चैतन्य लहरा मार्च-अप्रैल २०१६ हिन्दी इस अंक में आत्मा का जागरण ...4 (पूजा, मुंबई, २१/३/१९८७) अपने प्रति श्रद्धा हो ...10 सार्वजनिक कार्यक्रम, नागपूर, २२/१२/१९७३) आपके बर्थ डे होनी चाहिए। आप सारे मेरा क्या बर्थ डे मनी २हे हैं। कैसे ये २ह्जयोगी हैं, आप देखिए कि मैं तो अनादि हूँ, मेर क्या बर्थ डे मनी २हे हैं? मैं चाहती हूँ कि आप लौगों का बर्थ डे मनाया जीया औ२ ह२ बर्थ डे में मुष्टय बेढ़ते जाती है, धटती तो नहीं है। प.पू.श्रीमाताजी, २५ नवंबर १९७३ आत्मा का जागरण ू६ ा ० व आप लोगों ने मुबारक किया आपको भी मुबारक। सारी दुनिया में आज न जाने कहाँ कहाँ आपकी माँ का जन्मदिन मनाया जा रहा है। उसके बारे में ये कहना है कि वो भी आप लोगों में बैठे ह्ये मुबारक बात देते हैं। इस सत्रह साल के सहजयोग के कार्य में, जब हम नजरअंदाज करते हैं, तो बहत सी बातें ऐसी ध्यान में आती हैं, कि जो बड़ी चमत्कारपूर्ण हैं। ये तो सोचा ही था शुरू से ही कि इस तरह का अनूठा कार्य करना है। उसके लिये तैय्यारियाँ बहुत की थी। बहुत मेहनत, तपस्या की थी। लेकिन हमारे घर वालों को इसका कोई पता नहीं था । किसी तरह से चोरी - छिपे अकेले में, ध्यान- धारणा की और विचार होते थे कि किस तरह से मनुष्य जाति का उद्धवार हो। सामूहिक रूप से हो जायें। जब ये कार्य शुरू हुआ, तब भी इतने जोरों में ये कार्य फैल सकता है ऐसा मुझे एहसास नहीं हुआ। लेकिन ये एक जीवंत क्रिया है और जीवंत क्रिया किस तरह, कहाँ होगी, उसके बारे में कोई भी अंदाज पहले से लगा नहीं सकते । इस 4 मुंबई, २१/३/१९८७ तरह से सामूहिकता में ये कार्य अचानक नहीं हुआ। सर्वप्रथम बहुत कम लोग पार हुये। लेकिन जब पूरी कार्य का हम सिलसिला ढूँढते हैं और सोचते हैं कि इतने सत्रह साल में सहजयोग में हमने क्या कमी देखी । तो पहली बात ये ध्यान में आती है, कि मनुष्य के स्वभाव को, हमें कल्पना भी नहीं थी और सहजयोग में जब मनुष्य स्वभाव से परिचित हुये, तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मनुष्य कोई भी जागृती नहीं दे सकता। वो ध्यान करता है, धारणा करता है, परमात्मा की बात करता है, सब तरह से प्रवचन कर सकता है, बोल सकता है, सब कार्य कर सकता है। अपने को गुरु कहलाता है। उसके हजारो शिष्य हैं। लेकिन उन्हें सत्य की, असल की, रिअॅलिटी की कोई खबर नहीं। और तब आश्चर्य हुआ कि मनुष्य अज्ञान के बहुत बड़े भँवरे में, बवाल में न जाने कहाँ फँसता चला गया। लेकिन दूसरी बात .....का वो ये कि जब मनुष्य को जागृति हो जाती है, जब उसके आत्मा का जागरण हो जाता है, सिर्फ उसी वक्त उसमें परिवर्तन घटित होता है। उससे पहले किसी भी चीज़ से उसमें परिवर्तन नहीं होता। एकाध दुसरा हो गया होगा। लेकिन मेरी नज़र में एक भी नहीं आया। उसके अन्दर परिवर्तन आना सिर्फ कुण्डलिनी के जागरण से ही हुआ है। इसका अर्थ ये है, कि आत्मा के जागृति के बगैर मनुष्य घोर अंध:कार में बैठा हुआ था। सब ये बातें, बातें थीं | सब ये सोचना, सोचना था । सब ये लिखना, लिखना था । लेकिन इसका कोई तात्पर्य, अर्थ उनके जीवन में नहीं आया। और फिर तीसरा अनुभव ये भी आया, कि जो लोग जागृति में पार हो जाते हैं, वे भी किसी न किसी तरह से अपने अपने पुराने स्वभाव में पकड़ा जाते हैं। और उसको कारणीभूत थोड़ी सी चीज़ हो सकती है। जैसे एक साहब सहजयोग में आये, लंडन में और उनके बहुत सुंदर वाइब्रेशन्स आये। उस चैतन्य को देख के मैंने उनसे कहा कि, 'आप ने कोई सुकृत किया हुआ है। और उस सुकृत के कारण ही आप इतने ज्यादा चैतन्य से भरे ह्ये हैं।' बस, इतना कहना बड़ा .. था, वो सीधी खोपड़ी थी वो एकदम उल्टी हो गयी। जो सीधे चल रहे थे वो उल्टे चलने लगे । मैंने तो सोचा, इस प्रशंसा से ये कोशिश करेंगे कि, हम और आगे जायें। और आगे बढ़ें। बजाय इसके उनकी तो खोपड़ी ही उल्टी हो गयी | और उनको देख के अचंभे में रह गये, कि अगर किसी आदमी को आप एक तोला सोना दे दे, तो वो कोशिश करेगा कि वो एक तोले का दो तोला बनाये। ऐसी उम्मीद मुझे थी। जैसे की मछली से आप कछुआ बन गये। फिर उससे आप कुछ और हो गये। फिर कुछ और। फिर कुछ अनुभव ऐसे आये, कि कोई भी चीज़ उनसे .... नहीं। अगर इनको आप कोई जड़ वस्तु दे दे। जो कि जड़ वस्तु है। बिल्कुल जड़ वस्तु। लेकिन आप उन्हें जड़ वस्तु दे दे, तो वही जड़ वस्तु ले कर के वो बड़ा अत्याचार कर देंगे। बहुत सारे अत्याचार कर देंगे। छोटी सी आप उनको पदवी दे दीजिये। अगर उनसे आप प्रेम से बात करे, और उनमें आप विश्वास आ जाये, तो वो हमारा ही नाम ले कर के और धृष्टता पे आ जाते हैं। लोगों से बदला देना, उनको तकलीफ़ देना। उसके साथ अत्याचार होना। हमारे साथ इतनी धृष्टता है। परमात्मा प्रेम है और प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम के बाद सब आता है। सर्वप्रथम परमात्मा ने इस संसार को प्रेम ही दिया। अगर वो प्रेम नहीं करते तो ये संसार ही नहीं बनता। सच्चिदानंदादि इनकी बातें करिये। लेकिन प्रेम की जैसे कोई व्याख्या नहीं हो सकती। इसका कोई वर्णन नहीं हो सकता। उसका आनंद बताया नहीं जा सकता। उसी प्रकार परमात्मा के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे महान, शुद्ध प्रेम की बात हम शुरू से ही कर रहे हैं। और सारे जीवनभर आपको प्रेम के सिवाय और क्या दिया। 5 और हमारे पास है ही क्या देने के लिये, जो हम आपको दें। ये तो सिर्फ प्रेम ही के करिश्मे हैं। प्रेम से ही सब चीज़ बनती है। जिसने सहजयोग में आ कर के प्रेम का दाना नहीं चुना उसने अभी तक सहजयोग को समझा नहीं । सब से बड़ी चीज़ है कि हम कितने ज्यादा लोगों से प्यार करते हैं। दो-चार चमचे इकट्ठे कर दिये। जैसे आजकल बड़ा शब्द है चमचा। मुझे पता नहीं था चमचा शब्द क्या होता है? सहजयोग में आ कर पहले पता चला कि वो एक-दूसरे को चढ़ा कर करते हैं। फिर एकसूत्रीपन बंद कर के और सत्य .....सकते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना बड़ी भारी अंध:कार चेष्टा है । ये तो शैतानों के काम हैं। आपको जो अधिकार है, वो ये कि हमने आपसे प्यार किया और आप दुनिया से प्यार कर लें। ये आपका अधिकार है। जब 'मेरा, मेरा' ही नहीं छूट रहा, ये मेरा, तेरा चल रहा है तो सहजयोग कहाँ घटित हुआ? संसार में देखिये कितनी जीवित घटना है। मनुष्य को छोड़ कर के। कोई ऐसा कहता है कि ये मेरा है? पेड़ है अपने फल दे देते हैं, नदी अपनी पानी दे देती है, मेघ अपने बरसात दे देते हैं। पृथ्वी अपना सारा सौंदर्य आपके सामने प्रगटित कर देती है। कोई रोक के रखता है क्या? जब आप उसी निसर्ग के जीवंत हैं, प्यार के प्रवाह में बह रहे हैं, तब ऐसी छोटी छोटी बातों को याद करने की क्या जरूरत है? हर तरह से करने से अत्याचार इतना होता है। हर तरह से अत्याचारीपना होता है। जैसे की एक साहब आये। कहने लगे, 'मैं तो चार बजे उठ के ये करता हूँ, ऐसा करता हूँ, वैसा करता हूँ। और ये तो आदमी उठता ही नहीं। छोड़ दो।' तुम चार बजे उठ के सारे ..... जगाते हो। चार बजे उठ के ध्यान करना सहजयोग में नहीं। चार बजे उठो। सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला कर ध्यान करो, ध्यान करो , ये सब बातें बेकार हैं । आपको जब ध्यान में उठना है, तब आप कुछ कर के ध्यान करो। जब तक आपकी चित्त बुद्धि शिथिल है, जब तक आपका चित्त ही परमात्मा में लीन नहीं हुआ तो उनको जबरदस्ती करने से ये बैल चलने वाला नहीं। जब तक चित्त का ये बैल पूरा नहीं होगा तब तक ये दौड़ने वाला नहीं। ये तो धीमी गती से चलेगा। लेकिन इस बैल को ठीक करने के लिये आपके पास आपके आत्मा का प्रकाश है। उस प्रकाश को आप उपयोग में लायें। उस प्रकाश को आप दुसरों की ओर फेंक दें। ये दूसरों को दिखा दे कि हम बड़े प्रकाशमान है। लेकिन अगर आप हैं प्रकाशित तो लोगों को कहना चाहिये कि हाँ, एक ...है। अपनी शान में खड़ा होना चाहिये। अपने सुख में, अपने आनंद में खड़ा होना चाहिये। कोई आपकी बदनामी करे, कोई आपको कुछ भी कहे। जब तक आप जानते हैं कि ये सब झूठ है तो आपको इस पर नाराज़ होने की .देते हैं, तो जान लीजिये कि आप सहजयोगी हो ही नहीं सकते। क्या जरूरत है? आप अगर किसी को चालना दीजिये। चालना देने से आप स्वयं ही एक निष्ठावान सहजयोगी हैं। सब लोग ये सोचते हैं कि हम तो माँ को सरेंडर हैं। माँ, हम तो बदल गये। माँ को सरेंडर हैं। भाई , सेंडर की बात मुसलमानों के वक्त में कही गयी थी । इस्लाम मतलब होता है सरेंडर। अब सरेंडरिंग की इतनी जरूरत नहीं है। अब समझ की जरूरत है। अब भक्ति की इतनी जरूरत नहीं, अब विज्डम, सुबुद्धि की जरूरत है। हो गया, सब का ..... हो गया। अब आप स्टेज पे आये। अब आपको खेल पूरा खेलना है। लेकिन ये भी हम लोग अभी तक नहीं समझ पाते, कि सहजयोग में अब हम कहाँ बैठे हैं। पहले आप लेते थे, अब आप देने वाले हो गये। अब देने वाला ही महामूर्ख जैसे लेने वाले की .... और लेने वाले की ही भूमिका चला रहे हो । उसके प्रति कौन आदर करेगा ? और उसके सहजयोग को कौन बांटेगा ? सो, देने वाले में जो 6. आनन्द है, एक अपने प्रति मान है, दूसरों के प्रति अनुकंपा है। संसार के प्रति दक्षता है। सृष्टि के प्रति दृष्टि। ये जब तक हमारे चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, तब तक न हमें कोई मानेगा, न आपको मानेगा। और ये सब मिला जुला कर के एक ढ़ाई अक्षर ही बनता है। जिसे प्रेम कहा जाता है। और अब प्रेम कर के देखिये। आपका गुस्सा करने का जो स्वभाव है, वो छूटता नहीं। मैंने तो यहाँ तक सुना की कुछ सहजयोगी गाली -गलोच करते हैं। आप अपशब्द मुँह से निकाल ही नहीं सकते। आपका हर एक अपशब्द अमंत्र हो जायेगा। ये सृष्टि में जितने अपशब्द हैं, उनको पूरी तरह से मिटाने के लिये आपके लिये जागृत मंत्र दिये गये हैं। बजाय इसके उसको आप जागृत करें .., आप मंत्रविद्या दी है उसी को आप नष्ट कर रहे हैं। ऐसे आदमी में मंत्र भी अमंत्र से भी अशुद्ध हो सकते हैं। सहजयोग की सभ्यता बाहरी नहीं अन्दरूनी है। पर इसका मतलब ये नहीं की अन्दरूनी सभ्यता है और बाहर असभ्यता है। बिल्कुल भी नहीं। बहुत से ये लोग कहते हैं कि हमारा दिल तो बिल्कुल साफ़ है, बाकी चाहे जैसा बने। इससे आप सहजयोग का प्रकाश बाहर कैसे पहुँचायेंगे? कोई अन्दर से कितना भी साफ़ हो, जब तक उसका दिल साफ़ न होगा, जब तक उसका प्रकाश लोग नहीं देखेगे, तब तक ऐसे अन्दर के प्रकाश को भी ले कर क्या करना है? बहक जाना ये बहुत बड़ा अनुभव हमने सहजयोग में देखा कि लोग बहक जाते हैं। पैसे के लिये बहक जायेंगे, सत्ता के लिये बहक जायेंगे। ऐसी ऐसी छोटी बातों के लिये बहक जाते हैं कि मुझे आश्चर्य होता है कि कहाँ इन्होंने आत्मा को पाया है ये बहक कैसे गये! बहकने के लिये मैं जानती हूँ कि शक्तियाँ बहुत जबरदस्त हैं। लेकिन आपके पास सब से बड़ी शक्ति मिली जो कि हजारो वर्ष मेहनत से भी नहीं मिलती। लेकिन इसी में जो अनुभव आये, वो इतने सुन्दर और अनुपम हैं । सहजयोग में कुछ कुछ लोग कितनी सुन्दरता से परिवर्तित हो गये। उनका जीवन इतना गौरवशाली हो गया है, कि उसे देख कर के बड़ी .... हो जाती है ऐसा तो किसी भी अवतरण में नहीं हुआ है। इतने सारे लोग, इतने सुन्दर लोग, इतने ऊँचे लोग, इतने पवित्र लोग , इतने शक्तिशाली लोग, किसी भी अवतरण के नसीब नहीं, जो हमारे नसीब में आये हैं। उसका समाधान बहुत है। लेकिन कभी कभी फूल के साथ कॉँटे भी चुभ जाते हैं। तो भी उसका शल्य भी चूभता ही रहता है। और फिर लगता है कि बार बार कह दें | कि तुम परिवर्तित हो जाओ, तुम्हारे काँटे भी पफूल समान हो कर के सुगंधित हो जायेंगे | सारी चीज़ समझने की है। ये सारा संसार, ये सारी सृष्टि, ये ग्रह मंडल, ब्रह्मांड, सारे जो कुछ भी बने हैं ये सारे आपके परिवर्तन का इंतजार कर रहे हैं। वो सब देख रहे हैं। कब ये वायुमंडल बदलने वाला है और कब हम इस पर बरसात करें। इन सब का कोई भी अर्थ नहीं रह जायेगा । अगर मनुष्य सहजयोग में आ कर के भी परिवर्तित नहीं होगा। हमारी सत्रह साल की मेहनत में हो सकता है कि किन कारणों से कभी कभी हमने जी भी चूराया हो। और कभी कभी उधर आँखे भी बंद कर ली। कभी कभी काँटों को देखा। एक आशा में, कि सब का परिवर्तन हो सकता है। कोई चीज़ अशक्य नहीं। इसका ये मतलब नहीं की सहजयोग काँटों में पनपता है। या उसका संबंध है या उसको वो सपोर्ट करता है। कभी भी नहीं । ऐसे काँटे हमेशा निकाल कर फेंक दिये जायेंगे और जब तक वो परिवर्तित नहीं होंगे वो इस .... में आ नहीं सकते। ये नियती है। इसे हम नहीं बदल सकते और इसे आप नहीं बदल सकते। ये चक्र ऐसा है, कि इस चक्र में आप सबको अपना परिवर्तन खोजना चाहिये। छोटी छोटी चीज़ों में जब अहंकार आदमी को लगता है, जैसे कोई है, मैं नहीं | क्यों? 7 आपको ......करना चाहता है। मैं... हूँ, मैं....हूँ। जहाँ तक ये मैं, मैं, मैं, चलता रहेगा वहाँ तक सहजयोग भी हटता चला जायेगा। कोई भी काम, इच्छा, बुद्धि आपको 'मैं' का लक्षण देती है, तो ऐसे कार्य में सहजयोग आने नहीं वाला। ऐसे बुद्धि में सहजयोग का कोई स्थान नहीं। इसका मतलब तो ये है, कि आपकी अपनी भावना में भी सहजयोग नहीं है। आपकी बुद्धि में भी नहीं। इस 'मैं' को छोड़ना ही बहुत महत्त्वपूर्ण है। किसी किसी में तो सिर्फ मैं को .... और उसी के नशे में, उस 'मैं' के नशे में ही इतनी हालत हो जाती है कि जब आप अपने 'मैं' में बोलते हैं तब मुझे भी सुनाई नहीं देता और मेरी भी समझ में नहीं आता है कि क्या बोल रहे हैं। जैसे कोई कुत्ता भौंक रहा हो, वैसे मुझे लग रहा है कभी कभी। और कभी कभी ऐसा लगता है कि कोई साँप है, वो फूत्कार छोड़ रहा है। ये कौन सी भाषा बोल रहा है भाई ? ये हमारी तो भाषा नहीं और ना ही ये मनुष्य की भाषा है। इसमें प्रेम की आर्द्रता नहीं, प्रेम का दिलासा नहीं, प्रेम का है, कार्य करने के लिये नाद है, ओंकार आभास तक नहीं ऐसे कार्य क्यों करते हैं आप? कार्य करने के लिये तो साक्षात् खड़े हैं। उसको किसी की जरूरत क्या कार्य करने की ? लेकिन आपके अन्दर वो निनाद आने के लिये आप स्वयं को वाद्य होना चाहिये, जिससे ये निनाद पहुँचे। उस अँध:कार में बैठने से भी क्या फायदा है? ये निव्व्याज्य प्यार से आप .... कि इस अंध:कार से आप रूप नहीं है, रंग नहीं है, और जो कुछ भी में देखती हूँ, इतने सुन्दर महानुभाव हमारे सहजयोग में सामने खड़े हये हैं। मैं कहती हैँ, इतने तो किसी भी समय में नहीं हये ैं । वो दिन दूर नहीं कि जिस दिन सहजयोग चरम सीमा तक पहुँच जायेगा। जिस दिन सारे संसार में सहजयोग की पताका फैलेगी, मुझे बिल्कुल इसमें अब शंका नहीं रही। लेकिन विचार आता है कि जिन पर इतनी मेहनत की, और उन्होंने हमारे प्यार को नहीं समझा, हमको ही नहीं समझा, वो क्या सहजयोग को समझ पायेंगे? आपके प्यार से आँख में आँसू आ जाते हैं। और क्या कहें, क्या न कहें। किसी विचार में गलत रूप लेता है। ये सब कृष्ण की लीला है। जिसने सिवाय माधुरी के और कोई बात ही नहीं करी। उन्होंने होली इसलिये रचायी, कि दुनिया भर के वितंडवाद के राइट हैण्ड से पायेंगे, लेफ्ट हैण्ड से पायेंगे, इधर में दीप लगा रहा है, उधर में दीप लगा रहा है, ये सारे दुनिया भर चक्करों से छूट्टी करने के लिये कृष्ण ने कहा कि, तुम रंग खेलो। पर रंग तो खेलो, ना कि मिट्टी, ना कि गंदी चीजें और गोबर आप दूसरों पे उछालो। लेकिन मनुष्य वही करता है। उसके बगैर उसे मज़ा नहीं आता । पता नहीं, कुछ लोग शायद हो सकता है, कि वास्तव में सहजयोग में इसलिये भी आये होंगे, कि वो अपनी पुरानी आकांक्षायें और इच्छायें पूरी करें। हो सकता है । कभी कभी मुझे ऐसी शंका आती है। लेकिन जो जन्मजन्मांतर की चीज़ आप लोग पूर्ण पायेंगे, कि आप अपने आत्मा को पाईयेगा और उस आत्मा के सारे आनन्द के क्षेत्र आप अपने अन्दर प्रगटित होंगे और एक आप बहुत महान आत्मा बनेंगे। एक महान आदर्श बनेंगे। एक प्रेम के सागर बनेंगे। वो सब जो भी आपसे वादे किये गये थे, वो सारे पूरे करने के लिये सहजयोग संसार में आया। और अब अगर कुछ आप अपनी मूर्खता में इसे खोना चाहते हैं, तो एक बात सिर्फ यही बार बार कहनी है, कि बेटा कुछ समूचा नहीं। जब पानी को पीना होता है तो प्रेम से पिया जाता है। उसको धूत्कार कर आप कैसे पियेंगे? आपको समझाने में शायद मेरे शब्द पूरे न पड़ते हो। हो सकता है कि मैं अपने हृदय की बात पूरी तरह से नहीं कह सकती हैँ। हो सकता है कि आप मेरे 8. अन्दर के आन्दोलन को नहीं समझ रहे हैं। उसके लिये मुझे कोई शिकायत नहीं। मेरी शिकायत सिर्फ ये कि आप अपने आन्दोलन को देखिये । आप अपनी गंभीरता को देखिये। आप अपनी शान को देखिये। आप अपनी संपत्ती को देखिये। उसका उपभोग उठाईये। उसमें आप बसे हैं। | उसमें क्या आज जन्मदिवस का समारोह हुआ । हमारे जन्म से हमारा कोई मतलब ही नहीं । जन्म हुआ सो हो गया, विशेष है? और जन्मदिवस भी आया तो क्या हुआ? ऐसे तो रोज ही किसी न किसी का जन्मदिन होता ही रहता है। रोज ही कोई न कोई पैदा होता है। रोज ही कोई न कोई मरता रहता है। ये तो परिवर्तनशीलता का क्षण है। इसकी विशेषता ऐसी तो कोई नहीं। लेकिन तभी इसकी विशेषता होती है, जब समाज ....... उसी क्षण उसका ..... उसके साथ एकाकार हो जाता है। आज हमारे जन्मदिवस के अवसर पर आपने हमें गिफ्ट दी है। इसमें स्नेह है, प्यार है। वही प्रेम, वही स्नेह, आप सब को दीजिये। आज के दिन यही आप मुझे दीजिये, कि इस क्षण आप ठहर जायेंगे, उस प्रेम के मुकाम पर। वहीं आपकी मंजिल है। वहीं आपका डेस्टिनेशन है कि जहाँ आप सिवाय प्यार के कुछ भी न बन जायें । तभी सोचिये की आपने आपकी मंजिल पायी। और कोई भी चीज़ पाने की नहीं। सब जो कुछ भी कार्य करने हैं, जो आपने इंतजामात किये हैं, जो खूबसूरती से सजाया है, सब कुछ इतना सुंदर बनाया है। आज पूजा में वो सब तत्पर हैं। उस वक्त आप ठहर जायें एक बात पर कि माँ, हम इस प्यार के सागर में डूब के पूरी तरह से हमारे अन्दर आ जायें। ये इच्छायें आज इस वक्त, इसी क्षण पूरी होगी। आप तो जानते हैं कि मुझे कोई इच्छा नहीं होती। मेरी कोई इच्छा न होने की वजह से कोई इच्छा पूरी भी नहीं होती। सब आपकी ही इच्छाओं के सहारे चल रही हूँ। इसलिये ये इच्छा आपको प्यार करें। ये इच्छा नहीं, क्योंकि इच्छा अगर कही जायेगी तो वो जैसी और इच्छायें होती उसी तरह, पर ये ......