसरों की ओर देख कर के अपनी शक्ति नष्ट न करें। लेकिन अपने से लड़िये, खुद से लड़िये, अपने ओर देखें, अपनी ओर नज़र करें और अपने से पूछो कि, 'क्यों मैं इतना निर्बल हो रहा हूँ? क्या बात है? क्यों?' कौनसी ऐसी बात है जो हमने आपको दी नहीं ? कौनसी ऐसी बात हैं जो हमने आप को समझायी नहीं? आपने कहा 'हमें शरीर की जरूरत है।' शरीर दे दिया। किसी ने कहा 'हमारे बाल सफ़ेद कर दो।' तो बाल सफ़ेद कर दिये। किसी ने कहा, 'हमारे बाल काले कर दो।' उनके बाल काले कर दिये। किसी ने कहा, 'बेटा दे दो।' उनको बेटा दे दिया। किसी ने कुछ माँगा, वो दे दिया। किसी ने कहा, 'माँ, इसका सारा ज्ञान बताओ। सारा गोप से गोपनीय ज्ञान बताने के लिये बैठे हैं। किसी ने कहा, 'माँ, हमें ये चीज़ें दों, वो चीजें दों।' दे दी। देने के बाद भी ऐसा ही हमला करना हैं तो क्या कहें? हम लेने वाले तो नहीं हैं । लेकिन आपको और कुछ अगर पाना ही है, तो उठना होगा। बगैर उठे काम नहीं होगा। आज के दिन जरूर सब को मन ही मन प्रतिज्ञा करनी है। छोटी छोटी चीज़ों में मैं देखती हूँ मनुष्य घबरा जाता है। जैसे एक साहब को मैंने कहा, 'यहाँ बैठिये।' दूसरे से कहा, 'वहाँ बैठिये।' फिसल गये । कोई साहब थे उनको मंत्र गाने को कहा, दसरे को ये कहा, फिर फिसल गये। ये क्या है ? आपको मैंने क्या आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं दिया? क्या आपको मैंने परम तत्त्व की बातें नहीं बताई? उसमें मैंने कभी कंजूसी की है क्या? मूर्खता की बात ही है कि लड़ने वाले क्या पायेंगे? कोई आदमी यहाँ बैठे, कोई आदमी वहाँ बैठे, चाहे कहीं भी बैठे, माँ के हृदय में बैठना चाहिये । या अपनी कुर्सियाँ ले के एक भी आदमी मर जायें तो मैं मान लूँ की कुर्सी का कोई अर्थ होता है। सब की कुर्सियाँ भी यहीं छूट जाती हैं, बैठक भी छूट जाती है। अध्यात्म की बैठक बिठाईये। जो गहराई में उतरता है वो .....(अस्पष्ट) बैठता है। दूसरे से आपको कोई मतलब नहीं है। अन्दर ही अन्दर आप मुझे जान सकते हैं, अन्दर ही अन्दर आप मुझे पा सकते हैं। लेकिन अपने ही अन्दर , अन्दर घुसना होगा, दूसरों के ऊपर या दूसरों की ओर जिनकी दृष्टि है उनको मैं बार बार बताना चाहती हूँ कि ऑर्गनाइझेशन का कोई मेरे आगे मतलब नहीं । मेरे लिये ऑर्गनाइझेशन आदि कुछ मतलब नहीं। जो आपकी शरीर के अन्दर ऑर्गनाइझेशन चल रहा है उसको क्या आप सम्भाले हुये हो? आपका हृदय जो धकधक कर रहा है, आपके जो श्वास चल 21 रहे हैं, पेट के अन्दर आपका जो पूरा खान पचन हो रहा है, उसका आर्गनाइझेशन क्या आप सम्भाले हुये हो? उसको कौन सम्भाल रहा है, उस ऑर्गनाइझेशन को? उसके अन्दर का परम तत्त्व और वही परम तत्त्व आपके ऑर्गनाइझेशन और सब आपके एकत्रित भावनाओं को सम्भालने वाला और महान कार्य को उठाने वाला है। लेकिन ये बीच में अनन्य बाजी लगाने की हमारी वृत्ति, जिसे की ये भारतीय वृत्ति कहते हैं, शर्म आनी चाहिये हमको भी। इस भारत वर्ष में ऐसे महान महान लोगों का वास हुआ, उनके चरण इस भूमि पर पड़े हैं, उस भूमि में इतने निकृष्ट जाति के लोग पैदा हये हैं। समझ नहीं आता है कि कलियुग का सारा यहीं अवतरित होने वाला है! जब भी आपका मन कोई जेलसी से भर जाये अपने साथ घृणा करे। घृणा करें, 'छी , छी, आज भी . ऐसी बातें की।' ( अस्पष्ट) मैंने आज कितना मंगल का समय, कितना आनन्द का समय है और कितनी बहार आनी चाहिये थी। जैसे कि संसार में एक नया ही वातावरण, हवा फैलें। उसकी जगह देखती हूँ कि जेलसी की बातें हैं। वही दुश्मन हैं हमारे, याद रखिये। हमारे महत कार्य में, हमारे परम कार्य में, परम तत्त्व जीना चाहता है, पनपना चाहता है, फूटना चाहता है सारे संसार के सुख, आनन्द और शांति को। आप जरा सम्भल के रहिये। आप लोग जरा सम्भल के रहें और उसको पा लें। सहजयोग का जो एक छोटासा दोष है, उसे समझ लें कि आपकी स्वतंत्रता पूरी तरह मानी जायेगी। आपकी स्वतंत्रता पूरी तरह मानी जायेगी और उसका पूरा आदर होगा। अपनी स्वतंत्रता का उपयोग अपने को परतंत्र करने में मत लगाईये। अपनी स्वतंत्रता की इज्जत करें और अपने स्वतंत्रता को जानें। बाजी हमारी होगी! आज कुछ लोग नये हैं यहाँ पर, बहुत से लोग पुराने भी हैं। जो पा चुके हैं उनके पास में वाइब्रेशन्स हैं। आपके वाइब्रेशन्स मुझे खींचते हैं। आप में वाइब्रेशन्स बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उसका कुछ अन्दर इको कम आता है। उसके अन्दर पडसाद कम आते है। बहुत वाइब्रेशन्स हैं यहाँ पर, मुझे खींच लायें लंडन से। मैं भागी चली आयीं उसी वाइब्रेशन्स की वजह से । ऐसा लगा की एक सहस्र दलों का कमल खिल रहा है बंबई में । कमल अपनी जगह खिल रहा है लेकिन पंखुड़ियाँ अभी तक निर्जीव ही नज़र आ रही हैं । इसी में जीवन है, अपने जीवन को वो जानें । वो सुगन्धित हैं और हर एक पंखुडी में से ये सुगन्ध सारे संसार को याद कर लें। उसी दिन स्वर्ग और परमात्मा सभी एकाकार आपको नजर आयेंगे । अब सब लोग मेरी ओर हाथ करें। य 22 ल भः २। ा २ ्० साट ८ या ु ुभ मूर्तियों से आप बहुत बड़ी मूर्तियाँ हैं। आप स्वयं एक मंदिर है। क्या वो मूर्ति थोड़ी आपके वाइब्रेशन्स जानती है! वो तो उसमें से वाइब्रेशन्स बस आ ही रहे है, बस और क्या हो रहा है? आप तो अपने हाथ भी चला सकते हैं। दूसरों को आप जागृति दे सकते हैं। किसी के चक्र खराब हो उसको आप ठीक कर सकते हैं। मूर्ति तो वहाँ बैठी वाइब्रेशन्स छोड़ रही है। प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, ६/४/१९७६ प्रकाशक। निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in अपनी जो बाती है उसे ठीक रखो। आपका शरीर ठीक रखो, जो आपका दीप है। आपकी जो शक्ति है तेल दिमागी जमाखर्च जो है उसमें खर्च न करों। लौ को सीधे लगाओ। ये लौ का उपर का हिस्सा है, उसको माँ से चिपका लो। उसके पैर में बाँध दो। सीधी उठेगी लौ। निर्विचारता में निर्भीकता से जलती है। प.पू. श्रीमाताजी, ६/ ४/१९७६, मुंबई ---------------------- 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt नवंबर - दिसंबर २०१५ चैतन्य लहवी हिन्दी 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt इस अंक में सबसे बड़ी चीज़ है अध्यात्म को पाना ...४ क्रिसमस पूजा, गणपतीपुले, २५ दिसंबर २००३ प्रेम एक बड़ी भारी साधना है ...६ सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, २३ मार्च १९७७ परम तत्त्व का अर्थ ..