चैतन्य लहर हिन्दी नवंबर-दिसंबर २०१६ ी ह कु0 ॐ २ भे ॐ २० ै Из शु ि र २] हम जब माँ के लिये गहने बनाते हैं, कितने सुंदर होते हैं। पर तुम लोग ही मेरा गहना हो। आपको ही मैंने गहना समझ कर परिधान किया है। अगर उन गहनों में अशुद्धता होती, वो साफ़ नहीं होते, उनका जो मुख्य गुणधर्म है वही नहीं होता, सोना सोने जैसा न हो कर पीतल की तरह होता तो उसका क्या अर्थ है? वैसे ही आप लोगों का है। तुम्हारे अन्दर जो मुख्य धातु है वही झूठा होता, तो मैं उसको पहन कर कहाँ घूमूंगी ? प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, १४ जनवरी १९८५ ज बु०] इस अंक में आज्ञा चक्र को व्यवस्था ...4 (पूजा, गणपतिपुले, २५/१२/१९९७) जो पाने का है वो सहज है ...10 (सार्वजनिक कार्यक्रम, पुणे, ३०/०३/१९७९) आत्मा की अनुभूति ...14 (सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, २८/१२/१९७७) कारम ० थु प गणपतिपुले, २५ डिसेंबर १९९७ आज्ञी चक्र की व्यवस्था 4t आज हम लोग यहाँ ईसा मसीह का जन्म दिन मनाने के लिए उपस्थित हुए हैं। ईसा मसीह की जिन्दगी बहुत छोटी थी और अधिक काल उन्होंने हिन्दुस्तान में ही बिताया-काश्मीर में। सिर्फ आखिरी तीन साल के लिए वापिस गए और लोगों ने उन्हें सूली पर टॉँग दिया। यह सब कुछ विधि का लिखा हुआ था। आज्ञा चक्र को खोलने के लिए उन्हें ये बलिदान देना पड़ा और इस तरह से उन्होंने आज्ञा चक्र की व्यवस्था की। आज्ञा चक्र बहुत संकीर्ण है, छोटा सा, और आसानी से खुलने वाला नहीं। क्योंकि मनुष्य में जो स्वतंत्रता आ गई उससे वो अहंकारी बन गया। इस अहंकार ने उसका आज्ञा चक्र बंद कर दिया और उस बंद आज्ञा चक्र से निकलने के लिए अहंकार निकालना बहुत ज़रूरी है और अहंकार निकालने के लिए आपको अपने मन को काबू करना पड़ता है । लेकिन आप मन से अहंकार नहीं निकाल सकते। जैसे ही आप मन से अहंकार निकालने का प्रयत्न करेंगे, वैसे ही मन बढ़ता जाएगा और अहंकार बढ़ता जाएगा। "अहं करोति सः अहंकार:"। हम करेंगे, इसका मतलब कि अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करे, तो अहंकार बढ़ेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं । जो लोग यह सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे, खाना कम खाएंगे, दुनिया भर के उपद्रव, एक पैर पर खड़े हैं, तो कोई सिर के बल खड़ा है! हर तरह के प्रयोग लोग करते हैं अपने अहंकार को नष्ट करने के लिए । लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता, इससे बढ़ता है। उपवास करना, जप-तप करना आदि सब चीज़ों से अहंकार बढ़ता है। हवन से भी अहंकार बढ़ता है क्योंकि अग्नि जो है वो दायें तरफ है। जो कुछ भी हम कर्मकाण्ड करते हैं, रिच्युअल्स करते हैं, उससे अहंकार बढ़ता है और मनुष्य सोचता है कि हम सब ठीक हैं। हजारों वर्ष से वही-वही कर्म काण्ड करते जाते हैं और उल्टा-सीधा सब मामला जो भी सिखाया गया, वही मनुष्य कर रहा है । इसीलिए सहजयोग कम्मकाण्ड के विरोध में है। कोई भी कर्मकाण्ड करने की जरूरत नहीं और अतिशयता पर पहुँचना तो और गलत बात है । जैसे हम ने कहा कि अपने अहंकार को निकालने के लिए आप उसको, मराठी में 'जोडेप़्ट्टी' कहते हैं, जूते मारिए, तो रोज सवेरे सहजयोगी जूते ले कर चले लाइन में। अरे अगर आप के अंदर अहंकार हो तब। हरएक आदमी हाथ में जूता लिए चला जा रहा है रास्ते में। यह सब कर्मकाण्ड सहजयोग में भी बहुत घुस गए है। यहाँ तक कि फ्रांस से भी एक साहब आए थे, वो वाशी के अस्पताल से कर्मकाण्ड ले कर आए। अरे बाबा, यह तो बीमारों के लिए है। आप को अगर यह बीमारी हो तो आप यह कर्मकाण्ड करो । जो कैन्सर की बीमारी के कर्मकाण्ड हैं वो भी उसने लिख रखे थे । मैंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव है कि कर्मकाण्ड करे। क्योंकि वो सोचता है मैं कर सकता हूँ। मेरे कर्मकाण्ड से कार्य होगा और इस कर्मकाण्ड में सिर्फ आप ही लोग नहीं हो, परदेस में से लोग कर्मकाण्ड करते रहते हैं। तरह-तरह के। जैसे साल भर में एक बार चर्च को जाएंगे, माने आज के भी बहुत दिन। उसके बाद भगवान का नाम भी नहीं लेंगे। दुनिया भर के गंदे काम कर के कैथोलिक धर्म में जाकर के वो कन्फेशन कर लेंगे। यह सब मूर्खता अगर आप देख सके तो आप सहजयोगी हो गए । अगर आप समझ सके कि यह में सब गलत काम जो हमने किया, यह गलत है और अब से आगे यह काम नहीं करने का, यह अगर आपकी समझ 5 जाए तो यह बात आपकी समझ में अा जाएगी। अब कर्मकाण्डी लोगों में और भी विशेषताएं होती हैं। एक तो वो एक नम्बर के कंजूस होते हैं। अगर आप उनसे दस रुपए की बात करे तो वे आकाश में कूदने लग जाते हैं। उसको मराठी में 'कौड़ी चुम्बक' कहते हैं। एक बात है। मराठी में ऐसे-ऐसे शब्द हैं जिनसे आपका अहंकार वैसे ही उतर जाए। जैसे कि कोई अपनी बहुत बड़ी- बड़ी बातें बताने लगे कि मैंने ये किया, मैंने वो किया , तो उसको धीमे से कह दीजिए कि तुम तो चने के पेड़ पर चढ़ रहे हो। चने का पेड़ तो होता नहीं। तो वो ठंडा हो जाएगा। मैंने ये किया, मैंने वो किया। 'मैं', जब तक ये 'मैं नहीं छूटता, तब तक हमारा ईसा मसीह को मानना गलत है। पर आश्चर्य की बात है जिनको ईसाई राष्ट्र कहते हैं। उनसे ज्यादा अहंकारी तो मैंने देखे नहीं। विशेषकर अंग्रेज़, अमरीकी, सब लोगों में इस कदर अहंकार है कि समझ में नहीं आता कि ईसा-मसीह के ये कैसे शिष्य हैं! अब इस अहंकार का इलाज क्या है? वो सोचना चाहिए । इसका इलाज ईसा-मसीह थे और उन्होंने सिखाया है कि आप सबसे प्रेम करें। अपने दुश्मनों से भी प्यार करें। इस का इलाज उन्होंने प्यार बताया है और प्यार के अलावा कोई इलाज नहीं और ये प्यार परम चैतन्य का प्यार है। उन्होंने साफ - साफ कहा कि आप को खोजो, दरवाज़े खटखटाओ, तो दरवाजा खुल जाएगा। इस का जाकर के दरवाजे खटखटाओ। इस का मतलब यह है कि अपने दिल के दरवाजों को अर्थ यह नहीं कि तुम खोलिए। जिस आदमी का दिल छोटा होता है, जो कंजूस होता है वो आदमी कभी भी सहजयोगी नहीं बन सकता और दूसरी चीज़ जो बहुत ज़रूरी है वो ये है कि आपको यदि गुस्सा आता है तो इस का अर्थ है कि आपके अन्दर अभी बहुत अहंकार है। मैंने देखी है गुस्से वालों की स्थिति , विस्फोटक और उससे उन्हें शान महसूस होती। बहुत शान से कहते हैं, मैं बहुत गुस्से वाला हूँ। ऐसे लोग सहजयोग में नहीं रह सकते। जो लोग प्रेम करना जानते हैं और वह भी विशुद्ध प्रेम, ऐसा प्रेम जिसमें कोई आकांक्षा नहीं, कोई इच्छा नहीं। पूर्णतया निरिच्छ जो लोग प्रेम करना जानते हैं, वही सहजयोग में रह सकते हैं। अहंकारी लोग बहुत गलत-सलत कार्य करते हैं। और मैं उनसे तंग आ गई हूँ। अपने ही मन से कुछ शुरू कर देंगे और मुझे बताएंगे भी नहीं। ऐसा करने से आज हज़ारों प्रश्न पैदा हो गए हैं। आज बताने की बात है। दिल्ली में इन्होंने मुझसे एक बार एक पूजा के दिन हड़बड़ी में आकर बताया कि हमें ज़मीन मिल रही है, बस। उससे कितना पैसा लिया, सब कैसे होने वाला है, ज़मीन कैसी है, कुछ नहीं बताया और किसी भी सहजयोगी ने नहीं बताया। क्योंकि कल यदि कोई कहे कि श्री माताजी ने ऐसा कहा है, तो उस आदमी को आप बिल्कुल छोड़ दीजिए । मुझे कुछ कहना है तो मैं स्वयं कहूँगी। उसके बाद इतनी मीटिंग्ज़ हो गईं, मुझे कभी कुछ नहीं कहा। अब जिन्होंने उन्हें पैसा दिया, सिर पकड़ के बैठे हैं कि उन्हें ठगा गया है। अब ये पैसा कैसे वापिस मिलेगा? मुझसे बगैर पूछे सारे काम हो गए, बिल्कुल बगैर पूछे। अब वो इतनी खराब ज़मीन है 6. कि अब नोटिस आया है कि आप उस पर कुछ भी नहीं बना सकते, उल्टे आपको हम पकड़ेंगे। हर एक सहजयोगी को अधिकार है कि मुझे आकर बताए और मुझसे पूछे। उन्होंने कोई अपनी एक सोसायटी बना ली और हो गए पागल कि ज़मीन मिल रही है "য০ न। इतनी खराब ज़मीन है कि बताते हैं वहाँ मुर्गी भी नहीं पाल सकते। सहजयोगी क्या मुर्गियों से भी गए बीते हैं? अब जो भी हुआ , सो मूर्खता है और उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूँ। लेकिन आप लोग अपने पैसे वापिस माँग लीजिए। मेरी उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। जो लोग प्रेम ईसा-मसीह ने तो यहाँ तक कहा था कि जो लोग घर में रहते हैं, उन्हें पक्षियों की ओर देखना चाहिए। वो अपना घरौंदा कितने प्यार से छोटा सा अपने लिए बनाते हैं करना जानते हैं और वह भी और जब वो अपना घर बनाते हैं, तो उस घर को बनाने में उन्हें बड़ा मज़ा आता है। हर विशुद्ध प्रेम, तरह से उन्होंने समझाया कि आप ममत्व को छोड़ दीजिए। यह मेरा घर है, यह मेरी ऐसा प्रेम ज़मीन है, ये मेरे बच्चे हैं। यहाँ तक कि यह मेरा देश है। यह जो ममत्व है, यह छूटना जिसमें कोई चाहिए, तभी आप महान हो सकते हैं। सारे विश्व में आप भाई -बहिन हैं। इसका आकांक्षा नहीं, मतलब यह नहीं कि आप अपनी देशभक्ति को छोड़ दें। यदि आप देश भक्त नहीं हैं तो आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे। आप में देश भक्ति होनी ही चाहिए। लेकिन यही देश- कोई इच्छा भक्त विश्व- भक्त हो जाता है। अगर देश भक्ति ही नहीं है, जब बूंद ही नहीं है तो सागर नहीं। पूर्णतया कैसे बनेगा? तो प्रथम, आपमें देशभक्ति है या नहीं, यह देखना चाहिए। आप देश के निरिच्छ जो विरोध में यदि कोई कार्य कर रहे हैं तो आप देशभक्त नहीं हैं। लोग प्रेम ईसा-मसीह को वापिस जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी । उन्होंने कहा भी था कि वहाँ सब ऐसे लोग रहते हैं जिनको सिर्फ मल की इच्छा है। यानि जो म्लेच्छ हैं। लेकिन करना जानते शालिवाहन ने उनसे कहा, नहीं नहीं, तुम जाओ और उन्हें 'निर्मलत्त्वम्' सिखाओ। वो सिखाने गए 'निर्मलत्त्वम्' और उल्टा उन्हें ही सूली पर चढ़ा दिया गया। पागलों का देश, उनसे कुछ सीखने का था ही नहीं, पर सिखाने का था, इसलिए वो गए और हैं, वही सहजयोग में रह सकते हैं। इसीलिए उनका अन्त इस प्रकार हुआ। समझदारी और क्षमा। क्षमा ही मन्त्र है जिससे आज्ञा चक्र खुलता है। यदि आपको किसी के भी प्रति कोई गलतफहमी है, किसी के प्रति आपको कोई द्वेष है या lle किसी के प्रति हिंसा की प्रवृत्ति है तो आप की आज्ञा ठीक नहीं हो सकती। जो भी आप को करना है प्रेम के द्वारा। आपको किसी को कहना भी है तो इस लिए कहना है, कि उस का जीवन निर्मल हो जाए। 7 इस का अर्थ यह नहीं कि आप अपने बच्चों को खराब करें । बच्चों को आपको पूरी तरह से अनुशासन में लाना है। अगर आप बच्चों को अनुशासन में ला नहीं सकते, तो आपके बच्चे कभी अच्छे सहजयोगी नहीं हो सकते । और उसके लिए पहले आपमें खुद अनुशासन होना चाहिए। यदि आपमें अनुशासन नहीं होगा तो आप बच्चों को अनुशासित नहीं कर सकते। ईसा-मसीह का जो जीवन था उसके बारे में बहुत कम लिखा गया है। लेकिन उनके अन्दर इतना अनुशासन था, इस कदर उन्होंने सहा और अपने जीवन से उन्होंने दिखा दिया। उनको विवाह की भी ज़रूरत नहीं थी । उन्होंने विवाह नहीं किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे विवाह के विरोधी थे | ऐसी गलतफ़हमी लेकर लोग बैठे हैं और इसी लिए इन्होंने ये महिलाएं बनाई हुई हैं जिन्हें 'नन ' कहते हैं। उनकी शादी ईसा से करते हैं जो साक्षात् गणेश हैं। उनसे कैसे हुए शादी कर सकते हैं ? उसके अलावा आदमियों को भी शादी नहीं करनी। इस प्रकार की अनैसर्गिक बातें सिखा दी। उससे वो सबको अपने कैंज़े में रख सकते हैं। पर उससे ईसाई नहीं हो सकते। इस तरह के कृत्रिम बन्धन अपने ऊपर डाल लेने से आज ईसाई धर्म डूब रहा है। ईसा को उन्होंने भुला दिया और अपने ही मन से एक धर्म उन्होंने बना लिया और उसको ये ईसाई धर्म कहते हैं। आज कल का ईसाई धर्म ईसा के नाम पर कलंक सा लगता है। क्योंकि मेरा जन्म ही इस धर्म में हुआ और मैंने इस धर्म की सभी अन्दरूनी बातें देखी । उसी प्रकार हिन्दू धर्म की बात है। हिन्दू धर्म में आप साम्प्रदायिक हो ही नहीं सकते, क्योंकि आप के अनेक गुरुओं, वास्तविक गुरुओं, जैसे दत्तात्रेय जी, नाथपंथी आदि आपके अनेक अवतरण हैं, और आपके स्वयंभू अनेक हैं। आपके एक नहीं, अनेक धर्मग्रन्थ हैं। ईसाई लोगों में सिर्फ ईसा और बाइबल| वो रुढ़िवादी हो सकते हैं। मुसलमान हो सकते हैं और यहूदी लोग भी हो सकते हैं और तीनों का आपस में रिश्ता है, ऐसा धर्मग्रन्थों में लिखा है। लेकिन हिन्दू नहीं हो सकता साम्प्रदायिक। क्योंकि किसी का कोई, किसी का कोई। कोई महालक्ष्मी को मानता है, तो कोई रेणुका देवी को मानता है, तो कोई कृष्ण को मानता है। हर आदमी , हर परिवार अलग-अलग अवतरणों को मानते हैं। अलग-अलग धर्मग्रन्थों को मानते हैं। कोई भी ऐसा धर्मग्रन्थ नहीं है जो कि बाइबल जैसा हो। इसलिए सब धर्मों का, एक हिन्दू को चाहिए कि मान करे। मैंने देखा है कि हिन्दुओं में मान करने की शक्ति सब से ज्यादा है। एक बार हम एक होटल में थे, वहाँ एक बाइबल थी। वो सब मेज़ पर बाइबल रखते थे, चाहे कोई पढ़े या नहीं। वो बाइबल नीचे गिर गया तो हमारे साथ एक हिन्दू थे। उन्होंने उस बाईबल को उठाया सिर पर रखा और फिर मेज़ पर रख दिया। कभी बाइबल को पैर से नहीं छुएंगे। कभी नहीं। ईसाई तो ऐसा कर लेंगे पर हिन्दू नहीं करेगा। सब की इज्जत करना यह हिन्दू का धर्म है। पर उससे आज कल जो लोग निकले हैं अजीबो गरीब, जैसे आज के हमारे राजनीतिज्ञ हैं। बरसात में जैसे मशरूम निकल आती है ऐसे ये लोग निकल आये हैं। ये लोग वास्तव में हिन्दू नहीं हैं। इन्हें अपने धर्म के बारे में कुछ मालूम नहीं। उत्तर भारत के लोगों को कुछ भी मालूम नहीं और जो दक्षिण भारत के लोग हैं, उन्हें तो केवल यही मालूम है, कि ब्राह्मण को यहाँ पैसा देना है वहाँ देना है। ये करना है वो करना है। कर्मकाण्ड के सिवाय इस महाराष्ट्र में और कुछ नहीं। इतने कर्मकाण्डी लोग हैं (मैंने महाराष्ट्र में बहुत मेहनत करी है, सब व्यर्थ गई) প कुछ छूट नहीं सकता उनसे। यहाँ एक सिद्धि विनायक का मंदिर है। उसके जो गणेश जी हैं, उनको जागृत मैंने किया। अब देखती क्या हूँ कि वहाँ एक-एक मील की लम्बी कतारें मंगलवार को खड़ी हुई हैं। गणेश जी भी सो गए होंगे। इस कदर कर्मकाण्डी लोग महाराष्ट्र में हैं कि उस कर्मकाण्ड से उनका स्वभाव ज़रा तीखा हो गया है और उत्तर भारत में भी मैंने देखा है कि कुछ लोग कर्मकाण्डी हैं और जो कर्मकाण्डी लोग हैं, उनमें गुस्सा बहुत है। बहुत तेज़ गुस्सा है और जो लोग कर्मकाण्ड में नहीं हैं वो लोग बहुत शांत हैं। सो पहली चीज़ है कि कर्मकाण्ड बंद करो और हर चीज़ का आदर करो। कर्मकाण्ड बंद करने का यह मतलब नहीं कि सबको लात मारकर फेंक दो। यह संतुलन जो हैं, यही ईसा-मसीह ने सिखाया है। यह संतुलन आए बगैर आपका आज्ञा चक्र नहीं खुल सकता। सबका सम्मान, सबका आदर और बेकार के कर्मकाण्ड जिसमें गलत लोग पनप रहे हैं। आजकल के जो बहुत से झूठे साधु बाबा हैं वे कर्मकाण्ड की वजह से ही हैं। वो कहेंगे कि आप इतने रुपए दो, यह करो, वो करो, यज्ञ करो। एक सौ आठ मर्तबा रोज़ यह नाम लो, वो नाम लो। मंत्र देता हूँ, फलाना करता हूँ। यह सब कर्मकाण्डी हैं और आप लोगों को कर्मकाण्ड सिखाते हैं जिसके परी तरह से विरोध में ईसा मसीह थे। क्योंकि वो जानते थे कि कर्मकाण्ड करने से आदमी अहंकारी हो जाते हैं और इस अहंकार को तोड़ने के लिए उन्होंने कर्मकाण्ड को एकदम मना किया था । इसी तरह से परमात्मा के नाम पर कोई भी आदमी पैसा कमाए तो इसके विरोध में थे । परन्तु इसका उल्टा शुरु हो गया कि पैसा कमाओ और खाओ। कमाना तो नहीं छूटा पर पैसा कमा लो और खा जाओ, खुद जिससे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। आज सहजयोग के कार्य में हमें याद रखना चाहिए कि हमने सहजयोग के कार्य में क्या आर्थिक योगदान दिया। ईसा मसीह के पास तो १२ मछली मार थे। वो तक फैल गए सारी दुनिया में मेहनत करके । आज आप लोग मेरे इतने सारे शिष्य हैं और आप लोग चाहे तो कितने ही लोंगो को पार करवा सकते हैं, कितने ही लोगों को सहजयोग में ला सकते हैं। पर लोग आधे-अधूरे नहीं रहने चाहिए बल्कि गहरे उतरने चाहिए। जब तक गहरे नहीं उतरेंगे तब तक आप समझ नहीं पाएंगे और उसके लिए सबसे बड़ी चीज़ है कि हम उनको कितना प्यार देते हैं और वो कितना प्यार दूसरों को देते हैं। कोई भी आदमी जब सहजयोग में अगुआ होता है, तो उसको पहले याद रखना चाहिए कि ईसा-मसीह ने जो देन दी है कि आप सबसे प्यार करो, क्या मैं उसका पालन कर रहा हूँ? मैं सब पर रोब झाड़ता हूँ, मैं सब को ठिकाने लगाता हूँ , सब के ऊपर आँखें निकालता हूँ, यह अहंकार न केवल सहजयोग के विरोध में है बल्कि उसका नाश करने वाला है। जिस आदमी में भी अहंकार हो, वह उसे कम करे और उस की जगह प्यार से भरे तो जीवन हो हो जाएगा। यदि आप को प्यार करना नहीं आता तो थोड़े जाएगा, जोवन सुन्दर हो जाएगा। जीवन सुन्दर सुखमय दिन आप सहजयोग से बाहर रहें । पहले अपने हृदय के दरवाजें खोलें। उसी की शक्ति से सहजयोग फैलेगा। बात यह है कि जो लोग सहजयोग फैलाते हैं उनमें प्यार की शक्ति कम और गुस्से की शक्ति ज्यादा है। कभी नहीं फैलेगा। प्यार से बढ़ेगा और गुस्से से घटेगा और नष्ट हो जाएगा। जो ईसा मसीह की सीख है वो बहुत ज़रूरी है कि हम लोग समझ लें। परमात्मा आपको धन्य करें। 