गये। हमारी सीमाये, सब लाघ कर हम तादात्म्य में आ गये। तदाकारिता शुद्ध इच्छा की जागृति, इस शुद्ध इच्छा की जागृति होनी चाहिये, माने आपने उसको क्रिया में लाना चाहिये, अॅक्शन में लाना चाहिये। आज जाने से पहले सब लोग एक दूसरे से प्यार से मिले। सब से बात करें, सब को पहचाने, ये नहीं कि बम्बई वाले अलग, दिल्ली वाले अलग, मद्रास वाले अलग, पूना वाले अलग ये सब भूल जाईये। ये सब मिथ्या है। झूठ है। ये व्यर्थ की .... है। ये सब भूल कर के आपस में प्रेम से मिले और सब से बात करें। और हमें कोई चीज़ की आशा नहीं है। इसी आशा के सहारे जी रहे हैं। प्रेम खूब बढ़े और ये आत्मा का प्यार, इसका प्रकाश सारे संसार में उछल जायेगा। संसार की जितनी दुर्घटनायें हैं, जितनी विपदायें हैं, और जिस तरह से आज संसार एकदम से, दुःख और पश्चात्ताप के बीच में डोल रहा है, उसके सामने कोई एक ठोस चीज़ रखी जायें। आप कोई भी अपने को किसी से कम न समझें। सब हमारे लिये वंदनीय, प्यारे हैं। और इसी से हर इंसान को अपने प्रति श्रद्धा, गौरव रखते हये, अपने से प्रेम रखते ही सब को प्रेम करना सीख जाईयेगा । जो अपने स्वयं से प्यार नहीं करता वो किसी से भी प्यार नहीं कर सकता।..... उसके प्यार में, उसके गौरव में, उसके प्रकाश में, आप विष्णु का सुंदर स्वरूप देखिये और उससे पुलकित हो कर के और इस गहन प्रेम के सागर में डूबते रहे। यही मेरा आप सब को आशीर्वाद है । 9. नागपूर, २२ दिसंबर १९७३ बहुत पहले से ही ऐसे कुछ, सहज में ही कहना चाहिये, ऐसे कुछ समय आये, कि मुझे भाषण देने पड़े। बहुत बड़े बड़े जमावों के सामने , कहना चाहिये हजारो लोग यहाँ थे। १९३० की बात है, जब कि गांधी जी ने उपोषण किया था । मेरे पिताजी भी बड़े अच्छे वक्ता थे। आप सब उनके बारे में जानते होंगे। लेकिन उनको जरूरी काम से घर जाना पड़ा। सब लोगों ने कहा, सालवे साहब आप भाषण नहीं दीजियेगा तो सब लोग भाग जाएंगे। काम कैसे बनेगा? कहने लगे, 'मैं तो जा रहा हूँ। मेरी लड़की जो मेरी धरोहर है उसे रख के जा रहा हूँ। और मैं लौट के आऊँगा उसके बाद भाषण दूँगा।' लेकिन देर होगी वो लौटे नहीं। तो सब लोगों ने कहा कि, बहुत 'भाई, वो तो आये नहीं। अब इनकी लड़की, धरोहर है उनको धरते हैं। अब कैसे होगा ? भाषण कौन देगा? और चिटणीस पार्क के लोग हैं। कहीं बिगड़ गये तो पत्थर मारना शुरू कर देंगे।' तो वहाँ एक साहब बैठे थे। उन्होंने कहा कि, 'उन्हीं से कहिये भाषण देने के लिये, कि क्या आप भाषण देंगी?' वो हमसे पूछे कि, 'क्या आप भाषण देंगी ?' मैंने कहा कि, 'हम देंगे।' तब मेरी उमर सिर्फ सात साल की थी। उस वक्त के कुछ लोग हो तो उन्हें याद होगा कि मैंने पंधरह बीस मिनट तक काफ़ी अच्छा सा भाषण दिया था। बुढ्ढा-बुढ्ढी की शादी बतायी थी। अब सोचती हँ कि बहत सालों बाद, अपने ही लोगों के बीच में, अपनी ही भाई -बहनों के बीच में, नयी बात ले कर के आना पड़ा है। और बहुत कुछ पुरानी बातें भी याद आ रही है, कि बचपन से ही मैं जिस चीज़ को अच्छे से जानती थी, उस बात को कहने का मौका ही मुझे नहीं मिला। उसकी वजह ये थी कि जो वो इन्सान एक दसवी मंजिल पे पैदा हुआ हो, जो कि दसवी मंजिल की बात जानता हैं, पहले मंजिल वाले के साथ क्या बात होगी। वो अगर कोई बात भी कहे, कोई यकीन नहीं करेगा। बहुत बचपन में मैं अपने माता-पिता से, विशेष कर अपने पिता से बहुत कुछ इस पर बातें किया करती थी और धर्म पे बहत चर्चा करती थी। लेकिन मैं देखती थी, कि वे भी यही सोचते थे कि ये सब बातें किसी के समझ में आयेंगी नहीं। जैसे कि, साहब, जो अॅडवोकेट हैं यहाँ के। ये मुझे बचपन में पढ़ाते भी थे। ये भी मुझे बहुत अच्छे से जानते हैं और मेरे भाई, बहन, और यहाँ के बहुत से लोग जिनको की मेरे पिताजी जानते थे, सभी लोगों का मैं ये देखती थी कि इन्हें मेरी बात समझ में आयेगी नहीं। इसलिये ये बात करना अभी उचित नहीं है। कम से कम पहले मंजिल से पाँचवी मंजिल तक लोग पहुँच जाये, तो कुछ मेरी बात उनकी समझ में आयेगी। एकदम से ही ऐसी बात कह दो, तो लोग सोचेंगी कि कोई पागल आदमी बोल रहा है। इससे क्या फायदा ? 10 भ0 का क इसी तलाश में मैं थी, कि मनुष्य जो है, इस की समस्या क्या है? और वो किस तरह से हल होगी? बहुत बचपन से, आपको आश्चर्य होगा, मुझे बचपन से आदत है। और माउंट रोड में भी जब हम लोग रहते थे, तब भी यहाँ पर जो अभी मैंने सुना बड़ा .... बना दिया है। यहाँ एक माउंट मेरी का टेम्पल है। उसके पास जा कर घण्टों मैं बैठ कर किसी भी वो को बात को ले कर सोचती थी, कि मनुष्य में जो एक उलझन, जो एक समस्या है, एक ही समस्या है बहुत साधारण, ये समस्या ऐसी है कि परमात्मा ने ये सारी सृष्टि, ये सारी एक लीला रचायी है न कि एक नाटक हो रहा है और मनुष्य समझे बैठा है कि ये नाटक मैं बड़ी सिरीयसली कर रहा हूँ। जैसे समझ लीजिये एक आदमी से कहा कि तुम शिवाजी बन जाओ और तुम शिवाजी का खेल खेलो। अब वो सोचने लग जाये कि मैं शिवाजी हो गया| तो इस पागलपन को कैसे हटाया जायें। ये समस्या ही है। क्योंकि सब लोग सोचते हैं, कि जो हम हैं, सो ही हैं। इसके अलावा हम और कुछ हैं, ये बात कोई सोच भी नहीं सकता। जब वो सोच भी नहीं सकता है, तो फिर उसको जानना कौन चाहे! सब लोग यही सोचते हैं कि जो खेल है यही सही बात है। और अगर बच्चों से आप पूछे, तो बच्चे तो सारी सृष्टि को ही खेल समझते हैं। एक बच्चा था। हमारे घर में आता था। एक दिन मुझ से पूछता है, 'आँटीजी, आप ये डॉक्टर डॉक्टर क्यों खेल रही है?' वो सोचते हैं कि ये भी एक खेल है, कि भाषण होता है, लोग आते हैं, बैठते हैं। वास्तविक ये सत्य है। बच्चे सत्य जानते हैं। लेकिन हम लोग असत्य को सत्य माने बैठे हैं। जैसे कि हम ये सोचते हैं कि हम नागपूर में पैदा हुये हैं। हम नागपूर वाले हो गये। फिर, हम हिन्दुस्तान में पैदा हुये, हम हिन्दुस्तान वाले हो गये। फिर, हम ईसाई धर्म में पैदा हुये, हम ईसाई धर्म वाले हो गये| लेकिन अगर छोटे बच्चे से आप पुछे कि, 'बेटे तुम कौन हो ? तुम जपानी हो कि अमेरिकन हो ?' तो वो हैरान हो जायेगा। उसे कहो कि, 'तुम मुसलमान हो कि हिन्दू हो?' तो वो और भी हैरान हो जायेगा । उससे पूछो कि तुम कौन हो ? तो ज्यादा से ज्यादा वो इतना ही कहेगा कि, 'माँ मैं तुम्हारा बेटा हूँ और कौन हूँ? तुम भूल गयी क्या मुझे?' वास्तविकता 6. में हम जो असलियत में मनुष्य है ये सत्य को भुला कर के और जो असत्य है, उसे हम मान लेते हैं। जब अंग्रेजों ने भी यहाँ राज्य किया, तो वो भी बड़े भारी असत्य पे थे कि, 'हम अंग्रेज हैं, ये हिन्दुस्तानी।' वो भूल गये थे कि हम भी इन्सान हैं, ये भी इन्सान हैं। और ये बड़ा भारी सत्य है। ये सत्य ऐसा है कि जैसे एक उँगली, वैसे ये भी एक उँगली, ये दुसरी, ये तीसरी, ये चौथी, ये पाँचवी, सब उँगलियाँ एक ही हाथ की। लेकिन हाथ भी एक ही शरीर का। हम सब एक ही चीज़ों में बँधे हये हैं। ये महान सत्य है और सही बात है। लेकिन अगर ये उँगली सोचें कि मैं अलग हूँ और ये उँगली उसको दबाना चाहे, ये उँगली इसको काटना चाहे, मेरे दाँत जो हैं, मेरे पाँव को काटने लग जाये । वैसी ही चीज़ मैं देखती थी संसार में। मुझे समझ में नहीं आता था कि इन लोगों को कैसे बतायें कि भाई, तुम सब एक हो। इसलिये जरूरी था कि सबको, ये तो महसूस हो कि इसका दर्द उसको भी लगें और उसका दर्द इसको भी लगें। तो ये क्या करना चाहिये? क्योंकि मुझे तो ये होता था, मैं जानती थी। अभी जो ब्रायन साहब ने कहा, ये बात सही है कि जब ये बम्बई आयें तो मुझ से इन्होंने कहा था कि ·...नंबर बताया नहीं। इन्होंने मुझ से कहा कि इतना तुम्हें भाषण का ये है और इतनी तुम डायनॅमिक हो और सब कुछ हैं। तो तुम को तो चाहिये पॉलिटिकल फिल्ड में आयें। तुम्हारे जैसे पॉलिटिकल फिल्ड में आयें।' मैंने कहा, 'भाई, मुझे माफ़ करो । 11 सार्वजनिक कार्यक्रम मेरे बस का ये रोग नहीं।' तब बहुत कुछ ये कहने लगे कि, 'मेरे दिमाग में ऐसी बातें आ रही हैं। मेरे दिमाग में ये बात आ रही हैं कि तुम्हारे से ये हो सकता है, पॉलिटिकली तुम ये कार्य कर सकती हो। तुम्हारी जैसी स्री मिल नहीं सकती। मैंने कहा कि, 'मेरे तो दिमाग में एक प्रकाश का गोला घूम रहा है।' ये मैंने इनको जवाब दिया था। क्योंकि वजह ये है, कि वो तो घूम रहा था बहुत दिनों से ही। लेकिन उससे मैं कैसे लोगों को समझाऊँ, कि ये क्या है? जो चीज़ मैं देख रही हूैं, वो चीज़ क्या है? ये बड़ा भारी मेरे सामने प्रश्न था। इसलिये मैंने थोड़ी मेडिकल की भी स्टडी की। ये समझ ले की इससे इन्सान क्या करता है? इस चीज़ का क्या नाम है? इस पर मैं कल आप को बताने वाली हूँ। लेकिन ये खोजते खोजते मैं बहुत साधुओं के पास गयी। किसी ने कहा तुम मेरी शिष्या हो जाओ, किसी ने कहा चुप हो जाओ। मैंने कहा अच्छा, ठीक है। हरिद्वार में भी मैं एक साधु जी थे, उनके पास बहुत दिन रही। फिर और भी बहुत से साधुओं के पास गयी। धीरे धीरे मुझे ये पता हुआ कि सब चारसौ बीसी है। इनको कुछ भी नहीं मालूम है भगवान के बारे में। ये कुछ भी अपने बारे में नहीं जानते हैं। कुण्डलिनी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं । सब पैसे से मतलब है उनको या तो औरतों के चक्कर में। सब बेकार के लोग हैं। इनमें कोई पवित्रता नहीं है। सब झूठ हैं। मुझे तो सच्चा साधु बहुत ही विरला लगता है। बहुत ही विरला और जो है भी, कोई एखाद- दो सच्चा साधु है भी, तो वो जंगलों में है। इसलिये मुझे बड़ी निराशा हुई कि धर्म के नाम पे जितना लोग झूठ करते हैं, मेरे ख्याल से और किसी भी चीज़ में, किसी भी धंधे में नहीं करते। लेकिन धर्म को जो धंधा बना के रखा है, पैसा कमाने का धंधा बना के रखा है, इस से बढ़ के घृणित बात तो हो ही नहीं सकती। इसलिये आपने ये भी सुना होगा कि ईसामसीह ने जो कि इतने शांति के पुजारी थे। उन्होंने भी एक बार हंटर ले कर के जो लोग मंदिर में दुकाने लगा कर बैठे थे उनको मारना शुरू किया । अपने यहाँ तो जो लोग मंदिरों में दुकानें लगा कर बैठते हैं उनको मारता-पीटता है नहीं। लेकिन जो मंदिर की दुकान बना बैठते हैं, जो भगवान को रास्ते में बेच रहे हैं, और करोड़ों रुपये जिन्होंने इकठ्ठा किये हैं। करोड़ों रुपयों का जिन्होंने फॉरिन एक्स्चेंज बनाया है, सब को बेवकूफ़ बना बना कर के और भूत विद्या, स्मशान विद्या, प्रेत विद्या, आदि से उनको पागल बना कर के और उनको लूट रहे हैं। इससे बढ़ के अधर्म और पाप संसार में कोई नहीं। ये पाप की गठरी उनके सर से तो उतर ही नहीं सकती है। क्योंकि वो सिर्फ आपका पैसा ही नहीं नोचते, पैसा नोचना है, नोच लें, आपकी जेब काटना है, काट लें, कोई हर्ज नहीं। उससे कोई हर्ज नहीं बनता। क्योंकि ये सब तो विनाशी चीज़ें हैं | ये तो इसी संसार में रहने वाली हैं। लेकिन आपके अन्दर का वो शक्ति का स्रोत, जो कुण्डलिनी है, उसी को जब खराब करते हैं, उसी को मार्ग को खराब करते हैं, प्रेत विद्या और भूतविद्या से आपको भ्रष्ट करते हैं, तब उनको जान लेना चाहिये, कि ये पैसे की गठरी न कोई ले गया है और न कोई ले जायेगा, लेकिन पाप की गठरी ले जाने पर उनका क्या हाल होगा? लेकिन उनमें से तो बहुत से राक्षस के अवतार हैं। बड़े बड़े राक्षस है, ये लोग, जो संसार में आयें हैं भगवान का नाम कहते हैं। है राक्षस! इन लोगों को मैंने बहुत नज़दीक से देखा और मैंने जाना कि इतने मायावी लोग हैं। इनका चक्कर ही जबरदस्त है। जैसे कि सीता जी को उठा के रावण ले गया था। बेचारी सीता जी, जो साक्षात् आदिशक्ति थी। उसे पता नहीं चला कि ये रावण मुझे ले जा रहा है। उसी तरह के ये महादष्ट आ कर के संसार में ये दुष्ट कार्य कर रहे हैं। और ये प्रेत विद्या और स्मशान विद्या के कारण ही अपने संसार में इतनी खराबियाँ और बुराईयाँ आ गयी। क्योंकि 12 ये गंदी गंदी आत्मायें आ कर के अच्छे भले आदमी को बेकार कर देती हैं। उसकी सुबुद्धि को नष्ट कर देती हैं। इनके हाथों में खेलना गलत बात है। हम जब किसी भी कार्य को एकदम से उद्विग्न हो कर के करते हैं तब सोच लेते हैं कि हम सही कर रहे हैं। लेकिन जब वो कार्य खत्म हो जाता है तो इतना दु:ख लगता है, इतनी पीड़ा होती है कि 'कितने महामूर्ख थे। पता नहीं ये कैसे काम हमने कर लिया !' वास्तविकता इस में ऐसा है, ये सारी प्रेतविद्या है एकमात्र हिप्नॉटिजम। उसके बीच में हम दौड़ रहे हैं और पागल जैसे छोटी छोटी चीज़ों के लिये इतनी हत्या और हानियाँ हम लोग कर रहे हैं। हमें अंदाज ही नहीं। और ये लोग इन्होंने तीन-तीन चार-चार करोड़ों रुपये इकठ्ठा किया है, उनके घरों में जा कर देखिये, तो आपको आश्चर्य होगा कि बड़े बड़े आलिशान घरों में रहते हैं, बड़े राजा बन के रहते हैं। दसरे तरह के भी लोग संसार में निकल आयें, जो संन्यास लो, ये लो. वो लो आदि बातें सिखाते थे। वास्तविक ये लोग आपको मुर्ख बनाना चाहते हैं। संन्यास क्या परमात्मा ने बनाया है? जो परमात्मा ने बनाया नहीं वो कभी भी आध्यात्मिक नहीं। न तो परमात्मा ने संन्यास बनाया है, न तो परमात्मा ने कोई भी ऐसी, विचित्र सी बात नहीं बनायी जो ले कर के आदमी चलें। संन्यास तो अपने अन्दर की चीज़ है। बाहर की नहीं होती। एकाध आदमी होता जो अन्दर से ही संन्यस्त है। वो फिर राजघराने में बैठा रहें चाहे कहीं भी बैठा रहे। वो संन्यस्त होता है, उसकी तबियत संन्यस्त है। मैं अपने पिताजी के लिये कह सकती हूँ। बिल्कुल वो संन्यस्त स्वभाव के थे । अत्यन्त संन्यस्त स्वभाव के। उनका स्वभाव इतना संन्यस्त था कि मानो अभी, आपको अॅडवोकेट साहब ने बताया है, लेकिन हमने उनको बहुत नज़दीक से देखा है कि उनके दातृत्व की ये हद थी कि अगर उनके पास कोई भी चीज़ हो और अगर कोई दौड़ जायें, उनके पास उनकी अंगूठी भी हो और कोई उनके पास पहुँच जायें कि 'सालवे साहब, मुझे बड़ी परेशानी हैं,' ये हो रहा है, वो हो रहा है, फौरन उतार के दे देते थे। एक दिन उनको किसी ने कहा कि, 'सालवे साहब, क्या आप जिसको देखो उसको दे देते हैं। कोई पात्र या अपात्र कुछ भी सोचा नहीं । ये तो सोचना चाहिये की आपके भी बाल-बच्च हैं।' उन्होंने कहा, 'मेरे कौन बाल-बच्चे हैं? जिसके हैं वो सम्भाल लेंगे । ' और वास्तविक यही बात है। जिसके हैं उसी ने सम्भाला है। उन्होंने तो, आप जानते हैं कि एक पैसा भी हम लोगों के लिये छोड़ा नहीं था और न ही किसी के लिये इन्होंने विल बनायी। ऐसा आदमी भी संसार में रहता है, नाम करता है, बड़ा आदमी बन के चला जाता है। और एक ऐसा भी आदमी होता है कि जो धर्म के नाम पर ये दुनिया भर का कर्कट उडाते रहता है। पैसा इकठ्ठा करता है। अगर पैसा मिलने से इन्सान सुखी होता, तो जिन देशों में बहुत सा पैसा है, खाने, पीने को बहुत है, यहाँ मैंने सुना आंदोलन हो रहा है। अब हम तो यहाँ आये आप लोगों के कल्याण के लिये और रास्ते में इन लोगों ने उतार दिया। कहने लगे, 'वहाँ मत जाओ। वहाँ सब लोग पत्थर मार रहे हैं।' मैंने कहा, 'ये भी कोई तरीका हुआ? हम तो इनको कोई अनाज़ थोड़ी दे रहे हैं? लेकिन बुद्धि का भ्रम देखिये , कि वो हम को ही पत्थर मारने को निकले। उसकी वजह ये है कि हम खाना-पीना इस चीज़ को महत्त्व देते हैं। वास्तविक खाना-पीना इतना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। कोई इतना महत्त्वपूर्ण नहीं। कोई यहाँ पर भूखा नहीं मर रहा है। अगर कोई भूखा मरता तो आप सिनेमा हॉल में देखिये हजारो लोग खड़े हये हैं टिकट के लिये, ब्लैक में खरीद रहे हैं। रिक्शेवाले, ताँगे वाले सब खड़े रहते हैं । कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसके लिये आप किसी को पत्थर मारते फिरे। लेकिन ये सब भूतविद्या है । आप जानते नहीं बिल्कुल साक्षात् भूतविद्या है । ये प्रेतविद्या का ही लक्षण है। और कुछ नहीं है। नहीं तो मनुष्य इतना मूर्ख थोड़ा ही है, जो इस तरह की बेवकूफ़ियाँ करें। तो इस तरह से, जहाँ पर, जिन देशों में अॅफ्ल्यूअन्स है, जहाँ लोग बहुत रईस हैं, जैसे अमेरिका में है। अमेरिका में 13 सार्वजनिक कार्यक्रम इतना पैसा है, इतना पैसा है, कि एक साधारण घर की नौकरानी जो आती है, वो भी कॅडलॅक गाड़ी में बैठ के। तो मुझे लगता था कि इनके यहाँ इतना पैसा है तो लोग इतने दुःखी क्यों? देखते हैं कि आज तो कॅडलॅक गाड़ी में आयीं और कल उसने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या क्यों करें? आखिर क्या बात है? इनके पास सारा पैसा होते हुये भी, सब से ज्यादा संसार में आत्महत्या अमेरिका में होती है। आश्चर्य की बात है! इसका अर्थ एक तो जाहीर जो हमें समझ भी लेना चाहिये, कि पैसा ही संसार में सब कुछ नहीं है। पैसे से भी बढ़ के कोई चीज़ है जो हम खोज रहे हैं। मनुष्य क्या खोज रहा है? वो खोज रहा है शांति और आनन्द! वो पैसा नहीं खोज रहा है। वो पैसा भी इसलिये खोज रहा है, कि उसको शांति और आनन्द मिलें। शांति और आनन्द मनुष्य को धर्म के सहारे मिलती है। और धर्म बाहर का धर्म नहीं है, बाहर का है, जिससे धारणा होती है। मनुष्य जब जान लेता है, कि मैं कौन सी शक्ति हूँ, मैं किस शक्ति के सहारे चल रहा हूँ, उसी दिन वो शांत हो जायेगा। जैसे मैं लोगों को बताती थी, कि अगर हम लोग एरोप्लेन से जायें । कुछ देहाती लोग चलें एरोप्लेन में पहली मर्तबा! तो उन्होंने कहा कि आप एरोप्लेन से जाते वक्त कुछ कम सामान ले जाईये। तो वो एरोप्लेन में बैठते ही सामान अपने सर पे रखा । लोगों ने नहा कि, 'भाई, ये क्या कर रहे हो?' कहने लगे कि, 'हम तो एरोप्लेन का बोझा हल्का कर रहे हैं।' वास्तविक हम लोग भी परमात्मा का बोझा हल्का कर रहे हैं। उस डिवाइन पावर का, उस अनंत शक्ति का हम बोझा हल्का कर रहे हैं, जिसने हमें बनाया, खिलाया, बड़ा किया और जो हमारा संगोपन करने के लिये तैय्यार है। इसी तरह से हम बहत सिरिअसली उसका बोझा उठाये हये हैं। लेकिन जिस दिन जानेंगे, कि जिसने बनाया है, जिसने हमें पाला है, बड़ा किया है वही हमारा सर्वेसर्वा है। उसी दिन बोझा जो है, सर से एकदम हल्का हो जायेगा और मनुष्य जानेगा कि ये एक नाटक है। जैसे कि यहाँ आप देख रहे हैं कि बहुत सी बिजलियाँ जल रही हैं, बल्ब जल रहे हैं। इसलिये आप देखते हैं कि पंखे भी चल रहे हैं। ये सब किसी शक्ति के द्वारा है। लेकिन अगर कोई बल्ब अलग से ये सोचें कि मैं ही जल रहा हूँ और मुझी को जलना है और अगर मैं नहीं जलता तो सब जगह अंध: कार हो जायेगा। तो हम उसको कहेंगे कि ये महामूर्ख है। लेकिन अगर हमारी ओर हम दृष्टि करें, तो यही बात हमारी है। जिस दिन हम जान लेंगे कि एक शक्ति हमारे अन्दर से दौड़ रही है और उसी शक्ति के सहारे आज हम प्रज्वलित है । अब मॉडर्न लोग कहते हैं कि, 'हम कैसे विश्वास करें माताजी कि आप कहते हैं कि ऐसी शक्ति हैं और ये है, वो है।' मैं कहती हूँ कि इन्सान गया ही किस हद तक? पहुँच ही किस ओर तक? सीधी बात है, कि आपको अगर कोई पूछे तो आप उनसे पूछे कि आपके हृदय धड़कन होती है ? कोई डॉक्टर से पूछा। कहने लगे, 'हाँ!' तो वो कहेगा कि, 'तो क्या हुआ? वो तो होती है। अपने आप होती है।' 