१४ सार्वजनिक कार्यक्रम, मुंबई, २५ मार्च १९७४ सहजयीग से आपके अन्दर जी सात सैंटर्स हैं, आपके अन्दर जी सुन्दर व्यवस्था परमात्मा ने की हुई है, वी कुण्डलिनी के प्रकाश से जीगृत ही जाती है। और ये देवता जागृत ही कर के उसका पूरा संतुलन करते हैं। प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, २६ दिसंबर १e७५ कृपया ध्यान दें : चैतन्य लहरी २०१६ के अंकों की नोंदणी शुरू हो गयी है और ये १५ दिसंबर २०१५ को समाप्त हो जाएगी] to 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-3.txt ा० ५० सबसे बड़ी चीज़ है अध्यात्म को पाना 4 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt ईसामसीह की आज जन्मतारीख है और हम लोग बहुत खुशी से मना रहे हैं। किंतु जीझस क्राइस्ट को कितनी तकलीफें हुईं वो भी हम लोग जानते हैं और जो तकलीफें, परेशानियाँ उनको हुई वो हम लोगों को नहीं हो सकती क्योंकि अब समाज बदल गया है, दुनिया बदल गयी है और इस बदली हुई दुनिया में आध्यात्मिक जीवन बहुत महत्त्वपूर्ण है। इससे कितने क्लेश हमारे दूर इस बदली हुई हो सकते हैं। हमारे शारीरिक क्लेश अध्यात्म से दुनिया में खत्म हो सकते हैं। मानसिक क्लेश अध्यात्म से खत्म हो आध्यात्मिक जीवन सकते हैं। इसके अलावा जागतिक जो क्लेश हैं वो भी खत्म हो सकते हैं। इस तरह सारी दुनिया की जिंदगी जो है अध्यात्म बहुत महत्त्वपूर्ण है । में पनप सकती है। कितना महत्त्वपूर्ण है ये जानना कि एक तरफ इससे तो ईसामसीह जैसा अध्यात्म का.... और दूसरी तरफ हम लोग जिन्होंने अध्यात्म को थोडा बहुत पाया है और हम लोगों कितने क्लेश हमारे की वजह से दुनिया शांत हो गयी। गयी है और मनुष्य जान गया कि उसके लिये सबसे बड़ी चीज़ सी तकलीफें दूर हो बहुत दूर हो सकते हैं। हमारे है अध्यात्म को पाना। ये आप लोगों की जिंदगी से उसने जाना है। आपको देख कर उसने जाना है। ये सारा परिवर्तन आप शारीरिक क्लेश लोगों की वजह से आया। हम अकेले क्या कर सकते थे ? अध्यात्म से जैसे ईसामसीह वैसे हम। हम कितना कर सकते थे । लेकिन खत्म हो सकते हैं। इतने आप लोगों ने जब अध्यात्म को प्राप्त कर लिया है, तब देख सकते हैं कि दुनिया कितनी बदल गयी है। आपके प्रभाव मानसिक क्लेश से और आपके इस अंतर्यामी जो शारीरिक, मानसिक, अध्यात्म से बौद्धिक जितनी भी तकलीफें हैं वो दूर हो गयी हैं। इसका प्रत्यंतर बहुत लोगों को आया है। दुनिया भर में लोग जान गये खत्म हो सकते हैं। हैं कि सहजयोग से बहत जबरदस्त परिवर्तन आ जाता है। सिर्फ एक व्यक्तिगत नहीं किंतु जागतिक हजारों लोगों में परिवर्तन आ सकता है। समाज में परिवर्तन आ सकता है और ये सब आप कर रहे हैं, जो बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। गणपतीपुले, २५ दिसंबर २००३ 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt क मुंबई, २३ मार्च १९७७ प्रेम एक बडी भारी साधना है 6. 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt बहुतों को ऐसा लगता है जब वो पहली मर्तबा देखते हैं कि ये कोई बच्चों का खेल है कि कुण्डलिनी जागरण है? कुण्डलिनी जागरण के बारे में इतना बताया है दुनिया भर में कि सर के बल खड़ा होना, दुनिया भर की आफ़त करना, और इतने सहज में कुण्डलिनी का जागरण कैसे हो जाता है? आप में से जो लोग पार हैं, यहाँ अधिक तर तो पार ही लोग बैठे हये हैं, उनकी जब कुण्डलिनी जागरण हुई तब तो आपको पता ही नहीं चला की कैसे हो गयी! लेकिन अब जब दूसरों की होती देखते हैं तो पता चलता है कि हाँ, भाई, हमारी हो गयी| क्योंकि आप एकदम से ही चन्द्रमा पर पहुँचते हैं। कैसे पहुँचे, क्या पहुँचे पता नहीं चला। उसका कारण तो है ही और उसका उद्देश्य भी है। फलीभूत होने का समय जब आता है तभी फल लगते हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बाकी | जो होता रहा वो जरूरी नहीं था। वो भी था जरूरी और अब फल होना भी जरूरी है। कोई कहता है कि दस हजार वर्ष हो गये तब से तो कोई पार नहीं हुआ, अभी कैसे हो गये? भाई, दस हजार वर्ष पहले तो चन्द्रमा पर कभी गये नहीं थे अब क्यों जा रहे हैं? और अगर जा रहे हैं तो उसमें शंका करने की क्या बात है? रामदास स्वामी ने बताया है कि दुनिया में कुछ लोग होते हैं उनका नाम होता है पढ़त मूर्ख। पढ़त मूर्ख का मतलब होता है, पढ़ पढ़ के जो महामूर्ख हो जाते है। जिसको कबीरदास जी ने कहा है कि 'पढ़ी पढ़ी पण्डित, मूरख भये।' इस तरह की एक संस्था चलती रहती है। चाहे वो ईसामसीह का जमाना हो, चाहे वो ज्ञानेश्वरजी का जमाना हो, चाहे वो शंकराचार्य जी का जमाना हो, जरतुष्ट का जमाना हो, ये एक अपने को विशेष अतिशहाणे समझने वाले लोग, अपने को एक विशेष तरह के, बहत उच्च तरह के विद्वान समझने वाले लोग हमेशा रहे, और रहेंगे। वो हर समय इस तरह के अडंगे करते रहेंगे और जीवन के अमूल्य क्षण हैं उसे इसी में बितायेंगे। उनका कोई इलाज नहीं। कलियुग में भी ऐसे बहुत हैं। जो किताबें रची सब पढ़ डाली , अब उस आदमी का दिमाग तो खराब हो ही जायेगा, इतनी मेहनत कर के किताबें खरीदी हैं, वो पढ़ी हैं। तो उसको ये समझ में नहीं आता कि, 'इतना मैंने पढ़ा, इतनी मैंने मेहनत की, उपास किये, तब तो नहीं आया। माताजी के आगे ऐसे हाथ किया और मैं पार हो गया।' कोई न कोई तो बात हमारे में है ही ये तो आप समझते हैं। समझ लीजिये, कोई बड़ा रईस आदमी है। तो उसके पास कोई रुपया माँगने को जाये और रुपया देने की उसकी इच्छा हो तो उसको चेक लिखना होता है, हो जाता है काम! कोई न कोई तो संपदा तो हमने जोड़ के रखी है अपनी। हमारी तो कोई न कोई मेहनत तो है ही इसके पीछे में जबरदस्त। इसके लिये कोई आपको मेहनत करनी नहीं पड़ती। सब आपको मिल जाता है। न तो आपको पढ़ने की जरूरत है, न आपको कोई मेहनत करने की जरूरत है। पाने की जरूरत है । लेकिन एक बात जरूर, कि सहजयोग का आधार धर्म है। धर्म का मतलब जो बाह्य में हम हिन्दू, मुसलमान कहते हैं वो नहीं। धर्म का मतलब है मनुष्य का धर्म। मानवता का धर्म। अब मानवता का धर्म भी बहुत से लोग करते हैं कि दूसरों की सेवा करना, दूसरों को पैसा देना । बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि चार लोगों को ठगेंगे और एक बड़ा भारी मन्दिर बना देंगे। और कहेंगे कि, 'हमने बहुत बड़ा दान धर्म कर दिया।' दूसरे लोग ऐसे होते हैं कि, अपने घर की बह तो सतायेंगे, अपनी बह को तो परेशान करेंगे, और दुनिया भर में धर्म फैलाते फिरेंगे । तीसरे लोग ऐसे होते हैं, कि अपना सर मुंडवायेंगे, गेरुओे वस्त्र पहनेंगे, चोगे पहनेंगे और सब दूर भगवान का नाम ले के फिरेंगे। 