9. जो पाने का हैं वो सहज है 10 पुणे, ३० मार्च १९७९ आप लोग सब इस तरह से हाथ कर के बैठिये। इस तरह से हाथ कर के बैठे और आराम से बैठें। इस तरह से बैठिये। सीधे इस तरह से आराम से बैठिये। कोई स्पेशल फोर्स लेने की जरूरत नहीं है। बिल्कुल आराम से बैठिये। सहज आसन में। बिल्कुल सादगी से। जिसमें कि आप पे कोई प्रेशर नहीं। न गर्दन ऊपर करिये, नीचे करिये। कुछ नहीं। मुँह पर कोई भी भाव लाने की जरूरत नहीं है और कोई भी जोर से चीखना, चिल्लाना, हाथ-पैर घुमाना, श्वास जोर से करना, खड़े हो जाना, श्वास फुला लेना ये सब कुछ करने की जरूरत नहीं। बहुत सहज, सरल बात है और अपने आप घटित होती है। आपके अन्दर इसका बीज बड़े सम्भाल कर के त्रिकोणाकार अस्थि में रखा हुआ है। इसके लिये आपको करना नहीं है। आँख इधर कुछ रखिये। बार बार आँख घुमाने से चित्त घूमेगा । आँख इधर रखिये । चित्त को घुमाईये नहीं। आँख घुमाने से चित्त घूमता है। आँखे बंद कर लीजिये, उसमें हर्ज नहीं। उल्टा अच्छा है, आँख बंद कर लीजिये। अगर आँख बंद नहीं हो रही हो या आँखें फड़क रही हो तो आँख खोल दीजिये । सब से पहली चीज़ है ये घटना घटित होनी चाहिये । लेक्चर सुनना और सहजयोग के बारे में जानना इसके लिये बोलते बोलते मैं थक गयी हूँ। और इसके लिये एक किताब भी लिखी गयी है, अंग्रेजी में । इसकी कॉपीज तो खत्म हो गयी । लेकिन और आने वाली हैं। जिसको अगर लेना हो वो अपना नाम दर्ज करें। उसमें सब सहजयोग के बारे में बातचीत की गयी है । काफ़ी बड़ी किताब है। इसलिये मैं लेक्चर नहीं दंगी। लेक्चर देते देते में थक गयी। अब आप सब लोग पार हो जाईये। जो पाने का है, उसे पा ले। इसके लिये हम टाइम देंगे। क्योंकि आज मैं आखरी दिन यहाँ पर हूँ। उसके बाद लंडन चली जाऊंगी। जो पाने का है वो सहज है और सहज ही घटित होता है। उसमें कोई भी आफ़त करने की जरूरत नहीं। कोई चिल्लाने की जरूरत नहीं । चीखने की जरूरत नहीं। जब घटित होगा, आप खुद ही जान जाईयेगा, कि हो गया। पूरी तरह से आँख बंद कर दो। तुम्हारे आज्ञा पे पकड़ आ रही है। दोनों हाथ हमारी ओर कर के आराम से बैठ जाईये। इस तरह से। कोई ऊपर उठाने की जरूरत नहीं। आराम से। बिल्कुल आराम से। थोड़ी देर के लिये अपने विचार बाहर रख दें। उससे कोई फायदा नहीं होता। जो घटना है, उसे घटित होने दीजिये अपने आप।| आपको पाना है न, फिर आप पा लीजिये। इधर की, उधर की बातें सोचने से क्या फायदा? इसकी, उसकी बात सुनने से कोई फायदा नहीं है। जिन्होंने दुनिया में किसी का भी कल्याण नहीं किया, वो क्या बात कर सकते हैं! आप लोग अपना अपना कल्याण पा ले। इसको साध लेना चाहिये। थोडे हल्के बैठें। कुछ लोग जरा नर्वस से हैं। थोड़े हल्के बैठें। एकदम पैर वगैरा हल्का छोड़ के बैठिये। कोई भी लॉकिंग सिस्टम नहीं चाहिये। वजन एकदम हल्का छोड़ दीजिये। कोई भी आसन वगैरा मत लायें। दोनो हाथ हमारी ओर करें और आँख बंद करें। अब क्या होता है, आप देखिये । अब अपने मन की ओर देखें और ये जाने की कोई विचार अन्दर से आ रहा है। अन्दर से। आप बाहर से मेरी बात सुन रहे है। आप सतर्क हैं। लेकिन ये देखिये की आपको कोई विचार आ रहा है क्या? 11 (माइक में तीन बार फूँक मारने के बाद) अब आपके हाथ में देखिये ठण्डी हवा आ रही है क्या? हाथ की तरफ़ चित्त न करें। आँख न खोलिये। आँख बगैर खोले अपने हाथ की ओर चित्त करें, देखें ठण्डी ठण्डी हवा आ रही है क्या? अगर गरमी आ रही है, तो जरा हाथ झटक ले। जरा सा झटक ले, पोछ ले। या थोडा सा फूँक ले अगर गरमी आ रही है। आराम से बैठ के देखते रहिये। हाथ नीचे लें। आप हाथ नीचे रखिये। हाथ नीचे ले लीजिये। ऐसे लीजिये। हाथ की ओर चित्त नहीं। पहले हाथ की ओर चित्त रखें। ज़रा झटक लें ऐसे हाथ। थोड़े हाथ को झटक ले अगर.... एक, दो बातें मैं आपसे बताऊँगी। जरा ध्यान दें। लेकिन आँख बंद रखें । आँख नहीं खोलियेगा । आँख कृपया न खोलें, क्योंकि कुण्डलिनी जब चढ़ती है, आज्ञा चक्र पे मॅलिटेशन... होता है। इसलिये आँख खुलेगी तो कुण्डलिनी चढेगी नहीं। ये बराबर हिप्नॉटिज्म के विरोध में है । शांति से बैठिये। हमारी ओर दोनों हाथ ऐसे कर के बैठिये। मानो की जैसे माँग रहे हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण दीजिये। हमें पार कराईये। अब समझने की बात ये है, आपमें से जिन्होंने कोई भी कुलदैवत माना हो, या किसी की भी पूजा की हो, जैसे दत्त्रेय की समझ लीजिये आपने पूजा की है। तो इस वक्त जो हालात है, उसमें आपको ये पूछना होगा, कि क्या हमारे सामने साक्षात् दत्तात्रेय बैठे हैं? जिनका बदन हिल रहा है वो आँखें खोल दें। अगर आप श्रीराम को मानते हैं, तो इसी तरह का प्रश्न आप करें। अगर आप जगदंबा को मानते हैं, तो पूछिये कि, क्या माँ जगदंबा है? यही एक तरीका है, सहजयोग में पाने का। इसे हम भी क्या करें! जिस तरह बिजली का जो प्लग चालू होता है, उसी में प्लग लगाया जाता है। इस वक्त हम ही चालू है। जब पूछते थे तब लोगों ने कहा, कि हम राम को मानते हैं। जब कृष्ण चले गये, ईसामसीह आये, तो लोगों ने कहा मोझेस को मानते हैं । जब हम आये, तो लोग कहते हैं हम इन सब को मानते हैं। आपको नहीं मानते हैं। और वो सब हम ही हैं। इसे क्या किया जाय ? हम वही हैं तो हम इसे क्या करें? और आप लोगों को इसमें बुरा क्यों लगता है समझ में नहीं आता। आपको बहुत से काम आते हैं, जो मुझे नहीं आते। मुझे तो बहुत से काम आते ही नहीं। मुझे ये काम आता है, तो आपको इसमें बुरा क्यों लगता है, यही समझ में नहीं आता । अगर हम कोई चीज़ है तो है। इसमें आपको घबराने की कौनसी बात है? हजारों कुण्डलिनियाँ जब उठाते हैं, तो कोई न कोई तो बात होगी, नहीं तो हम कैसे उठायेंगे कुण्डलिनी को? सोचने की बात है। जो लोग गायत्री का मंत्र कहते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या आप गायत्री हैं ? संध्या हैं? जो लोग मोहम्मद साहब को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप मोहम्मद साहब हैं ? जो लक्ष्मी-नारायण को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप लक्ष्मी-नारायण हैं? जो लोग हनुमान को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप हनुमान हैं? जो लोग भैरव को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप भैरव हैं? जो लोग शिवजी को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप शिवजी हैं? इसी प्रकार जगदंबा को पूछना चाहिये, इसी प्रकार श्रीराम से पूछना चाहिये, इसी प्रकार श्रीकृष्ण से पूछना चाहिये, क्या आप श्री राधा-कृष्ण हैं? इसी प्रकार ईसामसीह से पूछना चाहिये, मुझ से पूछिये, क्या माँ, आप ईसामसीह हैं? इसी प्रकार आप पूछें, 12 क्या माँ, आप कल्कि हैं? पूछें, कि क्या माँ, आप आदिशक्ति हैं? जो आदिशक्ति के बारे में कहा गया है, वो सब हम काम करते हैं। तो फिर हमें आदिशक्ति मानने में आप लोगों को इतना हर्ज़ क्यों है? कॅन्सर तो आप हम से ठीक कराते हैं। अपनी कुण्डलिनी उठाते हैं। तो इस तरह से भ्रम में क्यों रहते हैं आप? आज तक हमने ये बात नहीं कही थी। लेकिन मुझे मालूम हैं कि मनुष्य अधिकतर मूर्ख होते हैं। जो दुष्ट होते हैं और जालसाज होते हैं और चोर होते हैं उनको ही भगवान मान कर बैठते हैं। महामूर्खों की निशानी यही है और जितने भी संत-साधु, असल होते हैं, अवतार होते हैं, उनको छलते हैं। ये अधिकतर मनुष्यों की विशेषता है । पहला हिसाब ये बताईये, कि हम आपसे एक पैसा नहीं लेते हैं। हमें आप कुछ देने वाले नहीं है। हम आपके पास कोई भी माँग नहीं करते हैं । हम ही उल्टे यहाँ पैसा खर्च कर के आते हैं और अपने पैसे से ही रहते हैं। तो फिर हमारे पे इतना हक क्यों जता रहे हैं? आप हम से कुछ माँगने आते हैं या हमें लेक्चर झाड़ने आते हैं? आपको अभी तक अगर मिला होता तो आप हमारे पास क्यों आते? फिर बाद में जब बीमारियाँ हो जायेगी तब फिर आओगे । अभी ठीक हो जाओ। जिससे आगे बीमारियाँ नहीं आयेगी। नहीं तो कॅन्सर जैसी बीमारी भी चिपक जायेगी। सम्भल के रहो । इसको पा लेना चाहिये, जो परम है। वो तुम्हारे लिये हम खुद लाये हैं बना कर के बढ़िया। बड़े ही आप बुद्धिमान बन के आये हैं, कहाँ से आये हैं मेरी समझ में नहीं आता! बुद्धिमानी के लक्षण नज़र आ रहे हैं सारे, अब कुछ समझदारी थोड़ी देर के लिये रखो और पा लो। बचकाना अच्छा नहीं है। सारी जिंदगी बर्बाद कर दी फालतू चीज़ों में। कौन सी माँ ये बतायेगी, कि तुम जा के शराब पिओ। अपने को नष्ट करो। अपना सर्वनाश करो और जो आदमी ऐसी बातें कहता है उसको क्या वो हार पहनायेगी, कि ठीक है मेरे बच्चे का नाश कर। अभी तक अपने देश में कम से कम ऐसी माँ एँ नहीं आयीं। ये आपके भाग्य हैं। इस तरह से प्रश्न पूछे कि, 'क्या माँ आप आदिशक्ति हैं?' पूछिये ऐसा प्रश्न। (बाजू में , भाईसाहब आप आँख बंद कर लीजिये। वो नीले शर्ट में आये हैं वो आँख बंद लीजिये और ऐसे हाथ करिये मेरी ओर।) जो लोग आराम से बैठे हैं नीचे वो लोग उपर बैठें। पहले से बैठ जाईये। आईये, जिसको आना है आयें। और ऐसे यहाँ तमाशे न देखते रह जायें। कुछ अपने से भी प्यार करना चाहिये। कुछ अपना भी तो ख्याल करना चाहिये। दुूसरों को देखते रहोगे जिंदगी भर, अपने को कब देखने वाले हैं। आप आँख बंद करिये । अब किसी को आने मत दो। नौ बजे तक लोग आते रहेंगे। ये कोई तरीका है? परमात्मा को पाना है, तो पहले से आ के शांति से बैठ जाओ। थोड़ी देर आराम से बैठो। पाने की बात है। आँख बंद करो । धीरे धीरे हो जायेगा । एकदम छोटे बच्चों जैसे समझाना पड़ता है। क्या ध्यान करने आये हैं? आप परमात्मा को पाने आये हैं। आप अपने को जानने आये हैं। कोई ऐसी बात नहीं जिसको आप कोई भी छोटी चीज़ समझ जायें । बहत बड़ी बात है, जन्मजन्मांतर की बात आप माने आये हैं। आप लोग तो इस तरह से करते हैं जैसे कोई ...... करने आये हैं। अब जरा शांति से बैठे सब लोग। जब तक समझाया नहीं जायें कोई समझता ही नहीं। 13 आत्मा की अनुभूति मुंबई, २८ दिसंबर १९७७ आपसे पिछली मर्तबा मैंने बताया था, कि आत्मा क्या चीज़ है, वो किस प्रकार सच्चिदानंद होती है, और किस प्रकार आत्मा की अनुभूति के बाद ही मनुष्य इन तीनों चीज़ों को प्राप्त होता है। आत्मसाक्षात्कार के बगैर आप सत्य को नहीं जान सकते। आप आनन्द को नहीं पा सकते। आत्मा की अनुभूति होना बहुत जरूरी है। अब आप आत्मा से बातचीत कर सकते हैं। आत्मा से पूछ सकते हैं। आप लोग अभी बैठे हये हैं, आप पूछे, ऐसे हाथ कर के कि संसार में क्या परमात्मा है? क्या उन्ही की सत्ता चलती है? आप ऐसे प्रश्न अपने मन में पूछे। ऐसे हाथ कर के। देखिये हाथ में | कितने जोर से प्रवाह शुरू हो गया। कोई सा भी सत्य आप जान नहीं सकते जब तक आपने अपनी आत्मा की अनुभूति नहीं ली। माने जब तक आपका उससे संबंध नहीं हुआ। आत्मा से संबंध होना सहजयोग से बहुत आसानी से होता है । किसी किसी को थोड़ी देर के लिये होता है। किसी किसी को हमेशा के लिये होता है। आत्मा से संबंध होने के बाद हम को उससे तादात्म्य पाना होता है। माने ये कि आपने मुझे जाना, ठीक है, आपने मुझे पहचाना ठीक है, लेकिन मैं आप नहीं हो गयी हूँ। आपको मैं देख रही हूँ और मुझे आप देख रहे हैं। इस वक्त मैं आपकी दृष्टि से देख सकूँ, उसी वक्त 14 तादात्म्य हो गया। आत्मा के अन्दर प्रवेश कर के वहाँ से आप जब संसार पे दृष्टि डालते हैं तब कहना चाहिये आत्मसाक्षात्कार पूर्णतया संपन्न हो गया। कुण्डलिनी का जागरण, उत्थापन तथा भेदन सब कुछ हो गया, जो लोग पार हैं। सहस्रार टूट गया। आप चक्रों के द्वारा अपनी स्थिति और दसरों की भी स्थिति को जानकारी होने लगी। लेकिन अभी आप आत्मा के साथ तदाकार नहीं हुये। बहुत अच्छी तरह पहचान लेते हैं। उसकी आत्मा से तदाकार होने के लिये, सब से पहले 'मैं नहीं हूँ' ऐसा मानना चाहिये । वही वो है, तू ही तू है । पहले आत्मा को मानना चाहिये कि 'तू ही तू है। मैं नहीं हूँ।' कबीर दास ने बहुत अच्छे से कहा है कि, जब धुनकने वाला धुनकता है, तब धुनकी की आवाज आती है, 'तू ही तू ही'। लेकिन जब बकरी के पेट में आंतडियों के रूप में होती है तब कहती है 'मँ, मँ, मँ (मैं, मैं, मैं)' । फिर बकरी के आंतडियों से निकल के उसकी अच्छी पिटाई होती है, तानी जाती है, सुखायी जाती है, और जब उसे फिर धुनकनी पे लगाते हैं, वो हर समय कहती है, 'तू ही तू ही' । ऐसे ही हमारे मन का है। मन को खूब अच्छे से देखना चाहिये। देखो तो भला । ये मन कैसा है ? कहाँ भटकाते रहता है हमको? कहाँ भटकाते रहा व्यर्थ की चीज़़ों में ? हमारा चित्त कहाँ जाता है? कभी इसको देखते हैं, कभी उसको देखते हैं। कभी इस चीज़ को देखते हैं, कभी उस चीज़ को | देखते हैं। हर समय हमारा मन किसी न किसी भावना या वासना से भरा रहता है। अब उसमें प्रकाश हो गया, हम देखते हैं। कि उसमें वासना है, उसमें भावना है, लेकिन तो भी हम इस गंदी चीज़़ को हमारे साथ लिये जा रहे हैं। इसको धूनकना है। मारना-पीटना नहीं है। धुनकना है। उस की ओर देखें। उसके प्रकाश को प्रज्वलित करें। 