चैतन्य लहरा मई-जून २०१६ हिन्दी इस अंक में सच्चिदानंद आत्मा ...4 (पूजा, नई दिल्ली, २२/२/१९८२) आत्मा का साक्षात्कार ...12 (सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, १३/१२/१९७७) आज की व्यवस्था ...21 ( मुंबई , १८/३/१९७५) आपको समझना है कि सहस्रार खखुलने के बाद आपमें वह शक्ति आ गई है जिसमें ये तीनों गुण हैं। यह महान शक्ति आपको प्राप्त हो गयी है। इसके लिए हमें बहुत सफल, धनी या विख्यात लोगों की आवश्यकता नहीं। हमें चरित्र, सूझबू् और दृढ़ता वाले लोगों की आवश्यकता है जो ये कहें कि 'चाहे कुछ भी हो मैं इसे अपनाऊंगा, इसका साथ दूंगा और इसे सहयोग दंगा। मैं स्वयं को परिवर्तित करूंगा और सुधारुंगा। प.पू.श्रीमाताजी, कबेला, इटली, १० मई १९९२ २च्चिढानंद आत्मा ुं नई दिल्ली, २२ फरवरी १९८२ 4 क्या बात है? देखिये, ऐसे बाधित बच्चों को प्रोग्राम में लाकर डिस्टर्ब नहीं करना चाहिये। आप लेते जाये, ये तो बाधित बच्चा है। आप लेते जाये बाहर, ये तो ज्यादती है आपकी! इनको आप ले जाईये, क्योंकि इन पर काली छाया 6. है और वो हमेशा डिस्टर्ब ही करेंगे। आप लेते जाईये इनको बाहर, मेहरबानी होगी आपकी। बाधित लोगों को कभी भी अन्दर नहीं आना चाहिये। ये हमारे सहजयोगी लोगों ने कहना चाहिये। ये लोगों में भूत होते हैं और ये हमेशा डिस्टर्ब करते हैं। लेते जाईये बाहर! बाहर लेते जाईये। यहाँ आने लायक नहीं हैं ये लोग। इनको कभी नहीं लाना चाहिये और हो सकता है, कि बेहोश भी हो जाये , क्या फायदा? इन लोगों को नहीं लाना चाहिये। ये तो बाधित लोग हैं, इनको बाहर बिठा दीजिए, ठीक है। अन्दर बिठाने से तकलीफ देंगे सबको। वो बच्चा भी जो था, उस पर भी बाधा थी। उनको, भूतों को तो सब समझता है, कि यहाँ परमात्मा का काम हो रहा है, इन्सान को ही नहीं समझता। हाँ, सच बात है! किसी के अन्दर जो भूत आते हैं तो वो मेरे बारे में बताते हैं लोगों को। उन्होंने ही बताया सबसे शुरू में, कि मैं कौन हूँ? वो सब जानते हैं, थर, थर, थर काँपते हैं, देखते भी नहीं हैं मेरी ओर। लेकिन इन्सान, वो नहीं समझता। ये बड़ी | आश्चर्य की बात है, पर नहीं समझ में आता। भूतों को समझ में आता है और संतों को समझ में आता है। पर इन्सान को नहीं समझ में आता है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं कि जो देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, ऐसे भूत लोग देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, फलाना हो रहा है, सब चीज़ें देखते रहते हैं। लेकिन ये तो सब भूतों का काम हैं। पीर जैसे ही इन्सान कुछ बीच में लटकी हुई चीज़ है, एक किनारे जो जाये, माने भूत न हो। भगवान हो जाये, तो बहुत बड़ी बात है। और यही भगवान होने की बात मैं कह रही हूँ कि आप के अन्दर जो स्थित, जो सच्चिदानंद आत्मा है उसको पाना है। उसके लिए आपके अन्दर कुण्डलिनी भी स्थित है। उसकी जागृति करनी, उसका उत्थान करना, ये शायद अपने नसीब में है, हमें करना होता है क्या? वो हम करे और वो हो जाता है । हमारे ही हाथ से होता है, तो उसमें नाराज़गी की क्या बात करनी चाहिए? पर माँ को अगर ये करना है तो क्या नाराज़गी की बात है और ये बात बहुत बड़े पैमाने में होना चाहिये और सब लोगों को इसका लाभ होना चाहिए। अभी ये बड़ा भारी समय आया हुआ है। ये समय बाद में नहीं मिलने वाला है। ये बहुत महत्त्वपूर्ण समय है। इसको आप इस्तेमाल कर लें। इसका उपयोग कर लें और इसको पा लें। इसके बाद का समय बहुत विकट है। क्योंकि जो एकादश रुद्र के साथ जो आवरण है, उसमें ये आपको कोई माँ जैसे समझायेगा नहीं, न कोई बात करेगा , वो काटा-छाटी होगी आखिरी वाली। इसलिये एक माँ स्वरूप आप सब लोगों से कहती हूँ कि बेकार की बातेंें छोडो और परमात्मा को जान लो। अपनी आत्मा को पा लो और उसको पाने के बाद आप समझ सकते हो कि आपने क्या पाया है! जब तक आपने खाना ही नहीं खाया है, तो आप स्वाद क्या जानियेगा? पर जिस आदमी को भूख नहीं है, वो आते ही साथ पूछेगा कि माँ आप ने कैसे बनाया है? कहाँ से लाया? कैसे पकाया? जिसको भूख होगी वो कहेगा कि, 'माँ, मुझे खिलाओ मुझे भूख लगी है।' ये से अन्तर होता है। अब उसमें से कोई ऐसे भी लोग होते हैं कि जैसे ये भरों पछाड़े हुए लोग, उनकी तो खोपड़ी में कभी जा ही नहीं सकता है। इसलिये कम से कम आप ऐसे नहीं हैं, इसका आप नसीब समझिये और ये भी नसीब समझिये कि आज ये चीज़ यहाँ हो रही है। आज आप लोग सब पा लीजिए और पाने के बाद में इसके आगे क्या करने का। आगे हमें कैसे सम्भालने का है, इस पर थोडा सा ध्यान दें। उसमें आपको थोड़ी 5 सी एज्युकेशन चाहिये, उसमें आपको सीखना पड़ता है कि इसको कैसे बचाना है। इस पर किस तरह से चलना है। वो थोड़ी साधना आपको करनी पड़ती है। जो जरा सी आपने साध ली तो आप साधु बन जाएंगे। उससे पहले आप पार हुए, पर साधु नहीं हुए हैं। साधु होने के लिए थोड़ा साधना पड़ता है और साधु ऐसे होते हैं, जो घर में रहते हैं, गृहस्थी में रहते हैं न इससे भागना, न कुछ नहीं। इसी दुनिया में रहकर के और आप एक प्रकाशवान, बहुत बड़े परमात्मा के चिराग बन जाते हैं। यह कोई कठिन बात नहीं है। यह बहुत आसान चीज़ है। अब कोई कहे कि माँ आप तो बहुत कठिन बताते हैं। अब बताते होंगे लेकिन मेरे लिए तो बड़ा आसान है। कोई न कोई को मैं हूँ ही, जो ये मेरे लिए इतनी आसान है। ये भी तो सोचना चाहिये कि कोई न कोई चीज़ हुए बगैर आपको मैं पार करा देती हूँ और यहीं जो जय गोपाल खड़े हैं इन्होंने कितनों को पार किया है? पूछोगे, तो बता देंगे। जब आपकी शक्ति को आपको देती हूँ और उसके बाद अगर आप अपनी शक्ति से अनेकों को पार करते हैं तो मैं भी तो कोई चीज़ होऊंगी ही। हालांकि तुम्हारे सामने बिल्कुल ही सीधी साधी, बिल्कुल तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे सामने, तुम्हारे माँ जैसे ही खड़ी हूँ। इसका यही मतलब है, कि कुछ न कुछ तो गहरी चीज़ मतलब है इसमें और वो बात इसलिये अभी नहीं कहँगी क्योंकि जब तक आप नहीं, तो कहने से फायदा क्या है? तुम डंडा लेकर मारना शुरू कर दोगे। वैसे ही किया अभी तक| मैं नहीं चाहती डंडे-वंडे खाने की । इसलिये मैं अभी ये बात नहीं कहूँगी खुल कर लेकिन ये खुद ही तुम समझ लोगे और प्रश्न पूछ कर भी जान लोगे, कि भाई, कोई चीज़ तो है ही। और तुम्हारे लिये आये हैं इस दुनिया में, तुम्हारा ही काम करने के लिए, सारा संसार का कल्याण करने के लिए। तो अपनी माँ की तुम्हें मदद करनी चाहिए। मुझे कुछ भी नहीं चाहिये आपसे। न पैसा, न कोई चीज़! मेरे पास परमात्मा की कृपा से सबकुछ है और सब से ज़्यादा मेरे अन्दर समाधान इतना है कि मुझे कोई चीज़ नहीं चाहिये। बस मैं तो यही चाहती हूँ कि मेरे जो बच्चे हैं, वो सब पार हो जाये। बस, यही एक आंतरिक इच्छा है, कि मेरे जितने भी बच्चे हैं, जितने भी मुझे खोज रहे हैं, जो परमात्मा को खोज रहे हैं वो सब पार हो जाये और अपना अर्थ पा लें। परमात्मा आप सबको सुखी रखें। अभी कोई प्रश्न हो तो पूछ लीजिये। प्रश्न - ये जो, आप, लोगों का उद्धार कर रही हैं ये आप कहाँ से कर रही हैं? कितने समय से कर रही हैं। आप? श्रीमाताजी - बेटा, मैं तो बहत पुरानी चीज़ हूँ। हजारों सालों से यही कार्य कर रहे हैं। प्रश्न - हजारों वर्षों से तो, पर आप जैसे कि इस जन्म में पैदा होने के बाद, शादी होने के बाद, बच्चे होने के 6. बाद से या कब से यह कार्य कर रही है आप? श्रीमाताजी - जब से पैदा हुए हैं, तब से ही लगे हैं, फिर ऐसा ही समझ लो आप। सारी जिंदगियाँ ही ये करते आये हैं तो ऐसा कौन सा समय होगा कि जब ये काम नहीं किया होगा ? प्रश्न - मेरा मतलब है, कि कब से आप खुले आम कर रही हो? श्रीमाताजी -खुले आम तो मुझे ही याद नहीं है, कि कब से कर रहे हैं ये काम। प्रश्न - मेरा मतलब है कि कितने साल से आप इसमें लगी हैं? श्रीमाताजी - साल १९७० से..... १९७० से ये काम खुले आम के कार्य शुरू हुआ है। ये मन्वंतर का काम १९७० से है। इसके बारे में पहले ही से घोषित शुरू हुआ किया गया था कि ये कार्य १९७० से होगा। सबका समय आधु होने के लिए होता है। जो समय होता है उस समय से ये काम हो रहा थोड़ा साधना पड़ता है छोड़िये और आप पार हो है। अब आप ये बाते जाईये। और साधु ऐसे होते हैं, उसी व्यक्ति का पर मेरे कहने सवाल जो घर में रहते हैं, यहाँ दो दिन से आ रहा का मतलब है, कि मैं गृहस्थी में रहते है तो शक्ति है, कि जो मुझे हूँ याने कि आप में कोई यहाँ खींच कर ला रही है। दूसरी बात तो यह है, न इससे भागना, कि हमने रामायण में पढ़ा है, कि जो जैसा करेगा न कुछ नहीं। उसको वैसा ही कर्म मिलेगा । पर यहाँ आकर के आप मुझ जैसे ही बाकी और लोगों को भी पार करा दे रही हो। अब इसका क्या मतलब है? श्रीमाताजी - बताती हूँ, इसका मतलब है, कि..... (श्रीमाताजी और अन्य सभी लोग हँसने लगते हैं) अब इन्होंने बहुत मज़ेदार बात कही है। मैं तो कभी सोचती ही नहीं हूँ कि क्या पाप किया है और कितना। जो माँ अपने | बच्चों का पाप नहीं उठा सकती ऐसी माँ को हम क्यों यहाँ बिठाये? कौन से ऐसे पाप हैं, कि जो आप कर सकते हैं और मैं न उठा सकूं? और आप भी कभी ये न सोचना कि तुमने कुछ पाप किया है। कौन पाप कर सकता है? देखो तो किसकी मजाल है। सारे पाप पी सकती है वही आप की माँ यहाँ बैठी हुई है। ये बात सही है। अपने अन्दर एक चक्र है, कि इसकी जागृति से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। वही आज्ञा चक्र है। इसकी जागृति से आपके सब सब पाप धुल सकते हैं। अब पाप गिनने का समय नहीं है। पुण्य गिनने का समय है। मैं तो तुम्हारे पुण्य ही गिन रही हूँ। बहुत प्यारी 7 बात कही है तुमने ! (प्रश्नकर्ता से कहती हैं श्रीमाताजी)। तुम राजा- बेटा हो। और किसी के सवाल हो तो पूछिये। सहजयोग कैसे करना है वो तो अभी मैं बताऊंगी आपको बाद में। अभी और कोई सवाल हो किसी का लीजिये। हाँ, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि ये सब बाते हैं। ये तो सोचती भी नहीं हूँ कि तुम कुछ पाप तो पूछ भी कर रहे हो कभी भी नहीं । हाँ लेकिन कुछ कुछ हैं राक्षस। उनके बारे में तो मैं कहती हूैं। तो लोग कहते हैं, कि उनके बारे में टीका न करूँ। लेकिन राक्षस तो हैं संसार में आये। बड़े-बड़े राक्षस आये। सोलह राक्षस तो आये हैं, मैं जानती हूँ अच्छे से और छः औरतें है राक्षसनी और वो आयी हैं गुरु बन कर, अच्छे से घूम रहे हैं। लेकिन तुम तो ऐसे नहीं हो! तुम राक्षस थोड़ी ही न हो। अच्छा और बोलो। प्रश्न - अस्पष्ट.... श्रीमाताजी - स्वधर्म का मतलब जो कृष्ण ने कहा है, इसका मतलब हिन्दू धर्म, मुसलमान धर्म नहीं है । 'स्व' माने स्व...... आप खुद संस्कृत जानते हैं...... स्व माने क्या? स्व माने हमारी आत्मा। शिवाजी महाराज कहा था कि 'स्व-धर्म जागवावा'। जो स्व का धर्म है उसे जागृत करना है। कृष्ण ने भी यही कहा है, कि | स्वधर्म को जागृत करो, दूसरे के धर्म पर मत जाओ, कि ये ऐसा है, वो वैसा है । अपने अन्दर का जो धर्म, दूसरा कौन है? दूसरा कोई नहीं है। हमारे लिए दूसरा कोई नहीं है। सब हमारे अंग-प्रत्यंग हैं। कोई दूसरा है ही नहीं । कौन है? दूसरा धर्म माने ये कि जिसमें आप 'स्व' नहीं है, वो दूसरा धर्म है। इसको गहनता से देखना दूसरा चाहिए । हम लोगों ने अपनी जो ये लगाये हुए हैं, कि मैं फलाना हूँ, ठिकाना हूँ। ये सब झूठे नाम हैं। इसका कोई भी अर्थ मेरे दिमाग में तो नहीं आता। अब अगर है या नहीं है, क्या फर्क पड़ेगा। बस स्वधर्म को जगाओ तो पता चलेगा कि आप 'सभी' हैं, आप एक नहीं हैं। और जो आप ने ये बात कही है कि आज कल के जमाने में ये बात | हो रही है क्योंकि अब जो है, अपनी स्थिति सहस्रार पर आ गयी है। और सहस्रार में सारी चीज़ की समग्रता आनी चाहिये। सहस्रार पर सब स्थिति जो है, वो समग्रता की है। माने, सब का जो अग्र है, जैसे कि एक सुई में अग्र होता है, उसमें से एक ही सूत्र... फिर कहे 'पाँचो, पचीसो पकड़ बुलाऊं, एक ही डोर बंधाऊँ' वो बात है कुछ किसी में फर्क नहीं हैं। सब परमात्मा के बनाये हुए हैं। एक परमात्मा के सिवाय और कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य ने ही ये सब बनाया हुआ है। और ये चीज़ जब मनुष्य ही जागेगा तो जानेगा कि हम सब तो एक ही हैं, दूसरा कौन है? सामूहिक चेतना जब तक जागृत नहीं होगी तब तक दूसरा बना रहेगा और जब जागृती हो जायेगी तो दूसरा कोई रहेगा ही नहीं। सब धर्म का मान होगा। सब बड़े -बड़े साधु संत का मान होगा। पुराने जमाने के जितने भी वेद आदि, जितने भी बड़े-बड़े ग्रंथ साहब आदि, बायबल, कुरान सब चीजों का अर्थ लगेगा। दृष्टि तो आने दीजिए। दृष्टि आये बिना कैसे लगेगा। एक ही राम है और एक ही रहीम है, सब में एक ही चीज़ है। ये बताने से नहीं होगा, ये तो देखने से होगा, तो देखियेगा कि यह चीज़ एक ही है। जिसे अंग्रेजी में कहते हैं अॅक्च्युअलाइझेशन। घटना है, वो होनी चाहिए। लेक्चर देने से नहीं होगी। 