'कभी कोई इसे कोई करता है? कौन है?' तो वो कहेगा कि, 'कोई नहीं करता है । एक सिस्टम है उसको हम कहते हैं कि ऑटोनोमस नव्वस सिस्टीम | मानें स्वयंचालित संस्था । वो स्वयंचालित संस्था इसे चला रही है।' तो उससे आप पूछे कि, 'भाई, ये स्वयं कौन ?' कोई तो उसे चला रहा है? स्वयं कहो, चाहे उसे भगवान कहो, चाहे उसको शक्ति कहो, चाहे उसको कोई नाम दो। कोई तो शक्ति है जो इसे चला रही है । तो ये शक्ति कौन है? हमारा पचन हो रहा है अपने आप! ये कैसे हो रहा है? हमारा श्वसन चल रहा है अपने आप ही। ये कैसे हो रहा है? अब उसका एक नाम बना दिया आपने। ये स्वयंचालित है। लेकिन ये तो नाम आपने दे दिया। नाम देने से तो कोई | 14 साइंटिफिक बात नहीं की। साइंटिफिक का मतलब है कि उसका आपको पूरा ब्यौरा देना पड़ेगा। बताना पड़ेगा कि चीज़ क्या है। उसके बारे में आप कुछ जानते नहीं। कहते हैं कि वो तो अपने आप हो गयी | लेकिन अगर ये समझ लीजिये, कोई अगर ये कहे कि उस अपने आप को आप हासिल कर सकते हैं और पा सकते हैं। तो फौरन साइंटिस्ट लोग उठ के खड़े होंगे। कहेंगे कि, 'ये तो एक गृहिणी है। फिर वो भी नागपूर की रहने वाली है। हम को मालूम है। ये क्या कर सकती है ?' साइन्स से ये चीज़ जानी नहीं जा सकती। ये चीज़ अपने ही अन्दर है और जितना कुछ संसार का जाना गया है, जितना भी ज्ञान है, जो कुछ भी आप मुझे देख रहे हैं, ये सब अन्दर ही जाना गया है। बाहर कुछ नहीं जाना। आइनस्टीन जैसे बड़े भारी साइंटिस्ट ने भी ये कहा हुआ है कि, 'मैं बहुत खोज रहा था। खोजते खोजते मैं बहुत थक गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये थिअरी ऑफ द रिलेटिविटी क्या है?' उसके बाद कहने लगे कि, 'थक कर के मैंने कहा कि चूल्हे में गया सब कुछ। लॅबोरेटरी वगैरा छोड़ कर के मैं अपने बाग में गया और ये साबून के फेस से, इसके सोप बबल्स से में खेलता पड़ा। खेलते खेलते एकदम,' उन्होंने अंग्रेजी में लिखा हुआ है, 'सम वेअर, फ्रॉम सम अननोन लैण्ड, द थिअरी ऑफ रिलेटिविटी, डॉन्ड अपॉन मी। कहीं से किसी अज्ञात जगह से ये प्रकाश मेरे अन्दर आया।' वो अज्ञात जगह क्या है? किसी को अगर ज्ञात हो जाये। वही हम अगर जान ले, जो अदृश्य है वो अगर दृश्य हो जाये , तो किसी भी साइंटिफिक माइंड के आदमी को अपनी आँख खुली रखनी चाहिये। साइन्स आखिर है किस चीज़ के लिये। साइन्स मनुष्य के उद्धार के लिये है। उसको बढ़ाने के लिये है। उसके कल्याण के लिये और मंगल के लिये है। न कि उसके नाश के लिये| अगर इसी के लिये साइन्स है, तो इस से बढ़ के और कौन सी चीज़ हो सकती है, जो आपको अपने ही से परिचित कराये । यानी आप ही सोचिये, आप सब मेरी बात सुन रहे हैं। पर मैं एक छोटी सी बात कहूँ पंडित हैं, दूसरों को भाषण देंगे । परोपदेश बहुत करेंगे । लेकिन मैं कहूँ कि, 'भैय्या अपनी ओर नज़र करो कि आप कहाँ बैठे हैं?' तो आप कहेंगे कि, 'ये कैसे हो सकता है? हम अपनी ओर कैसे देखें?' अपनी ओर कोई नहीं देख सकता। दूसरों की कि आप अपनी ओर चित्त दीजिये। आप कोई भी अपनी ओर चित्त नहीं दे सकते। बड़े बड़े ओर आप देख सकते हैं। अपनी ओर नज़र नहीं जाती। और अपनी ओर नज़र ले जाना ही सहजयोग है। अपनी ओर देखना ही सहजयोग है। ऐसे ही हम अपने को जान लेते हैं। उस सूत्र को जान लेते हैं, जिस सूत्र से सारी सृष्टि रची है। जैसे की एक माला के अन्दर में छोटे छोटे मणि होते हैं। ऐसे ही आप लोग छोटे छोटे मणि हैं। और आपका चित्त, आपका ध्यान उन मणियों में अलग अलग है। इसलिये आप सोचते हैं कि आप अलग अलग हैं। जिस वक्त आपका चित्त और ध्यान उस सूत्र पर चला जायेगा, जो सब के अन्दर से दौड़ रहा है, आप दूसरों के सूत्र को भी जान सकते हैं। यही सहजयोग में होता है। सहज, सहज का अर्थ है, सह माने विथ, ज माने बॉर्न, आपके साथ ही जो पैदा हुआ जो योग है, माने उस शक्ति से मिलने का जो साधन है। वो आप ही के साथ पैदा हुआ। आप ही के अन्दर वो सहज में पड़ा हुआ है। उसके लिये आपको कुछ करना नहीं होगा। इसके लिये कुछ करने की क्या बात है? कोई भी जीवंत कार्य करने के लिये आप क्या कर सकते हैं? समझ लीजिये एक बीज है। उसको आप चाहते हैं कि उसमें से एक पेड़ निकलें । तो आप क्या सर के बल खड़े होते हैं कि संन्यास लेते हैं कि उसको संन्यास दिलवाते हैं कि कोई ऐसे मनुष्य के कार्य करते हैं कि वो बीज निकलेगा? कुछ भी नहीं कर सकते। मनुष्य कर ही क्या सकता है? सारा मरा हुआ काम करता है। अगर एक पेड़ मर गया तो उससे उन्होंने एक टेबल बना दिया। सोचो, वो कितना बड़ा काम किया। एक भी 15 सार्वजनिक कार्यक्रम जीवंत कार्य अगर मनुष्य कर सके, तो हम मानेंगे कि वो भी कोई कारक है। हम ये करते हैं, हम वो करते हैं। अब ये मिट्टी थी, उन्होंने हॉल बना दिया। बहुत बड़ी बात करी। ये तो सब मरा हुआ कार्य है। इसमें जीवंतता क्या हुई? मनुष्य का बनाया हुआ काम अपने आप बंद होता है। परमात्मा का जो निसर्ग का कार्य है, नेचर का जो कार्य है, वो अपने आप ही घटित होता है। बीज अपने ही आप चलित होता है। उसको कुछ करने से कभी भी कुछ नहीं होने वाला। इसलिये हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं। ये अपने ही आप अन्दर होता है। लेकिन मनुष्य के लिये सब से बड़ा कठिन काम है, कि वो कुछ भी न करें। इसलिये मनुष्य के लिये सब से बड़ी शिक्षा हो जाती है कि उसको जेल में बंद कर दे। आखिर जेल में मुझे बंद कर दीजियेगा तो मेरे लिये वरदान हो जायेगा। और आप लोगों को बंद करेंगे तो आप लोगों के लिये जेल हो जायेगी। क्योंकि वहाँ तो करने का क्या है ? वहाँ तो बैठे बैठे ही मज़ा आयेगा। हम लोग अपने से ही भागे चले जा रहे हैं। हम तो अपने साथ एक मिनट भी नहीं बैठ पाते। दस मिनट भी अपने साथ बैठना हो तो, 'भाई चलो सिनेमा जायें। भाई , बोअर हो गया , उससे जा के मिलें।' पाँच मिनट भी इन्सान से कहोगे कि भाई शांति से अपने साथ बैठो। तो इन्सान नहीं बैठता। लेकिन हम जो कुछ भी अन्दर हैं उसी में परम सुन्दर हैं और इतने अच्छे हैं। हमारा अन्तरतम ही इतना खुबसूरत है, इतना गौरवशाली और प्रभावशाली है, कि उसके दर्शन मात्र में ही मनुष्य एकदम से सब कुछ भूल जाता है। लेकिन उसको जब जाना नहीं गया। अपने ही अन्दर कस्तुरी छिपी हुई है और कस्तूरी मृग संसार में खोज रहा है और ढूँढ रहा है। धन के मामले में भी यही बात है । जैसे कि नानक साहब ने कहा है कि, 'काहे रे बन खोजन जाईं, सदा निवासी , सदा अलेपा तोहे संग समायें । उसके मध्य जो बात बसत है मुकुर माही जब छायीं, तैसे ही हरी बसे निरंतर, घट ही खोजो भाई । ' बार बार कहेगा कि घट ही खोजो, घट ही खोजो । अब वो सब लोग बैठ कर के रट रहे हैं गाना, घट ही खोजो। ये तो ये प्रिस्क्रिप्शन दे गये कि ये दवा लो। हम तो प्रिस्क्रिप्शन ही रटे रहे । धर्म भी एक प्रिस्क्रिप्शन है। जिसको हम रटे ले रहे हैं। करना कोई जानता है और करना क्या होता है? धर्म के मामले में जो कुछ करना होता है वो वैसा ही है, इसका ( माइक) तो कनेक्शन लगा नहीं और मैं भाषण दिये जा रही हूँ। आपको सुनाई देगा? टेलिफोन का कनेक्शन लगा नहीं और मैं डायलिंग कर रही हूँ। टेलिफोन खराब हो जायेगा। किसी को सुनाई नहीं देगा। आपका पहले कनेक्शन लगना चाहिये। आपका उस अनन्त शक्ति से कनेक्शन लगाने का जो परमात्मा का, उस नेचर का, जो उपाय है वही सहजयोग है। उन्होंने ने ही बना के रखा है। उसी को मनुष्य को पाना है। जिस दिन मनुष्य ये समझ ले कि यही एक पाना है, इसलिये परमात्मा ने हमें मनुष्य किया। उसने आपको मनुष्य इसलिये बनाया है, कि आप अपना इन्स्ट्रमेंट, अपना साधन पूरी तरह से बनायें। आपके अन्दर में एक कोई विशेष ऐसी प्रणाली बनायी है, जिसके कारण आपके अन्दर इगो और सुपर इगो नाम की दो चीजें सर में, आप के मस्तिष्क में बनती हैं। जिसके कारण आप उस शक्ति से छूट कर अलग अलग हो जाते हैं। आप अलग बँटरी में आ जाते हैं। आप अगर अलग बँटरी में आ जाते हैं तो आप आपका जो साधन है वो खुद ही इधर जाते हैं, उधर जाते हैं, मुझे ये करने का, मुझे वो करने का है । खोजते हैं। पहले आप पैसे में खोजते हैं, फिर सत्ता में खोजते हैं। इस जनम में आदमी के पास बहुत पैसा होगा तो अगले जनम में आ कर के वो कहेगा कि, 'पैसा-वैसा नहीं चाहिये। मुझे कहीं का मिनिस्टर बनाओ।' फिर वो सत्ता में 16 आयेगा। सत्ता में नहीं मिला तो कहता है कि धर्म में खोजो। लेकिन सारी ही खोज वो बाहर से करता है। जिस वक्त वो सारी खोजों से हार जाता है। बुद्ध भी जब सब तरह से हार गये और हार कर के लेट गये कि 'नहीं, इसमें नहीं मिलने वाला है। इसमें वो चीज़ नहीं मिली मुझे जो मैं खोज रहा था।' जिस वक्त वो हार गये, उसी वक्त उन पे कृपा हुयी और वो इसे पाये। उन्हें भी सहजयोग से ही मिला था और संसार के जितने भी बड़े बड़े गुरु हैं, सब ने सहजयोग से पाया। सब ने ही सहज ही योग से पाया और किसी भी योग से आप परमात्मा को पायेंगे नही। अपने देश के सब से बड़े पुत्र को मैं मानती हूँ, आदि शंकराचार्य को मैं मानती हँ। अपने देश में बहत बड़ा आदमी है। हालांकि हिन्दु धर्म की बड़ी दर्दशा है और हिन्दु धर्म को हम लोगों ने समझा ही नहीं कि क्या चीज़ है । आदि शंकराचार्य ने साफ़ साफ़ कहा है, 'न योगेन न सांख्येन' किसी भी चीज़ों से परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। और उन्होंने ये भी कहा है। कि संसार में तीन तरह के आदमी होते हैं। एक तो होते हैं कि भक्ति में ही खोजते हैं परमात्मा को। भक्ति कर रहे हैं। उनकी बुद्धि नहीं होती। उनको समझ में नहीं आता है कि परमात्मा से कनेक्शन लगा नहीं और बात कैसे करें। पागल जैसे रातदिन चीखते रहते हैं, चिल्लाते रहते हैं। लेकिन वो वही खत्म हो जाता तो मुझे कोई हर्ज नहीं था। कभी कभी इस पागल में मनुष्य परलोक से संबंधित हो जाता है और उनके अन्दर भूतविद्या वगैरे आ जाती है। होता है। दूसरा आदमी होता है जो कि बुद्धि का बड़ा तीक्ष्ण होता है। बुद्धि बहुत ज़्यादा है। लेकिन उसका मन अस्थिर होता है। इधर-उधर दौड़ता है, इधर की तरफ़ दौड़, उधर की तरफ़ दौड़। तो ऐसा आदमी सोचता है कि चलो, योग वगैरा करें। योगसाधना से अपने मन को हम कंट्रोल करें। ये भी बड़ी गलत बात है। मन को कंट्रोल करने से आप वहाँ पहुँच नहीं सकते। तो आदमी मन को कंट्रोल करता है, कंट्रोल करने से सोचता है कि सब खत्म हो जायेगा । तो ऐसा अनुशासित मन, ऐसा मन परमात्मा की ओर नहीं ले जा सकता। जिस में ब्रेक लगा है वो गाड़ी वहाँ नहीं पहुँचती। इसका मतलब ये भी नहीं समझना चाहिये कि जो आदमी इंडलजन्स करता है, या बड़ा ही भोगी है, वो तो कभी भी परमात्मा के पास नहीं पहुँच सकता। लेकिन जो आदमी छोड़ कर के सोचता भी है, कि हम लोगों को पाना है और वो धर्म के नाम पे भी अपने को ज़्यादा अनुशासित करता है। वो भी नहीं चलता। असल में हमें सिर्फ होना है। सिर्फ हमें होना है। जैसे कि ये हरे रामा वाले मेरे पास आये। कहने लगे, 'माताजी, आपके घर में तो सारी लक्झरी है। 'है ही, मेरे पति अच्छी पोझिशन में हैं तो घर में भी सब कुछ है ही है। परमात्मा की ऐसी ही कुछ व्यवस्था है और हम वहाँ रह रहे हैं।' 'तो आप कैसे कह रह है कि भगवान की ऐसी ऐसी स्थिति होती है।' तो मैंने कहा, 'क्या भाई, तुम्हारा मतलब है कि इन चीज़ों से मुझ में कुछ फर्क आता है?' मैंने कहा, जब किसी ने कोई चीज़ को पकड़ा ही नहीं उसको छोड़ेगा क्या? 'मैंने तो ये छोड़ दिया, मैंने तो वो छोड़ दिया, मैंने तो संन्यास ले लिया।' मैंने कहा, ये तुम ोॅडवर्टाइजमेंट लगा रहे हो । छोड़ना और पकड़ना तो तब होता है, जब मनुष्य जानता है कि किसी को आप पकड़ सकते हो और छोड़ सकते हो। पर अगर मनुष्य यही जानता है, कि न तो कोई पकड़ा जाता है न छूटता है। तो फिर संन्यास भी क्या और गृहस्थी क्या आपको? खड़े हैं। अब ये पेड़ देखिये , खड़े हुआ है। ये कोई संन्यासी है कि गृहस्थी है । आदमी, सिर्फ है। जिस दिन आप सो जायेंगे, आप सिर्फ आप हो जायेंगे। सिर्फ द्रष्टा हो जायेंगे । साक्षी हो जायेंगे । विटनेस हो जायेंगे। तब बाहर की चीज़ों का अर्थ इतना ही होगा कि नाटक हो रहा है देखा करो। लोग पत्थर फेंक रहे हैं, तो 17 सार्वजनिक कार्यक्रम भी देख रहे हैं। लोग हार चढ़ा रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। लोग पैर पे आ रहे हैं तो भी देख रहे हैं। और लोग जूते मार रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। दोनों ही चीज़ देखने की है । सारी ये नाटक है। जैसे ईसामसीह के लिये देखिये , कि वो सूली पे चढ़ गये। सब लोग रोते हैं, 'सूली पे चढ़ गये, सूली पे चढ़ गये।' उनके लिये वो नाटक था। उनको क्या ? उनके लिये सूली होती क्या चीज़ है? जिस आदमी ने तूफ़ान को रोका था, क्या वो इन लोगों को रोक नहीं सकता था? आप ही सोचिये, इतना शक्तिशाली आदमी जो तूफ़ान को रोक दें, वो क्या इन गधों को रोक नहीं सकता था? वो भी चाहता तो क्रूस को गिरा देता और सब चीज़ तहसनहस कर देता। लेकिन वो कह रह था कि चलो, इन बेवकूफ़ों को थोड़ा बेवकूफ़ बनायें । इसलिये वो बेवकूफ़ बना के चले गये और हम लोग सोचते हैं कि वो क्रूसीफाय हो गये। वो क्या क्रूसीफाय होंगे! अविनाशी जीव कभी क्रूसीफाय नहीं होता। वो बार बार आते हैं संसार में और संसार का कल्याण करते हैं। उनको न मार सकता है, न उनके कोई प्राण ले सकता है न उनको कोई द:ख दे सकता है न ही उनको कोई | सुख दे सकता है। उनको आनन्द की स्थिति में रखता है। सहजयोग इसी स्थिति में मनुष्य को पहुँचाता है। वास्तविक इसका आज तक पता किसी को भी इतने जोर से लगा नहीं था जितना मुझे लगा। आश्चर्य की बात है, पर लगा है। पूर्वजन्मों में भी बहुत बार मैंने इसका प्रयत्न किया। अब जब मैं पैदा हुई, आप के नागपूर में हुईं। इसका भी विशेष है। नागपूर के पास ही छिंदवाडा में मेरा जन्म हुआ। और जो माता-पिता भी मैंने ढूँढे, वो भी कोई विशेष हुये और जो भाई - बहन हैं, आप लोग भी मेरे नागपूर के रहने वाले, इसमें भी कोई विशेष बात हयी। और जो लोग आप आज यहाँ पहुँचे इसमें भी कोई विशेष बात होगी। हो सकता है कि पूर्वजन्मों की परम पुण्याई से आप यहाँ पहुँचे हो और आप पायें। अब बहुत से लोगों का ये भी कहना है कि, 'माताजी, ये तो बड़ी कठिन बात है। लोग कहते हैं कि कुण्डलिनी जागृति बड़े देर से होती है और ऐसे बहुत आसानी से नहीं होता। करोड़ों में एक होता है। मैं कहती हूँ कि, 'हाँ, भाई होता होगा करोड़ों में एक लेकिन ऐसा आज कल है नहीं।' अब हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं। हमारी दादी अम्मा से जा कर कहेंगे कि, 'हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं।' तो वो कहेगी कि, 'हो ही नहीं सकता! ऐसे कैसे?' इनको फोटो भी दिखाईये तो भी वो कहेंगी कि, 'नहीं, ये तो झूठ-मूठ के फोटो बनाये हैं तुम लोगों ने और ऐसे दिखा रहे हो । कभी हो ही नहीं सकता, चंद्रमा पर कैसे जाये? ' लेकिन चंद्रमा पर जाना तो हम विश्वास कर लेते हैं। लेकिन जो संसार चंद्रमा पर पहुँचा हैं, बाहर इतनी जिसने खोज कर ली, क्या वो कभी अन्दर भी तो खोज करेगा ही। नहीं तो एक पैर जो बहुत बाहर बढ़ गया है, अगर वो अपने अन्दर के स्रोत को नहीं ढूँढेगा, अपने अन्दर के शक्ति को नहीं ढूँढेगा, तो हो सकता है कल तहसनहस हो जाये और यही होने वाला है। अगर आपने अपनी अन्दर की शक्ति को जाना नहीं और अपनी अन्दर की एकता को, कलेक्टिव कॉन्शसनेस जिसे कहते हैं, उसे जाना नहीं, जाना मैं