'हे मन, देखो , तुम तो परमेश्वर का मंदिर हो ना! परमेश्वर के मंदिर में ऐसी गंदी भावना क्यों आयीं? इसको तुम बाहर ही रखो। बहुत हो चुका। पहले सभी लोग ऐसा लिखते थे कि, 'मन समज, समज पग धरी। ' हे मन दुनियाभर की चीज़़ों के लिये तुम दौड़ते हो। तुम परमात्मा के लिये कब दौड़ोगे? परमात्मा को अपने अन्दर कब बसाओगे? तुम्हें ये चिंता रहती है कि मेरे बेटे का क्या होगा? मेरे माँ का क्या होगा ? मेरे बाप का क्या होगा ? अरे मन, ये तेरे कौन रह चुके? ये कोई तेरे हुये हैं? ये कोई तेरे अपने हैं? उनके लिये क्यों तुम हर बार इस तरह से परेशान होते हैं। अपने मन से बात करें। धीरे धीरे इस तरह से मन की सफ़ाई होते हुये, आत्मा का प्रकाश प्लावित होने लगेगा। उस प्रकाश से आपमें आनन्द की लहरियाँ बहनी शुरू हो जायेगी। आप में जड़त्व लाने वाली जितनी भी चीजें हैं, धीरे धीरे घटती जायेंगी और आप अपने आत्मा में लीन होते जायेंगे। इस वक्त आप कहेंगे 'मैं, मैं ही हूँ, और कुछ नहीं।' यही भावना रह जाती है कि 'मैं हूँ।' आत्मा ही आप हो जाते हैं और आप कहते हैं कि 'मैं ही हूँ।' जब आत्मा के अन्दर से दृष्टि होने लग जाती है तो आप कहते हैं कि ये 'मैं हूँ।' ये संसार मैं हूँ। ये सृष्टि मैं हूँ। ये समुंदर मैं हूँ। ये दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं कि मैं नहीं हूँ। हर एक चीज़ में मैं हूँ। मैं ही बसा हुआ। हर चीज़ में मेरा ही वास है। मेरे से ही सारी सृष्टि स्पंदित है। मेरे बगैर सृष्टि का निर्माण ही नहीं । मैं ही मैं सब कुछ। ये अहंकार नहीं, ये वास्तविक है । ये असलियत है। इसे अस्मिता कहते हैं। लेकिन इसे पाने के लिये सब से पहले हमारा जो झूठा 'मैं' है उसे तोड़ना होगा । झूठे 'मैं' में अनेक चीज़ें हैं। शुरू से आप देखें, 'मैं हूँ हिन्दुस्तानी, मैं हूँ हिन्दू, मैं हूँ मुसलमान, मैं हूँ फलाने नाम वाली, मैं हूँ फलाने नाम वाला। मेरी ये पोजीशन, मेरा ये पैसा, मेरा ये गरूर। मैं साड़ी हूँ, मैं कपड़े हैँ, मैं स्वेटर हूँ, सूटू्स हूँ, सब कुछ हूँ।' मैं, मैं नहीं हूँ। | बाकी सब 'मैं' होगा। इस तरह से अनेक 'मैं' में लपटा हुआ सारी जिदंगी बिताते रहता हूँ। फिर एक क्षणभर बैठ के सोचना चाहिये कि 'क्या इसलिये मेरा जन्म हुआ था? सारी जिंदगी मैंने क्या किया ? कहाँ गये ये दिन ? कहाँ बिताया मैंने? अपना 15 सारा समय कहाँ बर्बाद किया मैंने?' सहजयोग के बाद भी बहुत से लोग अभी भी अपना समय बहुत बर्बाद करते हैं। फिर वो समय नहीं आने वाला इस बात को नहीं समझते हैं। बहुत लोग बर्बाद करते हैं। गलत जगह चले जाते हैं और फिर आ के कहते हैं कि, 'माँ, मेरा सर पकड़ गया है।' क्यों ऐसा समय बर्बाद करना है? इसमें रखा ही क्या है? ऐसे तो हजारों लोग अपना समय बर्बाद करते हैं। लेकिन पार होने वाले लोगों को आत्मा में लीन होना चाहिये। सब हो गया। भंडार खोल दिये। दरवाजे खोल दिये। अन्दर भी आ गये। अब हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं। अब इसे क्या किया जाये? भाई, हम आपके लिये खाना बना सकते हैं। आपके मुँह में डाल सकते हैं। अब आपका पचा तो नहीं सकते ना ! ये तो आप ही को पचाना है। उस की कोई मेहनत नहीं है खास। सब चीज़ के लिये टाइम होता है। इस चीज़ के लिये टाइम नहीं होता है। आखिर हमने पाया क्या है आज तक? दो-चार साड़ियाँ पा ली। दो-चार जेवर पा लिये। आठ-दस पंगे पा लिये, फलाने के फलाने थे, ढिकाने के ढिकाने थे। ऐसे हज़ारों आये और गये। दुनिया में आये और खत्म हो गये। उनका क्या हुआ? मिट्टी हो गये सब लोग, मिट्टी से कोई नर्क में गये। कोई कुछ हो गये। कुछ पत्थर हो गये। क्या हुआ? अब जो हैं, उनको तो फल बनना ही है। परिपक्वता आनी पड़ेगी। अपने विचारों में, अपने संलग्नता में, अपने ध्यान में। जीवन फूल खिले हये अगर अत्यंत सुन्दर बनाना है, तो सुंदरता को अपनाना पड़ेगा। उसका जो कुछ असुंदर है, जो कुछ अग्ली है उसको निकाल फेंकना पड़ता है। लेकिन अभी भी हम लोग उस चीज़ में थोड़ा थोड़ा लिपटे चले जा रहे हैं। आज एक साहब आये थे | मेरे सामने कहने लगे कि, 'मैं सिगरेट पिऊँ माताजी तो कोई हर्ज तो नहीं?' मैंने कहा, 'मुझे क्या हर्ज है, तुम को हर्ज है या नहीं?' अरे, मेरा क्या हर्ज है। में क्या करती हूँ? में तो चुपचाप देख रही हूँ कि कौन कहाँ हैं? कैसे चल रहा है? मुझे हँसी आती है लोगों पे, कि अमूल्य को छोड़ कर के, अनमोल को छोड़ कर के, ये क्या? सहज भावना से परमात्मा से कहना चाहिये कि 'तेरा खेल हो गया। तेरा बहुत हो चुका। मैं बैठा हूँ। अब तू खेल। देखना मुझे है। तेरा क्या?' इसके अलावा माँगने का क्या है संसार में? नहीं तो व्यर्थ, जंग जिसे कहते हैं वो हो जाती है। समझ लीजिये, कल, ये माइक बनाया गया है और इतना खराब हो जाये कि फिर चल न सके। तो ये कहाँ जायेगा, मालूम हैं न आपको! उसका लोहा पीट-पाट कर के और फिर से मशीन में ड़ाल दिया जायेगा। बाकी इसकी आत्मा तो खत्म हो गयी। आपका जो इन्स्ट्रमेंट बनाया गया है, वो अगर इस्तेमाल न करे आप तो उसकी इफिशिअन्सी पूरी खत्म हो जायेगी की नहीं ? और उसका एन्जॉयमेंट कहाँ रहा ? मैं तो आपको एन्जॉयमेंट की बात कर रही हूँ। किसी को कुछ हो रहा है, किसी को कुछ हो रहा है। ध्यान में कितनी प्रगति की ? आप क्या बने? यही सहजयोग में सवाल पूछा जाता है। आप पूछते हैं, भगवान हैं या नहीं? ठीक है, इसका जवाब दे देंगे । वाइब्रेशन्स से आपको दे देंगे। आपके सवाल ठीक हो जायेंगे, आपकी तंदुरुस्ती ठीक हो जायेगी, आपकी मानसिक दशा ठीक हो जायेगी, आपके बच्चे ठीक हो जायेंगे, आपकी फाइनॅन्शिअल कंडिशन ठीक हो जायेगी, सब ठीक हो जायेगा। आप भगवान के लिये क्या दे रहे हैं? अरे कुछ देने का नहीं है। लेने का है। आप कहाँ तक ले रहे हैं उस से। ये सवाल आप से पूछे कि, 'हमने सब ले लिया। कितना माँ दे रही हैं, उसमें से कितना हम ने ले लिया है? क्या पूरा के पूरा ले लिया। सब कुछ क्या पा लिया? अपना रास्ता भटक 16 भटक के हम कहाँ चले जाते हैं। क्यों न हम इसे पा लें! संसार की चीजें तो चलती ही रहती हैं। उसमें रखा क्या है? कोई मिलने आया, कोई चला गया, कोई कुछ हुआ। इसमें रखा क्या है? हमने कितना पाया है? एक एक इन्सान एक एक इन्स्टिट्यूशन है, मैंने कहा था। एक एक इन्सान एक एक संस्था है। हमारे यहाँ पाटील आते हैं। आप जानते हैं। एक छोटे से गाँव से आते हैं। कालवा नाम का गाँव है। छोटीसी झोपड़ी में रहते हैं। उनकी जमीन है थोड़ी बहुत। हर प्रोग्रॅम में आते हैं कालवा से। उनको भी खेती करनी है। उनके बच्चे हैं, उनको पालना-पोसना सब कुछ करना है। हर प्रोग्रॅम में आते हैं। अपने घर में उन्होंने ये लगा के रखा है, कि सहजयोग, माताजी निर्मलादेवी का सहजयोग । वहाँ से कितनी ट्रेन्स जाती हैं। सब देखते हैं। मैंने भी एक बार जा के देखा । कहा कि, 'ये कहाँ, मैं यहाँ कहाँ आ गयी ? यहाँ कहाँ मैं विराजमान हँ?' कुछ लोगों ने कहा, 'यहाँ कैसे माताजी निर्मलादेवी का सहजयोग निकाला? ये पाटील का मकान है?' मैंने कहा, 'हाँ।' और थडाथड वाइब्रेशन्स वहाँ से आ रहे थे। उनके पास आज हजारों में रुपया होता तो भी उनकी इतनी इज्जत नहीं होती कि जितनी आज उनकी इज्जत है उस गाँव में। मैं गयी थी वहाँ। सब लोगों ने पैसा इकठ्ठा कर के वहाँ सारा इंतजाम किया । बहुत बढ़िया प्रोग्रॅम किया। आज उनकी इतनी इज्जत है, कहीं खड़े होते तो सब लोग जानते हैं कि कोई खड़ा है, है कोई चीज़। आखिर पाने का क्या है? चार जेवर पहनने से कौन सी बड़ी आपकी शोभा होने वाली है! लोग तो पीठ पीछे हँसते ही हैं आपके ऊपर! कैसे महामूर्ख हैं लोग ! आपने मानवता में कितना पा लिया। आपने अपनी किमत पा ली है। यही असली बात है। वहाँ से लोग जाते वक्त उनके घर को भी नमस्कार करते हैं। मनुष्य की पहचान उसकी बाहर ही में कुछ नहीं होती, उसके अन्दर ही होती है । आपको मैं शास्त्री जी का उदाहरण देती हूँ। शास्त्री जी बहत थोड़ी ही समय के लिये.....(अस्पष्ट) है। जब उनकी मृत्यु हुई, उनके अस्थि को ले कर के हम सभी लोग गये थे । मैं भी थी उसी में । तो जो कलश थे, अस्थि तो कोई दिखायी नहीं देती थी। शास्त्री जी तो बिल्कुल ही नहीं दिखायी देते थे। सिर्फ थोड़ी सी अस्थियाँ थी उस में, अॅशेस, वही कलश में रखी थी। उस कलश को देखने के लिये जहाँ से ट्रेन जा रही थी, रास्ते भर लोग खड़े थे, लालटेन ले कर । ट्रेन धीरे-धीरे जाती थी। सब उस कलश के दर्शन के लिये बस नमस्कार करते थे। और जब वो अस्थियाँ समर्पित हो गयी गंगा जी में, उसके बाद सब कहने लगे, 'वो कलश गये कहाँ?' पता नहीं कहाँ पड़े थे? वो खोजने से भी नहीं मिले। लोगों ने कहाँ, जाने दो. | हटाओ। कहीं चले गये होंगे। किसी ने चुराये भी नहीं । एक बैलगाड़ी के नीचे में पड़े थे। वहाँ से उठा के लाये। मैंने कहा, देखो, इन कलशों को ही अभी तक नमस्कार करते आये। वहाँ से ट्रेन धीरे धीरे चलती आयी। हज़ारों मील से लोग आ कर उस कलश के दर्शन कर रहे हैं। और उस कलश में दूसरे भी वो अॅशेस भी थे न ! वो जैसे ही विसर्जित हो गये उस कलश को किसी ने पूछा भी नहीं!' किसी काम का भी नहीं। कोई अर्थ ही नहीं रहा उसमें । एकदम यूसलेस चीज़। उसकी कोई किमत ही नहीं रही। किसी ने उसको सजाया भी नहीं, सँवारा भी नहीं, देखा भी नहीं। वहाँ नीचे में फेंक दिया, बैलगाड़ी के नीचे में| वो कहीं जा के खत्म हो जायें । और जब उसको उठा के लाये, लोगों ने कहा, 'कहाँ रखें बेकार की चीज़ ? इसको क्यों उठा के ले जा रहे हैं ? फेंक दो इसको गंगा जी में। क्या रह गया ?' ऐसे ही आपके शरीर का, आपके व्यक्तित्व का है। मृत्यु से पहचान होती है मनुष्य की। इसे जानना चाहिये हर एक आदमी को मृत्यु आती ही है। उसकी परख कैसी होगी? उसकी परख के लिये मृत्यु आती है। किसी के लिये दो आदमी रोते 17 हैं, किसी के लिये दस आदमी रोते हैं, किसी के लिये पच्चीस आदमी रोते हैं। कोई कहता है मेरा पति मर गया, कोई कहता है मेरी माँ मर गयी, कोई कहता है मेरा बाप मर गया। लेकिन कुछ कुछ लोग ऐसे होते हैं जब मर जाते हैं, जहाँ उनकी अर्थियाँ गड़ जाती है, वहाँ से सुगन्ध की लहरें बहती हैं। उसके पास से आप गुज़र जायें तो कहते हैं कि, 'कहाँ आ गये?' मैं काश्मिर में गयी थीं। आश्चर्य की बात है, हमारी मोटर चली जा रही थी। मैंने कहा, 'रोको, रोको, यहाँ किस की समाधि है?' कहने लगे, 'समाधि नहीं है, मोहम्मद साहब का एक बाल रखा हुआ है यहाँ पे। उसे रोको। इक्बाल कहते हैं। उसी को मैंने नमस्कार किया। एक बाल उनका वहाँ रखा हुआ है, उस से ऐसे वाइब्रेशन्स चारों तरफ़! नहीं तो हम है किस चीज़ के? हमारी कीमत ही क्या है? और जब ये दीप जल गया है, हमारे अन्दर प्रकाश आ गया है, तो उसकी तो इज्जत करो । उसको तो सम्भाल लो। उसको तो अपनाओ । ये सोचने, समझने की बात यही है। बाकी सब व्यर्थ का करते बैठते हो । बाकी में सोचने की कोई जरूरत नहीं। करने वाला सब परमेश्वर है । सब कुछ वो करता है। अगर आपको सोचना ही है तो ये सोचना है कि 'क्या मेरा दीपक इस योग्य है! मैंने कहाँ रखा है मेरा दीपक।' दीपक जला कर के, आप क्या टेबल के नीचे रखियेगा? ये कौनसा तरीका है? इसका मापदण्ड अपनी ओर ले लेना चाहिये। इसको सोच लेना चाहिये, कि हमने अपनी मानवता कहाँ तक जगायी? उसको कितना हमने मैनिफेस्ट किया है? कितना हमारे मानवता का प्रकाश फैला है? दुनिया क्या कहती है हमारे लिये? आप लोग मुझे मानते हैं न माँ और गुरु भी मानते हैं। ठीक है। मेरे जीवन की ओर भी तो दृष्टि करनी चाहिये । सोचो, हजारों वर्षों की तपस्या के बाद हम मनुष्य हये हैं। हजारों वर्षों के बाद। और मनुष्यता के नाते आने पर समझा की मनुष्य क्या होता है? लेकिन तो भी मैं अभी नहीं समझ पाती हूँ, कि अमूल्य रत्न हीरा मिलने पर भी मनुष्य उस की कीमत क्यों नहीं करता है? मुझे बहुत ही कठिनाई होती हैं। बिल्कुल कैज्यूअली आदमी रहता हैं इस मामले में | सोचता है, कि क्या चले जायेंगे, होता है, कर लेंगे । कारण ये है कि हीरे का मूल्य बाज़ार में जा के पूछ सकते हैं। इस के लिये कोई बाज़ार नहीं। इसका बाज़ार आप ही का मन, आप ही का हृदय, आप ही का संतोष, आप ही का विचार। सब कुछ आप ही के अन्दर, आप ही के संतोष की बात है। अपने में ही आप खेलते हैं. अपने में ही आप जागते हैं. अपने में ही आप रहते हैं, अपने में ही आप मजा लेते हैं और इतने सारे जो अपने हैं उनके साथ आप रचते हैं। उन्हीं के अन्दर बिराजते हैं । एक आदमी कहता है कि देखो, ये सहजयोगी है हमारे यहाँ। है एक आदमी। और एक वो है कि | ऐसा। क्या आप सहजयोग को बदनाम कर रहे हैं? लोग क्या कहेंगे? ध्यान में गहरा उतरना आना चाहिये । गहरा उतरने से नहीं होता। उसे फैलाना पड़ेगा। अगर आपने फैला नहीं तो परमात्मा आप से पूछेंगे, 'क्या आपका दीप किस ने जलाया था? कि आप अपने सांसारिक भवसागर में घुस कर के फिर से बुझ जाओ। इसलिये दीप आपका जलाया था माँ ने? आप किसलिये माँ के पास गये थे? जागृति क्यों करने के लिये गये थे? किस वजह से ?' लगन होनी चाहिये। विचार, सारा प्लॅनिंग यही होना चाहिये कि, 'मैं अपने क्षण-क्षण कैसे रहूँ? कैसे चलेंगे?' यही प्लॅनिंग होनी चाहिये । 