8. और तो नहीं कोई प्रश्न ? प्रश्न - माताजी, आपका नॉनवेजिटेरियन के बारे में क्या खयाल है? ..... अच्छा अब झगडे की तो बात नहीं है ना! फिर से झगड़ा नहीं खड़ा करना। तो माताजी - किसके बारे में? .. बताओ समझा के कि खाने-पीने में भगवान नहीं होता है । ये भी एक गलतफहमी, खाने पीने में। जैसे जैन लोग कहते हैं कि हम कृष्ण को भगवान नहीं मानते क्योंकि उनमें संहार शक्ति थी। पर अगर उनमें संहार शक्ति थी तो क्या वो संहार न करते! इन राक्षसों का क्या संहार नहीं करना चाहिये? इनके क्या गले में हार पहनाने चाहिये, इनकी आरती उतारनी चाहिये? तो संहार शक्ति भी बहुत जरूरी चीज़ है । और खाने-पीने से अगर भगवान बनते तो तो बस, जितने भी घास चरते हैं वो सब भगवान के पास पहुँच जाते। ये सब फालतू चीज़ में भगवान नहीं होता। भगवान को इतने निम्न स्तर पर नहीं लाना चाहिये। जिस देश में जरूरत होती है सामूहिक चेतना कि लोगों को इस तरह का खाना खाना है तो उस तरह से खायें लेकिन खाना कोई बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ नहीं। मैंने तो जब तक जागृत नहीं होगी देखा है कि एक से एक राक्षसी लोग जो कि सिर्फ तब तक दूसरा बना रहेंगा घास खाते रहते हैं और महाराक्षस होते हैं। उससे और जब जागृती हो जायेगी फर्क ये है कि किसी की कुछ फर्क नहीं पड़ता। तबियत ऐसी होती है कि उसको जरूरत है कि कोई रहेगा ही नहीं। तो दूसरा वो खाए कि जिससे उसकी कुछ ऐसा खाना सब धर्म का मान होगा । अनुभव हमें आयें हैं कि थे बिचारे। उनका ब्लड ताकद बनी रहे। ऐसे ऐसे सब बड़े-बड़े साधु संत थे बहुत बीमार एक साहब उनको बताया गया कि तुम प्रेशर इतना लो हो गया। का मान होगा। कुछ तो भी ऐसा सूप पिओ, क्योंकि ये पहले से डाइजेस्टेड सूप है। जिससे की तुम्हारी ताकद बने। उनकी अम्मा इतनी ज़्यादा अजीब तरह की वेजिटेरियन थी कि उन्होंने कहा कि, 'मेरे प्राण निकल जाएंगे लेकिन मैं नहीं करूंगी। मैंने कहा, 'तुम्हारे निकलने दो लेकिन बच्चे के क्यों निकाल रहे हो? उसकी तो बीबी भी है, बच्चे भी है, तुम्हारे निकल जाये तो कोई हर्ज नहीं। अब तो तुम बुढाई गयी हो।' तो खाने-पीने में हम लोग जो बहुत ज़्यादा व्यवस्था करते हैं, ऐसी कोई नहीं। सहजयोग में खाने-पीने के, पीना माने शराब बिल्कुल नहीं पीते लोग, नहीं तो चलेगा फिर, और सिगरेट भी नहीं पीते हैं क्योंकि दोनों चेतना के विरुद्ध में पड़ते हैं। लेकिन खाने के मामले में कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं। अगर आपको नहीं खाना हो तो नहीं खाओ, खाना हो तो खाओ। पर उस पर खाना खाना यही बात बहुत बड़ी थी। अब मुझसे अगर आप अभी पूछे कि आपने क्या खाना खाया? तो मुझे याद नहीं कि मैंने क्या खाना खाया। और कभी भी याद नहीं रहता क्योंकि खाना 9. कभी खाते ही नहीं हम हमारे ख्याल से। एक तरह की उदासीन भावना हो जाती है खाने की तरफ से। मिल गया तो अच्छा और नहीं मिला तो उससे भी अच्छा। जितना खाने की ओर हम विचार करते उतने ही हम निम्न होते जाते हैं। जैसे कि अब उपवास हैं। एक साहब का उपवास है। आज हनुमानजी के लिए ये उपवास कर रहे हैं। वो हनुमान जी आपके अन्दर आ कर बैठ गये। अब उन्होंने आकाश-पाताल एक कर डाला। तुमने आज ये नहीं लाया मेरे उपवास के लिए, सिंघाडे का आटा नहीं लाया, फलाना नहीं लाया। उसने सबका आटा बना डाला। घरभर में आफ़त हो गयी कि ये हनुमान जी जो हैं उपवास कर रहे हैं। हनुमान जी को उपवास करने की क्या ज़रूरत है? उनको तो बहुत काम करने के हैं। अगर वो उपवास करेंगे तो उनका काम कौन करेगा? इस तरह की विद्रूपता हमारे अन्दर बड़ी आ गयी है। उपवास करना, खाना नहीं खाना। खास बात पूछो तो मुझे तो बिल्कुल उपवास अच्छा नहीं लगता। किसी को मुझे सताना हो तो उपवास करो। नहीं तो उपवास ही नहीं करो। माँ को अगर सताना होता है तो बच्चे खाना नहीं खाते। पर इसका मतलब ये नहीं कि रात-दिन खाना ही खाना है करते बैठो, खाना खाना है, खाना खाना है। ये खाना है, वो खाना है। अपने हिन्दुस्थानी तो सिवाय खाने के और किसी बात को सोचते नहीं। और हमारे देश की औरतें भी ऐसी होशियार हैं कि उन्होंने आपको बेवकूफ़ बना कर रखा हुआ है । एक हमारे अंग्रेज कह रहे थे कि हिन्दुस्थानी बड़े कॉवर्ड होते हैं। मैंने कहा 'क्यों भाई ? मैंने तो सुना नहीं ये बात।' कहने लगे, 'बिल्कुल डरपोक होते हैं। वो इसलिये अपने बीबी से डिवोर्स नहीं लेते क्योंकि उनको खाना बनाना नहीं आता है।' (हँसी) ऐसे कहने के लिए तो अच्छे कुक होते हैं लेकिन बीबी के हाथ का खाना जो है वो और ही चीज़! वो खाने के लिए सब तरसते हैं और सीधे काम कर के सीधे घर। 'क्या हो भैय्या, आज क्या बनाया है?' हम लोगों की सबसी बड़ी जो है, जीभ जो है वो सबसे ज़्यादा प्रगल्भ है। सबसे ज़्यादा प्रगल्भ। माने ये कि हम क्या खाते हैं? क्या खाना चाहिये? जैसे कि अब बंगाल में लोग है, रोह- मच्छी खाते हैं। बताईये, आप समुद्र के किनारे रहते हैं खायेंगे रोह - मच्छी! और एक बार वहाँ मच्छी का अकाल पड़ गया तो बम्बई वालों ने उनको पॉम्फ्रेट भेजी तो सब की सब वापस कर दी सड़ा के सब। भूखे मरेंगे पर खायेंगे रोह , पर पॉम्फ्रेट नहीं खायेंगे। कौन कहेगा हमारा देश भूखों का देश है? जहाँ भूखों का देश होता वहाँ इतने नखरे खाने के नहीं होते! कोई नहीं कह सकता। जो मिलता है वो खाते हैं। वो जपान के लोगों की आँख जबरदस्त हैं। वो देखते हैं कि कोई रंग जरासा इधर-उधर हो गया तो उनके प्राण निकल गये कि 'ये ऐसे कैसे हो गया?' जरासा भी। अब में इत्ते दिन से देख रही हूँ रंग ऐसे भी चढ़ रहा है। अगर जपानी होता तो उसी वख्त उसके पहले रंग मारता। उसके लिए जीना मुश्किल हो जाता है कि अगर कोई रंग खराब हो गया तो। वो बदरंग पसंद ही नहीं करता। और रंग की भी संगत जिसको होनी चाहिये। जरासी भी 10 प्रॉब्लेम हो जाये तो वो बिल्कुल खबड़ा जाए। उसकी आँख तेज़ होती है। हमारी एक तो जीभ बोलने में भी और खाने में भी। इसलिये खाने-पीने का भी एक तमाशा बना रखा है। परमात्मा का खाने-पीने से कोई संबंध नहीं। वो तो खाना ही नहीं खाते। सच्ची बात वो खाना नहीं खाते। आप तो जानते हैं श्रीकृष्ण का किस्सा, की जब की साधु के पास उनकी पत्नियाँ गयीं तो नर्मदा जी चढायी थी। तो उन्होंने कहा कि , 'भाई नर्मदा चढ आयी हैं अब हम कैसे जायें?' उन्होंने कृष्ण से कहा कि, 'भाई प्रॉब्लेम हो गया, हम कैसे जायें?' उन्होंने कहा कि, 'कुछ नहीं, तुम जा कर के नदियों से कहो, कि अगर हमारे पति पूर्णतया योगेश्वर और बिल्कुल ब्रह्मचारी हैं, तो वो नदी नीचे उतर जायेगी।' तो उन्होंने जा के कहा। अब इनकी तो सोलह हजार बीबियाँ और पाँच ये बीबियाँ। सोलह हजार उनकी शक्तियाँ थीं और ये पाँच उनके पंचमहाभूत थे और इनकी शक्तियाँ थी ये पाँच। उसको कौन समझता है! सब कहे 'तुम्हारे कृष्ण की सोलह हजार बीबियाँ थीं ।' और उन्होंने कहा तो नदी किया। जब लौटे तो नदी नीचे उतर गयी। तो जब वो उस तरफ गये, उस साधु को खाना-वाना खिलाया, सब कुछ फिर चढ़ आयी| साधु से जा के कहा कि, 'भाई, हम जायें कैसे ? नदी फिर चढ़ आरीं । कुछ इलाज करो ।' तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, आयी कैसी ?' तो उन्होंने कहा कि, 'हमसे तो ऐसा कहा योगेश्वर ने और हमने पूछा तो बात हो 'तो कल तुम नदी से जाकर कहो कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया हो तो तुम नीचे हो जाओ।' तो उन्होंने कहा गयी। नीचे हो जाओ तो नदी नीचे हो गयी| तो पहले लेओ, सारा खाया और कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया तो तुम कहते हैं कुछ भी नहीं खाया। इसलिये सहजयोग में खाने-पीने की बेकार की बातें नहीं चलती और उपवास बहुत कम करते हैं। एक-दो दिन जरूर करना पड़ता है लेकिन, शायद साल में एक ही दिन, नरक चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं। उस दिन नर्क के द्वार खुलते हैं तो सुबह तक सोना और उपवास करना। मतलब उपवास होता ही है, सोये रहें तो फिर क्या होगा? उस दिन देर से उठते हैं, नहीं तो जल्दी उठते हैं। अपने आप उठते हैं। कोई जबरदस्ती नहीं। आप अपने आप उठ जाईयेगा सबेरे । और क्या? अब तो और कोई सवाल नहीं? प्रश्न - माताजी, आपका अॅस्ट्रॉलॉजी के बारे में क्या विचार है ? माताजी - मुझे आशा है कि आप वार्ताहर नहीं हैं। (अंग्रेजी में) 11 आत्मा का साक्षात्कार मुंबई, १३ दिसंबर १९७७ सहजयोग क्या चीज़ है ये आप में से अधिकतर लोग जानते हैं। बुद्धि से तो सभी लोग जानते हैं लेकिन अभी भी हम लोग समझ नहीं पाये हैं, कि इसका तादात्म्य हमारे साथ पूरी तरह से होता है कि नहीं। याने क्या हो गया, जब कि आपके हाथ में वाइब्रेशन्स आने लगे। ये क्या चीज़ है? बहुत बार मैंने आप से बताया है कि ये आत्मा का प्रकाश है। अब आत्मा बोलने लग गया। अभी तक आत्मा शांत था। उसकी कोई आवाज नहीं थी। वो कुछ बताता नहीं था। वो अन्दर स्थित आत्मा, साक्षिस्वरूप, सब कुछ देखता था, सारे अपने व्यवहार को देखता था। जागृति के बाद जब कुण्डलिनी सहस्रार से निकल गयी, तब आत्मा का साक्षात्कार हुआ। आत्मा का साक्षात्कार हुआ, माने क्या? आत्मा से बातचीत शुरू हुई। आत्मा बोलने लग गया। वो बोलता है वाइब्रेशन्स की वजह से। जब तक आपकी मोटर गाड़ी खड़ी है, जब तक उसके अन्दर हालचाल नहीं, तो सुनायी नहीं देता। जैसे मोटर शुरू हो जाती तो झकझकझक उस में आवाज आने लगती है। ऐसी सीधी बात है समझ लीजिये, कि आपके अन्दर जो आत्मा है, जो डायनमा है, वो चालू हो गया। वो चलने लगा। सत्य को आप सिर्फ आत्मा से जान सकते हैं। और परमात्मा को भी आत्मा से जान सकते हैं। सांसारिक चीज़ों को आप की दृष्टि से, आँख से, नाक से, कान से, सब से जान सकते हैं। लेकिन परमात्मा को जानने के लिये आत्मा की जागृति होनी चाहिये। उससे पहले परमात्मा से जो भी बात करे, वो सारी व्यर्थ है। क्योंकि उस पे विश्वास भी कर लेना एक अंधता हो जाती है। लोग सब कहते हैं, कि ये परमात्मा हो गये, वो हो गया, उन्होंने ये शुभ कार्य किये और संसार में अवतरण हुये हैं। ऐसी ऐसी बातें 12 विश्वसनीय नहीं होती। विशेषकर इस आधुनिक काल में, जब कि हम एक मशिन को बहुत बड़ी चीज़ समझते हैं | सायन्स को बहुत बड़ी चीज़ समझते हैं। जिस वक्त आपका आत्मा जागृत हो जाता है, तो एक नया सायन्स आत्मा का हो जाता है। अब इसके बारे में कितना भी पहले बोला जाये तो विश्वसनीय नहीं होता। आप इसे जान नहीं शुरू सकते, आप इसे देख नहीं सकते, इसको आप महसूस नहीं कर सकते। इसको आप फील नहीं कर सकते । उसके बारे में बोलना क्या? इसलिये कबीर ने उसे कहा है कि ये गूँगे का गुड़ है। पर तो भी उसकी .....(अस्पष्ट) ठीक से बैठ नहीं सकती। क्योंकि ये गूँगे का गुड़ ऐसा हुआ की जो आदमी गुड़ खाता है वो समझता है, वो आदमी गूँगे से ऊँचा माना जाता है। लेकिन ये ऐसा नहीं है। ये ऐसा है कि आपकी एक नयी चेतना, एक नयी चेतना की सूक्ष्म धारा आपके अन्दर बहने लग जाती है। जो आपके आत्मा से बह रही है। अभी तक आप किसी चीज़ को देखते हैं, उसमें भ्रम हो सकता है, कि जैसे ये चीज़ है, आपने कहा ये सफ़ेद साड़ी है। कोई कहेगा कि, 'हाँ, थी तो सफ़ेद, लेकिन हो सकता है कि इसी में कुछ दाग लगे हो । पक्की बात नहीं। कोई पक्की बात नहीं हो सकती है कि जब तक उसका जबाब आत्मा न दे। परमात्मा है या नहीं? कोई कहेगा कि, 'हाँ, भाई हमारा तो परमात्मा पे पूरा विश्वास है।' 'कैसे भाई ?' 'हम रास्ते से जा रहे थे। वहाँ सामने से कुछ गड़बड़ हो गयी। तो हमने परमात्मा से कहा, तुम हमें ठीक कर दो। इससे हमें बचा दो। हम बच गये। देखो, परमात्मा है या नहीं!' ये कोई विश्वास की बात नहीं हुई। ये इत्तफ़ाक हो सकता है, इन्सिडन्स हो सकता है। ये तो कोई विश्वास की बात नहीं हुई। 'हमें पैसे में घाटा आ गया। हम हनुमान जी के पास गये। उनको हमने सव्वा रुपया चढ़ाया| तो हमारा मुनाफ़ा हो गया। ये भी कोई परमात्मा का काम नहीं। ये भी कोई विश्वास की बात नहीं होती। या तो किसी से पूछो की 'क्या हुआ?' 'हम रास्ते से जा रहे थे। एकदम से उधर से एक आदमी आया। उसने हमें पहचान लिया और हमसे कहा कि देखो, हमने तुम्हारे मन की बात पहचान ली है। और तुम ऐसा ऐसा करो तो तुम्हारा ठीक हो जायेगा।' तीसरे ने कहा, 'हम बड़ी आफ़त में फँसे थें और किसी ज्योतिषी ने आ कर के हमें ऐसा बताया कि देखो, इसका ये ऐसा इलाज है। हमने कर दिया। हम ठीक हो गये।' ये सब परमात्मा के काम नहीं। और इस बात से अगर आप परमात्मा का कुछ अहवाल लेते हैं, परमात्मा के बारे में आप सोचते हैं, तो आप परमात्मा के साथ भी बड़ी ज्यादती कर रहे हैं। जो सर्वशक्तिमान परमात्मा है, उसको समझने के लिये पहले अपने शक्ति को जानना चाहिये। प्रचंड सूर्य की जिस के पास शक्ति है, उसे देखने के लिये पहले अपने अन्दर का आत्मा का सूर्य जागृत करना पड़ेगा। उसके बगैर आप उस शक्ति को नहीं जान सकते हैं और न ही आप उसको प्रसारित कर सकते हैं। उसका आप कन्व्हेयन्स नहीं हो सकता। वो महान, प्रचंड शक्ति है। जब मनुष्य उस चीज़ को झेलना चाहता है, जो इतनी प्रचंड है। उसको ये भी सोचना चाहिये कि, 'मेरी शक्ति जागृत हो गयी है या नहीं?' फिर ये भी बात होती है, कि हम सोचते हैं कि 'उसे हम जागृत कर लेंगे। हम परमात्मा को पा लेंगे।' आप परमात्मा को नहीं पा सकते। परमात्मा आपको पाते हैं। ये तो ऐसा ही होता है कि एक समुद्र कहें कि मैं सागर को पा लँ। सागर ही आप पे ढरेगा और वही आपको पायेगा। सिर्फ आप अपने को इस योग्य बनाईये कि वो आपको पायें। से बड़ा प्रश्न मनुष्य के सामने ये है, कि आत्मा की जागृति कैसे हो? आत्मा कैसे जागृत हो? जिससे ये सब 13 सब जाना जायेगा। वो प्रश्न तो अब सहजयोग से छूट गया। सहजयोग से आपकी आत्मा की जागृति हो जाती है। उसके विचार से नहीं होगा। कोई कहें, कि 'हमने तो इतने पुस्तक पढ़े हैं।' पुस्तक पढ़ने से नहीं होगा। 