कह रही हूँ, समझना नहीं, ये बुद्धि से समझने वाला विषय नहीं है। ये आपके अन्दर आ जायें । अभी हमारे साथ बम्बई से कुछ लोग आये हैं, जो कि पार हो गये। वो अपनी उँगली के इशारे पर बता देंगे कि आपकी कहाँ शिकायत है, आपको क्या तकलीफ़ है। वो महसूस करते हैं आपके अन्दर के वाइब्रेशन्स को। हर एक आदमी के अन्दर से अलग अलग तरह के वाइब्रेशन्स आते हैं। उससे आप बता सकते हैं कि इस आदमी में कौनसा कौनसा दोष है। कुछ शारीरिक हो सकता है, मानसिक हो सकता है, बौद्धिक हो सकता है, हर 18 तरह का दोष हो सकता है। पूर्व जन्म का हो सकता है, परंपरागत हो सकता है। इस तरह के सारे ही दोषों को आप अपने उँगली के इशारे पे समझ सकते हैं। और वो, जैसे ही कुण्डलिनी, जो हमारे अन्दर बैठी हुई है, जिसके बारे में कल आपको बताऊँगी, वो जैसे ही ऊपर उठना शुरू हो जाती है, तो वो नज़ारा दिखा देती है, कि मनुष्य है क्या? और सिर्फ उँगलियों के इशारे पे ये लोग समझ लेते हैं, कि ये बात है। अगर ये बात करते हैं, और अगर हो रही है, तो इसमें घबराने की कौन सी बात है। उसमें इतनी शंका करनी की कौन सी बात है! कल अगर मैं कहूँ, कि हीरा लायी हूँ। यहाँ पे रखा हुआ है, जिसको चाहिये फ्री ले लें। आप सोचते हैं क्या, कोई आदमी शंका करेगा ? आप में से कोई भी ऐसा है कि शंका करेगा ? सब दौड़ेंगे कि, बाबा, हीरा मिलता है, काँच हो तो, ले तो लो। मुफ्त में ही है। अगर में कहूँ कि ये चीज़ मुफ्त में ही आनन्द मिलने वाली है, तो अमेरिका में लोगों को बड़ा आश्चर्य वो कहने लगे कि, 'साहब, वो फलाने महेश योगी आये थे वो २७७ डॉलर लेते हैं, फलाने आयें तो ३७७ डॉलर लेते हैं, आप भी कुछ ७७ ले लीजिये अपने काम के लिये।' मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। हुआ। मैंने कहा, 'देखो, मेरी बात जहाँ तक है मेरी तो समझ में नहीं आता। पर तुम ही इसके दाम लगाओ। तुम इसका प्राइस लगाओ। जो भी तुम इसका प्राइस दे सकते हो दे दो । ' संसार की कोई भी चीज़़ ऐसे अविनाशी को खरीद सके, कोई ऐसे नहीं। अविनाशी चीज़़ के पाँव के धूल के बराबर भी अगर कोई संसार की चीज़ हो, तो मनुष्य उसको कहे कि उसे छोड़ना है। इसे आप खरीद नहीं सकते। अगर आप भगवान को बाजार में खरीद सकते हैं तो वो भगवान कहाँ से हो गये? यहाँ तो सारे साधु लोग भगवान को जो बाजार में बेच रहे हैं, उस वक्त हमें दिमाग लगाना चाहिये कि ये चीज़ क्या कर रहे हैं। अभी एक साहब मुझ से आ के बताने लगे, 'मुझे एक बाबाजी ने अंगुठी दी।' तो मैंने कहा, 'ये तुमने क्यों ली भाई ? तुम्हारे पास तो लाखों अंगुठियाँ हैं। वो अगर बड़े भारी दाता हैं, तो वो हमारे देश का इकोनोमी प्रॉब्लेम सॉल्व कर दें। सबको खाना- पीना दे दें । अंगुठियाँ दे दें, घड़ियाँ दे दें। लेकिन वो तो रईसों को ही देते हैं। गरीबों को तो देते नहीं। बात क्या है? और ये भी सोचना चाहिये दो मिनट कि आखिर परमात्मा को इसमें क्या इंटरेस्ट हैं कि आपको अंगुठी दें। और कोई उनको धंधा नहीं है कि आपको अंगुठी देंगे, चूड़ियाँ देंगे। वो तो आपको कुछ देना हो तो परम ही की चीज़़ देते ना ! जो आपको परम देता है, वही गुरु है। बाकी जितने हैं सब चोर हैं, ये आप समझ लीजिये। सहजयोग के बारे में इतनी विक्षिप्त बातें मैंने देखी संसार में , कि मनुष्य की मूर्खवता पर मुझे कभी कभी हँसी आती है। या तो मुझे इसमें पैसा लेना चाहिये या तो इसमें द्राविडी प्राणायाम करना चाहिये, या तो लोगों को मुझे नचाना चाहिये, या उनको किसी आफ़त में डालना चाहिये। नहीं तो कैसे हो सकता है! अभी अगर होता है तो ले लो। मैं तो कभी-कभी बिल्कुल साधारण तरीके से लोगों को कहती हूँ कि 'मैं तुम्हारी माँ हूँ। और मैंने खाना बना लिया है।' जैसा बनाया है, तुमसे क्या मतलब! तुम्हें अगर भूख है तो चख के देखो और खाओ। मैं अभी सिंगापूर में गयी थी। तो वहाँ मलेशिया का एक बड़ा मशहर इंटरनैशनल डॉक्टर यांग करके आदमी है। बहुत बड़ा आदमी है वो। उनको पता हुआ कि मैं आयी हूँ, तो भागे भागे चले आये । एअरपोर्ट से सीधे सीधे घर पे आये। मैं तो खाना खा रही थी। और बाहर आ के कहता हैं कि, 'माँ, मुझे भूख लगी है। चलो, खाने को दो। मैंने कहा, आये हो!' मैंने हाथ धोया। तो हमारी होस्टेस भी नाराज़ हो गयी कि, 'खाना तो खा लो।' मैंने कहा, 'नहीं, 'अच्छा, तुम अब नहीं, मेरा बेटा भूखा है। अब मुझे जाने दो।' हालांकि वो मुझे कम से कम कुछ नहीं १५-२० साल बड़े हैं। वो बैठ गये थे तो एक मिनट में पार हो गये। उन्होंने पा लिया। और पाते ही उन्होंने बहुत काम किया है । वो कहते हैं कि यही एक तरीका 19 सार्वजनिक कार्यक्रम है, कि परमेश्वर को आप पाओ। लेकिन वो ..... (अस्पष्ट) थे, इसलिये बैठ गये। नहीं तो सब को कहना पड़ता है, कि ये बात है, वो बात है। कन्व्हिन्स करना पड़ता है। जिसको इच्छा होगी वो फट् से पार होगा। असलियत को पा लेना चाहिये । लेकिन चीज़ असली होना चाहिये। इसलिये मैं कहती हूँ कि मेरे पैर पे आने की अभी कोई जरूरत नहीं। किसी के भी पैर पे इन्सान को अपने खुद्दारी में भी नहीं जाना चाहिये। इसलिये मोहम्मद साहब ने मना किया था , कि किसी के पैर पे मत जाओ। किसी पे जाने की जरूरत नहीं। हाँ लेकिन जब आप पार हो जाये, जब आप थोड़ा बहुत पा लें, तब आपको पता होगा कि इन्हीं पैरों में ये वाइब्रेशन्स बहुत जोरो में होता है। और पैर पे आये बगैर वो चीज़ कम्प्लीट होती भी नहीं । ये सही बात है । तब थी। तो कोई जरूरत नहीं मेरे पैर पे आने की, दर्शन लेने की । अपने यहाँ दर्शन की ऐसी बीमारी है। 'माताजी के दर्शन करने हैं। अभी दर्शन में क्या रखा है। कुछ ले के जाओ असली चीज़। हम असली देने बैठे हैं असली लेने वाले नहीं। कम से कम इस शहर में बहुत साल मैंने गुज़ारे हैं और ४२ के मूवमेंट में भी बहुत जोरों से यहाँ पे काम किया था । तब मेरी उम्र बहुत छोटी थी। लेकिन तब भी कभी भी मुझे डर नहीं लगा। पुलिसवालों ने मुझे बड़ा परेशान किया था । जानते हैं। मेरे भाई वगैरा बतायेंगे। मुझे इलेक्ट्रिक शॉक भी दिये थे और आइस पे भी रखा था। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मेरे घरवाले बहुत डरते थे। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मैंने कहा ठीक है, चलने दो सब । खेल ही है। लेकिन इतने दिनों से मेरी इच्छा थी बड़ी की एक बार जो अपनी जन्मभूमी हैं वहाँ पर ये चीज़ जरूर पहुँचानी है । लेकिन ये ऐसा कहावत है, मराठी में कि, 'जिथे पिकतं तिथं विकत नाही,' जहाँ होता है वहाँ लोग उस की कदर ही नहीं करते। इसलिये मैंने सोचा था, कि थोड़े दिन और बीतने दीजिये। शायद हो की नागपूर वालों को जब समझेगा कि बड़ा भारी कार्य, इसी जगह से ये बड़ा भारी कार्य होने वाला है। नागपूर का स्थान बहुत ऊँचा हैं। हमारी दृष्टि से सारे विश्व की जो नाभि है वो नागपूर है। तो आप समझ लीजिये कि नागपूर वालों को कितना ज्यादा सम्भल के रहना है और कितने कायदे से रहना चाहिये और कितनी सुज्ञता से विचार करना चाहिये। ऐसे तो नागपूर वालों से तो सारी दुनिया घबराती है। एक 'मैं बार मैं लता मंगेशकर के पास गयी थी। मैंने उनसे कहा कि, 'तुम चलो, वहाँ पे प्रोग्रॅम होने वाला है।' उसने कहा, तो मैं, मैं किसी को जाने भी नहीं दुंगी। एक बार गयी थी तो सब ने मुझे जूते मारे।' फिर दूसरे साहब के पास गयी थी। तो उसने भी 'ऐसा हुआ।' ये प्रसिद्धी है। मैंने कहा, 'मैं मायके जा रही हूँ।' मुझे आधे रस्ते में बड़नेरा में इन लोगों ने उतार लिया और इधर चोरी से ले आयें। जहाँ से रुक्मिणी हरण हुआ था वहीं से मेरा जैसा हरण कर के यहाँ ले आये कि, 'भैय्या, उधर मत जाना। तुम्हे सब लोग पत्थर मारेंगे।' जो सारे विश्व की नाभि है, जहाँ से सारे सृष्टि के पालन की शक्ति है, हमारे नाभि पर विष्णु जी का स्थान है, जो पालन कर्ता है। जहाँ विष्णु जी बैठे ह्ये हैं वहाँ इतनी महामूर्खता अगर बसे तो क्या ? लेकिन ये तभी तक है जब तक आप अपने स्थान को जानते हैं। जैसे एकाध भिखारी का बच्चा है, वो घूम रहा है। वो भीख माँग रहा है। लेकिन जिस दिन उसको पता हो जाये कि वो राजा का बेटा है, तब थोडी ना वो भीख माँगे! यही बात है। नागपूर वालों को विशेष एक भाग है। पहले तो ये कि इस देश में कि जो एक योगभूमि है। बाकी भोगभूमियाँ हैं। हम मूर्ख जैसे भोगभूमियों के पीछे दौड़ रहे है । ये योगभूमि है। इस योगभूमि के कण कण में इतने वाइब्रेशन्स हैं कि आपके नागपूर में पाँव रखने के 20 पहले ही हमारे साथ जो लोग थे, कहने लगे कि, 'माताजी, क्या वाइब्रेशन्स है नागपूर में!' सब लोग कह रहे थे कि क्या वाइब्रेशन्स हैं और आप अछूते हैं। उस हवा से आप बेखबर ही है, जो हवा यहाँ पर फैली है। और इस जगह में जो कि सारे देश की नाभि है, एक तो भारतवर्ष ही शरीर है, देह है, सारे सृष्टि का। नरदेह जो है वो भारतवर्ष है और उसके अन्दर के जो नाभि चक्र है जो कि सब से पहले पालन कर्ता के रूप में, स्थापित की गयी थी, वो जब नागपूर है तब नागपूर का स्थान कितना ऊँचा है ये आप समझ लीजिये। और आपका स्थान कितना ऊँचा है! आज हो सकता है तो आप लोग पा लीजिये। और सबसे पहली चीज़ है पाने की। पैर वैर पे मत आईये। कुछ न कुछ आज आप पा लीजिये और थोड़ा चैन लगेगा। मैं बैठने के लिये तैयार हूँ, आप भी बैठने के लिये तैय्यार हैं। आराम से बैठिये, इसको पा लीजिये। इसको पाने के बाद आपको कैन्सर की बीमारी नहीं होगी। कैन्सर की बीमारी सिर्फ सहजयोग से ठीक होगी। मैं आज कह रही हैँ। और दस साल बाद अमेरिका से ये बात आयेगी तब आप सोचेंगे कि, 'अरे, वो तो कह रही थीं।' सहजयोग की बीमारी लगा लीजिये तो सारी बीमारियाँ छूट जाती है। सहजयोग से सारे ही रोग दूर हो जायेंगे। जैसे हृदय चक्र के रोग है। आपके विशुद्धि चक्र, जिसे एऑर्टिक सर्वायकल प्लेक्सस जिसे कहते हैं, मैंने खास ही .....(अस्पष्ट) कर ली , वो ब्रेन के जितने हैं , पागलपन के जितने हैं, भूतविद्या के जितने हैं, स्मशान विद्या के जितने हैं, पेट के जितने रोग हैं, ये सब ठीक हो जायेंगे। सिवाय इसके, दो-चार बीमारियों के जो बाहर से आ कर के लपटे हैं। उनका इलाज नहीं है। या कोई चीज़ अगर मर जाये। अब डॉक्टर लोग कैन्सर में कहते हैं, ब्रेन निकालिये | अब एक बड़े भारी पेंशट ले कर आये थे। मुझे बताने लगे, 'चल के देखिये ।' बेहोश थे। उनको बहुत आराम हो गया। लेकिन अब उनको मैं ब्रेन कैसे लाऊँ ? वो तो निकाल ही डाले। मैंने कहा 'ये रिपेरींग शॉक है। यहाँ पे अगर वो चीज़ ही निकाल डाली है आपने तो हम क्या करेंगे?' तो इस तरह की जो चीज़ें हैं वो छोड़ कर के सारे रोगों का निदान हो जाता। आपके अन्दर शान्ति और निर्विचारिता स्थापित होती है। अन्तर्मन जिसे कहते हैं, अन्दर से रहता है, बाहर से आपका क्या? और दृष्टि आपकी साक्षी स्वरूप हो जाती है। और आपकी बुद्धि एकदम डाइनैमिक हो जाती है। एक बड़ी अद्भुत हो जाती है। इतना आकलन आप में बढ़ जाता है कि आप स्वयं ही ज्ञान हो जाते हैं । ज्ञान में, जैसे समझ लीजिये, हमारे यहाँ आर्टिस्ट है। बहुत साधारण आर्टिस्ट है बेचारे! आज उसके बड़े बड़े पेंटिंग्ज लग रहे हैं। एक म्यूजिशियन है। बड़े साधारण है। वो पार हो गये। आजकल कैनडा में, यहाँ वहाँ गा रहे हैं। माने कि जिसको की लोग कहते हैं कि इसमें भौतिक क्या फायदा होता है ? भौतिक ही फायदा है और क्या फायदा है। भौतिकता भी कहाँ से आयी है और ये सारी शक्तियाँ भी कहाँ से आयी हैं! जो हम सोचते हैं, विचार करते हैं ये भी कहाँ से हैं? वो सब का जो स्रोत है, उसकी जो गंगा है, उसी में आपको नहलाना है। लेकिन आप की गगरी भरी हुई हो, उसको मैं क्या करू? थोड़ी अपनी गगरी खाली कर लीजिये। रही बात श्रद्धा की, उस पे अभी लाल साहब ने कहा था, कि थोड़ा सा मिसअंडरस्टैंडिंग होने का डर है। इसे मैं बताना चाहती हूैँ, कि मेरे लिये कौन सी भी श्रद्धा होने की कोई जरूरत नहीं । अपने प्रति श्रद्धा हो। मेरे लिये श्रद्धा की बात नहीं है। सिर्फ अपने प्रति श्रद्धा हो, अपने से घबराना है। अपने को गालियाँ न दें बैठ कर के कि मैंने ये क्यों किया ? मैंने वो क्यों किया? थोड़ी देर के लिये पाप-पुण्य आप वही बाहर रख के आईये। अपने प्रति आप श्रद्धा रखें। काम अपने आप हो जाता है। ये तो जैसे सूर्य की किरण है, उसी तरह से प्रेम बह रहा है। उसके लिये कोई श्रद्धा की जरुरत नहीं। काम अपने आप 21 हो जायेगा। लेकिन अपने पर जरूर श्रद्धा रखें, कि हाँ हमें भी मिल सकता है। आखिर कोई न कोई विशेष ही बात है । हजारों लोगों को जब बम्बई जैसी अपुण्य नगरी में हुआ है, तो इस पुण्यनगरी में तो होना ही चाहिये। कल भी यहाँ पर ध्यान आदि का प्रोग्रॅम हैं। मुझे तो पता नहीं। मेरा टाइम मेरा रहता नहीं है। इन लोगों से आप पूछ लीजियेगा। आज भी गड़बड़ इसलिये है कि इन लोगों ने मुझे बताया कि, साढ़े पाँच बजे भाषण है और था पाँच बजे। तो कल भी आप लोग जान लीजिये। अभी आप ध्यान में जायें। मैं जैसा कहती हैँ वैसा करें। इसमें क्या होता है, पहले से बता दूं। जिससे आपकी समझ में आ जायें। आप दोनों हाथ मेरी ओर कर के ऐसे बैठिये। जरा सी जगह बीच में छोड़ दीजिये। क्योंकि ऐसा है की आप लोग अभी तैरना नहीं जानते। समझ लीजिये आप डूब रहे हैं। तो आपको जो बचाने वाले जो तैरात लोग हैं वो आपको बचायेंगे। आप कुछ मत करियेगा। आप हाथ-पैर हिलायेगा तो उनका काम बिगड़ जायेगा। आप साधारण तरह से ऐसे रहिये। और कुछ कसा हुआ तो उसको जरा ढ़ीला करें। कोई भी चीज़ कस रही हो। बिल्कुल आराम से, खाना खाने कैसे बैठते हैं। गले में कोई तावीज़ आदि हो तो वो मेहरबानी से निकालिये। तावीज़ हो या ऐसी वैसी चीजें जो लोग पहन लेते हैं वो कुछ भी नहीं होना चाहिये । वो सब निकालें और आराम से आप ऐसे बैठिये। और थोड़ी देर ऐसे बैठने के बाद जब मैं आँख बंद करने को कहँगी तो अपना चित्त यहाँ तालू पर, साधारण तरह से ले आयें। आँख उपर नहीं घूमायें, कुछ नहीं। जैसे आप यहाँ बैठे बैठे घर के बारे में कैसे सोचते हैं, ऐसे ही आप सोचें कि यहाँ क्या हो रहा है, देखें। विचारों की ओर आप दृष्टि करें। अपने मन से , प्रेम से कहें कि, 'हम क्या सोच रहे हैं? अच्छा, हे मन बताओ कि तुम क्या सोच रहे हो?' ऐसा आप प्रेम से अपने मन को पूछे। आप देखियेगा, आप ऐसी जगह पहुँच जाईयेगा जहाँ से आप को लगेगा कि निर्विचार है। निर्विचार होने के बाद थोडी देर में आपको अपने हाथ में लगेगा कि धीरे-धीरे, झिनझिन झिनझिन कर के कुछ तो भी अन्दर में तरंग आ रहे हैं। जैसे कि से आते हैं, ठण्डे ठण्डे। किसी किसी को गरम आयेंगे। कोई हर्ज नहीं जिनको गरम आयेंगे वो झटक दें। कूलर लेकिन किसी किसी के हाथ थरथरायेंगे । किसी का दिल धड़केगा। लेकिन कोई आदमी अगर झूमने लग जायें या अन्दर से उसको कुछ हो रहा है, वो मेहेरबानी से बाहर जायें। ये होने से पहले आप बाहर चले जायें। बाहर लोग उन्हें तो देख लेंगे। वो अन्दर बैठ के दूसरों को गड़बड़ ना करें। किसी के हाथ में अगर साधारण जलन हो रहा हो, ...(अस्पष्ट) निकालें, बहुत ज्यादा जलन हो रहा है, तो वो आँख खोल के मेरी ओर देखें। किसी को चक्कर सी लग रही हैं तो वो भी मेरी ओर देखें। किसी को बहुत बड़ी बीमारी हो, जैसे डाइबेटिस आदि, बहत सीरियस टाइप की हो, हार्ट ट्रबल, बहुत सीरियस टाइप, वो लोग भी बाहर चले जायें । उनको वो लोग देख लेंगे। लेकिन अगर कोई साधारण तरह से बीमार हो, तो उनको कोई घबराने की बात नहीं । पेट की बीमारी हो, ये बीमारी हो, वो बीमारी हो, उसकी कोई विशेष बात नहीं। यहाँ तो कोई मुझे ऐसा सीरियस पेशंट नहीं लगता। और जरा समझ से काम लें। सारी बात बन जायेंगी। न चीखें, न चिल्लायें, न हूँ करें ना हाँ करें । वो देवी वगैरा बहुत आती है हमारे ध्यान में हमने देखा । देवी वगैरा कभी आती नहीं। देवी को कोई धंधा है या नहीं । ये सब भूत आते हैं। इसलिये कोई भी देवी वगैरा आने की बात नहीं करें। जिसको आती है देवी वो बाहर चले जायें। कृपया बाहर जा कर के बाहर लोग हैं उन्हें बता दीजिये कि हमें ये तकलीफ़ हैं। वो आपको देख लेंगे । 22 ১ 2दे] री ॐ ১। क अत: हमारे अन्त:स्थित इन चौदह अवस्थाओं के माध्यम से अपने पुनर्जन्म के विषय में हम बात कर रहे हैं। इन स्तरों को पार कर अचानक हम सुन्दर कमलों की तरह खिल उठते हैं। ईस्टर पर अंडे भेंट करना इस बात का प्रतीक है कि ये अंडे सुन्दर पक्षी बन सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, इटली, 9९.४.१९९२ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in अपने आप ही आप कमल के पूष्प हो गये हैं, क्योंकि आप अपनी २गनध सिर्फ देना जानते हैं और कुछ नहीं जानते औ२ उस देने का जौ मज़ा है उसका आनन्द उठानी एक अंर्जीब सा ही अनूभव है। एक बड़ी ही अभिनव प्रकृति के लौग ही इसे कर सकते हैं। प.पू.शी मातीजी, दिल्ली, २१.३.२००० र० ---------------------- 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरा मार्च-अप्रैल २०१६ हिन्दी 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-2.txt इस अंक में आत्मा का जागरण ...4 (पूजा, मुंबई, २१/३/१९८७) अपने प्रति श्रद्धा हो ...10 सार्वजनिक कार्यक्रम, नागपूर, २२/१२/१९७३) आपके बर्थ डे होनी चाहिए। आप सारे मेरा क्या बर्थ डे मनी २हे हैं। कैसे ये २ह्जयोगी हैं, आप देखिए कि मैं तो अनादि हूँ, मेर क्या बर्थ डे मनी २हे हैं? मैं चाहती हूँ कि आप लौगों का बर्थ डे मनाया जीया औ२ ह२ बर्थ डे में मुष्टय बेढ़ते जाती है, धटती तो नहीं है। प.पू.