7 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt पाँचवे ऐसे होते हैं कि सोचते हैं कि हम धार्मिक हैं और दूसरे आधार्मिक हैं, तो उनके नीचे गिराते फिरेंगे । धर्म कि व्यवस्था हमारे अन्दर बनी पहले ही है। मनुष्य धर्म में ही पैदा होता है। और जब वो धर्म के विरोध में चलता है, तभी उसका पतन हो जाता है । और वो सहजयोग के लिये इतना उपयोगी नहीं होता। इसीलिये कुछ लोग पार नहीं होते और कुछ लोग पार होते हैं। कुछ लोग रुक जाते हैं, कुछ लोग जल्दी से पार हो जाते हैं। पहले अपने धर्म ठीक बाँधने चाहिये । फिर सारे धर्म का सार एक ही 'प्रेम तत्त्व' । प्रेम तत्त्व अगर आपके अन्दर है, अगर प्रेम तत्त्व से आप परिपूर्ण हैं, प्रेम तत्त्व का आपके अन्दर तत्त्व है और उसका आपके अन्दर में पूर्णतया प्रभाव है, आपके जीवन में उतरा हुआ है। तो इससे बढ़ के मनुष्य का धर्म और कोई नहीं। लेकिन प्रेम का मतलब ये नहीं होता है कि आप उसकी जाहिरात लगाते फिरें, कि हम बड़े प्रेमी हैं। हमने बड़े उपकार दुनिया पर किये और हम बड़े प्रेमी हैं, हम बड़े मातृप्रेमी हैं। ये एक अन्दर का धर्म अपना होता है। राम के जीवन आपने देखा है कि भिल्ली ने उनको बेर दिये । आप लोग सहजयोग में जानते हैं कि हर एक खाने को आप वाइब्रेट कर के खाते हैं । जब तक ये वाइब्रेट नहीं होता आप खाते नहीं है । उसमें जब तक ग्रेस नहीं उतरती आप लेते नहीं है। रामचन्द्रजी ने भिल्ली के बेर ऐसे ही खा लिये। भिल्ली ने दाँत उसको लगाये थे, एक एक बेर चख के देखा था। सब झूठे बेर को रामचन्द्रजी ने सर आँखों पर लगा के खा लिये । इसका कारण ये है कि भिल्ली प्रेम से परिपूर्ण थी। परमेश्वर के प्रति जो उसका प्रेम था, निष्कपट, निश्चल। पूर्णतया वो जानती थी कि राम एक अवतरण हैं और उससे वो नितांत प्रेम करती थी। उसको जो बेर मिले, उसे वो चख के और देखा कि कहीं कोई खट्टे न हो जायें, मेरे राम को खट्टा न लग जायें। उनको कोई तकलीफ़ न हो जायें। इस विचार को कर के उसने वो बेर खाये और राम को दिये। और राम ने वो खा लिये। उस भिल्ली की जो प्रेम शक्ति है, उसने कभी धर्म की व्याख्या भी नहीं जानी होगी। उसको पाप और पुण्य का कोई विचार भी नहीं होगा। उसने दुनिया की और भी कोई चीजें जानी नहीं होगी। ना तो वो अमीर जानती होगी, न तो वो गरीब जानती होगी। जंगलों में, कंधरों में रहती होगी। उसको विशेष कपड़े का ख्याल नहीं होगा। न ही उसमें कोई निर्लज्जता होगी, न ही लज्जा का विशेष आविर्भाव होगा। लेकिन उस में इतना प्रेम राम के प्रति था, कि उसने एक बेर को तीन दिन से उसने अपने दाँत से खाया और अत्यंत भोलेपन से राम को अर्पित कर के कहा कि, 'देखिये , इस में से हर एक बेर को मैंने खाया है। जब मनुष्य प्रेम में उतरता है तब निष्कपट होते जाता है। निष्कलंक होता है। प्रेम एक बड़ी भारी साधना है। वो की नहीं जाती, वो हो जाती है। प्रेम का धर्म जब तक आप में जगेगा नहीं, आप का सहजयोग टिक नहीं सकता। हमारे बहुत से सहजयोगी है, हमें बताते हैं कि हम एक एक घण्टा माताजी, ध्यान में बैठते हैं। बैठिये! हम चार-चार घण्टे फलाना करते हैं और ठिकाना होता है हमको। लेकिन आपकी भावना क्या है ? जब आपका परमात्मा के प्रति प्रेम उभरता है, जब आप परमात्मा में लीन हो के प्रेम करते हैं, तब आप उसके बनाये सारी सृष्टि को, उसके बनाये सभी प्राणिमात्र को, सब को आप पूरी हृदय से प्यार करते हैं। अगर आप उसे नहीं कर सकते हैं तो आप के प्रेम में क्षति है, कमी है। जब हम दूसरों को लेक्चर देते हैं और 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt उनसे कहते हैं कि तुमको ऐसा नहीं करना चाहिये, तुमने ऐसा क्यों किया ? तुमको ऐसा नहीं कहना चाहिए था। तब हम ये नहीं जानते की हमने इस आदमी से जो कहा है, वो क्या प्रेम में कहा है! अगर आप अतिशय प्रेम में किसी से कोई काम कहें, बाद में उसे बुरा नहीं लगता। सारे धर्मों का सार प्रेम है। परमेश्वर साक्षात् प्रेम है। सहजयोग में प्रेम ही संपूर्ण है । प्रेम के सिवाय और कुछ नहीं। उसमें त्याग अपने आप हो जाता है। उसको कोई भी चीज़़ त्यागते हुये विचार ही नहीं आता दूसरा। क्योंकि प्रेम की शक्ति त्याग को करवा देती है। प्रेम में प्रेम ही पाना, प्रेम ही करना यही लक्ष्य होता है। और जीवन में उसे कुछ नहीं चाहिये। लेकिन आप निर्दोष हो और आप प्रेम करते हैं, आप दूसरों को वाइब्रेशन्स देते हैं, लेकिन उसमें कुछ विचार है कि, 'इस आदमी से कोई लाभ हो जायें , इसका कोई फायदा उठा लें, ' इसलिये अगर आप वाइब्रेशन्स कर रहे हैं, या उसका कोई उपयोग कर लें, तो आपके प्रेम में कमी रह जायेगी। किसी को अगर आप वाइब्रेशन्स देते वक्त पाते हैं कि उसमें एकाध दोष है, उसका कोई चक्र कम है। उसको भी अत्यंत प्रेमपूर्वक, बहला कर के उसका उद्दीपन करना चाहिये। सारा संसार | आज द्वेष पे ही खड़ा है। कोई न कोई बहाना द्वेष करने का इन्सान ढूंढ लेता है। कुछ न कुछ तरीका, उसे ये मालूम है कि जिससे बड़े बड़े संघ तैयार हो जायें कि इसका द्वेष करो, उसका द्वेष करो। बड़े बड़े राष्ट्र, बड़ी संस्थायें संसार में प्रेम के बूते पर खड़ी हुई दिखायी नहीं देती। अधिकतर उसके पायें में, उसकी नींव में द्वेष की खाई है। इसलिये वो संस्थायें धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं । प्रेम की शक्ति कितनी अगाध है ये आप जानते हैं। आपके हाथ से जो शक्ति बह रही है वो साक्षात् प्रेम की शक्ति है। आप अगर पाषाण हृदय हैं और आपके अन्दर कोई भी दूसरों के लिये सहानुभूति नहीं है, आपके अन्दर कोई माध्र्य नहीं है, तो आप सहजयोग में बहुत आगे नहीं जा सकते| आपके बाल- बच्चे, अपने घरवाले, अपने नौकर-चाकर, अपने अडोसी-पड़ोसी, इधर उधर के कितने भी मिलने वाले हो उन सब से प्रेम करना चाहिये। फिर वो चाहे पार हो चाहे नहीं हो। आज नहीं तो कल सब पार हो सकते हैं । लेकिन आप अगर उनके साथ गिर गये, तो आपका भी पतन हो गया और उनका भी उत्थान होने की कोई भी बातचीत कर ही नहीं जा सकती। आपके प्रेम को ही देख कर के वो समझ सकते हैं सहजयोग की कितनी विशेषता है। प्रेम की शक्ति को मनुष्य ने कभी आजमाया ही नहीं। अभी अभी शुरू हुआ है, जब से सहजयोग से आप लोग पार हये हैं, तब से आपने इस शक्ति को जाना है, कि कितनी प्रचंड शक्ति है, कितनी व्यापक है और कितनी कार्यान्वित होती है। इसको बाह्य से अगर कोई देखना चाहें, कोई उस लेवल का आदमी हो कभी नहीं मिल सकता है। इसलिये मैंने कहा था जो लोग पढ़त मूर्ख होते हैं, उनकी समझ में नहीं आता। लेकिन जो दयार्द्रै, जो हृदयपूर्ण हैं उनके लिये सहजयोग बहुत आसान है। क्योंकि ये अत्यंत सूक्ष्म वेदना है, और वो घटित ही हो सकती है जिनके अगर हृदय का स्थान अभी भी पूरेपूर संसार के लिये बना है। हृदय में ही शिवजी का स्थान है। और हृदय में ही परमेश्वर का प्रकाश आत्मास्वरूप हमारे अन्दर विराजता है। जिस आदमी 9. 