'हमने इतने विचार किये हैं और माताजी हम तो इतने विचार करते हैं । और क्यों नहीं हमारा हुआ?' बेटे, विचार से कोई चीज़ आप पा नहीं सकते। मनुष्य का विचार सीमित है। हम तो असीम की बात करते हैं। असीम में जाने के लिये आपको जो अपने अन्दर असीम का स्रोत है, आत्मा, उसे पाना होगा। ऑख से, नाक से, मुँह से, हाथ से, बुद्धि से या किसी भी चीज़ से, आप परमात्मा को नहीं जान सकते हैं। आत्मा से ही जान सकते हैं और तभी आप उससे संतोष पा सकते हैं। और सहजयोग का संतोष भी आत्मा का संतोष है । ये दूसरी बात है, जिसे हमें जानना चाहिये। इसका ये संतोष नहीं, कि हमारा शरीर ठीक हो जायें । हो जाते हैं, ये दूसरी बात। आपकी सब की तंदरुस्ती अच्छी हो गयी। आपकी विषय भावना टूट गयी। बहुत कुछ अच्छा हो गया। भला हुआ। सब कुछ है। वो तो यूँ ही वरदान स्वरूप। लेकिन संतोष और आनन्द जो आत्मा का है, वो आत्मा से ही होता है। आत्मा ही आत्मा से सतोष पाता है। जब तक आपका आत्मा जागृत नहीं है, आप दूसरे जागृत आत्मा का आनन्द उठा ही नहीं सकते। विचारों से जो कुछ भी आनन्द होता है, जिसे लोग आनन्द समझते हैं, वो आनन्द नहीं है । वो सुख की भावना है, क्षणिक। आनन्द जो है वो दुसरी चीज़ है। आनन्द ना तो सुख, ना तो दुःख। बीच में एक अत्यंत शांत चित्त। न तो वो भावना है, न तो वो विचार है। क्योंकि जब आप विचारों से ही परे हैं, तब आपके अन्दर जो बहता है। अन्दर १ ऐसा एक स्रोत सा बहता है। सारे शरीर, सारे ही मन, बुद्धि अहंकार आदि सब को पुलकित कर देता है। वो एक आनन्द है। और वो चीज़, उसके बारे में जो बात करें, वो किस तरह से आप समझ सकते हैं, जब तक आपके अन्दर वो चीज़ बही नहीं, जब तक आपने आनन्द का अनुभव नहीं लिया, सिर्फ बातचीत से कैसे समझायें आपको? उस आनन्द को अन्दर आकलन करने के लिये, अन्दर उसको महसूस करने के लिये आपके अन्दर जो आत्मा की ज्योत है, वो जब तक नहीं जलेगी, आप उसके प्रति बिल्कुल ही अनभिज्ञ रहेंगे। उसको आप जान नहीं सकते। चाहे आप उसके बारे में कुछ सोच लें, समझ लें, मन का संतोष कर लें, लेकिन वो झूठ है। सच नहीं है। सहजयोग से आपकी आत्मा जागृत हो जाती है। अब दूसरी स्टेज शुरू हो जाती है, कि आत्मा का प्रकाश और हमारा अंधियारा । जब वो प्रकाश बढ़ने लग जाता है, तो लोग देखते हैं कि अड़ोस-पड़ोस में अंधियारा है। चारों तरफ अंधियारा हैं। ये अंधियारा जो है, ये आत्मा के प्रकाश को दबायेगा। आत्मा की ओर चित्त करें। अनेक इनके तरीके हैं, कि अंधियारे से दूर हो जायें। जब इस कमरे में अंधियारा था, तो हम लोग सोचते थे कि अंधियारा ही सत्य है। उसी को सत्य समझे थे, अंधियारा है। उससे डर के, हाथ पकड़ पकड़ के अन्दर आ रहे थे| जब यहाँ रोशनी हो गयी तो समझ लिया कि अंधियारा जो था वो मिथ्या है। वो सब मिथ्या है। जब प्रकाश हो जाता है, तब ये सारी संसार की बातें मिथ्या लगने लगती हैं। अँधेरे में लोग देखते हैं, कि यहाँ भूत हैं, यहाँ राक्षस हैं, यहाँ प्रेत हैं, यहाँ पर ये हैं। जब प्रकाश हो जाता है, तब परमात्मा के सिवाय और कोई चीज़ दिखायी नहीं देती। सिवाय ब्रह्म के सिवाय । ब्रह्म माने यही, 14 जो आपके अन्दर से बह रहा है यही ब्रह्म की सत्ता है। ये सत्ता है परमात्मा की, जो बह रही है आपके अन्दर से। यही सत्ता सारे कार्य को करती है। और कोई भी कार्य मनुष्य नहीं करता। ये सत्य है। किंतु कहने मात्र से कि, मेरा परम विश्वास परमात्मा पे हैं, ऐसे करने से कुछ भी नहीं होने वाला। अपने को झूठ में नहीं रखना है। अपने को झुठलाना नहीं चाहिये। अपने साथ कोई भी दगा करना किस काम का होगा? हम बड़े साधु हो गये, ऐसे कहने से भी क्या मिलने वाला है? अरे, जो असली है, उसको पाने से ही असली मिलने वाला है ना ! नकली चीज़ में आपको भी संतोष होने वाला है? इसलिये सहजयोग में आप काफ़ी प्रगती करते हैं, इसमें कोई शक नहीं। ये लड़कियाँ आयी मेरे साथ ये लोग पार पैदा हुई हैं न! आत्मा का प्रकाश है ही इनके अन्दर। अपने मज़े में हैं। और जिसने जिसने ये पाया था, उसने आत्मा की बात करी। परमात्मा की बात करी। किसी को उनको समझा नहीं। उनको पत्थरों से मारा, उनको क्रूस पे लटका दिया, उनको जहर दिया, उनको बहुत सताया। आपको भी थोड़ी तकलीफ़ तो होनी ही चाहिये । नहीं तो आप समझियेगा क्या? लेकिन आत्मा का जो आनन्द है, जब आदमी उसको उठाने लग जाता है, जैसे कि दानत है आदमी की। आत्मा है। देता है, दे दिया। ले, लूट, कितना चाहिये लें। भर तेरे अन्दर। कितना चाहिये? जितना लूटोगे उतना ही आनन्द आयेगा । कंजूस आदमी है। वो अपनी कंजूसी का बहुत मज़ा उठाता है। कंजूसी का। 'ये मैंने पैसा बचा लिया। वहाँ मैंने पैसा बचा लिया।' कोई मारने-धाडने वाला आदमी, वो सोचता है, 'चल, इसका इतना पैसा मार लिया ।' जो आदमी कंजूसी को सोचता है, कि भाई, मैं बड़ा भारी। मैंने ये काम कर लिया। कोई दुर्गुणी ही होता है समझ लीजिये। औरतों का भी बड़ा शौक है। वो कहता है कि, चलो, इस औरत को भी फँसा लिया। उसको भी फँसा लिया। इससे भी पैसा मार लिया। उससे भी पैसा मार लिया। इसको भी ठिकाना। उसको वो एन्जॉय करता है। देखिये आप संसार में। ये भी कोई एन्जॉय करने की चीज़ है? कितना क्षणिक है सब! मैंने ये जीत लिया। मैंने उसको पटक दिया। मैंने उसको मार लिया । अब दूसरी चीज़़ देखिये । एन्जॉय करने की कि, 'मैंने ये दे दिया। गया, जाने दो।' इसको कहते है कि जनरॉसिटी का एन्जॉयमेंट। हर दिन। लेने का नहीं देने का। ये आत्मा से होता है। इससे उल्टी सब चीजें हैं। देने का एन्जॉयमेंट लो। प्यार का एन्जॉयमेंट लो, कि मैंने इसे प्यार किया। मैंने उसे प्यार दिया। प्यार का एन्जॉयमेंट लो। अपना माहात्म्य बहुत लोगों को हैं। 'मैं, में, अहाहा, मुझे ये है। में।' जहाँ मैं कि जगह आ जायेगी, 'तू है। तू।' उसका मज़ा उठाओ। क्या होता है? झुकते चले जाता है आदमी। अहाहा! क्या मज़ा आता है झुकने में भी और इस घुलने में भी ये आत्मा की आनन्द है। इसको जोड़िये। छोटे छोटे अनेक ऐसे आत्मा के आनन्द हैं। इन आत्मा के आनन्द को हम जोड़ना नहीं जानते क्योंकि हमारे अन्दर आत्मा जागृत ही नहीं है। लेकिन आत्मा जागृत होने पर भी अगर हम उसे जोड़ नहीं पाये, तो हमें लोग क्या कहेंगे? हम क्या जोड़ रहे हैं? सहजयोग में बहुत से लोग यहाँ छह, छह- सात, सात साल से आ हैं। छह, छह- सात, सात साल से आ रहे हैं। क्या जोड़ा है आत्मा का आनन्द? अभी हम लंदन में, बहत बड़े प्रोग्राम हये और काफ़ी लोग वहाँ आ गये। लेकिन हमें, वहाँ एक साहब हैं वो बहुत हमारी मदद करते हैं। उनकी एक बात बहुत अच्छी लगी। बहुत रुचिकर लगी। रात का वक्त था। बहुत देर हो गयी। उसके घर में इतनी जगह भी नहीं थी। बहुत भीड़ भरी हुई थी। सब लोग बैठे थे। मैंने कहा, 'अच्छा, चलो, अब 15 जायेंगे घर।' और मैं ऊपर चली गयी। मैंने सोचा सब लोग चले गयें । दूसरे दिन जरासे वो मुरझाये हये थे। मैंने कहा, 'क्या हो गया ?' कहने लगे, 'माँ, मैंने सब के लिये खाना बना के रखा था। आपने सब को खाना क्यों नहीं दिया?' मेरी तबियत खुश हो गयी। इतनी तबियत खुश हो गयी कि पूछिये नहीं! कुछ उन्होंने तौला नहीं। कुछ उन्होंने सोचा नहीं। रुपया कितना खर्च होगा क्या नहीं? बड़ा तौल कर के, समझ के हम लोग संतों की सेवा करते हैं। बहुत सोच समझ के और भगवान भी सोच-समझ के आपकी सेवा करेगा। जब संतों की सेवा करनी है बड़ी सोच-समझ के और शराबियों की करनी है तो बहुत। जब आत्मा में आप लीन हो गये, जब आत्मा के आनन्द को आपको तौलना है, तो संतों की सेवा में लगो। संतों को पहचानिये। जो भक्तजन हैं, उनकी सेवा करिये और जो अभक्त हैं उनसे भागिये। उनसे आपका कोई लेना देना नहीं। उनसे आपको कोई मतलब नहीं दूर है। क्योंकि अभी भी आप जड़ है। जड़ता से आप सब चीज़ जोड़ते हैं। आप ये सोचते हैं कि इनसे हमारी रिश्तेदारी है। इनसे हमारा पैसा है। इनसे हमारा बिज़़नेस है। इनसे ये है। इसलिये इनके लिये तो हमें खूब करना चाहिये और जो संतजन हैं उनके लिये हमें नहीं करना चाहिये । कोई गरीब आदमी है, चला आ रहा है । उसकी अगर आपको सेवा करनी है, तो कोई इसलिये थोड़े ही करनी है कि वो गरीब है। इसलिये करनी है, कि वो हमारे अन्दर है। हम भी गरीब हैं । अब हमने सोचा कि नहीं साहब, इसकी हम सेवा कर रहे हैं। हमने गरीबों की सेवा करी। ऐसे लोगों को परमात्मा कभी नहीं मिल सकता। आप कौन होते हैं, किसी की सेवा करने वाले! बड़ा भारी अहंकार है मनुष्य में । वो सोचता है, इसकी सेवा कर रहा हूँ। उसकी सेवा कर रहा हूँ। सेवा तो ऐसी चीज़ है, बहती ही है। आनन्द है उसका आनन्द से वो बहती रहती है। इसका कितना आनन्द है, मैं आपसे क्या बताऊँ! मेरे अन्दर से सारी भावनायें हर समय, हर पल बहती थी। और जब मैं देखती हूँ कि आप लोग उससे वंचित हैं, तो बड़ा दुःख लगता है मुझे। मैं सोचती हूँ कि ये किस तरह से आनन्द की लहरें आपके अन्दर से बहना शुरू होगी? दो भाई , करो भाई । देते रहो । उसका भी कभी कोई जोड़ होता है। लेते वक्त तो हम जोड़ते नहीं। देते वक्त हम इतना क्यों जोड़ते बैठते हैं। बहुत से लोग ये भी कहते हैं कि 'माताजी, आप तो कुछ देखती नहीं। सब को ही देती रहती हैं।' बड़े बड़े साधु-संतों ने मुझ से कहा । मुझे आती है उनकी हँसी, कि कहने को तो साधुसंत हैं और जोड़ किस का बिठा रहे हैं? हिसाब- किताब नहीं आता साधु-संतों को। हम लोग भी अपने जीवन को उस तरह से बनायें, जिसके लिये आपने आपको चुना है और उसका वरण किया है। आपने चुना है कि आप परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे। आपने चुना है। मैंने कोई आप पे जबरदस्ती नहीं की। आप स्वयं ही इसमें आये हैं। आपने स्वयं ही इसे पाया और आप ही परमात्मा के राज्य में बैठ गये। उसके नागरिक हो गये। इस नये राज्य में बैठने के बाद आपको खुद ही उसका वरण करना चाहिये, जिसके लिये आप आये हैं यहाँ और जिस चीज़ को आप पाना चाहते हैं। लेकिन इस बार जब मैं लंडन से आयी, तो आप लोगों के चेहरे देख कर के, बड़ी खुशी हुई मुझे। जैसे कोई गुलाब फुल गये हो। जैसे सब के अन्दर से सुगन्ध बह रही हो। कोई माली इस तरह से देखता है अपने बाग 16 को, तो किस तरह से खुश होता है, इसी तरह से मैं बहुत खुश हूँ। ऐसे ही हर जगह हमें बाग खिलानी है। और हर इन्सान के जीवन में ये भरना है। अब ये बात है कि सहजयोग बहुत जोर से नहीं बढ़ सकता। उसका कारण है क्योंकि ये सत्य है। मनुष्य सत्य बहुत आसानी से नहीं लेता है। नाटक हो, कोई दंगलबाजी हो, शोबाजी हो उसमें, कोई झुठी बातों का आवरण हो तो मनुष्य फट् से उसे ले लेता है। और नहीं तो बुद्धि का चक्कर चले उसे मनुष्य फट् से ले लेता है। उसको कठिनाई नहीं जाती। लेकिन सत्य उसे लेना बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि वो असत्य के साथ ही सारी जिदगी रहता है और वो चाहता तो सत्य ही है। लेकिन जब आ कर सत्य सामने खड़ा हो जाता है घबराता है वो। तो भी ये सोचना चाहिये कि आज जितने सहजयोगी संसार में हैं कभी भी नहीं थे। आप लोग सब एक भाषा बोलते हैं। चाहे आप इंडिया में हो, चाहे आप इंग्लंड में हो, चाहे आप अमेरिका में हो, फिनलंड में हो, जर्मनी में हो, हर जगह अब पार हो गये हैं लोग। बहुत लोग पार हो गये हैं। हर एक देश में खड़े हैं। सब वाइब्रेशन्स समझ रहे हैं। सब स्वाधिष्ठान चक्र वरगैरा संस्कृत में बोले जा रहे हैं। सब लोग आप की भाषा बोल रहे हैं। आप भी उनकी भाषा बोल रहे हैं। इसमें न तो रेज कम्युनिटी वगैरा ये जो मनुष्य की बनाई गयी रेषा है ये कुछ नहीं चलती। परमात्मा की बनायी ह्यी रेषा है, कि, 'भाई, तुम्हारा स्वाधिष्ठान पकड़ा है।' चाहे तुम अंग्रेज हो, चाहे तुम मुसलमान हो, चाहे तुम ईसाई हो, चाहे तुम कहीं भी रहो। इसका उससे कोई संबंध नहीं । कुण्डलिनी जरूर बता देगी जो चीज़ है। असलियत में जो इन्सान आप हैं वो बता देगी। सत्य है और सत्य के दश्मन भी हजारों में हैं। आश्चर्य है। लेकिन आप ने जब जान लिया है सत्य तो उसको चिपक जाना चाहिये । इसको मैं ट्ूसीकर्स कहती हूैँ, जो चिपक जाता है इसे 'हाँ, यही सत्य मिल गया,' यही बात मुझे लंडन में मिली। लंडन में मैं बड़ी हूँ .....(अस्पष्ट) इस बात से, कि लंडन के जो सहजयोगी हैं एक तो बड़े विद्वान, पढ़े-लिखे, सब उन्होंने कुण्डलिनी वगैरा क्योंकि वो लोग पहले से ही खोज में हैं। सीकर्स हैं बहुत मैं बड़े, जबरदस्त सीकर्स। इतने जबरदस्त, आपसे बता नहीं सकती। और उस सीकिंग में उनका ये हाल है। कि वो उस हालत में पहुँच गये हैं, कन्क्ल्यूजन्स में पहुँच गये हैं, कि ये नहीं हो सकता सत्य। ये हो नहीं सकता है। ये गुरु है, ये नहीं हो सकता सत्य। झूठा है। ये भी नहीं हो सकता सत्य। ये भी नहीं हो सकता है। 'नेति, नेति वचने, निगमा...'। ये नहीं है। ये भी सत्य नहीं है। ये भी नहीं। आप पहुँचे कि सत्य क्या होना चाहिये। और जैसे ही पा लिया खट् से ऊपर गया। आप हैरान होगे, कि यहाँ, हम महेश योगी वरगैरा के शिष्यों को जागृति नहीं दे सकते थे | उनकी कुण्डलिनी ऐसी बिल्कुल लुप्त हो गयी लोगों की। एक को दी थी सारे इतने में। आपको याद होगा, वो भी बेचारे पचास मर्तबा में, जिसको मराठी में कहते हैं कि 'कोलांट्या मारतो ।' पचासो मर्तबा उनकी दशा खराब होती है और पचासो मर्तबा फिर आते हैं और कुण्डलिनी फिर जमा है और इन लोगों ने धो धा कर के खटाक् खटाक् । दस -दस साल उस महेश योगी के पीछे में रहे हुये लोग। देखे होगे की कुण्डलिनी सात , हो गयी खुला हुआ है। एकदम तबियत खुश सहस्रार एकदम मेरी। मैंने कहा कि कहाँ से आ गये मेरे बच्चे! एकदम खोल खाल के काम। पर उनको पैसे की कोई अब नहीं रह गयी। हो गया बहुत। हमारे माँ-बाप ने ये सब गंदगी उठाई है। हमको नहीं चाहिये। उस को छोड़ छाड़ के लगे हुये हैं और जब उन्होंने पा लिया, एक से एक, मैं हैरान हो गयी हूँ। ऐसे पढ़े लिखे विद्वान, आश्चर्य लगता है। आप मिलेंगे उनसे तो तबियत आपकी खुश हो जायेगी। और सब के सब खड़े। मेरी भी तबियत भरती है कि देखो, मेरे बच्चे खड़े हुये हैं एक 17 से एक। मुझे क्या डर है? ऐसे ही आप लोगों को होना चाहिये। क्योंकि आप के पास एक बड़ी संपदा है, वो ये है कि आप इस योगभूमी में पैदा हुये हैं। बड़ी भारी योगभूमी है आपकी। मैं अभी जब लंडन से आ रही थी। नज़दीक आते ही मैंने इनसे कह दिया कि, 'इंडिया का लग गया राजपाठ। इंडिया का किनारा लग गया।' उन्होंने कहा, 'कैसे जाना? मैंने कहा , 'आप तो देख नहीं सकते नीचे देखिये सारे वाइब्रेशन्स खड्खड्खड् ।' सारे अॅटमॉस्फिअर में वाइब्रेशन्स। पृथ्वी से ऐसे चले आ रहे हैं ऊपर। ऐसे चारों तरफ़ फेंक रहे हैं। मैंने कहा, 'ये है मेरी भारतभूमि । लेकिन क्या दशा कर के रखिये सब ने ! देखिये , पैसे के पीछे भाग रहे हैं। सत्ता के पीछे में भाग रहे हैं। शर्म आनी इस योगभूमि में कब परमात्मा की बात करेंगे? अभी यहाँ पे .... (अस्पष्ट) बनाओ, यहाँ पे गन्दी गन्दी चीज़ें बनाये जिस नर्क में वो लोग पल रहे हैं और जिस नर्क से वो लोग भागना चाहते हैं, वो नर्क यहाँ बनाने के पीछे में जवान लोग लगे हये हैं। मूर्ख कहीं के। वो लोग कहाँ से हमारी बातें सुनने वाले हैं। इस योगभूमि में जो चाहिये ! लोग पैदा हये हैं, उसकी संपदा को आप इस्तेमाल करें। उसका उपयोग करें। सारी पूँजी आपके पास में हैं। अपनी पृथ्वी इतनी बड़ी जबरदस्त हैं, लेकिन उस में पृथ्वी की सारी कुण्डलिनी जो है, वो इस धरती में हैं जहाँ आप खड़े हैं। इस पे जरा सा भी पैर रखने के साथ ऐसा लगता है, धकधकधक खींची चली जा रही है माँ और ऊपर में फेंक दे रही है। हर समय उसकी वंदना करें और ये समझना चाहिये, कि भारतीय के लिये विशेष रूप से, विशेष रूप से, एक प्रतिष्ठित होना चाहिये। क्योंकि इसके देश की एक प्रतिष्ठा है। हम लोगों का जो पैसे का और सत्ता का जो एक मूर्खता जैसे एक वातावरण चारों तरफ फैला हुआ है। मारे शर्म के मुझे लगता है कि इसी पृथ्वी में समा जाना चाहिये। सहजयोगियों को चाहिये कि अपनी प्रतिष्ठा में खड़े हो । स्वयंप्रतिष्ठित हो। अपनी इज्जत में खड़े हो । क्योंकि आप भारतीय हैं और सहजयोगी हैं। आपके लिये इस कदर इन लोगों को इज्जत है लंडन में। हमारे सहजयोगी जो लंडन के हैं कि वो सोचते हैं कि कोई सहजयोगी इंडिया से आ जायेगा, एक भी आ जायें तो माताजी हम लोग सब ठीक हो जायेंगे। मारे डर के मैं किसी को नहीं बुला रही हूँ। जैसे ही देखेंगे, तो कहेंगे कि, हे भगवान्! वहाँ आते ही बिज़़नेस शुरू कर देंगे । नहीं तो किसी का हाथ देखेंगे, कि लाओ, चलो पाँच रुपया। उनमें इतनी इज्जत है आप लोगों के लिये। आपको पता है। और हो सकता है कि एकाध साल बाद हम यहाँ पर इंटरनैशनल सेमिनार करेंगे। तब तक मैं चाहती हूँ कि एक साल लगा दीजिये सहजयोग में, पूरी तरह से। सबेरे उठ के ध्यान करना। देखिये वो लोग सबेरे चार बजे उठते हैं। नहा-धो कर के, सफ़ाई कर के वो लोग ध्यान में बैठते हैं। और मेहनत करते हैं खूब। शाम को जल्दी सो | जायेंगे। टी.