श्रीमाताजी, २५ नवंबर १९७३ 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-3.txt आत्मा का जागरण ू६ ा ० व आप लोगों ने मुबारक किया आपको भी मुबारक। सारी दुनिया में आज न जाने कहाँ कहाँ आपकी माँ का जन्मदिन मनाया जा रहा है। उसके बारे में ये कहना है कि वो भी आप लोगों में बैठे ह्ये मुबारक बात देते हैं। इस सत्रह साल के सहजयोग के कार्य में, जब हम नजरअंदाज करते हैं, तो बहत सी बातें ऐसी ध्यान में आती हैं, कि जो बड़ी चमत्कारपूर्ण हैं। ये तो सोचा ही था शुरू से ही कि इस तरह का अनूठा कार्य करना है। उसके लिये तैय्यारियाँ बहुत की थी। बहुत मेहनत, तपस्या की थी। लेकिन हमारे घर वालों को इसका कोई पता नहीं था । किसी तरह से चोरी - छिपे अकेले में, ध्यान- धारणा की और विचार होते थे कि किस तरह से मनुष्य जाति का उद्धवार हो। सामूहिक रूप से हो जायें। जब ये कार्य शुरू हुआ, तब भी इतने जोरों में ये कार्य फैल सकता है ऐसा मुझे एहसास नहीं हुआ। लेकिन ये एक जीवंत क्रिया है और जीवंत क्रिया किस तरह, कहाँ होगी, उसके बारे में कोई भी अंदाज पहले से लगा नहीं सकते । इस 4 मुंबई, २१/३/१९८७ 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-4.txt तरह से सामूहिकता में ये कार्य अचानक नहीं हुआ। सर्वप्रथम बहुत कम लोग पार हुये। लेकिन जब पूरी कार्य का हम सिलसिला ढूँढते हैं और सोचते हैं कि इतने सत्रह साल में सहजयोग में हमने क्या कमी देखी । तो पहली बात ये ध्यान में आती है, कि मनुष्य के स्वभाव को, हमें कल्पना भी नहीं थी और सहजयोग में जब मनुष्य स्वभाव से परिचित हुये, तो बड़ा आश्चर्य हुआ, कि मनुष्य कोई भी जागृती नहीं दे सकता। वो ध्यान करता है, धारणा करता है, परमात्मा की बात करता है, सब तरह से प्रवचन कर सकता है, बोल सकता है, सब कार्य कर सकता है। अपने को गुरु कहलाता है। उसके हजारो शिष्य हैं। लेकिन उन्हें सत्य की, असल की, रिअॅलिटी की कोई खबर नहीं। और तब आश्चर्य हुआ कि मनुष्य अज्ञान के बहुत बड़े भँवरे में, बवाल में न जाने कहाँ फँसता चला गया। लेकिन दूसरी बात .....का वो ये कि जब मनुष्य को जागृति हो जाती है, जब उसके आत्मा का जागरण हो जाता है, सिर्फ उसी वक्त उसमें परिवर्तन घटित होता है। उससे पहले किसी भी चीज़ से उसमें परिवर्तन नहीं होता। एकाध दुसरा हो गया होगा। लेकिन मेरी नज़र में एक भी नहीं आया। उसके अन्दर परिवर्तन आना सिर्फ कुण्डलिनी के जागरण से ही हुआ है। इसका अर्थ ये है, कि आत्मा के जागृति के बगैर मनुष्य घोर अंध:कार में बैठा हुआ था। सब ये बातें, बातें थीं | सब ये सोचना, सोचना था । सब ये लिखना, लिखना था । लेकिन इसका कोई तात्पर्य, अर्थ उनके जीवन में नहीं आया। और फिर तीसरा अनुभव ये भी आया, कि जो लोग जागृति में पार हो जाते हैं, वे भी किसी न किसी तरह से अपने अपने पुराने स्वभाव में पकड़ा जाते हैं। और उसको कारणीभूत थोड़ी सी चीज़ हो सकती है। जैसे एक साहब सहजयोग में आये, लंडन में और उनके बहुत सुंदर वाइब्रेशन्स आये। उस चैतन्य को देख के मैंने उनसे कहा कि, 'आप ने कोई सुकृत किया हुआ है। और उस सुकृत के कारण ही आप इतने ज्यादा चैतन्य से भरे ह्ये हैं।' बस, इतना कहना बड़ा .. था, वो सीधी खोपड़ी थी वो एकदम उल्टी हो गयी। जो सीधे चल रहे थे वो उल्टे चलने लगे । मैंने तो सोचा, इस प्रशंसा से ये कोशिश करेंगे कि, हम और आगे जायें। और आगे बढ़ें। बजाय इसके उनकी तो खोपड़ी ही उल्टी हो गयी | और उनको देख के अचंभे में रह गये, कि अगर किसी आदमी को आप एक तोला सोना दे दे, तो वो कोशिश करेगा कि वो एक तोले का दो तोला बनाये। ऐसी उम्मीद मुझे थी। जैसे की मछली से आप कछुआ बन गये। फिर उससे आप कुछ और हो गये। फिर कुछ और। फिर कुछ अनुभव ऐसे आये, कि कोई भी चीज़ उनसे .... नहीं। अगर इनको आप कोई जड़ वस्तु दे दे। जो कि जड़ वस्तु है। बिल्कुल जड़ वस्तु। लेकिन आप उन्हें जड़ वस्तु दे दे, तो वही जड़ वस्तु ले कर के वो बड़ा अत्याचार कर देंगे। बहुत सारे अत्याचार कर देंगे। छोटी सी आप उनको पदवी दे दीजिये। अगर उनसे आप प्रेम से बात करे, और उनमें आप विश्वास आ जाये, तो वो हमारा ही नाम ले कर के और धृष्टता पे आ जाते हैं। लोगों से बदला देना, उनको तकलीफ़ देना। उसके साथ अत्याचार होना। हमारे साथ इतनी धृष्टता है। परमात्मा प्रेम है और प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम के बाद सब आता है। सर्वप्रथम परमात्मा ने इस संसार को प्रेम ही दिया। अगर वो प्रेम नहीं करते तो ये संसार ही नहीं बनता। सच्चिदानंदादि इनकी बातें करिये। लेकिन प्रेम की जैसे कोई व्याख्या नहीं हो सकती। इसका कोई वर्णन नहीं हो सकता। उसका आनंद बताया नहीं जा सकता। उसी प्रकार परमात्मा के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे महान, शुद्ध प्रेम की बात हम शुरू से ही कर रहे हैं। और सारे जीवनभर आपको प्रेम के सिवाय और क्या दिया। 5 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-5.txt और हमारे पास है ही क्या देने के लिये, जो हम आपको दें। ये तो सिर्फ प्रेम ही के करिश्मे हैं। प्रेम से ही सब चीज़ बनती है। जिसने सहजयोग में आ कर के प्रेम का दाना नहीं चुना उसने अभी तक सहजयोग को समझा नहीं । सब से बड़ी चीज़ है कि हम कितने ज्यादा लोगों से प्यार करते हैं। दो-चार चमचे इकट्ठे कर दिये। जैसे आजकल बड़ा शब्द है चमचा। मुझे पता नहीं था चमचा शब्द क्या होता है? सहजयोग में आ कर पहले पता चला कि वो एक-दूसरे को चढ़ा कर करते हैं। फिर एकसूत्रीपन बंद कर के और सत्य .....सकते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करना बड़ी भारी अंध:कार चेष्टा है । ये तो शैतानों के काम हैं। आपको जो अधिकार है, वो ये कि हमने आपसे प्यार किया और आप दुनिया से प्यार कर लें। ये आपका अधिकार है। जब 'मेरा, मेरा' ही नहीं छूट रहा, ये मेरा, तेरा चल रहा है तो सहजयोग कहाँ घटित हुआ? संसार में देखिये कितनी जीवित घटना है। मनुष्य को छोड़ कर के। कोई ऐसा कहता है कि ये मेरा है? पेड़ है अपने फल दे देते हैं, नदी अपनी पानी दे देती है, मेघ अपने बरसात दे देते हैं। पृथ्वी अपना सारा सौंदर्य आपके सामने प्रगटित कर देती है। कोई रोक के रखता है क्या? जब आप उसी निसर्ग के जीवंत हैं, प्यार के प्रवाह में बह रहे हैं, तब ऐसी छोटी छोटी बातों को याद करने की क्या जरूरत है? हर तरह से करने से अत्याचार इतना होता है। हर तरह से अत्याचारीपना होता है। जैसे की एक साहब आये। कहने लगे, 'मैं तो चार बजे उठ के ये करता हूँ, ऐसा करता हूँ, वैसा करता हूँ। और ये तो आदमी उठता ही नहीं। छोड़ दो।' तुम चार बजे उठ के सारे ..... जगाते हो। चार बजे उठ के ध्यान करना सहजयोग में नहीं। चार बजे उठो। सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला कर ध्यान करो, ध्यान करो , ये सब बातें बेकार हैं । आपको जब ध्यान में उठना है, तब आप कुछ कर के ध्यान करो। जब तक आपकी चित्त बुद्धि शिथिल है, जब तक आपका चित्त ही परमात्मा में लीन नहीं हुआ तो उनको जबरदस्ती करने से ये बैल चलने वाला नहीं। जब तक चित्त का ये बैल पूरा नहीं होगा तब तक ये दौड़ने वाला नहीं। ये तो धीमी गती से चलेगा। लेकिन इस बैल को ठीक करने के लिये आपके पास आपके आत्मा का प्रकाश है। उस प्रकाश को आप उपयोग में लायें। उस प्रकाश को आप दुसरों की ओर फेंक दें। ये दूसरों को दिखा दे कि हम बड़े प्रकाशमान है। लेकिन अगर आप हैं प्रकाशित तो लोगों को कहना चाहिये कि हाँ, एक ...है। अपनी शान में खड़ा होना चाहिये। अपने सुख में, अपने आनंद में खड़ा होना चाहिये। कोई आपकी बदनामी करे, कोई आपको कुछ भी कहे। जब तक आप जानते हैं कि ये सब झूठ है तो आपको इस पर नाराज़ होने की .देते हैं, तो जान लीजिये कि आप सहजयोगी हो ही नहीं सकते। क्या जरूरत है? आप अगर किसी को चालना दीजिये। चालना देने से आप स्वयं ही एक निष्ठावान सहजयोगी हैं। सब लोग ये सोचते हैं कि हम तो माँ को सरेंडर हैं। माँ, हम तो बदल गये। माँ को सरेंडर हैं। भाई , सेंडर की बात मुसलमानों के वक्त में कही गयी थी । इस्लाम मतलब होता है सरेंडर। अब सरेंडरिंग की इतनी जरूरत नहीं है। अब समझ की जरूरत है। अब भक्ति की इतनी जरूरत नहीं, अब विज्डम, सुबुद्धि की जरूरत है। हो गया, सब का ..... हो गया। अब आप स्टेज पे आये। अब आपको खेल पूरा खेलना है। लेकिन ये भी हम लोग अभी तक नहीं समझ पाते, कि सहजयोग में अब हम कहाँ बैठे हैं। पहले आप लेते थे, अब आप देने वाले हो गये। अब देने वाला ही महामूर्ख जैसे लेने वाले की .... और लेने वाले की ही भूमिका चला रहे हो । उसके प्रति कौन आदर करेगा ? और उसके सहजयोग को कौन बांटेगा ? सो, देने वाले में जो 6. 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-6.txt आनन्द है, एक अपने प्रति मान है, दूसरों के प्रति अनुकंपा है। संसार के प्रति दक्षता है। सृष्टि के प्रति दृष्टि। ये जब तक हमारे चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, चरित्र में प्रकाशित नहीं होगी, तब तक न हमें कोई मानेगा, न आपको मानेगा। और ये सब मिला जुला कर के एक ढ़ाई अक्षर ही बनता है। जिसे प्रेम कहा जाता है। और अब प्रेम कर के देखिये। आपका गुस्सा करने का जो स्वभाव है, वो छूटता नहीं। मैंने तो यहाँ तक सुना की कुछ सहजयोगी गाली -गलोच करते हैं। आप अपशब्द मुँह से निकाल ही नहीं सकते। आपका हर एक अपशब्द अमंत्र हो जायेगा। ये सृष्टि में जितने अपशब्द हैं, उनको पूरी तरह से मिटाने के लिये आपके लिये जागृत मंत्र दिये गये हैं। बजाय इसके उसको आप जागृत करें .., आप मंत्रविद्या दी है उसी को आप नष्ट कर रहे हैं। ऐसे आदमी में मंत्र भी अमंत्र से भी अशुद्ध हो सकते हैं। सहजयोग की सभ्यता बाहरी नहीं अन्दरूनी है। पर इसका मतलब ये नहीं की अन्दरूनी सभ्यता है और बाहर असभ्यता है। बिल्कुल भी नहीं। बहुत से ये लोग कहते हैं कि हमारा दिल तो बिल्कुल साफ़ है, बाकी चाहे जैसा बने। इससे आप सहजयोग का प्रकाश बाहर कैसे पहुँचायेंगे? कोई अन्दर से कितना भी साफ़ हो, जब तक उसका दिल साफ़ न होगा, जब तक उसका प्रकाश लोग नहीं देखेगे, तब तक ऐसे अन्दर के प्रकाश को भी ले कर क्या करना है? बहक जाना ये बहुत बड़ा अनुभव हमने सहजयोग में देखा कि लोग बहक जाते हैं। पैसे के लिये बहक जायेंगे, सत्ता के लिये बहक जायेंगे। ऐसी ऐसी छोटी बातों के लिये बहक जाते हैं कि मुझे आश्चर्य होता है कि कहाँ इन्होंने आत्मा को पाया है ये बहक कैसे गये! बहकने के लिये मैं जानती हूँ कि शक्तियाँ बहुत जबरदस्त हैं। लेकिन आपके पास सब से बड़ी शक्ति मिली जो कि हजारो वर्ष मेहनत से भी नहीं मिलती। लेकिन इसी में जो अनुभव आये, वो इतने सुन्दर और अनुपम हैं । सहजयोग में कुछ कुछ लोग कितनी सुन्दरता से परिवर्तित हो गये। उनका जीवन इतना गौरवशाली हो गया है, कि उसे देख कर के बड़ी .... हो जाती है ऐसा तो किसी भी अवतरण में नहीं हुआ है। इतने सारे लोग, इतने सुन्दर लोग, इतने ऊँचे लोग, इतने पवित्र लोग , इतने शक्तिशाली लोग, किसी भी अवतरण के नसीब नहीं, जो हमारे नसीब में आये हैं। उसका समाधान बहुत है। लेकिन कभी कभी फूल के साथ कॉँटे भी चुभ जाते हैं। तो भी उसका शल्य भी चूभता ही रहता है। और फिर लगता है कि बार बार कह दें | कि तुम परिवर्तित हो जाओ, तुम्हारे काँटे भी पफूल समान हो कर के सुगंधित हो जायेंगे | सारी चीज़ समझने की है। ये सारा संसार, ये सारी सृष्टि, ये ग्रह मंडल, ब्रह्मांड, सारे जो कुछ भी बने हैं ये सारे आपके परिवर्तन का इंतजार कर रहे हैं। वो सब देख रहे हैं। कब ये वायुमंडल बदलने वाला है और कब हम इस पर बरसात करें। इन सब का कोई भी अर्थ नहीं रह जायेगा । अगर मनुष्य सहजयोग में आ कर के भी परिवर्तित नहीं होगा। हमारी सत्रह साल की मेहनत में हो सकता है कि किन कारणों से कभी कभी हमने जी भी चूराया हो। और कभी कभी उधर आँखे भी बंद कर ली। कभी कभी काँटों को देखा। एक आशा में, कि सब का परिवर्तन हो सकता है। कोई चीज़ अशक्य नहीं। इसका ये मतलब नहीं की सहजयोग काँटों में पनपता है। या उसका संबंध है या उसको वो सपोर्ट करता है। कभी भी नहीं । ऐसे काँटे हमेशा निकाल कर फेंक दिये जायेंगे और जब तक वो परिवर्तित नहीं होंगे वो इस .... में आ नहीं सकते। ये नियती है। इसे हम नहीं बदल सकते और इसे आप नहीं बदल सकते। ये चक्र ऐसा है, कि इस चक्र में आप सबको अपना परिवर्तन खोजना चाहिये। छोटी छोटी चीज़ों में जब अहंकार आदमी को लगता है, जैसे कोई है, मैं नहीं | क्यों? 7 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-7.txt आपको ......करना चाहता है। मैं... हूँ, मैं....हूँ। जहाँ तक ये मैं, मैं, मैं, चलता रहेगा वहाँ तक सहजयोग भी हटता चला जायेगा। कोई भी काम, इच्छा, बुद्धि आपको 'मैं' का लक्षण देती है, तो ऐसे कार्य में सहजयोग आने नहीं वाला। ऐसे बुद्धि में सहजयोग का कोई स्थान नहीं। इसका मतलब तो ये है, कि आपकी अपनी भावना में भी सहजयोग नहीं है। आपकी बुद्धि में भी नहीं। इस 'मैं' को छोड़ना ही बहुत महत्त्वपूर्ण है। किसी किसी में तो सिर्फ मैं को .... और उसी के नशे में, उस 'मैं' के नशे में ही इतनी हालत हो जाती है कि जब आप अपने 'मैं' में बोलते हैं तब मुझे भी सुनाई नहीं देता और मेरी भी समझ में नहीं आता है कि क्या बोल रहे हैं। जैसे कोई कुत्ता भौंक रहा हो, वैसे मुझे लग रहा है कभी कभी। और कभी कभी ऐसा लगता है कि कोई साँप है, वो फूत्कार छोड़ रहा है। ये कौन सी भाषा बोल रहा है भाई ? ये हमारी तो भाषा नहीं और ना ही ये मनुष्य की भाषा है। इसमें प्रेम की आर्द्रता नहीं, प्रेम का दिलासा नहीं, प्रेम का है, कार्य करने के लिये नाद है, ओंकार आभास तक नहीं ऐसे कार्य क्यों करते हैं आप? कार्य करने के लिये तो साक्षात् खड़े हैं। उसको किसी की जरूरत क्या कार्य करने की ? लेकिन आपके अन्दर वो निनाद आने के लिये आप स्वयं को वाद्य होना चाहिये, जिससे ये निनाद पहुँचे। उस अँध:कार में बैठने से भी क्या फायदा है? ये निव्व्याज्य प्यार से आप .... कि इस अंध:कार से आप रूप नहीं है, रंग नहीं है, और जो कुछ भी में देखती हूँ, इतने सुन्दर महानुभाव हमारे सहजयोग में सामने खड़े हये हैं। मैं कहती हैँ, इतने तो किसी भी समय में नहीं हये ैं । वो दिन दूर नहीं कि जिस दिन सहजयोग चरम सीमा तक पहुँच जायेगा। जिस दिन सारे संसार में सहजयोग की पताका फैलेगी, मुझे बिल्कुल इसमें अब शंका नहीं रही। लेकिन विचार आता है कि जिन पर इतनी मेहनत की, और उन्होंने हमारे प्यार को नहीं समझा, हमको ही नहीं समझा, वो क्या सहजयोग को समझ पायेंगे? आपके प्यार से आँख में आँसू आ जाते हैं। और क्या कहें, क्या न कहें। किसी विचार में गलत रूप लेता है। ये सब कृष्ण की लीला है। जिसने सिवाय माधुरी के और कोई बात ही नहीं करी। उन्होंने होली इसलिये रचायी, कि दुनिया भर के वितंडवाद के राइट हैण्ड से पायेंगे, लेफ्ट हैण्ड से पायेंगे, इधर में दीप लगा रहा है, उधर में दीप लगा रहा है, ये सारे दुनिया भर चक्करों से छूट्टी करने के लिये कृष्ण ने कहा कि, तुम रंग खेलो। पर रंग तो खेलो, ना कि मिट्टी, ना कि गंदी चीजें और गोबर आप दूसरों पे उछालो। लेकिन मनुष्य वही करता है। उसके बगैर उसे मज़ा नहीं आता । पता नहीं, कुछ लोग शायद हो सकता है, कि वास्तव में सहजयोग में इसलिये भी आये होंगे, कि वो अपनी पुरानी आकांक्षायें और इच्छायें पूरी करें। हो सकता है । कभी कभी मुझे ऐसी शंका आती है। लेकिन जो जन्मजन्मांतर की चीज़ आप लोग पूर्ण पायेंगे, कि आप अपने आत्मा को पाईयेगा और उस आत्मा के सारे आनन्द के क्षेत्र आप अपने अन्दर प्रगटित होंगे और एक आप बहुत महान आत्मा बनेंगे। एक महान आदर्श बनेंगे। एक प्रेम के सागर बनेंगे। वो सब जो भी आपसे वादे किये गये थे, वो सारे पूरे करने के लिये सहजयोग संसार में आया। और अब अगर कुछ आप अपनी मूर्खता में इसे खोना चाहते हैं, तो एक बात सिर्फ यही बार बार कहनी है, कि बेटा कुछ समूचा नहीं। जब पानी को पीना होता है तो प्रेम से पिया जाता है। उसको धूत्कार कर आप कैसे पियेंगे? आपको समझाने में शायद मेरे शब्द पूरे न पड़ते हो। हो सकता है कि मैं अपने हृदय की बात पूरी तरह से नहीं कह सकती हैँ। हो सकता है कि आप मेरे 8. 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-8.txt अन्दर के आन्दोलन को नहीं समझ रहे हैं। उसके लिये मुझे कोई शिकायत नहीं। मेरी शिकायत सिर्फ ये कि आप अपने आन्दोलन को देखिये । आप अपनी गंभीरता को देखिये। आप अपनी शान को देखिये। आप अपनी संपत्ती को देखिये। उसका उपभोग उठाईये। उसमें आप बसे हैं। | उसमें क्या आज जन्मदिवस का समारोह हुआ । हमारे जन्म से हमारा कोई मतलब ही नहीं । जन्म हुआ सो हो गया, विशेष है? और जन्मदिवस भी आया तो क्या हुआ? ऐसे तो रोज ही किसी न किसी का जन्मदिन होता ही रहता है। रोज ही कोई न कोई पैदा होता है। रोज ही कोई न कोई मरता रहता है। ये तो परिवर्तनशीलता का क्षण है। इसकी विशेषता ऐसी तो कोई नहीं। लेकिन तभी इसकी विशेषता होती है, जब समाज ....... उसी क्षण उसका ..... उसके साथ एकाकार हो जाता है। आज हमारे जन्मदिवस के अवसर पर आपने हमें गिफ्ट दी है। इसमें स्नेह है, प्यार है। वही प्रेम, वही स्नेह, आप सब को दीजिये। आज के दिन यही आप मुझे दीजिये, कि इस क्षण आप ठहर जायेंगे, उस प्रेम के मुकाम पर। वहीं आपकी मंजिल है। वहीं आपका डेस्टिनेशन है कि जहाँ आप सिवाय प्यार के कुछ भी न बन जायें । तभी सोचिये की आपने आपकी मंजिल पायी। और कोई भी चीज़ पाने की नहीं। सब जो कुछ भी कार्य करने हैं, जो आपने इंतजामात किये हैं, जो खूबसूरती से सजाया है, सब कुछ इतना सुंदर बनाया है। आज पूजा में वो सब तत्पर हैं। उस वक्त आप ठहर जायें एक बात पर कि माँ, हम इस प्यार के सागर में डूब के पूरी तरह से हमारे अन्दर आ जायें। ये इच्छायें आज इस वक्त, इसी क्षण पूरी होगी। आप तो जानते हैं कि मुझे कोई इच्छा नहीं होती। मेरी कोई इच्छा न होने की वजह से कोई इच्छा पूरी भी नहीं होती। सब आपकी ही इच्छाओं के सहारे चल रही हूँ। इसलिये ये इच्छा आपको प्यार करें। ये इच्छा नहीं, क्योंकि इच्छा अगर कही जायेगी तो वो जैसी और इच्छायें होती उसी तरह, पर ये ......