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt का हृदय कठोर होगा, जो कठोरतापूर्ण दूसरों से व्यवहार करता होगा , उसका हृदय आत्मा दर्शन से वंचित रहेगा। सबको चाहिये कि अपनी ओर दृष्टि कर के देखें, कि हम प्रेम धर्म में कितने उठते हैं। उससे आपको 10 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt फलाना करेंगे। जिससे हम दूसरों को तकलीफ दे सकते हैं। ऐसे धर्म कभी भी धर्म नहीं हो सकते। तीसरे तरह के ये कि चाहे अगर पैसा हो ना हो हम मन्दिरों में जाएंगे। हम वहाँ जा कर पैसा लुटायेंगे। हम जा कर के पंडितों को पैसा देंगे और चोरों पर हम पैसे लुटायेंगे। ये भी कोई धर्म नहीं होता। अपने घर के बाल बच्चों को जिनको खाने को नहीं है। अपने बच्चों की तरफ जब हमारा कोई ध्यान नहीं है। हम अपने घर वालों को जब देख नहीं सकते, तो इस तरह का व्यर्थ समय बर्बाद करने वालों को भी .....जाना चाहिये। मैं तो यहाँ तक कहँगी कि मनन शक्ति में भी मनुष्य अगर अपना समय बर्बाद कर रहा है और अपने घर के लोगों को भूखा मार रहा है तो ऐसे मनन से अच्छा है आदमी मनन न करें। धर्म का मतलब है सब के प्रति प्रेम की पूर्ण व्यवस्था रखना। प्रेम पूर्वक सब तरफ जागरूक रहना। यही धर्म है और जब तक ये धर्म आप पाईयेगा नहीं तब तक आप धर्मातीत नहीं हो सकते। धर्मातीत तब मनुष्य होता जब वो प्रेमी हो जायें। उसमें और कुछ बच ही नहीं जाता है। वो जो भी | करता है वो प्रेम में ही करता है। जैसे श्रीकृष्ण का संहार है। जब वो किसी का संहार भी करते हैं तो वो भी प्रेम में ही होता है। जब ईसामसीह ने हाथ में हंटर ले के लोगों को मारना शुरू कर दिया क्योंकि वो मन्दिरों में बैठ के बाजार कर रहे थे । वो भी प्रेम है। उसकी हर एक चीज़ भी प्रेम हो जाती है । और तब आदमी धर्मातीत हो जाता है। उसके लिये कोई धर्म नहीं बच जाता फिर। सिर्फ प्रेम ही प्रेम रहता है। वो जो भी करता है, जो भी कहता है, जो भी बोलता है, जो भी खाता है, पीता है, सब धर्म करता है और धर्म वही होता है जो कि प्रेम हो जाये । हमारे सहजयोग में मैं अनेक बार देखती हूँ कि आप मानव हैं और मानव से अति मानव होने के बाद भी आप इस बात को समझते नहीं है कि प्रेम की व्यवस्था सब से बड़ी होती है। प्रेम के प्रति जागरूक होना। कोई मनुष्य है, वो अपनी पत्नी को अगर मारता है, कोई स्त्री है वो अगर अपने पती को सताती है, और अपने को बहत बड़ा सहजयोगी समझती है, उसको समझ लेना चाहिये कि ये महापाप है। किसी को भी सताने की व्यवस्था सहजयोग में नहीं है। किसी को मारने की व्यवस्था सहजयोग में नहीं है। आप किसी पे भी हाथ फेरे आपके अन्दर से प्रेम ही की शक्ति बहेगी और प्रेम में हमेशा दुसरों का हित ही होगा। अहित नहीं हो सकता। आप कितनी भी कोशिश करे आप किसी का अहित नहीं कर सकते। हाँ, अगर आप सहजयोग से हट जाये या गिर जाये, आपका पतन हो जाये, तब आप जरूर अहित कर सकते हैं। धर्म के प्रति आज तक हर एक धर्मों में ही लोगों ने से खोल कर इस बात को बताया है। किसी ने ये बात को बताया ऐसे बहुत पूरी तरह नहीं। लेकिन मनुष्य हमेशा मिथ की ओर दौड़ता है। इसलिये धर्म का जो भी विपरीत रूप बन जाता है उसी को हम मान लेते हैं। 11 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt जैसे ईसामसीह ने बताया है, कि भूत और प्रेत इन सब चीज़ों से काम नहीं लेना चाहिये। मोहम्मद ने बताया है, कि आपको शराब आदि चीज़ों का सेवन नहीं करना है। राजा जनक ने बताया है, कि साहब आपको परमेश्वर में लीन, परमेश्वर के सामने हमेशा हर एक इन्सान को .... दृष्टि से देखना चाहिये। नानक ने बताया है कि सारे संसार में हर एक मनुष्य में परमात्मा का भाव है। उन्होंने भी मादक पदार्थ को एकदम मना किया है । लेकिन उनके धर्म को जो मानने वाले हैं और जो अपने को बहत बड़े धार्मिक कहलाते हैं और कहते हैं, कि हम बड़े भारी नानक के, बड़े भारी सपोर्टर्स है। वो लोग आज क्या कर रहे हैं? क्राइस्ट के जो सपोर्टर्स हैं, वो लोग आज क्या कर रहे हैं? ईसामसीह ने सब से बड़ी चीज़ बतायी थी कि मनुष्य को अबोध, बच्चे जैसा होना चाहिये। हार्ट अटैक के मामले में ईसामसीह ने दिखाया था कि मनुष्य को बहुत (अस्पष्ट), अत्यंत व्यवस्थित, विवाहित रूप से ही जीवन में इस्तेमाल करना चाहिये। लेकिन उनके शिष्यों ने आज क्या हालत कर दी। उन्होंने आज क्या व्यवस्था कर के रख दी। वो किस तरह से चल रहे हैं। उनको देखें तो आश्चर्य होता है कि क्या ये ईसामसीह के ही ईसाई हैं या कोई और ईसामसीह राक्षस पैदा हुआ था। उसके ये लोग ईसाई बने हये हैं। हिन्दू धर्म में एक बहुत बड़ी बात कही गयी है कि सब के अन्दर एक ही आत्मा का वास है। पर हम अनेक बार जन्म संसार में लेते हैं। अनेक बार इसको खोजते हैं, इसलिये एक ही जन्म में सब चीज़ को खोज डालो। जब हम अनेक बार जन्म लेते हैं, तब हम ये कैसे कह सकते हैं, कि कोई मुसलमान है, कोई हिन्दू है, हम ऐसे कैसे कह सकते हैं कि कोई निम्न है, कोई उच्च है? अनेक बार मैं आपको ये समझाती हूँ और आप इस बात को पूरी तरह से समझ लें कि प्रेम में जब तक आप पूरी तरह से लीन नहीं होगे सहजयोग इस संसार में बैठने वाला नहीं। जब आप प्रेममय हो जाएंगे, एक प्रेम का फूल अगर सींचा जायें तो सारे संसार में इसकी खुशबू आयेगी। आप भी अपने जिंदगी में सोचें कि एक इन्सान जिसको आपने पाया था कभी उसने कितना आपको प्रेम दिया था। ऐसा एक भी आदमी कहीं हो तो आपको आश्चर्य होगा उसके पीछे हजारों लोग घूमते हैं और उससे प्रेम की याचना करते हैं। उसको माँगते हैं। लेकिन वो लोग जो कि झूठे, प्रेम का दंभ कर के और लोगों को लूटते हैं, उनको खरचोटते हैं, उनसे झूठ बोलते हैं ऐसे लोगों को मनुष्य छोड़ देता है। प्रेम ऐसी चीज़ है जो हृदय तक पहुँचती है और उसी की चाव सब से ज्यादा होती है और यही परमात्मा का सबसे बड़ा धर्म है। परमेश्वर का कौन सा भी धर्म हो या उसका अगर कोई तत्त्व है तो वो सिर्फ प्रेम! आप अपने प्रेम तत्त्व पे थोड़ा सा मनन करें और जो लोग नये आयें हैं उनको हम रियलाइझेशन देंगे अभी। और कोशिश करेंगे की वो लोग पार हो जायें । सब लोग अपनी प्रेम तत्त्व की ओर देखें, कि हमने कहाँ तक प्रेम किया हआ है। 