6. दुनियाभर के प्लॅनिंग बंद करिये। वो सब परमात्मा करता है आपके लिये| उल्टा ही प्लॅनिंग हमेशा दिमाग 18 चलाते रहता है। जिससे हमारा धर्म टूटता जाये। ये की सबेरे उठेंगे। हाँ थोड़ी देर बात बैठेंगे । थोड़ा सो ही लें । बहत कैज्यूअल हो जाता है। सहज चीज़ बहुत सहज मिलती है, इसमें कोई शंका नहीं। लेकिन जो सहज हुई है, माने जो आपके साथ जन्मी है, इस की बहुत बड़ी, पुरानी परंपरा चली आयी है और वो बनायी गयी है। उसकी आप कीमत नहीं समझते हैं । उसको आप ना ही नापतौल सकते हैं कि ये कैसे हुआ? कैसे कुण्डलिनी बनायी गयी? कैसे चढ़ायी गयी? कैसे आपको आत्मसाक्षात्कार हुआ? आप तो सोचते हैं कि हाँ मिल गया, जैसे बाज़ार में जा के आपने एक साड़ी खरीदी ली हो। चाहे कपड़ा खरीद लिया हो। नहीं, नहीं ये अनन्त की तपस्या है। इसे आपने पाया है। इसका मूल्य जानिये। इसमें गहरे उतरें। गहरे उतरना पड़ेगा, गहरे जाना पड़ेगा, तब आनन्द और सुख संसार में आयेगा। संसार की समता, एकता, ये संसार का उत्थान, सभी कुछ आप सहजयोगियों पे हैं, ये तो कम से कम समझ लेना चाहिये। इसकी जिम्मेदारी समझ कर के, आगे बढ़ना चाहिये। अब आपने देखा ना, जिनको बाधा होती है वो आँख भी नहीं बंद कर पाते। सामने दिखायी देता है। पागल कोई आये, वो आँख नहीं बंद कर सकता मेरे सामने। उसको फौरन मैं पहचान जाती हूँ कि इसको बाधा है। फिर बोले चाहे न बोले। अगर आपकी इधर-उधर ज्यादा चली तो समझ लेना चाहिये कि बाधा ही हमारी है। स्टेडी क्यों नहीं हो पाती आँख ? आपका चित्त इधर-उधर जा रहा है तो समझ लेना चाहिये कि कोई न कोई हमारे अन्दर बाधा है। क्यों नहीं हो पाती? हमारा मन अगर छोटी-छोटी चीज़ों में उलझता है और छोटी-छोटी चीज़ों में हम अगर अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं जो कि करना चाहिये सहजयोग के लिये, तो सोचना चाहिये कि हमारे अन्दर कोई न कोई बाधा आयेगी । नहीं तो होना चाहिये। अगर आप देखें तो नॉर्मली ऐसा ही होता है, अगर मनुष्य को कोई धन मिल गया, तो फौरन उसके व्यय में उलझ जाता है। बहुत से लोग पूछते हैं कि माताजी, वाइब्रेशन्स आ गया अब आगे क्या ? अरे भाई , आपकी संस्था बना दी। अब संस्था चलाओ। संस्था बनाने की बात हमने कर दी । संस्था बनाने का तो बना दिया, अब आगे चलाओ। अब संस्था खोलो अपनी और उसको चलाओ। कोई कहेगा की लो, भारतीय विद्या भवन बना दिया, अब आगे क्या ? अब इसको चलाना है कि नहीं चलाना है? जिस चीज़ के लिये बनाया है वो तो करो। इसलिये बनाया कि दूसरों को प्रकाश दें। दूसरों में प्रकाश भरें, इसलिये आपकी संस्था बनायी। अब आपने करना ही चाहिये ये काम । धन बाँटो तो सही, बाटने से कितना बढ़ता है। इसमें कोई शक नहीं। पर बाँटते फिरो। पागल के जैसे बाँटो। देखो तो सही कितना बढ़ता है। जितना बाटोगे उतना बढ़ेगा। इसको बाँटे बगैर मज़ा नहीं आने वाला। कृपणता करने वाला आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता। उसको कोई न कोई बीमारी होगी। या तो उसको शारीरिक तकलीफ़, मानसिक तकलीफ़, उसको ये तकलीफ़, उसको वो तकलीफ़। क्योंकि अन्दर से सन्तुलन ही नहीं है तो सब बीमारियाँ। बीमारी माने विकृति। और सुकृति यही है। उसको बाँटो, उसको दो । मुफ्त में। ये नहीं कहने का कि मेरी पॉवर है। नहीं, नहीं, कुछ नहीं कहने का। सिर्फ कहने का कि 'मेरे अन्दर से बह रहा है भाई। ले लो तुम भी। तुम भी ले लो, तुम भी ले लो। अपने यहाँ फड़के देखें। मैं इनके बार-बार उदाहरण देती हूँ। क्या है? एक टीचर है बेचारे। जब उनको मौका मिलता है, जहाँ मौका मिलता है, जिस परिस्थिति में, अपने बहन से कहो, भाई से कहो , सब से कहो। भाई देखो, तुम अगर बीमार 19 हो तो हम कुछ नहीं कर सकते। तुम सहजयोग में आओ तो हम बात करें। कोई आप के दोस्त हैं। मिलने को आते हैं। खाने-पीने पे हजारों रुपया खर्चा करते हैं। लोगों को शराब पिलाने में वाइब्रेशन्स पे भी खर्चा करो। ये कहने में क्या जाता है, कि हमारी माताजी कहती हैं कि शराब पीना बुरी बात है। शराब मत पीना। यहाँ तो सहजयोग में आते हैं और घर में शराब की लत । भाई , ये बुरी चीज़ है तो बुरी चीज़ है ! समझ लेना हजारों रुपया आप खर्चा करते हैं। भाई, थोड़ासा चाहिये। मोहम्मद साहब कोई पागल थे, कि नानक साहब कोई पागल थे, दुनिया भर के लोगों ने शराब को मना किया, वो लोग पागल थे क्या? जिन्होंने जिस चीज़ को मना किया वो सब कोई पागल लोग तो नहीं थे ना ! किसी ने किसी चीज़ को कहा, किसी ने किसी चीज़ को कहा । वजह ये थी कि एक कह गये, तो दूसरे ने कहा, अच्छा ये छोड़ो, दूसरा कहेंगे। लेकिन लोगों का तो ऐसा है कि इसने ये नहीं कहा तो ये न करो। उसने ये नहीं कहा तो ये भी न करो। मतलब ये, कि कुछ भी न करो। पर ये किस के लिये खोज रहे हो ? किस के लिये बना रहे हैं आप? अपने ही लिये। और कोई भी नहीं इसमें नुकसान पाने वाला। आप खुद ही अपना नुकसान अच्छे से कर रहे हैं। एक हाथ इधर मार रहे हैं, एक हाथ इधर मार रहे हैं। दोनों हाथ से अपना नुकसान आप कर रहे हैं। जो चीज़ बुरी है उसको छोड़ना है। उसमें उलझना ही क्यों? उसमें पड़ना ही क्यों? फॅनेटिज्म है, कि कोई एक मैं फलाना ठिकाना हूँ, मैं हूँ हिन्दू कि मैं कौन हूँ। पता नहीं कौन कौन बन के बैठे हये हैं। है कोई भी नहीं। इस तरह के पागलपन को कब छोड़ने वाले हैं आप लोग? ये थोडी थोडी सी चीज़ें अगर छूट जाये, तो आत्मा में प्रवेश हो सकता है। आत्मा में बहुत सरल तरीके से आप घुलते जायेंगे। और आपको आश्चर्य होगा कि आप ही की अवेअरनेस आत्मा की अवेअरनेस हो गयी। और आप जो बोलते हैं अधिकारवाणी से, आप कुछ बोलें एक-एक शब्द आपका पकड़ा जायेगा। एक अक्षर आपने कहा, उसी की एकदम से उसी वक्त झेल हो जायेगी। सारे के सारे चिरंजीव हाथ ले के खड़े हैं। बोलिये। इस बड़ी दशा में आने पर भी आप अपने को स्थानापन्न न करे तो आपकी कौन इज्जत करेगा। राजा अपनी इज्जत न करेगा तो लोग क्यों करेंगे? अरे, जो अपनी इज्जत नहीं करता है, अपनी पायी हुई चीज़ की इज्जत नहीं करता है, तो उसकी कौन इज्जत करेगा। एक सीधा हिसाब है। ध्यान में जमना पड़ेगा। ध्यान में चार बजे से, मैंने कहा बैठिये। उठ के बैठना पड़ेगा। कोई ऐसी मुश्किल चीज़ नहीं। चार बजे उठना कौन सी मुश्किल चीज़ है। सबेरे उठिये, बैठिये ध्यान में । दिन में एक न एक आदमी से सहजयोग की बात करो । कम से कम एक से। घर-गृहस्थी के चक्कर में औरतें हैं उनको कह रही हूैँ। बाकी औरतों को तो जो मिले उससे करो। आपने जिंदगी भर बात ही क्या करी सिवाय फालतू के बातों को। लोगों को देखिये । कहेंगे वो इस दुकान में ये अच्छा मिलता है। क्या आपको सेल्समन किसने बनाया? कभी किसी के लिये कहेंगे, बड़ा अच्छा आदमी है, बड़ा बुरा आदमी है। कोई आप कोई ..... (अस्पष्ट) है। आपने जो पाया, इतना बहुमूल्य, उसको कितना बढ़ाया आपने। अब बढ़ा के उसको जमाईये लोगों के अन्दर में। उसको बिठाईये। जब आप करना शुरू कर देते हैं तो परमात्मा साक्षात् उस पर उतर आता है। गंगा बहने लगती है आपकी चरणों से। और ऐसे आदमी की जब मृत्यु होती है, तब देखिये, जिस मिट्टी में वो दफनाया जाता है, उसकी एक-एक मिट्टी फूल बन जाती है। कितना सुगन्ध! सारे संसार के लिये इतनी बड़ी चीज़ हो जाती है। वर्षों तक उस पे दीप जलते हैं। लोग याद करते हैं कि हो | गयी। इन्होंने कौन से बड़े भारी तोफ़खाने लगाये थे। फकीरों जैसे रहे वो, चाहे जैसे भी रहे । काहे को, फिर काहे को 20 भटक रहे हैं। अब सब धर्म आपको समझाना पड़ेगा। रियलाइजेशन के पहले मैं कोई धर्म की बात नहीं करती हूँ। रियलाइजेशन के बाद सारे ही धर्म अपने अन्दर बिठाने पड़ेंगे। कट्टरता भी बड़ी बुरी चीज़ है। मैंने यहाँ तक देखा मोहम्मद साहब को लोग बुरा - भला कहते थे। सहजयोगी कहते हैं, आश्चर्य होता है मुझे ! आपको किसने दिया रियलाइजेशन? आपके पेट में कौन बैठा हुआ है? कितने वर्षों की तपस्या कर के आपके पेट में प्रवेश किया हुआ है, किसने आपको जागृति दी? आज्ञा पे कौन बैठा हुआ है? आपने बनायी थी ये सब ? जिन्होंने तपस्विता से अपने को लोहे जैसे, जीवन में इस तरह से अपने को बनाया, स्वर्ण जैसे तप कर के निकले और जिन्होंने आपके लिये सारा ये कार्य किया उनको आप मना करने वाले कौन होते हैं भाई ! कौन हो ? वो तो मेरे अंग -प्रत्यंग होते। मेरे सर आँखों पर । मुझे बड़ा आश्चर्य होता कि उनको क्रिटीसाइज करने वाले आप कौन होते हैं? आप क्या हैं? किसी भी ऐसी महान शक्ति जो इन देवताओं में विराजती है उसका एक शब्द भी उसके खिलाफ कहना, एक बार भी उसके बारे में कहना, या उसके विरोध में मन में विचार आना भी, महान पाप के बराबर है। आप मान लीजिये मेरी बात। और उससे आपका हृदय चक्र, विशेषत: हृदय पकड़ा जायेगा। शिवजी को मनाना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस बात पर वो बहुत ही तुले हये हैं। किसी भी देवता के ऊपर में आपको, कोई भी शब्द उठाना मना है। आप होंगे, आप के घर में बैठिये। इसको अगर मनुष्य समझ लें तो कभी नहीं इसकी निंदा करें। किसी भी महान धर्म की कभी न निंदा करें। और अपने धर्म में जागें, अपने को समझें, अपनी सत्ता को समझें, अपने परमात्मा को । यही एकता इसी से होने वाली है। बाह्य बातों से नहीं कि हिन्दू-मुसलमान एक है और ईसाई सब एक है, और पारसी सब एक हैं। इस बात से होने वाली है कि इस सब के जो आदिगुरु हैं, वो एक ही तत्त्व है। एक ही तत्त्व अनेक बार इस संसार में आया है और हम महामूर्खों जैसे लड़ रहे हैं। जैसे कि वो खंडों में से निकली हुई आत्मा थी, उसी तरह से हम बच गये हैं और आपस में लड़खड़ा रहे हैं। जो महान तत्त्व है, जो हर एक धर्म में जैन, बुद्ध कोई भी धर्म हो, हर एक धर्म में एक जीत उस महान तत्त्व की अनेक बार उपासना हुई हैं। उसी महान तत्त्व में हम आज पार ह्ये हैं। उसी महान तत्त्व ने आज हमें पार किया है। और जब तक उसमें आप आ जाते हैं, ऐसा ही समझते हैं कि सारे के अन्दर वही तत्त्व फैला हुआ है। सब के अन्दर वही तत्त्व स्पंदित है। तब हम में अलग-अलग होने की बात ही कैसे आती हैं? हम तो सब एक ही पेड़ की शाखायें हैं। एक ही पेड़ पे पले ह्ये सब हैं। उसके जड़ों को बुरा कहने से हम अपने ही अन्नदाता को कह रहे हैं, वो बुरा है। इतना अज्ञान संसार में रहा है। उसकी हद हो गयी। अब मनुष्य ने उसको और भी अंध:कार में डाला। और अंध:कार में डालता ही चला गया। उसमें वो बड़ा पुरुषार्थ समझता है। बड़े बड़े धर्म बनाये। कर्मकाण्ड बनाये और धर्मसंस्था बनायी। दुनिया भर के तमाशे बना बना कर के परमात्मा को घोट मारा। किसी भी महान धर्म के खिलाफ़ बोलते वक्त सोचना चाहिये कि तुम हो कौन कि किस खेत की मूली हो तुम ? तुम क्या बोलते हो? ये सोच लें। लेकिन अगर एक दूसरी बात सोचे, उस महान सागर जो अनेक किनारों पे जा कर के स्पंदित हुआ है, वही सागर हम हैं। तो क्या हम उसके अन्दर के बूँद हैं। उसी में मिले हये हैं। तो सोचिये कितनी विशालता अन्दर लगती है। वही साधारण है। अनेक बार जिस सागर ने अनेक लहरों से और अनेक, अनन्त धर्म स्थापन किये, उसी सागर के हम एक अंश है, ये सोच लेने से देखिये कितनी विशालता हृदय में फैल जाती है। हृदय कितना महान हो जाता है और सारा संसार कैसे अपना ही लगे। उस विशालता का आनन्द उठाईये। तद्रूपता का नहीं, लेकिन विशालता का। किस तरह से दोनों हाथ फैला 21 कर के, ये प्रेम का सागर सारे संसार में अनेक वर्षों से महक रहा है, और उसी की सुगन्ध हम ही है। ये सोच कर के उसका आनन्द लें। अपनी क्षुद्रता को तोड़ें। अपने छोटेपन को तोड़ कर पार हो जाने से सब नहीं होता है । पार तो हो ही गये हैं। लेकिन अभी चक्र क्यों पकड़ गये है? क्योंकि आप क्षुद्र हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ। अभी आप डरते हैं और किसी गुरु झूठ से हम दूर के पास जरूर जाते। तो पाईये वहाँ को ! भागे, तभी सत्य हमारे ऊपर आयेगा। हम झूठ को माने हुये हैं कभी सत्य नहीं आ सकता। सतर्क रहें और समन्वय हर चीज़ का करें। सब चीज़ की ओर समानत्व से देखें। समानत्व, ये शब्द देखना चाहिये कि तत्त्वत: चीज़ क्या है? तत्त्वत: जो कुछ हितकारी है, जो वाइब्रेटिंग है वो तत् । ऊपर का जो कुछ है वो व्यर्थ है। इन विचारों से चलें। अपने मन की सफ़ाई करें। धीरे-धीरे आप देखिये। रोज के व्यवहार में आप पीछे हट कर के सोचिये कि क्या मैं ये सहजयोग में कर रहा हूँ या असहज में? फौरन पता हो जायेगा। कोई मुश्किल काम नहीं। आप की तो एक एक उँगली सहज घूमनी चाहिये। आप की बाल की रेखायें भी जरा सी बदलती है वो भी सहज होनी चाहिये। हर एक चीज़ में सहज सा कंपन होना चाहिये। हर चीज़ में सहज ही का आवरण खुलता जाना चाहिये। ऐसा जीवन जब बनेगा, ऐसे ही विशेष तरह के मेरे बच्चे होंगे, तभी मैं कृतार्थ हूँ। क्या मेरे जीवन काल में ये हो सकेगा? आप चाहें तो क्षण में हो सकता है और नहीं चाहे तो नहीं । इसलिये माँ भी आपके सामने हार ही बैठती है। भगवान भी आपके सामने झोली फैलाता है। क्योंकि इसकी स्वतंत्रता जो आपको दे चुके हैं। दी हयी चीज़ ली नहीं जाती। और ले कर के भी क्या करेंगे? आपको पूर्ण स्वतंत्रता है। आप जब चाहे आये और जब चाहे जाये। जो करे सो करे। इसका कोई बंधन नहीं। तुम्हे किसी चीज़ का बंधन नहीं। किसी भी चीज़ का बंधन नहीं है । आपका , अपने विवेक का बंधन अपने ऊपर डालिये। तो आपका विवेक जागृत होगा। अपने समझदारी का बंधन अपने उपर डालिये । अपनी विशालता का बंधन अपने ऊपर डालिये। अपनी महानता का बंधन अपने ऊपर डालिये। जिसे की आप महान हो। और वही अलंकार आप को सँवारें, उसी से आप सौंदर्य में उतरें, उसी से सारा संसार देखें । कहे कि अहाहा , ये क्या एक ज्योति पता नहीं कहाँ से आयीं| इसको किसने दिया ? उस पे आपके माँ का भी नाम होगा। नहीं तो कौन जानेगा? हमारे सहजयोग में सबसे बड़ी बात जो है, वो ये है, सारे धर्मों का अर्थ सहजयोग से होता है। ये बहुत बड़ी चीज़ है। आप कोई भी धर्म की पुस्तक पढ़े, और उस को आप सहजयोग से समचर लोगों को बतायें तो लोग हैरान हो जायेंगे कि अरे इसका अर्थ ये था! ख्रिश्चन लोगों को मैं जब बताती हूँ, तो कहने लगे, माँ, तुम तो, ये तो बायबल में मुसलमान कहते हैं कि कुरान आप कह रही हैं। खलील जिब्रान आप कह रही हैं। बिल्कुल खलील जिब्रान ही बोल रहे हैं। ये नहीं समझ में आता है कि माँ बोल रही थी की खलील जिब्रान बोल रहे हैं? जैन कहते हैं कि अरे, यही तो हमारे शास्त्रों में लिखा है। बुद्ध कहते हैं कि यही सब हमारे शास्त्रों में लिखा है। लेकिन उसका प्रत्यक्ष हम यहाँ दे रहे हैं। हैं। | उसे लीजिये। आप उसको अपनाईये और दूसरों को भी दिखाईये। 22 क. रयम आपका पुनरूद्धार होने की महान संधि इस जनम में आपको मिली है और आपको पता है यही उत्क्रांति का आखरी टप्पा है। अब आप लोग अपने मन को बाजू में रखें। क्योंकि अगर आप मन के व्यापार में रहेंगे तो उसके पार नहीं जा सकते| सहजयोग की प्रगति मन का काम रुकने पर ही होगी | फिर आप स्वयं को पहचान सकेंगे। प.पू.श्रीमाताजी, कोलकाता, अप्रैल ९५ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in दिवाली का मतलब ही ये है, कि हम जैसे बाहर दिये लगाते हैं वैसे ही हम सब के अन्द२ भी कौ प्रज्वलित होने चाहिये। आपको मालूम है, कि इस अंध:कार के माहौल में आप सब प्रकाश हो, दिये हो। आपलोगों को प्रकाश फैलानी है। प२ अग२ आपके अन्द२ ही प्रकाश कम है, तौ आप बाह२ के लौगों को कैसे प्रकाश दे सकेंगे? इसके बारे में औचिये। २हजयोगियों ने सवीप्रथम ये ध्यान में २२खना है, कि अपने अन्द२ का प्रकाश जीगृत२२खो। प. पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, १० नवंब२ २००७ नभ] ---------------------- 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-0.txt चैतन्य लहर हिन्दी नवंबर-दिसंबर २०१६ ी ह कु0 ॐ २ भे ॐ २० ै Из शु 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-1.txt ि र २] हम जब माँ के लिये गहने बनाते हैं, कितने सुंदर होते हैं। पर तुम लोग ही मेरा गहना हो। आपको ही मैंने गहना समझ कर परिधान किया है। अगर उन गहनों में अशुद्धता होती, वो साफ़ नहीं होते, उनका जो मुख्य गुणधर्म है वही नहीं होता, सोना सोने जैसा न हो कर पीतल की तरह होता तो उसका क्या अर्थ है? वैसे ही आप लोगों का है। तुम्हारे अन्दर जो मुख्य धातु है वही झूठा होता, तो मैं उसको पहन कर कहाँ घूमूंगी ? प.पू.