गये। हमारी सीमाये, सब लाघ कर हम तादात्म्य में आ गये। तदाकारिता शुद्ध इच्छा की जागृति, इस शुद्ध इच्छा की जागृति होनी चाहिये, माने आपने उसको क्रिया में लाना चाहिये, अॅक्शन में लाना चाहिये। आज जाने से पहले सब लोग एक दूसरे से प्यार से मिले। सब से बात करें, सब को पहचाने, ये नहीं कि बम्बई वाले अलग, दिल्ली वाले अलग, मद्रास वाले अलग, पूना वाले अलग ये सब भूल जाईये। ये सब मिथ्या है। झूठ है। ये व्यर्थ की .... है। ये सब भूल कर के आपस में प्रेम से मिले और सब से बात करें। और हमें कोई चीज़ की आशा नहीं है। इसी आशा के सहारे जी रहे हैं। प्रेम खूब बढ़े और ये आत्मा का प्यार, इसका प्रकाश सारे संसार में उछल जायेगा। संसार की जितनी दुर्घटनायें हैं, जितनी विपदायें हैं, और जिस तरह से आज संसार एकदम से, दुःख और पश्चात्ताप के बीच में डोल रहा है, उसके सामने कोई एक ठोस चीज़ रखी जायें। आप कोई भी अपने को किसी से कम न समझें। सब हमारे लिये वंदनीय, प्यारे हैं। और इसी से हर इंसान को अपने प्रति श्रद्धा, गौरव रखते हये, अपने से प्रेम रखते ही सब को प्रेम करना सीख जाईयेगा । जो अपने स्वयं से प्यार नहीं करता वो किसी से भी प्यार नहीं कर सकता।..... उसके प्यार में, उसके गौरव में, उसके प्रकाश में, आप विष्णु का सुंदर स्वरूप देखिये और उससे पुलकित हो कर के और इस गहन प्रेम के सागर में डूबते रहे। यही मेरा आप सब को आशीर्वाद है । 9. 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-9.txt नागपूर, २२ दिसंबर १९७३ बहुत पहले से ही ऐसे कुछ, सहज में ही कहना चाहिये, ऐसे कुछ समय आये, कि मुझे भाषण देने पड़े। बहुत बड़े बड़े जमावों के सामने , कहना चाहिये हजारो लोग यहाँ थे। १९३० की बात है, जब कि गांधी जी ने उपोषण किया था । मेरे पिताजी भी बड़े अच्छे वक्ता थे। आप सब उनके बारे में जानते होंगे। लेकिन उनको जरूरी काम से घर जाना पड़ा। सब लोगों ने कहा, सालवे साहब आप भाषण नहीं दीजियेगा तो सब लोग भाग जाएंगे। काम कैसे बनेगा? कहने लगे, 'मैं तो जा रहा हूँ। मेरी लड़की जो मेरी धरोहर है उसे रख के जा रहा हूँ। और मैं लौट के आऊँगा उसके बाद भाषण दूँगा।' लेकिन देर होगी वो लौटे नहीं। तो सब लोगों ने कहा कि, बहुत 'भाई, वो तो आये नहीं। अब इनकी लड़की, धरोहर है उनको धरते हैं। अब कैसे होगा ? भाषण कौन देगा? और चिटणीस पार्क के लोग हैं। कहीं बिगड़ गये तो पत्थर मारना शुरू कर देंगे।' तो वहाँ एक साहब बैठे थे। उन्होंने कहा कि, 'उन्हीं से कहिये भाषण देने के लिये, कि क्या आप भाषण देंगी?' वो हमसे पूछे कि, 'क्या आप भाषण देंगी ?' मैंने कहा कि, 'हम देंगे।' तब मेरी उमर सिर्फ सात साल की थी। उस वक्त के कुछ लोग हो तो उन्हें याद होगा कि मैंने पंधरह बीस मिनट तक काफ़ी अच्छा सा भाषण दिया था। बुढ्ढा-बुढ्ढी की शादी बतायी थी। अब सोचती हँ कि बहत सालों बाद, अपने ही लोगों के बीच में, अपनी ही भाई -बहनों के बीच में, नयी बात ले कर के आना पड़ा है। और बहुत कुछ पुरानी बातें भी याद आ रही है, कि बचपन से ही मैं जिस चीज़ को अच्छे से जानती थी, उस बात को कहने का मौका ही मुझे नहीं मिला। उसकी वजह ये थी कि जो वो इन्सान एक दसवी मंजिल पे पैदा हुआ हो, जो कि दसवी मंजिल की बात जानता हैं, पहले मंजिल वाले के साथ क्या बात होगी। वो अगर कोई बात भी कहे, कोई यकीन नहीं करेगा। बहुत बचपन में मैं अपने माता-पिता से, विशेष कर अपने पिता से बहुत कुछ इस पर बातें किया करती थी और धर्म पे बहत चर्चा करती थी। लेकिन मैं देखती थी, कि वे भी यही सोचते थे कि ये सब बातें किसी के समझ में आयेंगी नहीं। जैसे कि, साहब, जो अॅडवोकेट हैं यहाँ के। ये मुझे बचपन में पढ़ाते भी थे। ये भी मुझे बहुत अच्छे से जानते हैं और मेरे भाई, बहन, और यहाँ के बहुत से लोग जिनको की मेरे पिताजी जानते थे, सभी लोगों का मैं ये देखती थी कि इन्हें मेरी बात समझ में आयेगी नहीं। इसलिये ये बात करना अभी उचित नहीं है। कम से कम पहले मंजिल से पाँचवी मंजिल तक लोग पहुँच जाये, तो कुछ मेरी बात उनकी समझ में आयेगी। एकदम से ही ऐसी बात कह दो, तो लोग सोचेंगी कि कोई पागल आदमी बोल रहा है। इससे क्या फायदा ? 10 भ0 का क 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-10.txt इसी तलाश में मैं थी, कि मनुष्य जो है, इस की समस्या क्या है? और वो किस तरह से हल होगी? बहुत बचपन से, आपको आश्चर्य होगा, मुझे बचपन से आदत है। और माउंट रोड में भी जब हम लोग रहते थे, तब भी यहाँ पर जो अभी मैंने सुना बड़ा .... बना दिया है। यहाँ एक माउंट मेरी का टेम्पल है। उसके पास जा कर घण्टों मैं बैठ कर किसी भी वो को बात को ले कर सोचती थी, कि मनुष्य में जो एक उलझन, जो एक समस्या है, एक ही समस्या है बहुत साधारण, ये समस्या ऐसी है कि परमात्मा ने ये सारी सृष्टि, ये सारी एक लीला रचायी है न कि एक नाटक हो रहा है और मनुष्य समझे बैठा है कि ये नाटक मैं बड़ी सिरीयसली कर रहा हूँ। जैसे समझ लीजिये एक आदमी से कहा कि तुम शिवाजी बन जाओ और तुम शिवाजी का खेल खेलो। अब वो सोचने लग जाये कि मैं शिवाजी हो गया| तो इस पागलपन को कैसे हटाया जायें। ये समस्या ही है। क्योंकि सब लोग सोचते हैं, कि जो हम हैं, सो ही हैं। इसके अलावा हम और कुछ हैं, ये बात कोई सोच भी नहीं सकता। जब वो सोच भी नहीं सकता है, तो फिर उसको जानना कौन चाहे! सब लोग यही सोचते हैं कि जो खेल है यही सही बात है। और अगर बच्चों से आप पूछे, तो बच्चे तो सारी सृष्टि को ही खेल समझते हैं। एक बच्चा था। हमारे घर में आता था। एक दिन मुझ से पूछता है, 'आँटीजी, आप ये डॉक्टर डॉक्टर क्यों खेल रही है?' वो सोचते हैं कि ये भी एक खेल है, कि भाषण होता है, लोग आते हैं, बैठते हैं। वास्तविक ये सत्य है। बच्चे सत्य जानते हैं। लेकिन हम लोग असत्य को सत्य माने बैठे हैं। जैसे कि हम ये सोचते हैं कि हम नागपूर में पैदा हुये हैं। हम नागपूर वाले हो गये। फिर, हम हिन्दुस्तान में पैदा हुये, हम हिन्दुस्तान वाले हो गये। फिर, हम ईसाई धर्म में पैदा हुये, हम ईसाई धर्म वाले हो गये| लेकिन अगर छोटे बच्चे से आप पुछे कि, 'बेटे तुम कौन हो ? तुम जपानी हो कि अमेरिकन हो ?' तो वो हैरान हो जायेगा। उसे कहो कि, 'तुम मुसलमान हो कि हिन्दू हो?' तो वो और भी हैरान हो जायेगा । उससे पूछो कि तुम कौन हो ? तो ज्यादा से ज्यादा वो इतना ही कहेगा कि, 'माँ मैं तुम्हारा बेटा हूँ और कौन हूँ? तुम भूल गयी क्या मुझे?' वास्तविकता 6. में हम जो असलियत में मनुष्य है ये सत्य को भुला कर के और जो असत्य है, उसे हम मान लेते हैं। जब अंग्रेजों ने भी यहाँ राज्य किया, तो वो भी बड़े भारी असत्य पे थे कि, 'हम अंग्रेज हैं, ये हिन्दुस्तानी।' वो भूल गये थे कि हम भी इन्सान हैं, ये भी इन्सान हैं। और ये बड़ा भारी सत्य है। ये सत्य ऐसा है कि जैसे एक उँगली, वैसे ये भी एक उँगली, ये दुसरी, ये तीसरी, ये चौथी, ये पाँचवी, सब उँगलियाँ एक ही हाथ की। लेकिन हाथ भी एक ही शरीर का। हम सब एक ही चीज़ों में बँधे हये हैं। ये महान सत्य है और सही बात है। लेकिन अगर ये उँगली सोचें कि मैं अलग हूँ और ये उँगली उसको दबाना चाहे, ये उँगली इसको काटना चाहे, मेरे दाँत जो हैं, मेरे पाँव को काटने लग जाये । वैसी ही चीज़ मैं देखती थी संसार में। मुझे समझ में नहीं आता था कि इन लोगों को कैसे बतायें कि भाई, तुम सब एक हो। इसलिये जरूरी था कि सबको, ये तो महसूस हो कि इसका दर्द उसको भी लगें और उसका दर्द इसको भी लगें। तो ये क्या करना चाहिये? क्योंकि मुझे तो ये होता था, मैं जानती थी। अभी जो ब्रायन साहब ने कहा, ये बात सही है कि जब ये बम्बई आयें तो मुझ से इन्होंने कहा था कि ·...नंबर बताया नहीं। इन्होंने मुझ से कहा कि इतना तुम्हें भाषण का ये है और इतनी तुम डायनॅमिक हो और सब कुछ हैं। तो तुम को तो चाहिये पॉलिटिकल फिल्ड में आयें। तुम्हारे जैसे पॉलिटिकल फिल्ड में आयें।' मैंने कहा, 'भाई, मुझे माफ़ करो । 11 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-11.txt सार्वजनिक कार्यक्रम मेरे बस का ये रोग नहीं।' तब बहुत कुछ ये कहने लगे कि, 'मेरे दिमाग में ऐसी बातें आ रही हैं। मेरे दिमाग में ये बात आ रही हैं कि तुम्हारे से ये हो सकता है, पॉलिटिकली तुम ये कार्य कर सकती हो। तुम्हारी जैसी स्री मिल नहीं सकती। मैंने कहा कि, 'मेरे तो दिमाग में एक प्रकाश का गोला घूम रहा है।' ये मैंने इनको जवाब दिया था। क्योंकि वजह ये है, कि वो तो घूम रहा था बहुत दिनों से ही। लेकिन उससे मैं कैसे लोगों को समझाऊँ, कि ये क्या है? जो चीज़ मैं देख रही हूैं, वो चीज़ क्या है? ये बड़ा भारी मेरे सामने प्रश्न था। इसलिये मैंने थोड़ी मेडिकल की भी स्टडी की। ये समझ ले की इससे इन्सान क्या करता है? इस चीज़ का क्या नाम है? इस पर मैं कल आप को बताने वाली हूँ। लेकिन ये खोजते खोजते मैं बहुत साधुओं के पास गयी। किसी ने कहा तुम मेरी शिष्या हो जाओ, किसी ने कहा चुप हो जाओ। मैंने कहा अच्छा, ठीक है। हरिद्वार में भी मैं एक साधु जी थे, उनके पास बहुत दिन रही। फिर और भी बहुत से साधुओं के पास गयी। धीरे धीरे मुझे ये पता हुआ कि सब चारसौ बीसी है। इनको कुछ भी नहीं मालूम है भगवान के बारे में। ये कुछ भी अपने बारे में नहीं जानते हैं। कुण्डलिनी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं । सब पैसे से मतलब है उनको या तो औरतों के चक्कर में। सब बेकार के लोग हैं। इनमें कोई पवित्रता नहीं है। सब झूठ हैं। मुझे तो सच्चा साधु बहुत ही विरला लगता है। बहुत ही विरला और जो है भी, कोई एखाद- दो सच्चा साधु है भी, तो वो जंगलों में है। इसलिये मुझे बड़ी निराशा हुई कि धर्म के नाम पे जितना लोग झूठ करते हैं, मेरे ख्याल से और किसी भी चीज़ में, किसी भी धंधे में नहीं करते। लेकिन धर्म को जो धंधा बना के रखा है, पैसा कमाने का धंधा बना के रखा है, इस से बढ़ के घृणित बात तो हो ही नहीं सकती। इसलिये आपने ये भी सुना होगा कि ईसामसीह ने जो कि इतने शांति के पुजारी थे। उन्होंने भी एक बार हंटर ले कर के जो लोग मंदिर में दुकाने लगा कर बैठे थे उनको मारना शुरू किया । अपने यहाँ तो जो लोग मंदिरों में दुकानें लगा कर बैठते हैं उनको मारता-पीटता है नहीं। लेकिन जो मंदिर की दुकान बना बैठते हैं, जो भगवान को रास्ते में बेच रहे हैं, और करोड़ों रुपये जिन्होंने इकठ्ठा किये हैं। करोड़ों रुपयों का जिन्होंने फॉरिन एक्स्चेंज बनाया है, सब को बेवकूफ़ बना बना कर के और भूत विद्या, स्मशान विद्या, प्रेत विद्या, आदि से उनको पागल बना कर के और उनको लूट रहे हैं। इससे बढ़ के अधर्म और पाप संसार में कोई नहीं। ये पाप की गठरी उनके सर से तो उतर ही नहीं सकती है। क्योंकि वो सिर्फ आपका पैसा ही नहीं नोचते, पैसा नोचना है, नोच लें, आपकी जेब काटना है, काट लें, कोई हर्ज नहीं। उससे कोई हर्ज नहीं बनता। क्योंकि ये सब तो विनाशी चीज़ें हैं | ये तो इसी संसार में रहने वाली हैं। लेकिन आपके अन्दर का वो शक्ति का स्रोत, जो कुण्डलिनी है, उसी को जब खराब करते हैं, उसी को मार्ग को खराब करते हैं, प्रेत विद्या और भूतविद्या से आपको भ्रष्ट करते हैं, तब उनको जान लेना चाहिये, कि ये पैसे की गठरी न कोई ले गया है और न कोई ले जायेगा, लेकिन पाप की गठरी ले जाने पर उनका क्या हाल होगा? लेकिन उनमें से तो बहुत से राक्षस के अवतार हैं। बड़े बड़े राक्षस है, ये लोग, जो संसार में आयें हैं भगवान का नाम कहते हैं। है राक्षस! इन लोगों को मैंने बहुत नज़दीक से देखा और मैंने जाना कि इतने मायावी लोग हैं। इनका चक्कर ही जबरदस्त है। जैसे कि सीता जी को उठा के रावण ले गया था। बेचारी सीता जी, जो साक्षात् आदिशक्ति थी। उसे पता नहीं चला कि ये रावण मुझे ले जा रहा है। उसी तरह के ये महादष्ट आ कर के संसार में ये दुष्ट कार्य कर रहे हैं। और ये प्रेत विद्या और स्मशान विद्या के कारण ही अपने संसार में इतनी खराबियाँ और बुराईयाँ आ गयी। क्योंकि 12 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-12.txt ये गंदी गंदी आत्मायें आ कर के अच्छे भले आदमी को बेकार कर देती हैं। उसकी सुबुद्धि को नष्ट कर देती हैं। इनके हाथों में खेलना गलत बात है। हम जब किसी भी कार्य को एकदम से उद्विग्न हो कर के करते हैं तब सोच लेते हैं कि हम सही कर रहे हैं। लेकिन जब वो कार्य खत्म हो जाता है तो इतना दु:ख लगता है, इतनी पीड़ा होती है कि 'कितने महामूर्ख थे। पता नहीं ये कैसे काम हमने कर लिया !' वास्तविकता इस में ऐसा है, ये सारी प्रेतविद्या है एकमात्र हिप्नॉटिजम। उसके बीच में हम दौड़ रहे हैं और पागल जैसे छोटी छोटी चीज़ों के लिये इतनी हत्या और हानियाँ हम लोग कर रहे हैं। हमें अंदाज ही नहीं। और ये लोग इन्होंने तीन-तीन चार-चार करोड़ों रुपये इकठ्ठा किया है, उनके घरों में जा कर देखिये, तो आपको आश्चर्य होगा कि बड़े बड़े आलिशान घरों में रहते हैं, बड़े राजा बन के रहते हैं। दसरे तरह के भी लोग संसार में निकल आयें, जो संन्यास लो, ये लो. वो लो आदि बातें सिखाते थे। वास्तविक ये लोग आपको मुर्ख बनाना चाहते हैं। संन्यास क्या परमात्मा ने बनाया है? जो परमात्मा ने बनाया नहीं वो कभी भी आध्यात्मिक नहीं। न तो परमात्मा ने संन्यास बनाया है, न तो परमात्मा ने कोई भी ऐसी, विचित्र सी बात नहीं बनायी जो ले कर के आदमी चलें। संन्यास तो अपने अन्दर की चीज़ है। बाहर की नहीं होती। एकाध आदमी होता जो अन्दर से ही संन्यस्त है। वो फिर राजघराने में बैठा रहें चाहे कहीं भी बैठा रहे। वो संन्यस्त होता है, उसकी तबियत संन्यस्त है। मैं अपने पिताजी के लिये कह सकती हूँ। बिल्कुल वो संन्यस्त स्वभाव के थे । अत्यन्त संन्यस्त स्वभाव के। उनका स्वभाव इतना संन्यस्त था कि मानो अभी, आपको अॅडवोकेट साहब ने बताया है, लेकिन हमने उनको बहुत नज़दीक से देखा है कि उनके दातृत्व की ये हद थी कि अगर उनके पास कोई भी चीज़ हो और अगर कोई दौड़ जायें, उनके पास उनकी अंगूठी भी हो और कोई उनके पास पहुँच जायें कि 'सालवे साहब, मुझे बड़ी परेशानी हैं,' ये हो रहा है, वो हो रहा है, फौरन उतार के दे देते थे। एक दिन उनको किसी ने कहा कि, 'सालवे साहब, क्या आप जिसको देखो उसको दे देते हैं। कोई पात्र या अपात्र कुछ भी सोचा नहीं । ये तो सोचना चाहिये की आपके भी बाल-बच्च हैं।' उन्होंने कहा, 'मेरे कौन बाल-बच्चे हैं? जिसके हैं वो सम्भाल लेंगे । ' और वास्तविक यही बात है। जिसके हैं उसी ने सम्भाला है। उन्होंने तो, आप जानते हैं कि एक पैसा भी हम लोगों के लिये छोड़ा नहीं था और न ही किसी के लिये इन्होंने विल बनायी। ऐसा आदमी भी संसार में रहता है, नाम करता है, बड़ा आदमी बन के चला जाता है। और एक ऐसा भी आदमी होता है कि जो धर्म के नाम पर ये दुनिया भर का कर्कट उडाते रहता है। पैसा इकठ्ठा करता है। अगर पैसा मिलने से इन्सान सुखी होता, तो जिन देशों में बहुत सा पैसा है, खाने, पीने को बहुत है, यहाँ मैंने सुना आंदोलन हो रहा है। अब हम तो यहाँ आये आप लोगों के कल्याण के लिये और रास्ते में इन लोगों ने उतार दिया। कहने लगे, 'वहाँ मत जाओ। वहाँ सब लोग पत्थर मार रहे हैं।' मैंने कहा, 'ये भी कोई तरीका हुआ? हम तो इनको कोई अनाज़ थोड़ी दे रहे हैं? लेकिन बुद्धि का भ्रम देखिये , कि वो हम को ही पत्थर मारने को निकले। उसकी वजह ये है कि हम खाना-पीना इस चीज़ को महत्त्व देते हैं। वास्तविक खाना-पीना इतना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। कोई इतना महत्त्वपूर्ण नहीं। कोई यहाँ पर भूखा नहीं मर रहा है। अगर कोई भूखा मरता तो आप सिनेमा हॉल में देखिये हजारो लोग खड़े हये हैं टिकट के लिये, ब्लैक में खरीद रहे हैं। रिक्शेवाले, ताँगे वाले सब खड़े रहते हैं । कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसके लिये आप किसी को पत्थर मारते फिरे। लेकिन ये सब भूतविद्या है । आप जानते नहीं बिल्कुल साक्षात् भूतविद्या है । ये प्रेतविद्या का ही लक्षण है। और कुछ नहीं है। नहीं तो मनुष्य इतना मूर्ख थोड़ा ही है, जो इस तरह की बेवकूफ़ियाँ करें। तो इस तरह से, जहाँ पर, जिन देशों में अॅफ्ल्यूअन्स है, जहाँ लोग बहुत रईस हैं, जैसे अमेरिका में है। अमेरिका में 13 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-13.txt सार्वजनिक कार्यक्रम इतना पैसा है, इतना पैसा है, कि एक साधारण घर की नौकरानी जो आती है, वो भी कॅडलॅक गाड़ी में बैठ के। तो मुझे लगता था कि इनके यहाँ इतना पैसा है तो लोग इतने दुःखी क्यों? देखते हैं कि आज तो कॅडलॅक गाड़ी में आयीं और कल उसने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या क्यों करें? आखिर क्या बात है? इनके पास सारा पैसा होते हुये भी, सब से ज्यादा संसार में आत्महत्या अमेरिका में होती है। आश्चर्य की बात है! इसका अर्थ एक तो जाहीर जो हमें समझ भी लेना चाहिये, कि पैसा ही संसार में सब कुछ नहीं है। पैसे से भी बढ़ के कोई चीज़ है जो हम खोज रहे हैं। मनुष्य क्या खोज रहा है? वो खोज रहा है शांति और आनन्द! वो पैसा नहीं खोज रहा है। वो पैसा भी इसलिये खोज रहा है, कि उसको शांति और आनन्द मिलें। शांति और आनन्द मनुष्य को धर्म के सहारे मिलती है। और धर्म बाहर का धर्म नहीं है, बाहर का है, जिससे धारणा होती है। मनुष्य जब जान लेता है, कि मैं कौन सी शक्ति हूँ, मैं किस शक्ति के सहारे चल रहा हूँ, उसी दिन वो शांत हो जायेगा। जैसे मैं लोगों को बताती थी, कि अगर हम लोग एरोप्लेन से जायें । कुछ देहाती लोग चलें एरोप्लेन में पहली मर्तबा! तो उन्होंने कहा कि आप एरोप्लेन से जाते वक्त कुछ कम सामान ले जाईये। तो वो एरोप्लेन में बैठते ही सामान अपने सर पे रखा । लोगों ने नहा कि, 'भाई, ये क्या कर रहे हो?' कहने लगे कि, 'हम तो एरोप्लेन का बोझा हल्का कर रहे हैं।' वास्तविक हम लोग भी परमात्मा का बोझा हल्का कर रहे हैं। उस डिवाइन पावर का, उस अनंत शक्ति का हम बोझा हल्का कर रहे हैं, जिसने हमें बनाया, खिलाया, बड़ा किया और जो हमारा संगोपन करने के लिये तैय्यार है। इसी तरह से हम बहत सिरिअसली उसका बोझा उठाये हये हैं। लेकिन जिस दिन जानेंगे, कि जिसने बनाया है, जिसने हमें पाला है, बड़ा किया है वही हमारा सर्वेसर्वा है। उसी दिन बोझा जो है, सर से एकदम हल्का हो जायेगा और मनुष्य जानेगा कि ये एक नाटक है। जैसे कि यहाँ आप देख रहे हैं कि बहुत सी बिजलियाँ जल रही हैं, बल्ब जल रहे हैं। इसलिये आप देखते हैं कि पंखे भी चल रहे हैं। ये सब किसी शक्ति के द्वारा है। लेकिन अगर कोई बल्ब अलग से ये सोचें कि मैं ही जल रहा हूँ और मुझी को जलना है और अगर मैं नहीं जलता तो सब जगह अंध: कार हो जायेगा। तो हम उसको कहेंगे कि ये महामूर्ख है। लेकिन अगर हमारी ओर हम दृष्टि करें, तो यही बात हमारी है। जिस दिन हम जान लेंगे कि एक शक्ति हमारे अन्दर से दौड़ रही है और उसी शक्ति के सहारे आज हम प्रज्वलित है । अब मॉडर्न लोग कहते हैं कि, 'हम कैसे विश्वास करें माताजी कि आप कहते हैं कि ऐसी शक्ति हैं और ये है, वो है।' मैं कहती हूँ कि इन्सान गया ही किस हद तक? पहुँच ही किस ओर तक? सीधी बात है, कि आपको अगर कोई पूछे तो आप उनसे पूछे कि आपके हृदय धड़कन होती है ? कोई डॉक्टर से पूछा। कहने लगे, 'हाँ!' तो वो कहेगा कि, 'तो क्या हुआ? वो तो होती है। अपने आप होती है।' 