वी. वगैरा देखते नहीं। हमको नहीं देखना है टी. वी. | कुछ सब बंद। सिनेमा बंद। सब बंद। कहते हैं कि, 'क्या करें? औरतों की तरफ़ हमारी नज़र जाती है।' कोई लड़कियाँ कहती हैं आदमिओं की तरफ़ में। मैंने कहा, 'अच्छा। पृथ्वी की तरफ़ दृष्टि रखो। तो पृथ्वी की तरफ़ ही दृष्टि रख के चलते हैं। और अपने अगर यंग लड़कों को ऐसी बात कहे, तो यहाँ मूर्खों को कभी समझ में आयेगी ये बात। ये तो सोचते हैं कि बसू सिनेमा के 18 हिरो बन कर घूम रहे हैं। अरे, क्या जिंदगी भर यही करने का है ? और वो लोग हैं कि आप लोगों को इतना मानते हैं। ये सोचने की बात है। देखिये, कैसा भ्रम है संसार में। अगले साल तक मैं चाहती हूँ कि लगा दें अपने को दाँव पर। हम भी | आपके साथ हैं हर समय । हर आदमी के प्रति हम जागृत हैं। देखिये आप लोग भी अपने को दाँव पे लगाईये। अपनी पर्सनल बातों से हट कर के, और आनन्द पे उतरें। तब काम बनेगा। जब तक ये नहीं होगा तब तक सहजयोग का झंडा नहीं फैल सकता है। मेरी वजह से तो कुछ होने नहीं वाला। मैं तो अनेक बार संसार में आ गयी हूँ। अनेक बार मैंने धंधे किये हैं। कुछ फायदा नहीं हुआ। अब तो आप ही लोग हैं। करना है, सो करिये। मैं तो आपके पीछे में हूँ। हर समय, हर समय। और इतने दिनों बाद आप से मिली हूँ। बड़ी खुशी हुई मुझे। बहुत खुशी हुई है। एक साल बाद में चाहती हूँ कि आऊँ तो मेरे सहजयोगी एक से एक, एक एक आदमी एक हीरे जैसा चमकने लगे। अपने को थोड़ा काटना पड़ता है ना! हीरे को थोड़ा सा देखना पड़ता है। चलो, भाई, यहाँ पर थोड़ा गड़बड़ कर रहे हो तो चलो उधर। थोड़ा कटते चलो। फिर चमक निकलती है अन्दर से। थोड़ा सा काटना पड़ता है। प्रेम से ही अपने को थोड़ा सा, अच्छा इधर चल रहे हैं, जरा चलिये, चलिये, चलिये । कटते जायेगा। कटते कटते ऐसी सुन्दर चीज़ तैय्यार होनी चाहिये कि संसार देखें कि ये कोई चीज़ भी है! कोई विशेष बात भी है ये ! कोई पता नहीं, ये अजीब आदमी है। ऐसा हआ है। | अभी कोई साहब बता रहे थे, कि एक विशेष आदमी किसी को मिला। दिल्ली वाले अभी आये थे । बता रहे थे। तो उन्होंने हमसे कहा कि, 'हमने देखा कि ये आदमी, उसके मुँह पे बहुत चमक है।' मुझे तो उसकी याद भी नहीं। तो उन्होंने कहा कि, 'भाई, तुम इतने चमत्कारपूर्ण कैसे हो ? तुम्हारे अन्दर ये क्या विशेषता है?' उन्होंने कहा, 'आपको मालूम नहीं, माताजी ने मुझे रियलाइजेशन दिया है। मैं सहजयोगी हूँ।' 'अच्छा!' ये भी सहजयोगी ही थे । 'पर कहाँ?' 'मैं दिल्ली गया था। वहाँ पाया। तब से दर्शन नहीं हुये माताजी के।' सारे समाज में उनका नाम है। और सब से बताते हैं कि, 'मैं सहजयोगी हूँ। आपको पता है, मुझे माताजी ने आत्मदर्शन दिये हैं। और वो कार्यान्वित है।' ये भी सुन सुन के बड़ी खुशी होती है मुझे। कहीं गये तो सुनाई देती है बात । लेकिन थोड़ा सा माँ का कहना भी सुनना चाहिये। थोड़ा सुनने से कोई बुरा नहीं होता। अच्छे के लिये बताती हैँ। अभी सब लोग कह रहे हैं, कि अच्छा बताईये कि हिन्दुस्तान में इतना बड़ा साइक्लोन का हैवॉक क्यों हो गया ? आप अगर मेरा टेप देखिये। मैं गयी थी गुंटूर। मोदी से पूछिये ये भी गये थे। वहाँ सब से मैंने कहा, 'यहाँ ये तम्बाखु के आप पेड़ लगा रहे हैं, सारे गाँव भर में, सारे एरिया में आपने तम्बाखु लगा के रखा है और कोई आप चीज़ नहीं लगाते हैं। एक दिन यहाँ एक बार चंद्र, सूर्य माफ़ कर देंगे लेकिन ये समुद्र आपको खायेगा। आप सुन लीजिये। हैवॉक हो जायेगा।' ये वर्ड मैंने वहाँ कहा था। मैंने कहा, ये बंद करिये आप। ये बहुत बड़ा अनर्थ कर रहे हैं। और दूसरा मैंने उनसे ये कहा था, कि यहाँ पर ये जो आप काली विद्या कर रहे हैं । गरीब लोग वहाँ सब काली विद्या करते हैं। बड़ी काली विद्या वहाँ चलती थी। और वहाँ पर इस कदर पैसा तम्बाखु की वजह से हो गया था, कि लोगों का दिमाग़ खराब हो गया। और वहाँ गन्दे गन्दे गुरु पाल रखे थे । गन्दी गन्दी औरतों को उन्होंने गुरु माना हआ था। मैंने कहा, 'इस देश में हैवॉक हो जायेगा आप इसे छोड़िये।' तो सब मुझ से नाराज़ हो गये। किसी ने मुझे चिठ्ठी तक नहीं लिखी थी। 19 हजारों आये थे। और आज देखिये वही हो गयी बात। जो मैंने पहले कहा था। वॉर्निंग बहत दी थी मैंने। मैंने कहा कि ये समुद्र तुम्हें खायेगा। तो सब लोगों को बड़ा बुरा लग गया कि माताजी तो हमारे इंडस्ट्रीज पे ही उठ आयी| और वैसे भी उनका एक्स्पोर्ट ही बंद हो गया यू.के में। ये भी आप सुन लीजिये। बिल्कुल टोटल बंद कर दिये। आपको पता होगा कि यू.के. में अब तम्बाखु लोग नहीं लेते हैं अपने देश से। खत्म कर दिया। जो राक्षसीण है, अगर वो पैसा भी देती है तो उसको अपने सर पे रखना चाहिये? कोई अगर वेश्या हो कर पैसा कमा सकती है, तो क्या वो (अस्पष्ट)। पैसा ही सब कुछ हो गया। तो लीजिये पैसा! इसी प्रकार अनेक बातें हैं। हालांकि इस में परमेश्वर नाराज नहीं होता है। परमेश्वर का गुस्सा नहीं है। मैंने कल भी इन लोगों को समझाया । परमेश्वर आप पे नाराज नहीं होता। आप ही परमेश्वर से भागते हैं। उसकी छत्रछाया से आप निकल जाते हैं। आपके जो देवता है अन्दर में, आप जानते हैं, हर एक चक्र पे देवता है। वो सो जाते हैं। और आप परमेश्वर के राज्य से चले गये। आपके ऊपर उसका प्रोटेक्शन ही खत्म हो गया। और आप खत्म हो गये। उसमें परमात्मा का क्या दोष है। आप ही ने वरण किया नुकसानी का। जब आप नुकसान को वरण करते हैं, आप नुकसान पाते हैं। इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं। दोष आपका है, कि आपने परमात्मा को छोड़ कर के नुकसान का वरण किया है। आज टाइम बहुत हो गया| मेरी आज बड़ी परीक्षा ही हो गयी । आज मेरी बड़ी परीक्षा हो गयी, कि आज मैं बहुत जाना चाह रही थी कि सब से मिल जाऊँ। सब को जल्दी से आ जाऊँ और जल्दी से करूँ। और मोदी साहब की भी गाड़ी फेल हो गयी। आप लोग भी यहाँ ठहरे रहे और सब की परीक्षा बड़ी अच्छी हो गयी। पर उसमें मज़ा भी आ गया। थोड़े से रुकने के बाद, विरह के बाद जब मिलन होता हैं न, तो उसमें थोड़ा चमत्कार हो जाता है। कुछ कविता सी हो जाती है, कि हम इंतजार करते रहे कि उसके बाद माताजी आयी तो किस तरह से हम प्रफुल्लित हो गये। क्योंकि इंतजार में आप की जो है, गहराई बढ़ती है । उस गहराई के कारण आप भर ले सकते हैं। जब तक मैं हिन्दुस्तान में हूँ और जब तक मैं बम्बई में हँ, आप लोग हर एक प्रोग्राम में आईये। हालांकि आप जानते हैं कि मैं छुट्टिओं में पति के साथ आयी हूँ। और वो कह रहे थे कि जिंदगी में हमने एक ही छुट्टी लीं, तो उसमें भी तुम हमारे साथ नहीं रहती हो । संसार भी मैं चला रही हूँ। और ये छोटा सा संसार भी मैं चला रही हूँ। क्योंकि मैं चाहती हूँ कि आप लोग भी अपना संसार न छोड़ें। उसी में इसका भी बना हुआ है, अवगुंठन। लेकिन जब तक में यहाँ पर हूँ, और जब भी प्रोग्राम हो आप लोग जरूर आयें और मैं जरूर आऊंगी । दूसरी बात ये है कि बेकार के लोग संसार में भी ऐसे हैं कि, 'माताजी आयी हैं। माताजी, मेरे बाप के बहन की फलाने को, ठिकाने को, वो मेरा सगा है। इस सब में कुछ रखा नहीं। आप किसी पे उपकार करने मत निकलिये । कहना, पहले पार हो जाओ भाई । ये सब से बड़ा काम है। बीमारी वगैरा तो अस्पताल में भी ठीक हो सकती है। पहले पार हो जाओ, तुम्हारी आत्मा भी जागृत होगी। ये जिस दिन सबको समझ में आ जायेगा, कि सब से महत्त्वपूर्ण चीज़ यही है, उसी दिन आप समझ लीजिये की सहजयोग जो है बहुत उँचे इस पे आयेगा। 20 आज की व्यवस्था ६ मुंबई, १८ मार्च १९७५ इसका कैन्सर ठीक कर दो। हमारी बहन का ये ठीक कर दो। क्यों आखिर क्यों किया जाये! फिर माँ को दर दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। हर एक को जा के माँगना पड़ता है। ये जो बड़े बड़े रईस लोग हैं, इनका ये है कि हमारे बहन को ठीक कर दो, हमारी माँ को ठीक कर दो। और जिस वक्त पैसा देने को आया तो , हाँ, तो चॅरिटी के मामले में तो हमसे कोई वास्ता नहीं। एक मैं बता देती हूँ कि जिन लोगों ने ऐसा काम किया है, उनको मैं ब्लैक लिस्ट कर दंगी। बड़े बड़े लोग हैं और उनका नाम भी मैं सबको बताऊंगी। और आपके सामने ऐसे लोग जरूरी आना चाहिये। सब का मैं नाम बताऊंगी। छोड़ंगी नहीं मैं किसी को। (मराठी - हे घ्या. कोणी ठेवलं? त्यांचं नाव लिहा. साइड में बातचीत) बैठो बेटा, बैठो। अपना नाम लिखा लो। रसीद भी ले लो कायदे से। इसमें से कोई भी पैसा इधर उधर जाने वाला नहीं। लिख लीजिये। कोई भी पैसा इसका हम रखना ही नहीं चाहते हैं। जो जमीन ले रहे हैं, जगह ले रहे हैं, जमीन क्या वो तो फ्लैट ही है। वहाँ पे हॉल बना रहे हैं। इसलिये वो लगा लेंगे। इधर उधर जाने का कोई सवाल ही नहीं। मेरे जाने से पहले ही सब ठीक ठाक कर देंगे वो। कोई उसमें गड़बड़ की बात नहीं है। आपका रुपया किसी को चाहिये नहीं यहाँ पर। सब लोगों को रसीद लेनी पड़ेगी। उसी तरह से जो फोटो है, उसके दाम भी फिक्स है। ज्यादा मत देना कभी भी। जो दाम है, वही बता दिये जायेंगे। रुपये के मामले बिल्कुल गड़बड़ किसी को नहीं करनी चाहिये। मैं 21 बता रही हूँ। जो भी सहजयोगी हैं, याद रखिये, अगर आपने रुपये के मामले में गड़बड़ कर दिया तो मैं बड़ा गड़बड़ कर दूंगी। कोई गड़बड़ नहीं करें। ये रुपया जो है, पब्लिक का पैसा है और पब्लिक का एक एक पैसा जो है वो मेरे खून के बूँद के बराबर है। इसलिये खबरदार किसी ने गड़बड़ करी। कोई भी एक पैसे की गड़बड़ नहीं होनी चाहिये। धर्म का मतलब ये नहीं की बात एक करो और करो दूसरा काम। ये नहीं होता है। पैसों के मामले में अत्यंत पवित्रता रखनी चाहिये। वो पब्लिक का पैसा है वो पब्लिक के काम में लगाना है। इधर उधर लगाने की बिल्कुल जरूरत नहीं। रही बात मेरी तो मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। तुम मुझे कुछ दे भी नहीं सकते । आप लोग सब ऐसे ही हाथ कर के बैठे। तो मैं पन्द्रह- बीस मिनिट मैं आपको बताऊंगी दूसरी साइड़ के बारे में, जैसे कल मैंने आपको हठयोग के बारे में बताया था। हठयोग में क्या प्रश्न हो जाते हैं और मनुष्य कैसा से हठयोग के कारण एक तरह अन्दर से छूट जाता है। अब दूसरी साइड हमारी जो है, ये आज की व्यवस्था है। इस व्यवस्था में जब सहजयोग जागता है, जब आपके अन्दर से वाइब्रेशन्स आने शुरू हो जाते हैं, तो उधर से ही सारी आपके अन्दर ग्रेस उतरने लगती है। ऑल परवेडिंग है, जो सर्व्यापी है, वो शक्ति आपके अन्दर उतरने लग जाती है और आपका इगो और सुपर इगो दोनों हट के बीच में जगह होती है। और अब दोनों चीज़ को देखें। अब बाधा का मतलब कोई लोग सोचते हैं कि माताजी, कोई बुरी बात कर रहे हैं। बिल्कुल नहीं। हर समय आप उसे पकड़ के रहते हैं। हर समय उसका असर आप पे रहता है। आपका आज्ञा चक्र खुला हुआ है। किसी वक्त भी वो आपके अन्दर घुस सकता है। आपके नाभि चक्र में खाने पीने से भी जा सकता है। किसी भी तरह से वो चीज़ आपके अन्दर जा सकती है। सिर्फ उसको साफ़ करना आपको आ सकता है। इतना ही नहीं, लेकिन आप हर मिनिट जान सकते हैं कि इस वक्त पकड़ा है या नहीं। आपकी कुण्डलिनी आप से हट जायेगी । कल सहजयोग के बारे में मैं बताऊंगी, पूर्णतया, कि सहजयोग क्या है? और किस तरह से होता है ? उसका मैनिफेस्टेशन कैसे होता है? और उसके लाभ क्या हैं? वो कल बताऊंगी। अब ध्यान में कल कुछ गति खास हयी नहीं है। इसलिये फिर से आप लोग ध्यान में जायें और आपस में देखें, कि किस तरह से आप गति कर रहे हैं। फटु से मेरे पैर पे आने की कोई जरूरत नहीं। मेरे पैर पे आने से कुछ फायदा नहीं होने वाला। सब लोग जहाँ के तहाँ बैठो। मुझे आज जल्दी वापस जाने का है। मैं आपको ध्यान में बिठा के जाऊंगी। कोई भी आज मेरे पैर ना छूयें। लेकिन यहाँ और लोग हैं यहाँ वो आपको दें। एक दिन ऐसा कर के देखिये कि ध्यान में शांतिपूर्वक उसको पाने का है। पाये बगैर नहीं। 22 है जो मर्यादायों हमारी शक्ति को न्ट करती हैं वो तो हम बहत आसानी से बाँध लेते हैं किंत जो मर्यादारयों हमारी शक्ति को बढ़ाती हैं, हमारा हित करती हैं, इलना ही नहीं हमें एक प्रभुत्व देती हैं, व्यक्तिव्व देती हैं, एक बडप्पन देती हैं उसको हम और विचार का है। हमारी सूझबूझ का नहीं बाँधते । यही एक बडा भारी दोष । प.पू.श्रीमाताजी, २८/२/१९९१, ब्यू दिल्ली प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in मक तौ सत्य में जौ भावनी का विशेष अंग है वो ये कि ० भावनी से हम आडोलित हो जाते हैं, जैसे कि समूद्ध में कोई लहर चली और आक२ के वौ किनारे में १ टकश जीती है औ२ उसके बाढ लौट के जौ जाती है तौ उसके जौ बहुत ही सम तं२ह के तरंग बनते हैं, ऐसे ही आपके जीवन में विशेष काव्यमय सष्टि हो जीती है औ२ उस काव्यमय अष्टि में आप इतने विभो२२हते हैं। क्योंकि, ये नई चीज़ है, एक बहुत ही नाविन्यपूर्ण चीज़ है। प.पू.श्रीमातीजी, दिवाली पूजा, १/१०/१९९० ८ २ क १६ २० ---------------------- 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-0.txt चैतन्य लहरा मई-जून २०१६ हिन्दी 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-2.txt इस अंक में सच्चिदानंद आत्मा ...4 (पूजा, नई दिल्ली, २२/२/१९८२) आत्मा का साक्षात्कार ...12 (सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, १३/१२/१९७७) आज की व्यवस्था ...21 ( मुंबई , १८/३/१९७५) आपको समझना है कि सहस्रार खखुलने के बाद आपमें वह शक्ति आ गई है जिसमें ये तीनों गुण हैं। यह महान शक्ति आपको प्राप्त हो गयी है। इसके लिए हमें बहुत सफल, धनी या विख्यात लोगों की आवश्यकता नहीं। हमें चरित्र, सूझबू् और दृढ़ता वाले लोगों की आवश्यकता है जो ये कहें कि 'चाहे कुछ भी हो मैं इसे अपनाऊंगा, इसका साथ दूंगा और इसे सहयोग दंगा। मैं स्वयं को परिवर्तित करूंगा और सुधारुंगा। प.