12 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt 13 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt परम तत्त्व अर्थ का मुंबई, २५ मार्च १९७४ परम तत्त्व का अर्थ क्या है? वो किस तरह से सृजन करता है? ये चीज़ क्या है? इसके बारे में अनेक ग्रंथ , भाषणादि बहुत कुछ व्याख्यान संसार में ह्ये हैं। बहुत कुछ कहा गया है। परम शब्द परमात्मा का द्योतक है। ये परमेश्वरी शक्ति है, जो हर अणु-रेणु में वास कर के परमेश्वर का कार्य को संचलित करती है, चलाती है। अब ऐसे कहने से, बातचीत करने से इस जमाने में विश्वास नहीं करता । कोई इसको मान नहीं सकता। लेकिन जैसे मैंने आपसे पहले भी बताया है, कि अभी लंडन में, हाल ही में मैंने एक चित्र देखा था, जिसमें उन्होंने सल्फर डाय ऑक्साईड के मॉलेक्यूल्स दिखाये थे| उसमें दिखाया कि सल्फर और ऑक्सिजन के बीच में, उसके अणुओं के बीच में जो बंध है, बाँड है, उनमें कोई परम जो है जिसे ये लोग भी, साइंटिस्ट भी वाइब्रेशन्स ही कहते हैं। आँखों देखी बात है। आँखो से आप भी देख सकते हैं । अणु और रेणुओं की स्थिति ये साइंटिस्ट बता सकते हैं कि ये अणु क्या हैं और रेणु क्या हैं? वो किस तरह से हैं? वो किस तरह से स्थित हैं? जड़ तत्त्व का पता साइंटिस्ट लगा सकते हैं। लेकिन उस में आंदोलित होने वाला चैतन्य जिसे वो वाइब्रेशन्स कहते हैं उसके बारे में वो बहुत ही अनजान हैं और उसके बारे में वो कुछ भी बता नहीं सकते। हर एक के लिये वो तत्त्व आंदोलित हो रहा है । वो जड़ में है, वनस्पति में है, पशुओं में है और आप में है। अपनी अपनी जगह वो आंदोलित है और संपूर्ण में चेतित भी है। माने ये कि जो परम तत्त्व आप के अन्दर चेतना पा रहा है वही इस बैठक में भी है। अन्तर इतना ही है कि उस 14 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt चेतन तत्त्व को जानने वाला इतना भी जागृत नहीं हुआ है, लेकिन मानव में ही ये जागृति आयी हुई है कि उस चेतन त्त्व को जानें। वही चेतन तत्त्व, परम तत्त्व सारे संसार का संचालक है। जो कुछ भी है, संसार का जो भी कुछ है वो इसी का बनाया हुआ है। आप अगर कहे कि ये पंखा है, ये किसने बनाया? ये भी उसी चेतन तत्त्व की चालना से ही मूर्त स्वरूप में आज पंखे की रूप में आाया है। साइन्स भी उसी चेतन तत्त्व की चालना से, उसी की प्रेरणा से हमारी बुद्धि में समाया हुआ है। जो वाणी हमारी मुख से चल रही है वो भी उसी चेतन तत्त्व की प्रभुत्व में चलती है। सब कुछ उसी चेतन तत्त्व से चल रहा है। आप इसी से समझ लें कि हमारे अन्दर जो जीवन है वो उसी चेतन तत्त्व का आविर्भाव है । जिस दिन ये हृदय बंद हो जायेगा उस दिन आप देखियेगा कि यही वाणी रुक जायेगी, आँखें रुक जायेगी, विचार आना रुक जायेगा, कहना-सुनना बंद हो जायेगा, ये शरीर एक व्यर्थ सा, बुझे हुये दीप जैसा खत्म हो जायेगा। फिर चेतन तत्त्व को जानने की क्या जरूरत है? ये जरूर जान लेना चाहिये। इस युग में मानव ये सोचता है कि ये सब जानने की क्या जरूरत है? 'भगवान भगवान' करने की जरूरत क्या है? इसका हमें क्या फायदा? इसके पीछे में क्यों भाग रहे हैं? क्यों समय बरबाद कर रहे हैं? अपनी जिंदगी का क्यों न आनन्द ले रखे? लेकिन एक बड़ा भारी सत्य है जो हम से छुपा है माया के रूप में, आनन्द, चैतन्य स्वरूप अपना। इसीलिये संसार में आप किसी से भी पूछे कि, 'क्या भाई, तुम सुखी हो?' वो कहेगा, 'नहीं भाई!' 'क्या तुम्हें आनन्द आ रहा है?' 'नहीं आ रहा है!' आखिर इस देश में, अपने देश को छोडिये, लेकिन और देशों में, जहाँ पर इतनी अधिभौतिक प्रगति हो गयी है, जहाँ लोग इतने ऊँचे सिरे पर पहुँच गये हैं कि उनके पास कभी कुछ नहीं रहा है, वो लोग महान दुःखी क्यों? सोचने ही की बात है। बहुत से लोगों में ये विचार ही नहीं उत्पन्न होता है, कि हमें आनन्द क्यों नहीं होता है? हम किसी भी चीज़ की ओर दौड़ते हैं? सारे इकोनॉमिक साइन्स आधारस्तंभ में एक ही वाक्य है कि 'नो इकोनॉमिक वाँट्स इन कॉपी फॅशन!' किसी भी, कितनी भी आप जरूरत रखें, आज आपको चूड़ियों की जरूरत हैं, चूड़ियाँ मिलीं, चूड़ियों के बाद साड़ी मिल गयी। साड़ी मिलने के बाद आपको कुछ और चीज़ चाहिये, इसके बाद में और चीज़। इन जनरल नो इकोनॉमिक्स वाँट्स् धिस फॅशन। इसका मतलब ये है कि मन उसी को हर कुछ एक चीज़ में खो गया हो, लेकिन किसी भी चीज़ में वो तृप्त नहीं है। तृप्ति कहीं भी नहीं होती, त्याग कहीं भी नहीं दिखता है, प्यास बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है। प्यासा आदमी मर जाता है, फिर जन्म लेता है, फिर प्यासे के साथ दौड़ता है। घर में भी वो दौड़ते रहता है। खुश नहीं रहता है, लेकिन आनन्द नहीं पाता। कारण उसका एक ही है, कि जिस चीज़ से आनन्द का उपभोग होता है वही चीज़ हमारे अन्दर पु अभी जागृत नहीं हुई है। वो अगर दीप है और वो अगर चाहे की मेरे से प्रकाश, मेरे अन्दर प्रकाश और बाहर प्रकाश हो तो उसके अन्दर दीप ही जलाना पड़ेगा और दूसरा कोई भी मार्ग नहीं। वो प्रकाश से भाग कर अगर प्रकाश जलाना चाहे तो कैसे प्रकाश आयेगा ? परम तत्त्व से मुँह मोड़ कर के आप कभी भी संसार में आनन्द नहीं पा सकते। अब ये कोई मैं नयी 15 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt बात नहीं बता रही हूँ। ऐसी बातें हज़ारों वर्षों से ऋषि- मुनियों ने इस भारत वर्ष में , इस योगभूमि में और भोग भूमिओं में भी बहुतों ने कह दी। और कहा और कह के मर भी गये और तीसरे दिन फिर कहा और फिर मर गये। दुनिया भर की चीज़ें हो गयी| पर किसी ने इसको पाया नहीं। अन्तर इतना ही है कि मैं आपको थोड़ा इस आनन्द का दर्शन मात्र दे रही हूँ। इस आनन्द को पाने के लिये आपको थोड़े से अपने दर्शन होने हैं। जो आपके अन्दर आनन्द दे रहा है वो आप अपने स्वयं हैं और उस के दर्शन देने की पात्रता आप में स्वयं ही स्थित है। सिर्फ मैं इतना ही करती हूँ कि जरा आपका शीशा पोंछ देती हूँ। इसकी भी बहुत लोग ऐसी चर्चा करते हैं कि 'बड़े बड़े युगों के और कल्पांतरों के बाद में ही ऐसी दशा में मनुष्य आता है, कि वो इस चीज़ को पाता है।' होगा और ऐसा भी कहते हैं कि 'ऐसे कैसे संभव हो जाता है । आज कल तो कलियुग में मनुष्य तो अत्यंत ....