'कभी कोई इसे कोई करता है? कौन है?' तो वो कहेगा कि, 'कोई नहीं करता है । एक सिस्टम है उसको हम कहते हैं कि ऑटोनोमस नव्वस सिस्टीम | मानें स्वयंचालित संस्था । वो स्वयंचालित संस्था इसे चला रही है।' तो उससे आप पूछे कि, 'भाई, ये स्वयं कौन ?' कोई तो उसे चला रहा है? स्वयं कहो, चाहे उसे भगवान कहो, चाहे उसको शक्ति कहो, चाहे उसको कोई नाम दो। कोई तो शक्ति है जो इसे चला रही है । तो ये शक्ति कौन है? हमारा पचन हो रहा है अपने आप! ये कैसे हो रहा है? हमारा श्वसन चल रहा है अपने आप ही। ये कैसे हो रहा है? अब उसका एक नाम बना दिया आपने। ये स्वयंचालित है। लेकिन ये तो नाम आपने दे दिया। नाम देने से तो कोई | 14 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-14.txt साइंटिफिक बात नहीं की। साइंटिफिक का मतलब है कि उसका आपको पूरा ब्यौरा देना पड़ेगा। बताना पड़ेगा कि चीज़ क्या है। उसके बारे में आप कुछ जानते नहीं। कहते हैं कि वो तो अपने आप हो गयी | लेकिन अगर ये समझ लीजिये, कोई अगर ये कहे कि उस अपने आप को आप हासिल कर सकते हैं और पा सकते हैं। तो फौरन साइंटिस्ट लोग उठ के खड़े होंगे। कहेंगे कि, 'ये तो एक गृहिणी है। फिर वो भी नागपूर की रहने वाली है। हम को मालूम है। ये क्या कर सकती है ?' साइन्स से ये चीज़ जानी नहीं जा सकती। ये चीज़ अपने ही अन्दर है और जितना कुछ संसार का जाना गया है, जितना भी ज्ञान है, जो कुछ भी आप मुझे देख रहे हैं, ये सब अन्दर ही जाना गया है। बाहर कुछ नहीं जाना। आइनस्टीन जैसे बड़े भारी साइंटिस्ट ने भी ये कहा हुआ है कि, 'मैं बहुत खोज रहा था। खोजते खोजते मैं बहुत थक गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये थिअरी ऑफ द रिलेटिविटी क्या है?' उसके बाद कहने लगे कि, 'थक कर के मैंने कहा कि चूल्हे में गया सब कुछ। लॅबोरेटरी वगैरा छोड़ कर के मैं अपने बाग में गया और ये साबून के फेस से, इसके सोप बबल्स से में खेलता पड़ा। खेलते खेलते एकदम,' उन्होंने अंग्रेजी में लिखा हुआ है, 'सम वेअर, फ्रॉम सम अननोन लैण्ड, द थिअरी ऑफ रिलेटिविटी, डॉन्ड अपॉन मी। कहीं से किसी अज्ञात जगह से ये प्रकाश मेरे अन्दर आया।' वो अज्ञात जगह क्या है? किसी को अगर ज्ञात हो जाये। वही हम अगर जान ले, जो अदृश्य है वो अगर दृश्य हो जाये , तो किसी भी साइंटिफिक माइंड के आदमी को अपनी आँख खुली रखनी चाहिये। साइन्स आखिर है किस चीज़ के लिये। साइन्स मनुष्य के उद्धार के लिये है। उसको बढ़ाने के लिये है। उसके कल्याण के लिये और मंगल के लिये है। न कि उसके नाश के लिये| अगर इसी के लिये साइन्स है, तो इस से बढ़ के और कौन सी चीज़ हो सकती है, जो आपको अपने ही से परिचित कराये । यानी आप ही सोचिये, आप सब मेरी बात सुन रहे हैं। पर मैं एक छोटी सी बात कहूँ पंडित हैं, दूसरों को भाषण देंगे । परोपदेश बहुत करेंगे । लेकिन मैं कहूँ कि, 'भैय्या अपनी ओर नज़र करो कि आप कहाँ बैठे हैं?' तो आप कहेंगे कि, 'ये कैसे हो सकता है? हम अपनी ओर कैसे देखें?' अपनी ओर कोई नहीं देख सकता। दूसरों की कि आप अपनी ओर चित्त दीजिये। आप कोई भी अपनी ओर चित्त नहीं दे सकते। बड़े बड़े ओर आप देख सकते हैं। अपनी ओर नज़र नहीं जाती। और अपनी ओर नज़र ले जाना ही सहजयोग है। अपनी ओर देखना ही सहजयोग है। ऐसे ही हम अपने को जान लेते हैं। उस सूत्र को जान लेते हैं, जिस सूत्र से सारी सृष्टि रची है। जैसे की एक माला के अन्दर में छोटे छोटे मणि होते हैं। ऐसे ही आप लोग छोटे छोटे मणि हैं। और आपका चित्त, आपका ध्यान उन मणियों में अलग अलग है। इसलिये आप सोचते हैं कि आप अलग अलग हैं। जिस वक्त आपका चित्त और ध्यान उस सूत्र पर चला जायेगा, जो सब के अन्दर से दौड़ रहा है, आप दूसरों के सूत्र को भी जान सकते हैं। यही सहजयोग में होता है। सहज, सहज का अर्थ है, सह माने विथ, ज माने बॉर्न, आपके साथ ही जो पैदा हुआ जो योग है, माने उस शक्ति से मिलने का जो साधन है। वो आप ही के साथ पैदा हुआ। आप ही के अन्दर वो सहज में पड़ा हुआ है। उसके लिये आपको कुछ करना नहीं होगा। इसके लिये कुछ करने की क्या बात है? कोई भी जीवंत कार्य करने के लिये आप क्या कर सकते हैं? समझ लीजिये एक बीज है। उसको आप चाहते हैं कि उसमें से एक पेड़ निकलें । तो आप क्या सर के बल खड़े होते हैं कि संन्यास लेते हैं कि उसको संन्यास दिलवाते हैं कि कोई ऐसे मनुष्य के कार्य करते हैं कि वो बीज निकलेगा? कुछ भी नहीं कर सकते। मनुष्य कर ही क्या सकता है? सारा मरा हुआ काम करता है। अगर एक पेड़ मर गया तो उससे उन्होंने एक टेबल बना दिया। सोचो, वो कितना बड़ा काम किया। एक भी 15 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-15.txt सार्वजनिक कार्यक्रम जीवंत कार्य अगर मनुष्य कर सके, तो हम मानेंगे कि वो भी कोई कारक है। हम ये करते हैं, हम वो करते हैं। अब ये मिट्टी थी, उन्होंने हॉल बना दिया। बहुत बड़ी बात करी। ये तो सब मरा हुआ कार्य है। इसमें जीवंतता क्या हुई? मनुष्य का बनाया हुआ काम अपने आप बंद होता है। परमात्मा का जो निसर्ग का कार्य है, नेचर का जो कार्य है, वो अपने आप ही घटित होता है। बीज अपने ही आप चलित होता है। उसको कुछ करने से कभी भी कुछ नहीं होने वाला। इसलिये हम कुछ कर ही नहीं सकते हैं। ये अपने ही आप अन्दर होता है। लेकिन मनुष्य के लिये सब से बड़ा कठिन काम है, कि वो कुछ भी न करें। इसलिये मनुष्य के लिये सब से बड़ी शिक्षा हो जाती है कि उसको जेल में बंद कर दे। आखिर जेल में मुझे बंद कर दीजियेगा तो मेरे लिये वरदान हो जायेगा। और आप लोगों को बंद करेंगे तो आप लोगों के लिये जेल हो जायेगी। क्योंकि वहाँ तो करने का क्या है ? वहाँ तो बैठे बैठे ही मज़ा आयेगा। हम लोग अपने से ही भागे चले जा रहे हैं। हम तो अपने साथ एक मिनट भी नहीं बैठ पाते। दस मिनट भी अपने साथ बैठना हो तो, 'भाई चलो सिनेमा जायें। भाई , बोअर हो गया , उससे जा के मिलें।' पाँच मिनट भी इन्सान से कहोगे कि भाई शांति से अपने साथ बैठो। तो इन्सान नहीं बैठता। लेकिन हम जो कुछ भी अन्दर हैं उसी में परम सुन्दर हैं और इतने अच्छे हैं। हमारा अन्तरतम ही इतना खुबसूरत है, इतना गौरवशाली और प्रभावशाली है, कि उसके दर्शन मात्र में ही मनुष्य एकदम से सब कुछ भूल जाता है। लेकिन उसको जब जाना नहीं गया। अपने ही अन्दर कस्तुरी छिपी हुई है और कस्तूरी मृग संसार में खोज रहा है और ढूँढ रहा है। धन के मामले में भी यही बात है । जैसे कि नानक साहब ने कहा है कि, 'काहे रे बन खोजन जाईं, सदा निवासी , सदा अलेपा तोहे संग समायें । उसके मध्य जो बात बसत है मुकुर माही जब छायीं, तैसे ही हरी बसे निरंतर, घट ही खोजो भाई । ' बार बार कहेगा कि घट ही खोजो, घट ही खोजो । अब वो सब लोग बैठ कर के रट रहे हैं गाना, घट ही खोजो। ये तो ये प्रिस्क्रिप्शन दे गये कि ये दवा लो। हम तो प्रिस्क्रिप्शन ही रटे रहे । धर्म भी एक प्रिस्क्रिप्शन है। जिसको हम रटे ले रहे हैं। करना कोई जानता है और करना क्या होता है? धर्म के मामले में जो कुछ करना होता है वो वैसा ही है, इसका ( माइक) तो कनेक्शन लगा नहीं और मैं भाषण दिये जा रही हूँ। आपको सुनाई देगा? टेलिफोन का कनेक्शन लगा नहीं और मैं डायलिंग कर रही हूँ। टेलिफोन खराब हो जायेगा। किसी को सुनाई नहीं देगा। आपका पहले कनेक्शन लगना चाहिये। आपका उस अनन्त शक्ति से कनेक्शन लगाने का जो परमात्मा का, उस नेचर का, जो उपाय है वही सहजयोग है। उन्होंने ने ही बना के रखा है। उसी को मनुष्य को पाना है। जिस दिन मनुष्य ये समझ ले कि यही एक पाना है, इसलिये परमात्मा ने हमें मनुष्य किया। उसने आपको मनुष्य इसलिये बनाया है, कि आप अपना इन्स्ट्रमेंट, अपना साधन पूरी तरह से बनायें। आपके अन्दर में एक कोई विशेष ऐसी प्रणाली बनायी है, जिसके कारण आपके अन्दर इगो और सुपर इगो नाम की दो चीजें सर में, आप के मस्तिष्क में बनती हैं। जिसके कारण आप उस शक्ति से छूट कर अलग अलग हो जाते हैं। आप अलग बँटरी में आ जाते हैं। आप अगर अलग बँटरी में आ जाते हैं तो आप आपका जो साधन है वो खुद ही इधर जाते हैं, उधर जाते हैं, मुझे ये करने का, मुझे वो करने का है । खोजते हैं। पहले आप पैसे में खोजते हैं, फिर सत्ता में खोजते हैं। इस जनम में आदमी के पास बहुत पैसा होगा तो अगले जनम में आ कर के वो कहेगा कि, 'पैसा-वैसा नहीं चाहिये। मुझे कहीं का मिनिस्टर बनाओ।' फिर वो सत्ता में 16 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-16.txt आयेगा। सत्ता में नहीं मिला तो कहता है कि धर्म में खोजो। लेकिन सारी ही खोज वो बाहर से करता है। जिस वक्त वो सारी खोजों से हार जाता है। बुद्ध भी जब सब तरह से हार गये और हार कर के लेट गये कि 'नहीं, इसमें नहीं मिलने वाला है। इसमें वो चीज़ नहीं मिली मुझे जो मैं खोज रहा था।' जिस वक्त वो हार गये, उसी वक्त उन पे कृपा हुयी और वो इसे पाये। उन्हें भी सहजयोग से ही मिला था और संसार के जितने भी बड़े बड़े गुरु हैं, सब ने सहजयोग से पाया। सब ने ही सहज ही योग से पाया और किसी भी योग से आप परमात्मा को पायेंगे नही। अपने देश के सब से बड़े पुत्र को मैं मानती हूँ, आदि शंकराचार्य को मैं मानती हँ। अपने देश में बहत बड़ा आदमी है। हालांकि हिन्दु धर्म की बड़ी दर्दशा है और हिन्दु धर्म को हम लोगों ने समझा ही नहीं कि क्या चीज़ है । आदि शंकराचार्य ने साफ़ साफ़ कहा है, 'न योगेन न सांख्येन' किसी भी चीज़ों से परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। और उन्होंने ये भी कहा है। कि संसार में तीन तरह के आदमी होते हैं। एक तो होते हैं कि भक्ति में ही खोजते हैं परमात्मा को। भक्ति कर रहे हैं। उनकी बुद्धि नहीं होती। उनको समझ में नहीं आता है कि परमात्मा से कनेक्शन लगा नहीं और बात कैसे करें। पागल जैसे रातदिन चीखते रहते हैं, चिल्लाते रहते हैं। लेकिन वो वही खत्म हो जाता तो मुझे कोई हर्ज नहीं था। कभी कभी इस पागल में मनुष्य परलोक से संबंधित हो जाता है और उनके अन्दर भूतविद्या वगैरे आ जाती है। होता है। दूसरा आदमी होता है जो कि बुद्धि का बड़ा तीक्ष्ण होता है। बुद्धि बहुत ज़्यादा है। लेकिन उसका मन अस्थिर होता है। इधर-उधर दौड़ता है, इधर की तरफ़ दौड़, उधर की तरफ़ दौड़। तो ऐसा आदमी सोचता है कि चलो, योग वगैरा करें। योगसाधना से अपने मन को हम कंट्रोल करें। ये भी बड़ी गलत बात है। मन को कंट्रोल करने से आप वहाँ पहुँच नहीं सकते। तो आदमी मन को कंट्रोल करता है, कंट्रोल करने से सोचता है कि सब खत्म हो जायेगा । तो ऐसा अनुशासित मन, ऐसा मन परमात्मा की ओर नहीं ले जा सकता। जिस में ब्रेक लगा है वो गाड़ी वहाँ नहीं पहुँचती। इसका मतलब ये भी नहीं समझना चाहिये कि जो आदमी इंडलजन्स करता है, या बड़ा ही भोगी है, वो तो कभी भी परमात्मा के पास नहीं पहुँच सकता। लेकिन जो आदमी छोड़ कर के सोचता भी है, कि हम लोगों को पाना है और वो धर्म के नाम पे भी अपने को ज़्यादा अनुशासित करता है। वो भी नहीं चलता। असल में हमें सिर्फ होना है। सिर्फ हमें होना है। जैसे कि ये हरे रामा वाले मेरे पास आये। कहने लगे, 'माताजी, आपके घर में तो सारी लक्झरी है। 'है ही, मेरे पति अच्छी पोझिशन में हैं तो घर में भी सब कुछ है ही है। परमात्मा की ऐसी ही कुछ व्यवस्था है और हम वहाँ रह रहे हैं।' 'तो आप कैसे कह रह है कि भगवान की ऐसी ऐसी स्थिति होती है।' तो मैंने कहा, 'क्या भाई, तुम्हारा मतलब है कि इन चीज़ों से मुझ में कुछ फर्क आता है?' मैंने कहा, जब किसी ने कोई चीज़ को पकड़ा ही नहीं उसको छोड़ेगा क्या? 'मैंने तो ये छोड़ दिया, मैंने तो वो छोड़ दिया, मैंने तो संन्यास ले लिया।' मैंने कहा, ये तुम ोॅडवर्टाइजमेंट लगा रहे हो । छोड़ना और पकड़ना तो तब होता है, जब मनुष्य जानता है कि किसी को आप पकड़ सकते हो और छोड़ सकते हो। पर अगर मनुष्य यही जानता है, कि न तो कोई पकड़ा जाता है न छूटता है। तो फिर संन्यास भी क्या और गृहस्थी क्या आपको? खड़े हैं। अब ये पेड़ देखिये , खड़े हुआ है। ये कोई संन्यासी है कि गृहस्थी है । आदमी, सिर्फ है। जिस दिन आप सो जायेंगे, आप सिर्फ आप हो जायेंगे। सिर्फ द्रष्टा हो जायेंगे । साक्षी हो जायेंगे । विटनेस हो जायेंगे। तब बाहर की चीज़ों का अर्थ इतना ही होगा कि नाटक हो रहा है देखा करो। लोग पत्थर फेंक रहे हैं, तो 17 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-17.txt सार्वजनिक कार्यक्रम भी देख रहे हैं। लोग हार चढ़ा रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। लोग पैर पे आ रहे हैं तो भी देख रहे हैं। और लोग जूते मार रहे हैं, तो भी देख रहे हैं। दोनों ही चीज़ देखने की है । सारी ये नाटक है। जैसे ईसामसीह के लिये देखिये , कि वो सूली पे चढ़ गये। सब लोग रोते हैं, 'सूली पे चढ़ गये, सूली पे चढ़ गये।' उनके लिये वो नाटक था। उनको क्या ? उनके लिये सूली होती क्या चीज़ है? जिस आदमी ने तूफ़ान को रोका था, क्या वो इन लोगों को रोक नहीं सकता था? आप ही सोचिये, इतना शक्तिशाली आदमी जो तूफ़ान को रोक दें, वो क्या इन गधों को रोक नहीं सकता था? वो भी चाहता तो क्रूस को गिरा देता और सब चीज़ तहसनहस कर देता। लेकिन वो कह रह था कि चलो, इन बेवकूफ़ों को थोड़ा बेवकूफ़ बनायें । इसलिये वो बेवकूफ़ बना के चले गये और हम लोग सोचते हैं कि वो क्रूसीफाय हो गये। वो क्या क्रूसीफाय होंगे! अविनाशी जीव कभी क्रूसीफाय नहीं होता। वो बार बार आते हैं संसार में और संसार का कल्याण करते हैं। उनको न मार सकता है, न उनके कोई प्राण ले सकता है न उनको कोई द:ख दे सकता है न ही उनको कोई | सुख दे सकता है। उनको आनन्द की स्थिति में रखता है। सहजयोग इसी स्थिति में मनुष्य को पहुँचाता है। वास्तविक इसका आज तक पता किसी को भी इतने जोर से लगा नहीं था जितना मुझे लगा। आश्चर्य की बात है, पर लगा है। पूर्वजन्मों में भी बहुत बार मैंने इसका प्रयत्न किया। अब जब मैं पैदा हुई, आप के नागपूर में हुईं। इसका भी विशेष है। नागपूर के पास ही छिंदवाडा में मेरा जन्म हुआ। और जो माता-पिता भी मैंने ढूँढे, वो भी कोई विशेष हुये और जो भाई - बहन हैं, आप लोग भी मेरे नागपूर के रहने वाले, इसमें भी कोई विशेष बात हयी। और जो लोग आप आज यहाँ पहुँचे इसमें भी कोई विशेष बात होगी। हो सकता है कि पूर्वजन्मों की परम पुण्याई से आप यहाँ पहुँचे हो और आप पायें। अब बहुत से लोगों का ये भी कहना है कि, 'माताजी, ये तो बड़ी कठिन बात है। लोग कहते हैं कि कुण्डलिनी जागृति बड़े देर से होती है और ऐसे बहुत आसानी से नहीं होता। करोड़ों में एक होता है। मैं कहती हूँ कि, 'हाँ, भाई होता होगा करोड़ों में एक लेकिन ऐसा आज कल है नहीं।' अब हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं। हमारी दादी अम्मा से जा कर कहेंगे कि, 'हम लोग चंद्रमा पर चले गये हैं।' तो वो कहेगी कि, 'हो ही नहीं सकता! ऐसे कैसे?' इनको फोटो भी दिखाईये तो भी वो कहेंगी कि, 'नहीं, ये तो झूठ-मूठ के फोटो बनाये हैं तुम लोगों ने और ऐसे दिखा रहे हो । कभी हो ही नहीं सकता, चंद्रमा पर कैसे जाये? ' लेकिन चंद्रमा पर जाना तो हम विश्वास कर लेते हैं। लेकिन जो संसार चंद्रमा पर पहुँचा हैं, बाहर इतनी जिसने खोज कर ली, क्या वो कभी अन्दर भी तो खोज करेगा ही। नहीं तो एक पैर जो बहुत