पू.श्रीमाताजी, कबेला, इटली, १० मई १९९२ 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-3.txt २च्चिढानंद आत्मा ुं नई दिल्ली, २२ फरवरी १९८२ 4 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-4.txt क्या बात है? देखिये, ऐसे बाधित बच्चों को प्रोग्राम में लाकर डिस्टर्ब नहीं करना चाहिये। आप लेते जाये, ये तो बाधित बच्चा है। आप लेते जाये बाहर, ये तो ज्यादती है आपकी! इनको आप ले जाईये, क्योंकि इन पर काली छाया 6. है और वो हमेशा डिस्टर्ब ही करेंगे। आप लेते जाईये इनको बाहर, मेहरबानी होगी आपकी। बाधित लोगों को कभी भी अन्दर नहीं आना चाहिये। ये हमारे सहजयोगी लोगों ने कहना चाहिये। ये लोगों में भूत होते हैं और ये हमेशा डिस्टर्ब करते हैं। लेते जाईये बाहर! बाहर लेते जाईये। यहाँ आने लायक नहीं हैं ये लोग। इनको कभी नहीं लाना चाहिये और हो सकता है, कि बेहोश भी हो जाये , क्या फायदा? इन लोगों को नहीं लाना चाहिये। ये तो बाधित लोग हैं, इनको बाहर बिठा दीजिए, ठीक है। अन्दर बिठाने से तकलीफ देंगे सबको। वो बच्चा भी जो था, उस पर भी बाधा थी। उनको, भूतों को तो सब समझता है, कि यहाँ परमात्मा का काम हो रहा है, इन्सान को ही नहीं समझता। हाँ, सच बात है! किसी के अन्दर जो भूत आते हैं तो वो मेरे बारे में बताते हैं लोगों को। उन्होंने ही बताया सबसे शुरू में, कि मैं कौन हूँ? वो सब जानते हैं, थर, थर, थर काँपते हैं, देखते भी नहीं हैं मेरी ओर। लेकिन इन्सान, वो नहीं समझता। ये बड़ी | आश्चर्य की बात है, पर नहीं समझ में आता। भूतों को समझ में आता है और संतों को समझ में आता है। पर इन्सान को नहीं समझ में आता है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं कि जो देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, ऐसे भूत लोग देखते हैं कि मेरे अन्दर से प्रकाश निकल रहा है, फलाना हो रहा है, सब चीज़ें देखते रहते हैं। लेकिन ये तो सब भूतों का काम हैं। पीर जैसे ही इन्सान कुछ बीच में लटकी हुई चीज़ है, एक किनारे जो जाये, माने भूत न हो। भगवान हो जाये, तो बहुत बड़ी बात है। और यही भगवान होने की बात मैं कह रही हूँ कि आप के अन्दर जो स्थित, जो सच्चिदानंद आत्मा है उसको पाना है। उसके लिए आपके अन्दर कुण्डलिनी भी स्थित है। उसकी जागृति करनी, उसका उत्थान करना, ये शायद अपने नसीब में है, हमें करना होता है क्या? वो हम करे और वो हो जाता है । हमारे ही हाथ से होता है, तो उसमें नाराज़गी की क्या बात करनी चाहिए? पर माँ को अगर ये करना है तो क्या नाराज़गी की बात है और ये बात बहुत बड़े पैमाने में होना चाहिये और सब लोगों को इसका लाभ होना चाहिए। अभी ये बड़ा भारी समय आया हुआ है। ये समय बाद में नहीं मिलने वाला है। ये बहुत महत्त्वपूर्ण समय है। इसको आप इस्तेमाल कर लें। इसका उपयोग कर लें और इसको पा लें। इसके बाद का समय बहुत विकट है। क्योंकि जो एकादश रुद्र के साथ जो आवरण है, उसमें ये आपको कोई माँ जैसे समझायेगा नहीं, न कोई बात करेगा , वो काटा-छाटी होगी आखिरी वाली। इसलिये एक माँ स्वरूप आप सब लोगों से कहती हूँ कि बेकार की बातेंें छोडो और परमात्मा को जान लो। अपनी आत्मा को पा लो और उसको पाने के बाद आप समझ सकते हो कि आपने क्या पाया है! जब तक आपने खाना ही नहीं खाया है, तो आप स्वाद क्या जानियेगा? पर जिस आदमी को भूख नहीं है, वो आते ही साथ पूछेगा कि माँ आप ने कैसे बनाया है? कहाँ से लाया? कैसे पकाया? जिसको भूख होगी वो कहेगा कि, 'माँ, मुझे खिलाओ मुझे भूख लगी है।' ये से अन्तर होता है। अब उसमें से कोई ऐसे भी लोग होते हैं कि जैसे ये भरों पछाड़े हुए लोग, उनकी तो खोपड़ी में कभी जा ही नहीं सकता है। इसलिये कम से कम आप ऐसे नहीं हैं, इसका आप नसीब समझिये और ये भी नसीब समझिये कि आज ये चीज़ यहाँ हो रही है। आज आप लोग सब पा लीजिए और पाने के बाद में इसके आगे क्या करने का। आगे हमें कैसे सम्भालने का है, इस पर थोडा सा ध्यान दें। उसमें आपको थोड़ी 5 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-5.txt सी एज्युकेशन चाहिये, उसमें आपको सीखना पड़ता है कि इसको कैसे बचाना है। इस पर किस तरह से चलना है। वो थोड़ी साधना आपको करनी पड़ती है। जो जरा सी आपने साध ली तो आप साधु बन जाएंगे। उससे पहले आप पार हुए, पर साधु नहीं हुए हैं। साधु होने के लिए थोड़ा साधना पड़ता है और साधु ऐसे होते हैं, जो घर में रहते हैं, गृहस्थी में रहते हैं न इससे भागना, न कुछ नहीं। इसी दुनिया में रहकर के और आप एक प्रकाशवान, बहुत बड़े परमात्मा के चिराग बन जाते हैं। यह कोई कठिन बात नहीं है। यह बहुत आसान चीज़ है। अब कोई कहे कि माँ आप तो बहुत कठिन बताते हैं। अब बताते होंगे लेकिन मेरे लिए तो बड़ा आसान है। कोई न कोई को मैं हूँ ही, जो ये मेरे लिए इतनी आसान है। ये भी तो सोचना चाहिये कि कोई न कोई चीज़ हुए बगैर आपको मैं पार करा देती हूँ और यहीं जो जय गोपाल खड़े हैं इन्होंने कितनों को पार किया है? पूछोगे, तो बता देंगे। जब आपकी शक्ति को आपको देती हूँ और उसके बाद अगर आप अपनी शक्ति से अनेकों को पार करते हैं तो मैं भी तो कोई चीज़ होऊंगी ही। हालांकि तुम्हारे सामने बिल्कुल ही सीधी साधी, बिल्कुल तुम्हारी ही तरह, तुम्हारे सामने, तुम्हारे माँ जैसे ही खड़ी हूँ। इसका यही मतलब है, कि कुछ न कुछ तो गहरी चीज़ मतलब है इसमें और वो बात इसलिये अभी नहीं कहँगी क्योंकि जब तक आप नहीं, तो कहने से फायदा क्या है? तुम डंडा लेकर मारना शुरू कर दोगे। वैसे ही किया अभी तक| मैं नहीं चाहती डंडे-वंडे खाने की । इसलिये मैं अभी ये बात नहीं कहूँगी खुल कर लेकिन ये खुद ही तुम समझ लोगे और प्रश्न पूछ कर भी जान लोगे, कि भाई, कोई चीज़ तो है ही। और तुम्हारे लिये आये हैं इस दुनिया में, तुम्हारा ही काम करने के लिए, सारा संसार का कल्याण करने के लिए। तो अपनी माँ की तुम्हें मदद करनी चाहिए। मुझे कुछ भी नहीं चाहिये आपसे। न पैसा, न कोई चीज़! मेरे पास परमात्मा की कृपा से सबकुछ है और सब से ज़्यादा मेरे अन्दर समाधान इतना है कि मुझे कोई चीज़ नहीं चाहिये। बस मैं तो यही चाहती हूँ कि मेरे जो बच्चे हैं, वो सब पार हो जाये। बस, यही एक आंतरिक इच्छा है, कि मेरे जितने भी बच्चे हैं, जितने भी मुझे खोज रहे हैं, जो परमात्मा को खोज रहे हैं वो सब पार हो जाये और अपना अर्थ पा लें। परमात्मा आप सबको सुखी रखें। अभी कोई प्रश्न हो तो पूछ लीजिये। प्रश्न - ये जो, आप, लोगों का उद्धार कर रही हैं ये आप कहाँ से कर रही हैं? कितने समय से कर रही हैं। आप? श्रीमाताजी - बेटा, मैं तो बहत पुरानी चीज़ हूँ। हजारों सालों से यही कार्य कर रहे हैं। प्रश्न - हजारों वर्षों से तो, पर आप जैसे कि इस जन्म में पैदा होने के बाद, शादी होने के बाद, बच्चे होने के 6. 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-6.txt बाद से या कब से यह कार्य कर रही है आप? श्रीमाताजी - जब से पैदा हुए हैं, तब से ही लगे हैं, फिर ऐसा ही समझ लो आप। सारी जिंदगियाँ ही ये करते आये हैं तो ऐसा कौन सा समय होगा कि जब ये काम नहीं किया होगा ? प्रश्न - मेरा मतलब है, कि कब से आप खुले आम कर रही हो? श्रीमाताजी -खुले आम तो मुझे ही याद नहीं है, कि कब से कर रहे हैं ये काम। प्रश्न - मेरा मतलब है कि कितने साल से आप इसमें लगी हैं? श्रीमाताजी - साल १९७० से..... १९७० से ये काम खुले आम के कार्य शुरू हुआ है। ये मन्वंतर का काम १९७० से है। इसके बारे में पहले ही से घोषित शुरू हुआ किया गया था कि ये कार्य १९७० से होगा। सबका समय आधु होने के लिए होता है। जो समय होता है उस समय से ये काम हो रहा थोड़ा साधना पड़ता है छोड़िये और आप पार हो है। अब आप ये बाते जाईये। और साधु ऐसे होते हैं, उसी व्यक्ति का पर मेरे कहने सवाल जो घर में रहते हैं, यहाँ दो दिन से आ रहा का मतलब है, कि मैं गृहस्थी में रहते है तो शक्ति है, कि जो मुझे हूँ याने कि आप में कोई यहाँ खींच कर ला रही है। दूसरी बात तो यह है, न इससे भागना, कि हमने रामायण में पढ़ा है, कि जो जैसा करेगा न कुछ नहीं। उसको वैसा ही कर्म मिलेगा । पर यहाँ आकर के आप मुझ जैसे ही बाकी और लोगों को भी पार करा दे रही हो। अब इसका क्या मतलब है? श्रीमाताजी - बताती हूँ, इसका मतलब है, कि..... (श्रीमाताजी और अन्य सभी लोग हँसने लगते हैं) अब इन्होंने बहुत मज़ेदार बात कही है। मैं तो कभी सोचती ही नहीं हूँ कि क्या पाप किया है और कितना। जो माँ अपने | बच्चों का पाप नहीं उठा सकती ऐसी माँ को हम क्यों यहाँ बिठाये? कौन से ऐसे पाप हैं, कि जो आप कर सकते हैं और मैं न उठा सकूं? और आप भी कभी ये न सोचना कि तुमने कुछ पाप किया है। कौन पाप कर सकता है? देखो तो किसकी मजाल है। सारे पाप पी सकती है वही आप की माँ यहाँ बैठी हुई है। ये बात सही है। अपने अन्दर एक चक्र है, कि इसकी जागृति से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। वही आज्ञा चक्र है। इसकी जागृति से आपके सब सब पाप धुल सकते हैं। अब पाप गिनने का समय नहीं है। पुण्य गिनने का समय है। मैं तो तुम्हारे पुण्य ही गिन रही हूँ। बहुत प्यारी 7 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-7.txt बात कही है तुमने ! (प्रश्नकर्ता से कहती हैं श्रीमाताजी)। तुम राजा- बेटा हो। और किसी के सवाल हो तो पूछिये। सहजयोग कैसे करना है वो तो अभी मैं बताऊंगी आपको बाद में। अभी और कोई सवाल हो किसी का लीजिये। हाँ, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि ये सब बाते हैं। ये तो सोचती भी नहीं हूँ कि तुम कुछ पाप तो पूछ भी कर रहे हो कभी भी नहीं । हाँ लेकिन कुछ कुछ हैं राक्षस। उनके बारे में तो मैं कहती हूैं। तो लोग कहते हैं, कि उनके बारे में टीका न करूँ। लेकिन राक्षस तो हैं संसार में आये। बड़े-बड़े राक्षस आये। सोलह राक्षस तो आये हैं, मैं जानती हूँ अच्छे से और छः औरतें है राक्षसनी और वो आयी हैं गुरु बन कर, अच्छे से घूम रहे हैं। लेकिन तुम तो ऐसे नहीं हो! तुम राक्षस थोड़ी ही न हो। अच्छा और बोलो। प्रश्न - अस्पष्ट.... श्रीमाताजी - स्वधर्म का मतलब जो कृष्ण ने कहा है, इसका मतलब हिन्दू धर्म, मुसलमान धर्म नहीं है । 'स्व' माने स्व...... आप खुद संस्कृत जानते हैं...... स्व माने क्या? स्व माने हमारी आत्मा। शिवाजी महाराज कहा था कि 'स्व-धर्म जागवावा'। जो स्व का धर्म है उसे जागृत करना है। कृष्ण ने भी यही कहा है, कि | स्वधर्म को जागृत करो, दूसरे के धर्म पर मत जाओ, कि ये ऐसा है, वो वैसा है । अपने अन्दर का जो धर्म, दूसरा कौन है? दूसरा कोई नहीं है। हमारे लिए दूसरा कोई नहीं है। सब हमारे अंग-प्रत्यंग हैं। कोई दूसरा है ही नहीं । कौन है? दूसरा धर्म माने ये कि जिसमें आप 'स्व' नहीं है, वो दूसरा धर्म है। इसको गहनता से देखना दूसरा चाहिए । हम लोगों ने अपनी जो ये लगाये हुए हैं, कि मैं फलाना हूँ, ठिकाना हूँ। ये सब झूठे नाम हैं। इसका कोई भी अर्थ मेरे दिमाग में तो नहीं आता। अब अगर है या नहीं है, क्या फर्क पड़ेगा। बस स्वधर्म को जगाओ तो पता चलेगा कि आप 'सभी' हैं, आप एक नहीं हैं। और जो आप ने ये बात कही है कि आज कल के जमाने में ये बात | हो रही है क्योंकि अब जो है, अपनी स्थिति सहस्रार पर आ गयी है। और सहस्रार में सारी चीज़ की समग्रता आनी चाहिये। सहस्रार पर सब स्थिति जो है, वो समग्रता की है। माने, सब का जो अग्र है, जैसे कि एक सुई में अग्र होता है, उसमें से एक ही सूत्र... फिर कहे 'पाँचो, पचीसो पकड़ बुलाऊं, एक ही डोर बंधाऊँ' वो बात है कुछ किसी में फर्क नहीं हैं। सब परमात्मा के बनाये हुए हैं। एक परमात्मा के सिवाय और कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य ने ही ये सब बनाया हुआ है। और ये चीज़ जब मनुष्य ही जागेगा तो जानेगा कि हम सब तो एक ही हैं, दूसरा कौन है? सामूहिक चेतना जब तक जागृत नहीं होगी तब तक दूसरा बना रहेगा और जब जागृती हो जायेगी तो दूसरा कोई रहेगा ही नहीं। सब धर्म का मान होगा। सब बड़े -बड़े साधु संत का मान होगा। पुराने जमाने के जितने भी वेद आदि, जितने भी बड़े-बड़े ग्रंथ साहब आदि, बायबल, कुरान सब चीजों का अर्थ लगेगा। दृष्टि तो आने दीजिए। दृष्टि आये बिना कैसे लगेगा। एक ही राम है और एक ही रहीम है, सब में एक ही चीज़ है। ये बताने से नहीं होगा, ये तो देखने से होगा, तो देखियेगा कि यह चीज़ एक ही है। जिसे अंग्रेजी में कहते हैं अॅक्च्युअलाइझेशन। घटना है, वो होनी चाहिए। लेक्चर देने से नहीं होगी। 8. 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-8.txt और तो नहीं कोई प्रश्न ? प्रश्न - माताजी, आपका नॉनवेजिटेरियन के बारे में क्या खयाल है? ..... अच्छा अब झगडे की तो बात नहीं है ना! फिर से झगड़ा नहीं खड़ा करना। तो माताजी - किसके बारे में? .. बताओ समझा के कि खाने-पीने में भगवान नहीं होता है । ये भी एक गलतफहमी, खाने पीने में। जैसे जैन लोग कहते हैं कि हम कृष्ण को भगवान नहीं मानते क्योंकि उनमें संहार शक्ति थी। पर अगर उनमें संहार शक्ति थी तो क्या वो संहार न करते! इन राक्षसों का क्या संहार नहीं करना चाहिये? इनके क्या गले में हार पहनाने चाहिये, इनकी आरती उतारनी चाहिये? तो संहार शक्ति भी बहुत जरूरी चीज़ है । और खाने-पीने से अगर भगवान बनते तो तो बस, जितने भी घास चरते हैं वो सब भगवान के पास पहुँच जाते। ये सब फालतू चीज़ में भगवान नहीं होता। भगवान को इतने निम्न स्तर पर नहीं लाना चाहिये। जिस देश में जरूरत होती है सामूहिक चेतना कि लोगों को इस तरह का खाना खाना है तो उस तरह से खायें लेकिन खाना कोई बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ नहीं। मैंने तो जब तक जागृत नहीं होगी देखा है कि एक से एक राक्षसी लोग जो कि सिर्फ तब तक दूसरा बना रहेंगा घास खाते रहते हैं और महाराक्षस होते हैं। उससे और जब जागृती हो जायेगी फर्क ये है कि किसी की कुछ फर्क नहीं पड़ता। तबियत ऐसी होती है कि उसको जरूरत है कि कोई रहेगा ही नहीं। तो दूसरा वो खाए कि जिससे उसकी कुछ ऐसा खाना सब धर्म का मान होगा । अनुभव हमें आयें हैं कि थे बिचारे। उनका ब्लड ताकद बनी रहे। ऐसे ऐसे सब बड़े-बड़े साधु संत थे बहुत बीमार एक साहब उनको बताया गया कि तुम प्रेशर इतना लो हो गया। का मान होगा। कुछ तो भी ऐसा सूप पिओ, क्योंकि ये पहले से डाइजेस्टेड सूप है। जिससे की तुम्हारी ताकद बने। उनकी अम्मा इतनी ज़्यादा अजीब तरह की वेजिटेरियन थी कि उन्होंने कहा कि, 'मेरे प्राण निकल जाएंगे लेकिन मैं नहीं करूंगी। मैंने कहा, 'तुम्हारे निकलने दो लेकिन बच्चे के क्यों निकाल रहे हो? उसकी तो बीबी भी है, बच्चे भी है, तुम्हारे निकल जाये तो कोई हर्ज नहीं। अब तो तुम बुढाई गयी हो।' तो खाने-पीने में हम लोग जो बहुत ज़्यादा व्यवस्था करते हैं, ऐसी कोई नहीं। सहजयोग में खाने-पीने के, पीना माने शराब बिल्कुल नहीं पीते लोग, नहीं तो चलेगा फिर, और सिगरेट भी नहीं पीते हैं क्योंकि दोनों चेतना के विरुद्ध में पड़ते हैं। लेकिन खाने के मामले में कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं। अगर आपको नहीं खाना हो तो नहीं खाओ, खाना हो तो खाओ। पर उस पर खाना खाना यही बात बहुत बड़ी थी। अब मुझसे अगर आप अभी पूछे कि आपने क्या खाना खाया? तो मुझे याद नहीं कि मैंने क्या खाना खाया। और कभी भी याद नहीं रहता क्योंकि खाना 9. 