श्रीमाताजी, मुंबई, १४ जनवरी १९८५ ज बु०] 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-2.txt इस अंक में आज्ञा चक्र को व्यवस्था ...4 (पूजा, गणपतिपुले, २५/१२/१९९७) जो पाने का है वो सहज है ...10 (सार्वजनिक कार्यक्रम, पुणे, ३०/०३/१९७९) आत्मा की अनुभूति ...14 (सेमिनार अँड मिटिंग, मुंबई, २८/१२/१९७७) कारम ० 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-3.txt थु प गणपतिपुले, २५ डिसेंबर १९९७ आज्ञी चक्र की व्यवस्था 4t 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-4.txt आज हम लोग यहाँ ईसा मसीह का जन्म दिन मनाने के लिए उपस्थित हुए हैं। ईसा मसीह की जिन्दगी बहुत छोटी थी और अधिक काल उन्होंने हिन्दुस्तान में ही बिताया-काश्मीर में। सिर्फ आखिरी तीन साल के लिए वापिस गए और लोगों ने उन्हें सूली पर टॉँग दिया। यह सब कुछ विधि का लिखा हुआ था। आज्ञा चक्र को खोलने के लिए उन्हें ये बलिदान देना पड़ा और इस तरह से उन्होंने आज्ञा चक्र की व्यवस्था की। आज्ञा चक्र बहुत संकीर्ण है, छोटा सा, और आसानी से खुलने वाला नहीं। क्योंकि मनुष्य में जो स्वतंत्रता आ गई उससे वो अहंकारी बन गया। इस अहंकार ने उसका आज्ञा चक्र बंद कर दिया और उस बंद आज्ञा चक्र से निकलने के लिए अहंकार निकालना बहुत ज़रूरी है और अहंकार निकालने के लिए आपको अपने मन को काबू करना पड़ता है । लेकिन आप मन से अहंकार नहीं निकाल सकते। जैसे ही आप मन से अहंकार निकालने का प्रयत्न करेंगे, वैसे ही मन बढ़ता जाएगा और अहंकार बढ़ता जाएगा। "अहं करोति सः अहंकार:"। हम करेंगे, इसका मतलब कि अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करे, तो अहंकार बढ़ेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं । जो लोग यह सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे, खाना कम खाएंगे, दुनिया भर के उपद्रव, एक पैर पर खड़े हैं, तो कोई सिर के बल खड़ा है! हर तरह के प्रयोग लोग करते हैं अपने अहंकार को नष्ट करने के लिए । लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता, इससे बढ़ता है। उपवास करना, जप-तप करना आदि सब चीज़ों से अहंकार बढ़ता है। हवन से भी अहंकार बढ़ता है क्योंकि अग्नि जो है वो दायें तरफ है। जो कुछ भी हम कर्मकाण्ड करते हैं, रिच्युअल्स करते हैं, उससे अहंकार बढ़ता है और मनुष्य सोचता है कि हम सब ठीक हैं। हजारों वर्ष से वही-वही कर्म काण्ड करते जाते हैं और उल्टा-सीधा सब मामला जो भी सिखाया गया, वही मनुष्य कर रहा है । इसीलिए सहजयोग कम्मकाण्ड के विरोध में है। कोई भी कर्मकाण्ड करने की जरूरत नहीं और अतिशयता पर पहुँचना तो और गलत बात है । जैसे हम ने कहा कि अपने अहंकार को निकालने के लिए आप उसको, मराठी में 'जोडेप़्ट्टी' कहते हैं, जूते मारिए, तो रोज सवेरे सहजयोगी जूते ले कर चले लाइन में। अरे अगर आप के अंदर अहंकार हो तब। हरएक आदमी हाथ में जूता लिए चला जा रहा है रास्ते में। यह सब कर्मकाण्ड सहजयोग में भी बहुत घुस गए है। यहाँ तक कि फ्रांस से भी एक साहब आए थे, वो वाशी के अस्पताल से कर्मकाण्ड ले कर आए। अरे बाबा, यह तो बीमारों के लिए है। आप को अगर यह बीमारी हो तो आप यह कर्मकाण्ड करो । जो कैन्सर की बीमारी के कर्मकाण्ड हैं वो भी उसने लिख रखे थे । मैंने कहा कि मनुष्य का स्वभाव है कि कर्मकाण्ड करे। क्योंकि वो सोचता है मैं कर सकता हूँ। मेरे कर्मकाण्ड से कार्य होगा और इस कर्मकाण्ड में सिर्फ आप ही लोग नहीं हो, परदेस में से लोग कर्मकाण्ड करते रहते हैं। तरह-तरह के। जैसे साल भर में एक बार चर्च को जाएंगे, माने आज के भी बहुत दिन। उसके बाद भगवान का नाम भी नहीं लेंगे। दुनिया भर के गंदे काम कर के कैथोलिक धर्म में जाकर के वो कन्फेशन कर लेंगे। यह सब मूर्खता अगर आप देख सके तो आप सहजयोगी हो गए । अगर आप समझ सके कि यह में सब गलत काम जो हमने किया, यह गलत है और अब से आगे यह काम नहीं करने का, यह अगर आपकी समझ 5 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-5.txt जाए तो यह बात आपकी समझ में अा जाएगी। अब कर्मकाण्डी लोगों में और भी विशेषताएं होती हैं। एक तो वो एक नम्बर के कंजूस होते हैं। अगर आप उनसे दस रुपए की बात करे तो वे आकाश में कूदने लग जाते हैं। उसको मराठी में 'कौड़ी चुम्बक' कहते हैं। एक बात है। मराठी में ऐसे-ऐसे शब्द हैं जिनसे आपका अहंकार वैसे ही उतर जाए। जैसे कि कोई अपनी बहुत बड़ी- बड़ी बातें बताने लगे कि मैंने ये किया, मैंने वो किया , तो उसको धीमे से कह दीजिए कि तुम तो चने के पेड़ पर चढ़ रहे हो। चने का पेड़ तो होता नहीं। तो वो ठंडा हो जाएगा। मैंने ये किया, मैंने वो किया। 'मैं', जब तक ये 'मैं नहीं छूटता, तब तक हमारा ईसा मसीह को मानना गलत है। पर आश्चर्य की बात है जिनको ईसाई राष्ट्र कहते हैं। उनसे ज्यादा अहंकारी तो मैंने देखे नहीं। विशेषकर अंग्रेज़, अमरीकी, सब लोगों में इस कदर अहंकार है कि समझ में नहीं आता कि ईसा-मसीह के ये कैसे शिष्य हैं! अब इस अहंकार का इलाज क्या है? वो सोचना चाहिए । इसका इलाज ईसा-मसीह थे और उन्होंने सिखाया है कि आप सबसे प्रेम करें। अपने दुश्मनों से भी प्यार करें। इस का इलाज उन्होंने प्यार बताया है और प्यार के अलावा कोई इलाज नहीं और ये प्यार परम चैतन्य का प्यार है। उन्होंने साफ - साफ कहा कि आप को खोजो, दरवाज़े खटखटाओ, तो दरवाजा खुल जाएगा। इस का जाकर के दरवाजे खटखटाओ। इस का मतलब यह है कि अपने दिल के दरवाजों को अर्थ यह नहीं कि तुम खोलिए। जिस आदमी का दिल छोटा होता है, जो कंजूस होता है वो आदमी कभी भी सहजयोगी नहीं बन सकता और दूसरी चीज़ जो बहुत ज़रूरी है वो ये है कि आपको यदि गुस्सा आता है तो इस का अर्थ है कि आपके अन्दर अभी बहुत अहंकार है। मैंने देखी है गुस्से वालों की स्थिति , विस्फोटक और उससे उन्हें शान महसूस होती। बहुत शान से कहते हैं, मैं बहुत गुस्से वाला हूँ। ऐसे लोग सहजयोग में नहीं रह सकते। जो लोग प्रेम करना जानते हैं और वह भी विशुद्ध प्रेम, ऐसा प्रेम जिसमें कोई आकांक्षा नहीं, कोई इच्छा नहीं। पूर्णतया निरिच्छ जो लोग प्रेम करना जानते हैं, वही सहजयोग में रह सकते हैं। अहंकारी लोग बहुत गलत-सलत कार्य करते हैं। और मैं उनसे तंग आ गई हूँ। अपने ही मन से कुछ शुरू कर देंगे और मुझे बताएंगे भी नहीं। ऐसा करने से आज हज़ारों प्रश्न पैदा हो गए हैं। आज बताने की बात है। दिल्ली में इन्होंने मुझसे एक बार एक पूजा के दिन हड़बड़ी में आकर बताया कि हमें ज़मीन मिल रही है, बस। उससे कितना पैसा लिया, सब कैसे होने वाला है, ज़मीन कैसी है, कुछ नहीं बताया और किसी भी सहजयोगी ने नहीं बताया। क्योंकि कल यदि कोई कहे कि श्री माताजी ने ऐसा कहा है, तो उस आदमी को आप बिल्कुल छोड़ दीजिए । मुझे कुछ कहना है तो मैं स्वयं कहूँगी। उसके बाद इतनी मीटिंग्ज़ हो गईं, मुझे कभी कुछ नहीं कहा। अब जिन्होंने उन्हें पैसा दिया, सिर पकड़ के बैठे हैं कि उन्हें ठगा गया है। अब ये पैसा कैसे वापिस मिलेगा? मुझसे बगैर पूछे सारे काम हो गए, बिल्कुल बगैर पूछे। अब वो इतनी खराब ज़मीन है 6. 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-6.txt कि अब नोटिस आया है कि आप उस पर कुछ भी नहीं बना सकते, उल्टे आपको हम पकड़ेंगे। हर एक सहजयोगी को अधिकार है कि मुझे आकर बताए और मुझसे पूछे। उन्होंने कोई अपनी एक सोसायटी बना ली और हो गए पागल कि ज़मीन मिल रही है "য০ न। इतनी खराब ज़मीन है कि बताते हैं वहाँ मुर्गी भी नहीं पाल सकते। सहजयोगी क्या मुर्गियों से भी गए बीते हैं? अब जो भी हुआ , सो मूर्खता है और उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूँ। लेकिन आप लोग अपने पैसे वापिस माँग लीजिए। मेरी उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। जो लोग प्रेम ईसा-मसीह ने तो यहाँ तक कहा था कि जो लोग घर में रहते हैं, उन्हें पक्षियों की ओर देखना चाहिए। वो अपना घरौंदा कितने प्यार से छोटा सा अपने लिए बनाते हैं करना जानते हैं और वह भी और जब वो अपना घर बनाते हैं, तो उस घर को बनाने में उन्हें बड़ा मज़ा आता है। हर विशुद्ध प्रेम, तरह से उन्होंने समझाया कि आप ममत्व को छोड़ दीजिए। यह मेरा घर है, यह मेरी ऐसा प्रेम ज़मीन है, ये मेरे बच्चे हैं। यहाँ तक कि यह मेरा देश है। यह जो ममत्व है, यह छूटना जिसमें कोई चाहिए, तभी आप महान हो सकते हैं। सारे विश्व में आप भाई -बहिन हैं। इसका आकांक्षा नहीं, मतलब यह नहीं कि आप अपनी देशभक्ति को छोड़ दें। यदि आप देश भक्त नहीं हैं तो आप कुछ भी नहीं कर पाएंगे। आप में देश भक्ति होनी ही चाहिए। लेकिन यही देश- कोई इच्छा भक्त विश्व- भक्त हो जाता है। अगर देश भक्ति ही नहीं है, जब बूंद ही नहीं है तो सागर नहीं। पूर्णतया कैसे बनेगा? तो प्रथम, आपमें देशभक्ति है या नहीं, यह देखना चाहिए। आप देश के निरिच्छ जो विरोध में यदि कोई कार्य कर रहे हैं तो आप देशभक्त नहीं हैं। लोग प्रेम ईसा-मसीह को वापिस जाने की कोई ज़रूरत नहीं थी । उन्होंने कहा भी था कि वहाँ सब ऐसे लोग रहते हैं जिनको सिर्फ मल की इच्छा है। यानि जो म्लेच्छ हैं। लेकिन करना जानते शालिवाहन ने उनसे कहा, नहीं नहीं, तुम जाओ और उन्हें 'निर्मलत्त्वम्' सिखाओ। वो सिखाने गए 'निर्मलत्त्वम्' और उल्टा उन्हें ही सूली पर चढ़ा दिया गया। पागलों का देश, उनसे कुछ सीखने का था ही नहीं, पर सिखाने का था, इसलिए वो गए और हैं, वही सहजयोग में रह सकते हैं। इसीलिए उनका अन्त इस प्रकार हुआ। समझदारी और क्षमा। क्षमा ही मन्त्र है जिससे आज्ञा चक्र खुलता है। यदि आपको किसी के भी प्रति कोई गलतफहमी है, किसी के प्रति आपको कोई द्वेष है या lle किसी के प्रति हिंसा की प्रवृत्ति है तो आप की आज्ञा ठीक नहीं हो सकती। जो भी आप को करना है प्रेम के द्वारा। आपको किसी को कहना भी है तो इस लिए कहना है, कि उस का जीवन निर्मल हो जाए। 7 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-7.txt इस का अर्थ यह नहीं कि आप अपने बच्चों को खराब करें । बच्चों को आपको पूरी तरह से अनुशासन में लाना है। अगर आप बच्चों को अनुशासन में ला नहीं सकते, तो आपके बच्चे कभी अच्छे सहजयोगी नहीं हो सकते । और उसके लिए पहले आपमें खुद अनुशासन होना चाहिए। यदि आपमें अनुशासन नहीं होगा तो आप बच्चों को अनुशासित नहीं कर सकते। ईसा-मसीह का जो जीवन था उसके बारे में बहुत कम लिखा गया है। लेकिन उनके अन्दर इतना अनुशासन था, इस कदर उन्होंने सहा और अपने जीवन से उन्होंने दिखा दिया। उनको विवाह की भी ज़रूरत नहीं थी । उन्होंने विवाह नहीं किया। इसका मतलब यह नहीं कि वे विवाह के विरोधी थे | ऐसी गलतफ़हमी लेकर लोग बैठे हैं और इसी लिए इन्होंने ये महिलाएं बनाई हुई हैं जिन्हें 'नन ' कहते हैं। उनकी शादी ईसा से करते हैं जो साक्षात् गणेश हैं। उनसे कैसे हुए शादी कर सकते हैं ? उसके अलावा आदमियों को भी शादी नहीं करनी। इस प्रकार की अनैसर्गिक बातें सिखा दी। उससे वो सबको अपने कैंज़े में रख सकते हैं। पर उससे ईसाई नहीं हो सकते। इस तरह के कृत्रिम बन्धन अपने ऊपर डाल लेने से आज ईसाई धर्म डूब रहा है। ईसा को उन्होंने भुला दिया और अपने ही मन से एक धर्म उन्होंने बना लिया और उसको ये ईसाई धर्म कहते हैं। आज कल का ईसाई धर्म ईसा के नाम पर कलंक सा लगता है। क्योंकि मेरा जन्म ही इस धर्म में हुआ और मैंने इस धर्म की सभी अन्दरूनी बातें देखी । उसी प्रकार हिन्दू धर्म की बात है। हिन्दू धर्म में आप साम्प्रदायिक हो ही नहीं सकते, क्योंकि आप के अनेक गुरुओं, वास्तविक गुरुओं, जैसे दत्तात्रेय जी, नाथपंथी आदि आपके अनेक अवतरण हैं, और आपके स्वयंभू अनेक हैं। आपके एक नहीं, अनेक धर्मग्रन्थ हैं। ईसाई लोगों में सिर्फ ईसा और बाइबल| वो रुढ़िवादी हो सकते हैं। मुसलमान हो सकते हैं और यहूदी लोग भी हो सकते हैं और तीनों का आपस में रिश्ता है, ऐसा धर्मग्रन्थों में लिखा है। लेकिन हिन्दू नहीं हो सकता साम्प्रदायिक। क्योंकि किसी का कोई, किसी का कोई। कोई महालक्ष्मी को मानता है, तो कोई रेणुका देवी को मानता है, तो कोई कृष्ण को मानता है। हर आदमी , हर परिवार अलग-अलग अवतरणों को मानते हैं। अलग-अलग धर्मग्रन्थों को मानते हैं। कोई भी ऐसा धर्मग्रन्थ नहीं है जो कि बाइबल जैसा हो। इसलिए सब धर्मों का, एक हिन्दू को चाहिए कि मान करे। मैंने देखा है कि हिन्दुओं में मान करने की शक्ति सब से ज्यादा है। एक बार हम एक होटल में थे, वहाँ एक बाइबल थी। वो सब मेज़ पर बाइबल रखते थे, चाहे कोई पढ़े या नहीं। वो बाइबल नीचे गिर गया तो हमारे साथ एक हिन्दू थे। उन्होंने उस बाईबल को उठाया सिर पर रखा और फिर मेज़ पर रख दिया। कभी बाइबल को पैर से नहीं छुएंगे। कभी नहीं। ईसाई तो ऐसा कर लेंगे पर हिन्दू नहीं करेगा। सब की इज्जत करना यह हिन्दू का धर्म है। पर उससे आज कल जो लोग निकले हैं अजीबो गरीब, जैसे आज के हमारे राजनीतिज्ञ हैं। बरसात में जैसे मशरूम निकल आती है ऐसे ये लोग निकल आये हैं। ये लोग वास्तव में हिन्दू नहीं हैं। इन्हें अपने धर्म के बारे में कुछ मालूम नहीं। उत्तर भारत के लोगों को कुछ भी मालूम नहीं और जो दक्षिण भारत के लोग हैं, उन्हें तो केवल यही मालूम है, कि ब्राह्मण को यहाँ पैसा देना है वहाँ देना है। ये करना है वो करना है। कर्मकाण्ड के सिवाय इस महाराष्ट्र में और कुछ नहीं। इतने कर्मकाण्डी लोग हैं (मैंने महाराष्ट्र में बहुत मेहनत करी है, सब व्यर्थ गई) প 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-8.txt कुछ छूट नहीं सकता उनसे। यहाँ एक सिद्धि विनायक का मंदिर है। उसके जो गणेश जी हैं, उनको जागृत मैंने किया। अब देखती क्या हूँ कि वहाँ एक-एक मील की लम्बी कतारें मंगलवार को खड़ी हुई हैं। गणेश जी भी सो गए होंगे। इस कदर कर्मकाण्डी लोग महाराष्ट्र में हैं कि उस कर्मकाण्ड से उनका स्वभाव ज़रा तीखा हो गया है और उत्तर भारत में भी मैंने देखा है कि कुछ लोग कर्मकाण्डी हैं और जो कर्मकाण्डी लोग हैं, उनमें गुस्सा बहुत है। बहुत तेज़ गुस्सा है और जो लोग कर्मकाण्ड में नहीं हैं वो लोग बहुत शांत हैं। सो पहली चीज़ है कि कर्मकाण्ड बंद करो और हर चीज़ का आदर करो। कर्मकाण्ड बंद करने का यह मतलब नहीं कि सबको लात मारकर फेंक दो। यह संतुलन जो हैं, यही ईसा-मसीह ने सिखाया है। यह संतुलन आए बगैर आपका आज्ञा चक्र नहीं खुल सकता। सबका सम्मान, सबका आदर और बेकार के कर्मकाण्ड जिसमें गलत लोग पनप रहे हैं। आजकल के जो बहुत से झूठे साधु बाबा हैं वे कर्मकाण्ड की वजह से ही हैं। वो कहेंगे कि आप इतने रुपए दो, यह करो, वो करो, यज्ञ करो। एक सौ आठ मर्तबा रोज़ यह नाम लो, वो नाम लो। मंत्र देता हूँ, फलाना करता हूँ। यह सब कर्मकाण्डी हैं और आप लोगों को कर्मकाण्ड सिखाते हैं जिसके परी तरह से विरोध में ईसा मसीह थे। क्योंकि वो जानते थे कि कर्मकाण्ड करने से आदमी अहंकारी हो जाते हैं और इस अहंकार को तोड़ने के लिए उन्होंने कर्मकाण्ड को एकदम मना किया था । इसी तरह से परमात्मा के नाम पर कोई भी आदमी पैसा कमाए तो इसके विरोध में थे । परन्तु इसका उल्टा शुरु हो गया कि पैसा कमाओ और खाओ। कमाना तो नहीं छूटा पर पैसा कमा लो और खा जाओ, खुद जिससे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। आज सहजयोग के कार्य में हमें याद रखना चाहिए कि हमने सहजयोग के कार्य में क्या आर्थिक योगदान दिया। ईसा मसीह के पास तो १२ मछली मार थे। वो तक फैल गए सारी दुनिया में मेहनत करके । आज आप लोग मेरे इतने सारे शिष्य हैं और आप लोग चाहे तो कितने ही लोंगो को पार करवा सकते हैं, कितने ही लोगों को सहजयोग में ला सकते हैं। पर लोग आधे-अधूरे नहीं रहने चाहिए बल्कि गहरे उतरने चाहिए। जब तक गहरे नहीं उतरेंगे तब तक आप समझ नहीं पाएंगे और उसके लिए सबसे बड़ी चीज़ है कि हम उनको कितना प्यार देते हैं और वो कितना प्यार दूसरों को देते हैं। कोई भी आदमी जब सहजयोग में अगुआ होता है, तो उसको पहले याद रखना चाहिए कि ईसा-मसीह ने जो देन दी है कि आप सबसे प्यार करो, क्या मैं उसका पालन कर रहा हूँ? मैं सब पर रोब झाड़ता हूँ, मैं सब को ठिकाने लगाता हूँ , सब के ऊपर आँखें निकालता हूँ, यह अहंकार न केवल सहजयोग के विरोध में है बल्कि उसका नाश करने वाला है। जिस आदमी में भी अहंकार हो, वह उसे कम करे और उस की जगह प्यार से भरे तो जीवन हो हो जाएगा। यदि आप को प्यार करना नहीं आता तो थोड़े जाएगा, जोवन सुन्दर हो जाएगा। जीवन सुन्दर सुखमय दिन आप सहजयोग से बाहर रहें । पहले अपने हृदय के दरवाजें खोलें। उसी की शक्ति से सहजयोग फैलेगा। बात यह है कि जो लोग सहजयोग फैलाते हैं उनमें प्यार की शक्ति कम और गुस्से की शक्ति ज्यादा है। कभी नहीं फैलेगा। प्यार से बढ़ेगा और गुस्से से घटेगा और नष्ट हो जाएगा। जो ईसा मसीह की सीख है वो बहुत ज़रूरी है कि हम लोग समझ लें। परमात्मा आपको धन्य करें। 