(अस्पष्ट) हो गया है और वो किस तरह से पा सकता है। अब इसका जवाब ऐसा ही देना चाहिये कि इसी कलियुग में हम चंद्रमा पर जा सकते हैं तो हो सकता है कि अपने अंतर्तम में ही चलें। कोई ऐसी करुणा ही स्वयं हो कर आये कि आप लोग इस दशा में आ जाये । क्यों नहीं हो सकता है? आखिर इतने दिनों से जो आप घंटियाँ बजा रहे थे और आरतियाँ उतार रहे थे और आवाहन पे आवाहन हो रहे थे , हजारों देवताओं के जो पूजन हये थे और जो मस्जिदों में बुलंद आवाज में परमेश्वर को पुकारा जा रहा था वो सुनने वाला कोई बहरा था। जो कभी हिल नहीं सकता। या एकदम वो बहरा था या आप एकदम मूर्ख थे। और अगर सुनवाई हो गयी हो और अगर समझ लीजिये कि इंतजामात हो गये हो तो इसमें इतनी शंका करने की क्या जरूरत है? आपकी गठरी से मैं कुछ लेती नहीं हूँ। आपसे मैं कुछ माँगती नहीं हूँ। आप ही में आपको जगा रही हूँ। आप ही की शक्तियाँ आपको दे रही हूँ। लेकिन मनुष्य बड़ा विचित्र है। जो आपकी सारी पॉवर्स और शक्तियाँ खींच ले और अपने वश में कर के आपको नचाये ऐसा आदमी आपको पसन्द आये। जो जन्मजन्मांतर तक आपको लूटता रहे, आपके पैसे, आपकी अब्रू, इसके पीछे नाचना आपको पसन्द है। बड़ा अरज़ीब मनुष्य का मन है! हज़ारों आदमी ऐसे आदमी के पीछे भागते हैं, जो पूरी तरह से आप पर छा कर और आपको एकदम ही गिरा देता है और छोटा सा ....(अस्पष्ट) बना कर के और जन्मजन्मांतर के लिये आपको शापित कर देता है। ऐसे आदमी की तरफ़ दौड़ बड़ी जल्दी होती है और जो आपकी ही स्थापना करने के लिये और आप ही का पूजन करने के लिये बैठा है, उधर आँख नहीं उठती इन्सान की! ये विचार क्यों नहीं आता, सोच क्यों नहीं लेता कि 'उस पागल दशा में जहाँ दौड़ा जा रहा था इतनी दिन तक मैंने.... इस दिन में मैंने कौनसी ऐसी शक्ति पायी हैं जो मेरी अपनी स्वयं है।' गुरु वही है जो आपके अन्दर आपकी शक्ति का सृजन करे और आपको अपने से परिचित करे वही गुरु है। जो आपकी सारी पॉवर छीन ले और आपको बेवकूफ़ बनाता है, ये गुरु है कि घण्टाल है! आपको खुद 16 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt सोचना है। मानव के अन्दर ऐसे विचित्र दोष मैं देखती हूँ। हो सकता है कि हमारे लिये मानव का समझना मुश्किल है। जैसे मानव को हमारी ओर देखना मुश्किल जाता है। दूसरा दोष बड़ा विचित्र सा मानव में है कि जब कोई जीवित रहता है तो उसकी दुर्दशा कर देते हैं और जब वो मर जाता है तो उसको चार चाँद लगाते है। सीता जी को उसके घर से निकाल दिया तब कोई साधु-संत मिला नहीं। जब वो मर गयी तो उनके हज़ारों मंदिर बना कर रख दिये । क्राइस्ट को क्रॉस पर चढ़ा दिया। जब वो मर गयें तो उनके हज़ारों मंदिर बना कर रख दिये। समझ में नहीं आता। जिस वख्त वो जीवित हैं सब आँखें, सबकुछ क्या खत्म हो गयी। अरे, उनको जानने वाले कम से कम एक- दो तो आदमी थे। उनकी भी बात नहीं सुनी। उन्होंने कमाल कर के दिखायें वो भी नहीं देखा। और उनको उठा के क्रॉस पर डाल दिया। मोहम्मद साहब का हाल वही हुआ। ज्ञानेश्वर जी का हाल दूसरा हुआ। वो मर गये तो आपने उनके पचासों मंदिर इस बंबई शहर में बना दिये। मानव को समझना बड़ा कठिन है कि जब सत्य जीवित खड़ा हो जाता है तब मानव पीठ मोड़ लेता है। और जब वो किसी आत्मा में मृत हो कर खत्म हो जाता है तब मानव अपने माथे पर लगा के 'मैं फलाना, मैं ढिकाना, मैं ज्ञानेश्वर जी का संत हूँ,' और घूमता है। मरी हुई चीज़ों से इतना प्रेम मानव को क्यों हैं मेरी कुछ समझ में नहीं आता। जो विनाशी चीजें हैं उससे मनुष्य इतना प्रेम क्यों करता है? रियलाइझेशन के बाद भी मैं देखती हूँ कि थोडा डगाडग डगाडग मन चलता ही है। मृत में, किसी भी मृत वस्तु में, जड़ वस्तु में अपना ध्यान देना ही स्वयं मृत हो जाना है। विराट का पूरा चित्र भी हम अगर आपके सामने खड़ा भी करे, तो कोई फायदा होने वाला नहीं, ये हमें कभी कभी लगने लगता है। मनुष्य की खोज क्या सत्य की है या असत्य की है? मनुष्य का प्रेम असत्य से क्यों हैं? हालांकि वैसे देखिये , तो हमें असत्य कोई अच्छा नहीं लगता । अगर हम आपसे कोई बात झूठ बोले तो आपको थोड़ी हम अच्छे लगेंगे! लेकिन सूक्ष्म से, सूक्ष्मतर में मनुष्य अपने को अगर जा के ये देख सकता है कि उसमें जड़ की ओर, मृत की ओर ध्यान बहुत अधिक है, अधिक है और फिर वो दुःखी है। सारा संसार दुःखी है। इनका क्या किया जायें जो बेकार ही में दुःखी हैं? वो तो ऐसा ही हुआ आपका दिया बहुत ही (दीप), सजाया, सँवारा, सुन्दर बनाया, इसमें सुन्दर सा दीप ही जलाने की व्यवस्था कर दी, अब बाती लगाओ। बाती भी सजा दी और दीप भी जला दिया तो भी आप दुःखी हैं, अंधेरे में हैं। इस पर गौर करना होगा। इस पर सोचना होगा। संसार में बहुत बड़ा, घनघोर संग्राम चल रहा है। वो संग्राम आपने काली के अवतार सुना था उससे महाभयंकर संग्राम आज संसार में चल रहा है। इसमें जिसकी जीत में होगी वो ही निर्धार करेगा कि इस सृष्टि का सृजन पूरा होगा कि खत्म होगा। एक तरफ तो पूरी तरह से राक्षस और उनकी सेनायें तैयार बैठी हुई हैं। अभी तक तो मृतावस्था 17 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt में ही वो है। और कुछ कुछ राक्षसों ने जन्म लिया हुआ है। क्या हमें उन लोगों का साथ देना है? या हमें सत्ययुग को इस संसार में लाना है? बहुत से लोग मुझ से कहते हैं कि इस देश की गरीबी कैसे दूर होगी? आपके बकवास होगी क्या? विएतनाम का युद्ध कैसे बंद होगा? आपकी चिंता से बंद होगा क्या? नहीं होगा ना ! वो तो जितनी आप बातचीत कर रहे हैं क्या आप असलियत से अपना मन होगा। जो से दूर युद्ध | विएतनाम में है वो युद्ध आपके अन्दर भी है। जो अभी भी गरीबी की बातचीत है वो अभी भी आपके अन्दर भी हो रही है। आप अगर अमीर होना चाहे तो अपने अन्दर हो सकते हैं और अगर गरीब, दरिद्र होना चाहे तो अपने अन्दर हो सकते हैं। जिस देश की आत्मा ही गरीब हो जाये वो देश अमीर कैसे हो सकता है? हमारी आत्मा में दरिद्रता है। उस पर बादल छा गये हैं, अज्ञान के बादल। जिसको कि मैं निगेटिविटी कहती हैँ उसके बादल छाये हैं इस सारे संसार पर । और सब से ज्यादा इस देश में मैं ज्यादा देखती हूँ कि सारे भूत यहीं पर हैं उनको और कोई जगह नहीं मिली और तुम लोग अपने हृदय में उनको स्थान दिये बैठे हो । मन की दरिद्रता दूर हुये बगैर सारा सुहाना समय भी बेकार जाता है। ऐसे ऐसे राक्षसों को आपने में स्थान दिया है इस देश में कि राक्षसों का नाश कर भी नहीं सकते। क्योंकि उनके सारे निशाचर आपके अन्दर घुसे पड़े हये हैं। इनका अगर नाश करे तो उनके निशाचर आपको खा जाये । हदय जिस दिन आप लोग उनको निकाल फेकेंगे उसी दिन सब का ठिकाना हो जायेगा अपने आप। लेकिन पहली बात तय कर लें कि हमें परम तत्त्व को पूरी तरह से, पूरी सच्चाई के साथ जानना है। इससे बढ़ के संसार में कोई धनसंपत्ती नहीं । परम धन वही है। सारे परम आनन्द की उपलब्धि ही उसी में है उसको पहले पा