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-9.txt कभी खाते ही नहीं हम हमारे ख्याल से। एक तरह की उदासीन भावना हो जाती है खाने की तरफ से। मिल गया तो अच्छा और नहीं मिला तो उससे भी अच्छा। जितना खाने की ओर हम विचार करते उतने ही हम निम्न होते जाते हैं। जैसे कि अब उपवास हैं। एक साहब का उपवास है। आज हनुमानजी के लिए ये उपवास कर रहे हैं। वो हनुमान जी आपके अन्दर आ कर बैठ गये। अब उन्होंने आकाश-पाताल एक कर डाला। तुमने आज ये नहीं लाया मेरे उपवास के लिए, सिंघाडे का आटा नहीं लाया, फलाना नहीं लाया। उसने सबका आटा बना डाला। घरभर में आफ़त हो गयी कि ये हनुमान जी जो हैं उपवास कर रहे हैं। हनुमान जी को उपवास करने की क्या ज़रूरत है? उनको तो बहुत काम करने के हैं। अगर वो उपवास करेंगे तो उनका काम कौन करेगा? इस तरह की विद्रूपता हमारे अन्दर बड़ी आ गयी है। उपवास करना, खाना नहीं खाना। खास बात पूछो तो मुझे तो बिल्कुल उपवास अच्छा नहीं लगता। किसी को मुझे सताना हो तो उपवास करो। नहीं तो उपवास ही नहीं करो। माँ को अगर सताना होता है तो बच्चे खाना नहीं खाते। पर इसका मतलब ये नहीं कि रात-दिन खाना ही खाना है करते बैठो, खाना खाना है, खाना खाना है। ये खाना है, वो खाना है। अपने हिन्दुस्थानी तो सिवाय खाने के और किसी बात को सोचते नहीं। और हमारे देश की औरतें भी ऐसी होशियार हैं कि उन्होंने आपको बेवकूफ़ बना कर रखा हुआ है । एक हमारे अंग्रेज कह रहे थे कि हिन्दुस्थानी बड़े कॉवर्ड होते हैं। मैंने कहा 'क्यों भाई ? मैंने तो सुना नहीं ये बात।' कहने लगे, 'बिल्कुल डरपोक होते हैं। वो इसलिये अपने बीबी से डिवोर्स नहीं लेते क्योंकि उनको खाना बनाना नहीं आता है।' (हँसी) ऐसे कहने के लिए तो अच्छे कुक होते हैं लेकिन बीबी के हाथ का खाना जो है वो और ही चीज़! वो खाने के लिए सब तरसते हैं और सीधे काम कर के सीधे घर। 'क्या हो भैय्या, आज क्या बनाया है?' हम लोगों की सबसी बड़ी जो है, जीभ जो है वो सबसे ज़्यादा प्रगल्भ है। सबसे ज़्यादा प्रगल्भ। माने ये कि हम क्या खाते हैं? क्या खाना चाहिये? जैसे कि अब बंगाल में लोग है, रोह- मच्छी खाते हैं। बताईये, आप समुद्र के किनारे रहते हैं खायेंगे रोह - मच्छी! और एक बार वहाँ मच्छी का अकाल पड़ गया तो बम्बई वालों ने उनको पॉम्फ्रेट भेजी तो सब की सब वापस कर दी सड़ा के सब। भूखे मरेंगे पर खायेंगे रोह , पर पॉम्फ्रेट नहीं खायेंगे। कौन कहेगा हमारा देश भूखों का देश है? जहाँ भूखों का देश होता वहाँ इतने नखरे खाने के नहीं होते! कोई नहीं कह सकता। जो मिलता है वो खाते हैं। वो जपान के लोगों की आँख जबरदस्त हैं। वो देखते हैं कि कोई रंग जरासा इधर-उधर हो गया तो उनके प्राण निकल गये कि 'ये ऐसे कैसे हो गया?' जरासा भी। अब में इत्ते दिन से देख रही हूँ रंग ऐसे भी चढ़ रहा है। अगर जपानी होता तो उसी वख्त उसके पहले रंग मारता। उसके लिए जीना मुश्किल हो जाता है कि अगर कोई रंग खराब हो गया तो। वो बदरंग पसंद ही नहीं करता। और रंग की भी संगत जिसको होनी चाहिये। जरासी भी 10 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-10.txt प्रॉब्लेम हो जाये तो वो बिल्कुल खबड़ा जाए। उसकी आँख तेज़ होती है। हमारी एक तो जीभ बोलने में भी और खाने में भी। इसलिये खाने-पीने का भी एक तमाशा बना रखा है। परमात्मा का खाने-पीने से कोई संबंध नहीं। वो तो खाना ही नहीं खाते। सच्ची बात वो खाना नहीं खाते। आप तो जानते हैं श्रीकृष्ण का किस्सा, की जब की साधु के पास उनकी पत्नियाँ गयीं तो नर्मदा जी चढायी थी। तो उन्होंने कहा कि , 'भाई नर्मदा चढ आयी हैं अब हम कैसे जायें?' उन्होंने कृष्ण से कहा कि, 'भाई प्रॉब्लेम हो गया, हम कैसे जायें?' उन्होंने कहा कि, 'कुछ नहीं, तुम जा कर के नदियों से कहो, कि अगर हमारे पति पूर्णतया योगेश्वर और बिल्कुल ब्रह्मचारी हैं, तो वो नदी नीचे उतर जायेगी।' तो उन्होंने जा के कहा। अब इनकी तो सोलह हजार बीबियाँ और पाँच ये बीबियाँ। सोलह हजार उनकी शक्तियाँ थीं और ये पाँच उनके पंचमहाभूत थे और इनकी शक्तियाँ थी ये पाँच। उसको कौन समझता है! सब कहे 'तुम्हारे कृष्ण की सोलह हजार बीबियाँ थीं ।' और उन्होंने कहा तो नदी किया। जब लौटे तो नदी नीचे उतर गयी। तो जब वो उस तरफ गये, उस साधु को खाना-वाना खिलाया, सब कुछ फिर चढ़ आयी| साधु से जा के कहा कि, 'भाई, हम जायें कैसे ? नदी फिर चढ़ आरीं । कुछ इलाज करो ।' तो उन्होंने कहा कि, 'अच्छा, आयी कैसी ?' तो उन्होंने कहा कि, 'हमसे तो ऐसा कहा योगेश्वर ने और हमने पूछा तो बात हो 'तो कल तुम नदी से जाकर कहो कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया हो तो तुम नीचे हो जाओ।' तो उन्होंने कहा गयी। नीचे हो जाओ तो नदी नीचे हो गयी| तो पहले लेओ, सारा खाया और कि इस साधु ने कुछ भी नहीं खाया तो तुम कहते हैं कुछ भी नहीं खाया। इसलिये सहजयोग में खाने-पीने की बेकार की बातें नहीं चलती और उपवास बहुत कम करते हैं। एक-दो दिन जरूर करना पड़ता है लेकिन, शायद साल में एक ही दिन, नरक चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं। उस दिन नर्क के द्वार खुलते हैं तो सुबह तक सोना और उपवास करना। मतलब उपवास होता ही है, सोये रहें तो फिर क्या होगा? उस दिन देर से उठते हैं, नहीं तो जल्दी उठते हैं। अपने आप उठते हैं। कोई जबरदस्ती नहीं। आप अपने आप उठ जाईयेगा सबेरे । और क्या? अब तो और कोई सवाल नहीं? प्रश्न - माताजी, आपका अॅस्ट्रॉलॉजी के बारे में क्या विचार है ? माताजी - मुझे आशा है कि आप वार्ताहर नहीं हैं। (अंग्रेजी में) 11 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-11.txt आत्मा का साक्षात्कार मुंबई, १३ दिसंबर १९७७ सहजयोग क्या चीज़ है ये आप में से अधिकतर लोग जानते हैं। बुद्धि से तो सभी लोग जानते हैं लेकिन अभी भी हम लोग समझ नहीं पाये हैं, कि इसका तादात्म्य हमारे साथ पूरी तरह से होता है कि नहीं। याने क्या हो गया, जब कि आपके हाथ में वाइब्रेशन्स आने लगे। ये क्या चीज़ है? बहुत बार मैंने आप से बताया है कि ये आत्मा का प्रकाश है। अब आत्मा बोलने लग गया। अभी तक आत्मा शांत था। उसकी कोई आवाज नहीं थी। वो कुछ बताता नहीं था। वो अन्दर स्थित आत्मा, साक्षिस्वरूप, सब कुछ देखता था, सारे अपने व्यवहार को देखता था। जागृति के बाद जब कुण्डलिनी सहस्रार से निकल गयी, तब आत्मा का साक्षात्कार हुआ। आत्मा का साक्षात्कार हुआ, माने क्या? आत्मा से बातचीत शुरू हुई। आत्मा बोलने लग गया। वो बोलता है वाइब्रेशन्स की वजह से। जब तक आपकी मोटर गाड़ी खड़ी है, जब तक उसके अन्दर हालचाल नहीं, तो सुनायी नहीं देता। जैसे मोटर शुरू हो जाती तो झकझकझक उस में आवाज आने लगती है। ऐसी सीधी बात है समझ लीजिये, कि आपके अन्दर जो आत्मा है, जो डायनमा है, वो चालू हो गया। वो चलने लगा। सत्य को आप सिर्फ आत्मा से जान सकते हैं। और परमात्मा को भी आत्मा से जान सकते हैं। सांसारिक चीज़ों को आप की दृष्टि से, आँख से, नाक से, कान से, सब से जान सकते हैं। लेकिन परमात्मा को जानने के लिये आत्मा की जागृति होनी चाहिये। उससे पहले परमात्मा से जो भी बात करे, वो सारी व्यर्थ है। क्योंकि उस पे विश्वास भी कर लेना एक अंधता हो जाती है। लोग सब कहते हैं, कि ये परमात्मा हो गये, वो हो गया, उन्होंने ये शुभ कार्य किये और संसार में अवतरण हुये हैं। ऐसी ऐसी बातें 12 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-12.txt विश्वसनीय नहीं होती। विशेषकर इस आधुनिक काल में, जब कि हम एक मशिन को बहुत बड़ी चीज़ समझते हैं | सायन्स को बहुत बड़ी चीज़ समझते हैं। जिस वक्त आपका आत्मा जागृत हो जाता है, तो एक नया सायन्स आत्मा का हो जाता है। अब इसके बारे में कितना भी पहले बोला जाये तो विश्वसनीय नहीं होता। आप इसे जान नहीं शुरू सकते, आप इसे देख नहीं सकते, इसको आप महसूस नहीं कर सकते। इसको आप फील नहीं कर सकते । उसके बारे में बोलना क्या? इसलिये कबीर ने उसे कहा है कि ये गूँगे का गुड़ है। पर तो भी उसकी .....(अस्पष्ट) ठीक से बैठ नहीं सकती। क्योंकि ये गूँगे का गुड़ ऐसा हुआ की जो आदमी गुड़ खाता है वो समझता है, वो आदमी गूँगे से ऊँचा माना जाता है। लेकिन ये ऐसा नहीं है। ये ऐसा है कि आपकी एक नयी चेतना, एक नयी चेतना की सूक्ष्म धारा आपके अन्दर बहने लग जाती है। जो आपके आत्मा से बह रही है। अभी तक आप किसी चीज़ को देखते हैं, उसमें भ्रम हो सकता है, कि जैसे ये चीज़ है, आपने कहा ये सफ़ेद साड़ी है। कोई कहेगा कि, 'हाँ, थी तो सफ़ेद, लेकिन हो सकता है कि इसी में कुछ दाग लगे हो । पक्की बात नहीं। कोई पक्की बात नहीं हो सकती है कि जब तक उसका जबाब आत्मा न दे। परमात्मा है या नहीं? कोई कहेगा कि, 'हाँ, भाई हमारा तो परमात्मा पे पूरा विश्वास है।' 'कैसे भाई ?' 'हम रास्ते से जा रहे थे। वहाँ सामने से कुछ गड़बड़ हो गयी। तो हमने परमात्मा से कहा, तुम हमें ठीक कर दो। इससे हमें बचा दो। हम बच गये। देखो, परमात्मा है या नहीं!' ये कोई विश्वास की बात नहीं हुई। ये इत्तफ़ाक हो सकता है, इन्सिडन्स हो सकता है। ये तो कोई विश्वास की बात नहीं हुई। 'हमें पैसे में घाटा आ गया। हम हनुमान जी के पास गये। उनको हमने सव्वा रुपया चढ़ाया| तो हमारा मुनाफ़ा हो गया। ये भी कोई परमात्मा का काम नहीं। ये भी कोई विश्वास की बात नहीं होती। या तो किसी से पूछो की 'क्या हुआ?' 'हम रास्ते से जा रहे थे। एकदम से उधर से एक आदमी आया। उसने हमें पहचान लिया और हमसे कहा कि देखो, हमने तुम्हारे मन की बात पहचान ली है। और तुम ऐसा ऐसा करो तो तुम्हारा ठीक हो जायेगा।' तीसरे ने कहा, 'हम बड़ी आफ़त में फँसे थें और किसी ज्योतिषी ने आ कर के हमें ऐसा बताया कि देखो, इसका ये ऐसा इलाज है। हमने कर दिया। हम ठीक हो गये।' ये सब परमात्मा के काम नहीं। और इस बात से अगर आप परमात्मा का कुछ अहवाल लेते हैं, परमात्मा के बारे में आप सोचते हैं, तो आप परमात्मा के साथ भी बड़ी ज्यादती कर रहे हैं। जो सर्वशक्तिमान परमात्मा है, उसको समझने के लिये पहले अपने शक्ति को जानना चाहिये। प्रचंड सूर्य की जिस के पास शक्ति है, उसे देखने के लिये पहले अपने अन्दर का आत्मा का सूर्य जागृत करना पड़ेगा। उसके बगैर आप उस शक्ति को नहीं जान सकते हैं और न ही आप उसको प्रसारित कर सकते हैं। उसका आप कन्व्हेयन्स नहीं हो सकता। वो महान, प्रचंड शक्ति है। जब मनुष्य उस चीज़ को झेलना चाहता है, जो इतनी प्रचंड है। उसको ये भी सोचना चाहिये कि, 'मेरी शक्ति जागृत हो गयी है या नहीं?' फिर ये भी बात होती है, कि हम सोचते हैं कि 'उसे हम जागृत कर लेंगे। हम परमात्मा को पा लेंगे।' आप परमात्मा को नहीं पा सकते। परमात्मा आपको पाते हैं। ये तो ऐसा ही होता है कि एक समुद्र कहें कि मैं सागर को पा लँ। सागर ही आप पे ढरेगा और वही आपको पायेगा। सिर्फ आप अपने को इस योग्य बनाईये कि वो आपको पायें। से बड़ा प्रश्न मनुष्य के सामने ये है, कि आत्मा की जागृति कैसे हो? आत्मा कैसे जागृत हो? जिससे ये सब 13 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-13.txt सब जाना जायेगा। वो प्रश्न तो अब सहजयोग से छूट गया। सहजयोग से आपकी आत्मा की जागृति हो जाती है। उसके विचार से नहीं होगा। कोई कहें, कि 'हमने तो इतने पुस्तक पढ़े हैं।' पुस्तक पढ़ने से नहीं होगा। 