9. 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-9.txt जो पाने का हैं वो सहज है 10 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-10.txt पुणे, ३० मार्च १९७९ आप लोग सब इस तरह से हाथ कर के बैठिये। इस तरह से हाथ कर के बैठे और आराम से बैठें। इस तरह से बैठिये। सीधे इस तरह से आराम से बैठिये। कोई स्पेशल फोर्स लेने की जरूरत नहीं है। बिल्कुल आराम से बैठिये। सहज आसन में। बिल्कुल सादगी से। जिसमें कि आप पे कोई प्रेशर नहीं। न गर्दन ऊपर करिये, नीचे करिये। कुछ नहीं। मुँह पर कोई भी भाव लाने की जरूरत नहीं है और कोई भी जोर से चीखना, चिल्लाना, हाथ-पैर घुमाना, श्वास जोर से करना, खड़े हो जाना, श्वास फुला लेना ये सब कुछ करने की जरूरत नहीं। बहुत सहज, सरल बात है और अपने आप घटित होती है। आपके अन्दर इसका बीज बड़े सम्भाल कर के त्रिकोणाकार अस्थि में रखा हुआ है। इसके लिये आपको करना नहीं है। आँख इधर कुछ रखिये। बार बार आँख घुमाने से चित्त घूमेगा । आँख इधर रखिये । चित्त को घुमाईये नहीं। आँख घुमाने से चित्त घूमता है। आँखे बंद कर लीजिये, उसमें हर्ज नहीं। उल्टा अच्छा है, आँख बंद कर लीजिये। अगर आँख बंद नहीं हो रही हो या आँखें फड़क रही हो तो आँख खोल दीजिये । सब से पहली चीज़ है ये घटना घटित होनी चाहिये । लेक्चर सुनना और सहजयोग के बारे में जानना इसके लिये बोलते बोलते मैं थक गयी हूँ। और इसके लिये एक किताब भी लिखी गयी है, अंग्रेजी में । इसकी कॉपीज तो खत्म हो गयी । लेकिन और आने वाली हैं। जिसको अगर लेना हो वो अपना नाम दर्ज करें। उसमें सब सहजयोग के बारे में बातचीत की गयी है । काफ़ी बड़ी किताब है। इसलिये मैं लेक्चर नहीं दंगी। लेक्चर देते देते में थक गयी। अब आप सब लोग पार हो जाईये। जो पाने का है, उसे पा ले। इसके लिये हम टाइम देंगे। क्योंकि आज मैं आखरी दिन यहाँ पर हूँ। उसके बाद लंडन चली जाऊंगी। जो पाने का है वो सहज है और सहज ही घटित होता है। उसमें कोई भी आफ़त करने की जरूरत नहीं। कोई चिल्लाने की जरूरत नहीं । चीखने की जरूरत नहीं। जब घटित होगा, आप खुद ही जान जाईयेगा, कि हो गया। पूरी तरह से आँख बंद कर दो। तुम्हारे आज्ञा पे पकड़ आ रही है। दोनों हाथ हमारी ओर कर के आराम से बैठ जाईये। इस तरह से। कोई ऊपर उठाने की जरूरत नहीं। आराम से। बिल्कुल आराम से। थोड़ी देर के लिये अपने विचार बाहर रख दें। उससे कोई फायदा नहीं होता। जो घटना है, उसे घटित होने दीजिये अपने आप।| आपको पाना है न, फिर आप पा लीजिये। इधर की, उधर की बातें सोचने से क्या फायदा? इसकी, उसकी बात सुनने से कोई फायदा नहीं है। जिन्होंने दुनिया में किसी का भी कल्याण नहीं किया, वो क्या बात कर सकते हैं! आप लोग अपना अपना कल्याण पा ले। इसको साध लेना चाहिये। थोडे हल्के बैठें। कुछ लोग जरा नर्वस से हैं। थोड़े हल्के बैठें। एकदम पैर वगैरा हल्का छोड़ के बैठिये। कोई भी लॉकिंग सिस्टम नहीं चाहिये। वजन एकदम हल्का छोड़ दीजिये। कोई भी आसन वगैरा मत लायें। दोनो हाथ हमारी ओर करें और आँख बंद करें। अब क्या होता है, आप देखिये । अब अपने मन की ओर देखें और ये जाने की कोई विचार अन्दर से आ रहा है। अन्दर से। आप बाहर से मेरी बात सुन रहे है। आप सतर्क हैं। लेकिन ये देखिये की आपको कोई विचार आ रहा है क्या? 11 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-11.txt (माइक में तीन बार फूँक मारने के बाद) अब आपके हाथ में देखिये ठण्डी हवा आ रही है क्या? हाथ की तरफ़ चित्त न करें। आँख न खोलिये। आँख बगैर खोले अपने हाथ की ओर चित्त करें, देखें ठण्डी ठण्डी हवा आ रही है क्या? अगर गरमी आ रही है, तो जरा हाथ झटक ले। जरा सा झटक ले, पोछ ले। या थोडा सा फूँक ले अगर गरमी आ रही है। आराम से बैठ के देखते रहिये। हाथ नीचे लें। आप हाथ नीचे रखिये। हाथ नीचे ले लीजिये। ऐसे लीजिये। हाथ की ओर चित्त नहीं। पहले हाथ की ओर चित्त रखें। ज़रा झटक लें ऐसे हाथ। थोड़े हाथ को झटक ले अगर.... एक, दो बातें मैं आपसे बताऊँगी। जरा ध्यान दें। लेकिन आँख बंद रखें । आँख नहीं खोलियेगा । आँख कृपया न खोलें, क्योंकि कुण्डलिनी जब चढ़ती है, आज्ञा चक्र पे मॅलिटेशन... होता है। इसलिये आँख खुलेगी तो कुण्डलिनी चढेगी नहीं। ये बराबर हिप्नॉटिज्म के विरोध में है । शांति से बैठिये। हमारी ओर दोनों हाथ ऐसे कर के बैठिये। मानो की जैसे माँग रहे हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण दीजिये। हमें पार कराईये। अब समझने की बात ये है, आपमें से जिन्होंने कोई भी कुलदैवत माना हो, या किसी की भी पूजा की हो, जैसे दत्त्रेय की समझ लीजिये आपने पूजा की है। तो इस वक्त जो हालात है, उसमें आपको ये पूछना होगा, कि क्या हमारे सामने साक्षात् दत्तात्रेय बैठे हैं? जिनका बदन हिल रहा है वो आँखें खोल दें। अगर आप श्रीराम को मानते हैं, तो इसी तरह का प्रश्न आप करें। अगर आप जगदंबा को मानते हैं, तो पूछिये कि, क्या माँ जगदंबा है? यही एक तरीका है, सहजयोग में पाने का। इसे हम भी क्या करें! जिस तरह बिजली का जो प्लग चालू होता है, उसी में प्लग लगाया जाता है। इस वक्त हम ही चालू है। जब पूछते थे तब लोगों ने कहा, कि हम राम को मानते हैं। जब कृष्ण चले गये, ईसामसीह आये, तो लोगों ने कहा मोझेस को मानते हैं । जब हम आये, तो लोग कहते हैं हम इन सब को मानते हैं। आपको नहीं मानते हैं। और वो सब हम ही हैं। इसे क्या किया जाय ? हम वही हैं तो हम इसे क्या करें? और आप लोगों को इसमें बुरा क्यों लगता है समझ में नहीं आता। आपको बहुत से काम आते हैं, जो मुझे नहीं आते। मुझे तो बहुत से काम आते ही नहीं। मुझे ये काम आता है, तो आपको इसमें बुरा क्यों लगता है, यही समझ में नहीं आता । अगर हम कोई चीज़ है तो है। इसमें आपको घबराने की कौनसी बात है? हजारों कुण्डलिनियाँ जब उठाते हैं, तो कोई न कोई तो बात होगी, नहीं तो हम कैसे उठायेंगे कुण्डलिनी को? सोचने की बात है। जो लोग गायत्री का मंत्र कहते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या आप गायत्री हैं ? संध्या हैं? जो लोग मोहम्मद साहब को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप मोहम्मद साहब हैं ? जो लक्ष्मी-नारायण को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप लक्ष्मी-नारायण हैं? जो लोग हनुमान को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप हनुमान हैं? जो लोग भैरव को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप भैरव हैं? जो लोग शिवजी को मानते हैं, उन्होंने पूछना चाहिये, क्या माँ, आप शिवजी हैं? इसी प्रकार जगदंबा को पूछना चाहिये, इसी प्रकार श्रीराम से पूछना चाहिये, इसी प्रकार श्रीकृष्ण से पूछना चाहिये, क्या आप श्री राधा-कृष्ण हैं? इसी प्रकार ईसामसीह से पूछना चाहिये, मुझ से पूछिये, क्या माँ, आप ईसामसीह हैं? इसी प्रकार आप पूछें, 12 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-12.txt क्या माँ, आप कल्कि हैं? पूछें, कि क्या माँ, आप आदिशक्ति हैं? जो आदिशक्ति के बारे में कहा गया है, वो सब हम काम करते हैं। तो फिर हमें आदिशक्ति मानने में आप लोगों को इतना हर्ज़ क्यों है? कॅन्सर तो आप हम से ठीक कराते हैं। अपनी कुण्डलिनी उठाते हैं। तो इस तरह से भ्रम में क्यों रहते हैं आप? आज तक हमने ये बात नहीं कही थी। लेकिन मुझे मालूम हैं कि मनुष्य अधिकतर मूर्ख होते हैं। जो दुष्ट होते हैं और जालसाज होते हैं और चोर होते हैं उनको ही भगवान मान कर बैठते हैं। महामूर्खों की निशानी यही है और जितने भी संत-साधु, असल होते हैं, अवतार होते हैं, उनको छलते हैं। ये अधिकतर मनुष्यों की विशेषता है । पहला हिसाब ये बताईये, कि हम आपसे एक पैसा नहीं लेते हैं। हमें आप कुछ देने वाले नहीं है। हम आपके पास कोई भी माँग नहीं करते हैं । हम ही उल्टे यहाँ पैसा खर्च कर के आते हैं और अपने पैसे से ही रहते हैं। तो फिर हमारे पे इतना हक क्यों जता रहे हैं? आप हम से कुछ माँगने आते हैं या हमें लेक्चर झाड़ने आते हैं? आपको अभी तक अगर मिला होता तो आप हमारे पास क्यों आते? फिर बाद में जब बीमारियाँ हो जायेगी तब फिर आओगे । अभी ठीक हो जाओ। जिससे आगे बीमारियाँ नहीं आयेगी। नहीं तो कॅन्सर जैसी बीमारी भी चिपक जायेगी। सम्भल के रहो । इसको पा लेना चाहिये, जो परम है। वो तुम्हारे लिये हम खुद लाये हैं बना कर के बढ़िया। बड़े ही आप बुद्धिमान बन के आये हैं, कहाँ से आये हैं मेरी समझ में नहीं आता! बुद्धिमानी के लक्षण नज़र आ रहे हैं सारे, अब कुछ समझदारी थोड़ी देर के लिये रखो और पा लो। बचकाना अच्छा नहीं है। सारी जिंदगी बर्बाद कर दी फालतू चीज़ों में। कौन सी माँ ये बतायेगी, कि तुम जा के शराब पिओ। अपने को नष्ट करो। अपना सर्वनाश करो और जो आदमी ऐसी बातें कहता है उसको क्या वो हार पहनायेगी, कि ठीक है मेरे बच्चे का नाश कर। अभी तक अपने देश में कम से कम ऐसी माँ एँ नहीं आयीं। ये आपके भाग्य हैं। इस तरह से प्रश्न पूछे कि, 'क्या माँ आप आदिशक्ति हैं?' पूछिये ऐसा प्रश्न। (बाजू में , भाईसाहब आप आँख बंद कर लीजिये। वो नीले शर्ट में आये हैं वो आँख बंद लीजिये और ऐसे हाथ करिये मेरी ओर।) जो लोग आराम से बैठे हैं नीचे वो लोग उपर बैठें। पहले से बैठ जाईये। आईये, जिसको आना है आयें। और ऐसे यहाँ तमाशे न देखते रह जायें। कुछ अपने से भी प्यार करना चाहिये। कुछ अपना भी तो ख्याल करना चाहिये। दुूसरों को देखते रहोगे जिंदगी भर, अपने को कब देखने वाले हैं। आप आँख बंद करिये । अब किसी को आने मत दो। नौ बजे तक लोग आते रहेंगे। ये कोई तरीका है? परमात्मा को पाना है, तो पहले से आ के शांति से बैठ जाओ। थोड़ी देर आराम से बैठो। पाने की बात है। आँख बंद करो । धीरे धीरे हो जायेगा । एकदम छोटे बच्चों जैसे समझाना पड़ता है। क्या ध्यान करने आये हैं? आप परमात्मा को पाने आये हैं। आप अपने को जानने आये हैं। कोई ऐसी बात नहीं जिसको आप कोई भी छोटी चीज़ समझ जायें । बहत बड़ी बात है, जन्मजन्मांतर की बात आप माने आये हैं। आप लोग तो इस तरह से करते हैं जैसे कोई ...... करने आये हैं। अब जरा शांति से बैठे सब लोग। जब तक समझाया नहीं जायें कोई समझता ही नहीं। 13 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-13.txt आत्मा की अनुभूति मुंबई, २८ दिसंबर १९७७ आपसे पिछली मर्तबा मैंने बताया था, कि आत्मा क्या चीज़ है, वो किस प्रकार सच्चिदानंद होती है, और किस प्रकार आत्मा की अनुभूति के बाद ही मनुष्य इन तीनों चीज़ों को प्राप्त होता है। आत्मसाक्षात्कार के बगैर आप सत्य को नहीं जान सकते। आप आनन्द को नहीं पा सकते। आत्मा की अनुभूति होना बहुत जरूरी है। अब आप आत्मा से बातचीत कर सकते हैं। आत्मा से पूछ सकते हैं। आप लोग अभी बैठे हये हैं, आप पूछे, ऐसे हाथ कर के कि संसार में क्या परमात्मा है? क्या उन्ही की सत्ता चलती है? आप ऐसे प्रश्न अपने मन में पूछे। ऐसे हाथ कर के। देखिये हाथ में | कितने जोर से प्रवाह शुरू हो गया। कोई सा भी सत्य आप जान नहीं सकते जब तक आपने अपनी आत्मा की अनुभूति नहीं ली। माने जब तक आपका उससे संबंध नहीं हुआ। आत्मा से संबंध होना सहजयोग से बहुत आसानी से होता है । किसी किसी को थोड़ी देर के लिये होता है। किसी किसी को हमेशा के लिये होता है। आत्मा से संबंध होने के बाद हम को उससे तादात्म्य पाना होता है। माने ये कि आपने मुझे जाना, ठीक है, आपने मुझे पहचाना ठीक है, लेकिन मैं आप नहीं हो गयी हूँ। आपको मैं देख रही हूँ और मुझे आप देख रहे हैं। इस वक्त मैं आपकी दृष्टि से देख सकूँ, उसी वक्त 14 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-14.txt तादात्म्य हो गया। आत्मा के अन्दर प्रवेश कर के वहाँ से आप जब संसार पे दृष्टि डालते हैं तब कहना चाहिये आत्मसाक्षात्कार पूर्णतया संपन्न हो गया। कुण्डलिनी का जागरण, उत्थापन तथा भेदन सब कुछ हो गया, जो लोग पार हैं। सहस्रार टूट गया। आप चक्रों के द्वारा अपनी स्थिति और दसरों की भी स्थिति को जानकारी होने लगी। लेकिन अभी आप आत्मा के साथ तदाकार नहीं हुये। बहुत अच्छी तरह पहचान लेते हैं। उसकी आत्मा से तदाकार होने के लिये, सब से पहले 'मैं नहीं हूँ' ऐसा मानना चाहिये । वही वो है, तू ही तू है । पहले आत्मा को मानना चाहिये कि 'तू ही तू है। मैं नहीं हूँ।' कबीर दास ने बहुत अच्छे से कहा है कि, जब धुनकने वाला धुनकता है, तब धुनकी की आवाज आती है, 'तू ही तू ही'। लेकिन जब बकरी के पेट में आंतडियों के रूप में होती है तब कहती है 'मँ, मँ, मँ (मैं, मैं, मैं)' । फिर बकरी के आंतडियों से निकल के उसकी अच्छी पिटाई होती है, तानी जाती है, सुखायी जाती है, और जब उसे फिर धुनकनी पे लगाते हैं, वो हर समय कहती है, 'तू ही तू ही' । ऐसे ही हमारे मन का है। मन को खूब अच्छे से देखना चाहिये। देखो तो भला । ये मन कैसा है ? कहाँ भटकाते रहता है हमको? कहाँ भटकाते रहा व्यर्थ की चीज़़ों में ? हमारा चित्त कहाँ जाता है? कभी इसको देखते हैं, कभी उसको देखते हैं। कभी इस चीज़ को देखते हैं, कभी उस चीज़ को | देखते हैं। हर समय हमारा मन किसी न किसी भावना या वासना से भरा रहता है। अब उसमें प्रकाश हो गया, हम देखते हैं। कि उसमें वासना है, उसमें भावना है, लेकिन तो भी हम इस गंदी चीज़़ को हमारे साथ लिये जा रहे हैं। इसको धूनकना है। मारना-पीटना नहीं है। धुनकना है। उस की ओर देखें। उसके प्रकाश को प्रज्वलित करें। 