लीजिये। अपने मन को इधर से उधर उधर से इधर करने की कोई जरूरत नहीं। बेकार की बातें ले कर के कि इस देश की गरीबी कैसे होगी? आप प्राइम मिनिस्टर ऑफ दूर इंडिया हैं? जो आप सब चीज़ का ठेका लिये बैठे हैं? गरीबी तो शायद दूर भी हो जायेगी लेकिन आप लोगों के भूत दर होने हैं। जिनके देशों में गरीबी नहीं वहाँ देखिये दूसरे तरह के भूत काम कर रहे हैं। लंडन में गये। ईसामसीह ने बताया था कि भूतों के चक्कर में जाना मत। उन्होंने साफ़ साफ़ बता दिया बेचारों ने, सौ मर्तबा कहा होगा, कि सारे ईसाई देश इसी भूतों के चक्कर में फँसे हये हैं। जो वहाँ के बूढ़ें लोग हैं उनके अपने लिये मिडियम चल रहे हैं, ये चल रहे हैं, वो चल रहे हैं और जो जवान हैं वो यहाँ से गये उनको लूटने के लिये। सब भूतों के चक्कर में घूम रहे हैं। किसी ने परम तत्त्व को आज तक खोजा नहीं। न उधर किसी की . उठाने वाले हैं, और अपने को ईसा मसीह का बड़ा भारी चेला कहते हैं। अमेरिका में यही हाल हैं। वहाँ तो विच (witch) राष्ट्र चल रहा है, खुले आम। 18 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-18.txt जैसे अपना भानामती होता है, ये निकालते हैं, वो निकालते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं, वो वहाँ पे बाकायदा खुले आम, रेग्यूलर सोसाइटी है । अपने यहाँ उसका नाम भाविक और भगवान बन के लोग करते हैं, जैसे अपने यहाँ डबल स्टैंडर्ड हैं न, ढोंग बहुत है। इसी देश में ऐसा ढोंग है। आप अग२ हम लोगों को तो ढोंग को तो त्याग करना आता नहीं, सत्य को क्या करें? ऐसा ढोंग इन लोगों ने रचा हुआ है। ढोंगियों के पीछे में आप लोग अभी२ होनी चाहें भागे चले जा रहे हैं। हो सकता है आप मोड़ लो अपने को पूरी तरह। तौ अपने अन्द२ अब संसार के रंगमंच में आप ही लोग बैठे हये हैं। आपको आश्चर्य होगा कि आप बड़े चुने हुये लोग हैं, बड़े ही चुने हुये लोग हैं इसलिये हो सकते हैं और आप पार हैं। कितने लोगों के हाथ से वाइब्रेशन्स आते हैं संसार में जरा अग२ गरीब, जा के देखिये तो। बड़े बड़े लोग मैंने देख लिये, बड़े स्वामी और साधु और फलाने, ऐसे कौन बड़़े भारी लगे हुये हैं दुनिया में जरा जा के देख दरिद्र होनी चाहें लीजिये जिनके अन्दर से वाइब्रेशन्स आते हैं। सब ढोंगी लोग हैं, भोंद लोग हैं। और आप लोगों की हाथ से वाइब्रेशन्स आ रहे हैं। जिसका वर्णन बड़े बड़े महात्माओं ने 'बड़ी ऊँची दशा में जब मनुष्य पहुँचता हैं तौ अपने अन्द२ हो सकते हैं। तब मिलता है, इस तरह से किया है। कुछ कर के दिखाना है ये बात है। जिस देश की मैं देखती हूँ, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। चालाकी से धर्म अन्दर कभी खड़ा नहीं हो सकता। और मेरे पास चालाकी है, चालाकी आयी कहाँ से? मेरी पेट से आयी हैं। मुझ से चालाकी करते हैं। मेरे सामने बड़े आत्मा ही गरीब हो जाये वो देश साधु, महात्मा बन के बैठते हैं। उस चालाकी को त्याग दो। ये जो कुछ वाइब्रेशन्स हैं, ये तुम्हारे अन्दर जो कुछ भोलापन है वही बह रहा है। ये अभी२ कैसे हो जो थोड़ा सा तुम्हारे अन्दर भोलापन आया है तुम्हारी माँ से वही बह रहा है। भोलेपन में रहो। भोले आदमी को कोई ठग नहीं सकता। ये २कती है? सत्य है। और ठगेगा तो भी ऐसा नाटक बनेगा कि ठगने वाला ही ठग | हमारी आत्मा में जायेगा । रावण के चक्कर में सीताजी फँस गयी थीं, उनके भोलेपन का एक दरिद्रता है । दर्शन है, लेकिन मज़ाल नहीं कि उनका वो हाथ पकड़ सके या उनसे कोई बदतमीजी कर सके? भोलेपन की तेजस्विता कहाँ और रावण की चालाकी कहाँ! एक साधारण सी अबला, उसके ऊपर किसी भी तरह का हमला नहीं कर सका और जब तक सीताजी को अपने सर पे उठाये 19 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt रखा, उसे अपनी साक्षात् माँ याद आ गयी। उसका सारा बड़प्पन एक छोटे बच्चे जैसे हो गया। ......ऐसा ही श्री रावण जी का हाल था। इसलिये अपने भोलेपन को न त्यागिये। अपने भोलेपन में सहजयोग में उठिये। वही ढूरों से लड़ने आपको अत्यंत कर्तृत्व शक्ति देगा। आप ही लोग स्टेज पर हैं। कोई और में अपनी शक्ति आता ही नहीं और कोई आ जायें मेरा बेटा तो मैं आपको दिखा देँ अपना करिश्मा! लेकिन कोई आता ही नहीं। कहता है, चलने दो| क्योंकि आज व्यर्थ न करें। स्पेशलिटी पॅटर्न चला हैं न। सामान्य जनता से ही असामान्य काम करना है। आपस में सामान्य लोगों से असामान्य कर के दिखाना है। इसलिये ऐसे कोई आते नहीं और आते हैं तो जंगल में जा के बैठते हैं। आप लोग स्टेज पर आये हैं लड़ाई-इगड़ा और बैकग्राऊंड में सब लोग बैठे हैं गण आदि, उसका आपको पता नहीं लगाने में अपनी लगेगा। लेकिन याद रखना एक-एक आपकी अँक्शन, एक-एक आपकी बात जो आप छुपाये और गड़बड़ आप करें सब चीज़ उनके पास लिखी जा शक्ति व्यर्थ न रही है। और वो ऐसा आपको टाँग अड़ा कर गिरायेंगे कि फिर कहियेगा मुँह करें। दूरों की के बल आ कर कि, 'माँ, ये क्या हुआ? हम तो तुम्हारी ही सेवा करते थे।' उनसे आप पार नहीं आ सकते। इसलिये मैं बार बार आपसे बता रही हैूँ कि ओ२ देख कर बच के रहना। सहजयोग में बहुत ही भोलापन चाहिये और जो आप में भोला होगा उसके चरणों में पड़ने के लिये तैयार है। किसी भी चालाकी में के अपनी शक्ति घुसने का प्रयत्न ना करें। फिर आप बचेंगे, फिर आप प्रोटेक्टेड है, फिर नष्ट ने करें। आप मेरे कवच में हैं। चालाकी से बचिये। लेकिन अपने से आज के शुभमुहूर्त पर बार बार आपसे एक ही कहना है, कि कोई क्षण अपने जीवन में ऐसे महत्त्वपूर्ण होते हैं कि हम इस किनारे से उस किनारे तक लडिये, खुद से चल ही जाये, भवसागर तर ही जाते हैं, लेकिन भवसागर की थपेड़ें खाने के बाद अगर किनारे पर पहुँच गये तो बहुत नयी उम्मीद सोचने की बहुत लंड़िये, अपने जरूरत है। नहीं तो भवसागर पार करने का कुछ फायदा ही नहीं। आप लोगों औ२ देखें, को जो भी अनुभव साक्षात्कार से आये, वो किनारे पर बिल्कुल ही बेकार हो जाते हैं। तब मुझे समझ ही नहीं आता कि अब इनको कौनसा इंजेक्शन अपनी औ२ दूँ कि उठ कर खड़े हो जाओ| नज़२ करें। हर एक को आज प्रतिज्ञा करनी चाहिये, जो लोग पार हैं, कि हमारे हाथों से बहुतों के हृदय में दीप जलें। और जो सब को बाँटें। इतनी प्रतिज्ञा आप सबको करनी चाहिये। इसके लिये हम ... हमने उठाया है वहीं . 