'हमने इतने विचार किये हैं और माताजी हम तो इतने विचार करते हैं । और क्यों नहीं हमारा हुआ?' बेटे, विचार से कोई चीज़ आप पा नहीं सकते। मनुष्य का विचार सीमित है। हम तो असीम की बात करते हैं। असीम में जाने के लिये आपको जो अपने अन्दर असीम का स्रोत है, आत्मा, उसे पाना होगा। ऑख से, नाक से, मुँह से, हाथ से, बुद्धि से या किसी भी चीज़ से, आप परमात्मा को नहीं जान सकते हैं। आत्मा से ही जान सकते हैं और तभी आप उससे संतोष पा सकते हैं। और सहजयोग का संतोष भी आत्मा का संतोष है । ये दूसरी बात है, जिसे हमें जानना चाहिये। इसका ये संतोष नहीं, कि हमारा शरीर ठीक हो जायें । हो जाते हैं, ये दूसरी बात। आपकी सब की तंदरुस्ती अच्छी हो गयी। आपकी विषय भावना टूट गयी। बहुत कुछ अच्छा हो गया। भला हुआ। सब कुछ है। वो तो यूँ ही वरदान स्वरूप। लेकिन संतोष और आनन्द जो आत्मा का है, वो आत्मा से ही होता है। आत्मा ही आत्मा से सतोष पाता है। जब तक आपका आत्मा जागृत नहीं है, आप दूसरे जागृत आत्मा का आनन्द उठा ही नहीं सकते। विचारों से जो कुछ भी आनन्द होता है, जिसे लोग आनन्द समझते हैं, वो आनन्द नहीं है । वो सुख की भावना है, क्षणिक। आनन्द जो है वो दुसरी चीज़ है। आनन्द ना तो सुख, ना तो दुःख। बीच में एक अत्यंत शांत चित्त। न तो वो भावना है, न तो वो विचार है। क्योंकि जब आप विचारों से ही परे हैं, तब आपके अन्दर जो बहता है। अन्दर १ ऐसा एक स्रोत सा बहता है। सारे शरीर, सारे ही मन, बुद्धि अहंकार आदि सब को पुलकित कर देता है। वो एक आनन्द है। और वो चीज़, उसके बारे में जो बात करें, वो किस तरह से आप समझ सकते हैं, जब तक आपके अन्दर वो चीज़ बही नहीं, जब तक आपने आनन्द का अनुभव नहीं लिया, सिर्फ बातचीत से कैसे समझायें आपको? उस आनन्द को अन्दर आकलन करने के लिये, अन्दर उसको महसूस करने के लिये आपके अन्दर जो आत्मा की ज्योत है, वो जब तक नहीं जलेगी, आप उसके प्रति बिल्कुल ही अनभिज्ञ रहेंगे। उसको आप जान नहीं सकते। चाहे आप उसके बारे में कुछ सोच लें, समझ लें, मन का संतोष कर लें, लेकिन वो झूठ है। सच नहीं है। सहजयोग से आपकी आत्मा जागृत हो जाती है। अब दूसरी स्टेज शुरू हो जाती है, कि आत्मा का प्रकाश और हमारा अंधियारा । जब वो प्रकाश बढ़ने लग जाता है, तो लोग देखते हैं कि अड़ोस-पड़ोस में अंधियारा है। चारों तरफ अंधियारा हैं। ये अंधियारा जो है, ये आत्मा के प्रकाश को दबायेगा। आत्मा की ओर चित्त करें। अनेक इनके तरीके हैं, कि अंधियारे से दूर हो जायें। जब इस कमरे में अंधियारा था, तो हम लोग सोचते थे कि अंधियारा ही सत्य है। उसी को सत्य समझे थे, अंधियारा है। उससे डर के, हाथ पकड़ पकड़ के अन्दर आ रहे थे| जब यहाँ रोशनी हो गयी तो समझ लिया कि अंधियारा जो था वो मिथ्या है। वो सब मिथ्या है। जब प्रकाश हो जाता है, तब ये सारी संसार की बातें मिथ्या लगने लगती हैं। अँधेरे में लोग देखते हैं, कि यहाँ भूत हैं, यहाँ राक्षस हैं, यहाँ प्रेत हैं, यहाँ पर ये हैं। जब प्रकाश हो जाता है, तब परमात्मा के सिवाय और कोई चीज़ दिखायी नहीं देती। सिवाय ब्रह्म के सिवाय । ब्रह्म माने यही, 14 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-14.txt जो आपके अन्दर से बह रहा है यही ब्रह्म की सत्ता है। ये सत्ता है परमात्मा की, जो बह रही है आपके अन्दर से। यही सत्ता सारे कार्य को करती है। और कोई भी कार्य मनुष्य नहीं करता। ये सत्य है। किंतु कहने मात्र से कि, मेरा परम विश्वास परमात्मा पे हैं, ऐसे करने से कुछ भी नहीं होने वाला। अपने को झूठ में नहीं रखना है। अपने को झुठलाना नहीं चाहिये। अपने साथ कोई भी दगा करना किस काम का होगा? हम बड़े साधु हो गये, ऐसे कहने से भी क्या मिलने वाला है? अरे, जो असली है, उसको पाने से ही असली मिलने वाला है ना ! नकली चीज़ में आपको भी संतोष होने वाला है? इसलिये सहजयोग में आप काफ़ी प्रगती करते हैं, इसमें कोई शक नहीं। ये लड़कियाँ आयी मेरे साथ ये लोग पार पैदा हुई हैं न! आत्मा का प्रकाश है ही इनके अन्दर। अपने मज़े में हैं। और जिसने जिसने ये पाया था, उसने आत्मा की बात करी। परमात्मा की बात करी। किसी को उनको समझा नहीं। उनको पत्थरों से मारा, उनको क्रूस पे लटका दिया, उनको जहर दिया, उनको बहुत सताया। आपको भी थोड़ी तकलीफ़ तो होनी ही चाहिये । नहीं तो आप समझियेगा क्या? लेकिन आत्मा का जो आनन्द है, जब आदमी उसको उठाने लग जाता है, जैसे कि दानत है आदमी की। आत्मा है। देता है, दे दिया। ले, लूट, कितना चाहिये लें। भर तेरे अन्दर। कितना चाहिये? जितना लूटोगे उतना ही आनन्द आयेगा । कंजूस आदमी है। वो अपनी कंजूसी का बहुत मज़ा उठाता है। कंजूसी का। 'ये मैंने पैसा बचा लिया। वहाँ मैंने पैसा बचा लिया।' कोई मारने-धाडने वाला आदमी, वो सोचता है, 'चल, इसका इतना पैसा मार लिया ।' जो आदमी कंजूसी को सोचता है, कि भाई, मैं बड़ा भारी। मैंने ये काम कर लिया। कोई दुर्गुणी ही होता है समझ लीजिये। औरतों का भी बड़ा शौक है। वो कहता है कि, चलो, इस औरत को भी फँसा लिया। उसको भी फँसा लिया। इससे भी पैसा मार लिया। उससे भी पैसा मार लिया। इसको भी ठिकाना। उसको वो एन्जॉय करता है। देखिये आप संसार में। ये भी कोई एन्जॉय करने की चीज़ है? कितना क्षणिक है सब! मैंने ये जीत लिया। मैंने उसको पटक दिया। मैंने उसको मार लिया । अब दूसरी चीज़़ देखिये । एन्जॉय करने की कि, 'मैंने ये दे दिया। गया, जाने दो।' इसको कहते है कि जनरॉसिटी का एन्जॉयमेंट। हर दिन। लेने का नहीं देने का। ये आत्मा से होता है। इससे उल्टी सब चीजें हैं। देने का एन्जॉयमेंट लो। प्यार का एन्जॉयमेंट लो, कि मैंने इसे प्यार किया। मैंने उसे प्यार दिया। प्यार का एन्जॉयमेंट लो। अपना माहात्म्य बहुत लोगों को हैं। 'मैं, में, अहाहा, मुझे ये है। में।' जहाँ मैं कि जगह आ जायेगी, 'तू है। तू।' उसका मज़ा उठाओ। क्या होता है? झुकते चले जाता है आदमी। अहाहा! क्या मज़ा आता है झुकने में भी और इस घुलने में भी ये आत्मा की आनन्द है। इसको जोड़िये। छोटे छोटे अनेक ऐसे आत्मा के आनन्द हैं। इन आत्मा के आनन्द को हम जोड़ना नहीं जानते क्योंकि हमारे अन्दर आत्मा जागृत ही नहीं है। लेकिन आत्मा जागृत होने पर भी अगर हम उसे जोड़ नहीं पाये, तो हमें लोग क्या कहेंगे? हम क्या जोड़ रहे हैं? सहजयोग में बहुत से लोग यहाँ छह, छह- सात, सात साल से आ हैं। छह, छह- सात, सात साल से आ रहे हैं। क्या जोड़ा है आत्मा का आनन्द? अभी हम लंदन में, बहत बड़े प्रोग्राम हये और काफ़ी लोग वहाँ आ गये। लेकिन हमें, वहाँ एक साहब हैं वो बहुत हमारी मदद करते हैं। उनकी एक बात बहुत अच्छी लगी। बहुत रुचिकर लगी। रात का वक्त था। बहुत देर हो गयी। उसके घर में इतनी जगह भी नहीं थी। बहुत भीड़ भरी हुई थी। सब लोग बैठे थे। मैंने कहा, 'अच्छा, चलो, अब 15 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-15.txt जायेंगे घर।' और मैं ऊपर चली गयी। मैंने सोचा सब लोग चले गयें । दूसरे दिन जरासे वो मुरझाये हये थे। मैंने कहा, 'क्या हो गया ?' कहने लगे, 'माँ, मैंने सब के लिये खाना बना के रखा था। आपने सब को खाना क्यों नहीं दिया?' मेरी तबियत खुश हो गयी। इतनी तबियत खुश हो गयी कि पूछिये नहीं! कुछ उन्होंने तौला नहीं। कुछ उन्होंने सोचा नहीं। रुपया कितना खर्च होगा क्या नहीं? बड़ा तौल कर के, समझ के हम लोग संतों की सेवा करते हैं। बहुत सोच समझ के और भगवान भी सोच-समझ के आपकी सेवा करेगा। जब संतों की सेवा करनी है बड़ी सोच-समझ के और शराबियों की करनी है तो बहुत। जब आत्मा में आप लीन हो गये, जब आत्मा के आनन्द को आपको तौलना है, तो संतों की सेवा में लगो। संतों को पहचानिये। जो भक्तजन हैं, उनकी सेवा करिये और जो अभक्त हैं उनसे भागिये। उनसे आपका कोई लेना देना नहीं। उनसे आपको कोई मतलब नहीं दूर है। क्योंकि अभी भी आप जड़ है। जड़ता से आप सब चीज़ जोड़ते हैं। आप ये सोचते हैं कि इनसे हमारी रिश्तेदारी है। इनसे हमारा पैसा है। इनसे हमारा बिज़़नेस है। इनसे ये है। इसलिये इनके लिये तो हमें खूब करना चाहिये और जो संतजन हैं उनके लिये हमें नहीं करना चाहिये । कोई गरीब आदमी है, चला आ रहा है । उसकी अगर आपको सेवा करनी है, तो कोई इसलिये थोड़े ही करनी है कि वो गरीब है। इसलिये करनी है, कि वो हमारे अन्दर है। हम भी गरीब हैं । अब हमने सोचा कि नहीं साहब, इसकी हम सेवा कर रहे हैं। हमने गरीबों की सेवा करी। ऐसे लोगों को परमात्मा कभी नहीं मिल सकता। आप कौन होते हैं, किसी की सेवा करने वाले! बड़ा भारी अहंकार है मनुष्य में । वो सोचता है, इसकी सेवा कर रहा हूँ। उसकी सेवा कर रहा हूँ। सेवा तो ऐसी चीज़ है, बहती ही है। आनन्द है उसका आनन्द से वो बहती रहती है। इसका कितना आनन्द है, मैं आपसे क्या बताऊँ! मेरे अन्दर से सारी भावनायें हर समय, हर पल बहती थी। और जब मैं देखती हूँ कि आप लोग उससे वंचित हैं, तो बड़ा दुःख लगता है मुझे। मैं सोचती हूँ कि ये किस तरह से आनन्द की लहरें आपके अन्दर से बहना शुरू होगी? दो भाई , करो भाई । देते रहो । उसका भी कभी कोई जोड़ होता है। लेते वक्त तो हम जोड़ते नहीं। देते वक्त हम इतना क्यों जोड़ते बैठते हैं। बहुत से लोग ये भी कहते हैं कि 'माताजी, आप तो कुछ देखती नहीं। सब को ही देती रहती हैं।' बड़े बड़े साधु-संतों ने मुझ से कहा । मुझे आती है उनकी हँसी, कि कहने को तो साधुसंत हैं और जोड़ किस का बिठा रहे हैं? हिसाब- किताब नहीं आता साधु-संतों को। हम लोग भी अपने जीवन को उस तरह से बनायें, जिसके लिये आपने आपको चुना है और उसका वरण किया है। आपने चुना है कि आप परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे। आपने चुना है। मैंने कोई आप पे जबरदस्ती नहीं की। आप स्वयं ही इसमें आये हैं। आपने स्वयं ही इसे पाया और आप ही परमात्मा के राज्य में बैठ गये। उसके नागरिक हो गये। इस नये राज्य में बैठने के बाद आपको खुद ही उसका वरण करना चाहिये, जिसके लिये आप आये हैं यहाँ और जिस चीज़ को आप पाना चाहते हैं। लेकिन इस बार जब मैं लंडन से आयी, तो आप लोगों के चेहरे देख कर के, बड़ी खुशी हुई मुझे। जैसे कोई गुलाब फुल गये हो। जैसे सब के अन्दर से सुगन्ध बह रही हो। कोई माली इस तरह से देखता है अपने बाग 16 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-16.txt को, तो किस तरह से खुश होता है, इसी तरह से मैं बहुत खुश हूँ। ऐसे ही हर जगह हमें बाग खिलानी है। और हर इन्सान के जीवन में ये भरना है। अब ये बात है कि सहजयोग बहुत जोर से नहीं बढ़ सकता। उसका कारण है क्योंकि ये सत्य है। मनुष्य सत्य बहुत आसानी से नहीं लेता है। नाटक हो, कोई दंगलबाजी हो, शोबाजी हो उसमें, कोई झुठी बातों का आवरण हो तो मनुष्य फट् से उसे ले लेता है। और नहीं तो बुद्धि का चक्कर चले उसे मनुष्य फट् से ले लेता है। उसको कठिनाई नहीं जाती। लेकिन सत्य उसे लेना बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि वो असत्य के साथ ही सारी जिदगी रहता है और वो चाहता तो सत्य ही है। लेकिन जब आ कर सत्य सामने खड़ा हो जाता है घबराता है वो। तो भी ये सोचना चाहिये कि आज जितने सहजयोगी संसार में हैं कभी भी नहीं थे। आप लोग सब एक भाषा बोलते हैं। चाहे आप इंडिया में हो, चाहे आप इंग्लंड में हो, चाहे आप अमेरिका में हो, फिनलंड में हो, जर्मनी में हो, हर जगह अब पार हो गये हैं लोग। बहुत लोग पार हो गये हैं। हर एक देश में खड़े हैं। सब वाइब्रेशन्स समझ रहे हैं। सब स्वाधिष्ठान चक्र वरगैरा संस्कृत में बोले जा रहे हैं। सब लोग आप की भाषा बोल रहे हैं। आप भी उनकी भाषा बोल रहे हैं। इसमें न तो रेज कम्युनिटी वगैरा ये जो मनुष्य की बनाई गयी रेषा है ये कुछ नहीं चलती। परमात्मा की बनायी ह्यी रेषा है, कि, 'भाई, तुम्हारा स्वाधिष्ठान पकड़ा है।' चाहे तुम अंग्रेज हो, चाहे तुम मुसलमान हो, चाहे तुम ईसाई हो, चाहे तुम कहीं भी रहो। इसका उससे कोई संबंध नहीं । कुण्डलिनी जरूर बता देगी जो चीज़ है। असलियत में जो इन्सान आप हैं वो बता देगी। सत्य है और सत्य के दश्मन भी हजारों में हैं। आश्चर्य है। लेकिन आप ने जब जान लिया है सत्य तो उसको चिपक जाना चाहिये । इसको मैं ट्ूसीकर्स कहती हूैँ, जो चिपक जाता है इसे 'हाँ, यही सत्य मिल गया,' यही बात मुझे लंडन में मिली। लंडन में मैं बड़ी हूँ .....(अस्पष्ट) इस बात से, कि लंडन के जो सहजयोगी हैं एक तो बड़े विद्वान, पढ़े-लिखे, सब उन्होंने कुण्डलिनी वगैरा क्योंकि वो लोग पहले से ही खोज में हैं। सीकर्स हैं बहुत मैं बड़े, जबरदस्त सीकर्स। इतने जबरदस्त, आपसे बता नहीं सकती। और उस सीकिंग में उनका ये हाल है। कि वो उस हालत में पहुँच गये हैं, कन्क्ल्यूजन्स में पहुँच गये हैं, कि ये नहीं हो सकता सत्य। ये हो नहीं सकता है। ये गुरु है, ये नहीं हो सकता सत्य। झूठा है। ये भी नहीं हो सकता सत्य। ये भी नहीं हो सकता है। 'नेति, नेति वचने, निगमा...'। ये नहीं है। ये भी सत्य नहीं है। ये भी नहीं। आप पहुँचे कि सत्य क्या होना चाहिये। और जैसे ही पा लिया खट् से ऊपर गया। आप हैरान होगे, कि यहाँ, हम महेश योगी वरगैरा के शिष्यों को जागृति नहीं दे सकते थे | उनकी कुण्डलिनी ऐसी बिल्कुल लुप्त हो गयी लोगों की। एक को दी थी सारे इतने में। आपको याद होगा, वो भी बेचारे पचास मर्तबा में, जिसको मराठी में कहते हैं कि 'कोलांट्या मारतो ।' पचासो मर्तबा उनकी दशा खराब होती है और पचासो मर्तबा फिर आते हैं और कुण्डलिनी फिर जमा है और इन लोगों ने धो धा कर के खटाक् खटाक् । दस -दस साल उस महेश योगी के पीछे में रहे हुये लोग। देखे होगे की कुण्डलिनी सात , हो गयी खुला हुआ है। एकदम तबियत खुश सहस्रार एकदम मेरी। मैंने कहा कि कहाँ से आ गये मेरे बच्चे! एकदम खोल खाल के काम। पर उनको पैसे की कोई अब नहीं रह गयी। हो गया बहुत। हमारे माँ-बाप ने ये सब गंदगी उठाई है। हमको नहीं चाहिये। उस को छोड़ छाड़ के लगे हुये हैं और जब उन्होंने पा लिया, एक से एक, मैं हैरान हो गयी हूँ। ऐसे पढ़े लिखे विद्वान, आश्चर्य लगता है। आप मिलेंगे उनसे तो तबियत आपकी खुश हो जायेगी। और सब के सब खड़े। मेरी भी तबियत भरती है कि देखो, मेरे बच्चे खड़े हुये हैं एक 17 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-17.txt से एक। मुझे क्या डर है? ऐसे ही आप लोगों को होना चाहिये। क्योंकि आप के पास एक बड़ी संपदा है, वो ये है कि आप इस योगभूमी में पैदा हुये हैं। बड़ी भारी योगभूमी है आपकी। मैं अभी जब लंडन से आ रही थी। नज़दीक आते ही मैंने इनसे कह दिया कि, 'इंडिया का लग गया राजपाठ। इंडिया का किनारा लग गया।' उन्होंने कहा, 'कैसे जाना? मैंने कहा , 'आप तो देख नहीं सकते नीचे देखिये सारे वाइब्रेशन्स खड्खड्खड् ।' सारे अॅटमॉस्फिअर में वाइब्रेशन्स। पृथ्वी से ऐसे चले आ रहे हैं ऊपर। ऐसे चारों तरफ़ फेंक रहे हैं। मैंने कहा, 'ये है मेरी भारतभूमि । लेकिन क्या दशा कर के रखिये सब ने ! देखिये , पैसे के पीछे भाग रहे हैं। सत्ता के पीछे में भाग रहे हैं। शर्म आनी इस योगभूमि में कब परमात्मा की बात करेंगे? अभी यहाँ पे .... (अस्पष्ट) बनाओ, यहाँ पे गन्दी गन्दी चीज़ें बनाये जिस नर्क में वो लोग पल रहे हैं और जिस नर्क से वो लोग भागना चाहते हैं, वो नर्क यहाँ बनाने के पीछे में जवान लोग लगे हये हैं। मूर्ख कहीं के। वो लोग कहाँ से हमारी बातें सुनने वाले हैं। इस योगभूमि में जो चाहिये ! लोग पैदा हये हैं, उसकी संपदा को आप इस्तेमाल करें। उसका उपयोग करें। सारी पूँजी आपके पास में हैं। अपनी पृथ्वी इतनी बड़ी जबरदस्त हैं, लेकिन उस में पृथ्वी की सारी कुण्डलिनी जो है, वो इस धरती में हैं जहाँ आप खड़े हैं। इस पे जरा सा भी पैर रखने के साथ ऐसा लगता है, धकधकधक खींची चली जा रही है माँ और ऊपर में फेंक दे रही है। हर समय उसकी वंदना करें और ये समझना चाहिये, कि भारतीय के लिये विशेष रूप से, विशेष रूप से, एक प्रतिष्ठित होना चाहिये। क्योंकि इसके देश की एक प्रतिष्ठा है। हम लोगों का जो पैसे का और सत्ता का जो एक मूर्खता जैसे एक वातावरण चारों तरफ फैला हुआ है। मारे शर्म के मुझे लगता है कि इसी पृथ्वी में समा जाना चाहिये। सहजयोगियों को चाहिये कि अपनी प्रतिष्ठा में खड़े हो । स्वयंप्रतिष्ठित हो। अपनी इज्जत में खड़े हो । क्योंकि आप भारतीय हैं और सहजयोगी हैं। आपके लिये इस कदर इन लोगों को इज्जत है लंडन में। हमारे सहजयोगी जो लंडन के हैं कि वो सोचते हैं कि कोई सहजयोगी इंडिया से आ जायेगा, एक भी आ जायें तो माताजी हम लोग सब ठीक हो जायेंगे। मारे डर के मैं किसी को नहीं बुला रही हूँ। जैसे ही देखेंगे, तो कहेंगे कि, हे भगवान्! वहाँ आते ही बिज़़नेस शुरू कर देंगे । नहीं तो किसी का हाथ देखेंगे, कि लाओ, चलो पाँच रुपया। उनमें इतनी इज्जत है आप लोगों के लिये। आपको पता है। और हो सकता है कि एकाध साल बाद हम यहाँ पर इंटरनैशनल सेमिनार करेंगे। तब तक मैं चाहती हूँ कि एक साल लगा दीजिये सहजयोग में, पूरी तरह से। सबेरे उठ के ध्यान करना। देखिये वो लोग सबेरे चार बजे उठते हैं। नहा-धो कर के, सफ़ाई कर के वो लोग ध्यान में बैठते हैं। और मेहनत करते हैं खूब। शाम को जल्दी सो | जायेंगे। टी.