बाहर बढ़ गया है, अगर वो अपने अन्दर के स्रोत को नहीं ढूँढेगा, अपने अन्दर के शक्ति को नहीं ढूँढेगा, तो हो सकता है कल तहसनहस हो जाये और यही होने वाला है। अगर आपने अपनी अन्दर की शक्ति को जाना नहीं और अपनी अन्दर की एकता को, कलेक्टिव कॉन्शसनेस जिसे कहते हैं, उसे जाना नहीं, जाना मैं कह रही हूँ, समझना नहीं, ये बुद्धि से समझने वाला विषय नहीं है। ये आपके अन्दर आ जायें । अभी हमारे साथ बम्बई से कुछ लोग आये हैं, जो कि पार हो गये। वो अपनी उँगली के इशारे पर बता देंगे कि आपकी कहाँ शिकायत है, आपको क्या तकलीफ़ है। वो महसूस करते हैं आपके अन्दर के वाइब्रेशन्स को। हर एक आदमी के अन्दर से अलग अलग तरह के वाइब्रेशन्स आते हैं। उससे आप बता सकते हैं कि इस आदमी में कौनसा कौनसा दोष है। कुछ शारीरिक हो सकता है, मानसिक हो सकता है, बौद्धिक हो सकता है, हर 18 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-18.txt तरह का दोष हो सकता है। पूर्व जन्म का हो सकता है, परंपरागत हो सकता है। इस तरह के सारे ही दोषों को आप अपने उँगली के इशारे पे समझ सकते हैं। और वो, जैसे ही कुण्डलिनी, जो हमारे अन्दर बैठी हुई है, जिसके बारे में कल आपको बताऊँगी, वो जैसे ही ऊपर उठना शुरू हो जाती है, तो वो नज़ारा दिखा देती है, कि मनुष्य है क्या? और सिर्फ उँगलियों के इशारे पे ये लोग समझ लेते हैं, कि ये बात है। अगर ये बात करते हैं, और अगर हो रही है, तो इसमें घबराने की कौन सी बात है। उसमें इतनी शंका करनी की कौन सी बात है! कल अगर मैं कहूँ, कि हीरा लायी हूँ। यहाँ पे रखा हुआ है, जिसको चाहिये फ्री ले लें। आप सोचते हैं क्या, कोई आदमी शंका करेगा ? आप में से कोई भी ऐसा है कि शंका करेगा ? सब दौड़ेंगे कि, बाबा, हीरा मिलता है, काँच हो तो, ले तो लो। मुफ्त में ही है। अगर में कहूँ कि ये चीज़ मुफ्त में ही आनन्द मिलने वाली है, तो अमेरिका में लोगों को बड़ा आश्चर्य वो कहने लगे कि, 'साहब, वो फलाने महेश योगी आये थे वो २७७ डॉलर लेते हैं, फलाने आयें तो ३७७ डॉलर लेते हैं, आप भी कुछ ७७ ले लीजिये अपने काम के लिये।' मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। हुआ। मैंने कहा, 'देखो, मेरी बात जहाँ तक है मेरी तो समझ में नहीं आता। पर तुम ही इसके दाम लगाओ। तुम इसका प्राइस लगाओ। जो भी तुम इसका प्राइस दे सकते हो दे दो । ' संसार की कोई भी चीज़़ ऐसे अविनाशी को खरीद सके, कोई ऐसे नहीं। अविनाशी चीज़़ के पाँव के धूल के बराबर भी अगर कोई संसार की चीज़ हो, तो मनुष्य उसको कहे कि उसे छोड़ना है। इसे आप खरीद नहीं सकते। अगर आप भगवान को बाजार में खरीद सकते हैं तो वो भगवान कहाँ से हो गये? यहाँ तो सारे साधु लोग भगवान को जो बाजार में बेच रहे हैं, उस वक्त हमें दिमाग लगाना चाहिये कि ये चीज़ क्या कर रहे हैं। अभी एक साहब मुझ से आ के बताने लगे, 'मुझे एक बाबाजी ने अंगुठी दी।' तो मैंने कहा, 'ये तुमने क्यों ली भाई ? तुम्हारे पास तो लाखों अंगुठियाँ हैं। वो अगर बड़े भारी दाता हैं, तो वो हमारे देश का इकोनोमी प्रॉब्लेम सॉल्व कर दें। सबको खाना- पीना दे दें । अंगुठियाँ दे दें, घड़ियाँ दे दें। लेकिन वो तो रईसों को ही देते हैं। गरीबों को तो देते नहीं। बात क्या है? और ये भी सोचना चाहिये दो मिनट कि आखिर परमात्मा को इसमें क्या इंटरेस्ट हैं कि आपको अंगुठी दें। और कोई उनको धंधा नहीं है कि आपको अंगुठी देंगे, चूड़ियाँ देंगे। वो तो आपको कुछ देना हो तो परम ही की चीज़़ देते ना ! जो आपको परम देता है, वही गुरु है। बाकी जितने हैं सब चोर हैं, ये आप समझ लीजिये। सहजयोग के बारे में इतनी विक्षिप्त बातें मैंने देखी संसार में , कि मनुष्य की मूर्खवता पर मुझे कभी कभी हँसी आती है। या तो मुझे इसमें पैसा लेना चाहिये या तो इसमें द्राविडी प्राणायाम करना चाहिये, या तो लोगों को मुझे नचाना चाहिये, या उनको किसी आफ़त में डालना चाहिये। नहीं तो कैसे हो सकता है! अभी अगर होता है तो ले लो। मैं तो कभी-कभी बिल्कुल साधारण तरीके से लोगों को कहती हूँ कि 'मैं तुम्हारी माँ हूँ। और मैंने खाना बना लिया है।' जैसा बनाया है, तुमसे क्या मतलब! तुम्हें अगर भूख है तो चख के देखो और खाओ। मैं अभी सिंगापूर में गयी थी। तो वहाँ मलेशिया का एक बड़ा मशहर इंटरनैशनल डॉक्टर यांग करके आदमी है। बहुत बड़ा आदमी है वो। उनको पता हुआ कि मैं आयी हूँ, तो भागे भागे चले आये । एअरपोर्ट से सीधे सीधे घर पे आये। मैं तो खाना खा रही थी। और बाहर आ के कहता हैं कि, 'माँ, मुझे भूख लगी है। चलो, खाने को दो। मैंने कहा, आये हो!' मैंने हाथ धोया। तो हमारी होस्टेस भी नाराज़ हो गयी कि, 'खाना तो खा लो।' मैंने कहा, 'नहीं, 'अच्छा, तुम अब नहीं, मेरा बेटा भूखा है। अब मुझे जाने दो।' हालांकि वो मुझे कम से कम कुछ नहीं १५-२० साल बड़े हैं। वो बैठ गये थे तो एक मिनट में पार हो गये। उन्होंने पा लिया। और पाते ही उन्होंने बहुत काम किया है । वो कहते हैं कि यही एक तरीका 19 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-19.txt सार्वजनिक कार्यक्रम है, कि परमेश्वर को आप पाओ। लेकिन वो ..... (अस्पष्ट) थे, इसलिये बैठ गये। नहीं तो सब को कहना पड़ता है, कि ये बात है, वो बात है। कन्व्हिन्स करना पड़ता है। जिसको इच्छा होगी वो फट् से पार होगा। असलियत को पा लेना चाहिये । लेकिन चीज़ असली होना चाहिये। इसलिये मैं कहती हूँ कि मेरे पैर पे आने की अभी कोई जरूरत नहीं। किसी के भी पैर पे इन्सान को अपने खुद्दारी में भी नहीं जाना चाहिये। इसलिये मोहम्मद साहब ने मना किया था , कि किसी के पैर पे मत जाओ। किसी पे जाने की जरूरत नहीं। हाँ लेकिन जब आप पार हो जाये, जब आप थोड़ा बहुत पा लें, तब आपको पता होगा कि इन्हीं पैरों में ये वाइब्रेशन्स बहुत जोरो में होता है। और पैर पे आये बगैर वो चीज़ कम्प्लीट होती भी नहीं । ये सही बात है । तब थी। तो कोई जरूरत नहीं मेरे पैर पे आने की, दर्शन लेने की । अपने यहाँ दर्शन की ऐसी बीमारी है। 'माताजी के दर्शन करने हैं। अभी दर्शन में क्या रखा है। कुछ ले के जाओ असली चीज़। हम असली देने बैठे हैं असली लेने वाले नहीं। कम से कम इस शहर में बहुत साल मैंने गुज़ारे हैं और ४२ के मूवमेंट में भी बहुत जोरों से यहाँ पे काम किया था । तब मेरी उम्र बहुत छोटी थी। लेकिन तब भी कभी भी मुझे डर नहीं लगा। पुलिसवालों ने मुझे बड़ा परेशान किया था । जानते हैं। मेरे भाई वगैरा बतायेंगे। मुझे इलेक्ट्रिक शॉक भी दिये थे और आइस पे भी रखा था। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मेरे घरवाले बहुत डरते थे। मुझे कभी डर नहीं लगता था। मैंने कहा ठीक है, चलने दो सब । खेल ही है। लेकिन इतने दिनों से मेरी इच्छा थी बड़ी की एक बार जो अपनी जन्मभूमी हैं वहाँ पर ये चीज़ जरूर पहुँचानी है । लेकिन ये ऐसा कहावत है, मराठी में कि, 'जिथे पिकतं तिथं विकत नाही,' जहाँ होता है वहाँ लोग उस की कदर ही नहीं करते। इसलिये मैंने सोचा था, कि थोड़े दिन और बीतने दीजिये। शायद हो की नागपूर वालों को जब समझेगा कि बड़ा भारी कार्य, इसी जगह से ये बड़ा भारी कार्य होने वाला है। नागपूर का स्थान बहुत ऊँचा हैं। हमारी दृष्टि से सारे विश्व की जो नाभि है वो नागपूर है। तो आप समझ लीजिये कि नागपूर वालों को कितना ज्यादा सम्भल के रहना है और कितने कायदे से रहना चाहिये और कितनी सुज्ञता से विचार करना चाहिये। ऐसे तो नागपूर वालों से तो सारी दुनिया घबराती है। एक 'मैं बार मैं लता मंगेशकर के पास गयी थी। मैंने उनसे कहा कि, 'तुम चलो, वहाँ पे प्रोग्रॅम होने वाला है।' उसने कहा, तो मैं, मैं किसी को जाने भी नहीं दुंगी। एक बार गयी थी तो सब ने मुझे जूते मारे।' फिर दूसरे साहब के पास गयी थी। तो उसने भी 'ऐसा हुआ।' ये प्रसिद्धी है। मैंने कहा, 'मैं मायके जा रही हूँ।' मुझे आधे रस्ते में बड़नेरा में इन लोगों ने उतार लिया और इधर चोरी से ले आयें। जहाँ से रुक्मिणी हरण हुआ था वहीं से मेरा जैसा हरण कर के यहाँ ले आये कि, 'भैय्या, उधर मत जाना। तुम्हे सब लोग पत्थर मारेंगे।' जो सारे विश्व की नाभि है, जहाँ से सारे सृष्टि के पालन की शक्ति है, हमारे नाभि पर विष्णु जी का स्थान है, जो पालन कर्ता है। जहाँ विष्णु जी बैठे ह्ये हैं वहाँ इतनी महामूर्खता अगर बसे तो क्या ? लेकिन ये तभी तक है जब तक आप अपने स्थान को जानते हैं। जैसे एकाध भिखारी का बच्चा है, वो घूम रहा है। वो भीख माँग रहा है। लेकिन जिस दिन उसको पता हो जाये कि वो राजा का बेटा है, तब थोडी ना वो भीख माँगे! यही बात है। नागपूर वालों को विशेष एक भाग है। पहले तो ये कि इस देश में कि जो एक योगभूमि है। बाकी भोगभूमियाँ हैं। हम मूर्ख जैसे भोगभूमियों के पीछे दौड़ रहे है । ये योगभूमि है। इस योगभूमि के कण कण में इतने वाइब्रेशन्स हैं कि आपके नागपूर में पाँव रखने के 20 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-20.txt पहले ही हमारे साथ जो लोग थे, कहने लगे कि, 'माताजी, क्या वाइब्रेशन्स है नागपूर में!' सब लोग कह रहे थे कि क्या वाइब्रेशन्स हैं और आप अछूते हैं। उस हवा से आप बेखबर ही है, जो हवा यहाँ पर फैली है। और इस जगह में जो कि सारे देश की नाभि है, एक तो भारतवर्ष ही शरीर है, देह है, सारे सृष्टि का। नरदेह जो है वो भारतवर्ष है और उसके अन्दर के जो नाभि चक्र है जो कि सब से पहले पालन कर्ता के रूप में, स्थापित की गयी थी, वो जब नागपूर है तब नागपूर का स्थान कितना ऊँचा है ये आप समझ लीजिये। और आपका स्थान कितना ऊँचा है! आज हो सकता है तो आप लोग पा लीजिये। और सबसे पहली चीज़ है पाने की। पैर वैर पे मत आईये। कुछ न कुछ आज आप पा लीजिये और थोड़ा चैन लगेगा। मैं बैठने के लिये तैयार हूँ, आप भी बैठने के लिये तैय्यार हैं। आराम से बैठिये, इसको पा लीजिये। इसको पाने के बाद आपको कैन्सर की बीमारी नहीं होगी। कैन्सर की बीमारी सिर्फ सहजयोग से ठीक होगी। मैं आज कह रही हैँ। और दस साल बाद अमेरिका से ये बात आयेगी तब आप सोचेंगे कि, 'अरे, वो तो कह रही थीं।' सहजयोग की बीमारी लगा लीजिये तो सारी बीमारियाँ छूट जाती है। सहजयोग से सारे ही रोग दूर हो जायेंगे। जैसे हृदय चक्र के रोग है। आपके विशुद्धि चक्र, जिसे एऑर्टिक सर्वायकल प्लेक्सस जिसे कहते हैं, मैंने खास ही .....(अस्पष्ट) कर ली , वो ब्रेन के जितने हैं , पागलपन के जितने हैं, भूतविद्या के जितने हैं, स्मशान विद्या के जितने हैं, पेट के जितने रोग हैं, ये सब ठीक हो जायेंगे। सिवाय इसके, दो-चार बीमारियों के जो बाहर से आ कर के लपटे हैं। उनका इलाज नहीं है। या कोई चीज़ अगर मर जाये। अब डॉक्टर लोग कैन्सर में कहते हैं, ब्रेन निकालिये | अब एक बड़े भारी पेंशट ले कर आये थे। मुझे बताने लगे, 'चल के देखिये ।' बेहोश थे। उनको बहुत आराम हो गया। लेकिन अब उनको मैं ब्रेन कैसे लाऊँ ? वो तो निकाल ही डाले। मैंने कहा 'ये रिपेरींग शॉक है। यहाँ पे अगर वो चीज़ ही निकाल डाली है आपने तो हम क्या करेंगे?' तो इस तरह की जो चीज़ें हैं वो छोड़ कर के सारे रोगों का निदान हो जाता। आपके अन्दर शान्ति और निर्विचारिता स्थापित होती है। अन्तर्मन जिसे कहते हैं, अन्दर से रहता है, बाहर से आपका क्या? और दृष्टि आपकी साक्षी स्वरूप हो जाती है। और आपकी बुद्धि एकदम डाइनैमिक हो जाती है। एक बड़ी अद्भुत हो जाती है। इतना आकलन आप में बढ़ जाता है कि आप स्वयं ही ज्ञान हो जाते हैं । ज्ञान में, जैसे समझ लीजिये, हमारे यहाँ आर्टिस्ट है। बहुत साधारण आर्टिस्ट है बेचारे! आज उसके बड़े बड़े पेंटिंग्ज लग रहे हैं। एक म्यूजिशियन है। बड़े साधारण है। वो पार हो गये। आजकल कैनडा में, यहाँ वहाँ गा रहे हैं। माने कि जिसको की लोग कहते हैं कि इसमें भौतिक क्या फायदा होता है ? भौतिक ही फायदा है और क्या फायदा है। भौतिकता भी कहाँ से आयी है और ये सारी शक्तियाँ भी कहाँ से आयी हैं! जो हम सोचते हैं, विचार करते हैं ये भी कहाँ से हैं? वो सब का जो स्रोत है, उसकी जो गंगा है, उसी में आपको नहलाना है। लेकिन आप की गगरी भरी हुई हो, उसको मैं क्या करू? थोड़ी अपनी गगरी खाली कर लीजिये। रही बात श्रद्धा की, उस पे अभी लाल साहब ने कहा था, कि थोड़ा सा मिसअंडरस्टैंडिंग होने का डर है। इसे मैं बताना चाहती हूैँ, कि मेरे लिये कौन सी भी श्रद्धा होने की कोई जरूरत नहीं । अपने प्रति श्रद्धा हो। मेरे लिये श्रद्धा की बात नहीं है। सिर्फ अपने प्रति श्रद्धा हो, अपने से घबराना है। अपने को गालियाँ न दें बैठ कर के कि मैंने ये क्यों किया ? मैंने वो क्यों किया? थोड़ी देर के लिये पाप-पुण्य आप वही बाहर रख के आईये। अपने प्रति आप श्रद्धा रखें। काम अपने आप हो जाता है। ये तो जैसे सूर्य की किरण है, उसी तरह से प्रेम बह रहा है। उसके लिये कोई श्रद्धा की जरुरत नहीं। काम अपने आप 21 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-21.txt हो जायेगा। लेकिन अपने पर जरूर श्रद्धा रखें, कि हाँ हमें भी मिल सकता है। आखिर कोई न कोई विशेष ही बात है । हजारों लोगों को जब बम्बई जैसी अपुण्य नगरी में हुआ है, तो इस पुण्यनगरी में तो होना ही चाहिये। कल भी यहाँ पर ध्यान आदि का प्रोग्रॅम हैं। मुझे तो पता नहीं। मेरा टाइम मेरा रहता नहीं है। इन लोगों से आप पूछ लीजियेगा। आज भी गड़बड़ इसलिये है कि इन लोगों ने मुझे बताया कि, साढ़े पाँच बजे भाषण है और था पाँच बजे। तो कल भी आप लोग जान लीजिये। अभी आप ध्यान में जायें। मैं जैसा कहती हैँ वैसा करें। इसमें क्या होता है, पहले से बता दूं। जिससे आपकी समझ में आ जायें। आप दोनों हाथ मेरी ओर कर के ऐसे बैठिये। जरा सी जगह बीच में छोड़ दीजिये। क्योंकि ऐसा है की आप लोग अभी तैरना नहीं जानते। समझ लीजिये आप डूब रहे हैं। तो आपको जो बचाने वाले जो तैरात लोग हैं वो आपको बचायेंगे। आप कुछ मत करियेगा। आप हाथ-पैर हिलायेगा तो उनका काम बिगड़ जायेगा। आप साधारण तरह से ऐसे रहिये। और कुछ कसा हुआ तो उसको जरा ढ़ीला करें। कोई भी चीज़ कस रही हो। बिल्कुल आराम से, खाना खाने कैसे बैठते हैं। गले में कोई तावीज़ आदि हो तो वो मेहरबानी से निकालिये। तावीज़ हो या ऐसी वैसी चीजें जो लोग पहन लेते हैं वो कुछ भी नहीं होना चाहिये । वो सब निकालें और आराम से आप ऐसे बैठिये। और थोड़ी देर ऐसे बैठने के बाद जब मैं आँख बंद करने को कहँगी तो अपना चित्त यहाँ तालू पर, साधारण तरह से ले आयें। आँख उपर नहीं घूमायें, कुछ नहीं। जैसे आप यहाँ बैठे बैठे घर के बारे में कैसे सोचते हैं, ऐसे ही आप सोचें कि यहाँ क्या हो रहा है, देखें। विचारों की ओर आप दृष्टि करें। अपने मन से , प्रेम से कहें कि, 'हम क्या सोच रहे हैं? अच्छा, हे मन बताओ कि तुम क्या सोच रहे हो?' ऐसा आप प्रेम से अपने मन को पूछे। आप देखियेगा, आप ऐसी जगह पहुँच जाईयेगा जहाँ से आप को लगेगा कि निर्विचार है। निर्विचार होने के बाद थोडी देर में आपको अपने हाथ में लगेगा कि धीरे-धीरे, झिनझिन झिनझिन कर के कुछ तो भी अन्दर में तरंग आ रहे हैं। जैसे कि से आते हैं, ठण्डे ठण्डे। किसी किसी को गरम आयेंगे। कोई हर्ज नहीं जिनको गरम आयेंगे वो झटक दें। कूलर लेकिन किसी किसी के हाथ थरथरायेंगे । किसी का दिल धड़केगा। लेकिन कोई आदमी अगर झूमने लग जायें या अन्दर से उसको कुछ हो रहा है, वो मेहेरबानी से बाहर जायें। ये होने से पहले आप बाहर चले जायें। बाहर लोग उन्हें तो देख लेंगे। वो अन्दर बैठ के दूसरों को गड़बड़ ना करें। किसी के हाथ में अगर साधारण जलन हो रहा हो, ...(अस्पष्ट) निकालें, बहुत ज्यादा जलन हो रहा है, तो वो आँख खोल के मेरी ओर देखें। किसी को चक्कर सी लग रही हैं तो वो भी मेरी ओर देखें। किसी को बहुत बड़ी बीमारी हो, जैसे डाइबेटिस आदि, बहत सीरियस टाइप की हो, हार्ट ट्रबल, बहुत सीरियस टाइप, वो लोग भी बाहर चले जायें । उनको वो लोग देख लेंगे। लेकिन अगर कोई साधारण तरह से बीमार हो, तो उनको कोई घबराने की बात नहीं । पेट की बीमारी हो, ये बीमारी हो, वो बीमारी हो, उसकी कोई विशेष बात नहीं। यहाँ तो कोई मुझे ऐसा सीरियस पेशंट नहीं लगता। और जरा समझ से काम लें। सारी बात बन जायेंगी। न चीखें, न चिल्लायें, न हूँ करें ना हाँ करें । वो देवी वगैरा बहुत आती है हमारे ध्यान में हमने देखा । देवी वगैरा कभी आती नहीं। देवी को कोई धंधा है या नहीं । ये सब भूत आते हैं। इसलिये कोई भी देवी वगैरा आने की बात नहीं करें। जिसको आती है देवी वो बाहर चले जायें। कृपया बाहर जा कर के बाहर लोग हैं उन्हें बता दीजिये कि हमें ये तकलीफ़ हैं। वो आपको देख लेंगे । 22 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-22.txt ১ 2दे] री ॐ ১। क अत: हमारे अन्त:स्थित इन चौदह अवस्थाओं के माध्यम से अपने पुनर्जन्म के विषय में हम बात कर रहे हैं। इन स्तरों को पार कर अचानक हम सुन्दर कमलों की तरह खिल उठते हैं। ईस्टर पर अंडे भेंट करना इस बात का प्रतीक है कि ये अंडे सुन्दर पक्षी बन सकते हैं। प.पू.श्री माताजी, इटली, 9९.४.१९९२ प्रकाशक । निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-२५२८६५३७, ६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in , website : www.nitl.co.in 2016_Chaitanya_Lehari_H_II.pdf-page-23.txt अपने आप ही आप कमल के पूष्प हो गये हैं, क्योंकि आप अपनी २गनध सिर्फ देना जानते हैं और कुछ नहीं जानते औ२ उस देने का जौ मज़ा है उसका आनन्द उठानी एक अंर्जीब सा ही अनूभव है। एक बड़ी ही अभिनव प्रकृति के लौग ही इसे कर सकते हैं। प.पू.शी मातीजी, दिल्ली, २१.३.२००० र०