20 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt क्या कर रहे हैं? हम इसके लिये क्या प्रयत्नशील हैं? इतने शिष्य तो कभी भी किसी गुरु के नहीं होंगे जितने मेरे बच्चे हैं। और शिष्य से भी कहीं अधिक बच्चे अपने होते हैं। लेकिन कलियुग का मामला और माँ का हिसाब-किताब जोड़ लें इससे बहुत बचने की जरूरत है। माँ की स्थापना कलियुग में बड़ी मुश्किल से होती है। और अगर हो जाये तो ऐसा आदमी परम शक्तिशाली हो सकता है। दूसरों से लड़ने में अपनी शक्ति व्यर्थ न करें। आपस में लड़ाई-झगड़ा लगाने में अपनी शक्ति व्यर्थ न करें। दूसरों की ओर देख कर के अपनी शक्ति नष्ट न करें। लेकिन अपने से लड़िये, खुद से लड़िये, अपने ओर देखें, अपनी ओर नज़र करें और अपने से पूछो कि, 'क्यों मैं इतना निर्बल हो रहा हूँ? क्या बात है? क्यों?' कौनसी ऐसी बात है जो हमने आपको दी नहीं ? कौनसी ऐसी बात हैं जो हमने आप को समझायी नहीं? आपने कहा 'हमें शरीर की जरूरत है।' शरीर दे दिया। किसी ने कहा 'हमारे बाल सफ़ेद कर दो।' तो बाल सफ़ेद कर दिये। किसी ने कहा, 'हमारे बाल काले कर दो।' उनके बाल काले कर दिये। किसी ने कहा, 'बेटा दे दो।' उनको बेटा दे दिया। किसी ने कुछ माँगा, वो दे दिया। किसी ने कहा, 'माँ, इसका सारा ज्ञान बताओ। सारा गोप से गोपनीय ज्ञान बताने के लिये बैठे हैं। किसी ने कहा, 'माँ, हमें ये चीज़ें दों, वो चीजें दों।' दे दी। देने के बाद भी ऐसा ही हमला करना हैं तो क्या कहें? हम लेने वाले तो नहीं हैं । लेकिन आपको और कुछ अगर पाना ही है, तो उठना होगा। बगैर उठे काम नहीं होगा। आज के दिन जरूर सब को मन ही मन प्रतिज्ञा करनी है। छोटी छोटी चीज़ों में मैं देखती हूँ मनुष्य घबरा जाता है। जैसे एक साहब को मैंने कहा, 'यहाँ बैठिये।' दूसरे से कहा, 'वहाँ बैठिये।' फिसल गये । कोई साहब थे उनको मंत्र गाने को कहा, दसरे को ये कहा, फिर फिसल गये। ये क्या है ? आपको मैंने क्या आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं दिया? क्या आपको मैंने परम तत्त्व की बातें नहीं बताई? उसमें मैंने कभी कंजूसी की है क्या? मूर्खता की बात ही है कि लड़ने वाले क्या पायेंगे? कोई आदमी यहाँ बैठे, कोई आदमी वहाँ बैठे, चाहे कहीं भी बैठे, माँ के हृदय में बैठना चाहिये । या अपनी कुर्सियाँ ले के एक भी आदमी मर जायें तो मैं मान लूँ की कुर्सी का कोई अर्थ होता है। सब की कुर्सियाँ भी यहीं छूट जाती हैं, बैठक भी छूट जाती है। अध्यात्म की बैठक बिठाईये। जो गहराई में उतरता है वो .....(अस्पष्ट) बैठता है। दूसरे से आपको कोई मतलब नहीं है। अन्दर ही अन्दर आप मुझे जान सकते हैं, अन्दर ही अन्दर आप मुझे पा सकते हैं। लेकिन अपने ही अन्दर , अन्दर घुसना होगा, दूसरों के ऊपर या दूसरों की ओर जिनकी दृष्टि है उनको मैं बार बार बताना चाहती हूँ कि ऑर्गनाइझेशन का कोई मेरे आगे मतलब नहीं । मेरे लिये ऑर्गनाइझेशन आदि कुछ मतलब नहीं। जो आपकी शरीर के अन्दर ऑर्गनाइझेशन चल रहा है उसको क्या आप सम्भाले हुये हो? आपका हृदय जो धकधक कर रहा है, आपके जो श्वास चल 21 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt रहे हैं, पेट के अन्दर आपका जो पूरा खान पचन हो रहा है, उसका आर्गनाइझेशन क्या आप सम्भाले हुये हो? उसको कौन सम्भाल रहा है, उस ऑर्गनाइझेशन को? उसके अन्दर का परम तत्त्व और वही परम तत्त्व आपके ऑर्गनाइझेशन और सब आपके एकत्रित भावनाओं को सम्भालने वाला और महान कार्य को उठाने वाला है। लेकिन ये बीच में अनन्य बाजी लगाने की हमारी वृत्ति, जिसे की ये भारतीय वृत्ति कहते हैं, शर्म आनी चाहिये हमको भी। इस भारत वर्ष में ऐसे महान महान लोगों का वास हुआ, उनके चरण इस भूमि पर पड़े हैं, उस भूमि में इतने निकृष्ट जाति के लोग पैदा हये हैं। समझ नहीं आता है कि कलियुग का सारा यहीं अवतरित होने वाला है! जब भी आपका मन कोई जेलसी से भर जाये अपने साथ घृणा करे। घृणा करें, 'छी , छी, आज भी . ऐसी बातें की।' ( अस्पष्ट) मैंने आज कितना मंगल का समय, कितना आनन्द का समय है और कितनी बहार आनी चाहिये थी। जैसे कि संसार में एक नया ही वातावरण, हवा फैलें। उसकी जगह देखती हूँ कि जेलसी की बातें हैं। वही दुश्मन हैं हमारे, याद रखिये। हमारे महत कार्य में, हमारे परम कार्य में, परम तत्त्व जीना चाहता है, पनपना चाहता है, फूटना चाहता है सारे संसार के सुख, आनन्द और शांति को। आप जरा सम्भल के रहिये। आप लोग जरा सम्भल के रहें और उसको पा लें। सहजयोग का जो एक छोटासा दोष है, उसे समझ लें कि आपकी स्वतंत्रता पूरी तरह मानी जायेगी। आपकी स्वतंत्रता पूरी तरह मानी जायेगी और उसका पूरा आदर होगा। अपनी स्वतंत्रता का उपयोग अपने को परतंत्र करने में मत लगाईये। अपनी स्वतंत्रता की इज्जत करें और अपने स्वतंत्रता को जानें। बाजी हमारी होगी! आज कुछ लोग नये हैं यहाँ पर, बहुत से लोग पुराने भी हैं। जो पा चुके हैं उनके पास में वाइब्रेशन्स हैं। आपके वाइब्रेशन्स मुझे खींचते हैं। आप में वाइब्रेशन्स बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उसका कुछ अन्दर इको कम आता है। उसके अन्दर पडसाद कम आते है। बहुत वाइब्रेशन्स हैं यहाँ पर, मुझे खींच लायें लंडन से। मैं भागी चली आयीं उसी वाइब्रेशन्स की वजह से । ऐसा लगा की एक सहस्र दलों का कमल खिल रहा है बंबई में । कमल अपनी जगह खिल रहा है लेकिन पंखुड़ियाँ अभी तक निर्जीव ही नज़र आ रही हैं । इसी में जीवन है, अपने जीवन को वो जानें । वो सुगन्धित हैं और हर एक पंखुडी में से ये सुगन्ध सारे संसार को याद कर लें। उसी दिन स्वर्ग और परमात्मा सभी एकाकार आपको नजर आयेंगे । अब सब लोग मेरी ओर हाथ करें। य 22 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt ल भः २। ा २ ्० साट ८ या ु ुभ मूर्तियों से आप बहुत बड़ी मूर्तियाँ हैं। आप स्वयं एक मंदिर है। क्या वो मूर्ति थोड़ी आपके वाइब्रेशन्स जानती है! वो तो उसमें से वाइब्रेशन्स बस आ ही रहे है, बस और क्या हो रहा है? आप तो अपने हाथ भी चला सकते हैं। दूसरों को आप जागृति दे सकते हैं। किसी के चक्र खराब हो उसको आप ठीक कर सकते हैं। मूर्ति तो वहाँ बैठी वाइब्रेशन्स छोड़ रही है। प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, ६/४/१९७६ प्रकाशक। निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१ , ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2015_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt अपनी जो बाती है उसे ठीक रखो। आपका शरीर ठीक रखो, जो आपका दीप है। आपकी जो शक्ति है तेल दिमागी जमाखर्च जो है उसमें खर्च न करों। लौ को सीधे लगाओ। ये लौ का उपर का हिस्सा है, उसको माँ से चिपका लो। उसके पैर में बाँध दो। सीधी उठेगी लौ। निर्विचारता में निर्भीकता से जलती है। प.पू. श्रीमाताजी, ६/ ४/१९७६, मुंबई