वी. वगैरा देखते नहीं। हमको नहीं देखना है टी. वी. | कुछ सब बंद। सिनेमा बंद। सब बंद। कहते हैं कि, 'क्या करें? औरतों की तरफ़ हमारी नज़र जाती है।' कोई लड़कियाँ कहती हैं आदमिओं की तरफ़ में। मैंने कहा, 'अच्छा। पृथ्वी की तरफ़ दृष्टि रखो। तो पृथ्वी की तरफ़ ही दृष्टि रख के चलते हैं। और अपने अगर यंग लड़कों को ऐसी बात कहे, तो यहाँ मूर्खों को कभी समझ में आयेगी ये बात। ये तो सोचते हैं कि बसू सिनेमा के 18 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-18.txt हिरो बन कर घूम रहे हैं। अरे, क्या जिंदगी भर यही करने का है ? और वो लोग हैं कि आप लोगों को इतना मानते हैं। ये सोचने की बात है। देखिये, कैसा भ्रम है संसार में। अगले साल तक मैं चाहती हूँ कि लगा दें अपने को दाँव पर। हम भी | आपके साथ हैं हर समय । हर आदमी के प्रति हम जागृत हैं। देखिये आप लोग भी अपने को दाँव पे लगाईये। अपनी पर्सनल बातों से हट कर के, और आनन्द पे उतरें। तब काम बनेगा। जब तक ये नहीं होगा तब तक सहजयोग का झंडा नहीं फैल सकता है। मेरी वजह से तो कुछ होने नहीं वाला। मैं तो अनेक बार संसार में आ गयी हूँ। अनेक बार मैंने धंधे किये हैं। कुछ फायदा नहीं हुआ। अब तो आप ही लोग हैं। करना है, सो करिये। मैं तो आपके पीछे में हूँ। हर समय, हर समय। और इतने दिनों बाद आप से मिली हूँ। बड़ी खुशी हुई मुझे। बहुत खुशी हुई है। एक साल बाद में चाहती हूँ कि आऊँ तो मेरे सहजयोगी एक से एक, एक एक आदमी एक हीरे जैसा चमकने लगे। अपने को थोड़ा काटना पड़ता है ना! हीरे को थोड़ा सा देखना पड़ता है। चलो, भाई, यहाँ पर थोड़ा गड़बड़ कर रहे हो तो चलो उधर। थोड़ा कटते चलो। फिर चमक निकलती है अन्दर से। थोड़ा सा काटना पड़ता है। प्रेम से ही अपने को थोड़ा सा, अच्छा इधर चल रहे हैं, जरा चलिये, चलिये, चलिये । कटते जायेगा। कटते कटते ऐसी सुन्दर चीज़ तैय्यार होनी चाहिये कि संसार देखें कि ये कोई चीज़ भी है! कोई विशेष बात भी है ये ! कोई पता नहीं, ये अजीब आदमी है। ऐसा हआ है। | अभी कोई साहब बता रहे थे, कि एक विशेष आदमी किसी को मिला। दिल्ली वाले अभी आये थे । बता रहे थे। तो उन्होंने हमसे कहा कि, 'हमने देखा कि ये आदमी, उसके मुँह पे बहुत चमक है।' मुझे तो उसकी याद भी नहीं। तो उन्होंने कहा कि, 'भाई, तुम इतने चमत्कारपूर्ण कैसे हो ? तुम्हारे अन्दर ये क्या विशेषता है?' उन्होंने कहा, 'आपको मालूम नहीं, माताजी ने मुझे रियलाइजेशन दिया है। मैं सहजयोगी हूँ।' 'अच्छा!' ये भी सहजयोगी ही थे । 'पर कहाँ?' 'मैं दिल्ली गया था। वहाँ पाया। तब से दर्शन नहीं हुये माताजी के।' सारे समाज में उनका नाम है। और सब से बताते हैं कि, 'मैं सहजयोगी हूँ। आपको पता है, मुझे माताजी ने आत्मदर्शन दिये हैं। और वो कार्यान्वित है।' ये भी सुन सुन के बड़ी खुशी होती है मुझे। कहीं गये तो सुनाई देती है बात । लेकिन थोड़ा सा माँ का कहना भी सुनना चाहिये। थोड़ा सुनने से कोई बुरा नहीं होता। अच्छे के लिये बताती हैँ। अभी सब लोग कह रहे हैं, कि अच्छा बताईये कि हिन्दुस्तान में इतना बड़ा साइक्लोन का हैवॉक क्यों हो गया ? आप अगर मेरा टेप देखिये। मैं गयी थी गुंटूर। मोदी से पूछिये ये भी गये थे। वहाँ सब से मैंने कहा, 'यहाँ ये तम्बाखु के आप पेड़ लगा रहे हैं, सारे गाँव भर में, सारे एरिया में आपने तम्बाखु लगा के रखा है और कोई आप चीज़ नहीं लगाते हैं। एक दिन यहाँ एक बार चंद्र, सूर्य माफ़ कर देंगे लेकिन ये समुद्र आपको खायेगा। आप सुन लीजिये। हैवॉक हो जायेगा।' ये वर्ड मैंने वहाँ कहा था। मैंने कहा, ये बंद करिये आप। ये बहुत बड़ा अनर्थ कर रहे हैं। और दूसरा मैंने उनसे ये कहा था, कि यहाँ पर ये जो आप काली विद्या कर रहे हैं । गरीब लोग वहाँ सब काली विद्या करते हैं। बड़ी काली विद्या वहाँ चलती थी। और वहाँ पर इस कदर पैसा तम्बाखु की वजह से हो गया था, कि लोगों का दिमाग़ खराब हो गया। और वहाँ गन्दे गन्दे गुरु पाल रखे थे । गन्दी गन्दी औरतों को उन्होंने गुरु माना हआ था। मैंने कहा, 'इस देश में हैवॉक हो जायेगा आप इसे छोड़िये।' तो सब मुझ से नाराज़ हो गये। किसी ने मुझे चिठ्ठी तक नहीं लिखी थी। 19 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-19.txt हजारों आये थे। और आज देखिये वही हो गयी बात। जो मैंने पहले कहा था। वॉर्निंग बहत दी थी मैंने। मैंने कहा कि ये समुद्र तुम्हें खायेगा। तो सब लोगों को बड़ा बुरा लग गया कि माताजी तो हमारे इंडस्ट्रीज पे ही उठ आयी| और वैसे भी उनका एक्स्पोर्ट ही बंद हो गया यू.के में। ये भी आप सुन लीजिये। बिल्कुल टोटल बंद कर दिये। आपको पता होगा कि यू.के. में अब तम्बाखु लोग नहीं लेते हैं अपने देश से। खत्म कर दिया। जो राक्षसीण है, अगर वो पैसा भी देती है तो उसको अपने सर पे रखना चाहिये? कोई अगर वेश्या हो कर पैसा कमा सकती है, तो क्या वो (अस्पष्ट)। पैसा ही सब कुछ हो गया। तो लीजिये पैसा! इसी प्रकार अनेक बातें हैं। हालांकि इस में परमेश्वर नाराज नहीं होता है। परमेश्वर का गुस्सा नहीं है। मैंने कल भी इन लोगों को समझाया । परमेश्वर आप पे नाराज नहीं होता। आप ही परमेश्वर से भागते हैं। उसकी छत्रछाया से आप निकल जाते हैं। आपके जो देवता है अन्दर में, आप जानते हैं, हर एक चक्र पे देवता है। वो सो जाते हैं। और आप परमेश्वर के राज्य से चले गये। आपके ऊपर उसका प्रोटेक्शन ही खत्म हो गया। और आप खत्म हो गये। उसमें परमात्मा का क्या दोष है। आप ही ने वरण किया नुकसानी का। जब आप नुकसान को वरण करते हैं, आप नुकसान पाते हैं। इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं। दोष आपका है, कि आपने परमात्मा को छोड़ कर के नुकसान का वरण किया है। आज टाइम बहुत हो गया| मेरी आज बड़ी परीक्षा ही हो गयी । आज मेरी बड़ी परीक्षा हो गयी, कि आज मैं बहुत जाना चाह रही थी कि सब से मिल जाऊँ। सब को जल्दी से आ जाऊँ और जल्दी से करूँ। और मोदी साहब की भी गाड़ी फेल हो गयी। आप लोग भी यहाँ ठहरे रहे और सब की परीक्षा बड़ी अच्छी हो गयी। पर उसमें मज़ा भी आ गया। थोड़े से रुकने के बाद, विरह के बाद जब मिलन होता हैं न, तो उसमें थोड़ा चमत्कार हो जाता है। कुछ कविता सी हो जाती है, कि हम इंतजार करते रहे कि उसके बाद माताजी आयी तो किस तरह से हम प्रफुल्लित हो गये। क्योंकि इंतजार में आप की जो है, गहराई बढ़ती है । उस गहराई के कारण आप भर ले सकते हैं। जब तक मैं हिन्दुस्तान में हूँ और जब तक मैं बम्बई में हँ, आप लोग हर एक प्रोग्राम में आईये। हालांकि आप जानते हैं कि मैं छुट्टिओं में पति के साथ आयी हूँ। और वो कह रहे थे कि जिंदगी में हमने एक ही छुट्टी लीं, तो उसमें भी तुम हमारे साथ नहीं रहती हो । संसार भी मैं चला रही हूँ। और ये छोटा सा संसार भी मैं चला रही हूँ। क्योंकि मैं चाहती हूँ कि आप लोग भी अपना संसार न छोड़ें। उसी में इसका भी बना हुआ है, अवगुंठन। लेकिन जब तक में यहाँ पर हूँ, और जब भी प्रोग्राम हो आप लोग जरूर आयें और मैं जरूर आऊंगी । दूसरी बात ये है कि बेकार के लोग संसार में भी ऐसे हैं कि, 'माताजी आयी हैं। माताजी, मेरे बाप के बहन की फलाने को, ठिकाने को, वो मेरा सगा है। इस सब में कुछ रखा नहीं। आप किसी पे उपकार करने मत निकलिये । कहना, पहले पार हो जाओ भाई । ये सब से बड़ा काम है। बीमारी वगैरा तो अस्पताल में भी ठीक हो सकती है। पहले पार हो जाओ, तुम्हारी आत्मा भी जागृत होगी। ये जिस दिन सबको समझ में आ जायेगा, कि सब से महत्त्वपूर्ण चीज़ यही है, उसी दिन आप समझ लीजिये की सहजयोग जो है बहुत उँचे इस पे आयेगा। 20 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-20.txt आज की व्यवस्था ६ मुंबई, १८ मार्च १९७५ इसका कैन्सर ठीक कर दो। हमारी बहन का ये ठीक कर दो। क्यों आखिर क्यों किया जाये! फिर माँ को दर दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। हर एक को जा के माँगना पड़ता है। ये जो बड़े बड़े रईस लोग हैं, इनका ये है कि हमारे बहन को ठीक कर दो, हमारी माँ को ठीक कर दो। और जिस वक्त पैसा देने को आया तो , हाँ, तो चॅरिटी के मामले में तो हमसे कोई वास्ता नहीं। एक मैं बता देती हूँ कि जिन लोगों ने ऐसा काम किया है, उनको मैं ब्लैक लिस्ट कर दंगी। बड़े बड़े लोग हैं और उनका नाम भी मैं सबको बताऊंगी। और आपके सामने ऐसे लोग जरूरी आना चाहिये। सब का मैं नाम बताऊंगी। छोड़ंगी नहीं मैं किसी को। (मराठी - हे घ्या. कोणी ठेवलं? त्यांचं नाव लिहा. साइड में बातचीत) बैठो बेटा, बैठो। अपना नाम लिखा लो। रसीद भी ले लो कायदे से। इसमें से कोई भी पैसा इधर उधर जाने वाला नहीं। लिख लीजिये। कोई भी पैसा इसका हम रखना ही नहीं चाहते हैं। जो जमीन ले रहे हैं, जगह ले रहे हैं, जमीन क्या वो तो फ्लैट ही है। वहाँ पे हॉल बना रहे हैं। इसलिये वो लगा लेंगे। इधर उधर जाने का कोई सवाल ही नहीं। मेरे जाने से पहले ही सब ठीक ठाक कर देंगे वो। कोई उसमें गड़बड़ की बात नहीं है। आपका रुपया किसी को चाहिये नहीं यहाँ पर। सब लोगों को रसीद लेनी पड़ेगी। उसी तरह से जो फोटो है, उसके दाम भी फिक्स है। ज्यादा मत देना कभी भी। जो दाम है, वही बता दिये जायेंगे। रुपये के मामले बिल्कुल गड़बड़ किसी को नहीं करनी चाहिये। मैं 21 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-21.txt बता रही हूँ। जो भी सहजयोगी हैं, याद रखिये, अगर आपने रुपये के मामले में गड़बड़ कर दिया तो मैं बड़ा गड़बड़ कर दूंगी। कोई गड़बड़ नहीं करें। ये रुपया जो है, पब्लिक का पैसा है और पब्लिक का एक एक पैसा जो है वो मेरे खून के बूँद के बराबर है। इसलिये खबरदार किसी ने गड़बड़ करी। कोई भी एक पैसे की गड़बड़ नहीं होनी चाहिये। धर्म का मतलब ये नहीं की बात एक करो और करो दूसरा काम। ये नहीं होता है। पैसों के मामले में अत्यंत पवित्रता रखनी चाहिये। वो पब्लिक का पैसा है वो पब्लिक के काम में लगाना है। इधर उधर लगाने की बिल्कुल जरूरत नहीं। रही बात मेरी तो मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। तुम मुझे कुछ दे भी नहीं सकते । आप लोग सब ऐसे ही हाथ कर के बैठे। तो मैं पन्द्रह- बीस मिनिट मैं आपको बताऊंगी दूसरी साइड़ के बारे में, जैसे कल मैंने आपको हठयोग के बारे में बताया था। हठयोग में क्या प्रश्न हो जाते हैं और मनुष्य कैसा से हठयोग के कारण एक तरह अन्दर से छूट जाता है। अब दूसरी साइड हमारी जो है, ये आज की व्यवस्था है। इस व्यवस्था में जब सहजयोग जागता है, जब आपके अन्दर से वाइब्रेशन्स आने शुरू हो जाते हैं, तो उधर से ही सारी आपके अन्दर ग्रेस उतरने लगती है। ऑल परवेडिंग है, जो सर्व्यापी है, वो शक्ति आपके अन्दर उतरने लग जाती है और आपका इगो और सुपर इगो दोनों हट के बीच में जगह होती है। और अब दोनों चीज़ को देखें। अब बाधा का मतलब कोई लोग सोचते हैं कि माताजी, कोई बुरी बात कर रहे हैं। बिल्कुल नहीं। हर समय आप उसे पकड़ के रहते हैं। हर समय उसका असर आप पे रहता है। आपका आज्ञा चक्र खुला हुआ है। किसी वक्त भी वो आपके अन्दर घुस सकता है। आपके नाभि चक्र में खाने पीने से भी जा सकता है। किसी भी तरह से वो चीज़ आपके अन्दर जा सकती है। सिर्फ उसको साफ़ करना आपको आ सकता है। इतना ही नहीं, लेकिन आप हर मिनिट जान सकते हैं कि इस वक्त पकड़ा है या नहीं। आपकी कुण्डलिनी आप से हट जायेगी । कल सहजयोग के बारे में मैं बताऊंगी, पूर्णतया, कि सहजयोग क्या है? और किस तरह से होता है ? उसका मैनिफेस्टेशन कैसे होता है? और उसके लाभ क्या हैं? वो कल बताऊंगी। अब ध्यान में कल कुछ गति खास हयी नहीं है। इसलिये फिर से आप लोग ध्यान में जायें और आपस में देखें, कि किस तरह से आप गति कर रहे हैं। फटु से मेरे पैर पे आने की कोई जरूरत नहीं। मेरे पैर पे आने से कुछ फायदा नहीं होने वाला। सब लोग जहाँ के तहाँ बैठो। मुझे आज जल्दी वापस जाने का है। मैं आपको ध्यान में बिठा के जाऊंगी। कोई भी आज मेरे पैर ना छूयें। लेकिन यहाँ और लोग हैं यहाँ वो आपको दें। एक दिन ऐसा कर के देखिये कि ध्यान में शांतिपूर्वक उसको पाने का है। पाये बगैर नहीं। 22 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-22.txt है जो मर्यादायों हमारी शक्ति को न्ट करती हैं वो तो हम बहत आसानी से बाँध लेते हैं किंत जो मर्यादारयों हमारी शक्ति को बढ़ाती हैं, हमारा हित करती हैं, इलना ही नहीं हमें एक प्रभुत्व देती हैं, व्यक्तिव्व देती हैं, एक बडप्पन देती हैं उसको हम और विचार का है। हमारी सूझबूझ का नहीं बाँधते । यही एक बडा भारी दोष । प.पू.श्रीमाताजी, २८/२/१९९१, ब्यू दिल्ली प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in 2016_Chaitanya_Lehari_H_III.pdf-page-23.txt मक तौ सत्य में जौ भावनी का विशेष अंग है वो ये कि ० भावनी से हम आडोलित हो जाते हैं, जैसे कि समूद्ध में कोई लहर चली और आक२ के वौ किनारे में १ टकश जीती है औ२ उसके बाढ लौट के जौ जाती है तौ उसके जौ बहुत ही सम तं२ह के तरंग बनते हैं, ऐसे ही आपके जीवन में विशेष काव्यमय सष्टि हो जीती है औ२ उस काव्यमय अष्टि में आप इतने विभो२२हते हैं। क्योंकि, ये नई चीज़ है, एक बहुत ही नाविन्यपूर्ण चीज़ है। प.पू.श्रीमातीजी, दिवाली पूजा, १/१०/१९९० ८ २ क १६ २०