'हे मन, देखो , तुम तो परमेश्वर का मंदिर हो ना! परमेश्वर के मंदिर में ऐसी गंदी भावना क्यों आयीं? इसको तुम बाहर ही रखो। बहुत हो चुका। पहले सभी लोग ऐसा लिखते थे कि, 'मन समज, समज पग धरी। ' हे मन दुनियाभर की चीज़़ों के लिये तुम दौड़ते हो। तुम परमात्मा के लिये कब दौड़ोगे? परमात्मा को अपने अन्दर कब बसाओगे? तुम्हें ये चिंता रहती है कि मेरे बेटे का क्या होगा? मेरे माँ का क्या होगा ? मेरे बाप का क्या होगा ? अरे मन, ये तेरे कौन रह चुके? ये कोई तेरे हुये हैं? ये कोई तेरे अपने हैं? उनके लिये क्यों तुम हर बार इस तरह से परेशान होते हैं। अपने मन से बात करें। धीरे धीरे इस तरह से मन की सफ़ाई होते हुये, आत्मा का प्रकाश प्लावित होने लगेगा। उस प्रकाश से आपमें आनन्द की लहरियाँ बहनी शुरू हो जायेगी। आप में जड़त्व लाने वाली जितनी भी चीजें हैं, धीरे धीरे घटती जायेंगी और आप अपने आत्मा में लीन होते जायेंगे। इस वक्त आप कहेंगे 'मैं, मैं ही हूँ, और कुछ नहीं।' यही भावना रह जाती है कि 'मैं हूँ।' आत्मा ही आप हो जाते हैं और आप कहते हैं कि 'मैं ही हूँ।' जब आत्मा के अन्दर से दृष्टि होने लग जाती है तो आप कहते हैं कि ये 'मैं हूँ।' ये संसार मैं हूँ। ये सृष्टि मैं हूँ। ये समुंदर मैं हूँ। ये दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं कि मैं नहीं हूँ। हर एक चीज़ में मैं हूँ। मैं ही बसा हुआ। हर चीज़ में मेरा ही वास है। मेरे से ही सारी सृष्टि स्पंदित है। मेरे बगैर सृष्टि का निर्माण ही नहीं । मैं ही मैं सब कुछ। ये अहंकार नहीं, ये वास्तविक है । ये असलियत है। इसे अस्मिता कहते हैं। लेकिन इसे पाने के लिये सब से पहले हमारा जो झूठा 'मैं' है उसे तोड़ना होगा । झूठे 'मैं' में अनेक चीज़ें हैं। शुरू से आप देखें, 'मैं हूँ हिन्दुस्तानी, मैं हूँ हिन्दू, मैं हूँ मुसलमान, मैं हूँ फलाने नाम वाली, मैं हूँ फलाने नाम वाला। मेरी ये पोजीशन, मेरा ये पैसा, मेरा ये गरूर। मैं साड़ी हूँ, मैं कपड़े हैँ, मैं स्वेटर हूँ, सूटू्स हूँ, सब कुछ हूँ।' मैं, मैं नहीं हूँ। | बाकी सब 'मैं' होगा। इस तरह से अनेक 'मैं' में लपटा हुआ सारी जिदंगी बिताते रहता हूँ। फिर एक क्षणभर बैठ के सोचना चाहिये कि 'क्या इसलिये मेरा जन्म हुआ था? सारी जिंदगी मैंने क्या किया ? कहाँ गये ये दिन ? कहाँ बिताया मैंने? अपना 15 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-15.txt सारा समय कहाँ बर्बाद किया मैंने?' सहजयोग के बाद भी बहुत से लोग अभी भी अपना समय बहुत बर्बाद करते हैं। फिर वो समय नहीं आने वाला इस बात को नहीं समझते हैं। बहुत लोग बर्बाद करते हैं। गलत जगह चले जाते हैं और फिर आ के कहते हैं कि, 'माँ, मेरा सर पकड़ गया है।' क्यों ऐसा समय बर्बाद करना है? इसमें रखा ही क्या है? ऐसे तो हजारों लोग अपना समय बर्बाद करते हैं। लेकिन पार होने वाले लोगों को आत्मा में लीन होना चाहिये। सब हो गया। भंडार खोल दिये। दरवाजे खोल दिये। अन्दर भी आ गये। अब हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं। अब इसे क्या किया जाये? भाई, हम आपके लिये खाना बना सकते हैं। आपके मुँह में डाल सकते हैं। अब आपका पचा तो नहीं सकते ना ! ये तो आप ही को पचाना है। उस की कोई मेहनत नहीं है खास। सब चीज़ के लिये टाइम होता है। इस चीज़ के लिये टाइम नहीं होता है। आखिर हमने पाया क्या है आज तक? दो-चार साड़ियाँ पा ली। दो-चार जेवर पा लिये। आठ-दस पंगे पा लिये, फलाने के फलाने थे, ढिकाने के ढिकाने थे। ऐसे हज़ारों आये और गये। दुनिया में आये और खत्म हो गये। उनका क्या हुआ? मिट्टी हो गये सब लोग, मिट्टी से कोई नर्क में गये। कोई कुछ हो गये। कुछ पत्थर हो गये। क्या हुआ? अब जो हैं, उनको तो फल बनना ही है। परिपक्वता आनी पड़ेगी। अपने विचारों में, अपने संलग्नता में, अपने ध्यान में। जीवन फूल खिले हये अगर अत्यंत सुन्दर बनाना है, तो सुंदरता को अपनाना पड़ेगा। उसका जो कुछ असुंदर है, जो कुछ अग्ली है उसको निकाल फेंकना पड़ता है। लेकिन अभी भी हम लोग उस चीज़ में थोड़ा थोड़ा लिपटे चले जा रहे हैं। आज एक साहब आये थे | मेरे सामने कहने लगे कि, 'मैं सिगरेट पिऊँ माताजी तो कोई हर्ज तो नहीं?' मैंने कहा, 'मुझे क्या हर्ज है, तुम को हर्ज है या नहीं?' अरे, मेरा क्या हर्ज है। में क्या करती हूँ? में तो चुपचाप देख रही हूँ कि कौन कहाँ हैं? कैसे चल रहा है? मुझे हँसी आती है लोगों पे, कि अमूल्य को छोड़ कर के, अनमोल को छोड़ कर के, ये क्या? सहज भावना से परमात्मा से कहना चाहिये कि 'तेरा खेल हो गया। तेरा बहुत हो चुका। मैं बैठा हूँ। अब तू खेल। देखना मुझे है। तेरा क्या?' इसके अलावा माँगने का क्या है संसार में? नहीं तो व्यर्थ, जंग जिसे कहते हैं वो हो जाती है। समझ लीजिये, कल, ये माइक बनाया गया है और इतना खराब हो जाये कि फिर चल न सके। तो ये कहाँ जायेगा, मालूम हैं न आपको! उसका लोहा पीट-पाट कर के और फिर से मशीन में ड़ाल दिया जायेगा। बाकी इसकी आत्मा तो खत्म हो गयी। आपका जो इन्स्ट्रमेंट बनाया गया है, वो अगर इस्तेमाल न करे आप तो उसकी इफिशिअन्सी पूरी खत्म हो जायेगी की नहीं ? और उसका एन्जॉयमेंट कहाँ रहा ? मैं तो आपको एन्जॉयमेंट की बात कर रही हूँ। किसी को कुछ हो रहा है, किसी को कुछ हो रहा है। ध्यान में कितनी प्रगति की ? आप क्या बने? यही सहजयोग में सवाल पूछा जाता है। आप पूछते हैं, भगवान हैं या नहीं? ठीक है, इसका जवाब दे देंगे । वाइब्रेशन्स से आपको दे देंगे। आपके सवाल ठीक हो जायेंगे, आपकी तंदुरुस्ती ठीक हो जायेगी, आपकी मानसिक दशा ठीक हो जायेगी, आपके बच्चे ठीक हो जायेंगे, आपकी फाइनॅन्शिअल कंडिशन ठीक हो जायेगी, सब ठीक हो जायेगा। आप भगवान के लिये क्या दे रहे हैं? अरे कुछ देने का नहीं है। लेने का है। आप कहाँ तक ले रहे हैं उस से। ये सवाल आप से पूछे कि, 'हमने सब ले लिया। कितना माँ दे रही हैं, उसमें से कितना हम ने ले लिया है? क्या पूरा के पूरा ले लिया। सब कुछ क्या पा लिया? अपना रास्ता भटक 16 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-16.txt भटक के हम कहाँ चले जाते हैं। क्यों न हम इसे पा लें! संसार की चीजें तो चलती ही रहती हैं। उसमें रखा क्या है? कोई मिलने आया, कोई चला गया, कोई कुछ हुआ। इसमें रखा क्या है? हमने कितना पाया है? एक एक इन्सान एक एक इन्स्टिट्यूशन है, मैंने कहा था। एक एक इन्सान एक एक संस्था है। हमारे यहाँ पाटील आते हैं। आप जानते हैं। एक छोटे से गाँव से आते हैं। कालवा नाम का गाँव है। छोटीसी झोपड़ी में रहते हैं। उनकी जमीन है थोड़ी बहुत। हर प्रोग्रॅम में आते हैं कालवा से। उनको भी खेती करनी है। उनके बच्चे हैं, उनको पालना-पोसना सब कुछ करना है। हर प्रोग्रॅम में आते हैं। अपने घर में उन्होंने ये लगा के रखा है, कि सहजयोग, माताजी निर्मलादेवी का सहजयोग । वहाँ से कितनी ट्रेन्स जाती हैं। सब देखते हैं। मैंने भी एक बार जा के देखा । कहा कि, 'ये कहाँ, मैं यहाँ कहाँ आ गयी ? यहाँ कहाँ मैं विराजमान हँ?' कुछ लोगों ने कहा, 'यहाँ कैसे माताजी निर्मलादेवी का सहजयोग निकाला? ये पाटील का मकान है?' मैंने कहा, 'हाँ।' और थडाथड वाइब्रेशन्स वहाँ से आ रहे थे। उनके पास आज हजारों में रुपया होता तो भी उनकी इतनी इज्जत नहीं होती कि जितनी आज उनकी इज्जत है उस गाँव में। मैं गयी थी वहाँ। सब लोगों ने पैसा इकठ्ठा कर के वहाँ सारा इंतजाम किया । बहुत बढ़िया प्रोग्रॅम किया। आज उनकी इतनी इज्जत है, कहीं खड़े होते तो सब लोग जानते हैं कि कोई खड़ा है, है कोई चीज़। आखिर पाने का क्या है? चार जेवर पहनने से कौन सी बड़ी आपकी शोभा होने वाली है! लोग तो पीठ पीछे हँसते ही हैं आपके ऊपर! कैसे महामूर्ख हैं लोग ! आपने मानवता में कितना पा लिया। आपने अपनी किमत पा ली है। यही असली बात है। वहाँ से लोग जाते वक्त उनके घर को भी नमस्कार करते हैं। मनुष्य की पहचान उसकी बाहर ही में कुछ नहीं होती, उसके अन्दर ही होती है । आपको मैं शास्त्री जी का उदाहरण देती हूँ। शास्त्री जी बहत थोड़ी ही समय के लिये.....(अस्पष्ट) है। जब उनकी मृत्यु हुई, उनके अस्थि को ले कर के हम सभी लोग गये थे । मैं भी थी उसी में । तो जो कलश थे, अस्थि तो कोई दिखायी नहीं देती थी। शास्त्री जी तो बिल्कुल ही नहीं दिखायी देते थे। सिर्फ थोड़ी सी अस्थियाँ थी उस में, अॅशेस, वही कलश में रखी थी। उस कलश को देखने के लिये जहाँ से ट्रेन जा रही थी, रास्ते भर लोग खड़े थे, लालटेन ले कर । ट्रेन धीरे-धीरे जाती थी। सब उस कलश के दर्शन के लिये बस नमस्कार करते थे। और जब वो अस्थियाँ समर्पित हो गयी गंगा जी में, उसके बाद सब कहने लगे, 'वो कलश गये कहाँ?' पता नहीं कहाँ पड़े थे? वो खोजने से भी नहीं मिले। लोगों ने कहाँ, जाने दो. | हटाओ। कहीं चले गये होंगे। किसी ने चुराये भी नहीं । एक बैलगाड़ी के नीचे में पड़े थे। वहाँ से उठा के लाये। मैंने कहा, देखो, इन कलशों को ही अभी तक नमस्कार करते आये। वहाँ से ट्रेन धीरे धीरे चलती आयी। हज़ारों मील से लोग आ कर उस कलश के दर्शन कर रहे हैं। और उस कलश में दूसरे भी वो अॅशेस भी थे न ! वो जैसे ही विसर्जित हो गये उस कलश को किसी ने पूछा भी नहीं!' किसी काम का भी नहीं। कोई अर्थ ही नहीं रहा उसमें । एकदम यूसलेस चीज़। उसकी कोई किमत ही नहीं रही। किसी ने उसको सजाया भी नहीं, सँवारा भी नहीं, देखा भी नहीं। वहाँ नीचे में फेंक दिया, बैलगाड़ी के नीचे में| वो कहीं जा के खत्म हो जायें । और जब उसको उठा के लाये, लोगों ने कहा, 'कहाँ रखें बेकार की चीज़ ? इसको क्यों उठा के ले जा रहे हैं ? फेंक दो इसको गंगा जी में। क्या रह गया ?' ऐसे ही आपके शरीर का, आपके व्यक्तित्व का है। मृत्यु से पहचान होती है मनुष्य की। इसे जानना चाहिये हर एक आदमी को मृत्यु आती ही है। उसकी परख कैसी होगी? उसकी परख के लिये मृत्यु आती है। किसी के लिये दो आदमी रोते 17 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-17.txt हैं, किसी के लिये दस आदमी रोते हैं, किसी के लिये पच्चीस आदमी रोते हैं। कोई कहता है मेरा पति मर गया, कोई कहता है मेरी माँ मर गयी, कोई कहता है मेरा बाप मर गया। लेकिन कुछ कुछ लोग ऐसे होते हैं जब मर जाते हैं, जहाँ उनकी अर्थियाँ गड़ जाती है, वहाँ से सुगन्ध की लहरें बहती हैं। उसके पास से आप गुज़र जायें तो कहते हैं कि, 'कहाँ आ गये?' मैं काश्मिर में गयी थीं। आश्चर्य की बात है, हमारी मोटर चली जा रही थी। मैंने कहा, 'रोको, रोको, यहाँ किस की समाधि है?' कहने लगे, 'समाधि नहीं है, मोहम्मद साहब का एक बाल रखा हुआ है यहाँ पे। उसे रोको। इक्बाल कहते हैं। उसी को मैंने नमस्कार किया। एक बाल उनका वहाँ रखा हुआ है, उस से ऐसे वाइब्रेशन्स चारों तरफ़! नहीं तो हम है किस चीज़ के? हमारी कीमत ही क्या है? और जब ये दीप जल गया है, हमारे अन्दर प्रकाश आ गया है, तो उसकी तो इज्जत करो । उसको तो सम्भाल लो। उसको तो अपनाओ । ये सोचने, समझने की बात यही है। बाकी सब व्यर्थ का करते बैठते हो । बाकी में सोचने की कोई जरूरत नहीं। करने वाला सब परमेश्वर है । सब कुछ वो करता है। अगर आपको सोचना ही है तो ये सोचना है कि 'क्या मेरा दीपक इस योग्य है! मैंने कहाँ रखा है मेरा दीपक।' दीपक जला कर के, आप क्या टेबल के नीचे रखियेगा? ये कौनसा तरीका है? इसका मापदण्ड अपनी ओर ले लेना चाहिये। इसको सोच लेना चाहिये, कि हमने अपनी मानवता कहाँ तक जगायी? उसको कितना हमने मैनिफेस्ट किया है? कितना हमारे मानवता का प्रकाश फैला है? दुनिया क्या कहती है हमारे लिये? आप लोग मुझे मानते हैं न माँ और गुरु भी मानते हैं। ठीक है। मेरे जीवन की ओर भी तो दृष्टि करनी चाहिये । सोचो, हजारों वर्षों की तपस्या के बाद हम मनुष्य हये हैं। हजारों वर्षों के बाद। और मनुष्यता के नाते आने पर समझा की मनुष्य क्या होता है? लेकिन तो भी मैं अभी नहीं समझ पाती हूँ, कि अमूल्य रत्न हीरा मिलने पर भी मनुष्य उस की कीमत क्यों नहीं करता है? मुझे बहुत ही कठिनाई होती हैं। बिल्कुल कैज्यूअली आदमी रहता हैं इस मामले में | सोचता है, कि क्या चले जायेंगे, होता है, कर लेंगे । कारण ये है कि हीरे का मूल्य बाज़ार में जा के पूछ सकते हैं। इस के लिये कोई बाज़ार नहीं। इसका बाज़ार आप ही का मन, आप ही का हृदय, आप ही का संतोष, आप ही का विचार। सब कुछ आप ही के अन्दर, आप ही के संतोष की बात है। अपने में ही आप खेलते हैं. अपने में ही आप जागते हैं. अपने में ही आप रहते हैं, अपने में ही आप मजा लेते हैं और इतने सारे जो अपने हैं उनके साथ आप रचते हैं। उन्हीं के अन्दर बिराजते हैं । एक आदमी कहता है कि देखो, ये सहजयोगी है हमारे यहाँ। है एक आदमी। और एक वो है कि | ऐसा। क्या आप सहजयोग को बदनाम कर रहे हैं? लोग क्या कहेंगे? ध्यान में गहरा उतरना आना चाहिये । गहरा उतरने से नहीं होता। उसे फैलाना पड़ेगा। अगर आपने फैला नहीं तो परमात्मा आप से पूछेंगे, 'क्या आपका दीप किस ने जलाया था? कि आप अपने सांसारिक भवसागर में घुस कर के फिर से बुझ जाओ। इसलिये दीप आपका जलाया था माँ ने? आप किसलिये माँ के पास गये थे? जागृति क्यों करने के लिये गये थे? किस वजह से ?' लगन होनी चाहिये। विचार, सारा प्लॅनिंग यही होना चाहिये कि, 'मैं अपने क्षण-क्षण कैसे रहूँ? कैसे चलेंगे?' यही प्लॅनिंग होनी चाहिये । 6. दुनियाभर के प्लॅनिंग बंद करिये। वो सब परमात्मा करता है आपके लिये| उल्टा ही प्लॅनिंग हमेशा दिमाग 18 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-18.txt चलाते रहता है। जिससे हमारा धर्म टूटता जाये। ये की सबेरे उठेंगे। हाँ थोड़ी देर बात बैठेंगे । थोड़ा सो ही लें । बहत कैज्यूअल हो जाता है। सहज चीज़ बहुत सहज मिलती है, इसमें कोई शंका नहीं। लेकिन जो सहज हुई है, माने जो आपके साथ जन्मी है, इस की बहुत बड़ी, पुरानी परंपरा चली आयी है और वो बनायी गयी है। उसकी आप कीमत नहीं समझते हैं । उसको आप ना ही नापतौल सकते हैं कि ये कैसे हुआ? कैसे कुण्डलिनी बनायी गयी? कैसे चढ़ायी गयी? कैसे आपको आत्मसाक्षात्कार हुआ? आप तो सोचते हैं कि हाँ मिल गया, जैसे बाज़ार में जा के आपने एक साड़ी खरीदी ली हो। चाहे कपड़ा खरीद लिया हो। नहीं, नहीं ये अनन्त की तपस्या है। इसे आपने पाया है। इसका मूल्य जानिये। इसमें गहरे उतरें। गहरे उतरना पड़ेगा, गहरे जाना पड़ेगा, तब आनन्द और सुख संसार में आयेगा। संसार की समता, एकता, ये संसार का उत्थान, सभी कुछ आप सहजयोगियों पे हैं, ये तो कम से कम समझ लेना चाहिये। इसकी जिम्मेदारी समझ कर के, आगे बढ़ना चाहिये। अब आपने देखा ना, जिनको बाधा होती है वो आँख भी नहीं बंद कर पाते। सामने दिखायी देता है। पागल कोई आये, वो आँख नहीं बंद कर सकता मेरे सामने। उसको फौरन मैं पहचान जाती हूँ कि इसको बाधा है। फिर बोले चाहे न बोले। अगर आपकी इधर-उधर ज्यादा चली तो समझ लेना चाहिये कि बाधा ही हमारी है। स्टेडी क्यों नहीं हो पाती आँख ? आपका चित्त इधर-उधर जा रहा है तो समझ लेना चाहिये कि कोई न कोई हमारे अन्दर बाधा है। क्यों नहीं हो पाती? हमारा मन अगर छोटी-छोटी चीज़ों में उलझता है और छोटी-छोटी चीज़ों में हम अगर अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं जो कि करना चाहिये सहजयोग के लिये, तो सोचना चाहिये कि हमारे अन्दर कोई न कोई बाधा आयेगी । नहीं तो होना चाहिये। अगर आप देखें तो नॉर्मली ऐसा ही होता है, अगर मनुष्य को कोई धन मिल गया, तो फौरन उसके व्यय में उलझ जाता है। बहुत से लोग पूछते हैं कि माताजी, वाइब्रेशन्स आ गया अब आगे क्या ? अरे भाई , आपकी संस्था बना दी। अब संस्था चलाओ। संस्था बनाने की बात हमने कर दी । संस्था बनाने का तो बना दिया, अब आगे चलाओ। अब संस्था खोलो अपनी और उसको चलाओ। कोई कहेगा की लो, भारतीय विद्या भवन बना दिया, अब आगे क्या ? अब इसको चलाना है कि नहीं चलाना है? जिस चीज़ के लिये बनाया है वो तो करो। इसलिये बनाया कि दूसरों को प्रकाश दें। दूसरों में प्रकाश भरें, इसलिये आपकी संस्था बनायी। अब आपने करना ही चाहिये ये काम । धन बाँटो तो सही, बाटने से कितना बढ़ता है। इसमें कोई शक नहीं। पर बाँटते फिरो। पागल के जैसे बाँटो। देखो तो सही कितना बढ़ता है। जितना बाटोगे उतना बढ़ेगा। इसको बाँटे बगैर मज़ा नहीं आने वाला। कृपणता करने वाला आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता। उसको कोई न कोई बीमारी होगी। या तो उसको शारीरिक तकलीफ़, मानसिक तकलीफ़, उसको ये तकलीफ़, उसको वो तकलीफ़। क्योंकि अन्दर से सन्तुलन ही नहीं है तो सब बीमारियाँ। बीमारी माने विकृति। और सुकृति यही है। उसको बाँटो, उसको दो । मुफ्त में। ये नहीं कहने का कि मेरी पॉवर है। नहीं, नहीं, कुछ नहीं कहने का। सिर्फ कहने का कि 'मेरे अन्दर से बह रहा है भाई। ले लो तुम भी। तुम भी ले लो, तुम भी ले लो। अपने यहाँ फड़के देखें। मैं इनके बार-बार उदाहरण देती हूँ। क्या है? एक टीचर है बेचारे। जब उनको मौका मिलता है, जहाँ मौका मिलता है, जिस परिस्थिति में, अपने बहन से कहो, भाई से कहो , सब से कहो। भाई देखो, तुम अगर बीमार 19 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-19.txt हो तो हम कुछ नहीं कर सकते। तुम सहजयोग में आओ तो हम बात करें। कोई आप के दोस्त हैं। मिलने को आते हैं। खाने-पीने पे हजारों रुपया खर्चा करते हैं। लोगों को शराब पिलाने में वाइब्रेशन्स पे भी खर्चा करो। ये कहने में क्या जाता है, कि हमारी माताजी कहती हैं कि शराब पीना बुरी बात है। शराब मत पीना। यहाँ तो सहजयोग में आते हैं और घर में शराब की लत । भाई , ये बुरी चीज़ है तो बुरी चीज़ है ! समझ लेना हजारों रुपया आप खर्चा करते हैं। भाई, थोड़ासा चाहिये। मोहम्मद साहब कोई पागल थे, कि नानक साहब कोई पागल थे, दुनिया भर के लोगों ने शराब को मना किया, वो लोग पागल थे क्या? जिन्होंने जिस चीज़ को मना किया वो सब कोई पागल लोग तो नहीं थे ना ! किसी ने किसी चीज़ को कहा, किसी ने किसी चीज़ को कहा । वजह ये थी कि एक कह गये, तो दूसरे ने कहा, अच्छा ये छोड़ो, दूसरा कहेंगे। लेकिन लोगों का तो ऐसा है कि इसने ये नहीं कहा तो ये न करो। उसने ये नहीं कहा तो ये भी न करो। मतलब ये, कि कुछ भी न करो। पर ये किस के लिये खोज रहे हो ? किस के लिये बना रहे हैं आप? अपने ही लिये। और कोई भी नहीं इसमें नुकसान पाने वाला। आप खुद ही अपना नुकसान अच्छे से कर रहे हैं। एक हाथ इधर मार रहे हैं, एक हाथ इधर मार रहे हैं। दोनों हाथ से अपना नुकसान आप कर रहे हैं। जो चीज़ बुरी है उसको छोड़ना है। उसमें उलझना ही क्यों? उसमें पड़ना ही क्यों? फॅनेटिज्म है, कि कोई एक मैं फलाना ठिकाना हूँ, मैं हूँ हिन्दू कि मैं कौन हूँ। पता नहीं कौन कौन बन के बैठे हये हैं। है कोई भी नहीं। इस तरह के पागलपन को कब छोड़ने वाले हैं आप लोग? ये थोडी थोडी सी चीज़ें अगर छूट जाये, तो आत्मा में प्रवेश हो सकता है। आत्मा में बहुत सरल तरीके से आप घुलते जायेंगे। और आपको आश्चर्य होगा कि आप ही की अवेअरनेस आत्मा की अवेअरनेस हो गयी। और आप जो बोलते हैं अधिकारवाणी से, आप कुछ बोलें एक-एक शब्द आपका पकड़ा जायेगा। एक अक्षर आपने कहा, उसी की एकदम से उसी वक्त झेल हो जायेगी। सारे के सारे चिरंजीव हाथ ले के खड़े हैं। बोलिये। इस बड़ी दशा में आने पर भी आप अपने को स्थानापन्न न करे तो आपकी कौन इज्जत करेगा। राजा अपनी इज्जत न करेगा तो लोग क्यों करेंगे? अरे, जो अपनी इज्जत नहीं करता है, अपनी पायी हुई चीज़ की इज्जत नहीं करता है, तो उसकी कौन इज्जत करेगा। एक सीधा हिसाब है। ध्यान में जमना पड़ेगा। ध्यान में चार बजे से, मैंने कहा बैठिये। उठ के बैठना पड़ेगा। कोई ऐसी मुश्किल चीज़ नहीं। चार बजे उठना कौन सी मुश्किल चीज़ है। सबेरे उठिये, बैठिये ध्यान में । दिन में एक न एक आदमी से सहजयोग की बात करो । कम से कम एक से। घर-गृहस्थी के चक्कर में औरतें हैं उनको कह रही हूैँ। बाकी औरतों को तो जो मिले उससे करो। आपने जिंदगी भर बात ही क्या करी सिवाय फालतू के बातों को। लोगों को देखिये । कहेंगे वो इस दुकान में ये अच्छा मिलता है। क्या आपको सेल्समन किसने बनाया? कभी किसी के लिये कहेंगे, बड़ा अच्छा आदमी है, बड़ा बुरा आदमी है। कोई आप कोई ..... (अस्पष्ट) है। आपने जो पाया, इतना बहुमूल्य, उसको कितना बढ़ाया आपने। अब बढ़ा के उसको जमाईये लोगों के अन्दर में। उसको बिठाईये। जब आप करना शुरू कर देते हैं तो परमात्मा साक्षात् उस पर उतर आता है। गंगा बहने लगती है आपकी चरणों से। और ऐसे आदमी की जब मृत्यु होती है, तब देखिये, जिस मिट्टी में वो दफनाया जाता है, उसकी एक-एक मिट्टी फूल बन जाती है। कितना सुगन्ध! सारे संसार के लिये इतनी बड़ी चीज़ हो जाती है। वर्षों तक उस पे दीप जलते हैं। लोग याद करते हैं कि हो | गयी। इन्होंने कौन से बड़े भारी तोफ़खाने लगाये थे। फकीरों जैसे रहे वो, चाहे जैसे भी रहे । काहे को, फिर काहे को 20 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-20.txt भटक रहे हैं। अब सब धर्म आपको समझाना पड़ेगा। रियलाइजेशन के पहले मैं कोई धर्म की बात नहीं करती हूँ। रियलाइजेशन के बाद सारे ही धर्म अपने अन्दर बिठाने पड़ेंगे। कट्टरता भी बड़ी बुरी चीज़ है। मैंने यहाँ तक देखा मोहम्मद साहब को लोग बुरा - भला कहते थे। सहजयोगी कहते हैं, आश्चर्य होता है मुझे ! आपको किसने दिया रियलाइजेशन? आपके पेट में कौन बैठा हुआ है? कितने वर्षों की तपस्या कर के आपके पेट में प्रवेश किया हुआ है, किसने आपको जागृति दी? आज्ञा पे कौन बैठा हुआ है? आपने बनायी थी ये सब ? जिन्होंने तपस्विता से अपने को लोहे जैसे, जीवन में इस तरह से अपने को बनाया, स्वर्ण जैसे तप कर के निकले और जिन्होंने आपके लिये सारा ये कार्य किया उनको आप मना करने वाले कौन होते हैं भाई ! कौन हो ? वो तो मेरे अंग -प्रत्यंग होते। मेरे सर आँखों पर । मुझे बड़ा आश्चर्य होता कि उनको क्रिटीसाइज करने वाले आप कौन होते हैं? आप क्या हैं? किसी भी ऐसी महान शक्ति जो इन देवताओं में विराजती है उसका एक शब्द भी उसके खिलाफ कहना, एक बार भी उसके बारे में कहना, या उसके विरोध में मन में विचार आना भी, महान पाप के बराबर है। आप मान लीजिये मेरी बात। और उससे आपका हृदय चक्र, विशेषत: हृदय पकड़ा जायेगा। शिवजी को मनाना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस बात पर वो बहुत ही तुले हये हैं। किसी भी देवता के ऊपर में आपको, कोई भी शब्द उठाना मना है। आप होंगे, आप के घर में बैठिये। इसको अगर मनुष्य समझ लें तो कभी नहीं इसकी निंदा करें। किसी भी महान धर्म की कभी न निंदा करें। और अपने धर्म में जागें, अपने को समझें, अपनी सत्ता को समझें, अपने परमात्मा को । यही एकता इसी से होने वाली है। बाह्य बातों से नहीं कि हिन्दू-मुसलमान एक है और ईसाई सब एक है, और पारसी सब एक हैं। इस बात से होने वाली है कि इस सब के जो आदिगुरु हैं, वो एक ही तत्त्व है। एक ही तत्त्व अनेक बार इस संसार में आया है और हम महामूर्खों जैसे लड़ रहे हैं। जैसे कि वो खंडों में से निकली हुई आत्मा थी, उसी तरह से हम बच गये हैं और आपस में लड़खड़ा रहे हैं। जो महान तत्त्व है, जो हर एक धर्म में जैन, बुद्ध कोई भी धर्म हो, हर एक धर्म में एक जीत उस महान तत्त्व की अनेक बार उपासना हुई हैं। उसी महान तत्त्व में हम आज पार ह्ये हैं। उसी महान तत्त्व ने आज हमें पार किया है। और जब तक उसमें आप आ जाते हैं, ऐसा ही समझते हैं कि सारे के अन्दर वही तत्त्व फैला हुआ है। सब के अन्दर वही तत्त्व स्पंदित है। तब हम में अलग-अलग होने की बात ही कैसे आती हैं? हम तो सब एक ही पेड़ की शाखायें हैं। एक ही पेड़ पे पले ह्ये सब हैं। उसके जड़ों को बुरा कहने से हम अपने ही अन्नदाता को कह रहे हैं, वो बुरा है। इतना अज्ञान संसार में रहा है। उसकी हद हो गयी। अब मनुष्य ने उसको और भी अंध:कार में डाला। और अंध:कार में डालता ही चला गया। उसमें वो बड़ा पुरुषार्थ समझता है। बड़े बड़े धर्म बनाये। कर्मकाण्ड बनाये और धर्मसंस्था बनायी। दुनिया भर के तमाशे बना बना कर के परमात्मा को घोट मारा। किसी भी महान धर्म के खिलाफ़ बोलते वक्त सोचना चाहिये कि तुम हो कौन कि किस खेत की मूली हो तुम ? तुम क्या बोलते हो? ये सोच लें। लेकिन अगर एक दूसरी बात सोचे, उस महान सागर जो अनेक किनारों पे जा कर के स्पंदित हुआ है, वही सागर हम हैं। तो क्या हम उसके अन्दर के बूँद हैं। उसी में मिले हये हैं। तो सोचिये कितनी विशालता अन्दर लगती है। वही साधारण है। अनेक बार जिस सागर ने अनेक लहरों से और अनेक, अनन्त धर्म स्थापन किये, उसी सागर के हम एक अंश है, ये सोच लेने से देखिये कितनी विशालता हृदय में फैल जाती है। हृदय कितना महान हो जाता है और सारा संसार कैसे अपना ही लगे। उस विशालता का आनन्द उठाईये। तद्रूपता का नहीं, लेकिन विशालता का। किस तरह से दोनों हाथ फैला 21 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-21.txt कर के, ये प्रेम का सागर सारे संसार में अनेक वर्षों से महक रहा है, और उसी की सुगन्ध हम ही है। ये सोच कर के उसका आनन्द लें। अपनी क्षुद्रता को तोड़ें। अपने छोटेपन को तोड़ कर पार हो जाने से सब नहीं होता है । पार तो हो ही गये हैं। लेकिन अभी चक्र क्यों पकड़ गये है? क्योंकि आप क्षुद्र हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ हैं, कहीं कुछ। अभी आप डरते हैं और किसी गुरु झूठ से हम दूर के पास जरूर जाते। तो पाईये वहाँ को ! भागे, तभी सत्य हमारे ऊपर आयेगा। हम झूठ को माने हुये हैं कभी सत्य नहीं आ सकता। सतर्क रहें और समन्वय हर चीज़ का करें। सब चीज़ की ओर समानत्व से देखें। समानत्व, ये शब्द देखना चाहिये कि तत्त्वत: चीज़ क्या है? तत्त्वत: जो कुछ हितकारी है, जो वाइब्रेटिंग है वो तत् । ऊपर का जो कुछ है वो व्यर्थ है। इन विचारों से चलें। अपने मन की सफ़ाई करें। धीरे-धीरे आप देखिये। रोज के व्यवहार में आप पीछे हट कर के सोचिये कि क्या मैं ये सहजयोग में कर रहा हूँ या असहज में? फौरन पता हो जायेगा। कोई मुश्किल काम नहीं। आप की तो एक एक उँगली सहज घूमनी चाहिये। आप की बाल की रेखायें भी जरा सी बदलती है वो भी सहज होनी चाहिये। हर एक चीज़ में सहज सा कंपन होना चाहिये। हर चीज़ में सहज ही का आवरण खुलता जाना चाहिये। ऐसा जीवन जब बनेगा, ऐसे ही विशेष तरह के मेरे बच्चे होंगे, तभी मैं कृतार्थ हूँ। क्या मेरे जीवन काल में ये हो सकेगा? आप चाहें तो क्षण में हो सकता है और नहीं चाहे तो नहीं । इसलिये माँ भी आपके सामने हार ही बैठती है। भगवान भी आपके सामने झोली फैलाता है। क्योंकि इसकी स्वतंत्रता जो आपको दे चुके हैं। दी हयी चीज़ ली नहीं जाती। और ले कर के भी क्या करेंगे? आपको पूर्ण स्वतंत्रता है। आप जब चाहे आये और जब चाहे जाये। जो करे सो करे। इसका कोई बंधन नहीं। तुम्हे किसी चीज़ का बंधन नहीं। किसी भी चीज़ का बंधन नहीं है । आपका , अपने विवेक का बंधन अपने ऊपर डालिये। तो आपका विवेक जागृत होगा। अपने समझदारी का बंधन अपने उपर डालिये । अपनी विशालता का बंधन अपने ऊपर डालिये। अपनी महानता का बंधन अपने ऊपर डालिये। जिसे की आप महान हो। और वही अलंकार आप को सँवारें, उसी से आप सौंदर्य में उतरें, उसी से सारा संसार देखें । कहे कि अहाहा , ये क्या एक ज्योति पता नहीं कहाँ से आयीं| इसको किसने दिया ? उस पे आपके माँ का भी नाम होगा। नहीं तो कौन जानेगा? हमारे सहजयोग में सबसे बड़ी बात जो है, वो ये है, सारे धर्मों का अर्थ सहजयोग से होता है। ये बहुत बड़ी चीज़ है। आप कोई भी धर्म की पुस्तक पढ़े, और उस को आप सहजयोग से समचर लोगों को बतायें तो लोग हैरान हो जायेंगे कि अरे इसका अर्थ ये था! ख्रिश्चन लोगों को मैं जब बताती हूँ, तो कहने लगे, माँ, तुम तो, ये तो बायबल में मुसलमान कहते हैं कि कुरान आप कह रही हैं। खलील जिब्रान आप कह रही हैं। बिल्कुल खलील जिब्रान ही बोल रहे हैं। ये नहीं समझ में आता है कि माँ बोल रही थी की खलील जिब्रान बोल रहे हैं? जैन कहते हैं कि अरे, यही तो हमारे शास्त्रों में लिखा है। बुद्ध कहते हैं कि यही सब हमारे शास्त्रों में लिखा है। लेकिन उसका प्रत्यक्ष हम यहाँ दे रहे हैं। हैं। | उसे लीजिये। आप उसको अपनाईये और दूसरों को भी दिखाईये। 22 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-22.txt क. रयम आपका पुनरूद्धार होने की महान संधि इस जनम में आपको मिली है और आपको पता है यही उत्क्रांति का आखरी टप्पा है। अब आप लोग अपने मन को बाजू में रखें। क्योंकि अगर आप मन के व्यापार में रहेंगे तो उसके पार नहीं जा सकते| सहजयोग की प्रगति मन का काम रुकने पर ही होगी | फिर आप स्वयं को पहचान सकेंगे। प.पू.श्रीमाताजी, कोलकाता, अप्रैल ९५ प्रकाशक + निर्मल ट्रैन्सफोर्मेशन प्रा. लि. प्लॉट नं.१०, भाग्यचिंतामणी हाऊसिंग सोसाइटी, पौड रोड, कोथरुड, पुणे - ४११ ०३८. फोन : ०२०-६५२२६०३१, ६५२२६०३२, e-mail : sale@nitl.co.in, website : www.nitl.co.in 2016_Chaitanya_Lehari_H_VI.pdf-page-23.txt दिवाली का मतलब ही ये है, कि हम जैसे बाहर दिये लगाते हैं वैसे ही हम सब के अन्द२ भी कौ प्रज्वलित होने चाहिये। आपको मालूम है, कि इस अंध:कार के माहौल में आप सब प्रकाश हो, दिये हो। आपलोगों को प्रकाश फैलानी है। प२ अग२ आपके अन्द२ ही प्रकाश कम है, तौ आप बाह२ के लौगों को कैसे प्रकाश दे सकेंगे? इसके बारे में औचिये। २हजयोगियों ने सवीप्रथम ये ध्यान में २२खना है, कि अपने अन्द२ का प्रकाश जीगृत२२खो। प. पू.श्रीमाताजी, दिल्ली, १० नवंब२ २००७ नभ]